________________
१२०
अपना दर्पणः अपना बिम्ब अपना विकास करना चाहता है, उसे ऊर्ध्वलोक में ज्यादा रहना होता है । जो व्यक्ति ऊंचे लोक में नहीं रहता, वह ऊंचा काम नहीं कर सकता । ज्यादा स्वार्थी वृत्ति-अपना स्वार्थ साधना, धोखाधड़ी करना, दूसरों के साथ वंचना करना-ये सब वृत्तियां नीचे लोक की चेतना से पनपती हैं । चेतना बार बार नीचे की ओर जाती है तो व्यक्ति में स्वार्थ, घृणा आदि वृत्तियां विस्तार पाती हैं। ऐसा व्यक्ति कभी कृतज्ञ नहीं हो सकता, उपकार को याद नहीं रख सकता। जब चेतना ऊपर के केन्द्रों में रहती है, ऊंचे लोक में रहती है तब उदात्त
और परिष्कृत वृत्तियां विकसित होती हैं। महानता का मूल आधार
ऊंचे लोक में अवस्थित एक केन्द्र है-ब्रह्मकेन्द्र । मस्तिष्क के विकास का एक शीर्ष मोड़ है-ब्रह्मकेन्द्र । जिस व्यक्ति को मस्तिष्क से काम लेना है, अच्छा विचार, अच्छा चिन्तन, सृजनात्मक शक्ति, ऊंची कल्पना और योजना को कार्यरूप देना है, उसे जीभ का संयम करना होगा, खाने का संयम भी करना होगा। दिमाग की पूजा करो या पेट की पूजा करो-दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं । दो देवों की पूजा, आराधना एक साथ नहीं की जा सकती। किसी भी क्षेत्र में बड़ा काम करने के लिए अपनी चेतना को ऊर्ध्वमुखी रखना होगा। यह ऊर्ध्वमुखता ही हमारी महानता का मूल आधार है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org