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अपना दर्पणः अपना बिम्ब यह अनुभूति करें-'यह भी आत्मा है, परमात्मा है । जैसी आत्मा मेरे में है, वैसी ही आत्मा इसमें है । जब यह अनुभूति पुष्ट होती है तब व्यक्ति की धारणा बदल जाती है। जब हमारी अनुभूति बाहरी स्तर पर चलती है तब सामने वाले व्यक्ति के विषय में अनेक विकल्प उठते हैं-यह अच्छा है, यह बुरा है, यह काला है, यह ठग है, यह मूर्ख है आदि-आदि । इस स्तर पर जो व्यवहार होगा, वह भिन्न होगा, वह आत्म-परक नहीं होगा । मैत्री का अर्थ है-हम सब प्राणियों में उसी परम सत्ता का अनुभव करें, जो सत्ता हमारे भीतर विराजमान है । आत्म-तुला का अनुभव ही यथार्थ रूप में मैत्री है । ध्यान का परिवार
हम प्रतिक्रिया से मुक्त रहने का अभ्यास करें, मैत्री का विकास करें। इससे प्रेक्षाध्यान की साधना में बहुत बड़ा सहयोग मिलता है । कोरा ध्यान अकेला रहता है । ध्यान का भी एक परिवार है। एक घर के मुखिया का अपना परिवार होता है । चंद्रमा का अपना परिवार है, सूरज का अपना परिवार है । हम सौरमण्डल के किसी भी तारा को देखें, सबका अपना अपना परिवार है । आचार्य का भी अपना परिवार होता है । शिष्य मंडली उसका परिवार है । कुछ लोग शिकायत करते हैं-हमने ध्यान किया लेकिन कुछ हुआ नहीं । हम इस बात पर ध्यान दें-कोरा ध्यान किया और ध्यान के परिवार की उपेक्षा की तो ध्यान का वांछित परिणाम नहीं आएगा । हम केवल ध्यान को ही न अपनाएं, ध्यान के परिवार को भी साथ में अपनाएं । भावक्रिया, प्रतिक्रिया-विरति, मैत्री, मिताहार और मित भाषण-यह सब ध्यान का परिवार है । हम ध्यान के साथ ध्यान के इस परिवार को अपनाएं तो परिणाम अच्छा आएगा, जीवन में बदलाव का अनुभव होगा, ध्यान के प्रति अधिक आकर्षण और आनंद का अनुभव हो सकेगा ।
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