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जैन साहित्य में अतीन्द्रिय चेतना के स्रोत
चैतन्य- केन्द्रों के संस्थान अशुभ होते हैं, गिरगिट आदि अशुभ आकार वाले होते हैं । आचार्य वीरसेन के अनुसार इस विषय का षट्खंडागम में सूत्र नहीं है किन्तु यह विषय उन्हें गुरु-परम्परा से उपलब्ध है २६
चैतन्य- केन्द्रों के संस्थानों में परिवर्तन भी हो सकता है। सम्यक्त्व उपलब्ध होने पर नाभि से नीचे के अशुभ संस्थान मिट जाते हैं, नाभि से ऊपर के शुभ संस्थान निर्मित हो जाते हैं। इसी प्रकार सम्यक्दृष्टि के मिथ्यात्व अवस्था में चले जाने पर नाभि से ऊपर के शुभ संस्थान मिट जाते हैं और नाभि के नीचे के अशुभ संस्थान निर्मित हो जाते हैं । ३०
महत्त्वपूर्ण विषय
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चैतन्य- केन्द्र का विषय साधना की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। जैनदर्शन अनुसार आत्मा पूरे शरीर में व्याप्त होती है। किन्तु उनके प्रदेशों या चैतन्य की सघनता एक जैसी नहीं होती। शरीर के कुछ भागों में चैतन्य सघन होता है और कुछ भागों में विरल । अतीन्द्रियज्ञान, शक्ति - विकास और आनंद की अनुभूति के लिए उन सघन क्षेत्रों की सक्रियता हमारे लिए बहुत अर्थपूर्ण है। इस दृष्टि से यह विषय बहुत मननीय है ।
२६. षडूखंडागम, पुस्तक १३, पृ० २६८ :
तिरिक्खमणुस्सविहंगणाणीणं नाहीए हेट्टा सरडादि - असुहसंठाणाणिं होंति चि गुरुदेवसो, ण सुतमत्थि ।
३०. वही, पुस्तक १३ पृ० २६८ :
विहंगणाणीणमोहिणाणे सम्मत्तादिफलेण समुप्पण्णे सरडादिअसुहसंठाणाणि फिट्टिदूण णाहीए उवरि संखादिसुहसंठाणाणि होति चि घेतव्वं । एवमोहिणाणपच्छायदविहंगणाणीणं पिसुहठाणाणि फिट्टिदूणं असुहसंठाणाणि होति चि घेतव्वं ।
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