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चैतन्यकेन्द्र प्रेक्षा (१) ___मैंने पूछा – क्यों ? कल तो मैंने तुम्हें शराब न पीने के लिए समझाया था और तुमने इस बात को स्वीकार किया था ।
व्यक्ति ने कहा - महाराज ! मैं यह मानता हूं, शराब पीना ठीक नहीं है, मुझे शराब नहीं पीनी चाहिए। लेकिन मैं जब बाजार जाता हूं, उस वातावरण को देखता हूं तो मेरे भीतर एक मांग उठती है । उस समय न पीने का विचार कहीं रह जाता है और मैं शराब पीने बैठ जाता हूं । चरित्र का स्रोत क्या है ?
शिष्य ने कहा - गुरुदेव ! आज तक मैं यह मानता था, आदमी के चरित्र का संबंध विचार से है। विचार अच्छा है तो चरित्र अच्छा होगा। विचार बुरा है तो चरित्र बुरा हो जाएगा। मेरे मन में यह संदेह पैदा हो गया है-व्यक्ति विचार के स्तर पर सब कुछ समझ लेता है, विचार अच्छा भी बन जाता है किन्तु जब भीतर से मांग उठती है, आंतरिक इच्छा प्रबल बनती है तब विचार का दरवाजा टूट जाता है। मैंने सोचा-चरित्र का स्रोत आखिर क्या है? इसका संबंध हमारी बुद्धि से है अथवा विचार-धारा से है। मैं चरित्र के मूलस्रोत को जानना चाहता हूं? ___ गुरु ने कहा - तुम्हारा प्रश्न ठीक है । जब तक चरित्र के स्रोत को नहीं समझा जाएगा तब तक चरित्र का परिवर्तन संभव नहीं बन पाएगा। चरित्र का संबंध विचार से नहीं है और विचार से है तो इतना नाजुक है कि उसे एक क्षण में तोड़ा जा सकता है । विचार काँच का महल है। काँच के मकान में बैठकर पत्थर फेकेंगे तो क्या होगा? थोड़ा सा झटका लगेगा और काँच टूट जाएगा। विचार की भी यही स्थिति है। चरित्र का स्रोत है आंतरिक वृत्तियां। चरित्र का स्रोत है कर्मशरीर । सारा सच्चरित्र या दुश्चरित्र कर्मशरीर से आ रहा
नो मतिर्नो विचारश्च, चरित्रस्रोत इष्यते । विशुद्धा चेतनान्तःस्था, चरित्रं जनयत्यसौ ।।
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