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अपना दर्पणः अपना बिम्ब
ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया जाए तो आध्यात्मिकता या आत्म-तत्त्व की अतिवादी धारणा ने शरीर का सही मूल्यांकन नहीं होने दिया । भेद - विज्ञान के दृष्टिकोण ने आत्मा और शरीर के भेद को जानने की साधना दी, किन्तु उन दोनों के योग से होने वाले लाभांशों की उपेक्षा की गई । शरीरधारी मनुष्य का ज्ञान केवल आत्मा से संबद्ध नहीं होता। वह आत्मा और शरीर - दोनों से सम्बन्ध रखता है। आचार्य मलयगिरी ने इस सत्य को बहुत अच्छी तरह अभिव्यक्ति दी है। उन्होंने लिखा- केवलज्ञानी आत्मा और शरीर के सभी प्रदेशों से जानता - देखता है और छद्मस्थ मनुष्य अंगोपांग नामकर्म द्वारा संस्कृत- इन्द्रिय-द्वारों से जानता - देखता है।
करण : चैतन्य केन्द्र
प्राणी के पास चार करण होते हैं - मन करण, वचन करण, काय करण और कर्म करण । अशुभ करण से असुख का और शुभ करण से सुख का संवेदन होता है । ३
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श्वेताम्बर साहित्य में करण के विषय में अर्थ की परम्परा विस्मृत हो गई । दिगंबर साहित्य में उसकी अर्थ- परम्परा आज भी उपलब्ध है। उससे चक्र या चैतन्य केन्द्र के बारे में बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है ।
करण का एक अर्थ है-निर्मल चित्तधारा । उसका दूसरा अर्थ है - चित्त की निर्मलता से होने वाली शरीर, मन आदि की निर्मलता । शरीर के जिस देश में निर्मलता हो जाती है अर्थात् शरीर का जो भाग करण रूप में परिणत हो जाता है, उस भाग से अतीन्द्रिय ज्ञान होने लग जाता है । इस दृष्टि से हमारे
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भगवती ६/५ ।
भगवती ६/१४ ।
षड्खंडागम, पुस्तक १३, पृ० २६६ धवला:
ओहिणाणमणेयक्खेत्तं चेव, सव्वजीवपदेसेसु अक्कमेण खओवसमं गदेसु सरीरेगदेसेणेव बज्झट्ठावगमाणुववत्तीदो? ण, अण्णत्य करणाभावेण करणसरूवेण परिणदसरीरेगदेसेण तदवगमस्स विरोहाभावादो ।
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