________________
अपना दर्पणः अपना बिम्ब
जीना बहुत कम जानता है। हालांकि हम अतीत और भविष्य से कटकर जी नहीं सकते । अतीत और भविष्य को भी जीना होता है। अतीत की स्मृति
और भविष्य की कल्पना-दोनों का महत्त्व है किन्तु अनावश्यक स्मृति और अनावश्यक कल्पना न हो, यह आवश्यक है । जो व्यक्ति वर्तमान में जीना सीख लेता है, वह अतीत और भविष्य में अनावश्यक नहीं उलझता । वर्तमान में जीने का अभ्यास सफलता के लिए बहुत आवश्यक है ।
भावक्रिया का तीसरा आयाम है-जो भी काम करें, जानते हुए करें। आहार करें तो जानते हुए करें, आहार करना आहारयोग बन जाए। चलें तो जानते हुए चलें, चलना गमनयोग बन जाए । बोलें तो संयम- पूर्वक बोलें, विवेक पूर्वक बोलें । बोलना भी वाक्योग बन जाए । दुःख और चंचलता
महर्षि पंतजलि ने एक महत्त्वपूर्ण बात लिखी है-चंचलता के साथ चार चीजें आती हैं-दुःख, दौर्मनस्य, अंगमेजयत्व और श्वास-प्रश्वास। वह दुःख ज्यादा भोगेगा, जो चंचल होगा । जो भावक्रिया करना नहीं जानता, वह दुःख ज्यादा भोगता है । जिसमें जितनी ज्यादा चंचलता है, उसमें उतनी ही ज्यादा पीड़ा की अनुभूति होगी । जिसमें जितनी ज्यादा समाधि और एकाग्रता है, उसमें उतनी ही पीड़ा कम हो जाएगी । पीड़ा होती है संवेदना के आधार पर। चोट लगने से पीड़ा नहीं होती । पैर में कांटा चुभा । कांटा चुभते ही हमारे ज्ञान-तंतु उस संदेश को लेकर मस्तिष्क तक जाएंगे । मस्तिष्क के संवेदनाकेन्द्र में जब यह सूचना पहुंचेगी तब पीड़ा होगी । फिर कर्म-तंतुओं को निर्देश मिलेगा-पीड़ा को मिटाओ । अंगुली उठेगी, कांटा निकलेगा, पीड़ा शान्त हो जाएगी । यदि हम उस बात को मस्तिष्क तक न पहुंचने दें तो कोई पीडा नहीं होगी, कोई कष्ट नहीं होगा । पीड़ा होती है चंचलता के साथ । यदि बीच में ही उसे रोक दें तो कोई पीड़ा नहीं होगी । दुःख होता है विक्षेप के साथ, चंचलता और असमाधि के साथ । यदि विक्षेप को मिटा दें तो दुःख नहीं होगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org