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आसन
मनुष्य ने जिस दिन यह जाना-जगत् द्वन्द्वात्मक है। इसमें सुख- दुःख, लाभ-अलाभ आदि द्वन्द्व हैं। द्वन्द्वातीत स्थिति या समता में जाया जा सकता है। उसने द्वन्द्वातीत स्थिति में जाने की खोज शुरू की । उस खोज में जो उपाय प्राप्त किए, उनमें एक उपाय है-कायक्लेश या कायसिद्धि। आसन काय-सिद्धि का एक अंग है । समता की प्राप्ति के लिए कायसिद्धि और कायसिद्धि के लिए आसन के प्रयोग किये जाते हैं।
मूलाराधना में बाहय तप के पांच परिणाम बताए हैं। उनमें एक परिणाम है सुख-दुःख में सम रहने की स्थिति। पतंजलि ने भी इसका लाभ बताया है-द्वन्द्वों के अभिघात से बचाव-ततो द्वन्द्वाभिघातः । आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से मूलतः आसनों का विकास धार्मिक दृष्टि से किया गया । उसका विकास होते-होते अनेक तत्व जुड़ गए। शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उनका विकास किया गया ।
आसन और आहार
आसन के साथ आहार का गहरा सम्बन्ध है । आहार विजय होने पर ही आसन सिद्ध हो सकता है । जैन साधना पद्धति में पहले आहार विजय का विवेक-अनशन, ऊनोदरी, अभिग्रह और रसपरित्याग की बात कही गई है । इसके बाद आसन-सिद्धि की बात बतलाई गई है। अतिमात्रा में खाने वाला आसन को सिद्ध नहीं कर सकता । आसन के साथ तामसिक भोजन की वर्जना की जाती है । आसन-सिद्धि के लिए आहार-सिद्धि की अनिवार्यता
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