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मैत्री
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मत बनाओ। कलह सुकृत का नाश करने वाला है । यह बंधुत्व का चिन्तन उपशान्त कषाय का हेतु बनता है । जब व्यक्ति उपशांत कषाय वाला होता है तब उसकी प्रतिक्रिया से अप्रतिक्रिया उत्पन्न होती है और उसका परिणाम होता है मैत्री ।
प्रतिक्रिया का एक बहुत बड़ा कारण है स्वार्थ की प्रबलता । जहां स्वार्थ प्रबल होता है, वहां प्रतिक्रियाएं उभरती रहती हैं।
सरकारी कर्मचारी बिल देने के लिए किसी व्यक्ति के घर पहुंचा। घर के दरवाजे पर नौकर खड़ा था । उसने नौकर से पूछा-मालिक अंदर हैं?
नौकर बोला-क्यों, क्या काम है? उनका बिल आया है।
नौकर ने सोचा-यह बिल आ गया, मालिक पर बड़ी मुसीबत होगी। उसने कहा-मालिक अभी बाहर गए हुए हैं।
कर्मचारी बोला-बड़ी परेशानी है । मुझे कल फिर आना पड़ेगा। तुम्हारा मालिक कब आएगा ? उसे यह बिल देना है, लेना कुछ नहीं है। __अच्छा, बिल देना है ! मैं अभी जाकर देखता हूं-मालिक लौट आए हैं या नहीं । वह अंदर गया और मालिक को बुलाकर बाहर ले आया।
जब बिल चुकाना होता है, मालिक बाहर चला जाता है। जब बिल लेना होता है, मालिक घर में ही मिल जाता है। प्रतिक्रिया के दो प्रकार
यह भीतर का जो आवेग है, वह परिस्थिति के साथ समायोजन नहीं होने देता । इन आवेगों के कारण व्यक्ति न जाने कितने प्रकार का व्यवहार करता है । उसका व्यवहार बहुमुखी होता है। उन सारे व्यवहारों की व्याख्या करना बड़ा मुश्किल काम है।
आदमी इतना ज्यादा जटिल है कि उसकी कोई व्याख्या नहीं हो सकती।
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