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भावक्रिया
का । तेईस घंटे बहुत लंबा समय है और एक घंटा बहुत थोड़ा समय । एक घंटा ध्यान किया , एकाग्र रहे और तेईस घंटे चंचलता का जीवन जिया । इस स्थिति में सफलता कैसे मिलेगी ?
गुरु ने समाधान की भाषा में कहा- तुम ध्यान को काल-प्रतिबद्ध मत बनाओ । ध्यान दो प्रकार का है । एक है काल-प्रतिबद्ध और एक है काल-अप्रतिबद्ध, सार्वकालिक ध्यान । तुम हर समय ध्यान करो । प्रतिबद्धता वाली बात को दूसरे नंबर पर रखो । आधा घंटा या घंटा ध्यान में बैठना, यह विशेष साधना है, विशेष प्रयोग है। तुम हर समय ध्यान करना सीखो । फिर तुम्हारा यह प्रश्न नहीं रहेगा, चंचलता समस्या नहीं बनेगी । क्रिया और विराम
हम दिन में कितनी बार खाना खाते हैं । दिन में दो बार या ज्यादा से ज्यादा तीन बार । इससे ज्यादा बार तो खाना भी नहीं चाहिए। जो आदमी दिन में पांच-सात बार खाता है, खाता ही रहता है, वह अपने लिए नहीं खाता, डाक्टरों के लिए खाता है । दिनभर खाते रहना अनेक समस्याओं को पैदा करना है । न दांतों को विश्राम, न आंतों को विश्राम और न पक्वाशय को विश्राम । लीवर और तिल्ली की तो बात ही छोड़ दें । हम किसी को विश्राम देना ही नहीं जानते और जिस से अधिक काम लेते हैं, वह किनारा कसना शुरू कर देता है । काम उतना ही लेना चाहिए, जितना सहन कर सके । हर बात में सीमा का बोध आवश्यक है। जो भी क्रिया करें, उसके साथ विराम भी जुड़ा रहे, प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति भी जुड़ी रहे, यह अपेक्षित
शब्द, अर्थ और चेतना
यदि हम अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति के साथ चेतना को जोड़ दें तो भावक्रिया जीवनगत बन जाए । जब खाना खाएं तब चेतना केवल खाने के साथ जुड़ी रहे । खाना भावक्रिया बन जाएगा । इसी प्रकार चलना, बोलना, सुनना और देखना भी भावक्रिया बन सकता है । पांचों इन्द्रियों का जो व्यापार है, वह
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