________________
८०
अपना दर्पणः अपना बिम्ब इसका अर्थ है-उसने यह साफ-साफ जान लिया कि यह मेरी आत्मा का स्वरूप है और यह मेरे चित्त का दोष है । चित्त का दोष कहां काम कर रहा है और आत्मा का स्वरूप कहां काम कर रहा है, यह बात जिसके बहुत स्पष्ट हो जाती है, वह है अन्तरात्मा । हम दूसरों के कारण बहुत सुखी और बहुत दुःखी बनते हैं । दूसरों के कारण दुःखी होने या दुःख का संवेदन करने में खतरा है ही किन्तु दूसरों के कारण सुखी होना या सुख का संवेदन करना भी खतरे से खाली नहीं है । जहां हम सुख और दुःख का कारण दूसरों को मान लेते हैं वहां आत्मा का स्पर्श नहीं होता । जब तक अपनी आत्मा या पमात्मा का स्पर्श नहीं होता तब तक व्यक्ति केवल दूसरों के भरोसे रहता है और उसमें खतरे आते रहते हैं । भरोसा स्वयं का ___ महाकवि पंडित जगन्नाथ दिल्ली के दरबार में बहुत मान्य थे। ऐसा माना जाता था, जो कुछ होता है, वह सब उनके इशारे पर ही होता है। इतने शक्तिशाली होने पर भी महाकवि दूसरों के भरोसे ही थे। समय ने पलटा खाया, महाकवि को देश-निकाला दे दिया गया। दूसरों का भरोसा एक समस्या बन गया । महाकवि को हिन्दुस्तान छोड़कर बाहर जाना पड़ा । नेपाल नरेश ने उनका अच्छा स्वागत किया। कहा जाता है, महीने का एक लाख रुपया वेतन दिया । उस समय रुपये का कितना मूल्य था ! इतना सम्मान मिलने पर भी उनका मानस प्रभावित नहीं हुआ । उन्हें इस सचाई का अनुभव हो गया, दूसरों के भरोसे रहने से क्या होता है । किसी ने पूछा-कविराज कैसा चल रहा है ? क्या आप संतुष्ट हैं?
पंडित जगन्नाथ बोल उठेदिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा, मनोरथान् पूरयितुं समर्थ : । नेपालभूपैः प्रतिदीयमानं, शाकाय वा स्यात् लवणाय वा स्यात् ।। दिल्ली का ईश्वर या परमात्मा ही मेरे मनोरथों को पूरा सकता है। नेपाल
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org