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अपना दर्पणः अपना बिम्ब के नाम-निर्देश मिलते हैं । २३ जैसे- श्रीवत्स, कलश, शंख, स्वस्तिक, नन्द्यावर्त आदि। धवलाकार ने आदि शब्द के द्वारा अन्य अनेक शुभ संस्थानों का निर्देश किया है । २४ तंत्रशास्त्र और हठयोग में चक्रों के लिए कमल शब्द की प्रकल्पना मिलती है। यहां कमल शब्द का उल्लेख नहीं है किन्तु आदि शब्द के द्वारा उसका निर्देश स्वतः प्राप्त हो जाता है। आचार्य नेमिचन्द्र ने गुणप्रत्यय अवधिज्ञान को शंख आदि चिन्हों से उत्पन्न होने वाला बतलाया है । २५ टीकाकार ने आदि शब्द की व्याख्या में पद्म, वज्र, स्वस्तिक, मत्स्य, कलश आदि शब्दों का निर्देश दिया है।२६ जैन साहित्य में अष्ट मंगल की मान्यता है । २७ अनुमान किया जा सकता है कि अवधिज्ञान के शरीरगत चिन्हों और अष्ट मंगलों में कोई सांमजस्य का सूत्र रहा हो ।
शुभ संस्थान : अशुभ संस्थान
श्रीवत्स आदि शुभ संस्थान वाले चैतन्य - केन्द्र मनुष्य और पशु के नाभि के ऊपर के भाग में होते हैं। वीरसेन आचार्य का मत है कि शुभ संस्थान वाले चैतन्य-केन्द्र नीचे के भाग में नहीं होते। २८ नाभि के नीचे होने वाले
२३. षड्खंडागम, पुस्तक ६३, पृ० २६७ :
सिरिवच्छ - कलस संख सोत्थिय णंदावतादीणि संठाणाणि णादव्वाणि भवति ।
२४. वही, पृ० २६७:
एत्थ आदिसदेण अण्णेसिं पि सुहसंठाणाणं गहणं कायव्वं ।
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२५. गोमटसार, जीवकाण्ड, गा० ३७१:
भवपच्चइगो सुरणिरयाणं, तित्थेवि सव्वअंगुत्थो ।
गुणपच्चइगो णरतिरियाणं संखादिचिण्हभवो ।।
२६. वही, टीका : नाभेरुपरि शंखपद्मवज्रस्वस्तिकझषकलशादि शुभचिन्हलक्षितप्रदे श - स्थावधिज्ञानावरणवीर्यान्तराय - कर्मद्वयक्षयोपशमोत्पन्नमित्यर्थः ।
२७. ओवाइयं, सूत्र ६४ः
इमे अट्टट्ट मंगलया पुरओ अहाणपुवीए संपट्टिया, तं जहा- सोवत्थिय - सिरिवच्छ - गंदियावत्त
वद्धमाणग - भद्दासण कलस मच्छ - दप्पणया ।
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२८. षट्खंडागम, पुस्तक १३, पृ० २६७ :
एदाणि संठाणाणि तिरिक्ख-मणुस्साणं नाहीए उवरिमभागे होंति, णो हेट्टा सुहसंठाणाणमधोभागेण सह विरोहादो ।
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