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शरीर प्रेक्षा
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और दूषित जल नदी में जमने लगा और उसका असर कुओं के पानी में आ गया है। शुद्ध पानी इन रसायनों के प्रभाव से अपनी शुद्धता खो रहा है । यह जसोल, बालोतरा या पाली की ही बात नहीं है । जहां-जहां फैक्ट्रियां और कारखाने पनप रहे हैं, वहां वहां हवा, पानी और जल-सब कुछ दूषित बनते जा रहे हैं। हम इस दोष को बीच में न आने दें, पानी की शुद्धता बनी रहेगी। यही स्थिति ज्ञान के संदर्भ में है । हम मोह को बीच में न आने दें, हमारा ज्ञान शुद्धता से परिपूर्ण रहेगा । देखने की कला सीखें
देखने की कला वह है, जिसमें मोह न हो । इस कला को सीखने वाला सचमुच महान् बन जाता है । हम पहले इस कला को सीखें फिर शरीर को देखें । यदि हम दर्पण के सामने खड़े होकर शरीर को देखेंगे तो मोह और बढ़ जाएगा। इसीलिए यह कहा गया था-मुखड़ा क्या देखें दर्पण में। समझदार आदमी भी कांच के सामने खड़ा होता है तो आधा पागल बन जाता है । कभी वह मुंह को देखता है, कभी आंख और नाक को देखता है। कभी चश्मा लगाकर चेहरे को देखता है और कभी उसे उतार कर देखता है । अपने चेहरे को विभिन्न रूपों और विभिन्न कोणों से देखता रहता है । जब कांच सामने होता है तो वह पागल जैसा ही बन जाता है। सीधे दर्पण के सामने खड़े होकर देखना कोई कला नहीं है । हम पहले देखने की कला सीखें फिर चाहे दर्पण में अपना चेहरा देखें । चक्रवर्ती भरत ने भी दर्पण में शरीर को देखा था। वे आदर्श मंदिर में उसे देखते देखते ही कैवल्य को उपलब्ध हो गए। सनत्कुमार ने अपने शरीर को देखा और अंतिम बिन्दु तक पहुंच गए। जिसने देखने की कला को सीखा है और उस कला से देखता रहता है, वह साध्य तक पहुंचने में सफल हो जाता है। देखने के लिए न कांच की जरूरत है, न आंख की जरूरत है, केवल अनुभव को जगाने की जरूरत है।
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