________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 8 808एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थमुल भवति, ततो तेसिं अणहिगयाणं अहिगमणटाए पदंपदेणं व तवइस्सामि (गाहा)पंहिताय / पदंचव, पयत्थो पयाविग्गहो, चालणाय पसिद्वीय, छविहं विधिलक्षणं // 1 // मे तं सुत्तफासिय निज्जुत्ति अणुगमे // से तं निज्जुत्ति अणुगमे // से तं अणुगमे / मिलाना, उपयोग रहित बीच में छोडकर नहीं पड़ना, हुस्व दीर्घ पूर्ण पढना, पूलित उदातादि पूर्णाचार करे के ओष्ट आदि जिस का जो उत्पत्ति स्थान हो वहां से पूच्चिार करे. गुरुगम से उसे धारन करे, तब फिर जानकर होवे शुद्ध जीवादि का पद स्वरूप, पर समय अन्य मत का पद स्वरूप, कर्मबन्ध का और कर्म से युक्ति का पद स्वरूप, सामायिक का पद स्वरूप, सामायिक रहित का पद स्वरूप, हैं इसलिये शुद्ध मूत्र उच्चारने से कितनेक साधु भगवंत को कितनेक अर्थ के अधिकार ग्रहण होते हैं. कितनेक अर्थ के जान और कितनेक दुर्गम अर्थ का अनजान भी रहते हैं. इसलिये उन अनजाने पद को जानने के लिये एकेक पद की अलग 2 व्याख्या करूंगा. सूत्र अस्खलित कर फिर पद अलग 2 करना, फिर पदका अर्थ, फिर पदका सभास. फिर चालनाकर पूछे. फिर योग्य स्थान स्थापन करे. यो छ प्रकार से अर्थ कहने का लाभ जाने, यह अर्थ कथक लक्षण कहे. यह सूत्र अर्थ स्पर्श नियुक्ति अनुगम हुआ और नियुक्ति अनुगम हुआ और अनुगम का कथन पूर्ण हुआ // 18 // अहो भगवन् ! नय किसे 82086 प्रमाणका विषय 8848 For Private and Personal Use Only