________________
लेश्या : भावधारा
लेश्या : शब्द मीमांसा
लेश्या हमारी चेतना की एक रश्मि है। शब्द भी बड़ा जटिल खोजा गया-लेश्या । इस शब्द पर भी बहुत उलझनें पैदा हुई हैं । लेश्या का अर्थ किया गया है-ज्योति - रश्मि । जैसे सूरज की रश्मियां होती हैं वैसे ही हमारी चेतना की रश्मियां होती हैं । चेतना हमारे भीतर है किन्तु उसकी किरणें बाहर तक फैल जाती हैं। नंदी की चूर्णि में इस शब्द पर बहुत ध्यान दिया गया है। यह शब्द है रस्सी । रस्सी से बना लस्सी और उससे बन गया लेस्सालेश्या । एक समीकरण बन गया - रस्सी + लस्सी + लेस्सा = लेश्या । रस्सी रज्जु का भी नाम है।
भाव से है आचरण का संबंध
१४१
मन
हमारा जो आचरण है, व्यवहार है, उसका संबंध मन से नहीं है, से परे की चेतना से है। एक आदमी बहुत समझदार और चिन्तनशील है किन्तु वह प्रकृति से कुटिल है । चिन्तन का संबंध मन से है पर कुटिलता का संबंध मन से नहीं है । व्यवहार में यह आरोपण भी कर दिया जाता है - अमुक व्यक्ति का मन बहुत कुटिल है । मन न सीधा होता है न टेढा । उसका काम ही दूसरा है । यह टेढापन, यह वक्रता कहां से आती है ? यह वक्रता भाव से पैदा हाती है । एक आदमी क्रूर है, नृशंस है। प्रश्न होता है- यह नृशंसता और क्रूरता कहां से पैदा हुई ? यह मन से नहीं, भाव से आती है।
कृष्ण लेश्या का एक परिणाम बतलाया गया है - नृशंसता । इसी प्रकार जो व्यक्ति पांच आश्रवों में प्रवृत्त है, तीव्र आरंभ में संलग्न है, षट्काय में अविरत है, क्षुद्र है, अजितेन्द्रिय है, बिना विचारे काम करने वाला है, वह कृष्ण लेश्या में परिणत होता है । प्रमत्तता, आसक्ति, रस- लोलुपता, मूर्च्छा आदि से युक्त जो प्रवृत्ति है, वह मन का काम नहीं है। वह भावना के स्तर पर घटित होने वाली क्रिया है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org