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अपना दर्पणः अपना बिम्ब
हैं । बहुत सारी कलाओं को जानने के बाद भी देखने की कला नहीं आती। बहुत बड़ी कला है देखना । बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न है --कैसे देखें? एक व्यक्ति सामने आया । उससे हमारा वैर-विरोध चल रहा है । हम उसको देख रहे हैं । प्रश्न होता है - क्या हम उसे ही देख रहे हैं? हमने उस व्यक्ति को बिल्कुल नहीं देखा । हमारे मन में उसके प्रति एक धारणा जमी हुई है । हम धारणा की आंख से उसे देख रहे हैं । हम आंखों से देख रहे हैं पर बीच में एक और तत्त्व आ गया है। वह तत्त्व है अप्रियता का भाव । हमने उस आदमी को नहीं देखा, एक विरोधी या दुश्मन को देखा । कोई प्रिय व्यक्ति सामने आया। हमने उसको देखा। क्या उसको ही देखा ? उस व्यक्ति और हमारी दृष्टि के मध्य एक भाव आ गया - प्रियता का भाव । हमने प्रियता को देखा, उसे नहीं देखा ।
मोहित है दृष्टि
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वस्तुतः हम किसी व्यक्ति को साक्षात् देख ही नहीं पाते हैं । कभी प्रियता का भाव बीच में आ जाता है और कभी अप्रियता का भाव । कर्मशास्त्रीय भाषा है-देखना ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का काम है किन्तु हम ज्ञानावरण और दर्शनावरण का उपयोग ही नहीं करते । बीच में मोहनीय कर्म आ जाता है । वह खीर में मूसल की भांति आ टपकता है । बिन चाहे, बिन बुलाए अनाहूत ही आ पहुंचता है। मोह आगे आ जाता है, देखना - जानना पर्दे के पीछे चला जाता है। हम देखना नहीं जानते, मोह करना जानते हैं । हमारी दृष्टि मोह की दृष्टि बन गई है। इसे मिथ्या दृष्टिकोण कह दें या कांक्षा मोहनीय कह दें । यह हमारी दृष्टि को कभी प्रियता के द्वारा मोहित कर देता है और कभी अप्रियता के द्वारा ।
बाधा है सम्मोहन
हम देखते नहीं हैं, सम्मोहित होते हैं । देखना वहां है जहां सम्मोहन नहीं है । सम्मोहन के प्रयोग बहुत चलते हैं । सम्मोहन (हिप्नोटिज्म) विद्या
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