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चैतन्यकेन्द्र प्रेक्षा - (9)
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के साथ नहीं है । उसका संबंध है आंतरिक चेतना के साथ, वृत्तियों के साथ । जब तक उनका परिष्कार नहीं होता, चरित्र का परिष्कार नहीं हो सकता । इसका अर्थ है - जब तक चैतन्य के स्रोतों का परिष्कार नहीं होता तब तक समस्या का समाधान नहीं हो सकता।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । वह समाज में जीता है। उसमें प्रतिदिन कितने भावात्मक परिवर्तन होते रहते हैं। कभी हर्ष और कभी शोक, कभी घृणा और कभी भय, कभी प्यार और कभी क्रोध - ये सारे भाव प्रगट होते रहते हैं। इन पर नियंत्रण नहीं होगा तो चरित्र की बात कैसे आ पाएगी ? नियंत्रण आता है भीतर से । उसका बाहरी स्टेशन है चैतन्य केन्द्र । प्रेक्षाध्यान की भाषा में उसे कहा जाता है-ज्योति केन्द्र और दर्शन केन्द्र । शरीरशास्त्र की भाषा है-पिनियल और पिच्यूटरी गलैण्ड । ये वे केन्द्र हैं, जिनका उपयोग चरित्र परिवर्तन के लिए हो सकता है । पिनियल ग्लेण्ड भावों और आवेगों पर नियंत्रण करता है। हम इस नियंत्रक केन्द्र का प्रयोग करें । इससे अंतश्चेतना के परिष्कार की बात भी समझ में आएगी और चैतन्यकेन्द्र प्रेक्षा की उपयोगिता भी स्पष्ट होगी।
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