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अपना दर्पणः अपना बिम्ब एक छोटा-सा ग्रन्थ लिखा, उसका नाम था 'टहुका' । जब साधु आहार चलता रहता, उधर टहुका सुनाया जाता । इसलिए सुनाया जाता कि जैसे आहार का कवल गले से नीचे उतरता है, वैसे ही पांती का संस्कार या संविभाग का संस्कार भी गले से नीचे उतर जाए।
जयाचार्य ने लिखा-जो अपनी पांती में रंजता है, संतोष मानता है, वह मुनि होता है । जो अपनी पांती में संतोष नहीं मानता, उसमें प्रतिक्रियाएं बढ़ती हैं। मानवीय स्वभाव
प्रतिक्रिया मानवीय स्वभाव जैसा बन गई है। चाहे गृहस्थ है या मुनि, जब तक वीतराग नहीं हो जाता या क्षेपक श्रेणी में नहीं चला जाता तब तक प्रतिक्रिया से सर्वथा विरक्त होना असंभव जैसी बात है । क्रिया एक होती है, पर प्रतिक्रियाएं अनेक प्रकार की होती हैं। जयाचार्य ने संविभाग की व्यवस्था कर एक प्रकार की क्रिया की। किंतु उसकी प्रतिक्रियाएं अनेक प्रकार से हुई। क्रिया की प्रतिक्रिया और प्रतिक्रिया की फिर प्रतिक्रिया हो जाती है । प्रतिक्रिया से प्रतिक्रिया का एक सिलसिला सा चल पड़ता है । प्रतिक्रियाओं की एक श्रृंखला सी बन जाती है। प्रतिक्रिया का अर्थ
प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र रहना चाहता है । परतंत्रता किसी को पसंद नहीं है। प्रश्न है-स्वतंत्र कौन हो सकता है? जिस व्यक्ति ने प्रतिक्रिया-विरति का जीवन जीना शुरू किया है, वही व्यक्ति स्वतंत्र हो सकता है । जो व्यक्ति प्रतिक्रिया का जीवन जीता है, वह कभी स्वतंत्र नहीं हो सकता। संस्कृत व्याकरण का एक सूत्र है-स्वतंत्रः कर्ता । कर्ता स्वतंत्र हो सकता है, प्रतिकर्ता स्वतंत्र नहीं हो सकता । एक व्यक्ति भोजन कर रहा है। किसी व्यक्ति ने कह दिया-कैसे खा रहे हो? ठीक से नहीं खा रहे हो, कितना भोजन नीचे डाल दिया? व्यक्ति यह सुनते ही गुस्से में भर जाता है। यह है प्रतिक्रिया । गुस्सा
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