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शरीर प्रेक्षा
चिर साथी
अध्यात्म के आचार्यों ने कहा- कर्त्ता भाव को छोड़ो, कर्त्ता मत बनो, अकर्त्ता बनो । बहुत कठिन है अकर्त्ता होना । सहज जिज्ञासा होती है- एक व्यक्ति दो पैर से चलता है तो भी कर्ता बन जाता है । एक घूंट पानी पीता है तो भी कर्त्ता बन जाता है । कुछ भी क्रिया करता है तो कर्त्ता बन जाता है । वह अकर्त्ता कैसे हो सकता है? यह कथन भी बड़ा अटपटा सा लगता है - द्रष्टा बनो, देखने वाला बनो । जिस आदमी के पास आंखें हैं वह देखता है। ऐसा कोई नहीं है, जिसके पास आंखें हैं किन्तु जो दिन में न देखता हो । आजकल तो रात में भी देख लेता है । इस स्थिति में बार-बार यह क्यों कहा जा रहा है- द्रष्टा बनो, देखो । अपने शरीर को देखो । शरीर को क्या देखें? जिसमें रह रहे हैं, उसे क्या देखें ? सदा साथ रहता है हमारा शरीर । कुछ ऐसे साथी होते हैं, जो कभी साथ होते हैं, कभी बिछुड़ जाते हैं । किन्तु शरीर ऐसा साथी है, जो कभी बिछुड़ता नहीं है और बिछुड़ जाता है तो फिर कभी मिलता ही नहीं है। यह शरीर, जो चिरकाल से हमारा साथी बना हुआ है और जिसे निरन्तर अपनी आंखों से देखते रहते हैं, उसे देखने की बात क्यों कही जा रही है ?
महत्त्वपूर्ण प्रश्न
वस्तुतः हम देखना जानते ही नहीं हैं। आंखों से देखना एक बात है और द्रष्टा होना अलग बात है । लोग बहुत कुछ जानते हैं, कला और साहित्य को जानते हैं, भाषा और विज्ञान को जानते हैं पर देखना बहुत कम जानते
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