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अंतर्यात्रा अंतरात्मा : अन्तर्यात्रा
तीन प्रकार की आत्माएं हैं - बहिरात्मा , अन्तरात्मा और परमात्मा।
अन्तरात्मा होने का अर्थ है - अन्तर्यात्रा में प्रवेश । जो व्यक्ति अंतरात्मा हो जाता है, उसकी यात्रा भी अन्तर्यात्रा बन जाती है। बहिरात्मा वह होता है, जो शरीर और पदार्थों में अटका रहता है, स्थूल बातों की परिक्रमा करता रहता है । बहिरात्मा सदा दूसरों को देखता रहता है। वह आलोचना सुनकर क्षुब्ध हो जाता है, प्रशंसा सुनकर खुश हो जाता है। दूसरों द्वारा किए गए व्यवहार के प्रति प्रतिक्रियाओं के जाल बुनता रहता है। उसने मेरा ऐसा कर दिया, उसने मेरा वैसा कर दिया । ये सारी बातें मिथ्या दृष्टिकोण हैं । सम्यग् दर्शन का अर्थ
हमने सम्यक्त्व और मिथ्यात्व को शब्दों की सीमा में इतना बांध दिया कि मूल आत्मा को छूने में कठिनाई हो रही है । कहा गया जो नव तत्त्व को जानता है, देव, गुरु और धर्म को जानता है, वह है सम्यग् दृष्टि । जो इन सबको नहीं जानता, वह है मिथ्यादृष्टि । यह बात सही है, पर इसे भी स्थूल बना दिया गया । वस्तुतः सम्यग् दर्शन का अर्थ है-निरन्तर आत्मा में रहना, आत्मा में समाधान पाना । जहां दूसरे से समाधान पाने की बात होगी वहां मिथ्या दर्शन ही होगा । जो व्यक्ति आत्म-कर्तृत्व का प्रयोग नहीं करता, वह सम्यग्दर्शी कैसे हो सकता है? हम केवल इस पाठ को रटें-अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य-तो यह सम्यग् दर्शन नहीं हो सकता । इस व्यवहार की भूमिका से ऊपर उठकर यह प्रयोग करें - सुख-दुःख का कर्ता मैं स्वयं हूं। यदि यह प्रयोग या अनुभव नहीं होता है तो केवल तोता-रटन जैसी बात हो जाएगी । इस अनुभूति के लिए व्यवहार से हटकर भीतर जाना होगा, अन्तर्यात्रा करनी होगी । अन्तर्यात्रा के बिना इसकी अनुभूति संभव नहीं है। क्ति का दोष : आत्मा का स्वरूप
सम्यग् दर्शन का अर्थ है अन्तरात्मा होना । व्यक्ति अंतरात्मा हो गया,
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