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शरीर प्रेक्षा
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में कुशल व्यक्ति दूसरे व्यक्ति पर सम्मोहन का प्रयोग करता है। व्यक्ति के सम्मोहित हो जाने पर निर्देशक कहता है-तुम्हारे हाथ पर अंगारा रखा हुआ है । तुम अनुभव करो तुम्हारा हाथ जल रहा है । तुम्हारे हाथ में फफोला हो गया है और सचमुच व्यक्ति के हाथ में फफोला हो जाता है । होती है बर्फ और वह देखता है अंगारा । बर्फ ठंडी है किंतु उसको हाथ में जलन का अनुभव होता है । उसके देखते-देखते हाथ में फफोला हो जाता है । यह सम्मोहन है और सम्मोहन में ऐसा होता है । सारी दुनिया में एक सम्मोहन चल रहा है । सबसे बड़ा आधिपत्य और साम्राज्य है सम्मोहन का । मोहनीय कर्म का सबसे ज्यादा सम्मोहन है । इससे ज्यादा कोई सम्मोहन है ही नहीं। यह सम्मोहन साक्षात् दर्शन में बहुत बड़ी बाधा है । जब भी देखना होता है, यह मोहनीय कर्म बीच में आ जाता है । देखना वह है, जिसमें राग-द्वेष, घृणा, भय आदि भाव बीच में न आएं । हम सीधा व्यक्ति या वस्तु को देखें। इसका नाम है दर्शन । इसके सिवाय सब कुछ सम्मोहन से जुड़ा दर्शन है, केवल दर्शन नहीं है । आदि विन्दु : अंतिम बिन्दु
केवल देखना सचमुच कठिन साधना है । उसके लिए बहुत तपना और खपना पड़ता है । लम्बी साधना के बाद देखने की शक्ति, द्रष्टा की शक्ति जागती है । द्रष्टा होना सरल बात नहीं है । द्रष्टा वह है, जो केवल देखता है । प्रश्न है-मोह बीच में है तो व्यक्ति द्रष्टा बनेगा कैसे ? मोह द्रष्टा बनने ही नहीं देगा। जो द्रष्टा बन गया, वह सब कुछ बन गया । द्रष्टा के लिए कोई उपदेश नहीं है । उसे न प्रवचन सुनने की जरूरत है, न साधना शिविरों में भाग लेने की जरूरत है। एक शब्द में कहें तो महावीर की साधना का सूत्र है-केवल ज्ञान, केवल दर्शन। साधना का आदि बिन्दु भी यही है और अंतिम बिन्दु भी यही है। साधना का प्रारम्भ बिन्दु है केवल ज्ञान-केवल दर्शन और
अतिम बिन्दु है केवल ज्ञान-केवल दर्शन। आदि बिन्दु और अंतिम बिन्दु के बीच कोई दूरी नहीं है।
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