________________
६४
अपना दर्पणः अपना बिम्ब महत्त्वपूर्ण सूत्र
यह सत्य है-जहां समाज है वहां दूसरों को देखे बिना काम नहीं चलता। किन्तु इससे भी बड़ा सच है-जो व्यक्ति अपने प्रति जागरूक नहीं होता, वह दसरों के साथ कभी अच्छा व्यवहार नहीं कर सकता। जो अपने आपको देखने की जितनी अधिक साधना करेगा, वह मानवीय व्यवहार के प्रति उतना ही अधिक जागरुक बनेगा । बड़े बड़े महापुरुषों ने प्राणीमात्र के साथ जो तादात्म्य जोड़ा, क्या वह दूसरों को देखने से संभव बना ? सामुदायिक जीवन का प्रश्न हो या इन्द्रियों के अधीन ज्ञान की सीमा का प्रश्न । हम इस दिशा में बहुत आगे बढ़ सकते हैं। वस्तुतः ज्ञान का उन्नयन करने वाला और शान्तिपूर्ण एवं सामुदायिक जीवन जीने का महत्त्वपूर्ण सूत्र है-अपने द्वारा अपना दर्शन। आत्म-दर्शन : शरीर-दर्शन
आचार्य सिद्धसेन ने लिखास्वशरीरमनोवस्थाः, पश्यतः स्वेन चक्षुषा । यथैवायं भवस्तद्वद्, अतीतानागतावपि ।।
हम अपने शरीर की अवस्थाओं को देखें, मन की अवस्थाओं को देखें। अपने ज्ञान चक्षुओं द्वारा इन सभी अवस्था को देखना, इसका अर्थ है-अपने द्वारा अपना दर्शन । देखने वाला है हमारा ज्ञान चक्षु । शरीर हमारी आत्मा का एक अंग है। इसे आत्मा से अलग नहीं किया जा सकता । मन भी आत्मा का अंग है। एक व्यक्ति के शरीर में प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहे हैं । हम ध्यान में बैठकर दिनभर शरीर में घटित होने वाली अवस्थाओं को देखें । शरीर में हजारों प्रकार के परिवर्तन होते हैं । एक सामान्य व्यक्ति उनकी कल्पना नहीं कर सकता। आठ कर्म हैं और आठ कर्मों की सैकड़ों प्रकृतियां होती हैं । वे प्रकृतियां प्रतिक्षण अपना विपाक कर रही हैं । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अंतराय-इन सब प्रकृतियों का अपना-अपना विपाक हो रहा है । इनका एक पूरा तंत्र शरीर के भीतर चल रहा है । उन सारी अवस्थाओं को जान चक्षु से देखना अपने द्वारा अपना दर्शन है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org