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मितभाषण चिन्तनशील लोग हैं, वे प्रायः ज्यादा जोर से नहीं बोलेंगे, शांति और धैर्य के साथ बोलेंगे । धीमे बोलना मौन की साधना का महत्वपूर्ण चरण है । अस्वीकार करना सीखें ___वाणी की साधना का तीसरा सूत्र है-प्रत्येक मांग को स्वीकार न करें। जब भी बोलने की मांग उठे, हम विवेक चेतना से काम लें। हम यह सोचें जो बोलने की मांग उभर रही है, उसे पूरा करना चाहिए या नहीं ? उसे पूरा करना आवश्यक है या नहीं ? यह विवेक चेतना जाग जाए तो वाणी के संयम की दिशा में एक कदम और उठ जाए । ___ मौन का अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि हम न बोलें । मौन का मूल अर्थ है-हमारे बोलने की अपेक्षाएं ही मौन हो जाएं । अपेक्षा इतनी कम हो कि बोलने की जरूरत नहीं रहे । दो साधक मिले । दो घंटे आमने-सामने बैठे रहे । दोनों नहीं बोले, मौन रहे । दोनों आपस में समझ गए । यह है मौन । भगवान् महावीर साढ़े बारह वर्ष तक मौन रहे अर्थात् मितभाषी रहे । वे बहुत नहीं बोलते थे । विशिष्ट प्रतिमाधारी और जिनकल्प की साधना करने वाले व्यक्ति भी मितभाषी होते हैं। ऐसा नहीं कि वे बोलते ही नहीं । वे बोलते हैं, किन्तु अत्यन्त अपेक्षित। मौन का अर्थ ही है-अपेक्षाओं को कम कर देना, बोलने की जरूरत को कम कर देना । भावशुद्धि बनाए रखें ___ वाणी की साधना का चौथा सूत्र है-भावशुद्धि । भावात्मक अशुद्धि लाने वाली बातें न हों। चुगली, घृणा या ईर्ष्या फैलाने वाली बातें न हों। बिना जानकारी न बोलें । लोग किसी बात की पूरी जानकारी किए बिना अटकलबाजियां लगाते हैं, अफवाहें फैलाते हैं और वस्तुतः बात कुछ होती ही नहीं । ऐसी अफवाहें फैला देते हैं, जिनका कोई सिर-पैर नहीं होता । भावनात्मक दृष्टि से अशुद्धि लाने वाली इन बातों का वर्जन वाक्संयम के लिए अनिवार्य होता है।
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