________________
आसन
५७
शारीरिक अवस्था, देश, काल, रोग आदि अनेक स्थितियों को ध्यान में रखकर ही आसन का चुनाव करना चाहिए ।
आसन का समय
आसनों के लिए समय का निर्धारण सबके लिए समान नहीं होता। शक्ति और शारीरिक अवस्था के आधार पर ही उनका निर्धारण किया जा सकता है । सामान्यतया बीस मिनट या तीस मिनट आसन का प्रयोग पर्याप्त है । यह एक साथ भी किया जा सकता है या कई खंडों में भी किया जा सकता है । कभी पांच मिनट, कभी दस मिनट, इस प्रकार अलग-अलग भी किया जा सकता है । उदाहरणस्वरूप कभी हाथ का, कभी गर्दन का, कभी पैर का आसन करना चाहिए ।
आसन की विधि
जैन योग के अनुसार आसन करने की विधि यह है कि पहले लेटकर, फिर बैठकर और अंत में खडे होकर आसन किये जाते हैं । लेटने की अपेक्षा बैठने में और बैठने की अपेक्षा खड़े रहने में शक्ति अधिक लगानी पड़ती है। जिन आसनों में कम शक्ति लगानी पड़े, उन आसनों को दुर्बल व्यक्ति भी कर सकता है । लेटकर किये जाने वाले आसन ( उत्तानशयन, पार्श्वशयन आदि) बहुत उपयोगी होते हैं । वे सरल हैं और हर अवस्था में किए जा सकते हैं।
रीढ की हड्डी का लचीलापन और आसन
मनुष्य की रीढ की हड्डी अनेक बातों के लिए जिम्मेदार है। स्वास्थ्य का मूल है रीढ की हड्डी का लचीला होना । शक्ति का मूल है रीढ़ की हड्डी का लचीला होना । रीढ़ की हड्डी जैसे - जैसे कठोर होती जाती है, स्वास्थ्य भी बिगड़ता जाता है, आयु घटती जाती है और शक्तियां क्षीण होती जाती हैं। रीढ की हड्डी के लचीलेपन के बिना दीर्घ आयुष्य, अच्छे स्वास्थ्य और प्रचुर शक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org