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अपना दर्पणः अपना बिम्ब चाहिए। यदि बिना वाहन यात्रा करेगा तो वह थक जाएगा। बाहर की यात्रा बहुत लम्बी नहीं है किन्तु भीतर में एक रक्तसंचार प्रणाली की यात्रा भी इतनी लम्बी है, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। उसकी यात्रा के लिए वाहन अपेक्षित होता है और वह वाहन है श्वास। यह वाहन व्यक्ति को सब जगह पहुंचा देता है । स्वयं न जाए तो आगे दूसरा तैयार है, जो उससे जुड़ा हुआ है । वह है प्राण । प्राण एक मिनट में ही इतनी बड़ी यात्रा करा सकता है । इसीलिए कहा गया-यत्र पवनस्तत्र मनः, यत्र मनस्तत्र पवनः' -जहां मन वहां प्राण और जहां प्राण वहां मन । पर यह यात्रा तभी संभव है जब कुछ भार हल्का हो। भीतर की यात्रा : अन्तरिक्ष यात्रा
भीतर की यात्रा अंतरिक्ष की यात्रा के समान है । अंतरिक्ष की यात्रा करें और कुछ भार ले जाएं, यह संभव नहीं है । भार के साथ अंतरिक्ष की यात्रा नहीं की जा सकती। भीतर का अंतरिक्ष हो या बाहर का अंतरिक्ष, यदि उसकी यात्रा करनी है तो निर्भार होना होगा । भार है शरीर का, भार है इन्द्रियों का । इन्द्रियों के द्वारा बहुत भार ढोया जा रहा है इन्द्रियां इतना भारी भार उठाकर लाती हैं, इतने भारी-भारी रसों को लाती हैं कि बेचारी
चेतना उसके नीचे दबती चली जाती है। जब हमारे पर इतना भार लदा हुआ है, हम भीतर की यात्रा कैसे कर पाएंगे? हम पहले भार को छोड़ें। शरीर के प्रति, इन्द्रियों के प्रति, जो अनंत भार है, उस भार को छोडें। इस भार से मुक्त होने का उपाय है-इन्द्रिय प्रतिसंलीनता-इन्द्रियों के बाह्य व्यापार का वर्जन । जितनी इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता बढ़ेगी उतना ही भार कम होता चला जाएगा । हम बिलकुल निर्भार बन जाएंगे, हल्के हो जाएंगे । जब हल्कापन आएगा तब अंतर्यात्रा शुरू हो पाएगी । अंतर्यात्रा के लिए सवारी करनी है श्वास की, किन्तु भार की जो गठरी है, उसे उतार कर नीचे रख देना है। भार से मुक्त होकर श्वास के वाहन पर चढ़ना है । हमारी यह निर्भार यात्रा
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