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मिताहार
डाला है । पश्चिम में इस पद्धति का व्यापक विकास हुआ है । अमेरिका के एक प्रख्यात चिकित्सक हैं डेल्टन । वे उपवास पद्धति के द्वारा रोगों की चिकित्सा करते हैं । उन्होंने भोजन और उपवास के बारे में बहुत अनुसंधान किए हैं । डा. डेल्टन रोगी को दस दिन का, बीस-तीस और पचास दिन तक का उपवास कराते हैं। उन्होंने इस पद्धति से अनेक बीमारियों के सफल इलाज किए हैं। प्राचीन साहित्य में भी उपवास चिकित्सा का वर्णन मिलता है। 'मोय-पड़िमा' यह भी चिकित्सा की एक पद्धति है । व्यवहार भाष्य में बतलाया गया है जो उपयुक्त विधि से 'मोय पड़िमा' (मूत्र चिकित्सा) करता है, उसका शरीर एकदम नीरोग एवं कंचन जैसा बन जाता है। चिकित्सा की ऐसी अनेक प्रक्रियाएं थीं, जो विस्मृति में चली गईं। पाश्चात्य देशों में इस बारे में काफी खोजें हो रही हैं।
लघुता : प्रसन्नता
चौथी बात है लघुता । हम स्वयं कसौटी करें-भोजन के बाद दिन भर शरीर में हलकापन रहता है या भारीपन । यदि भारीपन रहता है तो यह मान लें-भोजन ठीक नहीं हुआ, परिमित नहीं हुआ । सबसे बड़ी अनुभूति अपनी कसौटी है । भोजन करने के बाद शरीर टूटता रहता है, आलस्य सताता रहता है, सिर भारी हो जाता है, किसी काम में मन नहीं लगता है तो मानना चाहिए-भोजन स्वास्थ्यकारक नहीं है। केवल खाने के लिए खाया जा रहा है, संज्ञावश खाया जा रहा है। आहार करना एक बात है और आहार-संज्ञा बिलकुल दूसरी बात है। आहार और संज्ञा एक नहीं हैं । आहार हमारी आवश्यकता है। आहार-संज्ञा मोह से प्रभावित चेतना है।
पांचवी बात है प्रसन्नता । भोजन के बाद मन प्रसन्न रहता है, चेतना में निर्मलता जागती है, भावों की शुद्धि रहती है तो मानना चाहिए आहार स्वास्थ्यकारक है । यदि ऐसा नहीं है तो वह स्वास्थ्यकारक नहीं है ।
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