________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व 4.1 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी निहि रयणे || वासहर दह नईओ, विजया बक्खारकाप्पंदा // 2 // कुरूं मंदर आवाला, कडा नक्वत्त चंदा राय // देवे नागे जस्खे भूएय संयंभुमरमणेय // 3 // से तं पुयाणपुशी // से किं तं पच्छाणुपुब्बी ? ५च्छाणुषुब्बी ! लयंभूरमय जाय जंबूद्दीवे, से तं पच्छणुपुब्धी // से किं तं अणाणुपुब्बी ? अणाणपुची एयाए चेव एगइयाए एगुत्तरियाए असंखजगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णमासो दुववृणो सेत्तं आपणुपुवी // 73 // उड्डलोय खेत्ताणुपुब्बी तिबिहा पण्णत्ता, संजहा-पुन्वाणुएक 1 आभरण. एक 2 वस्त्र, गंध, उत्पल, कमल, पृथ्वी, नब निधि, च उदह रत्न वर्षधर पर्वत, ममाविदेहादि, क्षेत्र गंगादि नदी, विजय, वृक्षस्कार, देवलोक, इन्द्र देवकर आदि कारर्वत, आवास * कूट नक्षत्र चंद्रमा, सूर्य, देव नाग, यक्ष व भूत, के नाम से असंख्यात द्वीप समुद्र बाहेर यादन अंतिम स्वयंभूरमण समुा है. यह पूर्वानुपूर्वी या कथन हुआ. अहों भगवन् पच्छापूर्वी दिसे करते हैं : अहो 13 शिष्य ! पच्छानुपूर्वी स्वयंभूग्मण से यावत् जम्बू द्वीप पर्यंत को बच्चालुपूरी कहते है, अहो भगवन् ! अनानुपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य! एक से असंख्यात पर्यत का अन्योन्याभ्याय कर के अदिव * अंत का समुद्र छोड कर शेष संख्या अनानुपूर्वी की होती हैं यह अनाना हुई. // 4 // उर्वलोक प्रकाशक-राजाबहादुर छाला सुखदेवसरायजी ज्वालाप्रसादजी * For Private and Personal Use Only