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चैतन्यकेन्द्र प्रेक्षा-(२)
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संयमो दमिता वृत्तिः, असंयमो बलक्षयः।
द्वयोरपि समाधान, जिव्हासंयम इष्यते।। जिव्हा-संयम और ब्रह्मचर्य
जीभ मारने वाली भी है और तारने वाली भी है। जीभ के कारण बड़े से बड़ा कल्याण और बड़े से बड़ा अनिष्ट होता है। जितनी साधना की पद्धतियां हैं, उनमें जीभ को चक्र शायद किसी ने भी नहीं माना है। हठ योग में छह या सात चक्र माने गए हैं पर जीभ को चक्र नहीं माना गया। प्रेक्षाध्यान की पद्धति में जीभ को महत्त्वपूर्ण चतैन्य केन्द्र माना गया है और उसका नाम रखा गया है-ब्रह्म केन्द्र ।
जीभ के साथ ब्रह्मचर्य और संयम का बहुत गहरा संबंध है। ब्रह्मचर्य का एक उपाय है वस्तिसंयम । यह शारीरिक रक्षा से जुड़ा हुआ है। जो शील की नव बाड़ है, वह ब्रह्मचर्य के बाधक निमित्तों से बचाव का पथ है। वस्ति संयम अच्छा है किन्तु जब तक मानसिक एवं भावात्मक संयम नहीं होता तब तक ब्रह्मचर्य का जो विकास होना चाहिए, वह नहीं हो पाता। उस विकास के लिए मन और भाव की पवित्रता बहुत आवश्यक है। व्यक्ति वस्ति-संयम करता है किन्तु उसका मन वासना की ओर दौड़ता है तो प्रतिभा का विकास नहीं हो सकता। प्रज्ञा जागरण की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती । वही व्यक्ति सत्य की खोज कर सकता है, नियमों की खोज में आगे बढ़ सकता है, जिसका अपनी जीभ पर संयम हो गया है। जिव्हा-संयमः अनेक अर्थ
शरीरशास्त्रीय दृष्टि से जीभ को ऋण विद्युत् (नेगेटिव) माना गया है और मस्तिष्क को धन (पोजिटिव) विद्युत् माना गया है । जीभ को थोड़ा ऊंचा करें तो मस्तिष्क की शक्ति का आकर्षण शुरू हो जाएगा। एक मुद्रा का विकास किया गया खेचरी मुद्रा-जीभ को मोड़कर तालु पर ले जाना । अनुपम और आंतरिक ब्रह्मचर्य की साधना का सूत्र है खेचरी मुद्रा। मन कितना भी चंचल
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