Book Title: Anuyogdwar Sutram
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 8+ एकाशिचम अनुयोगद्वार सूत्र- चतुर्थ अनुयोगद्दार मूत्र की प्रस्तावना. 26 नमोस्तु सर्वज्ञदेवान्.शास्त्रविज्ञान दातार॥अनुयोगद्वार मूत्रस्ये,करोमि भाषानुवादकः // 1 // / चत्वारिंमुख्य अनुयोगा,करण चरण गणितानयः॥धर्मकथास्य स्वरूप:अनुयोगद्दार प्रकाशकः२, " जो सर्वज्ञ देवाधिदेव शास्त्र विज्ञान के दातार हैं जिन को नमोस्तव करके जिस में , करणानयोग जो कारण मे किया कि नाम जैसे पांच समिती आदि, 2 चरणानयोग जो सदैव पालन किये आय जैसे पंचमहाव्रतादि. 3 गणितानुयोग सो संख्य असंख्य अनन्तादि और 4 धर्मकथानुयोग सम्बेगनी आदि / धर्मकथा. इन चार अनुयोग का सम्यक प्रकार से स्वरूप का प्रकाशक जो यह अनुयोगद्वार शास्त्र श्री जिनेश्वर प्रकाशित और गणधर रचित है. इस का हिन्दी भाषामय अनुवाद करता हूं. ___ अन्य शास्त्रों से यह शास्त्र बहुत गहन कहा जाता है और है भी तैसा,इस में आवश्यक निक्षेप प्रमाण अनुपूर्वी वगैरा का बहुत सूक्ष्मता के साथ किया है. इस तरह पंजाब देश पावन कर्ता उपाध्यायनी श्री आत्मारामजी कृत हिन्दी भाषानवाद का पूर्वार्ध पर से और एक प्रत मेरे पास जो तीनों की दीक्ष में, लीगई था उस पर से किया है. इसमें जो जो अशुद्धियों रहगई है उसे विशेषज्ञों शुद्ध कर पढ़ेंगे। परम पूज्य श्री कहामजीऋषि महाराज के सम्प्रदाय के बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी ने सीर्फ तीन वर्ष में 32 ही शाखों का हिंदी भाषानुवाद किया. उन 32 ही शास्त्रों की 100010.. प्रतों को सीर्फ पांच ही वर्ष में छपवाकर दक्षिण द्राबाद निवासी राजा बहादुर लाका मुखंदवसायजी ज्वालाप्रसादजी ने सबको रन का अमूल्य लाभ दिया है। 49398 प्रस्तावना 42837 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगहार मूत्र की अनुक्रमणिका. . ... 15 48 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी 1 श्रुत ज्ञान का वर्णन 2 द्रव्य आवश्यक का वर्णन . भाव आवश्यक का वर्णन 4 श्रुत पर चार निक्षेप 5 स्कंध पर चार निक्षेप 13 आवश्यक के अध्ययन 17 उपक्रम का अधिकार 18 आनुपूर्वी का अधिकार 9 समावतार का अधिकार 1. अनुगम का अधिकार 111 द्रव्यानुपूर्वी का कथन 12 क्षेत्रानुपूर्वी , " 13 कालानुपूर्वी ,,, F14 भावानुपूर्वी .., 115 नाम के विषय में 16 छ भावों का कथन 17 सातस्वरों का कथन 18 आठ विभक्ति का कथन 19 नवरल का कथन 20 दश नाम का कथन 21 प्रमाण का कथन 22 अंगुल का कथन 23 पल्योपम सागरोपम 24 पांच शरीर का कथन 25 गर्भज मनुष्य की संख्या / 26 चार प्रमाण का कथन 27 सात नय का कथन 28 संख्यात असंख्यात अनंत 29 उपक्रम के पांच भेद 3. साध की 84 औषमा 31 सामायिक के प्रश्नोत्तर 32 वय का संक्षिप्त कथन प्रकाशक राजा बहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी* ... 103 ..... 123. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir REAKIRTAIN PREMIEREree GAONLON " सत्र एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल. नाणं पंचविहं पण्णत्तं तंजहा-आभिणिबोहि य नाणं,सुय नाणं,ओहि नाणं,मापजव नाणं, केवल णाणं // 1 // तत्थ चत्तारिनाणाई ठप्पाई, ठवणिजाई, जोउद्दिसिजंति, जोसमुद्दिन A8+ एकत्रिंशत्तम्-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थ मूर श्रुतज्ञान बण.0 जिस के द्वारा वस्तुओं का स्वरूप माना जावे अथवा तो जो निज म्वरूप का प्रकाशक है वह ज्ञान / उस के पांच भेद अर्हन्तं देवने कहे हैं जिन के नाम- जो सन्मुख आय हुए पदार्थों को मर्यादा पूर्व जानता है वह आभिनियोधिक ज्ञान है. इस ज्ञान का अपर नाम मतिज्ञान है. 2 को सुनकर पदायों के स्वरूप को जानता है उसे श्रत ज्ञान कहते हैं, जो मर्यादा पूर्वक रूपी पदार्थों को जानता है वह अवधि ज्ञान है. 4 जो मन के पदार्थों को जानता है वह मनःपर्यव ज्ञान है और 5 संपूर्ण लोकालोक के वरू को जाननेवाला केवल जान कहलाता // 1 // इन पांचों ज्ञान में से श्रुत ज्ञान को छोड़ कर शेष चार / / 8 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ 48 अनुवादक वाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमालके ऋषिजी सिजंति, णो अणुण्णविजंति, // 1 // सुयनाणस्स-उद्देसो,समुद्देसो,अणुष्णा अणुओगो य, पवत्तइ // 2 // जइ सुथनाणस्स-उद्देसो, समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पबत्तह; किं अंगपविट्ठस्स-उद्देसो, समुद्देसो, अणुण्णा, अणुओगो य पवनइ ? किं अंगवादिरा उद्देसो, समुद्देसो, अणुण्णा, अणुओंगो य पवत्तइ ? अंगपविटुन्सवि उदेलो सरस) अणुण्णा अणुओगोय पवत्तइ, अंगवाहिरस्सवि उद्देसो समुद्देसो अशागा - Yओ- / ज्ञान लोक में व्यवहार के उपयोगी नहीं होने से पृथक किये गये हैं अर्थात् उनका न यहां नहीं बै करते हैं क्यों कि मति ज्ञान, अवधि ज्ञान, मनः पर्यव ज्ञान, और केवल ज्ञान से हरा न. उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा व अनुयोग नहीं करते हैं. और श्रुतज्ञान उद्देश, समुदेश, अनुज्ञा व अनुयोग करता है. इस का कथन प्रश्नोत्तर द्वारा विस्तार पूर्वक आगे किया गया है. // 2 // प्रश्न-अहो भगवन् ! यदि श्रुत ज्ञान ही उद्देश. समुद्देश, अनज्ञा व अनुयोग करता है तो वह क्या अंग प्रविष्ट जो आचारंगादि में श्रुतज्ञान है उसक+उद्देशादि करता है अथवा अंग वाहिर जो उत्तराध्ययनादिमें श्रुतज्ञान है सेर उद्देश :समुद्देशादि करता है? उत्तर-अहो शिष्य-अंग प्रविष्ट सूत्रों व अंगाहिर सूत्रों को दोनों साश्रुत ज्ञानी के उद्देशा समुद्देशादि विद्यमान है. परंतु वर्तमान में जो अनुयोग का आरंभ किया है. इस अपेक्षा अंग +1 उद्देश-पढने की आज्ञा, 2 समुद्देश-पढा हुना ज्ञान में स्थिर करना, 3 अनुज्ञा-अन्यको पढ़ाने की आज्ञा करना, और 5 अनयोग विस्तार से व्याख्या करना.. * प्रकाशक-राजाबहादालाला मुखदेवसहायनी ज्वालामसादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2982 अर्थ P8+ एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल. गोय पवत्तइ // इमं पुण पट्टवणं पडुच्च अंगवाहिरस्स उद्देसो जाव अणुओगोय // 3 // जइ अंगबाहिरस्स उद्देसो जाव अणुओगो य किं कालियस्म उद्देसो जाव अणुओगो उवालयस्म उद्देस्रो जाव अणुओंगो ? कालियस्सवि उद्देसो जाव अणुओगो उकालियस्सवि उद्देसो जाव अणुओगो / इमं पुण पट्ठवणं पडुच्च उक्कालिअस्स उद्देसो जाव अणुओगो // 4 // जइ उक्कालियस्स उद्देसो जाव अणुओगों किं आवस्सगस्स उद्देसो जाव अणुओगो,आवस्सगवितिरित्तस्स उद्देसो जाव अणुओगा?आ. वस्स्गस्सवि उद्देसो जाव अणुओगोआवस्सय वइरित्तस्सवि उद्देसो जाब अणुओगो। इमं वाहिर सूत्र-श्रुत ज्ञान के उद्देशादि विद्यमान है, // 3 // प्रश्न-महो भगवन् ! यदि अंग बाहिर के सूत्रों में श्रुत ज्ञान के उद्देश समुद्देशादि विद्यमान है तो क्या कालिक सूत्र कि जो दिन रात्रि के प्रथम व अंतिम प्रहर में पठन किये जाते हैं उन के उद्देशादि है अथवा उत्कालिक सूत्र कि जो अनध्याय काल छोड कर शेष सर्व काल में पठन पठान किये जाते हैं. उस के उद्देशादि है? उत्तर-अहो शिष्य? कालिक उत्कालिक दोनों सूत्र के उद्देशादि हैं और वर्तमान अनुयोग प्रारंभ की अपेक्षा उत्कालिक सूत्र के उद्देशादि भी हैं। // 4 // प्रश्न-अहो भगवन् ! यदि उत्कालिक सूत्र के उद्देशादि हैं तो क्या आवश्यक सूत्र के उद्देशादि है या आवश्यक से व्यतिरिक्त (बाहिर) सूत्र के उद्देशादि हैं? उत्तर-अहो शिष्य ! आवश्यक के उद्देशादि हैं और आवश्य से व्यतिरिक्त के भी उद्देशादि हैं और यहां अनुयोग का वर्णन करते हुए आमश्यक सूत्र के अनुयोग आवश्यकपर-चार निक्षेपे 84988 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्र ! पुण पट्टवणं पडुच्च आवस्तगरमा अणुओगो // 5 // जइ आवस्सगस्स अणुओगो,आ. वस्सयणं किं अंग अंगाई,सुयखंधो,सुयखंधा, अज्झयणं,अज्झयणाई,उद्देसो,रदेसा?आवस्सयस्सणं-नो अंग,नो अंगाई,सुयखधो,नो सुयखंधा,नो अज्झयणं,अज्झयणाई,नो उद्देसो, नो उद्देसा, ! तम्हा आवस्मयं निक्खिविरसामि, सुअं निक्खिावैस्सामि, खंधं निक्खि. विस्सामि,अज्भयणं निविखविस्मामि, जत्थय 2 जं जाणेजा निक्खेवं निक्खेवे निरवसेसं / अE का वर्णन करते हैं // 5 // प्रश्न-अहो भगवन् ! यदि वर्तमान में आवश्यक की व्याख्या की जाती है। है तो क्या आवश्यक एक अंग है कि आवश्यक बहुत अंग है. तथा एक श्रत स्कंध है या बहुत श्रुत स्कंध है एक अध्ययन है या बहुत अध्ययन है, एक उद्देशा है या बहुत उद्देशा है ? उत्तर-अहो शिष्य ! / आवश्यक का एक श्रुत स्कंध बहत श्रुत स्कंध नहीं है, अर्थात् आवश्यक अंग नहीं है परंतु श्रत स्कंध है आवश्यक का एक अध्ययन नहीं है परंतु बहुत मे अध्ययन हैं अर्थात् छ अध्ययन हैं. आवश्यक का # एक उद्देशी नई है और बहत उद्देश भी नहीं है इस लिये इप का स्पष्ट स्वरूप समजाने के लिय में आवश्यक 2 श्रुत.. स्कंध. और 4 अध्ययन. इन चारों के पृथक 2 चार निक्षेप करूणा, कोकि जन पदार्थों के जितने निक्षेप जाने उन के उतने निक्षेप निर्विशेषता से करे और जो जिन पदार्थों को है For Private and Personal Use Only 47 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजीत प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेमहायजी ज्वालाप्रसादजी
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 48 अनुस्य द्वार सूत्र-चतुर्थ जस्थविय न जाणेजा चउक्कगंर निक्खिवे तत्थ॥१॥६॥से कि तं आवस्सयं? चिहं पण्णतं तंजहा- नामावरसयं, ठवणावरसयं, दव्यावस्सयं, मानवतयं // 7 // से कि तं नामावस्सयं ? नामावस्मयं जस्सण जीवस्स वा, अर्जवस्त वा.जीवाणं वा,अजीवाणं वातदुभयरस वा.तभयाणंबा,आवस्सएत्ति नाम कजइ, सेतं नामावस्सयं // 8 // से किं सं ठरणावस्सयं ? ठवणावस्सयं जण्णं कट्टकम्मेवा, चिनकम्मेवा, पोत्थकम्मे वा, लेप्पकम्मे वा, गंथिमे वा, वेढिमे वा, स्वरूप से न जान तो अन में भी चार निक्षेप करे, इस लिये यहां आवश्यक का वर्णन करते हैं ! पल-महो भगवन् ! आवश्यक किसे कहते हैं ? उत्तर-अहो शिष्य ! आवश्यक के चार भेद हे हैं / नन के नाम-१ नाम आवश्यक 2 स्थाना आवश्यक, 3 द्रव्य आवश्यक और 4 भाव आवश्यक // 7 // प्रश्न-अहो भगवन् ! नाम आवश्यक किसे कहते हैं ? उत्तर-अहो शिष्य ! किसीने A एक जीव का. एक अजी। का, बहुतसे जीव का. पतसे अजीव का, एक जीव अजीव दोनों का,बहुतसे जीव अर्ज व दोनों का, 'आवश्यक ऐसा नाम रख दिया. उसे भाम आवश्यक कहते हैं / / 8 // प्रश्न-अहो भगव स्थापना आवश्यक किसे कहते हैं? उत्तर-होशिश्य स्थापना आवश्यक के४० भेद कहहैं यथा-१काष्ट को कोर करवानाय हुआ रूप (पुरुषदि का आकर) 2 चित्र कर बनाया हुआ रूप 3 वर का बनाय हुआ रूप . आवश्यकपर-चार निक्ष For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir A अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी+ पुरिमेवा, संघाइमेवा, अक्खे वा, वराडएवा, एगो वा,अणेगो वा,सम्भावठवणाए वा, असम्भावठवणाए वा,आवस्सएति ठवणा ठविजइ, से तं ठवणावस्सय॥नाम ठवणाणं को पकविसेसो ? णामं आबकहियं, ठवणा इत्तरिया वा होज्जा, आवकाहियावा होजा // 9 // से किं तं दव्वावस्सयं ? दवावस्सयं दुविहं पण्णत्तं तंजहा-आगमओय 4 लेप कर्म अर्थात् चूना वगैरह के लेप से बनाय हुआ रूप 5 सूत्रादि गूंथ कर बनाया हुवा रूप, 6 शृंखलादि के वेष्टन से बनाया हुवा रूप, 7 पूरिम-धातु आदि को पिगलाकर संचे में पूरकर बनाया, बनाया हुवा रूप, 8 संघातिम-वस्त्रादि खण्ड को एकत्रित कर जोडकर बनाया हुवा रूप, 9 अक्षप रूप पासा. वगैरह,डालकर बनाया रूप और 10 वराढ-कौडी प्रमुख स्थापन कर बनाया हुवा रूप.यह उक्त प्रकार के दश के एक रूप व अनेक रूप यों 20 हुए. उस में सद्भाव स्थापना व असद्भाव स्थापना करे, यो 40 भेद हुए। इस प्रकार से उक्त वस्तु को आवश्यक के अभिप्राय से स्थापना करना वहीं स्थापना आवश्यक है." अर्थात् इस प्रकार स्थापना आवश्यक माना जाता है. प्रश्न-अहो भगवन् ! नाम आवश्यक व स्थापना आवश्यक में क्या भेद है ? उत्तर-अहो शिष्य ! नाम जीवन पर्यय रहता हैं और स्थापना तो थो काल की भी होती है अर्थात् उस के आकार में पलटा हो जाता है और विशेष काल की भी होती है. यह स्थापना आवश्यक हुवा // 9 // प्रश्न-अहो भगवन् ! द्रव्य आवश्यक किसे कहते ? *प्रकाशक-राजबहादुर ालामुखदेवसहायजा ज्वालाप्रसादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ 14. एकत्रिंशत्तम अनुयोगदार सूत्र-चतर्थ यू, है नो आगमओय // 10 // से किं तं आगमओ दव्वावस्सयं ? आगमओ / दवावस्सयं-जम्सणं आवस्सएतिपदं सिक्खितं, ठितं, जितं, मितं. परिजितं नामसमं, घोससम,अहीणक्खा,अणच्चक्कर,अब्बाइडक्खरं,अक्खलियं, अमिलियं, अवच्चामेलियं, पडिपुण्णं, पडिपुण्णघोसं, कंट्ठोढविष्पमुक्कं, गुरुवायणोवगयं, / से णं तत्थ-वायणाए, उत्तर-अहो शिष्य ! द्रव्य आवश्यक के दो भेद कहे हैं. तद्यथा-मागम से और नो आगम से. // 10 // प्रश्न-अहो भगवन् ! आगम से द्रव्य आवश्यक किसे कहते हैं ? उत्तर-अहो शिष्यः किसीने "आवश्यक"A ऐसे पद को सीखलिया है, हृदय में स्थिन किया है, अनुक्रम पूर्वक पठन किया है, अक्षरादिक की ! मर्यादा युक्त जाना है, अपने नामकी तरह अच्छी तरह स्मरण किया है,नदत्तादि दोष रहित बरावर किया है, अक्षरोंकी-न्युनता रहित, अक्षरों की विरलता रहित, अक्षरोंकी अस्वच्छता रहिन, अक्षरादि का गडब रहित. मनः कल्पना से नहीं पलटाया हवा, हस्वदीर्घ से प्रति पूर्ण, कंठादि स्थान के दोष रहित, गुरु की प्रसन्नता पूर्वक धारण किया है और वह आवश्यक पद वाचना पृच्छना, परिवर्तना और धर्मकथा से न्यवहृत किया है परंतु एक अनुप्रेला उस में नहीं है, उस पदको द्रव्य आवश्यक कहते हैं. बर्यात् यह उस के अर्थ में परमार्थ से उपयोग लगावे नहीं. क्योंकि उपयोग लगाने से भाव आवश्यक होता है. प्रश्न उसे * आश्यक पर चार निक्षेपे 488 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 12 पुच्छणाए,परियट्टणाए,धम्मकहाए, नो अणुप्पेहाए / कम्हा? अणुवओगो दन्वमितिक? 15 // नेगसमसणं-एगो अणुव उनो आगमओ एगदमावस्सयं, दोणि उता आलओ दोष्णि दब्यावस्त्रयाइं. निणि अणुव उत्ता आगमओ तिण्णि दय राया, एवं जावइया अणुव ऽत्ता आगमओ तावइयाई दव्यावस्मयाई / एवं मेव वाह ररपति / संगहस्सागो वः अणेगोवा, अणुवउत्तो वा अणुवउत्सा वा. आगपओ यावरयं वा दवावस्सयाणि वा, से एगे दव्यावस्तयं / उज्जुस्यस्त-एगो ब्रहाचारी मुनि श्री अमोलक रिजी द्रव्य भावकको कन? उत्तर-अहो शिष्य ! मात्र उपयोग रहित सब क्रिया होने से उसे द्रव्य आप कहना " " अब इस का विशेष खलासा के लिये मात नय से द्रव्य आवश्यक का "--...नामयम ए.. स्नुष्य उपयोग रहित आवश्यक करता है उसे आगम से एक द्रव्य या यदि दो व्यक्ति उपयोग गहित आवश्यक कहते हैं तो उसे दो द्रव्य आवश्यक काना. यो कार जितनी व्यक्ति उपयोग रहित आवश्यक करते हैं उसे उतने ही द्रव्य आवश्यक #हना. जैसा यह भय का मत हा वैमा ही व्यवहार नय का मत जानना. 3 संग्रह नय से एक मनुष्य अधव न मय उपयोग हित आवश्यक करते हैं उसे एक ही द्रव्य आवश्यक कहना. काक " संग्रह नयवाला सामान्य विशेषको एक रूपही मानता हैं. चौथा ऋज सूत्र नयवाला भी एक व्यक्ति उपयोग प्रकाशक-राजावडा र लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामगदमी अर्थ 10. अनवादक For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir / एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सुत्र चतुर्थ मूळ
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अषिजी ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक पयत्थाहिगार जाणयस्स जं सरीरयं ववगय चुतचाबित चतदेहं जीवविप्पजढं सिजागयं वा संथारगयं वा, निसीहियागयं वा, सिद्धसिलातलगयं वा, पासित्ताणं ' कोई भणेजा-अहो! णं इमेणं सरीर समस्सएण जिणोवइटणं भावेण आवस्सए / तिपयं-आपवियं पण्णवियं परूवियं दंसियं उवदसिमं, जहा को दिटुंतो ? अयं महुकुंभे आसी, अयं घयकुंभे आसी, से तं जाणय सरीर दव्वावस्सयं // 14 // अहो शिष्य ! आवश्यक ऐसा पद व अर्थ के अधिकार जाननेवाले का चेतना से रहित प्राणों के बल को जिसने त्याग किया है वैसा, जीव रहित, शय्या पर पडा संथारे पर पडा हुवा, जिस ध्यान में काल कर गया होवे उस प्रकार के ध्यान के आकार रहा हुवा और शिला पर अनशन किया हुवा शरीर को देख कर कोई कहे कि अहो ! इस शरीर के पुद्गल समुहने तीर्थंकर के उपदिष्ट भाव से भावश्यक ऐसा पद ए कहा था, समुच्चय प्ररूपाया था, विशेष प्ररूपा था, क्रिया कर देखाया था, अलग 2 अर्थ दर्शाया अहो भगवन् ! किस दृष्टांत से ! अहो शिष्य ! जैसे यह मधु का घट था, अथवा यह घृत का घट था क्यों कि वर्तमान काल में घट विद्यमान रूप तो है परंतु मधु व घृत से रहित है इस प्रकार घट तुल्य #शरीर है परंतु मधु व घृत समान आवश्यक करनेवाला वर्तमान में विद्यमान नहीं हैं इस लिये ही उस का नाम इशरीर द्रव्यावश्यक रखा गया है // 14 // प्रश्न-अहो भगवन् ! भविय शरीर द्रव्यावश्यक काशक रामाबहादुर छाला मुखदवसहायजी-ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्र एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्य मूल 60%80 से किं तं भविय सरीर दव्वस्सयं ? भविय सरीर दव्वावस्सयं जे जीवे जोणि जम्मण निक्खंते इमेणं चेव आत्तएणं सरीर समुस्सएणं जिणोवदिट्टे भावणं आवस्सएतिपयं, सेयकाले सिक्खिस्सइ, न ताव सिक्खइ, जहा को दिटुंतो ? __ अयं महु कुंभे भविस्सइ, अयं घयकुंभे भविस्सइ, से तं भवियसरीर दवावसयं है // 15 // से किं तं जाणय सरीर भविय सरीर वतिरित्तं दव्वावस्सयं ? जाणय सरीर भविय सरीर वतिरित्तं दवावस्सयं तिविहं पण्णत्तं तंजहा-लोइयं, कुप्पावयणियं, किसे कहते हैं ? प्रश्व-अहो शिष्य ! जो जीव योनि द्वारा जन्म को प्राप्त हो गया है और आगामी कालमें अपने शरीर समुदाय कर जिनेन्द्र उपष्टि भाव से 'आवश्यक' ऐसे पद सीखेगा परंत वर्तमान काल में उसने आवश्यक के पद को धारन नहीं किया है. इस का दृष्टांत देते हैं जैसे नये 4' घट को देख कर कोई कहे कि यह घृत के लिये घट होगा, यह मधु के लिये घट होगा. ऐसे ही यह भी आवश्यक का ज्ञाता होगा. यह भव्य शरीर द्रव्य आवश्यक हुवा // 15 // प्रश्न-अहो भगवन् ! ज्ञA शरीर और भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य आवश्यक किसे कहते हैं ? उत्तर-ज्ञ शरीर व भव्य र व्यतिरिक्त द्रव्य आवश्यक के तीन भेद कहे हैं. तयथा-१ लौकिक, 2 कु भावयनिक और 3 लोको-17) अर्थ 100 आवश्यक पर चार निक्षप4.90 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लोउत्तरियं // 16 // से किं तं लोइयं दवावस्मयं ? लोइयं दव्वावस्सयं जे इमे राईसर,तलवर. मांडविय. कोथुविय इन्भसेटि सेणावइ. मत्यवाह. पभितिओ-कलं पाउप्पभायाए रयणीए मुविमलाए पुल्लुप्पल कमल कोमलुम्मिलियांम अहटरे पभाए रत्तासोगपगासे, किंसुय, सुयमुह, गुंजद्वरागसी से कमलागर नलिणीसडबोहए. उट्ठियंमिसूरे सहस्सरसिमि दिणयरे तेअसा जलंत-मुदधोयणं दंतपक्खालणं, तेल्लफाणह सिद्धत्थयं हरिआलिया अहाग धुव पुष्प मल्ल गंध तंबे ल वत्थमाइआई "चर // 16 // प्रश्न-अहो गवन् ! लौकिक द्रव्य आवश्यक किसे कहते हैं ? उत्त- अहो शिष्य : जो यह राजा, युवराजा. कोतवाल. मंडवाधिपति. कुटुम्बाधिपति, गजांत लक्ष्मी धारका ईम शेठनगर शेठ, सेनापति, सार्थवार इत्यादि लोग प्रातः काल में किचिन्मात्र प्रकारश हाते और गाने के व्यतिक्रप! होने पर. अति निर्मल आकाश होने पर, विकसित कमल व नेत्र समान पंडुर घर्ण के पभा में रक्त अशोक किंशुक वृक्ष के पुण. गुंजा-आधी रति के रंग समान कमलों के जलाशय व नलिनी आदिकमलों को प्रतिधित (विकशित ) करता हुवा सहस्र किरण वाला मूर्य जब प्रकाशमन होता है तब के मुख धोते हैं, दंत प्रक्षालन करते हैं, केश मुख व शरीर में तेल लगाते हैं कांगी बाल स्वच्छ करते है, हरताल व द्रौवा को मस्तक में धारन करते हैं, सुगंधि धूप करते हैं, पुष्प माला वंदनादि गंध व अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पका-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थ पूल 488 दव्वावस्सयाई करेति,ततो पच्छा रायकुलं वा, देवकुलं वा, आरामं वा, उज्जाणं वा, सभं था, पव्वं वा, निगच्छंति से तं लोइयं दवावस्सयं // 17 // से किं तं कुप्परवियणियं दवावस्सयं ? कुप्परावयणियं दव्वावस्सयं जे इमे चरग, चीरिय, चम्मखंडिय, भिक्खोडग, पडुरंग, गोयम, गोव्वतिय, गिाहधम्म, धम्मचिंत्तग, अविरूद्ध विरुद्ध, वुड्डसावग,प्पभितओ, पासंडत्था, कलं पाउप्पभाए रयणीए जाव तेयसाजलंते-इंदस्स वा. बोल का सेवन करते हैं, प्रधान वस्त्राभूषणादि से शरीर को अलंकृत करते हैं. पूर्वोक्तं कर्तव्य को 5. अपने नित्य के नियम जैसे करते हैं. इतना करके वे राज सभा में, देवादिक के स्थान में जन सभा में प्रयास्थान में, बाग बगीचे में क्रीडा करने के लिये जाते हैं, उसे लौकिक द्रव्य आवश्यक कहते हैं. यह केक द्रव्य आवश्यक हुवा. // 17 // प्रश्र-अहो भगवन् ! कुमावचानक द्रव्य आवश्यक / कहते हैं ? उत्तर-अहो शिष्य ! जो यह चरक-वस्त्रखंड रखने वाले, चर्म खंड रखने वाले, मृग शाला धारन करने वाले, भिक्षा करने वाले, भस्म शरीर के लगाने वाले, वृषभादि निमित्त से आजीविका करने बाले,गौ वृत्ति से थोडा 2 ग्रहण कर उपजीविका करनेवाले, गृहस्थावास में रहकर धर्म पालनेवाले अपवा गृहस्थ धर्म के उपाधिक यज्ञादि धर्म की चिंतवना करनेवाले सब लोगों से अविरुद्ध धर्म का आ आवश्यक पर चार निक्षपे 8 4.8807 2 4 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खंधस्स वा, रुदस्स वा, सिवस्स वा, वेसमणरस वा, देवरस वा, नागरस वा, जक्स्वस्स वा, भूयरस वा, मुगुंदरस वा, अजाए वा; दुग्गाए बा, कोदृकिरियाए वा, उवलेवण, समजण,आवरिसणाधव पप्फ गंध मलाइयाई दव्वावस्सयाई करेति.से तं कप्परावय. णियं दव्यावस्सयं // 18 // से किं तं लोगुचरियं दवावस्सयं ? लोगुत्तरियं दव्वावस्सयं जे इमे-समणगुणमुक्कजोगी, छक्कायनिरणुकंपा, इयाइव उद्दामा, गयाइव निरंकुसा, घट्ठा,मट्ठा,कुप्पोट्ठा,पंडुरपभं पाउरणा,जिणाणं अणाणाए, सच्छंद चरन करनेवाले, विनयवादी अथवा नास्तिकगदी, वृद्ध श्रावक * (ग्रामण) प्रमुख पाखंडी प्रातःकाल होते ही यावत् जाज्वल्यमान मूर्य प्रकाशित होते ही इन्द्र की. स्कंध-कार्मिक स्वामी की, रुद्र की, शिव की, वैभ्रमण की. देवता की. नाग देव की. यक्ष देव की. भूत की. मुकंद-बलदेव की, बचा देवी की, दुर्गा देवी की, कोट क्रिया-जिस के आगे बहुत प्राणियों का वध होवे वैसे देवता देवियों की प्रतिमा के स्थान गोमयादि से डीपन कर पांडु आदि से पोत कर उन के आगे धूप क्षेपे, पुष्पादिक की माला पहिनावे. इत्यादिक द्रव्य आवश्यक करे. यह कुमावनिक द्रव्य आवश्यक हुवा // 18 // अहो भगवन : लोक:सर द्रब्य आवश्यक किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! लोकोत्तर द्रव्य आवश्यक उसे कहते हैं कि मो श्री ऋषभदेव स्वामी के समयमें जो भरत जीने माहण-ब्राह्मण श्रावक स्थापन किये थे उनकी जातिमें से कितनेक 1+परंपरा से श्रादक वृत्ति से च्युत होगये और ब्राह्मण की क्रिया करने लगे उन को वम भावक के नाम से बोगाये गये हैं. बनुवादक बालबमारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी *काशक-राजाबहादुर काला सुखदेवसहायजी ज्वाला सादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विहरिऊणं उभओकालं आवस्सयस्स उषटुंति, से तं लोगुत्तरियं दवावस्सयं / / से तं जाणय सरीर भविय सरीर वइरितं दबावब्सयं // से तं नो आगमतो दवावस्सयं॥ से तं दवावस्मयं // 19 // से किं तं भावावस्सयं ? भावावस्सयं दुविहं पण्णत्तं तंजहा. आरमोय,नो आगमोय॥२०॥से किं तं आगमतो भावावस्सयं ? भागमतो भावावस्सयं जाणए उवउत्त,से तं आगमतो भाववस्सयं ॥२१॥से किं तं नो आगमतो भावावस्मयं ? एकत्रिंशचम-अनुयोमदार मूत्र-चतुर्थ मूल / क्षमादि साधु के गुणों से रहित हैं, षटकायाकी अनुकंपा रहित हैं, घोडे जैसे उम्मत है, गज जैसे निरंकुश हैं, घटारे, मठारे, शृंगारित पोष्टवाले, शुभ्र स्वच्छ वस पहिननेवाले. अईतों की आवाका उल्लंघनकर स्वच्छंदपने विचरनेवाले, वे बावश्यक के लिये दोनों काल में सावधान होते हैं. यह लोकोत्तर दिव्य आवश्यक कहा जाता है. यह जानग भरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य आवश्यक दुवा. यह जो आगम से द्रव्य आवश्यक हुवा. यह ट्रन्य आवश्यक का कथन हुवा. // 19 // अहो भगवन् ! भाव आवश्यक किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! माव आवश्यक दो प्रकार से प्रातपादन किया गया है। तद्यथा- आगम मे और 2 नो आगम से महो भगवन् ! आगम से भाव आवश्यक किसे कहते अहो शिष्य! जो भावश्यक के स्वरूप को उपयोग पूर्वक जानता है उसका नाम भाव आवश्यक है // 21 // 488004 आवश्यक पर चार निक्षपे874885 488 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक शापिनी मो आगमतो भावावस्मयं तिविहं पणत्तं तंजहा-लोइयं, कुप्परावयणिय, लोगुत्तरिय // 22 // से किं तं लोइयं भावावस्सयं ? लोइयं भावावस्सयं-पुचण्हे भारहं, भवरण्हे रामायणं, से तं लोइयं भावावस्मयं // 23 // से किं तं कुप्परावयणियं भावावस्सयं? कप्परावयणियं भावावस्सयं जे इमे-चरग चीरिग जाव पासंडत्थासयं, इजं. जलि होम जपोंदुरुक्क नमोकारमाइआई भावावस्सयाई करेंति, से तं कुप्परावयाणियं भावावस्सयं // 24 // से किं तं लोगुत्तरियं भावावस्सय ? लोगुत्तरियं भावावस्स. नो आगम से भाव आवश्यक किसे कहते हैं ! जो आगम से भाव आवश्यकके सीन भेद कहे हैं लौकिक, 2 कुपावनिक, और 3 लोकोत्तर. // 22 // अहो भगवन् ! लौकिक भाव आवश्यक किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! पूर्वोक्त प्रकार प्रातः काल में भारत और संध्या काल में रामायण का भाव सहित पठन पाठन करते हैं वह लौकिक भाव आवश्यक // 23 // अहो भगवन् ! कुमावनिक भाव आवश्यक किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! उक्त प्रकार के चरक, वस्त्र खंड धारन करनेवाले यावत् पाखंडी इष्ट देवका अंजली जोडकर नमस्कार करे.यज्ञ हवन.पूजा.जप, और मुख से बैल जैसे शब्दोच्चार करके नमस्कार करे इस्पाद भाव आदर करते हैं वह कुशावनिक भाव आवश्यक है।॥२४॥अहो मगवन् ! लोको प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहाथजी ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 8+ 4 एकत्रिंशत्तम अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल 480 यं जण्णं इमे समणे वा, समणी वा, सावओ वा, सावियावा, तचित्ते, तम्मणे, तल्लेसे तब्भवसिए, तदझवसाणे, तदट्ठोवठते, तदप्पियकरणे, तब्भावणा भाविए, अण्णत्थ कत्य इमेणं अकुब्रमाणे उवउत्ते, जिणवयण धम्माणुरागररत्तमणे उभओकालं आवस्सयं करोति, से तं लोगुत्तरियं भावावस्सयं // से तं नो आगमतो भावावस्सयं ॥से तं भावावस्सयं // 25 // तस्सणं इमे एगट्टिया णाणाघोसा णाणावंजणा ग.मधेजा भवंति, तंजहा-(गाहा) आवस्सयं,आवस्सं,करगिजांधुवनिग्गहो विसोहिय॥अज्झयण छक्कवग्गो, नाओ आराहणामग्गो // 1 // समणेणं सावएणय र भाव आवश्यक किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! आवश्यक में चित्स्थापनेवाले, आवश्यक से ही मन. अध्यवसारव तीव्र अध्यवसाय रखनेवाले, उस के अर्थ में उपयोग लगानेवाले, उस में भावना करनेवाले उस के योग्य मुखवत्रिका प्रमुख उपकरण रखनेवाले और अन्य किसी वस्त में अपना मन नहीं रखनेवाले शुद्ध उपयागयुत्त जिन प्रणित वचन में व धर्म में प्रेमाणुराग रक्त बने हु ऐसे साधु. साध्वी श्रावक और श्राविका जो प्रातःकाल व संध्याकालयों दोनों काल भाव आवश्यक (प्रतिक्रमण) करे वह लोकोत्तर भाव आवश्यक. यह लोकोत्तर भाव आवश्यक हुवा. यह नो आगम से भाव आवश्यक हुआ यह भाव आवश्यक हुवा // 25 // अब इस आवश्यक के भाट नाम कहते हैं-१ज्ञ परमार्थ से यह आवश्यक एकार्थ रूप है, परंतु उच्चारन से अनेक घोष और अनेक व्यंजन हैं. इस के नाम कहते हैं-१ आवश्यक आवश्यक पर चार निक्षेपे 4.88. 3 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + अवस्म कायवे हवइ, जम्हा अंतो अहोनिसस्स य. तम्हा आवस्सयं नाम // 2 // सतं आवस्सयं // 26 // // सेकिंतं सतं ?सतं चउन्विहं पण्णतं तंजहा-नामसयं ठयणासुयं, दव्वसुयं, भावसुयं // 27 // से किं तं नायसुयं ? नायसुयं जस्सणं जीवस्स वा जाव सुएत्ति नाम कज्जइ, सेतं नामसुयं // 28 // से किं तं ठवणासुयं? सब प्रकार के गुणों का आवास रूप, 2 आवस्थ करणिज्ज-सदैव आवश्य करने योग्य. ३धृवविग्रह-सदैव इन्द्रियों के निग्रह करने का स्थान,५विशुद्ध-आत्मा को विशुद्ध निर्मल करने का स्थान,५अध्ययन छ अध्ययन के वर्ग रूप, 6 न्याय-न्याय करनेवाला, 7 आराधन-ज्ञानादिक की आराधना करनेवाला और 8 मार्ग-मोक्ष का यही मार्ग // 1 // साधु साध्वी, श्रावक और श्राविका को दोनों वक्त आवश्य करने योग्य होने से इस का आवश्यक ऐसा नाम है. यह आवश्यक का अधिकार हुवा // // . / अब श्रुत के निक्षेप कहते हैं-अहो भगवन् ! श्रुत किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! श्रुत के चार प्रकार कहे हैं. तद्यथः- नाम श्रुत, 2 स्थापना श्रुत, 3 द्रव्य श्रुत और भाव श्रुत // 27 // अहो भगवन् ! नाम श्रत किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! किसी एक जीव का, तथा अजीव का, बहुत जीव का बहुत अजीव का, एक जीवाजीव का तथा बहुत जीवाजीव का श्रुत ऐसा नाम रखा वह नाम *श्रत. यह नाम श्रुत हुवा // 28 // अहो भगवन् ! स्थापना श्रुत किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! / प्रकाशक-रानावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसाद * For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 100 488 एकाधिनः म अन्योगद्वार सूत्र चतुर्थ ठवणा सुयं जंणं कटकम्मे वा जाव ठवणा ठविजइ, से तं ठवणा सुयं // 29 // नाम ठवणा कोपइ बिसेसो ? नाम अवशाहवं, ठवणा इचरिया वा होजा, अवकाहिया वा होजा॥ ३०॥से किं तं दब्बसुय? दन्व सुयं दुविहं पराणचं तंजहा-आगमतोय,नो मागमतो य // 31 // से किं तं आगमतो दव्वसुयं ? आगमतो दव्वसुयं जस्सणं सुएत्तिपयं सिक्खियं, ठियं, जियं, आव णो भनुहाए, कम्हा ? अणुवभोगो दव्वस्थापना श्रुत जो पूर्वोक्त प्रकार काष्टादि दश प्रकार से वस्तु की एक तथा बनेक, सदाव तथा असदाबी स्थापना करे वह स्थापना श्रुत. यह स्थापना श्रुत दुवा // 29 // अहो मगवन् ! नाप व स्थापना में क्या विशेषता है? बहो शिष्य ! नाय नावणीव तक रहता है और स्थापना पोडे काल की भी होती है और जावजीव की भी होती है॥३०॥ अहो मगवन् ! द्रव्य भूत किसे कहते! अहो शिष्य / द्रव्य अत के दो भेद को. तद्यथा-आगम से और नो बागम से ॥१॥यहो ममवन् ! आगम से द्रव्य श्रुत किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! बागम से द्रव्य श्रुत उसे कहते हैं कि जिस किसीने गुरु के पास से "श्रत "ऐसा पद पठन किया होवे हृदय में स्थित किया होवे यावत् उसमें उपयोग नहीं रखा होवे। उपयोग रहित होने से इन्य श्रुत का आता है. नैगम भय की अपेक्षा एक न्पत्ति श्रुत पठन करता है। उसे एक द्रव्य श्रुब कहना. यों विस प्रकार सात नय भावश्यक पर कहे उस ही प्रकार यहां पर भी श्रत पर चार निक्षेपे 488288+ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोलक ऋषिजी अनुवादक कालबाह्मचारी माना 1 मितिकट्ठ नेगमम्सणं एगो अणुवउतो आगमतो एगं दव्यसुयं जाव कम्हा ! जइ / FE जाणए अनुवउत्ते न भवइ, से तं आगमतो दव्वसुयं // 32 // से कि तं नो आगमतो दव्वसुयं ? नो आगमतो दव्वसुयं तिविहं पण्णत्तं तंजहा-जाणय सरीर दव्यसयं, भविय सरीर दव्वयं, जाणय सरीर भविय सरीर वहरितं दव्वसुयं // 33 // से किं तं जाणय सरीर दसुयं ? जाणयसरीर दव्वसुयं सुयति पयत्याहिगार जाणयस्स ज सरीरयं ववगयचुयं चाविय चतदेह तं चेव पुत्र भाणियं भाणियन्वं जाव से तं जाणय सरीर दव्वसुयं // 34 // से किं तं कहना. यावत् जिस लिये वह उपयोग रहित होता है इस लिये वह द्रव्य श्रुत कहाता है. यह मागम से है। द्रव्य श्रुत मा॥ 32 // अहो भगवन् ! नो आगम से इन्य श्रुत किसे कहते हैं: अहो शिष्य ! नो आम से द्रव्य श्रत के तीन भेद कहे हैं जिन के नाप- शरीर द्रव्य भूत, 2 भव्य शरीर द्रव्य श्रुत और 3 व भरीर भग भरीर व्यतिरिक्त द्रव्य श्रुत // 33 // अहो भगवन् ! शरीर द्रव्य श्रुत किसे कहते हैं? अहोशिष्य श्रुत'ऐसे पदव उस के अर्थ के अधिकार का शाता भरीर जीव राहत,माण रहित व की चेष्टा रहित पूर्वोक्त प्रकार हुवा उसे देख कर कोई कहे कि यह श्रुत का ज्ञाता था. जैसे यह सका घट, यह घृत का प था. इसे शरीर द्रव्य श्रुत कहना // 34 // अहो भगवन् ! भव्य शरीर * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालापमादजी અર્થ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 48-23 एकविंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र चतुर्थ मूल 4882 भविय सरीर दव्वसुयं ? भविय सरीर दवसुर्य-जे जीवे जोणी जम्मणं निवसंते / जहा दव्वावस्सए तहा भाणियव्वं, जाव सेतं भविय सरीर दव्वसुयं // 35 // से किं तं जाणय सरीर भविय सरीर वइरित्तं दव्वसुयं ? जाणय मरीर भषिय सरीर वइस दव्वसुयं-जंपत्तयपोत्थयलिहियं // अहवा जाणय सरीर भविय सरीर वइरित्तं दव्वसुवं पंचविहं पण्णत्तं तंजहा-अंडयं, बोडयं, कीडयं, वालयं, चक्कयं, द्रव्य श्रुत किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! जिस किसीने माता की योनि से जन्म लिया वा वागमिक काल में श्रुत का अभ्याप्त करेगा, जैसे यह मधु का या घृत का घट होगा उसे भव्यशरीरद्रव्यश्रुत कहना // 35 // अहो भगवन ! शरीन्द्रन्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्य श्रुत किसे कहते हैं? अहोर शिष्य ! साह पत्र अथवा पुस्तक पर जो लिखा दुवा श्रुत है उप्ती का नाम ज्ञ शरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य श्रृत है. प्राकृत में श्रुत शब्द व मूत्र शब्द इन दोनों के लिये सुय शब्द का प्रयोग किया है। इस से अब यहां सूत्र का अधिकार कहते हैं. यहां मूत्र के पांच भेद कहे हैं- अंडज-अण्टे से उत्पन्न होनेवाला, बोडज सूत्र-फल से उत्पन्न होनेवाला. 3 कीडज-कृपि से उपब होने वाला, 4 बालज बाल से उत्पन्न होनेवासा और 5 वल्कलज-वल्कल से उत्पन्न होनेवाला. प्रश्नस में अंडज किसे 488.488+ भुतपर चार निक्षेपे483428 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंडयं-हंसगम्भादि, बोडयं-कप्पासमाइ, कीडयं पंचविहं पण्णत्तं तंजहा-पट्टे, मलए, असुए, चीणंसुए, किमिरागे // बालयं पंचविहं पण्णत्तं तंजहा-उण्णिए उहिए, मिपलोमिए, कोत्तवे, किष्टिस // वागयं सणमाइ // सेतं जाणय सरीरं भविय सरीरवइरित्तं दव्वसुयमसेतं नो आगमतो दन्वसुयं॥सेतं दव्वसुयं॥३६॥से किं तं भावजुयं? भावसुयं दुविहं पण्णत्तं तंजहा-आगमतो य, नो आगमतो य // 37 // से किं अनुवादक वालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी कहते हैं ? उसर-अज सो हंस गर्भ प्रमख जान लेना. बोडज सो कर्पास का सत्र वगैरह जानना. कीडे से शेनेवाले मूत्र के पांच भेद-पट्ट सूत्र-कीडे की लाल से बना, 2 मलय मूत्र मलय देश के कीडे से बना, 3 अंशुक मूत्र-चिन देश सिवाय अन्य देश के कीडे से बना, चिनांशक-चीन देश के कीडे से बना. और 5 कृमिराग-रक्त वर्ण के कीडे से बना. वाल के पांच भेद कहे हैं. तबथा- मेंदे के बाल से १२ऊंट के बाल से, 3 मृग के बाल से, 4 ऊंदर के बाल से और 5 किसी कीटक के रोम से. और बल्कळ से शन वगैरह जाननन. यह शरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य श्रृत हुवा. यह नो आगम से द्रष्य श्रुत का कथन हुवा. या द्रव्य श्रुन का कथन संपूर्ण हुवा // 36 // अहो भगवन् ! भाव श्रुत किसे हते हैं? अहो शिष्य! भाव श्रुत के दो भेद-आगम से वनो आगम से ॥३७॥अहो भगवन् ! आगम से भाव For Private and Personal Use Only प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तं आगमतो भावसुयं ? आगमतो भावसुयं-जाणए उवउत्ते सेत्तं आगमतो भावसुय // 38 // से किं तं नो आगमतो भावसुयं?नो आगमतो भावसुयं-दुविहं पण्णत्तं तंजहा. लोइयं, लोगुचरियं च // 39 // से किं तं लोइयं नो आगमतो भावसुयं ? B लोइयं नो आगमतो भावसुयं, जं इमे अण्णाणिएहि मिच्छादिट्ठीएहि सच्छंरबुद्धिमइ विगप्पियं तनहा-भारहं, रामायणं, भीमासुरुक्ख, कोडिल्लयं, घोडयमुहं, सगड भदियाओ, कप्पसियं, णागसुहुमं केणगसत्तरीवेसियं, वइसेसियं, बुद्धसासणं, मर्थ श्रुत किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! उपयोग सहित अर्थ परमार्थ का ज्ञाता हो श्रुत का पठन करे वह -भाव श्रुत कहा जाता है. यह आगम से भाव श्रुत का कथन हुवा // 38 // अहो भगवन् ! नो आगम से भाव श्रुत किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! नो आगम से भाव श्रुत के दो भेद कहे हैं. लौकिक व लोको तर // 39 // अहो मगवन् ! लौकिक नो आगम से भाव श्रुत किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! अज्ञानी मिथ्यादृष्टियोंने अपनी स्वच्छंदता से व मति कल्पना से जो 1 भारत, 2 रामायण, 3 भीमसु-१ युक्त, 4 कौटित्य, 5 पोटज सूत्र, 6 सगड भद्र, 7 कल्पाकल्प, 8 नाग मूक्ष्म, 9 कनक सत्तरी, 10 वैरोसिका, 11 बुद्ध वचन, 12 कपिल, 13 वैशिक, 14 लोकायत, 15 साठ तंत्र, 16 मादर, गिद्वार मूत्र चतुर्थ 389 श्रुत पर चार निक्षेपे - For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 48 अनुवादक बारब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8+ काविलं, लोगायतं, सट्रियंत्तं,माढरपुराणं,वागरणं नाडगाइ. अहवा बावत्तरिकलाऔ चत्तारियवेया, संगोवगाणं, से तं लोइयं नो आगमतो भाव सुयं // 40 // से किं तं लोउत्तग्यिं नो आगमतो भावसुयं ? लोउत्तरियं नो आगमतो भावसुयं-जं इमं अरिहंतेहिं भगवंतेहिं उप्पण्णणाण दसणधरेहिं तीय एडुप्पण्ण मणागय जाणएहिं सवण्णाहिं सव्वदरिसिहिं तिल्लुक्करहित महितपूइएहिं, अप्पडिहय वरणाण सण धरेहिं पणीयं दुवालसंग गणिपिंडगं तंजहा-आयारो, सुयगडो, ठाणं, समवाओ, विवाहपण्णत्ती, नाया धम्म कहाओ. उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, 17 पुरान, 18 व्याकरण, 19 नाटक; 20 बहत्तर कला के शास्त्र, 21 चारों वेद. 22 सोमोपोग पट् शास्त्र वैगरह जो बनाये हैं उसे नो आमम भाव श्रुत कहना // 40 // अहो भगवन् ! लोकोचर नो आगय से भाव श्रुत किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! लोकोत्तर नो आगम से भाव श्रत उसे कहते हैं कि जो केवल ज्ञान केवल दर्शन के धारक भून काल, भविष्य काल व वर्तमान काल यों तीनों काल भाव के सर्वज्ञ सर्वदशी, तीन लोक के जीवों को वंदनीय पूज्यनीय, अप्रतिहत प्रधान ज्ञान दर्शनवाले श्री अरि-मैं हत वीतराग देवने आचार्य के रत्न करंड समान जो द्वादशांग रूपे हैं. इन द्वादशांग के नाम कहते, Vt. आचारांग, 2 सूत्रकृतांग, 3 स्थानांग, 4 समवायांग, 5 विवाह प्राप्ति, 6 ज्ञाता धर्म कांग, .प्रकाशक-जावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 488 अणुत्तरोववाइयदसाओ, पाहावागरणाई, विवागसुयं, दिठिवाओय, सेतं लोउत्तरियं नो आगमतो भाव सुयं // सेतं नो आगमतो भावसुयं // से तं भावसुयं // 4 // तस्सणं इमे एगट्टिया णाणाघोसा णाणावंजणानामधेजा भवंतितंजहा(गाह)सुयं सुत्तं गंथ सिंडति सासणं आणत्ति. वयण उवएसो // पण्णवणे आगमेऽवियएगट्ठा पज्जवासुत्ते // 1 // सेतं सुयं // 42 // * // से किं तं खंधे ? खंधे चउबिहे पण्णत्ते अर्थ 7 उपासक दशांग, 8 अंतकृत दशांग, 9 अनुत्नरोपपातिक दशांग, 10 प्रश्न व्याकरण. 11 रिपाक और 12 दृष्टिवाद. यह लोकोत्तर नो आगम भाव श्रुत हुवा. श्रुत शब्द पर यह चार निक्षेप हुए // 41 // LE श्रत के दश नाम कहते हैं-यह श्रुत पद एकार्थ वाची, अनेक घोष व अनेक व्यंजनवाला है. इन के नाम से कहते हैं-१ श्रुत गुरु आदि के मुख से श्रवण कर धारन किया जावे, 2 सूत्र-अर्थ परमार्थ की सुचना रूप, #3 ग्रंथ-अनेक भाव भेदना का ग्रंथन, 4 सिद्धांत-स्वतः के गुन से सिद्ध बना हुवा या निश्चय ज्ञान का दर्शक. 5 शासन-हितशिक्षा या कर्म दंड का दाता, 6 आज्ञक-जिनाज्ञा या मोक्ष पथ का दर्शक, E7 वचन-सद्धोध या सत्य कथन करनेवाला, 8 उपदेश-हिताहित दर्शक अथवा न्याय पथ में स्थापक, 9 प्रज्ञप-प्रवचन सद्बुद्धि द्वारा प्रकाशक अथवा अन्य नहीं कह सके वैसा उत्कृष्ट प्रधान बचन कहने-0 बाला और 10 आगम-जिन प्रणित परंपरा से चला आता. यह एकार्थवाची भाव श्रुत के नाम कहे || * यह श्रुत का अधिकार संपूर्ण हुवा // 2 // 42 // * // अब स्कंध शब्द पर चार निक्षेप कहते हैं एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्य मूल-987 श्रुत पर चार निक्षेपे 8 498 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तंजहा-नाम खंधे, ठवणा खंधे, दव्व खंधे,भाव खधे // १॥णाम ठवणाओ पुब्बभणि आओ आणुकमेण भाणियवाओ॥२॥से किं तं दध्वखंधे ? दव्व खंधे दुविहे पण्णत्ते __तंजहा-आगमतोय नो आगमतोय // 3 // से किं तं आगमओ दव्वखंधे ? आगमओ दव्वखंधे-जस्सणं खंधेति पयं सिक्खियं सेसं जहा दवावस्सए तहा भाणियन्वं, णवरं खंधाभिलावो जाव से किं तं जाणय सरीर भविय सरीर वइरित्ते दव्वखंधे ? जाणय सरीर भविय सरीर वइरित्ते दव्वरवंधे तिविहे पण्णत्ते तंजहाअर्थ | अहो भगवन् ! स्कंध किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! स्कंध के चार प्रकार कहे हैं. तद्यथा-१ नाम , Fस्कंध, 2 स्थापना स्कंध. 3 द्रव्य स्कंध, और 4 भाव स्कंध // 1 // इन चारों में नाम स्कंध व स्थापना स्कंध का कथन पूर्वोक्त आवश्यक के कथन जैसे कहना // 2 // अहो भगवन् ! द्रव्य स्कंध किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! द्रव्य स्कंध के दो भेद कहे हैं. तद्यथा-आगम से व नो आगए से // 3 // अहो भगवन् ! आगम से द्रव्य स्कंध किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! आगम से द्रव्य स्कंध उसे कहते हैं कि जो " स्कंध" ऐसा पद पढा. हृदय में स्थित किया यावत् सब द्रव्य आवश्यक जैसे कथन करना. विशेष यहां सब स्थान स्कंध लेना. यावत् अहो भगवन ! ज्ञ शरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य स्कंध किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! ज्ञ शरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य स्कंध के तीन भेद कहे हैं. / मुनि श्री अमालक ऋषिमा अनुवादक बाल ब्रह्मचारी * प्रकाशक-रामावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 488 सचिते अचिते मीसए // 4 // से किं तं सचित्त दव्वखंधे ? सचित्ते दव्यखंधे-अणेग विहे पण्णत्ते तंजहा-हयखंधे, गयखंधे, नरखंधे, किन्नरखंधे, किंपुरिसखंधे, महोरग खंधे, गंधव्वखंधे, उसभखंधे, से तं सचिते दव्वखंधे // 5 // से किं तं अचित्ते दन्वखंधे ? अचित्ते दव्वखंधे अणेगविहे षण्णत्ते तंजहा-दुपएसिए तिपएसिए जाव दसपएसिए सखिजपएसिए असखिजपएसिए अणंतपएसिए, से तं अचित्ते दबखंधे // 6 // से किं तं मीसए दव्वखंधे ? मीसए दव्वखंघे अणेगविहे पण्णत्ते तंजहासचित्त, अचित्त व मीश्र // 4 // अहो भगवन् ! अचित्त स्कंध किसे कहते हैं ? अहो गौतम ! सचित्त का स्कंध, मनुष्य का स्कंध, किन्नर का स्कंध, किंपुरुष का स्कंध, महोरग का स्कंध, गंधर्व का स्कंध, व वृषभ का स्कंध इत्यादि स्कंध को सचिन द्रव्य स्कंध कहना // 5 // अहो भगवन् ! अचित्त द्रव्य स्कंध किसे कहते हैं ? अो शिष्य ! अचित्त द्रव्य स्कंध के अनेक भेद कहे हैं. तद्यथा-द्विपदेशिक त्रि प्रदेशिक यावत् दश प्रदेशिक स्कंध, o संख्यात प्रदेशिक, असंख्यात प्रदेशीक व अनंत प्रदेशिक स्कंध. यह अचित्त द्रव्य स्कंध दुवा // 6 // ala | अहो भगवन् ! मीश्र द्रव्य स्कंध किसे कहते हैं ? अहो गौतम! मीश्र द्रव्य स्कंध अनेक प्रकार से ઈ 488+ एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ 88 स्कंध पर चार निक्षेपे 4884889 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी सेणाए अग्गिमे खंधे, सेणाए मज्झिमे खंधे, सेणाए पच्छिमे खंधै, से तं मीसए दब्वखंधे // 7 // अहवा-जाणय सरीर भविय सरीर बइरित्ते दवखंधे तिविहे पण्णते तंजहा-कसिणखंथे, अकसिणखंधे अणेग दवियखंधे // 8 // से किं तं कसिणखंधे?कसिणखंधे सो चेव हयखंधे गयखंधे जाव उसभखंधे से तं कसिण खंथे ॥से किं तं अकतिणखंधे ?अकसिणखंधे सोचेव दुपएसिया खंधे जाव अणंतपएसिए खंधे सेतं अकसिण खंधे||से किं तं अणेग दवियखंधे?अणेगदविय खंधे तस्सचेव देसे * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालामलादजी कहा है. इस्ती अन्च शस्त्रादि संयुक्त सेना का अग्रिम स्कंध, सेना का मध्य स्कंध और सेना का पीछे का स्कंध. यह मीश्र द्रव्य स्कंध हुवा / / 7 // अथवा ज्ञ शरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य स्कंध के तीन भेद कहे हैं जिन के नाम-१ कृत्स्न (प्रतिपूर्ण) द्रव्य स्कंध, 2 अकृत्स्न अप्रतिपूर्ण द्रव्य स्कंध.. और 3 अनेक दृष्यवाला स्कंध // 8 // अहो भगवन् ! कृत्स्न द्रव्य स्कंध किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! पूर्वोक्त अश्व स्कंध गज स्कंध वगैरह कृत्स्न स्कंध है. विप्रदेशिक त्रिपदेशिक यावत् अनंत पदेशिक वगैरा में अकृत्स्न द्रव्य स्कंध है, और अहो भगवन् ! अनेक द्रव्य स्कंध किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! सचित्त मनुष्य पशु आदि के शरीर का नख वगैरह जीव के प्रदेश रहित होवे तथा जीव प्रदेश सहित होये उसे For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 9 1300 अवचिए तरस चेव देसे उवचिए, से तं अंणेगदध्वियं खंधे. सें ते जाणय सरीर भविध सरीर वइरित्ते दवेखंधे, से तं नो आगमओ दव्वखंधे. से तं दव्य खंधे / / 9 / / से किं तं भावखंधे ? भाव खंधे दुविहे पण्णत्ते तंजहा-आगमओय, नो आगमओय // 10 // से किं तं आगमओ भावखंधे ? आगमओ भावखंधे जाणए उवउत्ते, से तं आगमओ भावखंथे // से किं तं नो आगमओ भावखंधे ? नो आगमओ भावखंधे एएसिं चेव सामाक्ष्य माइयाणं छण्हं अज्झयणाणं समुदय समिइ एकत्रिशतम-अनुयोगद्वार मुत्र-चतुर्थ मूल स्कन्ध पर चार निक्षपे अनेक द्रव्य स्कंध कहते हैं, यह ज्ञ शरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्ब स्कंध रहा. यह नो आगम से द्रव्य स्कंध इवा. यह द्रव्य स्कंध का कथन पूरा हुवा // 9 // अहो भगवन् ! भाव स्कंध किसे कहते हैं। अहो गीतप! भाव स्कंध के दो भेद कहे हैं. तद्यथा-१ आगम से और 2 नो आगम से // 1 // अहोर भगवन ! मागम से भाव स्कंध किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! उपयोग पूर्वक स्कंध का अर्थ परमार्थ को जाने सो. यह आगम से भाव स्कध हुवा. अहो भगवन् ! नो आगम से भाव स्कंध किसे कहते हैं ! अहो शिष्य ! सामायिकादि छ ही अध्ययन एकत्रित करने से मूत्र का जो स्कंध होता है वह नो *आगम से भाव स्कंध है. यह भाव स्कंध का अधिकार हुवा. यह स्कंध पर चारों निक्षेप हुए // 11 // अब | 1498 - For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्र 1 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी पनि श्री अमोलक ऋषिजी ? समागमेणं निपिण्णे आवस्सयसुय खंधे भावखंधेत्ति लब्भइ,सेतं नो आगमओ भावखंधे,से तं भावखंधे // 11 // तस्सणं इमे एगट्रिया णाणा घोसा, णाणा वंजणा, नामधेजा भवंति, तंजहा-(गाहा)गणकाए निकाएचिए,खंधे,वग्गे,तहेव रासीयापुंजय पिंडे निगरे, संघाए आउल समहे // 1 // से तं खंधे // * // आवस्सगस्सणं इमे अस्थाहिगारा भवंति, तजहा-(गाहा) सावजजोगविरई उकित्तण गुणवओय पडिवत्ती,॥ खलिच स्स निंदणा, वणतिगिच्छ गुण धारणा चेव // 1 // आवस्सयस्सणं एसो पिंडत्यो स्कंध के बारह नाम कहते हैं-यह भाव स्कंध एकार्थ वाची, अनेक घोष, अनेक व्यंजनवाला है. इस के नाम-१ गण-बहुतों का मीलना, 2 काय-पट्काय समान, 3 निकाय-शरीर तुल्य, 4 स्कंध- वृक्ष के ध जैसा, 5 वर्ग-गौवर्ग सपान, 6 राशि-ढग समान, 7 पूंज-धान्यादि के पूंज समान, 8 पिंडमुशिका के पिण्ड समान, 9 निकर-उपचित हवा, 10 संघात-संघातन, 11 आकुल-कुल के समान और 12 समुह. यह स्कंध का तीसरा अधिकार हुवा // 3 // * // अब इन आवश्यक श्रुत, व स्कंध इन तीनों के चार 2 निक्षेप करके चौथा आवश्यक के अध्ययन का कथन करते हैं. आवश्यक के निम्नोक्त अर्थाधिकार होते हैं. जैसे कि सावध योग की विरति रूप प्रथम अध्ययन, 2 गुण कीर्तन रूप 7 प्रकाशक-राजाबहादुर लाल मुखदेवसहायजी ज्वालामसादनी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir A8+ एकत्रिंशत्तम्-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ वण्णिओ समासेणं // एत्तो एकेक पुण अझयणं कित्तइस्सामि // 1 // तंजहासामाइयं, चउवीसत्थओ, वंदणयं, पडिक्कमणं, काउस्सगो, पच्चक्खाणं // 1 // तत्थ पढमं अज्झयणं सामाइयं तस्सणं इमे चत्तारि अणुओगदारा भवंति तंजहाद्वितीय अध्याय, 3 गुणयुक्त को बंदना रूप तृतीय अध्याय, 4 अतिचारों की निवृत्ति रूप चतुर्थ अध्याय 5 दोष रूप व्रण की औषधि रूप पंचम अध्याय और 6 उत्तर गुण की धारणा रूप षष्ठ अध्याय. यह छ आवश्यक रूप छ अध्ययन मानना. यह आवश्यक के स्कंध का संक्षेप से अर्थ वर्णन किया परंतु स्कंध के एकेक अध्ययन का विस्तार पूर्वक व्याख्या करूंगा. जैसे-१सामायिक-समता रूप लाभ. 2 चतार्वशस्तव-चउवीस तीर्थकर के गुणानुवाद. 3 वंदना-गुणाधिक की वंदना करना, 4 प्रतिक्रमण-आतिचार रूप पाप से निवर्तना, 5 कायोत्सर्ग-पाप की विशुद्धि के लिये काया को उत्सर्ग सन्मुख रखना और 6 प्रत्याख्यान-अनागत काल में पाप के आगमन का द्वार रोकना. यह आवश्यक के छ अध्ययन के नाम चिन जानना // 1 // अहो शिष्य ! उक्त छ अध्ययन में से प्रथम अध्ययन का नाम सामायिक है उस के यह चार अनुयोग द्वार होते हैं. जैसे-१ उपक्रम-दूर की वस्तु को नजीक करने का उधम करना, 2 निक्षेप-फिर उसे दृढता पूर्वक करना, 3 अनुगम ब्याख्या करना और 4 नय-अनेक धर्ममय वस्तु को मुख्यता में एक ही धर्मपय मानना. इस का विस्तार पूर्वक कथन आगे कहते हैं. जिस 4884 आवश्यक के अध्ययन 488 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 10 उवकम्मे, निक्खेवे, अणुगमे, नए // 2 // से किं तं उबक्कमे ? उबक्कमे छबिहे पण्णत्ते तंजहा-णामोवक्कमे, ठवणोवक्कमे, दव्योवक्कमे,खेत्तोवक्कमे,कालोवक्कमे, भावोवक्कमे // णाम ठवणाओ गयाओ // 3 // से किं तं दबोक्कमे ? वोवक्कमे दुविहे पण्णसे तंजहा-आगमओय, नो आगमोओय जाव जाणग सरीर भविय सरीर वहारत्ते, दबोक्कम तिविहे पण्णत्ते तंजहा-सचित्ते अचित्ते मीसए // 4 // से किं तं सचित्त दवावक्कमे ? सचित्ते दव्योवक्रमे तिविहे पण्णत्ते तंजहाअर्थ प्रकार किसी वस्तु की प्राप्ति के लिये नगर में द्वारों से प्रवेश कर सकते हैं वैसे ही आवश्यक रूप नगर में HEवेश करने के लिये अनुयोग–अध्ययनादि की व्याख्या रूप मुख्य चार द्वारों का कथन वैसे ही प्रत्येक के उत्तर द्वारों का कथन कहते हैं // 2 // अब प्रथम उपक्रम का अधिकार कहते हैं. अहो भगवन् ! उपक्रम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! उपक्रम के छ भेद कहे हैं जिन के नाम-१ नाम उपार र स्थापना उपक्रम, 3 द्रव्य उपक्रम, 4 क्षेत्र उपक्रम, 5 बाल उपक्रम और 6 भाव उपक्रम. नाम व स्थापना उपक्रम का कथन पूर्वोक्त नाम ब स्थापना आवश्यक जैसे कहना // 3 // अहो / गर! द्रव्य उपक्रय किसे कहते हैं ? ओ शिष्य ! द्रव्य उपक्रम के दो भेद हैं- आगम से ही और २नो आगम से यावत् ज्ञ शरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य उपक्रम के तीन भेद कहे हैं११ सचित्त, 2 चित्त और 3 मीश्र॥४॥ अहो भगवन : सचित्त द्रब्य उपक्रम किसे कहते है अनुदानाचारामुनि श्री अमोलक ऋषिर्ज प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir + +8+ एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल दुप्पए, चउप्पए, अप्पए, एकिक्के पुण दुविहे पण्णत्ते तंजहा-परिक्कमेय वत्थुविणासेय॥५॥ से किं तं दुप्पए उवक्कमे?दुपए उवक्कमे-दुप्पयाणं,नडाणं,नट्टाणं जल्लाणं मलाणं, मुट्ठियाणं बेलंबगाणं, कहगाणं, पवगाणं, लासगाणं, आइक्खगाणं, लंखाणं, मंखाणं, तूणइल्लाणं, तुंबवीणियाणं, काबोयाणं, मागहाणं,से तं दुप्पए उवक्कमे // 6 // से किं तं च उप्पए। F अहो शिष्य ! सचित्त द्रव्य उपक्रम के तीन भेद कहे हैं. तद्यथा-५ द्विपद, 2 चतुष्पद और 1 अपद.* 2 इन में एकेक के दो 2 भेद कहे हैं तद्यथा-१ परिक्रम और 2 वस्तु विनाशक.॥५॥ अहो भगवन् ! द्विपद उपक्रम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! नृत्य करनेवाले, नाटक करनेवाले, रस्सीपर खेलनेवाले, मल्लयुद्ध करनेवाले, मुष्टियुद्ध करनेवाले, वेष बनानेवाले. ऐतिहासिकादि कसा करनेवाले, पवाडा गानेवाले, विरुदावाली बोलनेवाले, ज्योतिष निमित्त प्रकाशनेवाले, वंशाग्र खेलनेवाले. काष्ट पर या वस पर चित्र # लेखन कर बतानेवाले, वीणा बजानेवाले, तम्बादिक की वीणा बजानेवाले. कावर धारन करनेवाले. 'मागधिक-जय 2 शब्द बोलनेवाले, ये उपक्रम से अनेक काल का अभ्यास कर वस्तु उत्पन्न करते हैं। उसे उपक्रम कहना और विनाश करते हो उसे वस्तु विनाशक कहना. यह द्विपद उपक्रम के भेद हए. दीर्घ काल में जो कार्य सिद्ध होने का होवे वह स्थापनादि प्रयोग से थोडे काल में सिद्ध करे यह परिक्रम. ऐसे ही दीर्घ काल में बस्तु काविनाश होने का हो उस का शस्त्रादि प्रयोग से अल्प काल में विनाश करन व विमाशक. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी उवक्कमे ? चउप्पए उवक्कमे-चउप्पयाणं आसाणं हत्थीणं इच्चाइ से तं चउप्पए उवक्कमे ॥७॥से किं तं अप्पए उबक्कमे? अप्पए उबक्क-अप्पयाणं अंबाणं अंबाडगाणं इच्चाइ से तं अप्पएउवक्कमे, से तं सचित्त दव्वोवक्कमे // 8 // से किं तं अचित्त दव्योवकमे ? अचित्त दव्योवक्कमे-खंडाईणं गुडाईणं मच्छंडीणं, से तं अचित्त दव्वोवकमे // 9 // से किं तं मीसए दव्वोवक्कमे ? मीसए दव्वोवक्कमे सोचेव थालगआयसगाइमंडिए आसाइ, से तं मीसए दव्योवक्कमे. // से तं जाणय सरीर // 6 // अहो भगवन् ! चतुष्पद उपक्रम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! हाथी घोडे इत्यादि उपक्रम से अनेक कला का अभ्यास करे सो उपक्रम और वस्तु का नाश करे वह वस्तु विनाशक // 7 // अहो भगवन् ! अपद उपक्रम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! आम्र अम्बाडे इत्यादि फल रसादि गुन की वृिद्धि करे तथा घटादि घृतादि धारन करे वह उपक्रम और इन से वस्तु का नाश करे सो विनाशक. यह अपद उपक्रम का और सचित्त द्रव्य उपक्रम के भेद हुए // 8 // अहो भगवन् ! अचित्त द्रव्य उपक्रय किसे कहते हैं। अहो शिष्य ! अचित्त द्रव्य उपक्रम शक्कर, गुड, मीश्री आदि दुग्धादि में मीलाने से मिष्ट गुन वगैरह की वृद्धि करे सो अचित्त द्रव्य उपका और विनाश करे सो वस्तु विनाशक. यह #अचित्त द्रव्य उपक्रम का कथन हवा // 9 // अहो भगवन् ! मीश्र द्रव्य उपक्रम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! आभषणों से अलंकृत बने हुए उस अश्वादि को उपक्रम या वस्तु विनाश द्वारा शिक्षित बमावे प्रकाशक-राजावहादुर छाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 8 + एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ भविय सरीर वइरित्ते दव्योवकमे // से तं नो आगमओ दवावक्कमे // से तं दबोवक्कमे // 10 // से किं तं खेत्तोवक्कमे ? खेत्तोवक्कमे-जण्णं हलकुलियाईहिं खेत्ताई उवक्कमिजति. से तं खेतोवक्कमे // 11 // से किं तं कालोवक्कमे ? कालोवक्कमे ! जं गं नालियाईहिं कालस्सोवक्कमणं कीरइ, से तं कालोवक्कमे // 12 // से किं तं भावोवक्कमे ? भावोवक्कमे ! दुविहे पण्णत्ते तंजहा-आगमओय नो आगमोओय, आगमओ जाणए उवउत्ते।नो आगमओ दुविहे पण्णत्ते तंजहा-पसत्थेय अपसत्थेय, या नाश करे यह वीश्र द्रव्य उपक्रम हुवा. यह ज्ञ शरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य उपक्रम का कथन हुवा. यह नो आगम द्रव्य उपक्रम व द्रव्य उपक्रम का कथन हुवा | // 10 // अहो भगइन् / क्षेत्रोपक्रम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! हल और कुलि करके क्षेत्रादि का उपक्रम वा वस्तु विनाश किया जाता है उसे क्षेत्रोपक्रम कहते हैं // 1 // अहो भगवन् ! कालोपक्रम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! घटिकादि से काल का जो प्रमाण किया जाता है अथवा पावसे पौरुषी आदि का प्रमाण होता है उसे कालोपक्रम कहते हैं. // 12 // अहो भगवन् ! भावउपक्रम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! भावउपक्रम के दो भेद कहे हैं तद्यथा-आगम से और नो आगम से. उस में शास्त्रादिक का उपयोग सहित अभ्यास करे सो आगम से भावोपक्रम और नो आगम से भावोपक्रम के दो भेद 8 आवश्यकपर-चार निक्ष842808 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4.अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी: 3 तत्थ अपसत्थे डोडिणि गणियाय मच्चाईणं, पसत्थे गुरुमाईणं. से तं नो आगमओ। तद्यथा-प्रशस्त और अप्रशस्त. इस में अप्रशस्त उपक्रम से ब्राह्मणी की गणिका की और प्रधान की बुद्धि. इन तीनों की संक्षेप से कथा करते है- एक ब्राह्मणीने अपनी तीनों पुत्रियों को पाणिग्रहण कराकर कहा कि तुम अपने पति को किसी प्रकार के अपराध में लाकर उस के पाद प्रहार करना और नो होवे सो सब वृत्तात मुझे कहना. तीनों ने डासही प्रकार किया.उस में एक के पति ने प्रसन्न हो कहा कि मेरे कठिन मस्तक में तेरे पांव से प्रहार करने से तेरे कोमल पांव को इजा हुई होगी। सो माफ कर. दुसरी के पति ने उत्तम स्त्री को ऐसा करना योग्य नहीं है यों कहकर क्रोधित होकर कशान होगया. और तीसरी के पति ने उसे घर से बाहिर नीक दी. तीनोंने अपने माता को वीतक वार्ता कही. माताने प्रथप पुत्री से कहा तू निश्चित रहे. तेरा पति तेरी आज्ञा में रहेगा. दूसरी से भी कहा तू भी निश्चित रहे. कदापि तेग पति कुपित होगा तो शांत हो जायगा. और तीसरी से कहा यदि तू मुख की अभिलाषा करती हो तेरे पति की आज्ञा में सदैव रहना यों पत्री और उनके पति का अभिमाय जाना सो ब्राह्मणी की बुद्धि जानना. किसी वेश्याने जगत के प्रतिहित 2 पुरुषों के चित्रों की. चित्रशालाबनवाइ. वहां राजपुत्रादि जो आवे वे अपना चित्र देख कर संतुष्ट होवे और वेश्या को संतुष्ट करे. इस वेश्याने अपनी बुद्धि से द्रव्योपार्जन किया सो वेश्या की बुद्धि. 3 एकदा राजा अपने मंत्री सहित अश्व पर आरूढ होकर वन क्रीडा करने गया था. वहां एक स्थान पर घोडेने लघुनीत की जिस से खड्डा 'पड कर वहां ही मूत्र स्थिर रहा. यह देख राजाने विचार किया कि यहां तलाव होवे भी अच्छा. परंतु .प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेक्सहायजी-ज्वालाप्रमादली. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir E0% B80 एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल Page #40
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir + एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल नो अणाणुपुवी दव्वेहि समोयरंति, नो अवत्तव्वय दव्वेहि समोयरंति. ॥नेगमववहाराणं अणाणुपुब्बी दबाई कहिं समोयरंति किं आणुपुवी दव्वहिं समोयरंति, अणाणुपुब्बी दव्धहि समोयरंति. अवचव्यय दव्वेहिं समोयरंति?नो आणुपुवी दब्बेहि समोयरति. अणाणुपुबीदव्येहिं समोयरंति. नो अवत्त व दव्वोहिं समोयरंति नेगमववहाराणं अवसव्व दव्वाइंकहिं समोयरति-किं आणुपुयी व्यहि समोयरंति,अणाणुपुवी दव्वेहि समोयरति, अवत्तव्व दव्वेहिं समोयरंति ? नो आणुपुब्बी दब्वेहिं समोयरंति, नो अणाणुपुथ्वी दव्वेहि समोयरंति, अवत्तब्धय दब्वेहि समोयरंति // सेतं समोयारे // 28 // से व्यवहार नयके मत से समवतार कैसे होता है ? क्या आनपूर्वी द्रव्य का समवतार होता है. अनानुपूर्वी द्रव्य का समवतार होता है या अवक्तव्य द्रव्य का समवतार होता है ? अहो शिष्य ! गम व्यवहार नय के मत से आनुपूर्वी द्रव्य में समवतार होता हैं परंतु अनानुपूर्वी व अवक्तव्य द्रव्य में समवतार नहीं है होता है. ऐसे ही अनानुपूर्वी द्रव्य का अनानपूर्वो द्रव्य में समवतार होता है परंतु आनुपूर्वी व अवक्तव्य व द्रव्य में समवतार नहीं होता है और अवक्तव्य द्रव्य का अवक्तव्य द्रव्य में समवतार होता है। परंतु अनापूर्वी व आननुपूर्वी द्रव्य में समवतार नहीं होता है // 28 // बहो भगवन् ! अनुगम किसे *88% समवतार वर्णन 43. 498 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . किं तं अणुगमे ? अणुगमे नव विहे पण्णत्ते तंजहा-(गाहा) 1 संतपय परूवणया, 2 दव्वपमाण,३ खित्त, 4 फुमणाय 5 कालोय 6 अंतरं,७ भाग, 8 भाव, 9 अप्पाबडं चेव // 1 // 29 // नेगमववहाराणं आणुपुवी दव्वाइं किं अस्थि नत्थि ? णियमा आत्थि, // नेगम ववहाराणं आणाणुपुब्बी दवाई किं अस्थि णत्थि ? णियमा अत्थि // नेगम ववहाराणं अवत्तव्यग दवाई कि अस्थि स्थि ? नियमा अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी कहते हैं ? अहो शिष्य ! सूत्र के अनकल रूप का दर्शानेवाला अथवा माननीय रूप की व्याख्या करनेवाले अनुगम के नव भेद कहे हैं. तद्यथा-१ सत्पभिरूपना द्वार-विद्यमान सत्पद की प्ररूपना करे परंतु आकाश कुमुगवत् अविद्यमान पद की प्ररूपना नहीं करे, 2 द्रव्य प्रमाण द्वार-इस में द्रव्यों के संख्या का कथन, 3 क्षेत्र द्वार-जितने क्षेत्र में रहे उस का कथन, 4 स्पर्शन द्वार में कितना क्षेत्र स्पर्शना जिस का कथन.काल द्वार में कितने काल की स्थिति है उसका कथन है, 6 अंतर द्वार में बिछडे हुआ पीछे कितने काल में मील जाय उस का कान है,७भाग द्वार में परस्पर कितना भाग है जिस का कथन है.८ भाव द्वार में कितने भाव है उस का कथन है, और 2 अल्पावहत्त्व द्वार में अल्पबहुत्व व विशेषाधिक कौन 2 है जिस का वर्णन है // 29 // प्रथम सत्पद प्ररूपना द्वार-अहो भगवन् ! नैगम व्यवहार नय के मत से अनुपूर्वी द्रव्य. अनानुपूर्वी द्रव्य व अवक्तव्य द्रव्य की अस्ति है कि नास्ति है ? अहो शिष्य ! तीनों काल में तीनों प्रकार के द्रव्य की नियमा से सदैव अस्ति है परंतु नास्ति नहीं है // 30 // For Private and Personal Use Only काशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्र 480 एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार मुत्र-चतुर्थ मूल 48 अस्थि // 30 // नेगम बवहाराणं आणपव्वी दव्वाइं किं संखिज्जाइं असंखिज्जाई। अणंताई ? नो संखिजाइं नो असंखिजाइं, अणंताई, एवं अणाणुपुव्वी दवाइं अवत्तबग दवाई च अणताइ भाणियव्वाइं // 31 // नेगम ववहाराणं आणपुवी दव्वाइं लोगस्स किं संखिजइ भागे होज्जा, असंखिज्जइ भागे होजा, संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, असंखेजेसु भागेसु होजा, सवलोए होज्जा ? एग दव्वं पडुच्च संखेजइ भागे वा होज्जा, असंखजइ भागे वा होजा, संखजसु भागेसु वा होज्जा, असंखिजेसु भागे सु वा होज्जा, सबलोए वा होजा / णाणा दूसरा संख्या द्वार-अहो भगवन् ! नैगम व्यवहार नय के मत से तीनों प्रकार के द्रव्य क्या संख्याते . असंख्याते हैं या अनंत हैं ? अहो शिष्य ! तीनों प्रकार के द्रव्य संख्याते असंख्याते नहीं है परंतु अनंत हैं // 31 // तीसरा क्षेत्र द्वार-नैगम व्यवहार नय के मत से आनुपूर्वी द्रव्य लोक के कितने 7 भाग में हैं क्या संख्यात भाग में हैं कि असंख्यात भाग में हैं? क्या संख्यातवे भाग में है या असंख्यातवे भाग में हैं, या सब लोक में है ? अहो शिष्य ! एक द्रव्य आश्री आनुपूर्वी द्रव्य लोक के संख्यात भाग में हैं, असंख्यात भाग में है, संख्यातवे भाग में है, असंख्यातवे भाग में हैं और संपूर्ण लोक में हैं.' + और बहुत ट्रव्य आश्री संपूर्ण लोक में होवे. क्यों कि तीन प्रदेशिक स्कंध से अनंत प्रदेशिक स्कंध 48488अनुगम विषय 4800-40 अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ANS अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - दव्वाई पडुच्च नियमा सव्वलोप होजा // नेगम ववहाराणं अणाणुपुन्वी दवाई किं लोयस्स संखिजइ भागे होजा जाव सव्वलोए या होजा ? ९गं दव्वं पडुच्च नो संखेजइ भागे होजा,असंखेजति भागे होजा. नासखेजेसु भागेसु होजा,नो असंखजेसु भागेसु होजा,नो तव्वलोए होजा णाणा व्याई पडुच्च नियमा सव्वलोए होजा, एवं अवतव्वग दव्याई भाणियव्वाई // 32 // नेगम क्वहाराणं आणुपुन्वी दवाई लोगस्स किं संखेनइ भागं फुसंति,असंखजइ भागं फुसंति,संखेजेसु भागे फुसंति, असंखेजेसु भागे फुसंति, सव्वलोगं फसंति ? एगं दव्वं पडच्च लोगस्स संखेजा पर्यंत यह हैं. अहो भगवन् ! नैगम व्यवहार नय आश्रीय अमानुपूर्वी ट्रव्य क्या लोक के संख्यात माग में हैं, असंख्यात भाग में हैं, मख्यातचे भाग में हैं या असंख्यातवे भाग में है, या सब लोक में हैं ? अहो शिष्य ! एक द्रव्य आश्रीय लोक के असंख्यात भाग में ही होता है और बहुत द्रव्य आश्रीय निय से सब लोक में होता है. ऐसे ही अवक्तव्य का कहना // 32 // चौथा स्पर्शना द्वार कहते हैंभगवन् ! नैगम व्यवहार नय के मत से आनपूर्वी द्रव्य क्या लोक के संख्यात भाग में सहर्श करते हैं.. असंख्यात भाग में स्पर्श करते हैं. संख्यालये भाग में स्पर्श करते हैं, असंख्यातवे भाग में स्पर्श करते हैं / या सब लोक में स्पर्श करते हैं ! अहो शिष्य ! भानुपूर्वी द्रव्य लोक के संख्यात भाग में यावत् सब प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवस हायजी ज्वालाप्रसादजी" For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir B सूत्र अर्थ HP एकत्रिंशत्तम्-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल भागं वा फुसंति जाव सबलोगं या फुसति / णाणा दवाई पडुच्च नियमा सबलोगं फुपति // णेगम ववह राणं अणाणुपुब्बी दव्याई लोयस्स कि संखेजइ भाग फुसंति जाव सबलोग फुसंति ? ए दब्बं पडुच्च नो संखिज्जइ भागं फुसंति. असंखिज्जइ भागं फुसंति, नो सखिजे भागे फुसंति नो असंखिजे भागे फुसंति, नो सवलोयं फुसंति / नागा दवाई पडुच्च नियमा सव्वलोयं फुसंति, एवं अवत्तव्यग दवाई भाणियब्वाइं // 33 // णेगम ववहाराणं आणुपुत्वी दवाई कालओ केवच्चिरं लोक में स्पर्श करते हैं और बहुत द्रव्य आश्री नियमा सब लोक को स्पर्शते हैं. अहो भगवन् ! अनानपूर्वी द्रव्य लोक का संख्यात भाग याचत क्या सब लोक स्पर्शता है ? अहो शिष्य ! एक द्रव्य की अपेक्षा से लोक का असंख्यातवा भाग ही स्पर्शवा है परंतु संख्यात भाग, संख्यातवा भाभ या सब लोक को नहीं स्पर्शता है और अनेक द्रव्य की अपेक्षा से सब लोक को स्पर्शता है. जैसे अनानुपूर्वी का कटा वैसे ही अवक्तव्य का कहना x. // 33 // पांचवा काल द्वार-अहो भगवन् ! नैगम, व्यवहार ना की अपेक्षा से आनी द्रव्य की कितनी स्थिति कही है? अहो शिष्य ! एक द्रव्य की x क्षेत्र द्वार व स्पर्शना द्वार में विशेषता यह है कि एक प्रदेश में अवगाह कर रहा हुवा द्रव्य छ दिशि के छन / मध्य क एक यो सात को स्पशन कर सकता है Hd अणुगम विषय 14 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - 4.9 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी होइ ? एगं दव्वं पडुच्च-जहणणं एगं समयं उक्कोसेणं असंखेज कालं / णाणा दव्वाइं पडुच्च णियमा सबहा / अणाणुपुव्वी दव्वाइं अबत्तवग व्वाइं च एवं चेव भाणियन्वाइं / / 34 // णेगम ववहाराणं आणुपुत्वी दव्याणं अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? एगं दव्व पडुच्च-जहन्नणं एगं समयं, उक्कोसेणं अणतं कालं / णाणा दवाई पडुच्च-णत्थि अंतरं ॥णेगम बवहाराणं अणाणुपुब्बी दव्वाणं अंतरं कालओ केवचिर होई ? एगं दध्वं पडुच्च जहण्णेणं एग समयं, उक्कोसेणं असंखज्जं कालं / णाणादव्वाइं पडुच्च गत्थि अंतरं // गम ववहाराणं अवत्तव्वग दव्याणं अपेक्षा जघन्य एक समय की उत्कृष्ट असंख्यात काल की और बहुत द्रव्य की अपेक्षा से नियमा से सदैव पाते हैं. इसी तरह अनानुपूर्वी व अवक्तव्य का कहना / / 34 // छट्ठा अंतर द्वार कहते हैं-अहो. भगवन् ! आनुपूर्वी द्रव्य विखरे पीछे पीछा आनुपूर्वी द्रव्य बने उस में कितने काल का अंतर होता अहो शिष्य ! एक द्रव्य की अपेक्षा जघन्य एक समय उत्कृष्ट अनंत काल का अंतर पडे और बहुत द्रव्य की अपेक्षा कदापि अंतर पडे नहीं. अहो भगवन् ! अनानुपूर्वी द्रव्य का कितना अंतर पडे ? अहो शिष्य ! एक द्रव्य आश्रीय जघन्य एक समय उत्कृष्ट असंख्यात काल और बहुत द्रव्य की अपेक्षा से प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी घालाप्रसादनी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 498 एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल -*-%82 अंतरं कालओ केवच्चिरं होई ? एगं दव्वं पडुच्च जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं अणंतकालं, णाणा दवाई पडुच्च णत्थि अंतरं // 35 // णेगमववहाराणं आणुपुब्बी दव्वाइं सेमदव्वाणं कइभागे होजा-किं संखिज्जइ भागे होजा, असंखिज्जइ भागे होजा, संखेज्जेसु भागेसु होजा, असंखेजेसु भागेसु होज्जा ? नो संखिजइ भागे होजा. नो असंखिज्जड भागे होजा. नो संखेजेस भागेम होजा, नियमा असंखजेस भागेसु होज्जा // ममववहाराणं अणाणपुन्वी दव्वाई सेस दव्वाणं कइ भागे होजा-किं संखिजइ भागे होज्जा, असंखिज्जइ भागे होज्जा, संखेजेसु भागेसु होजा, अंतर पडे नहीं. अहो भगवन् ! अबक्तब्य द्रव्य का कितना अंतर होवे ? अहो शिष्य ! आश्री जघन्य एक समय उत्कृष्ट अनंत काल और बहुत द्रव्य आश्री अंतर नहीं होवे // 35 // सातवा भाग द्वार-अहो भगवन् ! नैगम व्यवहार नय के मत से आनुपूर्वी द्रव्य अन्य अनानुपूर्वी व अवक्तव्य द्रव्य में क्या संख्यात भाग में, असंख्यात भाग में, संख्यातवे भाग में व असंख्यातवे भाग में है ? अहो शिष्य ! संख्यात भाग, असंख्यात भाग व संख्यातवे भाग में नहीं होवे परंतु नियमासे असंख्यातवे भाग में होवे. नैगम व्यवहार नय के मत से अनानुपूर्वी अन्य आनुपूर्वी ब अवक्तव्य से क्या संख्यात 498 अणुगम विषय 884880 498 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्र -101 अनुवादक वरल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी असंखेजेसु भागेसु होजा ? नो संखेजइ म.गे होजा. असंखेजइ भागेसु होजा नो संखेजेसु नो असंखेज्जेसु भागेसु होजा / एवं अवत्तव्वग दव्वाणिवि भाणियव्वाणि // 36 // गेगम ववहाराणं आणुपुवी दव्वाइं कतरमि भावे होज्जा ? किं उदइए भावे होजा, उवसमिए भाबे होजा, खडए भाव होजा, खओवसमिए भावे होज्जा, पारिणामिए भावे होजा, सन्निवाइय भावे होज्जा ? नियमा साइपारिणामिए भावे होजा, अणा णुपुव्वी दव्वाणि अव सव्वग ६वाणिय एवं चेव भाणियवाणि / / 37 // एएसिणं भंते!णेगम ववहाराणं आणुपुब्बी दव्याण अणाणुपुब्बी दवाणं अवत्तव्यग दव्वाणय दवट्ठ भाग में, असंख्यात भाग संख्यातवे भाग में व असंख्यातवे भाग में होवे ? अहो शिष्य ! मात्र असंख्यात भाग में होने शेष भागों में हो नहीं. ऐसे ही अवक्तव्य पद का कहना // 36 // आठवा भाव द्वार-नैगम व्यवहार नय के यत से आनपूर्वी द्रव्य किनने भाव में होवे ? क्या उदयिक भाव में, औपशमिक भाव में, क्षायिक भव में. क्षयोपशमिक भाव में, पारिगामिक भाव में या सनिपातिक भाव में होवे ? अहो शिष्य ! मात्र नियमा से सादि पारिणाषिक भाव में होवे. शेष भाव में होवे नहीं. ऐसे ही अनानुपूर्वी व अवक्तव्य का कहना // 7 // नववा अल्पाबहत्व द्वार-अहो भगवन् ! नैगम व्यवहार 8 नय के मत से आनुपूर्वी, अनान व अवकव्य द्रव्य में द्रव्य से प्रदेश से व द्रव्यप्रदेश से कान *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकत्रिंशत्तम अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थ मूल. 48 याएपएसट्टयाए दव्वटुपएसट्टयाए कयरे २हिंतो अप्पाचा बहुयावा तुल्लाबा विसेसाहियावा? गोयमा ! सव्वत्थोवाइंगम ववहाराणं अवत्तव्यग दव्वाण दव्वट्ठयाए अणाणुपुथ्वी दवाई दव्वट्ठयाए विसेत्साहियाई आणुपुवी दव्वाइं दव्वट्ठयाए असंखज्जगुणाइ पएसट्टयाए-णेगम ववहाराणं-सव्वत्थोवाइं अणाणुयुब्बी दवाई, अप्पएसट्टयाए अवत्तव्वग दव्वाइं, ९एसट्टयाए विसेसाहियाई, आणुपुव्वी दवाइं पएसट्टयाए अणंत गुणाई दबट्टएपसट्टयाए-सबत्योवाई णेगम ववहाराणं अवत्तव्वग दव्याई दवट्ठयाए, अणाणुपुवी दवाइं दवट्ठयाए अपएसट्टयाए विसेसाहियाई, अवत्तव्वग दवाई पएसट्टयाए विसेसाहियाई, आणुपुञ्वी दवाई दवट्ठयाए किस से अल्प, बहुत, तल्य व विशेषाधिक है ? अहो गौतम ! सब से थोडे अवक्तव्य द्रव्य द्रव्य E आश्री, इस से अनानुपूर्वी द्रव्य द्रव्य आश्री विशेषाधिक और इस से आनुपूर्षी द्रव्य. द्रव्य आश्री असं ख्यातगुने अब प्रदेश आश्री कहते हैं. नैगम व्यवहार नय के मत से सब से थोडे अनानुपूर्वी द्रव्य प्रदेश भाश्रीक्यों होवे कि एक प्रदेश है इस से अवक्तव्य द्रव्य प्रदेश आश्री विशेषाधिक क्यों कि द्विपदेशिक है इस सेआनुपूर्वी द्रव्य प्रदेश आश्री अनंतगुने क्यों कि तीन से अनंत पर्यंत प्रदेश रहे है अब द्रव्य प्रदेश की साथ अल्पाबहुत्व कहते है-नैगम व्यवहार नय के मत से सब से थोडे अवक्तव्य ट्रव्य द्रव्य आश्री.इस से अनानपूर्वी द्रव्य द्रव्य व प्रदेश आश्री विशेषाधिक,इस से अवक्तव्य द्रव्य द्रव्य प्रदेश आश्री विशेषाधिक,इस से आनुपूर्वी द्रव्य 3. A8+ अनुगम विषय 85Qg 3 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असंखजगुणाई ताई चेव पएसट्टयाए अणंतगुणाई, सेतं अणुगमे से तं नेगम ववहाराणं अणोवणिहिया दव्वाणुपुवी // 38 // से किं तं सगहस्स अणोवणिहिया दवाणुपुवी ? संगहस्स अणोवणिहिया दवाणुपुवी पंचविहा पण्णत्ता तंजहा अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + द्रव्य आश्री असंख्यात गुना, उस से आनुपूर्वी द्रव्य प्रदेश आश्री अनंत गुना यह नव द्वार अनुगमका हुवा. यह अनोपनिधि का द्रव्यानुपूर्वी का कथन हुवा. // 38 // अहो भगवन् ! संग्रह नय के मत से अनुपनिधिक द्रव्यानुपर्छ किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! संग्रह नय के मत से अनुपनिधिक द्रव्यानु .प्रकाशक राजाविहादुर लाला सुखदवसहायजी-ज्वालाप्रसादजी. * भगवती शतक 25 उद्देशा 4 तथा पन्नबणाजी में प्रदेश से अनंत प्रदेशिक स्कंध के प्रदेश कमी कहे. परमाणु प्रदेश से अनंत गुने कह, संख्यात प्रदेशिक स्कंध के प्रदेश संख्यात गुने असंख्यात प्रदेशिक स्कंध. के असंख्यात गुने, E} और यहां द्विप्रेशिक स्कंध से अनंत प्रदेशिक स्कंध के प्रदेश एक अनंत गुने कहे, आनुपूर्वी द्रव्य स्कंध के प्रदेश अनंत / गने कहे. यह कैसे मिले ? उत्तर भगवती मे तो संख्यात प्रदेशी स्कंध, असंख्यात प्रदेशी स्कंध व अनंत प्रदेशिक इन तीन तीन स्कंध के प्रदेश अलग 2 कहे हैं. इस से अनंत गुने नहीं हैं, और यहां तो संख्यात प्रदेशिक स्कंध असंख्यात प्रदेशिक स्कंध व अनंत प्रदेशिक स्कंघ इन तीनों को एकत्रित भालाकर आनुपूर्वी कही है इस से तीनों के प्रदेश एकत्र होने से अनंत होते हैं. नेसे देवी से तीर्यचनी असंख्यात गुनी कही और 98 बोल की अल्पाबहुत्व में अलग 2 गिनती के स्थान संख्यात गुनी कही. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Hd 1 अटुपयपरू वणया, 2 भंगुसमुक्त्तिणया, 3 भंगोवदंसणया 4 समोयरे 5 अणुगमे // 39 ॥से किं तं संगहस्स अट्ठपय परूवणया ? संगहस्स अट्ठपय परुवणया तिपएसिए आणुपदवीए चउप्पएसिए आणुपुव्वी जाय दस पएसिए आणुपुब्बी संखिज पएसिए आणुपुवी असंखिज्ज पएसिए, आणुपुब्बी अणंतपएसिए, आणुपन्बी परमाणु पोग्गले अणाणुपुवी दुपएसिए अवत्तव्वए, से तं संगहस्स अट्रपय परूवणया // 40 // एयाएणं संगहस्स अट्रपय परूवणयाए किं पओयणं ? एयाएणं संगहस्स अपय परूवणयाए संगहस्स भंग समुक्कितणया कजइ // 41 // से किं तं संगहस्स भंग समुकि एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल 80%88 अनुगम विषय अर्थ पूर्वी के पांच भेद कहे हैं. तद्यथा-१ अर्थपद प्ररूपना, 2 भंग समुत्कीर्तन, 3 भंगोपदर्शनता, 5 समवतार और 5 अनुगम. // 31 // अहो भगवन् ! संग्रह नय के मत से अर्थपद प्ररूपना किसे Eकहते हैं ? अहो शिष्य ! संग्रह नय के मत से अर्थपद प्ररूपना तीन प्रदेशिक आनुपूर्वी, चार प्रदेशिक आनुपूर्वी. यावत् दश प्रदेशिक आनुपूर्वी, संख्यात प्रदेशिक आनपूर्वी. असंख्यात प्रदेशिक आनुपूर्वी व अनंत प्रदेशिक आनपी. परमाणु पद्गल अनानुपूर्वी और द्विपदेशिक स्कंध अवक्तव्य. यह संग्रह नय की अर्थपद प्ररूपना हुई. // 40 // अहो भगवन् ! संग्रह नय की अर्थपद प्ररूपना करने का क्या प्रयोजन है? अहो शिष्य ! संग्रह नय की अर्थपद प्ररूपना से संग्रह नय का भंग ममुत्कीर्तन ! !किया जाता है. // 41 // अहो भगवन् ! संग्रह नय से भंग समुत्कीर्तन कि कहते हैं ? अहोई 94280 8 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिना. में अनुवादक बाल त्तणया ? संग्रहस्स भंग समुक्तित्तणया-१ अत्थि आणुपुव्वी 2 अस्थि अणाणुपुब्बी 3 अत्थि अवत्तव्वए, अहवा 4 अत्थि आणुपुत्वीय, अणाणुपुवीय. 5 अहवा आणपव्वीएय अवत्तव्वएय, 6 अहवा अस्थि अणाणपव्वीय अवत्तव्वएय, 7 अहवा अस्थि आणुपुज्वीय, अणाणपुवीय, अवत्तव्बएय. एवं सत्तभंगा, से तं संगहस्स भंगसमुक्त्तिणया // 42 // एयाएणं संगहस्स भंग समुक्त्तिणयाए किं पायणं ? एयाणं संगहस्स भंग समुक्त्तिणयाए संगहास भंगोबदसणया कीरइ // 43 // से किं तं संगहस्स भंगोवदसणया ? संगहस्स भंगोवदंसणया तिपएसिया आणुपुब्बी शिष्य ! संग्रह नय से भंग समुत्कीर्तन के सात भंग होते हैं. एक संयोगी भांगे तीन 1 आनुपूर्वी 2 अणाणुपूर्वी व 3 अपक्तव्य द्विसंयोगी तीन भंग-अनुपूर्वी अनानुपूर्ती, आनुपूर्वी अवक्तव्य, 1 और 3 अनानपूर्वी अवक्तव्य. तीन संयोगी भांगा एक आनुपूर्वी अनानपूर्वी अवक्तव्य. यो सात भांगे / हुवे. यह संग्रह नए एकार्थवाची होने से इस का अनेक वचन नहीं ग्रहण किया है // 42 // अहो मगवन् ! मंग्रह नय के रात से मंग सम्स्कीर्तन करने का क्या प्रयोजन है ? अहो शिष्य ! संग्रह नय की भंग समुत्कीर्तन से भंगोपदर्शन किया जाता है // 43 // अहो भगवन् ! संग्रह नय से भंगोपन दर्शन किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! संग्रह नय से भंगोपदर्शन निम्नोक्त प्रकार किये जाते हैं.।। प्रकाशक-राजावादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - एकत्रिंशत्तम अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल परमाणुपोग्गला अणाणयुदी दुपएसिया अबाव्वए, अहवा तिपएसिया परमाणु पोग्गला आणुगुब्बीय अगाणुयुब्बीय. अहवा तिपएसियाय दुपएसियाय आणुपुबीए अवत्तव्यएय, अहा परमाणु पगलाय दुपसियाय आणुपुब्बीय अवत्तव्यय,अहवा तिपदेसिए परमाणुनालेय दुसिएप आपपुलीय अणाणपुवीय अवतव्यएय. से तं संगहस्त भगोबसाया // 43 // से किं तं संगहस्स समोयारे ? संगहस्स समोयारे संगहस्स आणुगुब्बी दव्बाई कहि समोयरंति ? किं आणुपुची दव्येहि समोयरति, अणाणुपुची दब्बेहि समोयरंति, अवत्तव्य दध्वेहि समोयति ? संगहस्स आणुपुब्धी दवाई आणुपुवी दव्वेहि समोयरंति नो अणाण१० त्रिमदेशिक अनुपूर्ती परमाणु पुद्गल अनानुपूर्वी. द्विपदेशिक अवक्तव्य, अथवा विदेशिक परमाण पुद्गल को आनुपूर्वी अनानुपी, त्रिमदेशिक द्विपदेशिको आनएवी अवक्तव्य, परमाणु पुगुल द्विादेशिक -3 को अनानुपूर्वी अपक्तव्य और त्रिप्रदेशिक, द्विषदेशिक व परमाणु पुद्गल को आनुपी अनानपूर्वी व अवक्तव्य. यह संग्रह नय की अपेक्षा से भंगोपदर्शन हुवा ! 43 // अहो भगवन् ! संग्रह नय के मत से समवतार किसे कहते हैं ? संग्रह नय के मत से आनुपूर्वी ट्रय कहां समवतरते हैं ? क्या आनुपूर्वी / द्रव्य से, क्या अनानपूर्वी द्रव्य से या क्या अक्क्तच्य से समवतरते हैं? अहो शिष्य ! संग्रह नय के 38803> अनुपावधि का द्रव्यानपूर्वी 4888 136 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादकपाल ब्रह्मचारीमुनि श्री अमोहक पापिनी पुन्बीदव्वेहिं समायरंति नो अवत्तचग दबेहिं समोयरंति, एवं तिण्णिविसटाणे समोयरंति से तं समोयारे // 14 // से किं तं अणुगमे ? अणुगमे अट्ठविहे पणते तंजहा-संतपय परुवणया, दव्वपमाणंच खित्त फुसणाय, कालोय अंतरं,भाग भावे, अप्पाबहुं नत्थि // 1 // 45 // संगहस्स आणुपुब्बी दवाई किं अस्थि नत्थि ? नियमा अस्थि, एवं दोन्नि वि ॥४६॥संगहस्स आणुपुवी दवाई किं संखिजाई,असंखिजाइं अणंताई?नो संखजाइं नो असंखेनाई नो अणंताई. नियमा मत से आनुपूर्वी द्रव्य आनपूर्ती में समवतरते हैं यों शेष दो द्रव्य अपने 2 स्थान में मप्रवतरते हैं. यह समवन र हुवा // 45 // अहो भगवन् ! अनुगम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! अनुगप के आठ प्रकार कह हैं. तद्यथा-१ सत्पद प्ररूपना, 2 द्रव्य प्रमाण, क्षेत्र, 4 स्पर्शन. 5 काल. 3 अंतर. 7 भांगा और 8 भाव. इस में अल्पाबहत्व द्वार नहीं है क्यों कि संग्रह नय में अनेक का अभाव है // 46 // प्रथम सत्पद प्ररूपना द्वार-अहो भगवन् ! संग्रह नय के मत से आनद्रव्य की क्या अस्ति है या नास्ति है! अहो शिष्य ! नियमा से सदैव अस्ति है परंतु नास्ति नहीं है एंस ही अनानुपूर्वी व अवक्तव्य का कहना // 46 / / संख्या प्रमाण द्वार-संग्रह नय के मत से आनी द्रव्य क्या संख्यात है. संख्यात है या अनंत है ? अहो शिष्य ! संख्यात, असंख्यात व अनंत नहीं है परंतु नियमा एक प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहावजी ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ A8एकाश तम-अनुयोगद्वार सूत्र पतुर्थ 488 एगोरासी, एवं दोनिवि, // 47 // सगहस्स आणुपुञ्बी दबाई लोगस्स क भाग होजा ? किं संखेजइ भागे होजा. असंखेजइ भागे होज्जा, संखेजेसु भागे होजा, असंखेजेसु भागेसु होजा, सबलोए होजा ? नो संखेजइ भागे होजा नो असंखेजइ भागे होज्जा, ना संखजेल नागेतु होजा, नो असंखेनेसु भागेसु होजा, नियमा सव्वलोए होजा, एवं दोन्निवि // 48 // संगहस्स आणुपुब्बी दवाइं लोगस्स किं संवेजइ भागं फसंति असंखेजइ भागं फुसति, संखिजेसु भागे फुसति, असंखिज्जेसु भागे फुसंति, सव्वलो फुसति ? नो संखेजइ भागं फुसंति, राशि है क्यों कि संग्रह नयबाला द्रव्य को अभेद पानता है. ऐसे ही अनानपूर्वी व अवक्तव्य का कहना // 47 // तीसरा भाग द्वार-अहो भगवन ! आनद्रव्य लोक के कितने भाग में हैं / क्या संख्यात भाग में, असंख्यात भाग में, संख्यातये भाग में, असंख्यातने भाग में या सब लोक में 2 अहो शिष्य ! संख्यात, असंख्यात, संख्यातो, असंख्यातवे भाग में नहीं है परंतु सब लोक में है। ऐसे ही अनानुपूर्ण व अवक्तव्य का म हना // 48 // स्वर्शना द्वार---अहो भगवन् ! आनुपूर्वी द्रव्य लोक के संख्यात भाग को क्या स्पर्शत है. असंख्यात भाग को स्पर्शता है. संख्यातवे भाग को स्पर्शता 3 असंख्यासवे भाग को स्पर्शना है या सत्रलोकको सता है? अहो शिव्या झोक के संख्यात,असंख्यात,संख्यातयेव / 1 | 4887 अनुपविधि का द्रव्यानुपूर्वी 8.. अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी का जाव नियमा सबलोग फुलंति, एवं दोनिवि // 19 // संगहस्त आणुपन्वी दवाणं कालतो केवञ्चिरं होइ ? नियमा सम्बद्धा एवं दोन्निवि // 50 // संगहस्स आणुपुव्वी दव्वाणं कालतो केवच्चिरं अंगरं होति ? नथि अंतरं, एवं दोन्निवि // 5 // // संगहस्स आणुपुब्धी दव्याई सेस दव्याणं कइ भागे होजा ? किं संखनइ भागे होजा, असंखेजइ भागे होज्जा, संखेजेसु भा.सु होजा, असंखेजेसु भागेसु होजा ? नो संखेनइ भागे होजा, नो असंखेजइ भागे होजा, नो E असंख्यातवे भाग को नहीं पता है परंतु सब लोकको स्पर्शता है. ऐसे ही अनानपूर्वी व अवक्तव्यका कहना // 44 // काल द्वार-संग्रामय के मासे अ.नुपू द्रव्य कितने काल रहता है ? अहो शिप्य ! नियमा से सदैव पाता है. ऐसे ही अनानुव अपकव्य द्रव्य का कहना // 50 // अंतर द्वार-अो भगवन् ! संग्रह नय की अपेक्षा पूर्वी द्रव्य का काल से कितना अंतर कहा है ? अहो शिष्य ! इस का अंतर नहीं है. ऐसे ही अनानुव अवक्तव्य का करना / / 51 // भाग द्वार-ही भगवन् ! संग्रह नय से आनपूर्वी द्रव्य शेप द्रव्य में कितने भाग में होते हैं? क्या संख्यात भाग में, असंख्यात 'भाग में, संख्यातवे भाग में, या असंख्यातवे भाग में, होये ? अशिष्य ! उक्त चारों भांगे नहीं पाते प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालानसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकत्रिवत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थ मूल संखेनेसु भागेसु होजा, नो असंखेजेसु भागेसु होज्जा, नियमा तिभागे होजा, एवं दोनिवि / / 52 // संगहस्स आणुपुब्बी दव्बाई कयराम भावे होज्जा ? नियमा साइ परिणाभिए भावे होजा, एवं दोनिवि। अप्पाबहुं नस्थि ते तं अणुगो / से तं संगहस्स अणोवणिहिया दवाणपुब्बी / से तं अणोवणिहिया दव्याणपुची ! 53 // __ से किं तं वणिहिया दवाणुपुब्बी ? उणिहिया दवाणुब्बी तिविहा पण्णत्ता तंजहा-पुन्वाणुपुवी, पच्छाणुपुब्बी, अणाणुपुव्वाय / 54 // से किं तं पुवाणुपुवी? हैं. पात्र तीसरे भाग में होवे. ऐसे ही अमानुपूर्वी व अवक्तव्य का कहना. उक्त तीनों द्रव्य से सब लोक भरा है // 52 // भाव द्वार---अहो भगवन् ! संग्रह नय के मत से आनुपूर्वी द्रव्य कौन से भावमें है ? अदो शिष्य ! नियमा एक सादि परिणामिक भाव में है. ऐसे ही अनानुपूर्वी व अवक्तव्य द्रव्य भी साहि परिणामिक भाव में होते हैं. अल्लाहुत द्वार नहीं है. यह अनुगम हुवा. यह संग्रह नय के मत से द्रव्य से अनुपनिधिका द्रव्यापूर्वी का कथन हुवा / / 53 // अब उपनिधि का द्रव्यापूर्वी कहते हैं. अहो भगान् ! उपनिधि का द्रव्यानुपू किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! उपनिधिका का नुपूर्वी के तीन भे: कहे हैं. तयथा-१ पूर्वानुमे, 2 पच्छानुपूर्वी और 3 अनानुपूर्वी // 54 // अहो 484881 अनुपनिधि का द्रव्यानुपूर्वी * For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ल पुवाणुपुधी धम्मत्थि काएं, अधममत्थकाए आगासस्थिकाए, जीवस्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए, आद्धसमए, से तं पुवाणुपुब्बी // मे किं तं पच्छाणुपुवी ? पच्छाणुपुची अडासमए पोग्गलस्थिकाए जीवस्थिकाए आगासस्थिकाए अहम्मस्थिकाए धम्मत्थिकाए, से तं पच्छाणुपुब्धी // से किं तं अणाणपुवी ? एयाए चेव एगाइआए एगुत्तरियाए, छगच्छगयाए सेडीए अण्णम.भासी दुरूवणो से तं भगवन् ! पूर्वानुपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! पूर्वानुपूर्वी-१ पासत काया, 2 अधर्मास्तिकाया. 3 आकाशास्ति काया, 4 जीवास्तिकाया. 5 पुद्रलास्तिकाया, और 6 अद्धासमय-(काल) है. अहो भगवन् ! पच्छानुपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! पच्छानुपुर्वी सो-१ अद्धाममय, 2 पुद्गलास्तिकाया, 3 जीवास्तिकाया. 4 आकाशास्ति काया, 5 अधर्मास्ति काया और 6 धर्मास्ति काया. अहो भगवन् ! अनानुपूर्वी किसे कहते है ? अहो शिष्य ! इन छ ही द्रव्य को एकादे अंक से उत्तरोत्तर श्रेणी से गुना करते जावे जैसे एकको दो गुणा करने से दो हो, दो को नीन से गुना करने से दो तीय 46 होवे, 6 को 4 से गुना करने से 24 होवे, 24 को 5 से गुना करने से 120 होवे और 120 को 6 से गुना करने से 720 होवे, इस संख्या में से दो कम करे अर्थात् 718 की संख्या को अनानुपूर्वी कहते है-प्रथम-१-२-३-४-५-६ यह पूर्वानुपूर्वी हुए. 6-5-4-1-2-1 यह पच्छानुपूर्व / 498 अनुवादकबालब्रह्मचारी श्री अमोहकमान पजा+ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवस हायजी ज्वालाप्रसादी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकत्रिंशचम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुथ मूल 4882 अणाणुपुबी // 55 // अहवा उवणिहिया दव्वाणुपुब्बी तिथिहा पण्णत्ता तंजहा. पुन्वाणुपुवी, पच्छाणुपुब्बी, अणाणगुब्बी, से तिं पुराणुगुनी ? पुवाणुपुब्बी परमाणुपोग्गले दुपएसिए तिपएसिए जाय दसपएसिए संखिजाएतिए असखिजपए. सिए अणंतपएसिए से तं पुवाणगुच्ची // से किं तं पच्छाणुपुब्बी ? पच्छाणुब्बी अणंत पएसिए, असंखेजपएसिए संखिजाए.सए जाव दसएसिए जाव तिपएसिए दुपएसिए परमाणुपोग्गले. से तं पच्छाणुपुत्वाासे किं तं अणाणुपुब्बी ? आणाणुपुवी एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए अगंगच्छगयाए सेढीए अन्नमण्णब्भासो दुरूंबूणो हुए और 718 भांगे अनानुपूर्त के हुए. // 55 // अथवा उपनिधिका के तीन भेट पूर्वानुपूर्वी, पच्छानुपूर्वी व अनानुपूर्वी उस में पूर्वानुपूर्वी से परमाणु पुदल, द्वि प्रदेशिक स्कंध, तीन प्रदेशिक स्कंध, पावत् दश प्रदेशिक स्कंध, संख्यात प्रदेशिक स्कंध, असंख्यात प्रदेशिक स्कंध व अनंत प्रदशिक स्कंध, पच्छानुपूर्वी सो अनंत प्रदेशिक स्कंध, अपंख्यात प्रदेशिक स्कंध, संख्यात मदेशिक स्कंध. दश प्रदेशिक स्कंध यावत् तीन प्रदेशिक संघ, द्विपदेशिक स्कंध व परमाणु युदल. अहो भगवन् ! अनानुपूर्वी किसे कहते हैं / अहो / शिष्य ! एक से अनंत पर्यंत उत्तरोतर एक 5 अंक की वृद्धि करके उसे गुना करखे जो अंक भावे उसे में दो कप पर्यंत अनानुपूर्वी मानना. इस की विधि पूर्वोक्त जैसे जानमा. वह अनानुपूर्षी हुई. यह Paramwamanna 10 उपनिर्षि का कथन S 488 aet For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * 60 88 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी सेतं अणाणुपुब्बी से तं उणिहिया दवाणुपुर्व सेतं जाणगवइरित्ता दव्वाणुपुवी। सेतं नो अगमओ दव्याणु पुची / सेतं दाणु पुब्धी // 56 // से कितं खेत्ताणु पुधी ? खेत्ताणुपुब्बी दुविहा पण्णत्ता तंजहः-3वणिहियाय, अणावणिहियाय // तत्यणं जा सा उवणिहिया सातत्यणं जा सा अणोबाणाहिया मा दुविहा पण्णत्ता तंजहा-जेगमववहाराणं संगहस्सय॥ 57 ॥ले किंतं गमयवहाराणं अणोवाणिहिया खेत्ताणुष्वी ? गमववहाराणं अणोचहिया खेत्ताणुगुब्बी पंचविहा पण्णत्ता तंजहा-अटुपय परूवणया, भंग समुक्त्तिणया, भंगोक्दसणया, समोयारे, अणुगमे // 58 // से किं तं गम ववहाराणं अदृश्य परूवया ? नेगम बवहाराणं यह ज्ञ शरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्यानुपूर्वी ई. यह नो आगम में द्रयानपूरी हुई. यह द्रव्यान. पूर्वी का कथन मा. // 26 // अहो भगवन् ! क्षेत्रानपूर्वी कि कहते हैं ? ओ शिष्य ! क्षेत्रानुपूर्वी के दो भेद कह हैं तद्यथा-निधि का और अनसनधेिका. इस में से उपनिधि वर्णन यहां नहीं करते हैं और अनुपनिधि का के दो भेद रहे हैं नै म व्यवहार से रथ और कि संग्रह नय से. || 57 // अहो भगवन ! नैगम व्यवहार नय से अनुपनिधिक क्षेत्रान पूर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! इस के पांच भेद कहे हैं. तद्यथा-१ अर्थषद प्ररूपना, 2 भंग समुत्तीर्तनता, 3 भंगोपदर्शनता, 4 समस्तार और अनुगम. // 58 // अहो भगवन ! नैगम व्यवहार नय से अर्थपद प्ररूपमा किसे शक-रानाबहादुर लाला सुखदवसहायनी ज्वालाप्रसाद * अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्र | 3800 एकत्रिंशत्तम अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल 33 अदृश्य परूवणया तिपरसोगाढे आणपुच्ची, जाव दसपएसोगाढे आणुपुब्बी जाव संखिज पएसोगाढे आणधी, असंडिज परसोगाढे आणुपुब्बी, एग पएसोगाढे अणाणुपुब्बी, दुपएसोगडे अबलम्बर,लिपएसोगाढा आए.प.बीओ जाव दस पएसोगाढा आणुपुब्बीयो संखेज मातोगाडे आणु मुवीओ जाव अनलिज परसोगाढा आणपुब्धीओ, एग पएसोगाढा अणाणुपुवीओ, दुमएलोमाढा अबत्तव्ययाई, से तं गम यहाराणं अट्ठपय परूवणया||एयाएणं गम ववहाराणं अदृश्य परूःणय ए किं पयःयणं?एयाए णेगम ववहाराण अपय पुरूवणयार गम ववहाराणं भंग समकित्तणया कजइ // 59 // से किं तं गम बहाराणं भंग समुक्त्तिण्या ? गम ववहाराणं कहते हैं ? नैगम व्यवहार यी अर्थाद प्रपना से तीन प्रदेशावगाह. यावत् दश देशावमाह यावत् संख्यात, असंख्यात प्रदेशावह को अनुपूरी करते हैं, एक प्रदेशावगाही को अनानपूर्ण कहत और द्विपदेशावगाही को अवक्तव्य करते हैं. यह म व्यवहार गय से अपद प्ररूपना हुई. अहो भगवन् ! नैगम व्यवहार नय से अपदमरूपना करने का क्या भोजन है ? अहो शिष्य ! नैगम व्यवहार नय की अर्थपद प्ररूपना से भी समुत्सीनता किया जाता है // 59 // अहो भगवन् ! नैगम व्यवहार नय के मत से भंग समुत्कीर्तन किसे कहते हैं ? अहो रिप्य ! नमम व्यवहार नय की भंग 4848ॐ क्षेत्राणीक कथन38-488 अर्थ / For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- 4.अनुवादक बालबमचारी मुनि श्री भगोबरामी भंग समुक्त्तिणया अस्थि आणुपुब्बी अत्थि अणाणुपुव्वी अस्थि अवत्तबए, एवं दब्वाणुपुठवी गमेणं, खेत्ताणुपुयीएऽवि तं चेव छील भंगा भाणियव्वा जाव में से णेगम यवहागणं भंग समुक्त्तिणया // एयाएणं णेगम ववहाराणं भंग समुक्कितणयाए किं पयोयणं ? एयाएणं णेगम यवहाराणं भंग समुक्कित्तणयाए णेगम ववहाराणं भंगोवदसणया कजइ // 6 // से किं तं गम ववहाराणं भंगो वदंसणया ? गम ववहाराणं झंगोवदंसणया तिपएसोगाढे आणुपुब्बी, एग पएसोगाढे अणाणुपुब्बी, दुपएसोगाढे अवत्तव्यए, तिपएसोगाढा आणुपुब्बीओ, समुत्कीर्तना से आनुपूर्वी है, अनानुपूर्वी है. अवक्तव्य है यों जिस प्रकार द्रव्यानुपूर्वी के 26 भांगे / किये थे वैसे ही इस क्षेत्रानुपूर्वी के 26 भांगे करना यावत् यह नैगम व्यवहार नय के मत से भंग / समुत्कीर्तन हुवा. अहो भगवन् ! नैगम व्यवहार नय के मत से भंग समुत्कीर्तन का क्या प्रयोजन ? अहो शिष्य ! नैगम व्यवहार नय की भंग समुत्थीतना से भंगोपदर्शन होता है. // 60 // ओ वन् ! नैगम व्यवहार नय से भंगोपदर्शन किसे कहते हैं ? अहो शिष्य : तीन प्रदेशावगाही समानुपूर्वी, एक प्रदेशीवगाही अनानुपूर्वी, द्विमदेशोवगाही अवक्तव्य, बहुत तीन प्रदेशावगाही बहुत काशक राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir : 4888 कात्रशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल एग पएसोगाढा अणाणुपुवीओ, दुपएसोगाढा अवत्तव्यगाई, अहवा तिपएसोगाढेय एग पएसोगाढेय आणुपुब्बीय अणाणुपुवीय, एवं तहा चेव दवाणुपुब्बी गमेणं छब्बीस भंगा भाणियब्या जाव से तं णगम ववहाराणं भगोदंवदसणया // 61 // से किं तं समोयारे ? समोयारे णेगम ववहाराणं आणुपुवी दव्वाइं कहि समोयरंति. १-किं आणुपुव्वी दव्वेहि समोयरंति, अणाणुपुवी दव्वेहि समोयरंति, अवत्तव्वग दयहि समोयरंति ? आणुपुब्बी दव्याई आणुपुब्बी दन्वेहि समोयरंति ? नो अणा गुपुवी दव्वेहि नो अबत्तब्वय दबेहिं समोयरंति एवं तिण्णिविसटाणे समोयरंति आनुपूर्वी, बहुत एक प्रदेशावगाही बहुत अनानपूर्वी और बहुत द्विपदेशावग ही बहुत अवक्तव्य, अथवा तीन प्रदेशावगाही व एक प्रदेशावगाही आनपूर्वी अनानपूर्वी पों छव्वीस भांगे द्रव्यानुपूर्वी जैसे कहना. यावत् यह नैगम व्यवझर नय के मत से भागोषदर्शनता हुई. // 61 // अहो भगवन् ! नैगम व्यवहार भनय से समवतार किसे कहते हैं ? नेगम व्यवहार नय से आनपी द्रव्य का कहां समवतार होता है? क्या आनुपूर्वी द्रव्य में, अनानुपूर्वी द्रव्य में या अवक्तव्य में होता है ? अहो शिष्य ! आनुपूर्वी द्रव्य का भानुपूर्वी द्रव्य में समवतार होता है परंतु अनानुपूर्वी र अवक्तव्य में समवतार नहीं होता है. ऐसे ही अर्थ क्षेत्रानुपूर्वी का कथन Page #63
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्ति भाणियव्वं से तं समोयारे // 62 // से किं तं अणुगमे ? अणुगमे नव बिहे पण्णत्ते तंजहा-संतपय परू पण या जाव अपबहुं चेव // 63 // संगम बवहाराणं आणवी दवाइं कि अधि पालिपियामा अस्थिाएवं दधिचि ॥णम क्वहाराणं आणुपुवी दवाई कि संखिजाई अ-जिजाई अणताइ? संविझा, निमाखिजाई को अणंताई, एवं दुकिवि !! गगनबहागणं खराबी दयाइ लोगस्य किं संखिज्जइ भागेअखिज्जइ भागे जात्र सव्वलोर होजाएगदव्य पडन्न लोगस्स विजइ भागे वा होजा,अखिजइ भाग वा होना,संखोसुभागसु वा होजा असंख मेसु भागे सुत्रा शेप दोनों का अपने स्थान में समवतार होता है, यह समवातर का कथन हुआ. // 62 // अहो भगवन् ! अनुगम किसे कहते है ? अहो शिष्य ! अनगम के नव भेद कहे हैं तयथा-सत्पद परूपना यावत् अल्पाबहुत // 63 अहो भावन् ! नैगम व्यवहार नय के मत से आनपूर्वी द्रव्य की क्या अस्ति है या नास्ति है ? अहो शिष्य ! नियम असि नास्ति नहीं हैं ऐसे ही शेष दोनों का कहना.. प्रश्नगप व्यवहार नय के मत से भानुपूर्वी द्रव्य व्या संरयात असंख्य त या अनंत है ? उत्तर-संख्यात व अनंत नहीं है परंतु असंख्शत है. ऐसे ही शेष दोनों का जानना. प्रश्न-नैगम व्यवहार नय के मत से आनुपूर्वी द्रव्य क्या लोक के संख्यात माग में, हैवेअसंख्यातवेभाग में है यावत् क्या सब लोक में होते हैं ? अर्य 18 अनुवादक बार ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक पिजी मशक राजाबहादुर लाला मुखदवस हायजी ज्वालामसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir होजा, देसणे वा लाए होजा, नाणा दव्वाइ पडुन नियमा सब लोए होजा णेगम ववहाराणं अणाणुपुवी दव्वाणं पुच्छाए? एग दच पडुच्च को संखिाइ भागे होजा, / उत्तर-एक द्रव्य आश्री संख्यात, असंख्यात, संख्यातवे. असंख्यातवे या कुछ कम सब लोक में होते हैं और बहुत द्रव्य आश्री सब लोक में होते हैं. नगर व्यवसार नय के मत से अनापूर्वी द्रव्य की पृच्छा उत्तर-एक द्रव्य की अपेक्षा से जाव असंख्यात भाग में होने परंतु संलयात साग, संख्यातवे भाग, 1888- एकत्रिंशत्तम-अनयोगद्वार सूत्र-चतुर्य मूल -9888 428023 अनुगम विषय ___* अचित्त महा स्कंध सब लोक व्यापी प्रथम कहकर अब यहां कुछ कम लोक कहने को x कहना है? उत्तर-लोक में एक देश बनापूर्वी का और दो प्रदेश अपाच्य के है. इतना ही यहां कम ग्रहण किया है प्रश्न-द्रव्यानपूर्वी में भी सर्व लोक व्यापी आनुपूर्वी द्रव्य का कहा तो फिर अनानपूर्ण व अवक्तव्य गव्य का अभाव होता है फिर इन का अस्तित्व कैसे रहा ? उत्तर-ट्रब्यानपूर्वी में तो द्रव्य की ही आनी कही है परंतु क्षेत्र की नहीं कही है. उन अनानपूर्वी द्रव्याधिक परस्पर भिन्न 2 रहने को बहुत क्षेत्र है इस लिये विरोध नहीं है. जैसे एक क्षेत्र में बहुत दीपकों का प्रकाश हो सकता है ऐसे ही एक क्षेत्र में अन्य द्रव्य का भी समावेश होता है. प्रश्न-आकाश आनुपूर्वी द्रव्य की अस्ति है और उस में ही अनानपी व अवक्तव्य ट्रम्प की अस्ति है तो उस के ट्रव्य { की अवगाहना के भेद की विवक्ष क्यों नहीं की? उत्तर-उस की विवक्षा करने के लिये ही इस क्षेत्रा Annanaanaanamanna 980 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 74 6. असंखि नइ भागे होजा, नो संखजेसु नो असंखेज्जसु नो सव्वलोए होजा नाणा दवाइ पडुच्च-नियमा सव्वलोए होजा // एवं अवत्तव्वग दव्वाणिवि भाणियवाणि णेगम ववहाराणं आणुपुल्वी दव्वाइं लोगस्स किं संखेजति असंख्यातवे माग व सघ लाक में होने नहीं. बहुत द्रव्य आश्री सघ लोक में होवे. ऐसे ही अवक्तव्य द्रव्य आश्री जानना. प्रश्न-नैगम व्यवहार नय से आनपूर्वी द्रव्य क्या लोक के संख्यात भाग में स्पर्श नुपूर्वी में कुछ कम कहा है. जैसे पुरुष अंगुली रूप देश में देवता के प्रदेश का अभाव की विवक्षा की जाय क्यों कि देश की अस्ति नहीं है. और भी कुछ कम सय लोक का खुलासा करते हैं-प्रश्न- ool द्रव्यानपूर्वी सब लोक व्यापी चाहिये पुनः कुछ कम कहने का क्या प्रयोजन ? उत्तर-लोक में आनुपूर्वी व अवक्तव्य यह दोनों सदैव होते हैं. अनानुपूर्वी का आकाश प्रदेश और अवक्तव्य का आकाश प्रदेश या तीन आकाश प्रदेशी स्कंध की क्षेत्रानपू से पृथक 2 . गवेषना की है. इस से प्रदेश कम द्रव्यानुपूर्वी कही. जैसे एक अचित्त के स्कंध में दूसरा अचित्त स्कंध है तो भी अचित्त महा स्कंध की मुख्यता देखाइ है जैसे एक राजा की सेना में अन्य मित्र राजाओं की सेना आमीलती है तो भी वह सब सेना मुख्य राजा की ही होती है, ऐसे ही द्रव्यानुपूर्वी में सब लोक कहा है. और जैसे राजा के 171 महल से प्रधान वगैरह का महेल अलग गिने जाते हैं वैसे ही यहां कुछ कम कहा है, *अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थ मूल. 420 भाग फुसंति असंखजइ भागे फुसंति, संखेजे भागे फुसंति, जाव सव्वलोए फुसांत ? एग दव्वं पडुच्च-संखिजइ भागे फुसइ, असंखेजइ भागे, संखिजे भागे वा, असंखिजे भागे वा देसूणं वा सव्वलोगे फुसइ णाणा दव्वाइ पडुच्च नियमा सबलोअं फुमति ॥अणाणुपुल्वी दवाइं अवत्तव्वग दव्वाइं च जहा खेतं, नवरं फुसणा भाणियव्वा ॥णेगम ववहाराणं आणुपुव्वी दवाई कालओ केवचिरं होड? एवं तिण्णिवि एगं दव्वं पडच्च-जहन्नणं एग समयं. उक्छौसेणं असंखिजं कालं नाणा दव्वाइं पडुच्च नियमा सम्बद्धा // नेगम ववहाराणं आणुपुवी दव्वाणं 42842 अनुपनिधि का क्षेत्रानुपूर्वी अर्थ असंख्यात भाग में स्पर्श यावत् सब लोक में स्पर्श ? अहो शिष्य ! एक द्रव्य आश्री संख्यात असंख्यात, संख्यातवे, असंख्यातवे भाग में,सब लोक में व स्पर्श और वहत द्रव्य आश्री नियमासे सब लोक को स्पर्श जैसे आनुपूर्वी व अवक्तव्य का वैसा ही यहां भी कहना पतु यहां पर स्पर्शना कहना. स्थिति में द्वार-नैगम व्यवहार नय की अपेक्षा से आनपीके द्रव्य की काल से कितनी स्थिति कही? अहो शिष्य तीनों की एक द्रव्य आश्री जघन्य एक समय उत्कृष्ट असंख्यात काल की और बहुत द्रव्य आश्री सव काल की. स्थिति है अंतर द्वार-नैगम व्यवहार नय के मत से भानपूर्वी द्रव्य का अंतर कितना कहा ? अहो शिष्य ! सीनो का एक द्रव्य आश्री अंतर जघन्य अंतर्मुहूर्त का उत्कृष्ट असंख्यात काल का और बहुत द्रव्य 23 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक अपिजी अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? तिण्हंपि-एगं दव्यं पडुच्च-जहण्णेण एकं समयं उक्कोसेण असंखजं कालं / नाणा दव्वाइ पडच्च-पत्थि अंतर ॥णेगम ववहाराणं आणुपुत्वी दब्बाई सेस दव्याणं कइ भागे होज्जा ? तिण्णिवि जहा दव्वाणुपुब्बीए। णेगम ववहाराणं आणुयुब्बी दवाई कयामि भावे होज्जा ? णियमा साइपरिणामिए भावे होजा, एवं दोणिवि // एएसिणं भंते ! भेगम बवहाराणं आणुपुत्वी दव्याणं अणाणुपुर्वी दव्वाणं अवतव्वग दवाणय दवट्ठयाए पएसट्टयाए दव्वपएसट्टयाए कयरे 2 हिंतो अपवावा वहुपाआ वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा, ? सव्वत्थो वा आश्री अंतर नहीं है. भाग द्वार-नैगम व्यवहार नय की अपेक्षा से आनुपूर्वी द्रव्य अन्य शेष द्रव्यों के कितने भाग में हैं ? अहो शिष्य ! तीनों द्रव्य का जैसे द्रव्यानपूर्वी में कहा वैसे ही कहना, भावद्वारनैगम व्यवहार नय के मत से आनुपूर्वी द्रव्य कितने भाव में होवे ? अहो शिष्य ! तीनों ही द्रव्य निश्चय से आदि परिणामिक भाव में पावे. अल्पा बहुत द्वार-नैगम व्यवहार नय के मत से आनु बद्रव्य, अनानुपूर्वी द्रव्य व अवक्तव्य द्रव्य द्रव्य आश्री. प्रदेश आश्री व द्रव्य प्रदेश आश्री कौन किस से अल्प बहुत तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? अहो शिष्य ! सब से थोडा नैगम व्यवहार नय से अवक्तव्य 'द्रव्य द्रव्य आश्री. इस से अनानुपूर्वी द्रव्य द्रव्य आश्री विशेषाधिक इस से आनुपूर्व द्रव्य द्रव्य आश्री. प्रकाशक राजाराषहादुर लाला सुखदक्सहायजी-ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Hot 8. 48808> एकत्रिंशतम-अनुयोगद्वार सुत्र-चतुर्थ मूल णेगम ववहाराणं अवत्तव्यग दवाई दवट्ठयाए अणाणुपुवी दवाइ दवट्ठयाए विसेसाहियाई, आणुपुब्बी हवाई वट्ठयाए असंखेजगुणाई, पएसट्टयाएसव्वत्थोवाइं णेगम ववहाराणं अणःणुपुब्बी दवाइं, अवत्तव्यग दवाई पएसट्टयाए विसे साहियाई, आणुपुबी दबाई पएसट्टयाए असंखेजगुणाई, दबढ़पएसट्टयाए-सव्वत्थोवाइं गम क्बहारणं अवत्तव्वग दव्वाइं दवट्ठयाए, अणाणुपुवी दवाई दबट्टयाए अपएसट्टयाए विसेसाहियाई, अवत्तव्यग दवाई पएसटुयाए विसेसाहियाई, आणुपुवी दवाई दव्वट्ठयाए असंखजगुणाई ताई चेव पएसट्रयाए असंखेजगुणाई. से तं अणुगो // से तं णेगम ववहाराणं अणोवणिअसंख्यात गुना. अब प्रदेश आश्री कहते हैं. नैगम व्यवहार : य के तम रो सब से थोडा अनानुपूर्वी अपदी होने से, इस से अवक्तव्य विशेषाधिक प्रदेश आश्री इस से आनुपूर्वी द्रव्य प्रदेश आ संख्यात राने भाव द्रव्य प्रदेश आश्री-सब से योडे नैगम व्यवहार नय के मत से अवक्तव्य द्रव्य / द्रव्य आश्री, इस से आनुपूर्वी ट्रव्य श्री व अदेश आश्री विशेषाधिक, इस से अवक्तव्य द्रव्य प्रदेश आश्री विशेशाधिक, इस से अनुपूर्वी व्य द्रव्य आशी असंख्यात जुना. इस से आनुपूर्वी द्रव्य प्रदेश आश्री असंख्यात गुना, यह अनुगम का कथन हुवा. // यह नैगम व्यवहार नय के मत से अनुपनिधिक। णटुपनिधि का क्षेत्रानुपूर्वी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1. अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 20 हिया खेत्ताणुपुवी // 64 // से किं तं संगहस्स अणोवणिहिया खेत्ताणुपुवी?संगहस्स अणोवणिहिया खेत्ताणुपुची पंचविहा पण्णत्ता तंजहा-अट्ठपय परूवणया, भंग समुकित्तणया, भंगावदसणया, समोयारे, अणुगमे // 65 // से किं तं संगहस्स अट्ठाय परूवणया ? संगहस्स अट्ठपय परूवणया ! तिपएसोगाढे आणुपुव्वी, चउप्पएसोगाढे आणुपुत्री जाव दस पएसोगाढे आणुपुब्बी, संखिंज पएसोगाढे आणुपुब्बी, असंखिज्ज पएसोगाढे आणुपुव्वी, एग पएसोग.ढे अणाणुपुल्वी, दुपएसो गाढे अवत्तव्वय, से तं संगहस्स अट्ठपए परूवणया // एयाएणं संगहस्स अट्ठपय क्षेत्रानुपूर्वी का कथन हुवा. // 64 // अब संग्रह नय आश्री क्षेत्रानुपूर्वी का कथन कहते हैं. अहो भगवन् ! लंग्रह नय से अनुपनिधि का क्षेत्रानुपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! संग्रह नय से अनुपनिधि का क्षेत्रानुपूर्वी के पांच भेद कहे हैं तद्यथा-, अर्थपद प्ररूपना, 2 भंग समुत्कीर्तन, 3 भंमोपदर्शनता, 4 समवतार व 5 अनुगम. // 65 // अहो भगवन् ! संग्रह नय से अर्थपद मरूपना किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! तीन प्रदेशावगाही आनुपूर्वी, चार प्रदेशावगाही आनपूर्वी यावत् संख्यात प्रदेशावगाही आनुर्वी, असंख्यात प्रदेशावगाही आनुपूर्वी, एक प्रदेशावगाही आनुपूर्वी, और द्विप्रदेशाव प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गद्वार मूत्र-चतुर्थ मूल एकात्रशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र परूवणयाए किं पयोयणं ? संगहस्स अट्ठपय परूवणयाए संगहस्स भंग समुकित्तणया कजइ // 66 // से किं तं संगहस्स भंग समुक्कितणया ? संगहस्स भंग समुक्तित्तणया अत्थि आणुपुब्बी, अत्थि अणाणुपुब्बी, अस्थि अवत्तव्वए अहवा अस्थि आणुपुवीय, अणाणुपुवीय एवं जहा दवाणुपुब्बीए संगहस्स तहा भाणियन्वं जाव से तं संगहस्स भंग समुक्त्तिणया // एयाएणं संगहस्स भंग समुकित्तणयाए किं पयायणं ? एयाएयं संगहस्स भंग समुक्किचणयाए संगहस्स भंगोवदसणया कजइ // से किं तं संगहस्स भंगोवदसणया ? संगहस्स भंगोवदंसणया ! तिपए गाही अवक्तव्य. यह संग्रह नय से अर्थपद प्ररूपना हुई. संग्रह नय से इस अर्थपट प्ररूपना करने क्या प्रयोजन है ? अहो शिष्य ! अर्यपद प्ररूपना से भंग समुत्कीर्तन किया जाता है. // 66 // अहो, भगवन् ! संग्रह नय से भंग समुत्कीर्तन किसे कहते है ? अहो शिष्य ! संग्रह नय से मंग समुत्कीर्तन से आनुपूर्वी है, अनानुपूर्ण है, अब कव्य है. अथवा आनुर्वी अनानुपूर्वी है. यों द्रव्यानुपूर्वी में , संग्रह नय से जो भांगे किये वे सब यहाँ कहना यावत् संग्रह नय से भंग समुत्कीर्तनन का कथन हुवा. अहो भगवन् ! इस भंग समुत्कीर्तन का क्या प्रयोजन हैं ? अहो शिष्य ! भंग समुत्कीर्तन से गंगोपदशना होती है. // 7 // अहो भगवन् ! संग्रह नय से भंगोपदर्शनता किसे कहते हैं ? संग्रह नय - अनुपनिधि का क्षेत्रानुपूर्वी 2800 888 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सोगाढे आणपुवी, एग पएसोगाढे अणाणपुरी, दुपएसोगाढे अवत्तव्यग, अहवा तियएसोगाढेय एग पएसोगाडेय आणावी, अणाणुपुवीय एवं जहा दबाशुपुबीए, संगहस्स तहा खे ताणुमुवीरवि भाणियब जाव से तं संगहरस भंगो वदसणया // 68 // से हिं तं समोआरे ? समोयारे संगहस्स आणुपुयी दई काह समोयति ? किं आणुपुटकी दवेहिं समोयरंति, अणाणुपुब्बी दव्येहि, अवत्तव्यग दव्वहिं ? तिण्णिवि सटाणे समोयरंति, से तं सभोयारे // 69 // से किं तं अशुगमे ? अणुगये ? अबिहे पणते तंजहा-संतपय परूवणया जाव की भंगोपदर्शनता से तोन प्रदेशावगाही आनुपूर्वी, एक पूरेशावनाही अनानुपूर्वी, द्विप्रदेशागाही अवक्तव्य अथवा तीन प्रदेशावगाही एक प्रदेशावणाही आनुपूर्वी अनानुपूर्वी. यों जैसे द्रव्यानपूर्वी में संग्रह नय से कथन किया वैसे ही यहां क्षेत्रानुपूर्वी में कहना. यावत यह संग्रह नय से भंगोपदर्शनता का कथन हुवा. // 38 // अहो भगवन् ! सयवतार किसे कहते हैं ? समवतार में संग्रह नय से आनपूर्वी द्रव्य कहा समारते हैं? क्या आनद्रव्य में, अन.नपूर्वी द्रव्य में या अवक्तव्य व्य में समवतारते अहो शिष्य ! तीनों अपने 2 स्थान में समवतारते हैं. यह सम्बतार हुवा. // 49 // अहो भगवन् ! अनुगम किसे कहते हैं? अहो शिष्य : अनुगम के आठ भेद कहे हैं. तद्यथा-सत्पद प्ररूपना यावत अर्थ 8.9 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी काशक-राजावहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजो For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्र अप्पा बहु नत्थि // संगहस्स आणुपुव्वी दवाइं किं अत्थि णस्थि ? नियमा अत्या एवं तिणिधि, सेसगदाराइं जहा दव्याणपुबीए संगहस्स तहा खेत्ताणुपुवीएवि भाणियब्वाई, जाव से तं संगहस्स अगोवणिहिया खेत्ताणुपुव्वी // से तं अणोव. णिहिया खेत्ताणुपुब्बी // 70 // से किं त उवणिहिया खेत्ताणुपुवी ? उवणिहिया खेत्ताणुपुवी तिविहा पण्णत्ता तंजहा-पुवाणुपुब्बी, पच्छाणुपुव्वी, अणाणुषुब्बी // 71 // से किं तं पुवाणुपुब्बी, ? पुढ्याणुपुब्बी अहोलोए, तिरिअलोए, भाव. यहां अल्पा बहुत्व नहीं है. संग्रह नय से आनुपूर्वी द्रव्य की अस्ति है या नस्ति है ? अहो / शिष्य ! नियमा अस्ति है ऐसे ही तीनों का जानना. शेष सब द्वार जैसे संग्रह नय से द्रव्यानुपूर्वी के 2 कहे वैसे ही क्षेत्रानुपूर्वी के जानना. यावत् यह अनुगम. यह संग्रह नय की अनुपनिधि का क्षेत्रानुपूर्वी हुई. यह संपूर्ण अनुपनिधि का क्षेत्रानुपूर्वी का कथन हुषा. // 70 // अब उपनिधि का क्षेत्रानपूर्वी का कथन कहते हैं-अहो भगवन् ! उपनिधि का क्षेत्रानुपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! उपनिधि का क्षेत्रानुपूर्वी के तीन भेद कहे हैं. 1 पुर्वानुपूर्वी, 2 पच्छानुपूर्वी 3 अनानुपूर्वी. // 71 !! अहो भगवन् ! पर्वानपूर्वी किसे कहते है ? अहो शिष्य ! अधोलोक, तीळ लोक व ऊर्ध्व लोक. यइ मनपर्वी हुई A8+ एकत्रिंशत्तम्-अनुयोगद्वार सूत्र-चर्तुथ मूल 42842 अनिधि का क्षेत्रानुपूर्वी अथे For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजा उड्डलोए सें तं पुवाणुपुब्बी // // से किं तं पच्छाणपबी ? पच्छाणुपुन्बी उड्डलोए / * तिरिलोए अहोलोए, से तं पच्छाणुपुब्बी // // से किं तं अणाणुपुव्वी ? अणाणुपुवी एगाए चेब एगइयाए एगुत्तरियाए तिगिच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूणो से तं अणाणुपुब्बी // 72 // अहो लोय खेत्ताणुपुब्बी तिविहा पप्णत्ता तंजहा-पुवाणुपुत्वी, पच्छाणुपुब्बी अणाणुपुब्बी से किं तं पुवाणुपुवी ? पुवाणुपुन्वी ! रयणप्पभा, सक्करप्पभा, वालुपप्पभा, पंकप्पभा, धूमप्पमा, तमप्षमा तमतमप्पभा सेतं पुन्वाणुपुवी // से किं तं पच्छाणुपुवी ? पच्छाणुपुर्व तमतभा पञ्चानुपी में अब लोक, ती लोक ब अधोलाक हो. यह पश्चानुपूर्वी. अहो भगवन् ! अनानुपूर्वी किसे कहते अहो शिष्य ! इन तीनों का अन्योयाभ्यास करे अर्थात् एक को दुगुने करने से होने दो को तीगुने , से 6 होवे. इस में दो कम करे उसे अनानुपूर्वी कहते है. अर्थात् यहां पर 6 में से 2 को कम करते 4 अनानपूर्वी हुई. // 72 // अधीक क्षेत्रानुपूर्वी के तीन भेद. तद्यथा-१ पुर्वानुपूर्वी, 2 पच्छानुपूर्वी व अनानुपूर्वी. इस में पुर्वानुपूर्वी रत्न प्रभा, 2 शर्कर प्रभा, 3 बालुक प्रभा, 4 पंक प्रभा 5 धूम्र +प्रभा, 6 तमःप्रभा और 7 तमतमः प्रभा. पच्छानुपुर्वी में तमतम प्रभा, तमः प्रभा यावत् रत्न प्रभा *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायनी ज्वालामसादजी अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 88+ 22 एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल ___ जाव रयणप्पभा. सेतं पच्छाणुपुवी // से किंतं अणाणुपुब्बी ? अणाणुपुव्वी ! एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए सत्तगच्छगयाए सेढीर अन्नमन्नव्भासो दुरूवूणो सेतं अगाणुपुन्वी // 73 // तिरिय लोय खेत्ताणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता तंजहा पुव्वाणुपुब्बी, पच्छणुपुब्बी, अणाणुपुब्बी // से किंतं पुव्वाणुयुवी ? पुव्वाणुपुब्बी ! ( गाहा )-जंबुद्दीवे लवणे, धायइ कालोय पुक्खरे वरुणे; खीर धय खोय नदी, अरुणवरे. कुंडले रुयगे // 1 // आभरण वत्थगंधे, उप्पल तिलएय पुढवि पर्यंत कहना और अनानुर्वी में इन सातों को एक 2 वढाकर अन्योन्याभ्यास करते जो अंक आवे जिस से दो कम करे (1-2.3-4-5-6-7 ) इन का परस्पर गुनाकार करने से 5040 होवे. उस में से दो कम करने से 5038 अनानुपूर्वी हुइ. // 73 // तोळ लोक क्षेत्रानुपूर्वी के तीन भेद कहे हैंपूर्वानपूर्वी, 2 पच्छानु / न अनानुपूर्वी. अहो भगवन् ! पूर्वानुपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य, जम्बूद्वीप, लवणसम , धात की खंड द्वीप, कालोदधि समुद्र. पुष्कर द्वीप, पुष्कर समुद्र, वरुण द्वीप वरुण समुद्र, क्षीर द्वीप, और समुद्र, घृत द्वीप, घृत समुद्र, इक्षु द्वीप, इक्ष समुद्र. नंदीश्वर द्वीप, नंदीश्वर समुद्र, 'अरूण वर गप, अरूण वर समुद्र, कुंडल द्वीप, कुंडल समुद्र, रूचक द्वीप. रूचक समुद्र इस प्रकार ही / अर्थ अपनाधाध का क्षेत्रानुपूमी 498 280 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व 4.1 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी निहि रयणे || वासहर दह नईओ, विजया बक्खारकाप्पंदा // 2 // कुरूं मंदर आवाला, कडा नक्वत्त चंदा राय // देवे नागे जस्खे भूएय संयंभुमरमणेय // 3 // से तं पुयाणपुशी // से किं तं पच्छाणुपुब्बी ? ५च्छाणुषुब्बी ! लयंभूरमय जाय जंबूद्दीवे, से तं पच्छणुपुब्धी // से किं तं अणाणुपुब्बी ? अणाणपुची एयाए चेव एगइयाए एगुत्तरियाए असंखजगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णमासो दुववृणो सेत्तं आपणुपुवी // 73 // उड्डलोय खेत्ताणुपुब्बी तिबिहा पण्णत्ता, संजहा-पुन्वाणुएक 1 आभरण. एक 2 वस्त्र, गंध, उत्पल, कमल, पृथ्वी, नब निधि, च उदह रत्न वर्षधर पर्वत, ममाविदेहादि, क्षेत्र गंगादि नदी, विजय, वृक्षस्कार, देवलोक, इन्द्र देवकर आदि कारर्वत, आवास * कूट नक्षत्र चंद्रमा, सूर्य, देव नाग, यक्ष व भूत, के नाम से असंख्यात द्वीप समुद्र बाहेर यादन अंतिम स्वयंभूरमण समुा है. यह पूर्वानुपूर्वी या कथन हुआ. अहों भगवन् पच्छापूर्वी दिसे करते हैं : अहो 13 शिष्य ! पच्छानुपूर्वी स्वयंभूग्मण से यावत् जम्बू द्वीप पर्यंत को बच्चालुपूरी कहते है, अहो भगवन् ! अनानुपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य! एक से असंख्यात पर्यत का अन्योन्याभ्याय कर के अदिव * अंत का समुद्र छोड कर शेष संख्या अनानुपूर्वी की होती हैं यह अनाना हुई. // 4 // उर्वलोक प्रकाशक-राजाबहादुर छाला सुखदेवसरायजी ज्वालाप्रसादजी * For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल *38* पुब्बी, पच्छाणुपुब्बी, अणाणुपवी // से किं तं पुवाणुपुवी ? पुव्वाणुपुवी सोहम्मे ईसाणे सणंकुमारे माहिंदे बंभलोए लंतए महासुक्के सहस्सारे आणए पाणए आरणे अच्चुए, गेवेजविमाणे, अणुत्तरविमाणे. इसिपब्भारा. से तं पुव्वाणुपुव्वी // से किं तं पच्छाणुपुब्बी ? पच्छाणुपुब्धी ! ईसिपब्भारा आव सोहम्मे, से तं पच्छाणुपुब्बी / / से किं तं अणाणुपुवी ? अणाणुपुब्बी! एयाएव एगाइयाए एगुत्तरियाए पन्नरस गच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूणो, से तं अणाणुपुब्बी // अहवा उवणिहिया खेत्ताणुपुवी तिविहा पण्णसा तंजहा-पुवाणुपुब्बी, पच्छाणुपुब्बी, अणाणुपुब्बी // अनानुपूर्वी के तीन भेद कहे हैं-पूर्वानुपूर्वी, पच्छानुपूर्वी व अनानुपूर्वी. इस में पूर्वानुपूर्वी सो सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म लोक, लंतक, महाशुक्र. सहस्रार, आणत. प्राणत, आरण, अच्युत, अवेयक विमान, अनुत्तर विमान व ईषत्यागभार पृथ्वी. पच्छानुपूर्वी में ईषत्प्रागमार पृथ्वी, अनुत्तर विमान यावत् सौधर्म देवलोक. यह पच्छानुपूर्वी अनानुपूर्वी में एक से पसरह पर्यंत अन्योन्याभ्यास करके आदि अंत को छोडकर शेष रहे. यह अनानुपूर्वी हुई // 75 // अथवा उपनिधिका क्षेत्रानुपूर्वी के तीन भेद-१ पूर्वानपूर्वी, २१च्छानपूर्वी व 3 अनानपूर्वी. इस में से अमानुप: किसे कहते हैं? अहो 8288 अनुपनिधि का क्षेत्रानुपू 428 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4.अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी से किं तं पुब्बाणुपुब्बी ? पुवाणुपुब्यो ! एगपएसोगाढे दुपएसोगाढे जाव दसपसोगाडे संखिज पर लोगाडे जाव असंखिज पएसोगाडे, से तं पुवाणु मुवी // से किं तं पच्छाणपत्री ? पच्छाणुपुब्बी ! असंखिज पएसोगाढे जाव एगपएनोगाढे, से तं पच्छणुपुबी // से किं तं अणाणपब्बी ? अणाणुपब्बी ! एयाएचैव एगाइथाए एगुत्तरियार अखिज्ज गच्छगयाए सेडीए अन्नमन्नब्भासो दुरुवृणो. से तं अणाणुपनी से उमिडिया खेलापरली // से त खत्ताणपनी / / 76 // से कितं कापुमती ? कालाणुपुःधी ! दुनिता पणया संजहा-उवणिहियाए. अपोणिशिष्य। एक मदेशावमी प्रदेशावादी, तीन प्रदेशावगाती यावत् दश प्रदेशावगाही, संख्यात प्रदेशाकमही असंख्यात प्रदशावगाही यह पूर्वाना. अहो भगवन् ! पठानपूर्वी किसे कहते अहो शिप्प ! असंख्यात प्रदेशाकमाही, संन्यात प्रदेशागाही यावत् एक प्रदेशागाही. यह पच अहो भगवन् ! अनानु किसे कहते हैं ? अहो विष्य ! एक से असंख्यात पर्यंत का अन्योन्या भ्यास करके दो कम करे और जो संख्या रहे उसे अनामतुवी कहत हैं. यह उपाधिका क्षेत्रानुपूर्वी हुई. यह क्षेत्रानुशी का कथन हुवा // 76 / / अब कागनी का कथन करते हैं. यही भगवन् : कालानुपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! कामनुपूर्वी के दो भेद कहे हैं तथथा-१ उपनिधि का बकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी / For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4 . कालान हियाए // तत्थण जा सा उणिहियाए साट्रप्पा. तत्थणं जा सा अणोवणिहिया स दुपिहा पण्णत्ता तंजहा--णेगम बहाराणं संगहरसय // 77 // से किं तं णेगम यवहाराणं अणोवणिहिया क.सापुवी ? गम ववहाराणं कालापानी पंचविता पण्णसा तंजहा-अद्वराय परवणया, भंग समुकिगया, भंगो दशणया, समोयारे, अणुगमे // 78 // से किं तं गम ववहाराणं अटुपय परूवाण / ! तिसमय ठिइए आणुपुब्धी जार दसान्य टिईर आणबी. संखिज समय दिए आणुपुब्बी, असंखिज समय ठिईए आपुपुत्री, एग रुमम ठिईए अगाणुपुब्बी, दुणसमय ठिईए या अनुपनिधिका. उस में उपनिधिका का वर्णन यहां पर नहीं करने का है, और अनुपनिधिका के दो भेद नैगम महार व सरह / 77 !! अहो भगवन् ! गप व्यवहार नय से अनिधिका कालानु. पूर्वी किसे कहते हैं? यो गौना ! नए पवार नय के मत से अनानिधि कालान पूर्वी के पांच भेद को गिनना -1 अर्थ पद प्रसन, भंग सल्कीननता. मंगोपदर नता, 4 समवतार 15 अनु गम // 78 // महो भगवन् ! अर्थ पदपना किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! समर की स्थिति 18 वाले सावत् बन समय को स्थितिवाल आर पूर्वी. संख्यात समय की स्थितिवारे आपूर्वी असंख्यात समय की स्थितियाले आनुपूर्वी, एक समय की स्थितिकाले बनानी और दो समय की स्थितिबाले 1883 एकत्रिंशत्तम अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल at का कथन-8805-800 / For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अवत्तव्वए, तिसमय ठिइयाओ आणुपुधीओ, एगसमय दिईयाओ अणाणुपुवीओ दुसमय ढिईओ अवत्तन्वगाई, से तं गमववहाराणं अट्ठपय परूवणया॥ एयाएणं णेगम ववहाराणं अटुपय परूवणयाए किं पयोधणं ? एयाएणं णेगम ववहाराणं अपय परूवणयाए णेगम बवहाराणं भंगसमुक्रित्तणया कजइ // 79 // से किं तं णेगम ववहाराणं भंग समुक्तित्तणया ? णेगम ववहाराणं भंगसमुक्तित्तणया, अस्थि आणुपुची, आत्थि अणाणुपव्वी, अत्थि अवत्तव्वए. एवं दवाणुपुव्वी गममेणं कालाणुपुवीएवि ते चेव छवीसं भंगा भाणियन्वा जाव से तं गम ववहाराणं अवक्तव्य. बहुत तीन समय की स्थितिवाले आनुपूर्वी, बहुत एक समय की स्थितिवाले अनानुपूर्वी बहुत दो समय की स्थितिवाले अवक्तव्य. यह नैगम व्यवहार नय से अर्थ पद परूपना का कयन हुवा. अहो भगवन् ! इस नैगम व्यवहार नय की अर्थ पद प्ररूपना का क्या प्रयोजन है ? अहो शिष्य ! नैगमी व्यवहार नय की अर्थ पद प्ररूपना से नैगम व्यवहार नय का भंग समशीर्तन होता है // 79 // अहो है भगवन् ! नैगम व्यवहार नय से भंग समुत्कीर्तन किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! आनुपुर्वी है, अन नुपुर्वी है, अबक्तव्य है, यों द्रव्यानपूर्वी में जैसे छब्बीस भांगे कहे हैं वैसे ही यहां पर कालानुपुर्वी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *880 एकार्यशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ 28 भंगसमुक्कित्तणया / / एयाएणं णेगम ववहाराणं भंगसमुक्तित्तणयाए किं पयोयणं ? णेगम ववहाराणं भंगोवदसणया कजइ // 8 // से किं तं गम बवहाराणं भंगोवदसणया ? णेगम ववहाराणं भंगोवदंसणया तिसमय टिईए आणुयुबी, एगसमय ठिईए अणाणुपुब्बी,दुसमय लिईए अवत्सव्वए, तिसमय दिईया आणुपुवीओ, एगसमय ट्ठिईया अणाणुपुबीओ, दुसमय द्विईया अवत्तव्वगाई. अहवा तिसमय ट्ठिईएय एगसमय टिइए आणुपुब्बी. अणाणुपुवीय, एवं तहा चेव दव्वाणुगमेणं छब्बीस भांगे कहना. यावत् यह नैगम व्यवहार नय से भंग समुत्कीर्तनता का कथन हुवा. इस मंग समुत्कीर्तन का क्या प्रयोजन हैं ? अहो शिष्य ! इस से भंगोपदर्शनता होती है // 8 // अहो भग वन् ! नैगम व्यवहार नय के मत से भंगोपदर्शनता किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! तीन समय की स्थितिवाले आनुपुर्वी, एक समय की स्थितिवाले अनानुपूर्वी व दो समय की स्थितिवाले अवक्तव्य, बहुत तीन समय की स्थितिवाले बहुत आनुपूर्वी, बहुत एक समय की स्थितियाले बहुत अनानुपूर्वी व बहुत दो * समय की स्थितिवाले बहुत आक्ता अथवा तीन समय की स्थिनिवाळे व एक समय की स्थितिधाले आनी अनानी. यों से व्यापूर्वी के छवीस भांगे कहे वैसे ही कालानी के छब्बीस भाम 4938+ कालानुपूर्वी का कथन 48+ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी -- उन्नीस भंगा भाणियबा जाब से तं णेगा यवहाराणं भंगोत्रसपणा // 8 // से किं तं समोबारे ? समोयार णेगम ववहाराण आणुपुली दवाई का समयांति किं आणली दवहिं समोसरंति, अणाणुपुची दम्वेहिं ? एवं तिणि दि सहाणे समायति इति भणियव्वं. मे तं समोयारे // 82 // से किं तं अणुगग ? अगुगमे ध्वविहे पणते जहा-संतपय परूवणया जाव अबहुंचे॥ गस यवहारा अपनी कि अस्थि पत्थि ? निपाति नमावि अत्यि प्रेमन ववहाराणं आगुपुवी दव्या कि रखे जाई असंखजाई अणंताई ? तिष्णिवि णो / कहना यावर गदा व्यवहार नय से भगोपदर्शनता या कपल हवा / / 81 // अहो भगवन् ! सम्वतार हितेन ? नैरवार नय के मत समानुपूर्वी द्रव्य का कहां समवतारता है? क्या आन नाय र द्रव्य में समवतार होता है ? ती शिप्य ! तीनका अपमे 21 स्थान में पतारना है. यह समसार का कथा हवा / / 8.! हो भाव ! नाम किसे को हैं ? अशिष्य ! अनुगमके नव भेद कड़े हैं या- प्ररूपना यावत् अल्लाबत. नैगम व्यवहार नय के मत से आनुपूर्वी द्रव्य की क्या अस्ति है ? अहो गौतम तीनों की नियमा अस्ति है. *प्रकाशक-रानावहादुर लाला सुखदेवसहाय जी ज्वालाप्रसादजी. अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org .. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्र 4.38282 काग चम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्य एकत्रिंशचम साखजाई अजाइ / अणता३ नाम ववहाराण आणुपुव्या दवाई लामरस किं सरिजन मान हाजा, असंखि.जइ भागे होजा, संजेशु भागेसु वा होजा, असंखेजसु जागेसु वा होज्जा, सबलोए बा होज्जा ? ए दब्बं पडुज संजइ भागे वा होजा, असंखेजइ भागेका होला, संखेनेतु वा भागेसु होजा, असंखेजेसु वा भागेसु होजा, देसूणे वा लोए होजा, णाणा दवाई पडुच्च नियमा सबलोए होजा, एवं दोन्निधि / एवं फुसणावि / नेगम बबहाराणं आणुपुरी दब्याई काल ओ केवच्चिरं होति ? पुगं दब्धं पडुच्च जहण्णेणं तिष्णि समया, उकोसेणं व्यवहार नय के मत से आनुपूर्वी द्रव्य क्या संख्यात, असंख्यात या अनंत है ? अहो शिष्य ! तीनों संख्यात व अनंत नहीं है परंतु असंख्यात है. नैगम व्यवहार नय के मत से आनपूर्वी द्रव्य क्या लोक के संख्यात भाग में है, अगर यात भाग में है, संख्यातधे भाग में है, असंख्यातवे भाग में है. या सबलोक में ? अहो शिष्य! एकद्रव्य आओ संख्यात भाग में है, असंख्यात भाग में है संख्यातो भाग पसं ख्यातये भाग में है, या कुछ कम सब लोक में है. बहुत द्रव्य आश्री नियमा सघ लोक में ही 7 अनानुपूर्वी व अवक्तव्य द्रव्य का कहना. और ऐसे ही स्पर्शना का भी कहना. नैगम व्यवहार नय से समानुपूर्वी द्रव्य काल से कितना काल तक रहे? अहो शिष्य! एक द्रव्य आश्री जघन्य तीन समय / का कथन 48:032 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 92 4940-अनुवादकबालब्रह्मचारी श्री अमोलक मुानापजाgh असंखेनं कालं. गाणा दवाइं पडुच्च सव्वडा ॥णेगम ववहाराणं अणाणुपुब्वी दवाई कालओ केवचिरं होइ ? एगं दव्वं पडुच्च अजहन्नमणुक्कोसेणं एकसमयं, णाणा दयाइं पडुच्च सव्वडा. अवत्तव्वग दव्वाइं पुच्छा ? एगं दव्यं पडुच्च अजहण मणुकोसेणं दो समयाई णाणा दव्वाइं, पडुच्च सव्वद्धा // णेगम ववहाराणं अणापुवी दव्वाइं अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? एगं दव्वं पड़च्च जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं दो समया. नाणा दव्वाइं पडुच्च नत्थि अंतरं // णेगम ववहाराणं अणाणुपुब्धी दव्वाणमंतर कालओ कवचिरं होइ ? एगं दव्वं पडुच्च जहण्णेणं दो उत्कृष्ट असंख्यात काल. बहुत द्रभ्य आश्री सब हाल तक रहे. नैगम व्यवरार नय के मन से अमानुपूर्वी द्रव्य कितना काल तक रहे ? अहो शिष्य ! एक समय आश्री अन नुपूर्वी की स्थिति अजघन्य 4 अनत्कृष्ट एक समय की और बहुत कय आश्री सब काल की. अवक्तव्य द्रव्य की पृच्छा, अहो यि ! एक द्रव्य आश्री अजघन्य अनुत्कृष्ट दो समय की स्थिति और बहुत द्रव्य आश्री सत्र काल की. अहो भगवन् ! नैगम व्यवहार नय के मत से आनुपूर्वी द्रव्य का काल से कितना अंतर होता? अहो शिष्य ! एक द्रव्य आश्री जघन्य एक समय उत्कृष्ट दो समय. बहुत द्रव्य आश्री अंतर नहीं है अहो भगवन ! नैगम व्यवहार नय के मत से अनानुपूर्वी का अंतर कितना होता है ? अहो शिष्य ! एक * पाशक रामावझदुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4880 एकत्रिशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुथ मूल -889 समया, उक्कोसेणं असंखेनं कालं. णाणा दव्वाइं पड़च्च णत्थि अंतरं // नगम ववहाराणं अवत्तव्वग दव्वाणं पुच्छा ? एगं दव्वं पडुच्च जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज कालं, पणा दन्वाइं पड़च्च णत्थि अंतरं. // भाग भाव अप्पाबहं चेव जहा खेत्ताणपुवीए तहा भाणियबाई. जाव से तं अणुगमे. से तं णेगम ववहाराणं अणोवणिहिया कालाणपत्री॥ 83 // से किं तं संगहस्स अणोवणिहिया कालाणपख्वी ? संगहस्स अणोवाणिहिया कालाणपुवी पंचविहा पण्णत्ता तंजहा अट्ठपयपरूवणया, भंगसमुक्कि लणपा, भंगोवदंसणथा, समोयारे, अणुगमे // 84 // द्रव्य आश्री नघन्य दो समय उत्कृष्ट असंख्यात काल का और बहुत द्रव्य पाश्री अंतर नहीं है. नैगम / व्यवहार नय से अवक्तव्य द्रव्य के अंतर की पृच्छा, अहो शिष्य ! एक द्रव्य आश्री जघन्य एक समय उत्कृष्ट असंख्यात काल और बहुत द्रव्य आश्री अंपर नहीं है. इस का भाम, भाव और अल्पाबहुत जैसे क्षेत्रानुपूर्वी का कहा वैसे ही कहना. यह अनुगम का कथन हुवा. यह लेगम व्यवहार नय की / अनुपनिधिका कालानुपूर्वी का कथन हुवा // 83 // अहो भगवन् ! संग्रह नय से अनानिधिका कालानुपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! संग्रह नय से अनुपनिधि का कालानुपूर्वी के पांच भेद कहे हैं। तद्यथा-अर्थ पद प्ररूपना, मंग समुत्कीर्तनता, भंगोपदर्शनता, समवतार व अनुगम // 84 // अहो म O823 कालानुपूर्वी का कथन >488 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोलक ऋपिनी से किंतं संगहस्स अट्ठपयपरूवणया ? संगहस्स अटुपयपरूवणया एयाइं पंचविहाई जहा खेत्ताणुपुबीए संगहस्स तहा कालाणुपुब्धीए वि भानियवाणि, णवरं ठिइ अभिलावो जाव सतं अणुगमे / सेतं संगहरस अणवाहिया कालाणपुजी // 85 // से किंतं उवणिहिया कालाणुपुब्धी ? उवणिहिया कालाणुपुबी तिविहा पण्णत्ता तंजहा-पुवाणुपुथ्वी, पच्छाणुपुब्बी, अणाणुपुवी // 86 // से कितं पुब्वाणुपुत्री ? वन् ! संग्रह नय से अर्थ पद प्ररूपना कसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! इस के पांचों द्वार का कथन जैसे संग्रह नय का क्षेत्रानुपूर्वी का कहा वैसे ही कहना, यावत् यह अनुमम हुवा. यह अनुपनिधिका का कथन हुवा / / 85 // अहो भगवन् ! उपनिधिका कालानुपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! उपनिराधिका कालानु के तीन भेद-पूर्वानुपूर्वी, पच्छानुरी व अनानुपूर्वी. // 86 // अहो भगवन् ! पूर्वान पूर्वी किस कहते हैं ? अहो शिष्य ! सर्व से सूक्ष्म जिप के विभाइ न ह सके उसे समय कहते हैं, यह काल की गिनती में आदि भूत है इस लिये प्रथम समय का कथन किया गया है. असंख्यात समय की आवलिका, 3.3773 आचलका का श्वासोच्छवास, 4 साल वालेच्वास का स्तोक 5 सात स्तोक का लब, 6 सात लब का मुहूर्त, 7 नीभ मुहूर्त की एक असे रात्रि, 8 पनरह अहो रात्रि ॐ का पक्ष, 9 दो पक्ष का पास. 10 दो मास की ऋतु, 11 सीन ऋतु का एक अयन, 12 दो अयन / पकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजो. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 38 489 एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल 490 पुवाणुपुत्री-समए, आवलिया, आणपाणू थोवे, लवे, मुहुत्ते, अहोरते, परखे, मास, उऊ, अपणे, संयच्छरे, जुगे, वाससए, वाससहम्से, वाससयसहस्से, पुव्वंगे, पुटवे, तुडि अंगे, तुडिए, अडडंगे, अडडे, अावगे, अबवे, हहुअंगे. हुहुए, उप्पलंगे उप्पले, पउमंगे, पउमे, पलिणंगे, णलिणे, आस्थानेऊरंगे, आत्थिनिउरे, अउअंगे, अउए, नउअंगे, नउए, पउअंगे, पउए, चूलिअंगे, चूलिया. सीसपेहेलिअंगे सीसपहेलिया; का संवत्सर, 13 पांच संवत्सर का यग, 14 वीस या का शतवर्ष. 15 दश सो वर्ष का हजार वर्ष, 16 शत हजार वर्ष का लाख वर्ष, 17 चौरासी लक्ष वर्ष का पूर्वाग, 18 चीराप्ती लाख पूर्वांग का पूर्व, 19 चौरासी लाख पूर्णका सुहितांग, ऐसे ही 20 वटित. 21 अडडांग, 22 अडड, 23 अवांग, 25 अक्र. 25 हुहुतांग, 26 हृदत. 27 उत्पगंग. 28 उत्पल, 29 पद्मांग, 30 पम३१ नालनांग, 32 नलिन, 13 अस्ति निपुराग, 34 अस्तिनपुर. 35 अयुतांग, 38 अयुत. 27 नयुतांग, 38 नयत. 31 ५उमांग, 40 पउप. 41 चलिआंग, 42 नुलिस, 43 शीर्ष महेलितांग व 44 शीर्ष प्रहेलित. यहां तक. 195 अंक की गणना हुई. 78263253073010241.15797 353997 569140 62189668480801835960000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000Y कालानपूर्वी का कथन For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir A अर्थ 11 अनुवादक बाल उपनारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - पलिओवमे, सागरोवमे, ओसप्पिणी, उस्सप्पिणी, पोग्गल परिवहे, अतीतडा, अणागतद्धा, सवडा. से तं पुव्वाणुपुत्री, से किंतं पच्छाणुपुची ? पछाणुपुन्वी ! सबदा, अणागतहा जाव समए. से तं पच्छ अपनी से कि तं अणाणपन्नी? अणाणपुल्वी एयाएचेव एगइयाए एगुत्तरियाए अणलगायाए सेढीर अण्णमण्णम्भ भासोदुरूवूणो. से तं अणाणुपुन्वी // 87 // अहवा उवणिड़िया कालाणुपुल्वी 00000 इतनी संख्या होती है. यहां तक संख्यात कहे जाते हैं संख्यात वर्ष का पल्योपम, दक्ष में कोटाक्रोड पल्योपम का एक सागरोपम, दश फ्रोहाक्रोड सामरोपम का एक उत्सर्पिणी काळ, दश क्रोडाकड सागरोपम का एक अवसर्पिनी काल. बीस क्रोराक्रोड गोरा काला चक, अनंत काल चक्र का एक पुद्गल परावर्त, अनंत पुद्गल परावर्त का अतात काल, अनंत पुद्गल परावर्त का अनागत काल, नंत अतीत काल, अनंत अनागत काल का सर्व क ल. यह पूर्वानुपूर्वी हुई अहो भगवन् ! पच्छानुपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो विष्य ! पच्छनपूर्वी में सब काऊ, मगगत काल यावत् एक समय पर्यत की गिनती करना. यह पच्छानी का कथन हुआ. ओ भगवन् ! अनानुपर्छ किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! अनानुपूर्वी में एक से लेकर एक 2 का उसर अन्योन्याभ्यास करते जो संख्या आवे उस में से आदि अंत का छोडकर शेष रहे सो अनानपूर्वी // 87 // अथवा अनुपनिधिका कालानुपूर्वी के *प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवस हायजी ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ragha तिविहा पण्णसा तंजहा-पुवाणुपुवी. पच्छाणुपुब्बी, अणाणुपुयी, से किं तं पुव्वाणपुवी ? पुवाणुपुवी ! एगसमय ठिइए, दुसमय ठिइए, तिसमय ठिइए, जाब दससमय ठिइए, सखिज्ज समय ठिइए, असंखिज्ज समय ठिइए, से तं पुवाणुपुब्बी // से किं तं पच्छ.णुपुत्री ? पच्छाणुपुब्बी ! असंखिज्ज समयठिइए, आव एगसमय ठिइए, से तं पच्छागुपुवी // से किं तं अणाणुपुब्बी ? अणाणुपुब्बी ! एयाएव एगाइयाए एगुत्तरियाए असंखिज गच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नव्भासो दुरूवुणो. से तं अणाणुपुब्बी / से तं उवणिहिया कालानुपुवी।। तीन भेद कहे हैं तद्यथा- पूर्वानुपूर्वी, 2 पच्छानुपूर्वी व 3 अनानुपुर्वी. इस में से पुर्वानुपुर्वी किसे LE कहते हैं ? अहो शिष्य ! एक समय की स्थितिवाले दो समय की स्थितिवाले. तीन समय की स्थिति वाले, यावत् दश समय की स्थितियाले. संख्यात समय की स्थितिबाले व असंख्यात समय की स्थि वाले, यह पुर्वानुपूर्वी. और पच्छानुपूर्वी में असंख्यात समय की स्थितिवाले, संख्यात समय की स्थिति ple वाले यावत् एक समय की स्थितिवाले कहना. और अनानुपूर्वी में एक से असंख्यात पर्यंत का अन्यो न्याभ्यास करके दो कम कहना. यह अनानुपूर्वी का कथन हुवा, यह उपनिधिका कालानुपूर्वी का *388 एकत्रिंशत्तम अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल 8808808 कालानुपूर्वी का कथन 498 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 88 से तं कालाणुपुवी // 88 // से किं तं उक्कित्तणाणुपुवी ? उक्त्तिणाणुपुवी तिविहा पण्णत्ता तंजहा-पुवाणुपुब्बी, पच्छाणुपुब्बी, अणाणुपुन्वी // 89 // से किं तं पुव्वाणुपुवी ?पुव्वाणुपुवी-उसभ, अजिए, संभवे, अभिणदणे, सुमति, पउमष्पहे, सुगसे, चंदप्पहे सुवि ही सी ले, सेजसे, वासुपूज, विमले, अणते, धम्मे, संती, कुंथू अरे, मल्ली, मुणिसुब्बए, णमी, अरिट्ठणेमी, पासे, बरमाणे. से तं पुवाणुपुयी। से किं तं पच्छाणुपुब्बी ? पच्छाणुपुब्बी ! बद्धमाणे जाव उसभे. से तं पच्छाणुपुव्वी // कथम हवा. यह कालानी का स्वरूप हवा // 88 // अहो भगवन् ! उत्कीर्तनानपूर्वी किसे कहते हैं। अहो शिष्य ! उत्कीर्तनानुपूर्वी के तीन भेद कहे हैं-१ पूर्वानुपूर्वी. 2 पच्छानुपूर्वी व 3 अनानुपूर्व // 8 // अहो भगवन् ! पूर्वानुपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! पूर्वानपूर्वी में 1 श्री ऋषभदेव 2 श्री आजताय३ श्री संभवनाथ, 4 श्री अभिनंदन. 5 श्री समतिनाथ, 6 श्री पद्मप्रभु, 7 श्री मुपा नाथ, 8 श्री नंद्रपभ, 1 श्री मुविधिनाथ, . श्री शीतलनाथ, 11 श्री श्रेयांसनाथ, 12 श्रीवास पूज्य 13 श्री विमलनाथ, 14 श्री अनंतन थ, 15 श्री धर्मनाथ, 16 श्री शांतिनाथ, 17 श्री कुंथुनाय, १२८श्री अरनाथ, 19 श्री मन्लीनाथ, 20 श्रीमुनिमुवत,२१श्री नमीनाथ,२२श्री अरिष्टनेमी,२३श्री पार्थी नाथ, और 24 श्री महावीर स्वामी. यह पूर्वानुपूर्वी का कथन हुवा. अहो भगवन् ! पच्छानुपूर्वी किसे प्राशक राजाबहादुर लाला मुखदेवस हायजी ज्वालाप्रसादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4 18 से किं तं अणाणुपुत्वी ? अणाणुपुव्वी एयाएचेव एगाइयाए एगुत्तरियाए चउवीस गच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवूणो, से तं अणाणुपुवी // से तं उकित्तणाणुपुब्बी // 9. // से किं तं गणणाणुपुव्वी ? गणाणुपुब्बी ! तिविहा पण्णत्ता तंजहा-पुवाणुपुवी. पच्छ णुपुवी. अणाणुपुव्वी ॥से किं तं पुव्वाणुपवी? पुवाणुपुव्वी एगे,दस,सयं,सहस्सं, इससहस्साई, सय सहस्सं, दससयसहस्सोई, कोडी,दसकोडीओ, कोडीसयं, दसकोडीसयाई. से तं पुवाणुपुवी // से किं तं पच्छाणुपुवी? पच्छाणुकहते हैं ? अहो शिष्य ! श्री वर्धमान स्वामी से श्री ऋषभनाथ पर्यंत पच्छानुपूर्वी कहते हैं. अहो भगवन् ! अनानुपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! एक से चौवीस पर्यंत एकेक की उत्तरोत्तर वृद्धि करते 2 अन्योन्याभ्यास करे और जो संख्या अघि उस में से दो कम करे वह अनानपूर्वी. यह उत्कीतनानुपूर्वी हुई // 10 // अहो भगवन् ! मणनानुपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! मणनानुपूर्वी के तीन भेद कहे हैं-पूर्वानुपूर्वी, पच्छानुपूर्वी व अनानुपूर्वो. अहो भगवन् ! पूर्वानुपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! एक, दश, शत, सहस्र, दशसहस्त्र, लक्ष, दश लक्ष, क्रोड व दश क्रोड, सो क्रोड (अन्न) गरकोडदश (अन्ज)यह पूर्वानुपूर्वी हुई. अहोभगवन् ! पच्छानुपूर्वी किसे कहते हैं? अहो शिष्य पच्छानु-11 एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थ मूल. 498 48 उतकीनानुपूर्वी का कयन 1 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4.अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिला. घुवी-दसकोडीसयाई जाव एक्को, से तं पच्छाणुपुत्वी // से किं तं अणाणुपुब्बी ? __ अणाणुपुव्वी एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए दसकोडीसय गच्छयाए, सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरुबूजो, से तं अणाणुपुत्वी // से तं गणाणुपुव्वी // 91 // से कि तं संठाणाणुपुब्बी ? संठाणाणुपुब्बी ! तिविहा पण्णत्ता तंजहा-पुव्वाणुपुव्वी, पच्छाणुपुत्वी, अणाणुपुवी // से किं तं पुव्वाणुपुब्बी ? पुवाणुपुव्वी ! समचउरंस संठाणे, निगोह,परिमडले सादी खुजे, बामणे, हूंडे,सेतं पुव्वाणुयुब्बी।से किं तं पच्छाणुपूर्वी में दश अवज से एक पर्यंत की संख्या आती है. अनानुपर्श किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! एक से दश अब्ज पर्यंत एक 2 वहाते 2 अन्योन्याभ्यास करके जो कम करते जो संख्या रहे उसे अनानुपूर्वी कहना. यह गणनापूर्वी का कथन हुआ // 95 // अहो भगवन् ! संस्थानानपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! संस्थानानुपर्षी के बीन भेद कहे हैं. तद्यथा-१ पूर्वानुपूर्वी, 2 पच्छानुपूर्वी व 3 अनानुपूर्वी. अहो भगवन् ! पुर्वानुषी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! 1 समचतुत्र संस्थान, 2 न्यग्रोध परियंटल संस्थान.३ साद्य संस्थान, 4 कुब्ज संस्थान, 5 वायन संस्थान व 6 इंडक संस्थान. है इस को पूर्वानुपूर्वी कहते हैं. अहो भगवन् ! पच्छानी किसे कहते हैं ? अगे शिष्य ! पच्छानुपूर्वी में 'हुंडक से समचतुस संस्थान पर्यंत गिनती करना. अहो भगवर ! अनानपूर्वी किसे कहते हैं ? *मकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायनी ज्वालाप्रसादजी. अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Haad एकत्रिंशत्तम्-अयोगटार खर- चमन, पुधी ? पच्छाणुपुब्बी ! हुंडे जाव समचउरंसे, से तं पच्छाणुपब्बी // से किं तं / अणाणुपुब्बी ? अणाणुपुब्बी ! एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरिवाए छगच्छायाए मेटी मात्रभारतो दुरूवमो. से तं अणापए थी। तं नाबी // ले कि मायारी आग बी ? लामाया कुल्ली ! सिलिका 1 तंजहा. माछापु-वी. अपाणपकी !! कि पूजा व गुबी ! छालारो,अवलियाय मिसीहिया आपुल्छाध्याय पडिपुच्छा, छंणाय यि : असा एक से छ पर्यंत का अन्योन्याभ्यास करके दो कम करना. जो संख्या आवे , अनानुपूर्वी का संस्थानानु का कथन हुवा // 92 !! अहो भाव ! समाचारी आनुपूर्ण को है हो शिष्य ! समाचारी आनुपूर्त के तीन भेद कहे हैं. तद्यथा-१ पूर्वानुपूर्वी. 2 पच्छापूर्वी व 3 अन्लान. अहो भगवन् ! पूर्वानपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! इच्छा-गुरु आदि गे कहे कि आप की इच्छा होतो मैं यह काम करूं, 2 पिच्छा-अनाचार सेवन कर मिथ्या दा कृत्य देवे, 3 तहकार-हित शिक्षा के वचन को तहत्ति रहकर प्रमाण करे, 4 जब साधु उपाश्रय में से बाहिर निकले तब आवस्सही कहे. 5 उपाश्रय में आते समय निस्सही कहे, 6 जो कार्य करने का हो सो गुरु को पूछकर करे, 7 कोई मुनि अपना कार्य करने का अन्य मुनि को कहे तो गुरु को पुछ दश समाचारी का कथन अर्थ ? For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निमंतणा / / 1 ॥उवसंध्याय काल सामायारी भवे दराविहा // से तं पुब्बाणपुची। से किं तं पच्छाणुपुवी ? पच्छाणुपुव्वी ! उपसंपया जाव इच्छागाहो से तं पच्छाणुपुवी / / से किं तं अणाणुपुवा ! अणाणुपुब्बी एयाए चेव एाइयाए एगुत्तरियाए दसगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरुवृणो, से तं अणाणुपुव्वी // से तं सामायारी आणुपुवी // 73 // से किं तं भावाणुपुल्वी ? भावाणुपुल्वी तिविहा पण्णत्ता तंजहा-पुव्वाणुपुब्बी, पच्छाणुपुव्वी, अणाणुपुन्नी // से किं तं पुवाणुपुत्री कर उन मुनि का कार्य करे, 8 अन्न पानी आदि का समविभाग करना. 9 उन से पूज्य मुनिवरों से आमंत्रगा करना और 10 श्रुताध्ययन के वास्तेि किसी अन्य मुनि के पास उपस्थित होना और उसे कहना कि मैं आप का हूं इत्यादि शब्दों को उपसंपदा समाचारी कहते हैं. यह दश प्रकार की ममामचारी हुई. यह पूर्वानुपूर्वी का कथन हुवा. बब अहो भगवन् ! पच्छानपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! उपसंपदा ने इच्छा पर्यंत गणना करना उसे पच्छानपूर्वी रहते हैं. अहो भगवन् ! अनानुपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! एक से दश पर्यंत अन्योन्या पास करके जो संख्या आवे उस में से पहिले और पीछे का अंक छांडकर शेव सब अंक को आआती कहते हैं यह समाचारी आनुपूर्वी का। कथन हुवा / / 93 // अहो भगवन् ! भावानुपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! भावानुपूर्वी के तीन भेद कहे हैं तद्यथा-१ पूर्वानुपूर्वी, 2 पच्छानुपूर्वी व 3 अनानुपूर्वी. अब इन में पूर्वानुपूर्वी का प्रश्न अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनिश्री प्रमोडक ऋषिजी प्रकाशक राजाबहादुर साला सुखदवसहायजी-ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4000 एकत्रिंशत्तम-अनुयोगदार सूत्र-चतुर्थ मूल 488 पुव्वाणुपुब्बी ! उदईए, उवसमिए, खईए, ख उवसमिए,पारिणामिए, सन्निवाईए. से तं पुवाणुपुवी // से किं तं पच्छाणुपुब्बी ? पच्छाणुपुवी ! सन्निवाइए जाव उदईए, से तं पच्छाणुपुवी / से किं तं अणाणुपुब्बी ? अणाणुपबी एयाएचेव एगाइयाए एगुत्तरियाए छगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भामो, दुरूवृणो. से तं पुन्वी, से तं भावाणुपुब्बी // से तं आणुपुब्बी // आणुपुव्वीपद सम्मत्तं // 9 // // से किं तं करते हैं. अहो भगवन् ! भाव संबंधी पूर्वानपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! यह पुर्वान पट् पकार से वर्णन की गई है जैसे कि 1 उदयिक भाव, 2 उपशामिक भान. क्षायिक भव, ४क्षयोपशमिक भाव, 5 पारिणामिक भाव और 6 सनिपातिक भाव. यह पूर्वापूर्वी हु. अहो भावन ! पच्छानुपुर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! पच्छानुपूर्वी में सन्निपातिक भाव से उदायिक भाव पर्यंत गणना की गई है. यह पच्छानुपुर्वी हुई. अहो भगवन् ! अनानपूर्वी किसे कहते हैं ? अमो शिष्य ! बनानुपूर्वी में एक से छ पर्यंत एकेक की वृद्धि करते अन्योन्याभ्यास करके जो अं अवे उस में से हिला व अंत का अंक छोडकर शेष अंक को अनानी कहते हैं. यह भावान कायन हुवा. *यह अनानुपुर्वी का पद समाप्त हुवा // 14 // * / / अब नाम विषय में कहते हैं. अहो भगवन् ! नाम किसे 84880 मावानुपूर्वा का कथन 8 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 16 नामे ? नामे दसविड़े पण्णत्ते तंजहा-एगनामे, दुनामे, तिनामे, चउनामे, पंचनामे, छनामे, सत्तनामे, अट्ठनामे नवनामे, दसनामे // 95 // से किं तं एगनामे ? ऋषिजी 1 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री 3 कहते हैं ? अहो शिष्य ! नाम के दश भेद कहे हैं जैसे कि-जो ज्ञानादि गण का प्रकाशक हो उस का एक नाम है. 2 जिस के द्वारा दो पदार्थों का बोध होवे उमे दिनाम कहते हैं, 3 जिग के द्वारा तीन पदार्थो का ज्ञान होवे उसे त्रिनाम कहते हैं. 4 को चार बार से ३म्मा स्वरूप बिकरिया जाय। वह चार नाम है, 8 जो पांच प्रकार से पदार्थों का विमानाय वह पांच ना : 6 जिस से अ छ प्रकार से वस्तुओं का स्वरूप वर्णन दिया जाने नदी पट् ाम, ७मिय से सात प्रकार से निरूपणा की जावे वही सात नाम है. 8 जिस के अष्ट भेद वर्णन किये ज उसी का नाम अष्ट नाम हैं. 9 नव प्रकार से द्रव्यादि पदार्थो को कहा जाये वहीं नव नाम है और दश प्रकार से जो पदार्थ वर्णन किये जाये उन्हीं का नाम भार है. // 95 / इसमें पुनः प्रश्न करते हैं कि अहो भगनन् ! एक नाम किसे कहत है? अहो शिप्य : प न (जीव आत्या, प्राणी सत्व ) यो जीव द्रव्य अनेक नाम है वैसे ही आया नन: आकाश अंश्र इत्यादि यह व्यों के नाम हैं.) नल जैसे ज्ञानादि गुण, तश रूप. बस, गंध, स्पर्श या गुण पर्याय सो नरक, तिर्यच, मनुष्य च देव. यों द्रव्य, गुण व पर्याय के जितने नाम हैं उन सब को आगम .१काशमा-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजा ज्वालाप्रसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एगनामे ! नामाणि जाणे काणिय, दवाणगुणाण पजवाणंच ॥ते सिं आगम निहसे नामे नि परूशिया सता, से तं एगनामे || 96 // से किं तं दुनामे ? दुनामे दुविहे पण्णते तंजहा-एगलरवरिए, अणे खारय // से किं तं एगक्वरिए ? एगरवरिए ही श्री धी स्त्री से तं गुगल गरिए // से किं तं अणेगक्खरिए ? अणेगखरिए अर्थ रूप कसौटी विषय नाम पर संशा प्रतिपादन की गइ है. अर्थात् यह नाम पद आगम में कसौटी तुल्य हैं इसके द्वारा स पदार्थों का चोप यथावत् होता है. तथा द्रव्य गुण पर्याय यह तीनों आगम रूप कसौटी में यथावत् सिद्ध होचुके हैं. जो संसार भर में वस्तु है वे सर्व समान प्रकार से एक नाम से भाषण की जाती है. सब द्रव्यों के (कार्थ याची अनेक नाम होते हैं परंतु वह एक नाम में ही गर्भित हो जाते हैं जैसे कबोटी द्वारा स्वर्ण की परीक्षा को जाती है वैसे ही ज्ञान रूपी कसौटी में जीयाजीव पदार्थो सुवर्ण तुम उनी पक्षा की जाती है इस लिये यह नाम पद कसौटी रूप हैं. एक नमका कथन हवा // 16 // अब शिश्य द्विनाम के लिये पृच्छा करता है. अहो भगवन् !/4 97 द्विनाम किस प्रकार से वर्णन किया गया है ? अहो शिष्य ! द्विनाम दो प्रकार से प्रतिपादन किया। गया है. जैसे कि-एकाक्षरिक नान व अनेकाक्षरिक नाम. अहो भगवन ! एकाक्षरिक नाम किसे / एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल 11 680938नाम विषय 8894808 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्र अणेगविहे पण्णत्ते तंजहा-कण्णा, वीणा, माला, सेत्तं अणेगक्खरिए // अहवा दुनामे दुविहे पण्णत्ते तंजहा--जीवनामे, अजीवनामेय // से किं तं जीयनामे ? जीवनामे अणेगविहे पण ते तंजहा-देवदत्ते, जिणदत्ते, विष्णुदत्ते, सोमदणे, से तं जीवनामे // से किं तं अजीवनामे ? अजीवनामे अणेगविहे पाते तंजहाघडो पडो कडो रहो, से तं अजीवनामे ! // 97 // अहवा दुनामे दुविहे पण्णचे तंजहा-अविससिएय, विसेसिएय // अविसेसिए दब्वे विससिए जीवदव्वे अजीव अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवस हायजी ज्वालाप्रसादजी* अर्थ कहते है ? अहो शिष्य ! जिस के उच्चारण में एक ही अक्षर है जैसे-ही, श्री, धी. स्त्री, और जिसके उच्चारण में अनेक अक्षर हो सो अनेकाक्षरिक मैसे कन्या. लता, वीणा, माला, अथवा द्विनाम के दो भेद किये हैं तद्यथा- जीव नाम, 2 अजीव नाम. अहो भगवन् ! जीव नाय दिसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! जीव नाम अनेक प्रकार से प्रतिपादन किया है तद्यथा-देवदत्त, यज्ञदत्त. सोमदत्त, यह जीव संज्ञक नाम है. अहो भगवन् ! अजीव नाम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! अनीव नाम के अनेक भेद कहे हैं तद्यथा-घट. पट, रथ. केट, यह अजीव नाम का कथन हुवा // 97 // अथवा द्विम के दो भेद को विज्ञपिक व विशेषिक. अविशेषिक नाम का अर्थ यह है कि जो नाम सर्व | For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दव्वेय // अविसेसिए जीवदव्वे, विसेसिए-गैरइए, तिरिक्खजीणिए, मणुस्से, देवे // अधिसिए नेरेईए, विसेसिए रयणप्पभाए, सक्करप्पभाए, बालुयप्पभाए, पंक:भाए, धूमप्पभाए, तमाए, तमतमाए // अविसेसिए ग्यणप्पभाए पुढदी नेइए विसेसिए-रयणप्पमाए पुढवी नेईए पजन्त अपजत्तर // एवं जाव अविससिप तमतमा पुढवी नेरइओ, विसेसिए-तमतमा पुढवी नेरइओ पजत्तएय अपजाय // 98 // अवित्तिए तिरिक्खजोगिए, विससिए एगिदिए, बेइंदिए, तेइंदिए, चउरिदिर, पंचिंदिए // अविलिए एगिदिए, विसेलिए-पुढवी काईए, 'E स्थान में गभित हो जाये और विशेष नाम उसे कहते है कि जो बेवल उसी द्रव्य का बोधक हो. उदाहरण---अविशेप द्रव्य इस में जीव व अजीव द्रव्य का गायनाना है और विशेष में जीव द्रव्य व अजीव द्रव्य है. वैसे ही अविशेष नाम जीव द्रव्य और विशेष नाम सो नरक. तिर्यंच, मनुष्य व देवा. अविशेष नाम में नरक गति और विशेष नाम में रस्न प्रभा. शर्कर प्रभा. बालुप्रभा, पंकप्रभा, धूम्रप्रभा तमनभा, व तमतमममा. अविशेष में रत्नप्रभा और विशेष में रत्न प्रभा नरक के नैरयिक पर्याप्त व अपर्याप्त. यों तमतमा पर्यंत जानना. अविशेषिक व विशेषिक का नरक का अधिकार हुवा // 98 // | अब तिर्यंच का कहते हैं. अविशेष में तिर्यंच और विशेष में एकोन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरेन्द्रियः >एमोत्रिशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मल 48 4880280 नाम विषय 80 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्र अमुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी : आउकाइए, तेऊकाइए, वाउकाइए, वणस्सइकाइए // अविससिए पुढवी काईए, विसेसिए सुहुम पुढवी काईए, बादर पुढवी काइए / अविसेसिए सुहुम पुढवि काइए, विसेसिए पजत्तय सहम पुढवी काइय, अपजत्तय सुहम पढ़वी काईए // अविसेसिए बादर पुढवी काईए, विसेसिए पजत्तय बादर पुढवी काईए, अपजत्तय बादर पुढवी काइए // एवं आउकाईए, तेउकाईए, वाउकाईए, वणस्सइ काइएय // अविसेसिय अपज्जत्तय भेदेहिं भागियन्वा // अविसेसिए बेंदिए विसेसिए पज्जत्तय बैदिए अपजत्तय बेदिए // एवं तेइंदिए, चउरिदिएवि भाणियत्वा / अविसेसिए पचिंदिए तिरिक्खजोणिय, विसेसिए-जलयर पंचिंदिए तिरिक्खजोणिए, व पंचेन्द्रिय. अविशेष में एकेन्द्रिय और विशेष में पृथ्वीकाण अपकाया, तेउकाया, वायकाया, व वनस्पतिकाया. अविशेषिक में पृथ्वीकाया और विशेषिक में सूक्ष्म पुथ्वी काया व वादर पृथ्वी काया. अविशेषिक में मूक्ष्मपृथ्वी काया और विशेषिक में पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी काया व अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी काया. विशेष में गदर पृथ्वी काया और विशेष में पर्याप्त व अपर्याप्त बादर पृथ्वी काया. जैसे पृथ्वी काया का कहा वैसे ही अपकाया, तेउकाया. वाउकाया व वनस्पतिकाया का जानना. अविशेष में द्वीन्द्रिय विशेष में द्वीन्द्रिय के पर्याप्त व अपर्याप्त ऐसे ही त्रीन्द्रिय व चतुगेन्द्रिय का कथन जानना. अब अतिर्यंच पंचेन्द्रिय का कहते हैं. अविशेष में तिर्यंच पंचेन्द्रिय, विशेष में जलचर, स्थलचर, व खेचर तिर्यंच * प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्र 88603 एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चर्तुथ मूल 288 थलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिए, खहयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिएय // अविसेसिए जलयर पंचिंदिय तिरिक्तजोणिए, विसेसिए समुच्छिम जलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिए. गम्भवतिय जलयर पंचिदिए तिरिक्खजोणिए // अविसेसिए समुच्छिम जलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिए, विससिए पजत्तय समुच्छिम जलयर पंचिदिए तिरिक्खजोणिय, अपजत्तय समुच्छिम जलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिएय ॥अविसेसिए गम्भयकंतिय जलयर पंचिंदिय तिरिव खजोणिए, बिसेसिए पज्जत्तय गम्भवक्कं तिय जलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिएय अपजत्तय गम्भवतिय जलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिए // अविसेसिए थलयर पचिंदिए तिरिक्खजोणिए विसेसिए चउप्पय थलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिएय, परिसप्प थलयर पंचिंदिय तिरिक्ख पंचेन्द्रिय. अविशेष में जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय और विशेष में संमृच्छिम जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय और गर्भन जलचर तिर्यच पंचेन्द्रिय,अविशेष में संमृच्छिम जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय और विशेष पर्याप्त व अपर्याप्त संमूछिम / जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय. अविशेष में गर्भज जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय विशेष में पर्याप्त व अपर्याप्त गर्भज जलचर तिच पंचेभिय, अविशेष में स्थलचर तिर्यच पंचेन्द्रिय व विशेष में चतुष्पद स्थलचर तिर्यच पिंचेन्द्रिय व परिसर्प स्थलचर मियंच पंचेन्द्रिय. अविशेष में चतुष्पद स्थलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय, प + नाम विषय 803436 488 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *अनुवादकबालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक पिनी जोगिएय // अविसेसिए चउप्पय थलयर पंचिदिय तिरिक्रूजोणिए, विसेसिए समुच्छिप चना लयर पनिदिय तिरिक्रपजोगिएय, गम्भवक्कंतिय चउप्पय थलयर पारिय लिरिक्खजे गएष // आले.लिए समुच्छिम चउप्पय थलयर पंचिंदिय तिरिक्सजेगिर,विलेलिए-पजन्तय समुच्छिाप्पय थलयर पंचेंद्रिय तिरिक्खजोणिय अज्जत्तय लनुच्छिम च उप्पय थलपर पंचिदिए तिरिक्वजोगिए // अदित्तेसिए. गभवतिय चउपायलयर पविदिय तिरिक्खजाणिए, बिसेलिए- जत्तय गम्भ. वतिय चाय थल पर पंबिंदिय तिरिरन जोणिय, अपगत्तय गन्भवतिय च उप्रय बलयर पंचिोदेश तिरिक्खासिएम // असिमित-परिसप्पथलयर पंचिंदिय विशेष या वगन च पलचर तिय या पवित्र मच्छिम स्थलचर वियंच पंचेन्द्रिय ॐ और विशेष में परमात निधनाइप : स्थलचा तिच पंचेन्द्रिय अविशेष में गर्भन चतुष्पद स्थलचरी तिर्यंच पंवे प्रोवि वानव अपक्ष चतुष्पद स्थरचरतियच पचेन्द्रिय.अविशेष में परिसर्प स्थलचर तिविपचे न्द्रय और विशेष में उरपरिसर व शुजपरि स्थावर तियेच पंचेन्द्रिय. इन दोनों के संपूच्छिम पर्यास व अपात वैसे ही नज, 16 व अर्शत यों भेद करना. आवेशेषिक खेचर काशक-राजावहादुर लाला मुखदवसहायजी चालाप्रसादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिरिक्खजोणिए विसेसिए, उरपरि सप्प थलयर पंचिंदिय तिरिव खजोणिए, भुजपरिसप्पथलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिस्य.एतेविसमुच्छिमा पजन्तगा अपजत्तगाय, गभवकंतिएवि पज्जत्तगा अपजत्तगाय भाणियव्वा ॥अविससिए खहयर परिदिय तिरिक्खजोणिय,विससिए समुच्छिम खहर पंचिदिए गम्भवकंतिय खहयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिय। अविसेसिए समुच्छिम खहयर चिीदय तिरिक्खजोणिय, विससिए पजत्तय समुच्छिम खयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिस, अमजतय समुच्छिम खहयर पंचिंदिय तिरिक्खो . णियाविससिए गब्भव नया साहयर विनिय विमन्तिम मन्भवतिय खहयर पंचिंदिय तिरिक्खजोशि अनः त्य हपर पचिदिय तिरियरल ओपिर // 99 // अविसेसिन मणुरसे, पिसिए समुच्छिम मणुस्सेय, गब्भवतिय मणुस्सेय // अर्थ और विशेषक संगूच्छप व मन खेपर तिर्य पंन्द्रिय. अविशेएक समूच्छिम खेचर तियेच पंचन्द्रिय और विशेषक पर्याप्त भयो काटा खेचर पिच पंचेन्द्रिय. अविशेषक गर्भज खेचर निर्यच पंच18. न्द्रिय और विशेषक पर्याप्त अपयास गर्भ खेचर तिर्वच पंचेन्दिय. यह तिर्यंच कायन वा // 11 // 0 अविशेषक-मनुष्य और विशेषक-संमूच्छिम मनुष्य व गर्भन मनुष्य. अविशेषक संमूछिम मनुष्य, विशेषक। एकाशित्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थ मूल 489+ नाम का विषय 48:08 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अविससिए समुच्छिम मणुस्से, विसेसिए पजसग समुच्छिम मणुस्सेय, अपजसग समुच्छिम मणुस्सेय // अविसेसिए गम्भवक्तांतिय मणुस्से, विसाए कम्मभूमिए, अकम्मभमिए अंतरदिवगेय॥संखेज वास्गउएय,असंखजवासाउएय, पजत्तउ अपज्जाउ भेदो भाणियन्वो // 10 // अविसेसिए देवे, विसेसिए-भवणवासी, वाणमंतरा, जोतिसीए, वेमाणिएय // अविसेसिए भवणवासी, विसेसिए- असुरकुमारे. नागकुमारे, सुवणकुमारे, विज्जुकुमारे, अग्गिकुमारे, दीवकुमारे, उदहिकुमारे, दिसाकुमारे, वाउकुमारे, थणियकुमारे, सव्वेसिपि अविसेसिय. विसेसिए, पजत्तग अपजत्तग भेदा भाणियन्वा // अविसेसिए वाणमंतर, विसेसिए-पिसाए, भूए, जक्खे, रक्खसे, पर्याप्त अपर्याप्त संमूछिम मनुष्य. * अविशेषक गर्भज मनुष्य विशेषिक कर्मभूमि, अकर्मभूमि व अंतर द्वीप इन तीनों के संख्यात वर्ष आयु वाले असंख्यात वर्ष आयु वाले,पर्याप्त व अपर्याप्त यों चार भेद है अविशेषक व विशेषक में करना // 10 // अविशेषक देव और विशेषक भवनवासी, वाणयंतर, में ज्योतिषी, व वैमानिक. अविशेषक में भवनवासी और विशेषक में 1 असुर कुमार, 2 माग कुमार, 3 T3 सुवर्ण कुमार, 4 विद्युत्कुमार, 5 अग्निकुमार, 6 दीपकमार. 7 उदधि कमार, 8 दिशाकुमार, * संमृहिम मनुष्य के पर्याप्त नहीं होते हैं परंतु भांगा उत्पन्न करने के लिये ही ग्रहण किये हैं. 4880 अनुवादकबाल ब्रह्मचारी श्री अमोलक मुानाम्ना प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल किंनरे, किंपुरिसे,महोरगे, गंधव्वे,एतेसिंपि अवित्तेसिय. विसेसिय पजत्तय अपज्जत्तय भेदा भाणियब्वा॥अविसेसिए जोइसिए, विसेसिए-चंदे, सूरे, गह, णक्खत्ते, तारारूवे. एतेसिपि अविसेसिए, विसेसिए पजत्तय अपजन्य भेया भाणियव्वा // अविसेसिए वेमाणिए, विसेसिए कप्पोववन्नेय, कप्पातीतए // अविसेसिए कप्पोववन्ने, विसेसिएसोहम्म,, ईसाणए, सणतकुमार, माहिंद, बंभलोय, लांतए, महामुक्कए, सहस्सार, आणय, पाणय, आरणए, अचुयए // एतेसिं अविसेसिए, विसेसिए, पजत्तय अपजसय भेदा भाणियव्वा // अविसेसिए कप्पातीतए,विसेसिए गंवेज्जए, अनुत्तरोय॥ वायकुमार 10 स्तनितकमार इन दशों का अविशेषक व विशेषक में पर्याप्त व अपर्याप्त के भेद कहना. अविशेषक वाणब्यंतर और विशेषक ? पिशाच, 2 भूत, 3 यक्ष, 4 राक्षस, 5 किन्नर, 6 किंपुरुष, 7 महोरग, 8 गर्व. इन आठों का अविशेषिक व विशेषिक में पर्याप्त व अपर्याप्त के भेद कहना. अविशेषिक ज्योतिषी और विशेषिक चंद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र व तारा. इन के अविशेषक व विशेषक में पर्याप्त व अपर्याप्त के भेद कहना. विशेषक वैमानिक और विशेषक में कल्पोत्पन्न व कल्पातीत. अविशेषक में कल्पोत्पन्न और निशेषक में ! सौधर्म, 2 ईशान, 3 सनत्कुमार, 4 माहेन्द्र, 5 ब्रह्मलोक, 88888 नाम विषय 86004863 EP 488 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मल ब्रह्मचारी मुनि श्री अलक ऋषिजी + अविसेसिए गंवेजओ, विसेसए-झोहिम गेविजएहि. मज्झिम गेविजयहिं, उत्ररिम गेविज हिं // अविसेपिए हेकि मेजिए, विसेरिएटेन हेलिन मेलिजए, हेटिम मज्झिन गेविजर. हट्टिम उरिन गेविजए // अतिरिम झिग मेरिज, लिए. मझिमनिए, मझिम मज्झिम गाँवजा, मति . उरिका / / अविसरि एनिमा रोकिए. विजेतिए-उमा म विन, सरिम मझिम गोवर. रिमरिक मेशिजए // एतास वि मा अविजित विशलिए मा अपनतर भेदा मानियवा॥अविसेसिए अणुत्तरोवधाइ :, दिले.लए-विजापर। *प्रकाशक राजाबहादुर लामासुखदेवसहायजी ज्वालाममादजी. 6 लंतक, क. 8 सासा', 9 आणत, 10 माणस. 11 आरण और 12 अगुत. इन के भी कि अधिशेषक व विशाल में पचास व अपर्याप्त के भेद कहना. अविशेषक कल्पातीन और विशेषक में प्रवे. यक व अनुर विमान. विशयक में ग्रेयेयक और विशेषकरें नीचे की, बीच की व ऊपर की. अविक्षेत्र में नीचे की और विशेषक में नीचे नीचे की नीचे की बीच की और नीचे की ऊपर की. अविशे च की. विशेष धीच की नीच की. च की वीच की, और बीच भी ऊपर की. अविशपक ऊपर की ग्रैवेषक, विशेषक ऊप' की नीचे की, ऊपर की बीच की द उपर की ऊपर की. इन सब कई arrian भार्यात भेद कहना. अधिशेषक अनुत्तरोपतिक और विशेषक. १विजय, 2 वैजयंत For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 38+ * वैजयंतते, जयंनते, अपराजितए, ससिद्धय / एसिपि सम्बोलि अविससिए विलित पजत ' अपज तगा मेवा कालिया // 30 // आंबोनि अधीदने विसेसिए-धम्मत्यिकाए, अधम्मत्थिनाए, आगामधिकार पोग्गलथिका अडत समिए // 102 // अ.बसेलिए पालस्थिकाए, विससिए परमाणु शेगो, ग ए / तिपदेसए जाव अणंत पवेलियए, सेतं दुनामे // 10 // से नितिन ! तिनामे तिविहे पणते तं जहा--दाणा, गुण ,पाने / / 106 // संकि 3 अयंत, 4 पराजित व 5 सर्थ सिद्ध इन के भी अविशेष विशेषकमें पर्याप्त अपमान करना // 1.1 // अवशेष अजीद का विशेषक धर्मास्ति काया. अधति कापा. आकाशस्ति में काया. पुद्गलास्ति काया व अद्धासमय (काल)॥१०२ // विशेषक पुद्गलास्ति काया विशेषक-पग्माणु पदल, द्विप्रदेशिक स्कंध, तीम प्रदेशिक यावत् अनंत प्रदेशिक स्कंध यह द्विनाम का कथन हुवा // 103 / / अहो भगवन् ! तीन नाम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! तीन नाम तीन प्रकार से बक्षित किये गय हैं तद्यथा-द्रव्य नाम-गुणपर्याय धारन करनेवाले को द्रव्य कहते हैं। गुमनाम-द्रव्य व पर्याप की पहिचान 100 करनेवाले को गुण कहते हैं, और पर्याय नाम-जीव द्रव्य में ज्ञानादि गुणों का व उजव व्या वण 10 गुणों का परिवर्तन होवे उसे पर्याय कहते हैं / / 104 // अहो भगवन् ! द्रव्य नाम किसे कहते हैं / 488- एकत्रिंशत्तम अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल नाम विषय For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक वालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 89 दव्वनामे ? दव्वनामे ! छव्यिहे पण्णचे तंजहा-धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासस्थिकाए, जीवत्थिकाए, पुग्गलत्थिकाए, अडासमएय स तं दव्वनामे // 105 // से किं तं गुणनामे ? गुणनामे ! पंचविहे पण्णत्ते तंजहा-वण्णनामे, गंधनामे, रसनामे, फासनामे, संगाणणामे, // से किं तं बजनामे ? वण्णनामे पंचविहे पण्णत्ते तंजहा- कालवण्णनामे, णीलवण्णनामे, लोहियवण्णनामे, हालिद्द, घण्णनामे, सुकिल्लवण्णनामे, से तं वणनामे // से किं तं गंधनामे ? गंधनामे दुविहे पण्णत्ते तंजहा-सुरभिगंधनामे, दुराभिगंधनामेय, से तं गंधनामे / / से किं अहो शिष्य ! द्रव्य नाम के छ भेद कहे हैं तद्यथा-धर्मास्तिकाया अधर्मास्तिक या, आकाशास्तिकाया, एनीवास्तिकाया. पुनलास्तिकाया व अद्धाममय. यह द्रव्य नाम हुवा // 15 // अहो भगवन् ! गुण नाम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! गुणनाप के पांच भेद कहे हैं तद्यथा-वर्ण नाम, गंध नाम, रस, नाम, स्पर्श नाम व संस्थान नाम. इस में से वर्ण नाम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! वर्ण नाम के पांच भे; कहे हैं तद्यथा-१ कृष्ण वर्ण नाम, 2 नील वर्ण नाम, 3 रक्त वर्ण नाम, 4 पीत वर्ण नाम है और 5 शुक्ल वर्ण नाम. यह वर्ण नाम का कथन हुना. अहो भगवन् ! गंध नाम किसे कहते हैं ! अहो न शिष्य! गंध नाम के दो भेद कहे हैं. तद्यथा-मुरभिगंध नाम प दुरभिगंध नाम. रस नाम किसे प्रकाशक-रानावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी. अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकत्रिंशचम-अनुयोगद्वार मुत्र चतुर्थ मूल 498 अर्थ तं रसनामे ? रसनामे पंचविहे पण्णत्ते तंजहा-तीत्तसनामे, कडयरमनामे, कसायरसनामे, अंबिलरसनामे, महुररसनामे से तं रसनामे // से किं तं फासनामे? फासनामे ! अट्टविहे पण्णत्ते-कक्खडफापणामे, मउयफासगामे, गरुयफासनामे, लहुयफासनामे सीतफासनामे, उसिणफासनामे, णिद्ध फासनामे, लुक्खफासनामे, से तं फासनामे // से किं तं संढाणणामे ? संट्ठाणणामे ! पंचविहे पण्णत्ते, संजहा-परिमंडल संढाणणामे, वट संटाणणामे, तस साढणणामे, चउरंस संढाण णामे, आयत संढाणणामे से तं सट्ठाणणामे, से तं गुणणामे // 106 // से किं कहते हैं ?? रस नाम के पांच भेद कहे हैं. तिक्त रस नाम, कटुक रस नाम, कषायला रस नाम, अम्बट रस नाम व मधुर रस नाम. यह रस नाम का कथन हुवा. अब स्पर्श नाम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! स्पर्श नाम के आठ भेद कहे हैं तद्यथा-कर्कश स्पर्श नाम. मृदु स्पर्श नाम, गुरु स्पर्श नाम, लघु स्पर्श नाम, शीत स्पर्श नाम, ऊष्ण स्पर्श नाम, स्निग्ध स्पर्श नाम व रुक्ष स्पर्श नाम. यह स्पर्श नाम हुवा. अब संस्थान माम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! संस्थान नाय के पांच भेद कहे हैं. तद्यथा-१ परिमंडल संस्थान नाम, 2 वट्ट संस्थान नाम, 1 ध्यंस संस्थान नाम, चउरंस संस्थान नाम, और आयतन संस्थान नाम. यह गुण नाम हुवा // 106 // अहो भगवन् ! पर्यव नाम 484889488+नाम विषय48824887 498 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4.अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी तं पजवणामे ? पज्जवणामे ! अणेगविहे पण्णत्ते तंजहा-एगगुणकालए, दुगुणकालए, तिगुणकालए, जाव दसगुणकालए, संखेजगुणकालए, असंखेजगुणकालए, अणंत गुणकालए / एवं-नील-लोहिय-हालिद्द-सुकिल्लावि भाणिया। एगगुण सुरभिगंधे, दगुण सुरभिगंध, जाव अणंतगुण सुरभिगंधे, एवं दुरभिधोरि भाणियव्वा, // एर गुणातितो जाव अपंतगुणतित्ते, एवं कडुय कसाय-अंबिल-मदुरराषि-भाणियव्वा ॥एगा / कक्खडे जाव अणंतगुण कक्खडे, एव-म उप-शुरु : हा पीत-उसिणमिड-मसावि भाणियका, से तं पजपनामे // 107 // तं पुगकाम तिविहा किसे काही अतो शिष्य ! पर्यव नाम के अनेक भेद की है तथधा- तुम काला, दो गण काला. तीन गुण का, यायम् दश गुण काला, संख्यात गुण झाला. अयान गुम काला व अणंत गुण काला, एपे हो नील, रक्तवतव वर्गका मार्ग का का योनिमं व दुरभिगंध का कामा. एक गुण सिक पावत् अनंत गुमलिक, विद्या कायअंधिल ब मधर का कड़ना. ऐसे ही एक गुण कर्कश, यावत् अनंत गुण सकस, यो पृदु, गुरु, लब, शीत, ऊष्ण, स्निग्ध व रुक्ष का कहना. यह पर्थव नाम हुवा // 107 // और भी नाम के तीन भेद कहे हैं तद्यथा-स्त्री, पुरुष फारुक-राजाबहादुर लाला मुश्वदेवतहायजी ज्वालामसादनी For Private and Personal Use Only
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________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पण्णत्ता-इत्थी, पुरिसं, णपुसगं चेव // एएसि तिण्हंपिए अंतं परूवणं वोच्छं-तस्थ पुरिसस्त अंता-आई-ऊ-उदयी, चत्तारि ते इत्थियाओ हवात, जापरिहीणा आता. इति, उयिं अंताओ णपुसमस्स बोधव्वा / एतेसिं तिण्हंपिय वोच्छाम निदरिसालतो-आगारतो राया; इगारंतो-गिरीय सिहरीय, ऊकारंतो-विण्हू, उकारतो सुनोउ अंताओ पुरिसाणं, आगारतो-माला, इमारतो-सिरीय लच्छीय, ऊगारंतो भू, बडूय अंताऊइत्थी // अकारंत थर, ईकारतं पापुंनगं अच्छि, उकारत पाल महुच, अंतः णपुंसगाणं से तं मे ||108 // से किं तं चउणामे अर्थ व नसक. इन तीनों के अंताक्षर की प्ररूपणा करते हैं. पुरुष लिंगवाले ना के अंत में आकार. कार. अकार व उकार होते हैं, स्त्रीलिंगी नाम के अंत में आकार ईकार व ऊसार होने हैं, और अपुंसकलिंगी नाय के अंत में आकार. इकार व उकार हते हैं. इस में से पुरुष लिंग का जाहरण आकारांत में राया, इकारान्त में गिरिशिखरि, आकारांत में विराहू और उकारान्त में दुयोउ. यह पुरुष लिंग का कथन हुवा. स्त्रीलिंग में आका-ति में माला, इकारांत में श्री, लक्ष्मी, ऊकारांत में जन्बू, बहू यह स्त्रीलिंग के अंत्याक्षर का कथन हुवा. अब नपुंसक लिंग. अकारांत धान्य, इकारांत अच्छि और 17कारांत पीलु मदु यह नपुंसक लिंग के अंत का कथन हवा. यह तीन नाम का कपन हुवा // 108 // एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल 8488 नाप विषय 20388 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अपोषक ऋषिजी। ? चउणामे!चउविहे पण्णत्ते तंजहा-आगमेण, लोवेण पगइ,विगारोणासे किं तं आगमेणं ? आगमेणं. पयामानि, पयांसि, कूडानि, से तं आगमेणं // से किं तं लोवेणं ? लोणं-तेअत्र, तेऽत्र, पटोअत्र, पटोऽत्र, घटोअन, घटोऽत्र, से तं लोवेणं॥ से किं तं पयइएणं पेयाईए-अग्निएते, पटूइमौ; शालाएते, मालेइमे, से तं पगतिए।। अहो भगवन् ! चार नाम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! चार नाम के चार भेद कहे हैं तद्यथा मागम से पद बनता है, 2 लोप से अर्थात् वर्गों के लोप से पद बनता है, प्रकृतिभाव से पद बनता है सो और अक्षरों के विकार से अर्थात् संधी होने से पद बनता है सो. अहो भगवन् ! आगम से पद किस प्रकार होता है ? अहो शिष्य ! विभक्तयंत पद होता है उस में वर्ण का आगम होता है. जैसे पन शब्द का प्रथम विभक्ति का अनेक वचन का रूप पद्मानि हुवा. पयस शब्द का पयांसि रूप #बना, 2 और कूट शब्द का कूटानि पद बना. यह आगम से पद बनने का कहा. अहो भगवन् ! लोप किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! वर्गों के लोप होने पद इस प्रकार होता है जैसे कि-ते और अत्र इ दोनों पद को मीलाने से तेऽत्र हुवा क्यों कि संस्कृत प्राकृत में ऐमा नियम है कि दो स्वर एक साथ आने से उस की संधी होती है. इस से यहां पर संधि में अकार का लोप हो गया. वैसे ही पटी+अच मीलने से पटोनं हुवा. घटो अत्र मीलने से घटोऽत्र : कालोप का . . अहो मगवन् ! काधक-राजाबहादुर काम सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. " For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्र , दधीदं, नदीईह-नदास से कि तं विगारेणं ? विगारणं दंडस्य अग्रं-दंडाय सआगता, सागता, दधि दधीदं, नदीईह-नदीह, मधु उदकं-मधूदकं, बधूऊहते-बधूहते, से तं विगारेणं, से तं चउनामे // 1.9 // स किं तं पंचनामे ? पंचनामे / पंचविहे पण्णत्ते तंजहा. नामिक, नैपातिकं, आख्यातिकं, उवसर्गिकं, मिश्रंच, / अश्व इति नामिकं, तं पंचनामे ? . 48 एकोत्रिंशत्तम अनुयोमदार सूत्र-चतुर्थ मूल * प्रकृति भाष किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! प्रकृति भाव उसे कहते हैं कि संधि कार्य के प्राप्त होने पर भी संधि न होवे. उसे निषेध सधि भी कहते हैं. इस के भी उदाहरन कहते हैं जैसे अग्नीएतौ यहां पर दोनों स्वर का संधि कार्य होना था परंतु प्रथम द्विवचन के रूप के आगे स्वर आने से संधि नहीं होसकती 'Bहै इसलिये सांध नहीं की गई है. वैसे ही पटू+इम-पटूइमौ. शाले+एते शालेएते. माले+इमेम्माले(इमे. यह प्रकृतिभाव हुवा. अहो भगवन् ! विकार होने से पद कैसे बनते हैं ? अहो शिष्य ! विकार से जो पद बनते हैं उस के उदाहरण-दंडस्य+अदंडान. यहां पर दोनों स्वर की सधि होगई. वैसे ही सा+पागतासागता. दधि इद-दधीदं. नदी+इहम्मदीह. मधु+उदकंमधूदकं वधू+उहते वधूहते. यह विकार भाव हुवा. यह चार नाम का कथन हुवा // 109 // अहो भगवन् ! पांच नाम कितने प्रकार से वर्णन किया है ? अहो शिष्य ! पांच नाम पांच प्रकार से वर्णन किया गया है. 20 नयथा-को नाम नापमान आदि कोषों में वर्णन किये गये हैं उन को नामिक कहते हैं तथा माम शब्द 42 48 नाम विषय 48 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ 4.8 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिमी कति का नाम भी है, क्यों कि प्राति से पर ही प्रत्ययो की संयोजना की जाती है. सो जो प्रकृति में भाकृति रहे ससे नामिक कहते हैं. द्वितीय नैपातिक नो निपात में वर्णन किये गये हैं उसे नैपानिक कहते हैं. तृतीय आख्यातिकं जो अख्यात में शब्दों का विवर्ण किया गया है उसे भासयातिक कहते हैं, जो नाम उपसों में वर्णन किया गया है उसे औपसनिक कहते हैं और जो उपसर्ग और धातु मीलकर बनता है उसे मी कहत हैं. अब इन पांचों के उदाहरण कहने हैं. प्रथम नामिक का उदतु हरण अश्व का देते हैं. अश्व इस प्रकार से एक नाम है इस को प्रकृति रूप स्थापन करके प्रत्ययों की संगेजना करनी चाहिये जैसे कि अश्वःअश्वौ अश्वाः. अश्व, अश्वौ अश्वान् यो सातों विभक्तियों के रूप चाहिये. इसी प्रकार पुस्प वृक्ष घट घटादि सर्व नाम प्रकृति रूप होने से उसी को प्रत्यय लगाने से पद बन जाने ह. यह नामिक का कथन हुवा. विवित नैपातिक खलु आदि निपात हैं. इन के अंबर्गत ही अव्यय प्रकरण है क्यों कि जो शब्द तीनों लिंगों सातों विभक्तियों और सर्व वचनों में एक समान रहे उसे शब्द की अव्यय संज्ञा होती है और निपात उस को कहते हैं कि जिस का सूत्रोंद्वारा | कुच्छ और रूप सिद्ध होता हो परंत निपात करके उस का वही रूप रखा जाय वही नैपातिक होता है. अब आख्यातिक पद का कहते हैं. जो पद क्रिया का बोधक है उस को आख्यातिक कहते हैं. जैसे कि धावति या क्रिया का पद होने से आख्यातिक है. यह भगन की क्रिया बताता है. इन के धावति, धावतः धावंति अन् पुरुष, धावसि, पाक्थः पावय, मध्य पुरुष; और धावामि, धावावः धावामः यह है। *प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4 + एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चत मूल +8+ सल्विति नागतिकं, धावातीत्याख्यातकं, परित्यौपसर्गिकं मयत इति मिश्र, से तं / पंचनामे // 11 // से किं तं छनामे ? छनामे ! कविहे पण्णत्ते तंजहा-उदहम, उवममिए. स्वइए खउवसमिए, पारिणामिए, संजिवाइए // // से किं तं 125 उत्तम पुरुष के रूप होते हैं. अब औपसगिक पद का विवर्ण करते हैं जैसे प्र. परा, अप. सम्, अनु, अब. निः, निरादुर वि, आऊ, नि. अधि, अवि, अति, मु, उत. आभ, प्रति, परि, उप यह उपसर्ग और नाना प्रकार के यो स प्ररक्त होते है सो परि मादि उपसों में युक्त भो पद कहे गये हैं औपसर्गिक पद हैं. उपसर्ग के संबंध होने में धातुओं के अर्थ का परिवर्तन हो जाता है यथा-आहार,, विहार. निहार. संहार, महार इसादि प्रयोगों में अर्थ का परिवर्तन होता है इस का विशेष खुलासा ग्याकरण से जानना. अब मीश्र पद का कयन कहते-पीश्र उसे कहते हैं, कि जो दो तीन प्रकरणों से मिल कर चन्द बना है जैसे-सम् उपसर्ग है यमु धातु है और इदंत प्रत्यय है. सो तीनों के पीलने से संयत भन्द बन गया है. इस लिये इस को मीश्र नाम कहते हैं. या पांच नाम का स्वरूप, पूर्ण हो गया. मौर इस को पांच नाम करते // 11 // अहो मगवन् ! , नाम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य प्रकार से कोतवा-उदविक,रोपकमिक, क्षायिक, 4 क्षयोपशयिक 5 पारिणामिक गैर सबिपातिक // 1 // o समवन् ! रडविक किसे काय? बो विश्य : उयिक के 4.30+ नाम विषय 48gga For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी उदइए ? उदइए दुविहे पण्णत्ते तंजहां-उदइएय, उदयनिष्फन्नेय सेकि तं उदइए? उदइए ! अट्टहं कम्मपगडीगं उदएणं से तं उदइए // से किं तं उदय निप्फन्ने ? उदयनिष्फणे दुविहे पण्णत्ते तंजहा-जीवोदय निप्फन्नेय, अजीवोदय निप्फन्नेय // से किं तं जीवोदय निष्फन्नेय ? जीवोदय निष्फन्ने अणेगविहे पण्णत्ते तंजहा-नेरइए. तिरिक्खजोणिए. मणुस्से, देवे, पुढवीकाइए जाव तसकाइए कोहक साइए जाव लोहकसाइए, इत्थीवेइए पुरिसवेदए गपुंसगवेदए, कण्हलेस्सए जाव दो भेद- उदयिक और 2 उदय निप्पन्न. अहो भगवन् ! उदय किसे कहते हैं? अहो शिष्या आठ कर्म प्रकृति के उदय को उदय कहते हैं. अहो भगवन् ! उदय निष्पन्न किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! उदय निष्पन्न के दो भेद कहे हैं तद्यथा-जीवोदय निष्पन्न व अभीवोदय निष्पन्न. अहो भगघन् ! जीवोदय निष्पन्न किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! जीवोदय निप्पन के अनेक भेद केहे हैं. तद्यथा-नैरयिक, निर्यच. मनुष्य, देव, पृथ्वी काया. गावा का काया. क्रोध कपाय यावत् लोभ कषाया स्त्री वेद पुरुष वेद, मयुंसक वेद कग लेनी यावर शो , मियादृष्टी, अमेति, असंज्ञी, अज्ञानी. है माहारी, छमस्थ, संयोगी, संसारम्य, असिद्ध और केवली. यह जीवोदय प्पिन हुवा. अहो भगवन् ! * अजीवोदय निष्पन्न किसे कहते हैं ? अजावादये निप्यन्न के चउदछ भेद कई हैं तयथा-1. उदारिक है। काशक राजाबहादुर लालम मुखदेवसहायजी मालाक्सादनी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 125 एकत्रिंश तम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ सुशलेसे, मिन्छ।हिट्ठी, अधिर, असन्नी अण्णाणी,आहारी,छ उमत्ये, सयोगी,संसारत्थे, असिद्धे, अकेवली, से तंजीओवध निन्ने // से किं तं अजीबोत्य निष्फलं ? जीयो य कि नामी लेय स, जरालिय सरीर एसोज परिणाम का अचा सरीर ५उग पारणाभियं 3 वा व्यं, वीर, तेअगसरीरं, करना सरीरंच भाणियव्यं, पाउग परिणाभिए बसंधारो-फासे, हे तं अजीवोदय निष्फन्ने / / से तं उदयनिष्फन्ने / शरीर 2 उदारिक शरीर के भयोग में आकर परिणी सुदल, 2 क्रेय शरीर, 4 क्रेय शरीर में आकर पगमे पुद्गल, 5 आहारकीर, 6 आहारक शरीर में आकर परिणमे पुद्गल, 7 तेजस शरीर 8 तेजस शरीर में आकर परिणमे पदल, 9 कार्मा शरीर 10 कार्माण शरीर में आकर परिणमे पुद्गल 11 वर्ण, 12 गंध, 13 रस और 14 स्पर्श. यह अजीव उत्य निष्पन्न हुवा. यह उदय निष्पन्न / वा. और उदय भाव मा कथन हुया. इस जीवोदय निष्पन्न में ऐसा कहा कि जहां तक चउदहवे गुण स्थान नक जीव है वहां तक कर दय होता है और अजीवोदय निप्पम में मुख्यता शरीर के पुद्गलों की दाती है. कर्म पुद्गलों का विपाक शरीर पर देखा जाता है. यह दय नाम हुवा // 112 / / अहो भगवन ! 403.20 नाम विषय 8882 अर्थ ! / For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सत्र पनि श्री अमोलक ऋषिजी 4.अनुवादकपालमा सतं उदइए नामे // 12 // से किं तं उवसमिऐ ? उवसमिए दुविहे पण्णत तंजहा-उवसमेय, उपतमनिप्फन्नेय / / से किं तं उवसमे? उवसमे मोहणिज कम्मरस उबसमेणं. से तं उसमे // से किं तं खसम निप्फो ? उबसम निष्फने अणेग विहे पण्णत्ते तंजहा-उवसंतकोहे. जाव उवसंत लोहे. उघसंतपेजे, उवसंतदोसे, उवसंत सण मोहणिजं. उवसंत चरित्त मोहणिजं, उवसमिया सम्म लरीए, उपसमिया चरित लहिए, उवसंत कसाए, छउमत्थ. वीतरागो // से तं उवसम निप्फन्नं // से तं उबसमिए नामे // 13 // से किं तं खइए ? खइए दुविहे उपम किसे कहते! महो शिष्य ! उपशम भाव के दो भेद कहे। तद्यथा-उपशम और उपधाम निष्पन. अहो भगवन् ! उपचन किसे कहते हैं ? भो शिष्य ! मोहनीय कर्म का प्रपत्रय होने से पक्षहरे बो भगवन् ! पशय निम्पन किसे कहते हैं ! महा शिष्य ! पशम निष्पन के अनेक भेदको सपया-१ कोध पत्रमावे यावत् 4 लोभ उपभयावे. म उपनमाये. देष E उपधमाये, .दर्शन मोहनीय कर्म उपशमाचे. 8 चारित्र मोहीय उपसावे, 9 उपशम सम्यक्त्व लम्भि सपश्म चारित्र अधि,११७पश्म कपाय, १२वस्थपना और वीतरागपमा.या पशय विषम का कवन बा. या पत्रम नाम दुवा // 5 // अहो मगवन् ! साविक किसे कासे! बो शिष्य!। बा-रामवहादुर सामुखदेवसहावजी ज्वालाप्रसादशी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगदार मूत्र-चसुर्थ पण्णते तंजहा-सइएय, खयनिष्फन्नेय / से किं तं खइए ? खइए अट्टण्हं कम्मर पगडी खएणं से तं खइए // से किं तं खयनिप्फन्ने ? खानिफन्ने अणेगविहे पण्णत्ते तंजहा- उपप्ण णाणदंसणधरे अरहाजणं केवली.-सीण आभिणिबोहिय णाणावरणे, खीण सुयणाणावरणे, खीणउहिणागावरणे, खीण मणपजव णाणावरणे, वीण केवल णाणावरणे, अणावरणे, निरापरणे, खीणावर गो, णाणावरणिज कम्म विप्पमुके 2 केवलदंसा सव्वदंसी, खीणनिहे. वीणनिहानिदे, खीणप्पयले, वीणप्पयलप्पयले, खीणाधीणागडे, खीणचक्खूदंसणावरणे,खीणअचक्खूदसणावरण खीणउहीदंसणावरणे, खीणकेवलसणावरणे, अणावरणे, निरावरणे खीणावरणे सायिक के दो भेद. तद्यथा-सायिक और क्षय निष्पन्न आठों प्रकृतियों का क्षय होचे सो क्षायिक है। और क्षय निष्पन्न के अनेक भेद कहे हैं तद्यथा- उत्पन्न केवल ज्ञान केवळ दर्शन के धारक,इन्द्रादिक के 80 पूज्यनेय, राग देव जीतनेवाले केक्ली भगवान कि जिन को मति ज्ञानवरणीय, श्रुत मानावरणीय.. अाधे शानावरणीय, मनः पर्यव दानावरणीय व केवल ज्ञानावणीय, भय हुचे हैं, जो आवरण रहित 2. निरावरणीय यशानावरनीय कर्म से जो मुक्त हैं और 2 केवल दर्शी, सर्व दी, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाचला, सयनगृद्धि निद्रा, चक्षु दर्शनावरण, अचव दर्शनावरण, अवापि दर्शनावरम, . For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी दसणावरणिज कम्मविप्पमुक्के, 3 खीणसायावेयाणिजे, खीण असायावेयणिजे, अवेयणे निवेयणे, खीणवेयणे, सुभासुभवेयणिज्ज विष्पमुक्के, 4 खीण कोहे जाव खीण लोहे, खोणपेजे, खीणदोसे, खीणदसण मोहणिजे, खीणचरित मोहपिजे, अमोहे 128 णिमोहे खीणमोहे मोहणिज कम्म विडमके, 5 खीणनेरइय आउए. खी निरिकस जोणियाउए, खीमणुम्ला र, रखीणदेवाए. अपाए निराकर खाणाउए आजम्म विरमक. 6 गतिजानि मरीर अंगावन बेधण ठाण मंपण अणेगा कादीबंध संघायविपमुके. रणसुमनाने खीण अनु नाम अमन, निया नामे. सा. सुभणामका विप्पमुक, 7 जन स्वगोड खाणणीयागाए, अगाए किए केवल दर्शनावरण के क्षय करनेवाले भावरण सहित निगरमी व दर्शनार पाकिसे रहित होते हैं.-- साता वेदनीय, असाता वेदनीय के क्षय करनेवाले विनायक करनेवाले होते हैं 4 क्षीमधले टाकले निकाल कर नाले / मोह रहित होगमोहन यादव मेवारे, आयुष्य रहित व आयुष्य के क्षय करनेवाले होते 6 मति जन.शरीर अंगानगरपान, धान, संघयण, संघात से राहेत शुभ नाम व अशुम नान क्षष कानेवाले, नाम कई रहित व शुभाशुभ काम क.क राजाविहारलाल मलदवसााद-उनालाजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 129 एकत्रिंशत्तम्-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुथम खीणगोए, उच्च नीय गोत्तकम्म विप्पमुके. खीणदाणांतराए, खीणलाभांतराए, खीण भोगांतराए, संबधोमलसर, खीणवारिय अंतराए, अणंतराए णिरंतराए, खीण. तराए,अंतराय : निकमुन्नासि हे बुद्धं सुने परिगिए अंतगडे,मका दुक्खप्पहाणे, से तं खयान ... बयनामे / / 111 // से किं तं खउवसनिए ?ख उपसमिए दुविहे पण्णत्ते तं जहा-खउवसभेय, खउवम निष्फन्नेय // से किं तं खडवसमे ? खउवसमे चऽहं घाइकम्माणं खउवसमेणं तंजहा-जाणावरणिजस्स, दसणा चरणिजस्स, मोहणिजस्त, अंतराइयस्स खउयसमेणं, से तं ख उवसमे // से किं कर्म रहित होते हैं, ७उच गोत्र, नीर गोत्र. का क्षय करनेवाले. गोत्र रहित अगोत्रीय व ऊंच नीच गोत्र रहित होते हैं. 8 दाग लानाय भो तिमय. उपभोगतगय व वीतिगय के क्षय करनेवाले सिद्ध, बुद्ध. मुक्त अनान व म. दाब राहत होते हैं. यह क्षायिक के भेद हुवे // 114 // अहो भगवन् ! क्षयोपशमिक किसे कहते हैं ? ओशिष्य ! क्षयोपशमिक के दो भेद को हैं तद्यथा-क्षयो पशम व क्षयोपशम निष्पन्न. इस में से क्षयोपशम ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय व अंतराय का क्षयोपशम से होता है इन चारों पनपातिक कर्प की प्रकृतियों में से जो 2 विपाकोदय में भाई हैं। 23093 नाम विषय अर्थ 824867 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिमा तं खउत्सम निप्फन्ने ? खउवसम निप्फन्ने अनेगविहे पण्णत्ते तंजहा-स्वउवममिया / अभिणियोहिय णाणलबी, जाव खउत्रसमिया मणपजवणाणलवी खउवसमिया मति अण्णाणलद्धी, खउपसमिया सुय अण्णामलद्धी, खउवसमिया विभंगणाणलद्धी ख उवसमिया चक्खदंसणलडी. खउपसमिया अचक्खदंसणलडी, ख उपसमिया ओहीदसणलही, एवं सम्मदंसणलही, मिच्छा दंसणलडी, सम्मामिच्छादसणलही, ख उवसमिया सामाइय चरित्तलही, एवं छेदोवठाणलही, परिहारविसीडलद्धा, सुहमसंपरायचरित्तलही, एवं चरित्ताचरिचलही, खउवसभिया दाणलद्वी, एवं उन का क्षय करे और जो 2 प्रकृतयों प्रदेशोदय में रही है उन का उपशम करे उसे क्षयोपशम भाव।। कहते हैं. यह क्षयोपशम हुवा. अहो भगवन् ! सयोपशम निष्पन्न किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! क्षयोपशम निष्पन्न के अनेक मेद कहे तयथा-१ मनि जान लब्धि, 2 श्रत जान सब्धि, 3 अवधि ज्ञान लन्धि, 4 मनापर्यत्र ज्ञान लब्धि, 5 मति अज्ञान लब्धि. 6 श्रुत अज्ञान लब्धि, 7 विभंग ज्ञान लब्धि, 8 चक्षु दर्शम लब्धि, 9 अचक्षु दर्शन लब्धि, 10 आधि दर्शन लब्धि, 11. सम्यक्त्व दर्शन मलन्धि, 12 मिथ्या दर्शन लन्धि, 13 सप मिथ्या दर्शन लब्धि, 14 सामायिक चारिष लम्धि, 2115 छेदोपस्थापनीय चारित्र लब्धि, 16 परिहार विशद चारित्र लब्धि, 17 सूक्ष्म संपराय चारित्र प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहापजी ज्वालाप्रसादनी अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लाभ-भोग उवभोग-लही, खउमसमिया वीग्यिलद्धी, एवं पंड़िय वीरियलही, वाल पडिय विरीयलद्धी, ख उवसमिया-सोइंदियलही, जाव खउपसमिया फासिंदिय रूद्धी. खउवसमिया आयारधरे, एवं सुयगडधरे, ठाणांगधरे, समवाय, एवं विवाह पण्णत्ती, णायधम्मकहा, उवासगदसा, अंतगडदसा, अणुत्तरोववाइ दसा, पण्हवागर गधरे, खउवसमिआ विवागसुयधरे, खउवसमिए दिट्टीवायधरे. खउवसमिय णवपबीए जाव खउवसमिए चऊदसपवीए.खउवसमिए गणिवायए. से तं खउवसम } निप्फन्ने. से तं खउवसमिए // 115 // से किं तं परिणामिए भावे ? परिणामिए भावे 'लब्धि, 18 दान लब्धि, 19 लाभ लब्धि. 20 भोग लब्धि, 21 उपभोग लब्धि, 22 वीर्य लब्धि, 12 पंडित वीर्य लब्धि. 24 बाल वीर्य लब्धि, 25 बाल पंडित वीर्य लब्धि, 26 श्रोत्रेन्द्रिय लब्धि, यावत् स्पर्शेन्द्रिय - ब्धि, 31 आचारांग सूत्र धारक. 12 सूत्र कृतांग सूत्र धारक, 33 स्थानांग सूत्र . धारक, 35 समवायांग मूत्र धारक, 35 विवाह प्रज्ञप्ति सूत्र धारक, 36 ज्ञाता धर्म कथांग धारक, 3. अंतकृत धारक. 38 अनुत्तरोपपातिक सूत्र धारक, 39 प्रश्न व्याकरण मूत्र धारक, 4. विपाकी 5 सूत्र धारक, " दृष्टिवाद मन्त्र धारक, 4. नव पूर्व ज्ञान के धारक, यावत् नउदह पूर्व के ज्ञान के धारक, और आचार्य पद के धारक. यह क्षयोपशम निप्पम के भेद हुवे // 115 // अहो भगवन् !" एकागारम भयोगद्वार मूत्र-चतुर्थन 48888@g नाम विषय 4884 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4. अनुवादक नाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी. दुविहे पन्नत्ते तंजहा. साइय पारिणामिय, अणादिय पारिणामिय / से किं तं सादि पारिणामिय ! सादि पारिणामिय अणेगविहे पण्णत्तं तंजहा-जुन्नासुरा, जुण्णगुलो, जुण्णंघयं, जुण्णंतंदुला चेव, अझाया. अज्झरुक्खा, संझा, गंधव्यणगगय, उसावाया, दिसा दाहा, गजियं, विज्जु, निग्घाया. जुया, जक्खलिता, धूमिया, महिया, रउग्घाओ, चंदोवरागा, सूरोवरागा, चंदपरिबसा, सूरपरिवेता, पडिचंदा, पडिसूरा इंदधण, उदगमच्छी, कविहमिया, अमोहा, वासा, वासधरा, गामा, गग, धारा, पवत्ता, पाताला, भवणा, निरया, पासाओ, रयणप्पहा, सकरप्पहा, वालुयप्पहा, पारिणामिक भाव किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! परिणकि भाव के दो भेद कहे हैं तद्यथा-सादि पाणामिक व अनादि पारिणामिक. इस में से सादि पारिणामिक किसे कहते हैं? अहो शिष्य: सादि पारिणामिक के अनेक भेद कहे हैं तद्यथा-पुगनी मदिग, पुगमा गड, पुगना घृत. पुराने नंदुल, बद्दल, वृक्षाकार बदल, संध्या रंग, गर्व नगर. उल्कापात, दिशादाह. गरव, विद्यत् , काष्ट का इब्द, घून, यक्ष चिन्ह. धूम्र, धुंधर, रजघात, चंद्र ग्रहण. मूर्य ग्रहण, चंद्र कुंडल सूर्य कुंडल प्रतिचंद्र, प्रतिसूर्य, जे इन्द्र धनुष्य, उदक मत्स्य, आकाश में कपि का सना अमोघ भरतादि क्षेत्र, क्षेत्र की मर्यादा करनेबाला वर्षधर पर्वत, ग्राम, नगर, घर, पर्वत, पातालकलश, भवन, नरकावास, प्रासाद, रत्नप्रभा, शर्करा प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी चालमिसादमी, For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1.9% एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल पंकप्पहा, धूमपहा, तमा, तमतमा, सोहम्मे जाव अचुए, गेवजे, अणुत्तरे, इसि, प्पभाग, परमाणुपोग्गले. दुपदसिए जाव अणतपदेसिए से तं सादि पारिणामिए // से किं तं आणादि परिणामिर ? अणादि पारिगामिए अणेगरिहे पणते तंजहाधम्मरिथकाए, अधम्मत्यिकाए, आमासस्थिकाए. जीवत्यिकाए, पोग्गलस्थिकाए, अड समए, लोए, अलोए, भवसिद्धियाए, अभयसिद्धियाए, से तं अणादि पारिणामिए // से तं पारिणामिए // 16 // से किं तं सन्निवाइ नामे ? सन्निवाइए नामे जण्णं एतेसिं चेव उदइए उक्सभिए, खईए. खउवसभिए, पारिणामियाणं भावाणं प्रभा, बालुसमा, पंक प्रभा, धून प्रभा तम प्रभा तपतपप्रभा, मोधर्म देवलोक यावत् अच्यत देवलोक. ग्रेवयक, अनुत्तर विमान, इपत्पागभार पृथ्वी, परमाणु पुद्गल, द्विप्रदेशिक स्कंध यावत् अनंत प्रदेशिक . यह सादि परिणापिक, अही भगवन ! अमादि परिणामक किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! अनादि परिणमिक के अनेक भेद कहे हैं तद्यथा-१ धरितकाया, 2 अधर्मास्ति काया, 3 आग. शास्ति काया, अद्धा समय, लोव, अलोक, भव्यासद्धि जीव, अभयसिद्रिक जीव यह अनादि परिणापिक हवा, यह परिणामिक भाव का कथन हवा // 16 // अहो भगवन् ! सनिपानिक भाब किसे कहते हैं? अहो शिष्य / समिपातिक भाव में उदार्थक, औपशमिक, क्षायिक, क्षयोपशमिक. इन 80-नाम विषय-30.488 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुगसंजोगणं तिगसंजोगेणं चउकांजोगेणं पंचगसंजोगेणं निप्पजइ सब्वे से सन्नि. वाइए नामे // तत्थणं दस दुग संजोगा, दस तियसंजोगा, पंच चउकसंजोगा, एग पंच संजोएणं // तत्थणं जेते दस दुगसंयोगा तेणं इमे-१ अस्थिनामे उदईए उवसमनिप्फन्ने, 2 अलिनामे उदए खयनिष्फन्ने, 3 अत्थिनाने उदइए खउबसमनिष्फन्न, 4 अत्थिनामे उदईए परिणामिय निष्फन्ने, 5 अत्थिनाने उवसमिए खयानि फन्ने, 6 अत्थिनामे उवसमिए खउचसम निप्फने, 7 अत्थिनामे उन्नमिए पारिणामिय निष्फन्ने, 8 अत्थिनामे खइ. खबम निकने, 9 अत्थिनामे खईए पांचों भाव के हिसंयोगी, तीन संयोगी. चार भोगी व पांव संयोगी. योजने होने हैं. इस में से द्विसंयोगी 10 भांगे. तीन संयोगी... मांगे चार संयोगी 2 मांगे और पारसंगी एक भांगा यों 15. मांगे होते हैं. इस में ये 9 वा भा। सिद्ध में, 15 वा केवली में 16 वा चारों गति में #23 वा उपश्रय श्रेणि में. 24 सपा श्रेणी में. 26 वा छयस्त साध में. यों 6 भांगे पाले हैं. बाकी के 20 भांगे शून्य हैं. बर द्वयोगी दर भागे निम्नक्ति प्रकार से बताते हैं उदय उपशम, 2 उदय क्षायाः उदप क्षयोपशम, 4 उदय पारिणामिक. 5 उपशम क्षापिक, 6, 1 उपशम भयोपशामिक, 7 उपक्रम पारिणाविक, 8 सायिक क्षयोपशमिक, ९सायिक पारिणाभिक और बुवादबासमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी. १५काशक रामावहादुर लाला सुखदेवसहायजी आलापसाद For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4 परिणामिय निष्फन्ने, 1* अत्यिमामे खउबसमिए पारिणामिय निष्फन्ने // 17 // m कयरे से जामे उदहा उत्सम निप्फन्ने ? उदइए तिमणुस्से उवसंता कसाया एसणं से नामे उर या निष्फन्ने 2 कयरे से नामे उदईए खइय निष्फने ? उदइत्ति मणुस्ने खइयं सम्मतं, एसणं से नामे उदईए खयनिष्फन्ने, 3 कयरे से नामे उदइए खउसम निप्फन्ने ? उदइए तिमणुस्से खउवसमियाई, इंदियाई, एसणंसे नामे उदइए, खउवसम निप्फन्ने 4 कयरे से णामे अर्थ 1. क्षयोपशम पारिणामिक. // 17 // अब इन दशों का विवेचन करते हैं. अहो भगवन् ! जो उदयिक व उपशम निष्पन है वह कौनसा नाम है ? अहो शिष्य ! उदर भाव में मनुष्य मति और उपशप भान उपांत स्पाय है. इमलिये यही नाम औदाय: उपशम निष्पन कहा जाता है.5 TE परंतु यह भंग दिन दर्शन मात्र ही है क्यों कि दशेर मोहनीय कर्म की प्रकृति उपशम भाव में संभव ? हो सकती है परंतु पारिणामिक भाव इस में नहीं है इसलिये यह भंग केवल दिग दर्शन मात्र ही 13 इस प्रकार आगे भी जानना. प्रश्न-औदयिक और क्षायिक निष्पन्न नाम कौनसा है ? उत्तर मौदयिक भाव में मनुष्य गति है और क्षायिक निष्पन्न सम्यक्त्व है इसलिये इन से उत्पन्न हुए बौदायिक अनुयोगदार सूत्र-चतुर्थ मूल 48+ 418+ नाम विषय For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिधी उदईए, परिणामिय निप्फन्ने ? उदइए तिमणुस्मे, परिणामिए जीधे, एसणं से नामे उदइए परिणाभिय निःफन्ने 5 कयरेसे नामे उपसमिए खयनिष्फ ? उवसंताकसाया खड्यं सम्म,एसणं सेनामे उवसमिए खयनिष्फळे,६कयरे सेगामे उवसमिए खउवसम निप्फन्ने ? उवसंता कसाया, खउक्समियाइं इंदियाई, एस सेनामे उवसमिए, खउवसमनिप्फन्ने, 7 कयरे से नाभे उपसमिए, पारिणामिए निप्फने ? उवसंता कसाया, पारिणामिए जीवे, एसणं से नामे उबसमिए, पारिणामिय निष्फन्ने, . सायिक निष्पम नाम होता है. प्रश्न-ौदयिक क्षयोपशम निष्पन्न नाम कौनसा है ? उत्तर-औदायिक नाम में मनुष्य गाते है और क्षयोपशम भाव ये इन्द्रिय है. सो यही औदयिक क्षयोपशामिक नाम हवा. प्रश्र-मौदयिक पारिणामिक निष्पन्न नाम कौनसा है ? उत्तर-औदयिक भाव में मनुष्य गनि और पारिणामिक में जीव है. इसलिये औदीयक और परिणाविक निष्पन्न नाय कहा गया है. प्रश्नऔंदविक सय मिष्पन्न नाप कौनसा है ? उत्तर--उपशम कपाय है और क्षायिक सम्यक्त्व है इन्ही का नाम औपशमिक क्षय निष्पन्न है. प्रश्न-भोपशमिक भयोपशम निप्पस नाम कौनसा है ? उत्तरउपशम कपाय और क्षयोपशप इन्द्रिय इन्ही का नाम औपशामिक क्षयोपशम निष्पन्न है, मन-औप प्रशास-राजावहादुर व्य मुखदवसहायजीपालामसादजी. 1 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकत्रिंशत्तम-अतुयोगद्वार मुत्र-चतुर्थ पूल 4882 कयरे से नामे खइए, खउवसमनिष्फन्ने ? खईयं सम्मत्तं, खउपसमियाइं इंदियाई, एस से नाले खईए, खउलानि तन्ने. 9 कयरे से नामे खईए, पारिणा मिय निप्फने ? खइयं सम्मत, पारिणामिए जोवे, एसणं से नामे खइए परिणामिए निप्फन्ने, 10 कयरे से नामे खओक्सए, परिणामिय निप्फन्ने ? सउपसमिय इं इंदियाई, पारिणामिए जीवे, एसणं से नामे खउवसभिए, पारणानिय निष्फन्ने // 118 // तत्थणं जेले दस लिग संजोगा तेणं इमे-१ अस्थि ना उदइए स्वतनिए शमिक पारिणामिक नाय कौनसा है ? उत्तर-पतन कपाय और परिणामिक जीव है. इसलिये औपशमिक पारिणामिक रखा गया है. प्रश्न-ज्ञायिक क्षयोपशम निप्पन नाम कोनसा है ? उत्तर-क्षायिक सम्यक्त्व और क्षयोपशम इन्द्रिय है. इसरिये क्षायिक क्षयोपशमिक निष्पन्न नाम का गया है. प्रश्न क्षायिक पारि-नामिक निष्पन्न नाम कौनसा हैं : उत्तर-क्षायिक सम्यक्त्तव शरिणामक जीव है. इ.लि. *क्षायिक पारिणामिक निष्पन्न नाम कहा गया है. प्रश्न-योपशमिक पारिणारिक निष्पन्न नाय कौनसा 9. है ? उत्तर-क्षयोपश पिक इन्द्रिय और पारिणामिक जीव है, इनलिय क्षयोपामिक पारिणामिक नाम / कहा गया है. यह द्विसंयोगी दश भांगे का कथन हुवा. // 118 // अब दश तीन संयोगी भांमे का For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 138 * अनुवादकबालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी खनिष्फन्ने, 2 अत्थि नामे उदइए उपसमिए खउवसमनिप्फन्ने, 3 अस्थि नामे उदइए उनसमिए पारिणामिय निष्फने. 4 अस्थि नामे उदइए खइए खउवसमा निप्फन्ने, 5 अस्थिमामे उदइए खइए पारिणामिय निप्फन्ने, 6 अस्थि नामे उदइए खउवसमिए, पारिणामिय निष्फन्ने, 7 अत्थि नामे उबसभिए स्वइए, खउसमः निप्फन्ने, 8 अस्थि नामे उवसमिए खइए पारिणामिय निष्फन्ने, 1 स्पिनाम उपसमिए खउवसमिए पारिणामिए निष्फन्ने, 1 * अत्थिनामे खइए खओवसंमिए पारि. णामिए निष्फन्न // 119 // कयरे से नामे उदइए उबसमिए खयनिप्पान्ने? उदइएत्ति कथन करते हैं. / औदयिक औपयिक व अय निष्पन्न, 2 औदक्षिक औपशमिक व सोपत्रम निष्पन्न, 3 औदयिक औपशमिक व पारिणामिक निष्पन्न, औयिक क्षयिक वयोपशम निष्पन्न 5 औदयिक क्षायिक व पारिणपिक निष्पमा 6 औदयिक क्षयोपशमिक व पास्मिाभिक निष्पन्न 7 औपशमिक, क्षायिक व अयोपशम निष्पन्न. 8 औपशामिक क्षायिक व पारिणामिक निष्पन्न. 9 औषकशमिक क्षयोपशमिक व पारिणामिक निष्पन्न और 1. क्षायिक क्षयोपशमिक व पारिणामिक निष्पन्न * // 119 // अथ दश भांगे का खुलासा करते हैं. प्रश्न-औदयिक, औपशमिक व क्षयनिष्पन्न नास प्रकाशक राजावहादुर लामा मुम्बदवसहायजा वालासादनी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 46 139 शम-अनुयोगद्वार सूत्र-चर्तुथ मूल 488 मणुस्से,उवसंता कसाया रूइयं सम्मत्तं एसणं से नामे उपइए उपसमिए खयनिप्फन्ने. 2 कयरे से नामे उदइए उपसमिए व उवसम निष्फने ? उदइएंति मणुस्से, उबसंता कसाया, खउवममियाई इंत्रियाई, एणं से नामे उपइए उवसमिए खउवसम निष्फले. 3 कयरे से नामे उदईए उवसमिए परिणामिय निष्फन्ने ? उदइए त्तिमणुरसे. उवसंता कसाया, परिणामिए जीने, एसणं से नामे उदइए उक्समिए पारिणामिय निप्फले 4 कयरे से नामे उदइए खइए खउपसमिय मिप्फम? उदइए तिमणुस्से, खइयं सम्मत्तं, खउक्समियाइं इंदियाई, एसणं से नामे कैसे होता है ? उत्तर-उदय में मनुष्य गति, उपशांत कषाय और सायिक सम्यक्त्व इसी से औदयिक औपशनिक वय निष्पन्न नाम कहा गया है. 2 प्रश्न-औदायक औपत्रमिक व क्षयोपशम निष्पन्न नाम से कहा है ? उत्तर-उदय में मनुष्य गति, उपरांत कषाय और श्योपसमिक इन्द्रिय हैं. इस में दायर औपशमिक व भोपशमिक नाम रखा गया है, 3 औदयिक भौषशमिक व पारिणाथिक पन्न नाम किसे कहते हैं ? उत्तर-उदय में मनुष्य गति, उपशांत कषाय और परिणाम में जीव है इसलिये औदयिक औपशमिक पारिणामिक नाम रखा गया है. 4 प्रश्न-औदयिक क्षायिक व क्षयोपशम निप्पन कैसे कहा गया है? उत्तर-उदय मनुष्य गति क्षायिक सम्यक्त्व व क्षयोशम इद्रिय है। नाम विषय अर्थ . . प For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादकचालनमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी / उदईए खईए खउवसम निप्फन्ने, 5 कयरे से नामे उदईए खइए पारिणामिय निप्फत्ते ? उदईएत्ति मणुम्पे. खइयं सम्म, पारिणामिए जीवे, एसणं से नामे उदईए खईए पारिणा. मिय निफनो 6 कयरे से नामे उदईए, खउवसमिए परिणामिय निष्फत्ते ? उदइएनि मणरसे, खउवसमियाइं इंदियाई, पारिणानिए जीवे एस 'म नाने उताए, खउवसलिए परिणामिय निप्पन्न, 7 कयरे से नामे उस मिर खडए खउवमम निप्फन्ने उरसंला कसाया, खइयं सम्मत्त खउव म समियाइं इंदियाई एसणं सेनामे उवसमिए खइए खउवत्तम निप्फन्ने. 8 क.यरे सेनाने इन का नाय औ दिन लागि, म क्षयोपशमिक रचा गया है, 5 प्रश्न-ओदयिक क्षायिक व परिणामिक निष्पन्न नाम कैस होता है? उनर-दर मनुष्य गति, सायिक सम्यक्त्व और पारिकि जीव है. E इस रिय औदविक क्षायिक व पारिणामिक निष्पन नाम कहा गया है. 5 प्रश्न-भादायक योपासक पारिणापिक निष्पन्न नाम कौन है? जा-उदय गाय गो, क्षयंपनर इन्दिर और परि. जामिक जीव है; इम लिये उदय भयोपश। पारिवाधिक निष्पा नाम कहा गया है. शपिक क्षायिक क्षयोपशमनियन नाम कैसे कहा? उत्ता-उपशांत कषाय,शायिक सम्यक्त्व और क्षयोपशम इन्द्रिय है, इस लिये औपशमिक क्षायिक क्षयोपशम निष्पन नाम कहा है. 8 प्रश्न-औपशमिक क्षायिक व पारि प्रकाशक-रानाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालामादमी" For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपसमिए खईए पारिणामिय निःफन्ने ?उवसंता कसाता नईए सम्मत्तं पारिणामिए जीवे, एसणं से न मे उबसामिड,दई। परिणामिय निःफन्ने, ९क्यरे से नामे उवसमिए खउवसमिर पारिभिर लिएपन्ने ? उसंता कसाया, खउक्समियाइं इंदियाई, परिणामिए जीवे. स स नाम उनलमिए खज्यसमिए पारिणामिय निप्फन्ने, 1. कयो से न मे खई खवरमिए पारिणामिय निष्फन्ने ? खइयं सम्मत, खउ. वसमियाइं इंदियाई, पारिमामिए जीवे. एसण से नामे खईए खउवसम पारिणानिय निष्फन्ने // 120 // तत्थणं जे ते पंच चउक संजोगा गामिक निष्पत्र नाम किस करते हैं ? उत्तर--उपशान कफाय. सावित सम्यक्त और पारिणामिक जीव हैं, इसशिक्षि णायिक निधान्न नाम कहा. 9 एस-ऑपशमिक क्षयोपशमिक र पारिवापिकनिक नाम हत है ? उE-उपशांत पाय, पशग इन्द्रिय व पारि णायिक जीव है.इसलिये औपशाकक्षयोपशम पारेणामिक निष्पन्न नाम र हागया है. प्रश-क्षायिकक्षयोशje मिक पारिणामिक निप्पन नापकिसे कहते ? उत्तर-क्षाधिक सम्यक्त्वायोपशम इन्द्रिय सन्धि, पारिणामिक जीव हैं, इस से शायिक क्षयोपशमिक व पारिणामिक निप्पन नाम कहा गया है / / 120 // अब चार एकशिरूम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल 498269 नाम का विषय અર્ધ - - For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + तेणं इमे, अस्थि नामे उदईए. उवसमिए खईए, खउवसमिए निष्फन्ने, २अस्थिनामे उदइए, उवमभिए, खईए, पारिणामिय निप्फन्ने. 3 अस्थि नामे उदईए उवसमिए खउवसभिए पार निःफन्ने. अस्थि णामे उदईए खइए खउवसनिए पारिणामिय निप्फन्ने, 5 अस्थि नामे उपसमिए खईए खउवसमिए पारिगामिय निष्फन्ने।। 121 // 1 कयरे से नामे उदईए उवसमिए खईए ख उवसम निप्फन्ने ? उदइएत्ति मणुस्से, उवसंता कसाया, खइयं सम्मतं, खउवसभियाइं इंदियाई, एसणं से नामे उदईए उपसमिए खईए खउवसमनिप्फन्ने. 2 कयरे नामे से उर्दईए उवसमिए खईए संयोगी पांच भांगे बताते हैं- भौदयिक औषमिक क्षायिक व क्षयोपशमिक, 2 औदयिक औपशपिक क्षायिक व पारिणामिक, 3 औदायक भोपशामिक क्षयोपशमिक व पारिणामिक. 4 औदयिक क्षायिक क्षयोपशमिक व पारिणामिक निष्पन्न. यों पांच भांगे हुवे / / 121 // प्रश्न-औदयिक औपशपिक क्षायिक व क्षयोपशमिक नाय निप्पन कैने कहा ? उत्तर-उदय में मनुष्य मति. सपत नाय, क्षाायक सम्यक्त्व व क्षयोपशप इन्द्रिय लब्धि है इस से औदायिक औपशमिक क्षायिक व योपनष्पन्न न.म कहा. 2 प्रश्न-ौदपिक भोपथमिक क्षायिक र पारिवामिक निष्पना नाम कैसे कहा ? उत्तर-उदय प्रकाश राजाबहादुर साना सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. अर्थ न अनवादक बाल ब्रा में For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पारिणामिए निष्फन्ने ? उदईएत्ति मणुस्से, उवसंता कसाया, खइयं सम्मसं. पारिणामिए जीवे. एसणं से पामे उदई" खउपसमिए,खईए पारिगामिय निप्फन्ने ३कयो से मामे उदईए उबसमिए खउक्समिए पारिणामिय निप्फन्ने? उदइएत्ति मणुस्ते. उवसंता कसाया खउवसमियाई इंदियाई, पारिणामिए जीवे, एसणं से नामेउदई९ उवसमिए खउपसमिए पारिणामिया निष्फन्ने. 4 कयरे सेनामे उदइए खईए खउपसमिए पारिणामिय निप्फन्ने ? उदइएत्ति मणुस्से, खइयं सम्मत्तं, खउवसामयाई इंदियाई, परिणामिए अर्थ : जीवे एसणं से नामे उदईए खईए खउवसमिए पारिणामिय निष्फन्ने 5 कयरे से मनुष्य गति, उपशांत कपाय, क्षायिक सम्यक्त्व व पारिणा मिक जीव है इस लिये आदयिक भौमिक सायिक व पारिणामिक नाम कहा है. 3 प्रश्न-औदयिक औपशमिक क्षयोपशमिक व परिणामिक नाम PE कैसे कहा ? उत्तर- उदय में मनुष्य गति, उपशांत कपा. क्षयोपशप में इन्द्रिय लब्धि और पारिणामिक भीव हैं. इस लिप औदयिक औपमिक क्षयोपशम : य प रणामित निष्पन्न नाम है. 4 प्रश्न-औद यिक क्षायिक क्षयोपश्यमिक व पारिणामिक नाम कैसे कहा ? उत्तर-औदायिक में मनुष्य गनि. धायिक सम्यक्त्व, योपशम इन्द्रिय लब्धि और पारिभामिक जीव है. इस लिये औदायक औपशमिक क्षायिक एकात्रंशत्तम अनुयोगद्वार मूत्र चतुर्थ मूल स For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक बाउबमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषजी नामे उवसमिए खईए खउवसमै पारिणामिय निम्फन्ने ? उवसंता कसाया, खइयं सम्मत्तं स्वउत्समियाई इंदियाइं, पारिणामिए जी सगं से नामे उवसमिए खईए खउक्समिए पारिणः मिय निप्फन्ने // 126 // तर, जे ले से एगे पंच संजोगं सेणं इमे-, अस्थिणामे उदईर उवसभिए खईए ख समाहिए पारि मिय निष्फन्ने // कयरे से नामे उदईए उवसमिए खईए खउपसमिर पारिणामिर निःपन्ने ? उदइएत्ति मणुस्से, उपसंता कसाया लइयं सम्मत्तं, स्वउवसमियाई इंदिवाई; पारिणामिए जीवे, एसणं से नामे उदई ए, उपसमिए खईए खउवसमिए पारिणामिर पारिणामिक निष्पर नाम कहा गया है. 5 प्रश्न-औपशषिक क्षायिक, क्षयोपशेमिक परिणामिक निष्पन्न नाम कैसे कहा ? उत्तर-उपशांत कषाय, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षयोपशम इन्द्रिय की लब्धि व परिणामिक जीव है इस लिये श्रीपश्रमिक क्षायिक क्षयोपशमिक व पारिणामिक नाम कहा // 122 // अब पांच सयोगी भांगा एक बताते हैं-औदषिक औपशामक क्षायिक क्षयोपशमिक व पारणामिक निष्पन है. प्रश्न-ऐसा नाम क्यों कहा ? उचर-उदय में मनुष्य गति, उपशांत कषाय, क्षाषिक सम्ब-1 व. अयोपशम इन्द्रिय सन्धि और पारिणामिक जीव है. इस लिये औदयिक औपशमिक क्षायिक क्षयो-161 प्रकाशक-रानावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4 < Exएकत्रिंशतम-अनुपोमदार सूत्र-चतुर्थ मूल निफप्ने, मे तं सन्निवाइए // से तंछ नामे // 123 // से कि तं सत्स नामे ? सत्त नामे सत्त सरा पणत्ता तंजहा-१ (गाहा) सज्ने, 2 रिसहे, 3 गंधारे, 4 मज्झिमे. 5 पंचमे सरे // 6 धेवए चेष 7 निसाए सरा सत्त वियाहिया // 1 // एएसिणं सत्तण्हं सराणं सस सरठाणा पाणना तंत्रहा-( गाहा ) सज्जंच अग्ग। जीहाए, उरेण रिसहं सरं // कंठोग्गएणं गंधारं, मज्झ जीहाए मज्झिमं // 2 // नासाए पंचमंबूया,दंतोटेणे य धेवत।भमुहखेवमणसाए, सरष्टाणा वियाहियाइ॥ 3 // प.मिक व पारिणामिक निष्पन्न नाम कहा. यह समिपातिक भाव कहा. यह नाम का कमन हुवा. // 123 / सात नाम का कवन कहते हैं-अहो भगवन् ! सप्त नाम कितने प्रकार से वर्णन किया गया मे है? अहो शिष्य : सात नाम के अंतर्मत सात स्वरों का वर्णन किया गया है जिन के नाम-१ षड्न E स्वर, 2 रिषभ स्वर, 3 गांधार स्वर, 4 मध्वम स्वर, . पंचम स्वर, 6 धेरत स्वर, और 7 निषाद स्वर. अब इन सातों स्वरों के उत्पत्ति स्थानक बताते हैं. 1 पहज स्वर जिना के अग्रभाग से बोला, जाता है, 2 रिषभ स्वर का स्थान हृदय है, ३गांधार स्वर कंगन से निकलता है, ४मध्यम स्तर जिव्हा के 2 मध्य भाग से घोलाना है, 5 नासिका से पंचम स्वर बोला जाता है, ६दांवके नोग से धैवत स्वर निकलता है और 7 निषाद स्वर ने की भ्रकुटी के भाक्षेप से बोला मावा है. // 1-3 // 3 नाम विषय + + A For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ 4.1 अनुपादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी सत्तसरा जीव णिस्सिया पण्णत्ता तंजहा-( गाहा ) सज्जं रवइमउरो, कुक्कुडोरिसभं सरं // हंसो रवइ गंधारं, मझिमं च गवेलगा // 4 // अह कुसुम संभवे काले, कोइला पंचमं सरं / / छद्रंच सारसाकंचा. नेसायं सत्तमंगउ // 5 // सत्तसरा अजीव निस्सिया पण्णत्ता तंजहा-( गाहा ) सज्जरवइ मुयंगो, गोमुही रिसभं सरं // संखो रवइ गंधारं, मज्झमं गुण झल्लरी // 6 // चउचरण पतिढाणा, गोहिया पंचमसरं // स्वर जीव निस्सृत प्रतिपादन किये गये हैं जिन के द्वारा स्वर ज्ञान की शीघ्र ही प्राप्ति होजाती है.. सो निम्न लिखितानुसार है. १मयूर षड्न स्वर का उच्चारण करता है.२कुकडा (मुर्गा) का ऋषभ स्वर होता है. 3 हंसगांधार स्वर में बोलता है, 4 गौ एलक आदि पशु मध्यम स्वर में बोलते हैं 5 व ऋतु में कोयभ पंचम स्वर में बोलती है, 6 सारस और क्रोंच पक्षी घेवन स्वर में उच्चारण करते हैं. और 7 सप्तय स्वर निषाद में इस्ती उच्चारण करता है. यह सात ही स्वर जीव निधाय से वर्णन किये गये. // 4-5 // अब अजीव निश्राय से जो है सो कहते हैं. 1 मदंग षड्न स्वर में बजता है, 2a मोमुखी-रामवादित्र रिषभ में बोलता है. 3 शंख गांधार स्वर में बोलता है, मध्यम स्वर झालरछैणों का होता है, चार मांव वाली भूमि पर प्रतिष्ठित गोधिका मे से पंचम स्वर नीकलता है. ढोल नामक वादिंघ धैवत स्वर में उच्चारण करता है और ७महा भेरी नामक वादिन सप्तम निषाद प्रकाशक-राजवहादुर छाला मुखदेस्सहावजी ज्वालामसादनी * For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आडंबरोयरेवइयं, महा भेरीय सत्तमं // 7 // एते सिणं ससहं सराणं, सत्तसर लक्खणा पणत्ता तंजहा-(गाहा)सजेण लहइवितं, कयंचण विणस्सहागावो पुत्ताय मित्ताय // णारीणं होइ वल्लहो // 8 // रिसहेणओ एसज्जं सेणावच्चं धणाणिय वथ गंध मलंकारं, इत्थीओ सयणाणिय // 9 // गंधारे गिइ जुत्तिन्ना, विजवित्ति 348488 अर्थ एकशिचम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्व मूल 288+ उच्चारण करता है. यह सर्व एक अंश को ले कर इन के उदाहरण दिये गये हैं. // 6-7 // इनमें सात स्वर के सात लक्षण कहे हैं. जैसे जिस व्यक्ति का षड्ज स्वर होता है उस की आजीवि का ठीक होती है उसके द्वारा उसे धन की प्राप्ति होती है, उस का किया हुवा कार्य सब को माननीय होना है, गौ आदि पुत्र वा मित्र उस के बहुत होते हैं. नारी जनों को वह भी बहुत वालम होता है, सो इन के द्वारा प्रथम षड्ज स्वर की लक्ष्यता होती है. // 8 // रिषभ स्वर के महान्य से ऐश्वर्व भाव सेनापति और धन का अतीव संग्रह व मुगंध अलंकार स्त्रियें पर्यकादि सर्व प्रकार से प्राप्त होता हैं. और इन लक्षणों से निश्चय होता है कि इस व्यक्ति का रिषभ स्वर है. // 9 // गांभर स्वर वाला गीतों के ज्ञान का गीतज्ञ होता है और जिस की संसार में प्रधान आजीविका होती है, पनः कामो में प्रवीण होता है. इस स्वर को जानने वाले बुद्धिवान कवि होते है और अन्य दादी शास्त्र के नाम विषय +8898 88 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्र ब्रह्मचारी मुान श्री अमोलक ऋषिजी + कलादिया / ति करणापाणा. से अन्ने सत्थ पारगा // 10 // मझिमस्स रमंताओ, हयंति सुह जीविणो खायति पियति देती, मझिमस्सर मस्सिओ॥ 11 // पंचम सरमसाओ, हवंती पुहवीपती // सूरो संगह कंतारो, अणेग गणणायगो // 12 // धेवयस्सरमताओ, हवंति दुहजीविणी // कुवेलाय कुवित्तिय, चोराचंडाल मुट्ठिया // 13 // णेसाहस्सर मंताओ, होति हिंसगावश // जंघाचारा जेहवाहा, पारगामी होने हैं. // 10 // मध्यम स्वर बाले जीव मुख पूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं, उम के खान पान करमे में वा देने में किसी प्रकार से विध्न उपस्थित नहीं होते हैं परंतु पदार्थो के विशेष संग्रा करने में वे असमर्थ होते हैं. इसी से वे मध्यम स्वर आश्रित कहे जाते हैं. // 11 // पंचम स्वर पाले जीव भूमि के भधिपति होते हैं, समर में शूरवीर भी होते हैं, अनेक प्रकार के पदार्थो के भी संग्रह करने वाले होते हैं, और अनेक तर के नाम होते हैं. यह पंचम स्वर के लक्षण करे हैं. // 12 // धैवत स्वर वाले जीव दुःख पूर्वक जीवन व्यतीत करने वाले होते हैं पुनः जिन के कवस्त्र व दुष्ट भाजीवि का होती है, इस स्वर के धारन करने वाले जीवी चौर्य कर्म, चांडालादि कर्म, काष्टिकादि प्रहार करने वाले होते हैं इसलिय यह स्वर निषिद्ध होता है तथा इस स्वर वाला जीव पाप कर्म विशेष करता है. // 13 // निषाद स्वर वाले जीव हिंसक व अतीव भ्रमण करने वाले होते हैं तथा जयाभों के दम *यशकराजशहादुर लालामुखदेवसझवनी-ज्वालाप्रसादजी. . For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Be एकात्र इत्तम्-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुथा हिंडगा भार वाहगा // 14 // एतेसिंण सत्तण्हसराणं तओगामा पसा तंजहासजगामे, मज्झिमगाभे, गंधारगामे, // सज्जगामस्सणं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ तंजः-( गाहा ) मंगी, कोरवी, आहरिया, रयणी, सारकताय / छट्ठी अ सारसी नाम, सुद्धसज्जाय सत्तमा // 15 // मझिम गामरसणं सत्तमुच्छणाओ पण्णत्ताओ तंजहा-( गाहा ) उत्तर मंदा, रयणि, उत्तरा उत्तरासमा, // सम्मोकंताय सोवीरा अभिरुवा होति सत्रामा // 16 // गंधार गामस्सणं सत्तमुच्छणाओ पण्णताओ करने वाले, लेख वाहक और भार वाहक भी होते हैं अर्थात् जो शूद्र क्रिया है उन के कर्ता निषाद स्वर वाले ही होते हैं अब इन सात स्वरों के तीन ग्राम व सात मूर्छना के विषय में कहते हैं. // 14 // इन सात स्वर के तीन ग्राम प्रतिपादन किये हैं 1 षड्ज ग्राम 3 मध्यम ग्राम और 3 गांधार ग्राम.4 इन में षड्ज ग्राम की सात पूर्डनाए कही गई है. 1 भांगी, 2 कोरवी. 3 हरिता, 4 रत्ना, 5 सारकता, सारसी और 7 शुद्ध पडन नामक सप्तमी मूछना है. // 15 || मध्यम ग्राम की भी सात मूर्छना ये प्रतिपादन की गई है जिनके नाम-१ उत्तरामंदा, 2 रत्ना, 3 उत्तरा, 4 उत्तर सभा, 5 समकांता., 6 सुवीरा, और 7 अभिरूपा. // 16 गांधार ग्राम की मी सात मूछना ये प्रतिपादन की गई है से अर्थ नाम विषय 480438 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तंजहा-( गाहा )-नंदाय, क्खूडिमा, परिमाय चउत्थी सुद्ध गंधारा // उत्तर गंधाराविय, सायंचमिया हवइमुच्छ। // 17 // सुट्टत्तर मायामी, सा छट्ठी सव्वओ णायध्वा / / अहउत्तरायया कोडिमाय सा सत्तमा हवइ मुच्छा // 18 // सत्ससरा कओ भवती ? गीयरस का भवंति जोणी? कति समया ओसासा, कइवा गेयस्स आगारा // 19 // सत्तसरा णाभीओ भवंती, गीयंचरुन्न जोणि, पाद समा ओसासा,तिन्नि गीयरस आगारा॥२०॥आइ मिउ आरंभंता, समुबहताय मज्झयारंमि।। अवसाणं अववत्ता, तिष्णि गेयस्स आगारा॥२१॥छद्दोसे अट्ठगुणे, तिष्णि अ विस्ताइ अर्थ जमघुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी ध्वालापप्तादजी * न कि नंदिका, 2 शुद्रिका, 3 पुरीमा, 4 शुद्ध गांधार, 5 उत्तर गांधार, 6 सुष्टतर मायाम और . उतरा कोटिपा. या सप्तमी मछना है. // 18 // अब सात स्वरों के विशेष प्रश्नोत्तर करते हैं. साबों स्वर किस स्थान में उत्पन्न होते हैं ? गीत की कौनसी योनि होती हैं, कितने समय प्रमाण स्वर में उच्छवास होता है, और गीतों के कितने आकार हैं? // 19 // अब इन के उत्तर देते हैं. सातों स्वर नाभि से उत्पन्न होते हैं. गीतों की रुदित योनि है, गीतों के पद पद में उच्छवास हैं. और गीतों के तीन आकार कहे हैं. // 20 // गीन की आदि में आरंभ करते कौमक स्वर चाहिये, फीर में च में महा ध्वनि चाहिये और गीत अंत के में मंद स्वर होवे. इसलिय यह तीन आकार कहे हैं ॐ // 21 // नो रंग भूमि नाटय भूमि में मुशिक्षित बनकर गाता है वही स्वर के छ दोष, आठ गुन * // 19 // अब" गातों की समि के तीन का For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ 2010 एजोत्रिश-प-अनयोगद्वार मूत्र चतुर्थ मूल दोणि भणितिउ // जो जाणाही सोगाहीत्ति सुसिक्खिओ रंग मम्झंमि // 22 // भीयं, दुयं, मपिच्छं, उत्तालं व कमसो मुणेयध्वं // कागस्सरं मणुणासं, छद्दोसा होति गीयस्स // 23 // पुणरत्तं च अलंकियंच, वत्तं च तहेव विधुढे / महुरं समं सुललियं, अट्ठगुणा होति गीयस्स // 24 // उरकंठ सिर पसत्यं च, गिजंतो छंदो के तीन भेद और दो प्रकार की भाषा को जानता है. // 22 // गीत के गाने में षट् प्रकार के दोष होते हैं जैसे कि 1 भय सहित गाना, 2 शीघ्र 2 गाना. 3 श्वास होने पर गाना 4 ताल से विपरीत गाना, 5 कगवत् स्वर के होने पर गाना और नासिका में गाना / / 23 / गीत के गाने में अष्ट प्रकार के गुन निम्न प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं. जैसे कि 1 स्वर कला में प्रविणता, 2 राग में रक्तता 3 अलंकार सहित. 4 प्रगट वचन. 5 शुद्ध स्वर, 6 कोकिलावत् मधुर स्वर, 7 तालादि वादिंत्र सम स्वर, और 8 सललित स्वर हो. यही गीत के गाने के आठ गुन हैं. इन गुणों के साथ गीत गाने से गीत निर्दोष कहे जाते है. // 24 // प्रकारांतर से गीत शुद्धि का विवर्ण किया जाता है. जैसे कि उर, कण्ठ, शिर विशुद्ध होचे, मृदु गीत गाया जावे. चातुर्यता के साथ अक्षरों का संचारण किया जावे, पद धरचनाप होवे, फिर इस्तादि की वाल सम होवे. नृत्य करने वाले का प्रक्षेप ठीक होवे, इस प्रकार 484280 नाम विषय 4 80 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ अमवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी मउम रिभिम // पदबंध समंताल पउखवं, सत्तसरसी भरणेयं // 25 // अक्वरसमं पथसम, तालसमं लयसमं // गहसमं च निससियं च उससियं, सम्म संचारसमं च सत्तति // 26 // निहो संसारबच हेउजुत्ते मलंकियं / / उबणीय सोवयारं च, मियं मधुर मेवय // 27 // सम्मं अद्ध समं चेब, सव्वत्थं विसमंसजं, तिष्णिवित्तं पयाराई, चउत्थो नो पलभइ // 28 // सक्कया, पागया, विशुद्धि के साथ जब गाना गाया जाता है तब उस गीत को सप्त स्वर विशद्ध कहते हैं // 25 // फिर अक्षर सम ही, पद मम हों, ताल सम हो, लता सम हों, ग्रह सम हों, श्वासोच्छवास सम हो, औ सतार भादि में संचार भी सम हो-यह भी सात गुण स्वर के प्रकारांतर से कहे गये हैं. // 26 // वृत्त के आठ गुण होते है जैसे कि 1 छेद निर्दोष 2 विशिष्ट अर्थ का सूत्र कर हेतु युक्त. 3 अलंकृत, 4 नयों से युक्त, 5 शुद्ध अलंकार पूर्वक 6 विरुद्धादि दोषों सहित 7 मिक्षारी और 8 मधुर. // 27 // फिर भी तीन प्रकार के इस कहे गये हैं जिन के चार पदों के परस्पर समान वर्ण होते हैं उन्हे छेद कहते हैं, जिन के प्रथम पाद व तृतीय पाद और द्वितीय पाद: चतुर्थ पाद समान होघे उने अर्थ समरद कहते हैं परंतु जिस छंद के चारों पाद विषम होवे उसे सर्व विषम छंद कहते है यही तीनों के प्रकार कहे गये हैं परंतु चतर्थ प्रकार कहीं भी उपलब्ध नहीं है. // 28 // अब भाषा प्रका जमा-मावहादुर लाला मुखदेवसहाय जी ज्वालामसाजी, For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतर्य पूष 228 अथे २चेव, भणिओ होति दुण्णिओ // सरमंडलंमिगिजते, पसत्था इसी भासिया // 29 // केसी गायइ भहुरं ? केसी गायइ खरंच रुक्खच // केसी गायति चउरं / * केसीय विलंबितं दुतं फेसीयाए विस्सरं पुण केरसी ( गाथा धिकमिद ) // 30 // गोरी गायइ महुरं, काली गायति खरंच रुक्खंच // सामा गायति चउरं, काणी अविलंवियं दुतं अंथा // 31 // बिस्सरंपुण पिंगला ( गाथाधिकामिदमपि)। सत्त विषय कहते हैं. तीर्थ करोंनेसंस्कृत पाकृत ये दोनों भाषा प्रतिपादन की है और दोनों भाषाओ में स्वर मंडळ गायन किया जाता है. और यह दोनों भाषा सुंदर है और ऋषि भापित है. ( यहां पर 4 ऋषि शब्द का अर्थ भगवान से है.) // 29 // अब फिर प्रश्न कहते हैं कि कौनसी स्त्री मधुर गीत गाती है,* कौनसी स्त्री खार और रूक्षीत गाती है. कौनसी श्री दक्षता पूर्वक गाना गाती है, कौनसी स्त्री विलंब से गाती है, कौनसी स्त्री शीघ्रता स माला है और कौनली स्त्री विस्वर गाती है ? // 3 // 1 गौर वर्ण वाली स्त्री मभर गीत गाती है, काले वर्ण वाली स्त्री कर्कश गीत गाती है, श्याम वर्ण वाली स्त्री दक्षता पूर्वक गाती हैं. एक आंख वाली खो विलंब से गाती है, नेत्र हीन-अंधी स्त्री शीघर गाना गाती है और कपिल स्त्री विस्वर मानी है, // 31 // अब सप्त स्वरों का उपसंहार कहते हैं-इस स्वर मंडल में सन 4882280 नाम विषय-28-882 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुनि श्री अमोलक ऋषिआ. सरा तउगामा, मुच्छणा एगवीसइ ताणा एगुणा पण्णासं // सम्म सर मंडलं // 32 // सेसं सत्त नामे // 124 // से किं तं अट्ठ नामे ? अटु नामे अटविहा वयणविभत्ती पणाला तंजहा-(गाहा ) निदेसे पढमाहोइ. वित्तिया उवएसेणं // तइया करणनिकया च उत्थी संपदावणे // 1 // पंचमिय अवायाणे, छट्ठी सस्सामि वायण // सप्तमी सन्नाहाणत्थे, अमीमतगी भवे / / 2 // तत्थ पढमाविभत्ती निद्देसो सो इमोय हवंती॥ वित्तिया पुण उवएसे, भणकुणसुइ मंवयंच स्वर, तीन ग्राम. 21 मूर्छना, और 49 तान वर्णन की गइ है परंतु तान उसे कहते हैं कि जैसे एक वीणा में 7 छेद हैं उन में एक स्वर सात सात वार गाया जाता है सो इस प्रकार सातों सात 49 तान हुए. सो यह 49 तान भी स्वर मंडल के बीच में है. इस प्रकार स्वर मंडल की समाप्ति को कही है अपितु इसे ही सप्त नाम कहते हैं // 32 // यह सात नाम का कथन हुआ. // 124 // अहो भगवन् अष्ट नाम किसे कहते हैं ? अहो शिप्य ! अष्ट गाम में अष्ट विभक्ति कही हैं तद्यथा-निर्देश में प्रथम विभक्ति होती है. 2 उपदश में द्वितीया. करण में तृतीया, '4 संपदान में चतुर्थी, 5 अपादाम में पंचमी, 5 संबंध में षष्टी, 7 आधार में सक्ष्मी और 8 आमंत्रण में अष्टमी विभक्ति होती है. // 1-2 // 'अब इन आठों विभक्तियों के उदाहरन कहते हैं. इस में प्रथम विभक्ति निर्दोष रूप इस प्रकार है. सः, है। प्रकाशक-रानाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वंति // 3 // तत्तिया करणंमि कया, भणियं च कपंच तेणं वा मएवा // हंदिणमो साहाए हवइ चउत्थीसं पयामि // 4 // अवणय गिण्हएत्तो, एउत्तिवा पंचमी अपायाणे ॥छट्री तस्सइमस्स, वागयस्सवासामि संबंधे।। ५॥हवइ पुणसत्तमी तंइमंमि आहार काल भावेय // आमंतणी भवे अट्ठमिउ, जहाहे जुबाणेति // 6 // सेतं अभी नामे // 125 // से किंतं नव नामे ? नव नामे ! नव कव्वरसा - एकात्रंशत्तम अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल 438 अयं, पर उपदेश में द्वितीया होती हैं. जैसे शास्त्रं पढ, कार्यं कुरु अर्थात् शास्त्र का अभ्यास कर और कार्य कर. // 3 // करण में तृतीया विभक्ति होती है पढितं वा कृतं तेन मया वा अर्थात् / अथवा तैने अभ्यास किया या कार्य किया. चतुर्थी संप्रान नमः स्वाहा: अनये. अर्थात् अग्नि देवता को नमस्कार पांचवी विभक्ति अपादान में होती है जैसे एतस्माद् दूरं अपनय, अर्थात् इस से दूर करो, षष्टी स्वामी संबंध में राज्ञःपुरुषः राजा का पुरुष // 5 // सप्तमी विभक्ति आधार में होती है तथा काल और भाव में भी होजाती है जैसे प्रधो रमते अर्थात् वसंत मास में लोग क्रीडा करते हैं यह काल में सप्तमी हुइ अथवा चारित्रेऽवतिष्ठते-अर्थात् चारित्र में रहा है यह भाव में सप्तमी हुइ. आठवी विभक्तिं आमंत्रण में जैसे हे युवान् ! यह अष्टमी विभक्ति हुइ. यह आठ नाम का कथम दुवा. // 125 / ' 487ags नाम विषय 488488 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पण्णता तंजहा-( गाहा ) वीरो, सिंगारो, अब्भुओय, रुद्दो अहोइ बोथयो / / वेलणओ विभन्छो हासो, कलुणो पसंतोय // 1 // तत्थ परिव्वामिय, दाणे तव चरणा सत्तुजण विणासेय // अणणुसयधिती, परक्कमालिंगो वीररसो होइ ॥२॥वीरोरसोजहा सो नाम महावीरो जो रज्जापयहिऊण पव्यइउ॥कामकोह महासत्तू पक्ख निग्घायणं कुणइ / / 3 // सिंगारो नामरसो, रति संजेगिाभिलास संजणणो अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अहो भगवान् ! नब नाम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! नव प्रकार के रस कहे हैं जैसे , 1. वीर रस. 2 श्रृंमार रस, 3 अद्भुत रस, 4 रौद्र रस 5 वीडा रस-लज्जा रस 6 वीभत्स रस, 17 हास्य रस, 8 करुणा रस और 9 प्रशांत रस इन नव नाम में से प्रथम धीर रस का वर्णन करते हैं-दान देने में, तपश्चर्या करने में. चारित्र पालने में शत्रु का विजय करने में और पाप का पश्चाताप करने में मन को स्थिर कर सच्चे मन से पराक्रम फोडे इस प्रकार पराक्रम का चिन्ह जहां होने उसे वीररस क हमा. उदाहरण जैसे श्री महावीर का स्वामी परान- सद्धि का त्याग कर प्रवर्या दीक्षा धारन करे फिर कामक्रोधादि महा प्रवल शत्रओं का पक्ष की निचीत करने में प्रवसे यह सञ्चावीर रस है. // 2-3 // अब श्रृंगार रस का वर्णन करते हैं. स्त्री के साथ संभोग के अभिलाषी संयोगिक *काशक राजावहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir >< 48- एकत्रिंशतम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थपूल / // मंडगा विलास वित्वोय, हास लीलारमणलिंगो // 4 // सिंगागे रसोजहा, महर विलासलारीयाहिउपपमाण कर जन सभामा 5 सानोडला दाविहायजाणे अपुचो, अणुभूत पुजो या तो किसी को अभूतोनाम // 6 // अब मुरउरसो सहा, पहा : अन्नं अस्थि कार्य यांच्या उत्पन्न करने के लिये अषणादि से शरीर का मंडन करे. नेत्रादि अंगोपाल मा कर अंग को विकार में प्रवर्तीवे, हास्य दनकरीले कामोत्पादक भाषा बोले, परस्पर क्रीडा करे, या गार जानना. इस उदाहरण पणकार युक्त मधुर शब्द विलाप्त लीला व सटाक्ष करने वाली यवनी या युवान केहदय में रमण करे ऐसे कंदवितार रूप श्रृंगार भाषण व स्त्रियों नेपरादि भूषण धंकार-धमकार करती दालों की मेखला को दर्शाती रत्न जडित कटि मेखलादि भलाकार करती चार पुरुषों को विमोहित करे. यह शृंगार रस है. // 3.4 // अथ अद्भूत रस के लक्षण कहते हैं-प्रथम अनुभवः नहीं हो वैसा विस्मय कारक बनाव को अदभूत रस कहते हैं. कितनेक अच्छे अदक्षत बनाय होत्पादक होते हैं और कितनेक खेद करने वाले होते हैं. यह उस के लक्षण कहे हैं अब उस का उदाहरण करते है. सम्यग् दृष्टिहल की जीवों को जिनेन्द्र प्रणीत शास्त्रों का गढा श्रवण मनन करते आनंद में मग्न हो आश्चर्यचकित होते हैं. और आर्य में विचार करते हैं कि ऐसी विचित्रता अन्य। 8+दादुदाम दावा-2008 / For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवलोगम्मि जं जिणवयणे अच्छा, तिकाल जुत्ता मुणिजति // 7 // भयजमण ण रूवमहंधगार चिता कहा समुप्पन्नो, समोह संभाविमाय, मरणलिंगी रसोरुहा // 8 // रोहोरसा जहा भिउडी विडंबिय मुहो // दोहइयरुहिरभो, ? किण्णा हणीसपमुसं असुरणिभो, भीमरसिय अइरोइ रोहोसिर // 9 // विणउवयार Annrnme 158 अर्थ 1. अनुवादक कब्रह्मचारी पनि श्री अमोलक ऋषिजी किमी शास्त्रों में देखने में नहीं आइ. इस प्रकार के जिन वचन में रक्त पने जीव इस लोक में तत्वार्थ के तथा त्रिकाल के स्वाप के पहा जाता होते हैं. // 5-7 !! अब चौथे गैद्र रस का दृष्टांत कहते हैं यंतराल की चेटा के करों को रखकर तथा अंधकार में भय स्थान देव भयानक z श्रण कर हृदय में रोटरगट होता हैं 1 मे जीव मूढता, व्याकलता व विषाद पना धारन 4 करने हैं कितनेक माण का भी त्याग करदेते हैं. इसे गैद्र रस कहना. इसका उदारण जब गैद्र रस त्पन्न होता है तब ललाट में तीन साल उत्पन्न होते हैं. एख मुद्रा विकराल बनती है, दिल में आमंत्रण करता है, अन्य को पाटिन करता है, घात कर अधिर से हस्त यशार भरे रहते हैं. वह भी राक्षस समान बनता है, भयंकर शब्दों कर के अन्य को कहे कि तू भयंकर खाता है. यह रौद्र रस जानना. // 89 // विनय उपचार अश्लील वार्ता, उपाध्यायादि की स्त्रियों से मैशुन कीटा, मर्यादाओं प्रकाशक राजाबहादुर लामसुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. E For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 887 48. 0 8 अर्थ: गुब्भगदारमेरावतिकमुप्पनो // वलण उनामरसो लज्जा संका जणलिंगो // 1 // वेलणोरसो जहा कि लोय करणीआओ // लज्जणतरगं तिलिजयामोक्ति, वारिजमि गुरुजणो, परिश्रय बहुति // // असुई कुणिमदु दसण, संजोगाभास गंध निप्फन्नो // नि अपिहिता लक्खणो, रसाहाइ वीमच्छो // 12 // वीभन्छो अतिक्रम करना इत्यादि कान से लज्जा इस उत्पन्न होता है. इस रस के शंका वा लजा चिन्ह है. उदाहरण जैसे नव अपनी प्याली से कहती है कि देरी प्यारी सखी! जो मेरे भादि के संयोग से रुधिर भचिन प है उन लोगो को दम दि अनेकन नारियों को दिखलाते हैं। यद्यपि यह मेरे पतिव्रत धर्मशंग करते हैं पांत तो परम लज्जित होती हूं क्यों कि जब मैथुन क्रिया नानी लज्जा उत्पन्न अपर या तो मेरे उदाहरण ही देर रहे हैं इसलिये इस संसार में इस से बह कर लज्जा का स्थान क्या होगा, अपितु कोई भी नहीं. अंतः विवाहादि में भी मरें वस्त्र दिखलाये जाते हैं इसलिय परम लज्जित होती जाती हूं.सो इसी का नाम लज्जा रस है. ॥१०.११॥ीभत्स रस उसे कहते हैं कि जो अशचि मांसपिंड दर्दशन, इत्यादि के वारंवार देवमे से दुर्गति के निमित्त से वैराग्य और दया भाव उत्पन्न होता है वही धीमत्स रस है. 1, अपितु यह वार्ता मोक्ष गमन आत्मा की अपेक्षा की गई है. // 12 // भार वे धन्य कि मिनोने 18+ एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुथ मूल नाम विषय 38052486 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसो जहा, असूइ मलभारय // निझरसभाव दुगांधी, सबकालं पिधन्नाओ सरीर कलिंबहु मल कलुसं विमुच्चंति // 13 // रूव ·य वेस भासा, पियारिय लिगाय समुप्पन्नो // हासो मणप्पभातो पनामालिंगो रतो होइ // 14 // हामो रलो जहा पासुत्तमंसि मंडिय पडिशुद्ध // देशपलोयतीहाजाहणाश्ण भारपण, निय मझाहसती सामा // 15 // श्यिविप्पड गवंध बहवाहि विणि वारसंभ समुप्पन्नो अशच व मल से भरे वे श्रोत्रादि विवह जो स्वभाव से दुर्गम यह शरीर है उस को छोडदिया है. क्यों कि यह शरीर मल से कलुभाता है. सदैव काट इसके सामान को प्रस्रवण क रहे हैं. इसलिये वे धन्यवाद की योग्य हैं जो इमरमर शीर तोडकर मोक्ष गमन गये हैं. // 13 // अब हास्य रस का विपर्ण करते हैं. रूाला परिवत करता अथवा वृद्धादि का रूप धारण करना. भाषा विवशत बोली, जिसके द्वारा हाय की उत्पति और मग फुल हो हजार सो यही उक्त चिन्ह हार" हा क्षण 1 दाम्प पक्ष की प्रतीति होती है. F14 / इसके उदाहरण केवमाविवर्ण शिक्षामाची निल देवर का उपहास करती है और उसके मुखादि को कानय के लिये भी सच इ.स . उसी को हास्य रस करते हैं. // 15 // अब करुणा रस विषय कहते है. करुणा रस उसे कहते हैं. मो विषय के लावनारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ? अकाशक-रानाबहादुर लाला सुखद वसहायजा * For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir A8 ॥सोइअविल वियपाहाय रुन्नलिंगो रसो कलुणी // 16 // कलशोर सो जहा, पभाय किलामिअयं // बाहागय पफ अन्धीप, यसो तस्स विडो पुत्तिय, दुबलायंने मुईजागं // 17 // निदो समगरल माहाणा, संनयो जो पसंत भावेणं / / अधिः / सगो, सो रसो पसंतो पापको // 18 // तो रसो अहा, लभाव निविगार / / उवसंत पसंत सोमष्टिी, अहीजहं मुणिो सोहलि मुहर शथप अनुयोगद्वार सत्र चतुर्थ मूल अर्थ दियो से अक्का बंध वधय व्याधि से अथहा पुत्रादि की मृत्यु से चिरा को अति उत्पन्न होती है उनी के कारणों से बिना कारला, विलाप करना. मूळावश होना यह सब लक्षण करूणा रस के होते है. # इसमें समाहरण यह है कि जैसे किसी युवती कन्या के पति वियोग से पह कन्या परम दाखित अत्रु, पूनमेज, जिस के शुव की कृति मलीन है इत्यादि सक्षमों से निश्चय करती है कि यह करुणा रस 6. से व्याप्त हो रही है. सो इसी को करुणा रस कहते हैं // 17 // अब प्रशांत रस विषय कहत हैं. यन के निर्दोष होने पर व भादों की विशेष शांति होने पर प्रशांत रस की उत्पत्ति होती है. और निर्विकार है ख्य का होना यही प्रशांत का मुख्य लक्षण है. ||18| इस रस में उदाहरण इस प्रकार दिया गया है. कि जैसे कार्यों के उपशम होने से और सौम्य दृष्टि होने से मंतः परम शांति होने पर मुनि / For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कमलं पीवरसिरीयं // 19 // एएनव कप्वरस्सा, बत्तीसा दास विही समुप्पन्नो / / गाहाहिं मुणेयव्वा, हवंति सुहा वमीसावा // 20 // से तं नवनामे // 126 // से किं तं दसनामे ? दसनामे दसविहे पणते तंजहा-१ गोणे. 2 नोगोणे, 3 आयाण पदेणं, 4 पडिवक्ख पदेणं, पहाणयाए, 6 अणादि सिइंतेणं, 7 नामेणं, 4.1 अनुवादक दालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक मापनी+ का मुख रूपी कमल उपशम रूप श्री से आरंकृत होती है उसी का नाम प्रशांत रस है. // पह नव काव्य रस सूत्र के 32 दोषों की विधि की रचना से उत्पन्न होते हैं जैसे कि अनिषु द५ से रहित अद्भूत रस की उत्पत्ति होती है ऐसे हीरोनी चाहिये हम गाथा काच्च छंदादि ये जानने चाहिये परंत का ध्यान में रस.मा होने जेसे कि पर काव्य में एक रस हो शुद मन है दे एक काव्य में दो तीन रस हो उसे मिश्रित रस को 32 दोनों के प्रयोग सेन की उत्पति ती? और अन्य प्रकार से भी लोणाली. 13. अलर चंद और छंदादि प्रयो में इनका सस्ता स्वरूप मानना चाहिये यह ना नाम : स्वरूप पूर्ण हो गया. // 126 // अहो भगवन् [शनाप किसे कहते है ? अहो विष्य ! दश नान दश प्रकार से विवणं किये गये हैं, जैसे कि-१ गुण निप्पन्न नाम. 2 निर्गुण नाम, 2 भदानपद नाम, 4 प्रति पक्ष नाम, 5 प्रधान पद नाम, 6 अनादि सिद्ध नाम, 7 नामकर नाम, 8 अवयव नाम, 9 .27, मावादासक्ष.. सादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 488 अवयवेणं, 9 संजोगेणं 10 पमाणेणं // 127 // से किं तं गोणे ? गोणे! खमती ति खमणो, तरन तिताण जलमी नि अलणो, पवती ति पवणो, सेतं गोणे // से किंतं नो गौ ? ! अंकुतो संकुंतो,अमुग्गो, समुग्गो. अलालं, पलालं, अकुलिया र कुलि , अमडो ममुद्दो, नो पलं असती ति पलासं,अमाति बाहए माइबाहर अपीय वावर, बीमा वावए, नो इंदगावतीच इंदगोवउ. सेतं नई 83308एकत्तम-अनुशामद्वार सूत्र चतुर्थ मूल 28 योग नाम और 10 . भ. // दो भगवत् / गुण निष्पना नाम किसे कहते है? को शिष्य ! गम लिन उसको जैविक्षमा करने से क्षरण, जलन होने से ज्वलन. ताए होने से तपन. पांवर न. उर्व गुण निष्पन्न नाम है. अहो भगवन् ! अगुण निष्पन्न नाय किसे कहते है ? जसे कि कुन्न न होने पर शान्त, समुद्र न होने पर समुद्र, भद्रा के न होने पर भद्र, लाल के न होने पर लाल, कुलिका के न होने पर शकुतिका, मांस के न खाने पर पलाश, 1 अमानव हक को मानाहर सीमा को वीजवापक इन्द्र के न गोपों पर इन्द्रगोप इत्यादि सर्व प्रयोग Tण निष्पन्न नई हे परंट गुण से विरूद्ध नाव प्रसिद्ध है=आदान पद उसी का नाम हैं.कि जिस अध्याय का 2 आद सूत्र से नाम मसिद्ध हो नाय. और उसी माम अध्याय से उच्चारण किया जाय.इस पद में च उदाहर 28.5 नाप विषय 103800 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 88 नोगोणत्ति / से किंतं आयाणपदेण? आयाणपदेण ! धम्मोमंगल, चाउरंगीज, असंखयं, आवंती. अहातत्थिनं, अदइज्ज, सेत् आयाण पदे।। से किं तं पडिवख पदेणं ? पडिवक्खपदेणं ! नोमु मामागर पामर खेड कव्वा मंडल दोषागुह पट्टणा सम सन्निविसेसुय निविरसमामु सिवालिका अगलादला मिर. बल्लालबरेसु आविलंसादुयं जे छत्तए सेजलचए, जेलाउए से अलाउ से सुपर से कुसुभए, दाहारण दिखाये गये हैं. मे कि 5 मो मंग दिगापा का कि अश्याग 2 पलुगी अध्यार, 3 | असंख्याध्याय, 4 अवती अमान पुरुषायायाय. 6 एकाध्याय. 7 पाय, 2|9 मोक्ष मालाय. 1. समोरण यान 1: काय र यमाया आदि कुलाब्याप अस प्रतिसादान में किसी के काशक-राजाबहार लाला मुखदेवारमा विप मधर, कालान के घर में मंदिन साट, रकको अरका, लालुको भलघु, जुम को कम इस प्रकार For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 80 स आलवतेविबलीय भालए, सेतं पडिवरखपदेणं // से किंतं पहाणयाए ? पहाणयाए असोगवणे, सत्तियणे, गवणे, चुरानो नो पारे, उच्छवणे,दक्खवणे. सालवणे, सेतं पहनना कि मारि दिय सिद्धतणं ! धम्मत्थिकाए, अयमा स्थिकार, गारिया, जयस्थिकाए, पुग्गलस्थिकाए, अद्धासमए. सेतं अगादिय सिहते से कितं नाणं ? नामेणं ! पिडपियाम विसम अनुयोगहार सूत्र-चतुर्थ मूल र प्रतिपक्ष वचन उच्चारण करतानापाको गतिपक्ष धर्म कहते हैं, जो भगवन् ! प्रधान नाम किसे कहते हैं? अशिप्याबहुत पदार्थाने पर जो अधिक हो उस नाम से खेला जावेसो प्रधान नाम जैसे कि-अशोक वृक्ष होने से अश्यपके ऐसही साबित करन साश्रयन नागनापुभागवन शुनन,श लवन इत्यादि प्रधान नाम जालना. अहो भगवन् ! अनादि का डिले हहते है ! अहो शिष्य ? अनादि सिद्ध नाम सो धर्मास्ति काया, अधर्मारित काया. शशास्ति काया, बारित काया पुद्गलाति काया. और अद्धा समय यह अनादि सिद्ध नाय है अहो या ! नाम पर किसे कहते हैं ? अहं विय ? जापित पितामह के नाम से नाम निप्पन्न होता है और उसी से प्रसिद्धि को भी प्राप्त हो जाता है जैसे सेतली घुत्र, वरुण, मागर्नत्तुआ, मया पुत्रा, थायर्चा पुत्र इत्यादि सर्व नाम से निष्पन्न नाम पद है. अहो 388 नाम विषय 28 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महस्स नामेणं उन्नाभिज्जइ, सेतं णामेणं से किं तं अवयवेणं ? अवयवेणं ! सिंगी, सिखी, विसाणी, दाढी, पखी, खुरी, णही, बाली, दुप्पय, बउप्पयाय, बहुप्पया नंगुली, केसरी, कउही, परियर बंधेण भेडं, जाणिज्जा, महिलायं नियत्थणं, सित्थेणं दोणवाय, कयंच एमाए गाहाए, ते तं अक्यवेणं // 28 // से किं तं संजोगेणं ? संजोगेणं ! चउबिहे पण्णवे तंजहा-दबसंजोगे, 2 खेत्तसंजोगे, 3 कालसंजोगे 4अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अर्थ भगवन् ! अवयव नाम किसे कहते हैं ? होशिपय ! अश्या की समानता से जो नाम निष्पन्न हो उसे अवयवी नाम करते हैं जैसे कि श्रृंा होने से मीशिस्त्रा होने से शिनी ऐसे ही विपाणी, दाढी,पक्षी, खुरी, नरवी. चाली, द्विपद चतुष्पद, बहुपद. नांगुली. केसरी, वैसे ही सानक वेष से शूरवीर, बने हुए एक कणसे सब अनाजपका हुदा एक गाथा से कावे, यह सब अवयव प्रधान पद क्यों कि जिस व का जो अवयव प्रधान ईवा है उसी के प्रयोग से उस के नाम का उच्चारण किया जाता है.. // 128 // अहो भगवन संशेग नाम किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! संयोग नाम चार प्रकार से कहा है जैसे कि 1 द्रव्य संयोम, 2 क्षेत्र संयोग. 3 कार मंयोग, और 4 भाव स्योग अहो भगवन् ? द्रव्य संयोग किसे करतेहै? अहो शिष्य ! द्रव्य संयोम तीन प्रकार से कहा है तघया-सचिन 2 मचित्त प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी उधाला साद For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 44 भावसंजोगे। से कितं दव्वसंजोगे ? दव्वसंजोगे तिविहे पणत्ते तंजहा-सचित्ते, आचित्ते, मीसए पते किंतं सचिने ? सवित्ते ! गोमिएकोहि पसूहि पसहिए,महिसीए. I उरणीहि, उरणिए, उठीहिं, उद्विताले, सेतं सचित्तं // से किंतं अचिने ? अचित्ते ! छत्तेण छत्ती, दंडेणं दंडी, पडेणं पडी, घडेणं घडी, से तं अचित्ते // से किं सं मीसए ? मीसए हलेणं हालीए, सगडेणं सागडिए, रहेण रहिए, नावाए. नावीए, मी. ओभगवन ! मरित व्य संयोग किसे कहते है? भो शिण्य ! इस के उवारण हैं कहते " जिस के पास गौऐ है उसे गोथान कहते हैं, जिस के पास ऊंट है उसे भौष्टिा कहते हैं, जिस के पास पगु वह पशु वाला कहाला है, जिस के पास अनादि बहुत है वह अजादि वाला कहाता है, यह सचित्त द्रव्य संयोगज नाय हुआ. अहो भगवन् ! अचित्त द्रव्य संयोगज नाम किसे कहते हैं ? अहो / शिष्य ! जैसे छत्र धारने से छत्री दंड धारन करने से दंडी, वस्त्र धान करने से वस्त्री (बजाज घटा पाग्न करने से घटिया कहते हैं. इत्याद अचिन यम्त के प्रसंग से जो नाम पढे उसे अचित्त संयोग नाम कमा. अहो मगवन् ! मीश्र संयोगज नाम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! मीश्र सेयोगज नाम सो हल चलाने वाला हाली, सकट चलाने वाला साकरी, रथ चलाने वाला सारथी, नावा नुयोगद्वार मुत्र-चतुर्थ पूल 486 * नाम विषय *** Bya * * For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सेतं दबसंजोगे // 129 // से किंतं देत्तसंजोगे ? खत्तसंजोग, भग्हेरखए, हेमवए हिरणवए. हरिवाले, रम्मगवासए देवकु, उत्तरहरुए. पु. विदेहए. अरविदेहए अहवा मागहए, मालथए, संस्, माह कुरा बोलए. खेतं तसंजोगे मर, दुसन सुम, दुलम. दुम दुरमा ! ता. पारस, सारदर, बजा नाशिक शहराते हैं 3 बार के योग से जो मानो का मीत्र संबोज का नाम से on, कहा जाता है. यह द्रव : संयोग ल न मा. // 1 मा परेन को? अहो प्पिा मोरया ९वती देगा। एरणयी हरिवासी. पो . : ... मोदर कोमा गर्व मालय देश वासी को माननीय नाकाको श्रीका देश वासी को गाय की नीति के योग से काम हो / यही क्षेत्र संयोग नःप का कथन हुआ. 130 // मनन ! काल संयोजक नान किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! भुषमा भुमी आरे में उत्पनर को तुपमा सुनी ऐसे ही सगी माला सुएमी, सपमा दुधमी, दुधमी और दुषमा दुयमी अथवा मा ऋतु के जन्मे को पारसी, वर्षा ऋतु के जन्मे " अनुवाइकवालग्रह्मचारी मानश्री अभय मनिजी * प्रकाशक-राजाय तदुर ला मुबवराह यगी ज्यालासाद, For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 488888 एकात्रंशत्तम अनुयागद्वारसूत्र -चतुर्थ मूल 280 हेमंतए, वसंतए गिम्हाए, से त काल संजोग // 13 // सं किं तं भाव संजोगे? / भाव संजोगे दुविहे पण्णत्ते तंजहा-पसत्थेय, अपारस्येय // से कि तं पासत्थे ? णाणेणं णाणी, सणेणं दसणी, चरित्तेणं चरित्ती, सेत्तं / त्थंले किं तं अपसत्थे ? अपसत्थे कोहेणं कोही, माणेणं माणी, माघाए माई.लोभ लोभी, से तं असत्थे! से तं भाव संजोगे / से तं संजोगेणं / / 132 ॥से कि तं पमाणेणं ? प्पमाणणं चउव्विहा पण्णत्ता तंजहा-१ नामप्पमाण, 2 ठवणप्पमाणे, 3 दवप्पमाणे, 4 भावप्पमाणे // से किं तं नाम प्पमाणे ? नामप्पमाणे जरसणं जीवरसवा की वर्षाती. शरद ऋत से जन्मे को शरदज हेमन ऋतु के जन्मे को हेवंती, वसंत ऋतु के जन्मे को है वसंती ग्रीषम ऋतु के जन्मे का ग्रीष्या रु. का के सोग से नाम स्थापन करे सो काल नामः // 131 // अहो भगवन् ? भाव संयोगन नाम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! भाव संयोगज नाम के दो भेद कहे हैं. प्रशस्त व अप्रशस्त, इस में प्रशस्त भाव संयोगन नाम सो ज्ञान से ज्ञानी, दर्शन से दर्शवीय चारित्र से चारित्रीय उत्यादि सद्गुणों से जो नाप पडे सो प्रशस्त. और दुर्गुणों से जो नाम पडे सो / अपशस्त जैसे क्रोध से क्रोधी. मान से मानी. माया से मायावी, लोष से लोभी. यह भाव संयोगी हुवा. यह संयोग नाम हुवा. // 232 // अहों भगवन् ! प्रमाण नाम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! प्रमाण नाम के चार भेद कहे हैं तद्यथा-१ नाम प्रमाण, 2 स्थापना प्रमाण, 3 द्रव्य प्रमाण और 4 भाव नाम विषय 4-POct For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजीवस्तवा,जीवाणं या,अजीवाणं वा तदुभयरस वा तदुभयाणं वा पमाणेत्ति नाम / कजति,से तं णामप्पमाण // 133 // से किं तं ठत्रणप्पमाणे ? ठवणप्पमाणे सप्ताह पष्णते तंजहा-१ खतं.२ देवय.: कले.४ पासंड. 5 गणे. 6 जोवियाहेउ, 7 अभिप्पाइय / / 134 ॥से किं तं णक्खत्ते नामे ? पदखत्त नाम 1 कत्तियाहिं जाएकत्तिए 2 कत्तियादिन्ने, 3 कत्तिया धम्मे, 1 कत्तिया सम्मे, 5 कान्तियादवे, 6 कत्तिया दासे. 7 कत्तियासेणे. 8 कत्तियारक्खिए, अर्थ/ अनादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रमाण. अहो भगवन् ! नाम प्रमाण किसे कहते हैं ? अहो शिप्य ! जिस एक जीव वा, अथवा एक अजीव का, बहुत जीव का अथवा बहत अनीव का, अथवा एक जीव अजीव मीश्र का अथवा बहुत जीव अजीव मीश्र का प्रमाण ऐसा नाम स्थापन करे उसे प्रमाण नाम कहना. // 13 // अहो भगवन् ! स्थापना नाय किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! स्थापना नाम सात प्रकार का का है. तद्यथा-१ नक्षत्र नाम, 2 देव नाम, 3 कुल नाम, 4 पाखंड नाम 5 गण नाम. 6 आजीविका नाम, और 7 अभिमाय नाम. यह स्थपना नाम सात प्रकार का // 134 // अहो भगवन् ! नक्षत्र नाम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! नक्षत्र नाम जैसे कृत्तिका के जन्मे हुए 1 कार्तिकी, 2 कार्तिकी दिन, कार्तिक धर्म, 4 कार्निक शर्म. 5 कार्तिक देव, 6 कार्तिक दास, 7 कार्तिक सेन 8 कार्तिक रक्षित. .प्रकाशक-गजाब दुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * * For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल 30 // रोहिणी हिंजाए, 2 रोहिणीए, 3 रोहिणीदिन्ने, 4 रोहिणी धम्मे, 5 रोहिणी सम्मे, 6 रोहणीदेवे, 7 रोहिणी सेण 8 रोहिणी रक्खिए. एवं सब्बणखत्तेसुनामा भाणियव्वा ॥एत्थसंगहणी गाहाओ-१ कत्तिया, 2 रोहणी, 3 मिगसर. 4 अद्दा 5 पुणव्वसुय 6 पुस्सेय, 7 तत्तीय अस्सिलेसा, ९महा, 10 दोफगुणीओ // 1 // हत्थो 12 चिना, 13 साति 14 घिसाहः, 15 तहा होइ अणुराहा ||16 जेट्टी 17 मूला 18 पुवासाढा. 19 तह उत्तराचेव // 2 // 20 अभिइ, 21 सवण, 22 धाणट्ठा, 23 सतभिसया 25 दो हुंनि भद्दवया // 26 रेवइ, २७अस्सिणी, यह आठ नाम कहे. ऐसे ही देशारूढी से कार्तिक नाम पीछे प्रत्यय शब्द लगाते हैं वे सब कार्तिकी नाम जानना. ऐसे ही रोहिणी नक्षत्र के जन्मे की शोहणिक. रोहिणी दिना, रोहिणी धर्म, रोहिणी शर्म. रोहिणी देव, रोहिणी दास, रोहिणी सेन और रोहिणी रक्षित. या आगे भी सब नक्षत्रों के अनुसार नाम कहना. अब सब नक्षत्रों के नाम कहते हैं. 1 कृत्तिका, 2 रोहिणी, 3 मृगशर, 4 आर्द्रा, 5 .6 पुष्य, 7 अश्लेषा, 8 मघा, 9 पूर्वा फालगुनी, 10 उत्तरा फालगुनी. 11 हस्त, 12 चित्रा, 13 स्वाति, 14 विशाखा, 15 अनुराधा, 16 ज्येष्टा, 17 मूल, 18 पूर्वाषाढा, 19 उत्तराषाढा, 20 अभिनित, 21 श्रवण, 22 घनिष्टा, 23 शतभिषा, 24 पूर्वाभद्र पद, 25 उत्तराभद्र, पद, 26 रेवती, 488 नाम विषय 486 188 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मस00/ 28 भरणी; एमाणका ! .. णक्खत्त णामे // 135 // से किंत देव न ? - - अग्गिए 2 अग्गिदिन्ने, 3 अग्गिलामे, 4 .... . अग्गिसणे. 8 आणि रक्खिए, एवं सन्मणकाल इणिगाहा-१ अग्गि 25 पयावइ, ३सोम.४रुद्द.५आंदता, ६4.रतई, सप्प,८पती, 9 भग,१८ अज्जम 11 सधिया, १२तट्ठा, 13 वाउय, १४इंदाग, १५त्तिो , १६इंदो, १७निरति, 18 आउ 27 अश्विनी और 28 भरणा. इन नक्षत्रों की परिपासी से नाम कहा जावे सो नक्षत्र नामः // 13 // अहो भगवन् ! देव नाप किसे हो? हो शिष्य ! देव नाम सो उक्त अट्ठाइस नक्षत्रों के अधिष्ठित देवता होते हैं रेमासे रखे जसे-अग्नि दनाधिषित नक्षत्र में जन्मे हुए का 1 अग्नि. 2 अग्नि दिन. 3 अग्नि शर्म. 4 अभिभः 5 आर देव 6 अनि दाम, 7 अग्नि सेन, 8 अग्नि रक्षित. इत्यादि यो सब नक्षत्रों के देवता के नाम बना इन स रक्षत्र के अठाइस देवता के नाम कहते। हैं. 1 अग्नि देव, 2 प्रजापति देव, 3 सोम देव 5 गट देव र अदिति देव, 6 बृहस्पति देव, 7 . # देव. 8 प्रीति देव. 5 भगदेव. 10 अर्जव देव , सविता देव, 12 तुष्टा देव, 13 वायु देव, 14 ! इंद्राण देत, 1 मित्र दव, १६न्द्र दे, 17 निरति देव, 18 आयु देव, 51. विश्व देव, 20 प्रहादेव है अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक राजबहादुर लाला सुखदेवसहायजी-ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir + 19 विसोय, 2 0 बंभ, 2 1 विष्णु, 22 अबसु, २३.वरुणे, 24 अय, 2 :विवद्धा२६ दुस्सो 27 असो, 28 जमे चेव॥ 1 // से तं देवतानामे !:१२६||से कित कुल नामे? कुलनामे !उग्गे 2 भोगे, 3 राइओ.४क्खतिम ५इक्खाग, ६णाते, 7 कोखे से तं कुल नामे // 12 ७॥से किं तं पासंड नामे ? पासंड नामे! समणे, पंडुरंगे, भिक्ख, काविलाउय, तावसए, परिवायए. से तं पासंड नामे॥ 128 ॥से कि तं गण नामे? गणे नामे ! 48.84883 नाप विषय अर्थ 485 एकत्रिश तम अनुयोगद्वार सूत्रचनर्थ मूल 21 विष्णु देव. 12 वसदेव. 21 वरुण देव, 24 भजा देव, 25 विवृद्ध देव. 26 पुष्य देव 27 आसोब देव, 28 मयदेव. इत्यादि देवताओं के नाम से नाम र चे सो देव नाम जानना. // 136 // अहो में भगवन् ! कुल नाम किसे कहते हैं? अहो शिष्य! जिस कुल उत्पन्न हुवा हो उसी कुल के नाम से प्रसिद्धि होवे सो कुल नाम. जैसे उग्रकल में उत्पन्न हुए सा ? अकुत्पन्न, राज कुलोत्पा, भोग / कुलोत्पन्न. क्षत्रिय कल, इक्षाग कुर, ज्ञानकल, और कौरव कुल. इत्यादि कुलानसार नाम देव सोल नाम. // 27 // अहो भगवन् : पाखंड नाम किसे कहते ? अहो शिष्य ! पाखंड नाम सो 1 श्रमण, 2 पंडरंग, 3 भिक्षक, 5 कपिल, 5 कापस और 6 परिनक, यह प.बंड नाम ४वा. // 16 // अहो भगवन : गण नाम किसे कहते? अहो शिष्य गण नाम सा जैस मट होने प For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्र यल्ले, मलदिन्ने, मलधम्मे, मल्लसम्मे, मलदासे. मल्लसेणे, मल्लरक्खिए. सेतं गण नामे || 139 // से किं तं जीवित हेऊ नामे ? जीवित हेऊ नामे ! अबक्खवए, तुतरुडिए उज्झियए, कजवए,सप्पए,से तं जीवित त हेऊ नामे // 14. || से किंतं आभिप्पाइ नामे ? आभिप्पाइनामे ! अंबए, निंबए, चंवृलए, कुलए, पलासए सिलए, पीलुए, करीरए, सेतं आभिप्पाइ नामे // से तं ठवणाणप्पमाणे // 141 // से किं तं दव्यप्पमाणे ? दव्यप्पमाणे ! छव्विहा पणत्ता तंजहा-धम्म / 174 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मान श्री अमोलक ऋषिजी. अर्थ मल्ल, 2 मल्ल दीन. 3 मल्ल धर्म. 4 मल्ल शर्म, 5 मल्ल देव : मल दास. 7 मल्ल सेन, 8 मल्ल रक्षित इत्यादि नाम रखे सो गण नाम जानना. // 131 // अहो भगवन् ? जीवित हेतु नाम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! वालकों का काल जीवित रखने के लिये जो नाम दिया जाता है. सो जैसे 1 कचग, 2 उकरडा. 3 उज्झत.४ काजो, षपडियो अन इत्यादि म त नाम हेतु जानना // 14 // अहो भगवन : अभिप्राय नाम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! अभिया नाम सो गुन की अपेक्षा सहित अपने अभिप्राय से पम्प नाम को स्थापन करे. जैसे आम्ब, नीय, चम्ब, बकुल, पलास, सिलक, पीलक, करी. यह अभिय नाम जानना यह स्थापना नाम का कशन हुवा. // 141 / / अब अहो भगवन् ! द्रव्य प्रमाण नाम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य : दृठय प्रमाण नाम के छ भेद कहे है। .प्रकाशक-रानावहादुर लाला सुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी - For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * 4 सूत्र अर्थ 428 एकोत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल * थिकाप जाव अधासमए से तं दव्यप्यमाणे // 142 // से किं तं भाव रामाणे ? भावप्पमाणे ! चउविहा पण्णत्ता तंजहा-समासिए, ताहितए, धाउए, निरुत्तीए // 243 // से किं तं समासए ? समासए ! सत्त समासा भवंति तंजहा. 1 हेडेय, 2 बहुवही, 3 कम्म धारए, 4 दिय, 5 तप्पुरिसे, 6 अव्वद भावे, एगसेसउसत्तमे // // 144 // से किं तं इंदे ? इंव-देताश्च ओष्टाच. दंतोष्टम्. स्सनौच उदरंच-स्तनौदरं वस्त्रंच पात्रंच-वस्त्रपात्रम अश्वाश्थ, महिषाश्च। तद्यथा- धर्मास्तिकाया. 2 अधर्मास्तिकाया, 3 आकाशास्तिकाया, 4 जीवास्तिकाया. 5 पुद्गलास्तिकाया , और 6 अद्धासमय. यह द्रव्य प्रमाण हवा. // 142 // अहो भगवन ! भाव प्रमाण किसे कहते हैं अहो शिष्य ! भाव प्रमाण चार प्रकार से कहा गया हैं. तद्यथा-१ सामासिक, 2 तद्धित, 3 धातु औ १४निरुक्त // 143 // अहो भगवन ! समास किसे कहते है ? अहो शिष्य ! समास सात प्रकार से कहा है. तद्यथा-१ द्वंद्र, 2 बहुव्रीहि, 3 कर्मधारय, 4 द्विगु, 5 तत्पुरुष, 6 अव्ययी भाव और 7 एक शेष, // 1.44 // अहो भगवन् ! द्वंद्व सामास किस कहते हैं ? अहो शिष्य ! द्वंद्व समास के मुख्याता से दो भेद होते हैं. एक अवयव प्रधान और दुसरा समाहार प्रधान. इन में से यहां समाहार प्रधान के उदाहरण कहते हैं. नैसे दंताश्च ओष्टीच-दंतोष्टम, स्तनौच उदरंच। स्तनोदरम्, वस्त्रंच पात्रंच-वस्त्र 4ॐ नमविषय 89480 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वमहिषं, अहिश्च नकुलंच-अहिनकुलम्. से तं बंदे // से कि तं बहुवीही ? बहुवीही ! समासे ! फुल्लाइममि घिरिमिकुडयकलंबा सो इमोगिरी-फुलिय कुडय कलंबो से तं बहुविही समासे।से किं तं कम्म धारए ? कम्म धारए ! धवलो वसहो-धवलवसहो,किण्होमिग्गो, किण्हमिगो सेतोपडो-से उपडो, रत्तो-पटो-रत्तपडो, अनुरूपदकबाल ब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक पिजी *७.६.शक सजावहादुर लाला स्वदेवमहायजी पात्रम् , अश्वाश्च महिपाश्च-अश्वमहिषम् अहिश्च नकुलंच अहिन कुलं. यह द्वंद्वसमास हुवा अहो मगवन ! बाबीहि समास किसे कहते हैं ? अहे शिष्य ! बहुव्रीहि समास तीन प्रकार से कहा गया है जैसे-उत्तर पदार्थ प्रधान, उभय पदार्थ प्रधान अथवा अन्य पदार्थ धान. परंतु यहां उदाहरण में यात्र थर्थ पदार्थमान बताया गया है. से इस पर्वत में कुटज कलंबुके वृश प्रफुल्लित बने हैं, इस याफुल्लतकुटज कलंग: अय मिति: यह अन्य पद प्रधान बहब्राही समास हुवा. अहो भगवन् ! कर्म धारय समास किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! कर्मधारय दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, जैसे-उत्तर पद पवान सर्व पद प्रशन. मत्र में मात्र उत्तर पढ प्रधान के उदाहरण दिये गये हैं. जैसे घालचासो पमः पवनपभः. कृष्णश्चासौ मृगः कृष्णमगः श्वेतश्चासा पटः श्वेतपटः रक्तश्चासो पट: रूपः, यह बारव समास हवा. अहो भगवन् ? द्विग समास किसे कहते हैं ? अहो कि.प्य / ". For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से तं कम्म धारएसे किं तं द्विगु ?तिणि कडुगा ? द्विगु तिकिटुगं, तिणिामहुराणितिमहुरं, तिणि गुणा-तिगुणं, तिणिपुराणि-तिपुर, तिणिसराणि-तिसरं, तिणि पुखराणि-तिपुक्खरं, तिथि विंदुया-तिणिविंदुयं,तिणिपहा-तिपह, पंचनदीउ- पंच नंद, सत्तगया-सत्तगयं, नवतुरंगा-नवतुरंगं, दसगामा-दसगाम, दसxपुराणि 147 अर्थ 1989 एकत्रिंशत्तम्-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुथम संख्या वाची शब्दों से समाहार किया जाये वह द्विगु समास है. जैसे कि त्रीणि कुटकानि समाहृतानि / त्रिकुटकम् अर्थात् तीन कदक वस्तुओं का समाहार किया तब त्रिकटुक हुवा. वैसे ही ब्रीणि मधुराणि समाहृतानि त्रिभधुरम् त्रयानाम गुणानांम समाहारः त्रिगुणम् तीन गुणों का समाहार सो, तीन पुगै के समाहार को त्रिपुरम् , तीन दुरों के एकत्व करने पर त्रिसाम तीन कमलों के एकत्र करने पर त्रिपुष्कर , सीम विदओं के एकस्व होने पर निविद्कम, तीन पथ के एकत्व होने पर त्रिपथम पांच नदियों के समाहार होने से पंचमदिकं. सात हस्तियों एकत्रित होने पर सप्लग नम् , नव अश्वों के एकत्रित होने पर नव सुरंगम् , दश ग्राम के समुह को दशग्रामम् , दश पुर के समुह को दशपुरम. यह द्विगुसमास का कथन हुवा. अहो भगवन् ! तत्पुरुष समास किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! तत्पुरुषसपास के आठ भेद होते है. साब विभक्तियों के सात और आठवा नर तत्पुरुष. परंतु सूत्र में मात्र सप्तमी भिाक्ति के तत्पुरुष For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ल दसपुरं, से तं द्विगु // // से किं तं तःपुरिसे ? तप्पुरिसे-तित्थे कागो-तित्थकागो, वणेहत्थी-वणहतर्थ, चणेवराहो-वगवराहो, वणेमहिसो-वणमात्थसो, वणेम उरोवणमउरो, से तं तत्पुरिस // से कि तं अब्बई भावे ? अव्वइ भावे-अणुगामअणुणदियं अणुफरिहं-अणुचरिहं से तं अव्वइ भावे ॥से किं तं एगसेसे ? अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी समास दिखलाये गये हैं. जैसे तीर्थ में काक रहता हैं वह तीर्थ काकः वन में हस्ती होता है उसे वन हस्ती कहते हैं, वन में चराह रहता है, उसे बना कहते हैं. वन में महिप रहता हैं उसे वन महिषी में मयुर रहता, उस वः गयर इते हैं. यह तत्पम्प समाप्त हवा, अहो, भगवन् ! अव्ययी भाव समास किसे कहत हैं ? अहः शिष्य ! अध्ययो भाव सामस के निम्नोक्त उदाहरण हैं जैसे-ग्राम के समीप सो अनुग्राम नदि के समीप सो अन दी, खाइ के समीप सा अनुफारहा, और जो मार्ग के समीप है सो अरचारियम् है यह अध्ययीभाव समास हवा. अहो भगवन् / एक शेष समास किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! भो सामान्य जाति के वाचक शब्द हैं उन का लोपकर जब एक पद शेष रहनाय उसे एक शेष समास कहते है परंतु वह एक शेष समास पूर्व पदों का भी वाचक रहेगा पुरुवश्व पुरुष-पुरुषा. यहां पुरुष शब्द को द्रिकचन में रखने से दो चार दिखने की आवश्यीत्त महाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामतादजी * For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत एगसेसे ! जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा, जहा बहवे पुरिसा तहा एगो पुरिसो, जहा एगा करिसावणो तह बहवे करिस बणा, जहा बहवे करिसावणा तहा एगो करिसायो, जहा एमालाली ता बहवे साली, जहा बहवे साली तहा एगासालं, से तं एसेप // से त सलासिए // 14 // से किं तं ताद्धगीए? तहितीए ! अरिहे पण सा तंजहा-१ ( माह ) कम्मे, 2 मिर, 3 सिलोए, 4 संजोग, 5 समीरउय, 6 संजुहे, // 7 इरसरिय, 8 अवत्यणेय, तद्धित नामंतु रही नहीं. अब इस के टांत जैसे एक पुरूप है वैसे ही अन्य बहुत पुरुष हैं और जैसे बहुत पुरुष हैं। ' वैसे ही एक होता है. जैसे एक शाली है वैसे ही अन्य शाली है और जैसे अन्य शाली है वैसे ही एक शाली है. जैसे एक गुवर्ण पुद्रा है. वैसे ही अन्य बहुत सुवर्ण मुद्रा है और जैसे अन्य बहुत सुवर्ण मुद्रा है वैसे ही एक सुवर्ण मुद्रा है. यह एक शेष समास हुवा यह समास का कथन संपूर्ण हुवा. // 14 // अहो भगवन् ! तद्धित किसे कहते हैं ? अहो किप्य ! तद्धित के प्रत्यय लगने से जो नाम होता है। उसे तद्धितज कहते हैं. इस के आठ भेद कहे है तद्यथा-५ कर्म नाम 2 शिल्प नाम. 3 श्लोक नाम, 4 संयोग नाम, 5 समीप नाम, 6 संयूथ नाम, ऐश्वर्य नाम और 8 अपत्य नाम. प्रश्न-कर्म नाम किसे कहते हैं ? उत्तर-कर्म नाम के उदाहरण निम्न प्रकार से हैं जैसे-तृण हारक, काटहारक. पत्रहारक' 43800-380% नाम विषय एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार 802280 * For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स 48 अनुवादक बारब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी अट्टविहं // 1 // से किं तं करम नामे ? कम्मनामे ! तणहारए,' कटुहारए, पत्ताहारए. दोसीए. मोत्तिए, कप्पासिए, भंडये, आलिए, कोलालिए. से तं कम्म नामे // से किं तं सिमानासे ? लिप्पनामे ! बस्थिए, तंतिए तुत्राए, तंतवाए कडकारे, पटकारे, छसकारे, चित्तकरे, दतकारे, लेप्पकारे. कोहिमकार से तं सिप्पनामे // से किं तं सिलोयनामे ? सिलोएनामे ! समणे, माहणे, सवातिही, से तं सिलोगनामे // से कि तं संजोयनामे ? संजोयनामे ! अर्थात् तृण काष्ट व पत्र लाने वाला, दौहिक-वस्त्र बेचने वाला. सौत्रिक. सूत्र बेचने वाला, कार्यासिककपास वेचने वाला, कौलालिक- भाजा. बेचने वागा, भांड वैचारिक-कांस्यादिक का विक्रय करने वाला यही कर्म नाम है. प्रश्न-शिल्प नाम किसे कहते हैं? उत्तर-शिल्प नाम इस प्रकार से हैं. वस्त्र के शिल्प का ज्ञाता सो वास्त्रिक, इसी प्रकार तक लुओं का माहार करने वाला, तंतुवाय, पइवाय, तंठ उवइ. वसट, भुंज के कर्म करने वाले मुंजकरकाष्टकार, छत्रकार, वस्त्रकार ! पुस्तकारक पुस्तक लिखने वाला, चित्रकार, नकार, शिध्यकार, लेपकार, भूपि आदि सम्मान करने वाला कोहिमकार, यह सब शिल्प नाम का कथन हुआ.पनलाघनीय तद्धित नाप किसे कहते हैं ? उत्तर| श्लाघा पूर्वक तद्धित नाम निम्न प्रकार से है श्रमण, ब्राह्मण सर्व अतिथिये सब स्तवनीय नाम साधु प्रकाशक-जावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्र रन्नोससुरए, रन्नो जामाउए.रन्नोसाले, रनोसाढुए, रणो भगिणीपती, सतं संजोयनामे // से किं तं सामिवनामे ? समिवनामे ! गिरिसमविनार-गिरिनगर, विदिलाए समीवे नगरं-विदिसानगरं, वेनाए समीवेणगरं-वेण.ए नगर, नगरस्स समांवे नगर-नगरायडं, से तं समीव नामे // से किं तं सज़हे नामे ? संजहे नामे ! तेरंगवतीकारे मलयवतीकारे, अत्ताणुसाट्टकारे, विंदुकारे, से तं संजूह नामे // से पद में देखे जाते हैं; परंतु श्लाघनीय अर्थ की उत्पत्ति हेतुभूत अर्ध मात्र में तद्धित प्रत्यय होते हैं इसलिये श्रमण भबं श्रामण्यं. यह तद्धित रूप हुवा. यह श्लोक माप हुवा. प्रश्न---. संयोग नाम किसे कहते - हैं ? उत्तर-संयोग नाम-उसे कहते हैं कि जिस से संयोग पूर्वक उच्चारण किया जाय. जैसे कि राजश्वसुर-राजा का श्वसुर, राजा का जामाता, राजा का साला राजा का दूत., राजा की भगिनी के पति, यह संयोग नाम हुबा. प्रश्न-समीप नाम किसे कहते हैं? उत्तर-इस के उदाहरण निम्न प्रकार से हैं. जैसे गिरि समीप जो नगर होता है, वह गिरि नगर है, जो विदिशा के समीप जगर है वह विदिशा नगर है, वेणानदी के समीप जो नगर है वह वेणारा नगर, जो नगर के समीप नगर होता है 40 वह नगराय नगा है. यही समीप नाम है. प्रश्न- संयूथ नाम किसे कहते हैं ? उत्तर-संयूथ नाम | के उदाहरण निम्न प्रकार से हैं, जैसे तरंगपतिकारक मलयपते कारक. आत्मानपष्टि कारक, अनुयोगद्वार सूत्र-चर्तुथ मूल 1880 1848 नाम विषय 34.88 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी किंतं इस्सरिय नामे ? इस्सरिय नामे ! इस्सरे, तलवरे, माडबिए, कोडाए, इभ सेट्टी, सत्थवाह,सेणावइ, से तं इस्सरिय नामे से कि त अवच्च नामे ? अबच्चनामे अरिहंत माया, चक्कवट्टीमाया. बलदेवमाया, वासुदेवमाया, रायमाया, मुणिमाया, गणंमाया, वायामाया, से तं अचनामे // से तं तातिए // 146 // से किं धातुए ? धातुए ! भू सत्तायाम् परस्मै भाषा. एध वृद्धौ, स्पर्ध संघर्षे गाधू बिंदूकारक. यह संयूग नाय हुवा. प्रश्न-ऐश्वर्य नाम किसे करते हैं ? उत्तर-ईश्वर, सलवर माईविक, कौटुम्बिक, सेठ. सेनापति सार्थवाह इत्यादि ऐश्वर्या नाम है. प्रश्न-अपत्य नाम किसे कहते हैं ! उत्तरअपत्य नाम उसे कहते हैं. कि जो पत्र के नाम से माता का नाम प्रसिद्ध हो जैसे तीर्थकर की माता. चक्रवर्ती की माता. बलदेव की माता, वासदेव की माता, राजा की माता, मुनि की माता, गण की माता बाचकाचार्य की माता. यह अपत्य नाम का कथन हुवा. वह तद्धित नाम का कथन हुवा. 146 / / प्रश्न-धातु कौनसे 2 हैं उत्तर-भू धातु विद्यमान अर्थ में हैं. उस के परस्मै भाषा में भवति. भातः, भवंति; भवास. भायः, भवथ; भवामि, भवावः भवामः ये रूप होते हैं, एध धातु वृद्धि अर्थ में * सर्व धातु संघर्ष अर्थ में होता है, गाधृ धातु प्रतिष्टा लिप्सा ( इच्छा ) व संवय अर्थ में होता है, और + बाधृ धातु पिलोकन अर्थ में होता है, इन के परस्मै पद आत्मने पद,सेट्, अनिट्. मकर्म का, अकर्मक और * माशक-राजाबरपुर माला सुखदेवसह यजी वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 8 924 एकत्तिम-अनुयोगद्वार मूत्र चतुर्थमूल प्रतिष्ट लिसागंथेव वाधुरोट ( लोडने ) से तं धाउए // 147 // से किंतं निरुत्तिए ? मह्यां शेतमहिष, भ्रनी चशेलिति भ्रमरः महर्षदुर्लसतीति मुसलं कपिरिवकंपते कपित्थं चिदिति करोति खलंच भवति चिक्खलं उईकर्णः उलूकः मेषस्यमाला मेखला सेनं निरुत्तए // सेतं भावप्पमाणे // सेतेप्यमाणं // से तं दसनामे // नामेतिपयं सम्मत्तं // 148 // * * . भाव कर्म में भिन्न 2 रूप बनाये जाते हैं. इन का पूर्ण विस्तार व्याकरण से जानना. यहां सूत्र में Eतो मात्र सना रूप दिया है. ॥१४७॥पत-निरुक्ति किसे कहते हैं ? उत्तर-जो वर्षों के अनुसार अर्थ किया जावे उसे निरूति कहते हैं. जैसे मह्यां गति इति महिपः. अर्थात् पृथ्वी में जो शयन करता है वह महिष भैंसा, भ्रमनि रैति इति भ्रार: जो भ्रमण करता हुवा शब्द करता है वह भ्रमर, मुहुर लसति इति मुसलं अर्थात नो पारंवार ऊचे नीचे जाता हैं. वह मुसल, कपि जैसे वृक्ष की शाखा, में लंगायमान होवे और चेष्टा करे सो कवित्य. पादों को श्लेप करने वाला व पादों को स्पर्श होकर कठिन करने वाला वही चिक्खल है, जिस के कर्ण अर्ध्व हो वह उल्लू, मुख की माला वही मेखला है, या, निरुक्ति तद्धित का कथन हुवा. यह भाव प्रमाण का सप हुचा. यह प्रमाण का कथन हुवा. ॐ यह दश नाम का विवर्ण हुवा. यह नाम पद संपूर्ण हवा.॥ .48 // 4280 नाप विषय +284884 488 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से कि तं मागे मागे? च उबिहे पणते तं जहा-१ दच्चप्पमाणे, 2 खेत्तप्पमाणे, कालप्पमाणे, 1 भावप्पमाणे // 1 // से किं तं दवप्पमाणे ? दवप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते तंजहा-पदेस निप्फन्नेय, विभाग निष्फन्नेयासे किं तं पदेस निप्फन्ने ? पदेस निम्फन्ने ! परमाणु पोग्गले, दुपएलिए जाव दसपएमिए, संखेजपएसिए, असंखेज्ज पएसिए, अणंत पएसिए, से तं पदेस निप्फन्ने // से किं तं विभाग निप्फन्ने ? विभाग निष्फन्ने ! पंचविहे पण्णत्ता तंजहा-१ माणे, 2 उम्माणे, 3 आमाणे ___ अहो भगवन् ! प्रमाण किसे कहते हैं ? हे शिष्य ! प्रमाण के चार प्रकार कहे हैं तद्यथा- 1 द्रव्य प्रमाण, 2 क्षेत्रप्रमाण, 3 काल पमाण, और 4 भावप्रमाण // 2 // अहो भगवन् ! द्रव्यममाण किसे 5 करते हैं ? अहो शिष्य ! द्रव्यप्रमाण के दो भेद कहे हैं, तद्यथा-१ प्रदेश निष्पन्न और 2 विभाग निष्पन्न // अहो भगवन् ! प्रदेश निप्पन्न द्रव्य प्रमाण किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! प्रदेश निष्पन्न जिद्रव्य प्रमाणसो-पर प्रमाण पुल, द्विपदेशिकस्कन्ध, यावत् दशपदेशिक स्कन्ध, संख्यात प्रदेशी स्कन्ध, असंख्यात प्रहशिक स्कन्ध, यह प्रदेश निष्पन्न हुवा / / अहो भगवन् ! विभाग निष्पन्न किसे कहते है? अहो शिष्य विभाग निष्पन्न सो-अपने प्रदेश छोडकर अपद विविध अथवा विशिष्ट जो भासविकल्प तथा प्रकार उस कर जो निष्पन्न हो वह विभाग निष्पन्न, उस के पांच प्रकार कहे हैं, तद्यथा-१मान, 2. १.अनुवादक वाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबाहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्र अर्थ शत्तम अनुयागद्वार सूत्र चतुर्थ मूल 4 गाणिमे, 5 पडिमाणे // 2 // से किं तं माणे ? माणे दुविहे पणना तंजहाधन्नमाण पमाणेय, रसमाण प्पमाणेय // से किं तं धन्नमाण प्पमाणे ? धन्नमाण प्पमाणे दो असपा उपसती, दो पसिउ सातती, चत्तारिसेइ आउकुल ओ, चत्तारि कुल या पत्यो, चत्तारि पत्थो आढगं,चत्तारि आढगाइ दोणो, सद्विआढयाइ जहन्नए कुंभे, असीति आढयाई मज्झम कुंभे, आढगसयं उक्कोसए कुंभे, अट्ठसय आढय. उन्मान, 3 ओमान, 4 गाणतमान और 5 प्रतिमान // 2 // अहो भगवन् ! मान किसे कहते हैं ? अहे. शिष्य ! मान के दो प्रकार कहे है तद्यथा-धान्य के मान का प्रमाण और 2 रस के मानका प्रमाण // अहो भगवन् ! धान्य के मान का प्रमाण किसे कहते हैं ? अहो शिष्य धान्य के मानका प्रमाण सो दोनों हाथ की हथेलीयों मिलनेमे एक पसली हो. दोपसलीकी एकसेती * चार सेती एक कुबड, चार कुबड एक पात्याचार पाथा का एक अढक,चार अढक का एक द्रोण,साठ अढकका जघन्य कुंभ,अस्सी अढक का मध्यम कुंभ.सो अढक का उत्कृष्ठ कुंभ. एकसो आठ अढक का एक वाहो,अहो भगवन यह धान्य मान प्रमाण से क्या प्रयोजन है ? अहो शिष्य ! इस धान्य मान प्रमानकर-१ मुक्तोली-कोटी, 2 मुख-बडी कोठी, इदर___* यह मगध देशका मान कहते हैं. OPPREमाण ग विषय 8 8 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ 4 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक पानी + सती९ वही, पन्नमाण माणं किं पओयणं ? एतणं धन्नमाण पमाणेणं-- मुत्तोली, मुहब इड्डर, अलिंद, अयचारि, संसित्ताणं, धन्नमाणप्पमाणिवत्त लक्खणं भवति, से तं धन्नमाण पमाणे // 3 // से कि तं रसमाण पमाणे ?रसमाण प्पमाणे धन्नमाण प्पमाणाओ चउभागवि बड्डिए अभंतर सिहाजुत्ते रसमाण प्पमाणे विहिज्जति तंजहा-' चउसाट्टेया 4, 2 बचीससियं 8, 3 सोलसिया 16,4 अट्ठभाइया 32, चर गाडीपर रखने की कोठी. 4 अलिन्दगंधीपर धासो चिनेकी कोठी, 5 अपचारी कडा धान्य का कोठार सब धान्य भरने के बरतनादि तथा धान्य मापनेके भाजन में का परिज्ञान इस से होता है. यह धान्य मान प्रमान हवा // 3 // अहो भगवन् ! रसमान प्रमान किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! रसमान में प्रमान सो इस धान्यपान प्रमाण से चार भाग अधिक और आभ्यंन्तर शिखामुक्त क्यों कि धान्य के जेसी रसकी शिखा नहीं चरती है. इस लिये इसे रसमान काना. तद्यथा-एक माणीका चौसठवा भाग शरपल प्रयाण सो चोसठी.या, एकमाणी के बत्तीस विभाग आटपल प्रमाण सो बत्तीसीया, एक माणी का सोलवा भाग वह सोलसिया, एकमाणी का आटवाभ.ग अठभइया, एकमाणी का / For Private and Personal Use Only प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायनी घालाप्रसादनी
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न 187 भाइया 64, 6 अहमाणी 128, 7 माणी 256. दो चउसट्रियाओ. स. माणाउ बीसिया // 1 // दो बत्तीसियाउ, सोलसियाउ, दोलोलसियाओ. मानिया, दो अट्रभागिया, चउभागिया, दो चउभागीयाउ, अद्धमाणी दो अडी , माणी || एएणं रसमाण प्रमाणं किं पऔषणं ? एएणं रममाण माणेगा-१ धारक 2 घडक, 3 करक, कलस, 5 ककरि, 6 दइय,७करोडिय ८ऋडिय;९सित्ताणं रसाणं. रसमाण पमाणं निवत्ति लवखणं भवति।सेतरसमाण 1 प्रमाणे से तंमाणे ॥४॥से किं तं उम्माणे ! जणं उमिणिजइ तंजहः-१ 484284887 प्रमाण विषय 8-40+ अर्थ -48एकाशप-बनयोगद्वार -चतुर्य चौथा भाग प्रमाण वह चरभाइया. आधीमाणी सो अधपा, और 256 पलवी एक पीमाणी. चार पलपण चौसीमा, वैसे दो चौसठीया. चार पत्र प्रमाण पत्रीसीया, दो बत्तीसीया का सोलसिना दो लोलसीयाका अठभागीया. दो अठभागीया का चभागीया, दो चउभागीया की आधोयाणी दो श्राधीमाणी, की पूरीमणी. // अहो भगवन् इस प्रमाण का प्रयोजन है ? अहो शिष्य इस रस प्रमाण से , पहा. घडा. 2 छोठा कंभ. 3 गागर. 4 कलश. 5 दीवडी-वत्थी. 6 कगेडिय. 7 इंडी. 8 संस्तिक-पली. शार चमचा रसमान प्रमान से इन का निवृति लक्षण प्रमाण होता है. यह रस मान प्रमाण दुवा // और यह मान भी हुवा // 4 // अहो भगवन ! उन्मान किसे कहते हैं? ओ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit 188 अद्ध करिसे।. 2 करिसो.३ अहपलं, 4 पलं, 5 अह तुला, 6 तुला, 7 अह भारो, 8 भारो,॥ १दो अद्ध करिसो करिसो 2 दो करिसो अड. पलं, 3 दो अहपलाइ पलं, 4 पंच पल मइया तुलं, 5 दसतुलाओ अद्वभारो, 6 बीसतुलाओ भारो // एएणं उम्माण प्पमाणेणं के पओयणं ? तेणं एएणं उम्माणप्पमाणेणं पत्ता गुरु तरगचोय कुंकुम,खंड.गुल,मछंडि आदीणं दव्याणं उम्भाणप्पमाण निवत्ति लक्खण भवति / / सेतं उम्माण // 5 // से किंतं ओमाणे ? ओमाणे ! जणं अथ अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्रीजमालक ऋषिजी शिष्य ! उन्मान सो जो उन्मानकर निनस्व रूपपने स्थापन करे सो तद्यथा-१ पल्यका आठवा भाग अर्ध कर्षा. 2 पल्यका चौथा भागकर्ष, 3 आधापल्य, 4 पल्य, साही वावन पलकी अर्ध तुला, तुला, 11050 पलका आधाभार, 2100 पल्य का पूर्ण भार, दो अर्धकी का. एक कर्ष, दो कर्ष अर्ध पला, दोआधे पल का पल, 105 पल एक तुला, पांव अर्थ तुला सो साढी बावन , पल, दश तुला आधाभार 1850 पल, बीसतुला एकभार // अहो भगव ! इस उन्मान से क्या प्रयोजन है ? अहो शिष्य ! उन्मान प्रमान कर तमाल पत्रादि पत्र, अगर, तार, चूवा. कुंकम, खांड ( सक्कर ) मच्छंडी (मिश्री) आदि द्रव्य का उन्मान प्रमान का निवृत्ति लक्षण होता है। यह उन्मान प्रमान हुवा. // 5 // अहो भगवन् ! उन्मान किसे कहते हैं ? अहो शिप्य : जिस का प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी चालापवादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्र 189 ओमिणिजइ तंजहा-हत्थेणवा, दंडेणवा, धणुकेणघा, जुगेवा, नालियाएवा, अखणवा, मुसलेणवा, ( गाहा ) दंड धणु जुग नालियाय, अखमुसलं च,।। चउत्थं, दस नालियंच, रज्जु बियाणतो माणसणाए // 1 // वत्थुमि हत्थमेजं, खि ते दंडं धणुं च पत्थमि // खीय च नालियाए, वियाणतो माणसणाए / / 2 / / एएणं ओमाणप्पमाणेणं कि पओयणं ? एएणं ओमाणप्पमागेणं खायाचय करगचित्त कड खाइ प्रमुख भूमी का माप किया तद्यथा- हाथकर, चार हाथ के दंडकर, इतना ही धनुष्य कर, जुग|धूसरे कर, नाली कर, आखे कर मुशल कर यह दंड-धनुष्य जुग नाली अक्ष मुशल चार हाथ के हों ऐसे दश नाली की रज्जु ( रस्सी) यह मानोन्मान की सम्पदा जानना- घर की भूमीका में हाथ काम माप जानना. खेत की भूमिका में दंड का माप जानना. पंथकी भूमिका में धनुष्य का मपान जानना, कृपादि में नाली का मान जानना. यों युगादि का भी जानना. अहो भगवन् ! इस ओमान प्रमान से क्या प्रयोजन है ? अहो शिष्य ! इस ओमान प्रमान कर कूप खाइ आवास में कात्र घर वांसकडा अर्थ एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूस 488.प्रमाण का विषय Page x यह सब चार हाथ प्रमाने जानना. परंतु सब अलग 2 वस्तु के मापन में आते है इसलिये इन के यहां अलग 2 नाम कहे हैं. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादकबालियमचा मुनि श्री अमोलक ऋषिमी। पडनाव परिरसव संसित्ताण दव्वागं ओमाणप्पमाण निवत्तलक्षणं भवति // सेतं आमाणे // 6 // से किंतं गाणमे ? ! जणं गणिजइ-एगो, दस, सयं सहस्स दससहस्साई, सयसहस्सा, दसमयसहस्साई, कोडी, // एते गणिम प्पमाणेणं किं पओयणं ?एएणं गणिमप्पमाणेणं भयंग भित्ति भत्तबयण, आयन्वयं संसियाणं दवाणं गणिम पमाण निवत्त लक्खणं भवति, से तं गणिमे।। 7 // से किं तं पडिमाणे ? पडिमाणे ! जण्णं पडियिजति तंजहा-गुंजा, कांगणी, निप्फावो, प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी ज्वालापसादमी वख भीत कोटादि का प्रमाण की निवृत्ति होती है यह ओमान प्रमाण हुवा // 6 // अहो मगरन् ! गणित प्रमाण किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! गणित प्रमाण सो-जिस की संख्या गिनती कीमा यया-एक दश, सौ. हजार. दश हजार. लाख. दशलारब. क्रोड, इत्यादि / अहो भावान ! इस गणित प्रमाण से क्या प्रयोजन है ? अहो शिष्य ! इस गणित प्रपाण कर काम करने वाला भृत्य नौकर को भोजन देकर रखे तथा रूपयादि देक ररखे जिनकी पगारका प्रमाण तथा आश्व्याय का निवृति लक्षण होता है / यह गणित द्रव्य का माण हुवा / / 7 // अहो भगवन् / प्रतिपान प्रमाण किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ? पडिमान प्रमाण सोमवणादि वस्तु का उस के प्रतिरूप वस्तुसे उस का पमान किया जावे For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - कम्ममासओ, मंडलओ, सुवण्णो, // पंचगुंजाओ, कम्ममासओ, चत्तारि कांगाणाओ कम्ममासओ, तिगि निःफावा कम्ममासओ, एवं चउको कम्भमास ओ, वारस कम्ममास्या मंडलओ, एवं अडयालीसाओ, कागणीओ, मडलआ, सोलस कम्म मासया सवण्णो, एवं चउसट्रि कागणीउ सवण्णी, एएणं पडिमाण पमाणेणं किं पउयणं ? एएणं षडिमाण प्पमाणेणं सुवण्ण रजत मणि मोत्तिय संख सिलप्पवाला दीण दवाणं डिमाण पमाण निवत्त लक्खग भवति, से तं पडिमाणे // से तं विभाग निष्फन्न // से तं दबष्यमाणे // 8 // से किं तं खत्तप्पमाणे? खेत. अर्थ | सो प्रतिमान प्रमाण कहिये तयथा-गंजा (चिरमी) सवागुंजा की कांगनी,निफाव, तीन निफाव का एक मासा, बारेमासा एक मंडलिक. सोले कर्भ मासा, चार कांगनी एकमामा तीन निफाव, एक कर्म मासा, चार कागुनी से निष्पन्न चत कर्म मासा, का बारे कर्म मासा एक मंडलक, यों अडतालीस कागुनी का एक मंडलक जानना, सोले कर्म मासा का एक सौनइया. चौसठ कांगुनी का एक सानैना. अहो. भगवन् ! इस प्रतिमान प्रपाण से क्या प्रयोजन है ? अहो शिष्य इस प्रतिमान प्रभाकर सुवर्ण. चान्दी, Sto माण. मोती शंख दक्षिणावर्त) सिल्ल. प्रवाल, आदि द्रव्य का प्रमाण रूप निवाति लक्षण होता है. यह प्रतिमान प्रान हुवा / / और यह विभाग निभाग भीहवा / और यह द्रव्य प्रमान भी हुवा // 8 // T एकत्रिंशत्तब-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल. 2008 प्रमाण का विषय 428420 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्पमाणे ! दुविहे पण्णत्ते तंजहा-पदेस निप्फन्नेय विभाग निप्फन्नेय // 9 // से किं तं पदेस निप्फन्ने ? पदेस निप्फन्ने ! एगपदेसोगाढे, दुपएसोगाटे, तिपएसोगाढे, संखिज्ज पएसोगाटे, असंखिज एएसोगाढे, से तं पदेस निप्फन्ने // 10 // से किं तं विभाग निप्फन्ने? विभाग निप्फन्ने ! (गाहा) अंगुल विहत्थी रयणी कुत्थि, धणु गाउयंच बोधव्वे // जोयण सेढी पयरं लोग मलोगे विय तहेव // 11 // से किं तं अंगुले ? अंगुले तिविहे पण्णत्ते तंजहा-आयंगुलं, उस्सेहंगुले, पमाणंगुले॥ अहो भगवन् क्षेत्र प्रमाण किसे कहते हैं? अहो शिष्य क्षेत्र प्रमाण दो प्रकार कहे हैं. तद्यथा-१ प्रदेश निप्पन्न और 2 विभाग निष्पन्न // 9 // अहो भगवन् ! प्रदेश निष्पन्न क्षेत्र प्रमाण किस को कहते हैं ? अहो, शिष्य ! प्रदेश निप्पन्न क्षेत्र प्रमान सो एक प्रदेशावगाही दो प्रदेशावगाही तीन प्रदेशावगाही यावत् ॐ संख्यात प्रदेशावगाही असंख्यात प्रदेशावगाही पुढलों का प्रदेश निष्पन्न कहना. // 10 // अहो भगवन् ! विभाग निष्पन्न क्षेत्र प्रमान किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! निभाग विपन्न क्षेत्र प्रमान, सो-अंगुल. * विहस्ति (वेत ) हाथ, कुच्छी, धनुष्य, गाउ, योजन, श्रेणि, प्रतर, लोक, अलोक. जानना. // 1 अहो भगवन् ! अंगल किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! अंगुल तीन प्रकार के कहे हैं तद्यथा 11 अनुवादक बालब्रह्मवारि मुनि श्री मख *प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकात्रंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल // 12 // से किं तं आयंगुले ? आयंगुले ! जेणं अया माणुस्सा भवति तेसिणं तया अप्पणो अंगुलेणं दुवालसंगुलाई मुहं, नवमुहाई पुरिले ८५माणं जुत्ते भवति, दो माणिए पुरिसे माणजुत्ते भवति,अद्धभा तुलमाणे पुरिले उम्भाणजुत्ते भवती (गाहा) माणुम्माण प्पमाणजुसा लक्षणं बंजण गुणेहिं उववेया // उत्तम कुलपसुया, उत्तम पुरिसा मुणेयव्वा // 1 // होलिपुण अहियं पुरिसा अट्ठसयं अंगुल! ओक्ट्ठिा आत्मांगुल, 2 उत्सेधांगुल, 3 प्रमाण अंगुल // 12 // अहो भगवन् ! आत्मांगुल किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! आत्मांशुल सो जो भरत क्षेत्र के मनुष्य जिस काल जिस आरे में जितने वढे होवें उन " मनुष्यों का उस काल में अपना 2 जितना अंगुल होवे उस अंगुल से उन का मुख बारा अंगुल का होता है. और नव मुख जितना (108 अंगुल ) पुरुष शरीर का प्रमाण होता है. अब पुरुष का द्रोणमान युक्तपना कहते हैं-पुरुष प्रमाण कूडी पानी से भरकर उस में पुरुष बैठे बाद उस में द्रोण प्रमाने पानी बाहिर निकले उसे द्रोणमान द्रव्य मान कहना. (4 अहक की एक द्रोण होती है ) अब. तोलने का कहते हैं-आधे भार तोल में जो मनुष्य हों उसे प्रमाणुपेत मनुष्य कहना. इस प्रकार माम उन्मानप्रमाग 4 0 युक्त उत्तम पुरुष स्वस्तिकादि लक्षण मश तिटकादिव्यंजन क्षमादानादिगुण कर उपपेत उग्र भोगादि रत्तम * कुलोत्पन्न हो उसे उत्तम पुरुष जानना॥॥१०८ अंगुल प्रमाण शरीर होवे वह उत्तम पुरुष 86 अंगल प्रमान शरीर / - प्रमाण विषय 4860048 Re For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्र ॐ अर्थ मनकादक बाल ब्रह्मचारी पनि श्री अमंलक ऋषिजी // छण्णउइ अहम पुरिसा, चउरुत्तरं माझमल्लाउ // 3 // हीणावा अहियावा, जे खलुसर सत्तसापरिहोणा ते उत्तम पुरिणं अवसाण पेसत्तण मुवति // 3 // एष्णं अंगुल पमाणेणं छ अंगलाईपाउ. दोपया विहत्थी, दो विहस्थीउ रयणी, दो रयणीउ कुत्थी. दो कुत्थीउ दंडं- धणु-जुगे-मालिया-अक्ख-मुसले, दो धणुसहस्साई गाउय, चत्तारि गाउयाई जोयणं, एएणं आयंगुलेणं किं हो सो अधम पुरुष. 105 अंगुल का शरीर से सो मध्यम पुरुष तथा 1.8 अंमुल से तीन तथा अधिक जो पुरुष हो परंतु आदेय वचनबंत. सत्व धैर्यवंत रूपादि सार युक्त मनता रहित हो उसे मी पक्षम पुरुष जानना. वह स्ववश नहीं रहता अन्य की भाला में पायाला सेवक पना परचा है. इस प्रकार के अंगुल प्रमान करके 6 चंगुल का / पाँव, 2 पाँच की पोलस्ती, दो विहस्ती काय, 2 हाथ की हुच्छो. 2 कुच्छी का दंड-धनुष्य-युग-नासिका-अक्ष मुशल हे ता है. 20 * धनुष्य का गाठ, .. गाउ का योजन. अहो भगवन् ! इस पर का क्या प्रयोजन बै! दो शिष्य: इप आत्मांगल: का जिस वक्त जो मनुष्य होते हैं उस वक्त उर धनयों के आत्मांगुल कर के कुदा तलाव, इड, नदी, बावरी. पुष्करनी, नेहर, गुनाली, तलाव. ताब की पंक्ति दिलों की पक्ति, जपान नंगल, बम, बीके बनराजी, देवालय, सभा, पानी कीप्रपा, स्थुभ, खाइ, नगर के फिरतो खाइ, कोट यहक, रास्ता नगर .२का प्रक-राजाबहादुर कालामुखदेवमहायजी मालापसादरी. ! - For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4 195 एकत्रिंशसम अनुयागद्वारसूत्र-चतुर्थ मूल पयोयणं ? एएणं आयंगुलेणं जेणं जया माणुस्सा हवंती, तेसिगं तया आयंगुलेणं अगह तलाग दहण बावी पुक्खरणी दीहिया गुजालिया, सर, सरसरतीयाओ, विलपतियाओ, उजाणं काणणं, बणवणसंडं वणरातीओ, सभा का थूभा, खाइया, फरिहाओ, पागार, अहलयं, चरिय, दार, गोपुर,पासाय, घर तोरण, लेण, आवणा, सिंघाडग, तिगचउक्क, चच्चर, चउपह,महाप्पह,पह,सगड, रह जाण जुग गिल्लि थिलि, सिविय संदमाणियाओ लोड़ी लोह कडाह कडिलय भंड मनोवगरण मादीणी अज कालियाइंच जायणाई मविति // से समासतो द्वार, प्रसाद, घर, तोरण, पर्वत की लेन, कान, त्रिपंथ. चौपंथ, बहत पंथ. महापंच, गाडी, रथ, मंत्री, , जुग, ऊंट की गिल्ली.हामी की अंबडी, शिविका, पालखी, लोहा. लोह की कडाइ, कडाव. मंडोपकरण इत्यादि का प्रमाण जिस काल में जो मनुष्य हो उन के अंगुल से भोजन पर्यंत किया जाता है. यह E आत्मा अंगुल नीन प्रकार का कहा है. तद्यथा-१ सुची अंगठ, . प्रतर गल और 3 घनामुल, असत्य कल्पना से तीन अंगुल लम्बी एक आकाश प्रदेश की चौडी श्रेणि को सूबी अंगुल काना. मुनी अंगुल को सुची अंगुल से गुना करे अर्थात् 3+3=32. अंगुल की श्रेणि सो प्रतर अंगुल. प्रतर +को मूह से गुनाकार करे अर्थात् 1+1327 अंगुल प्रमान श्रेणि सो घनांगुल, यह 349%D27 तो। 48+ नाम प्रमाण 488428+ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋापजी. तिविहे पण्णचं तंजहां-सूई अंगुलं, ६पंगुले / अंगुलाय तीसढी, सूइअंगुले, सूती सतीए गणिता पतरंगल, 9 पत्तरसईए गणितं घणंगलं 27. // एएसिणं सईअंगल पतरंगुल वणअगुलाणं कयरे 2 हिंतों अप्पावा बहुआवा तुल्लिआवा विसेसाहियावा ? सव्वथोये सूईयअंगुले पयरंगुले असंखेज्वगुणे,सेतं धणंगुले असंखिज्जगुणे आयंगुलं // 13 से किं तं उस्सेदानुल तरसेह अंगुले अणेगविहे पण्णस्त तंजहा ( गाह! ) परममाणु. सरेणु, 3 रहहेणु, 4 अग्गयं च बालस्स, 5 लिक्खा , 6 जुया य, 7 जवो, अट्ठ. B'असत्य कल्पना से फक्त समजाने के लिये कहा है परंतु तीनों असंख्यात 2 प्रदेश की श्रेणि जानना. अहो भगवन् ! सुची अंगल प्रतर अंगल घन अंगुल में कौन २किस से थोडा ज्यादा तुल्य विशेष हैं ? अहो शिष्य ! सब से थोडा सुची अंगुल, उस से प्रतर अंगुल असंख्यात गुना, उस से घनअंगुल असंख्यात गुना, यह आत्म अंगल जानना. // 13 // अहो भगवन् ! उत्सेध अंगुल किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! उत्सेध अंगल सो परमाण 2 बृद्धि करते जो निष्पन्न होवे उसे कहते हैं. इस के अनेक प्रकार कहे हैं. तबथा-परमाणु, त्रसरेणु, रथरेणु, बाल, भाग सीख.यूका,यव, इन सब को अनुक्रम से आठ 2 गुने अधिक करना. इस का खलासा कहते हैं. अहो भगवन् ! परमाणु किसे कहते हैं ? हो शिष्य ! परमाण दो प्रकार के कहे हैं. तद्यथा-१ सूक्ष्म परमाणु और 2 व्यवहारिक परमाणु. प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी * अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकत्रिंशत्तम्-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुथल गुण विधड्रिया कनसे। // 1 // से किं तं परमाणु? परमाणु दुविहे पण्णत्ते तंजहा-- महोप, ववहारिरय // तत्थणं जे से सुहुमे से टप्पे तत्थणं जे से ववहारिए सेणं अणतागं सहम परमाणु पोग्गलाणं समुदय समिति समागमेणं ववहारिए परमाणु पागले नि फजति, सेणं भंते ! असिधारंवा, खुरधारंवा उगाहेजा ? हंता उगाहे जा, तीसेणं तत्थ छिज जवा ? नो इणटे समढे, नो खलु तत्थ सत्थ कमति सेण भंते ! अगणिकायस्स मञ्झंमज्झेणं बीतीवएजा ? हंता वीतीवएज्जा, सेणं तत्थ उज्झेजा नो इणटे समढे, नो खलु तत्थ सत्थ कमति, सेणं भंते ! पक्खरवहस्स महामेहस्स मज्झं मझेणं बीतीवएज्जा ? हंता वीतिवएज्जा है इस से तो सूक्ष्म परमाण है उस का वर्णन तो यहां ही रहने देना. और जो व्यवहारिक परमाणु है। ऐसे अनंत सूक्ष्म परमाणु के समागम से एक व्यवहार परमाणु होता है. अहो भगवन् ! वर परमाणु पुद्गल तग्वार की धार से, उस्तरे की धार से भी छदित होता है क्या ? अहो गौतम ! यह अर्थ युक्त नीं अर्थात् उस के दो खण्ड नहीं होते हैं. उस पर किसी भी प्रकार का तीक्ष्ण शस्त्र विचिन मात्र भी असर नहीं कर सकता है. अहो भगवन! यह व्यवहार परमाण अग्नि काय के मध्य मध्य में होकर चला जाना हैं क्या? हां शिष्य ! चला जाता. अहो भगवन् ! वह परमाणु अग्नि काय में से, जाता हुवा तहां जलता हैं क्या? अहो शिष्य ! यह अर्थ समर्थ नहीं अर्थात् अग्नि उसे जला नहीं सकता है. अहो मगरन ! वह परमाण पुष्कगवर्तमहा मेघ के मध्य 2 में होकर चला जाता है क्या ? 488% 48 प्रमाण विषय 8 80 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 198 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + अर्थ सेणं तत्थ उहओलि लिया ? णो इणटे समटे णो खलु तत्थ सस्थ कमति, सेणं भंते ! गंगाए महाणदी पडिसोयं हव्वमागच्छेदा ? हंता हव्यमागच्छेजा सेणं तत्थ विणिघ तंमावजेज्जा ? नो इणटे समटे णो खलु तत्थ सत्थ कमति, सेणं भंते / उदगावतंवा उदगविंदवा उगाहेजा ? हंता उगाजा ? सेणं तत्थ कुच्छेजवा, परिआवजेजवा ? णो इणटे समटे णो खलु तत्थ सत्थ कमति // (गाहा ) सत्थेण सुतिक्खणवि, छेत्तुं भेत्तुं च जं कीरइ न सका ॥तं परमाणु सिद्धावयंति,आदि / हा शिष्य चला माता हो शिष्य चा माता हैं. अहो भगवन् ! वह वहां मेघ में से जाता हुषा पानी से भीजता है क्या ? अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है. अहो भगवन् ! वह परमाणू गंगा नदी के प्रतिश्रोत में (प्रवाह में ) शीघ्रता से जाता है क्या ? हां शिष्य शिघ्रता से जाता है. अहो भगवन् ! वह परमाणु गंगा नदी के प्रवाह में से जाता हुवा घाव को प्राप्त होता है क्या? अहो शिष्य ! यह अर्थ समर्थ. नहीं. उसे पानो का शस्त्र मी परिममता नहीं है. अहो भगवन् ! वह व्यवहार परमाणू बहुत पानी भरा हो उस में रहता है क्या? हां गौतम ! रहता है. अहो भगतन् !! है वह परमाणु पानी में रहता हु सडता है गलता है क्या ? अहो शिष्प यह अर्थ स्पर्य नहीं हैं. अर्थात गलता सडता नहीं हैं. मतलब की किसी भी प्रकार का शव उस का छेदन भेदन गलन *यकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 38+ एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल प्पमाणेणं ॥१॥अणंत ववहारिअ परमाणु पोग्गलाणं समुदय समिति समागमेणं साएगा उसण्ह साहि माइका सह सहाव उट्टरेणाति वा, तसोणुति वा. रेहेरणुति वा, अट्ठ उसण्ह सण्हियाओ सा एगा सहसण्हिया, अट्ठ सहसाण्हयाउ सा एमा उड्डरेणु, अट्ठ उड्रेणुओ सा एग्ग तसरेणु अट्ठ तसरेणुउ सा एगा रहरेण अङ्क रहरणुओ देवकुरु उत्तरकुरुआणं मणुयाणं से एगेवालग्गे, अट्ठ देवकुरु उत्तरकरुणं मणुयाणं वालग्ग हरिवास रम्मगवासाणं मणुयाणं से एगे वालग्गे, अटु हरिवास रम्मग वासाणं मणुस्साणं बालग्ग हेमवंत हेरणवंताणं मणुस्साणं से एगेवालग्गे, अट्ठ सडत करने समर्थ नहीं होता है. उसे ही परमाणु पुद्गल केवली भगवान ने शास्त्र में उसेध अंगुल की प्रमाण की आदि में कहा है, ऐसे अनंत व्यवहारिक परमाणु पुहुल का समुदाय सभागम होने से एक शीत श्रेणि (शरदी) का पुल ोता हैं आठ शीत श्रेणिक पुद्गल के समागमसे एक नई रेणु (तरवले में देखावे सो) होती हैं, आठ उर्वरणु तिनी एक अम्ररेण [त्रसजीव चलने से उडेसो होती है. आठ प्रसरेण के सभागमसे एक स्थरणु ( रथचलने उडेसो) होती हैं आठ स्थाणु के * समागमजितना बड़ा एक उत्तरकुरु देव कुरु क्षेत्र के अनुप्पों का बाजार होता है. 27 आठ देव कुरु उतर कुरु के क्षेत्र के मनुष्य के बागान जितना जाडा एक हरी बास रम्मक वास क्षेत्र के मनुष्य का बालन होता है. आठ हरीवास रम्पकबाप्त मनुष्य कोश 48 +8+ नाम विषय For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हेमवंत हेरणवताणं मणुस्साणं वालेया पुवविदेह अवरविदेहाणं मणुस्साणं सेएगे वालग्गे, अट्ठ पुत्वविदह अवरबिदेहाणं मणुस्साणं वालग्ग भरहेरवयाणं मणुस्साणं से एगे वालगे, अटु भरहेरवयाणं मणुस्साणं वालग्ग सा एगा लिक्खा, अट्ठ लिक्खाओ सा एगाजया, अट्ठ जूयाओ सा एगे जवमझे, अट्ठ जवमज्झा से एगे अंगुले; एएणं अंगुल पमाणेणं छ अंगुलाई पादो, बार अंगुलाइ विहत्थी, च उवीस अंगुलाइ रपणी, अडयालीस अंगुलाइ कुच्छी, छण्ण उइ अंगुलाइ से एगे दंडेइवा-धणुइया-जुगेइवा-नालियाइवा-अखेतिवा-मुसलतिवा, एएणं धणु * अनुवादक पाल ब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक ऋषिजी *मनाशक राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी-ज्वालाप्रसादजे अर्थ का वालाग्रजितना जाडा एक हेमवय एरण्यवय मनुष्यका वालाग्र होता है. पाठ हेमवय हेरणःय मनुष्य के चालान जितना जाडाएक पूर्व महाविदेह पश्चिम महाविदेश क्षेत्रके मनुष्यका वालाग्र होता है. पूर्व महाविदेह पश्चिम महा (विदेह क्षेत्र के मनुष्य के आठ वालाग्र जितना जाडा एक भरत ऐरावत क्षेत्र का मनुष्य के बालग्र होता है. भरतैरावत क्षेत्र के मनुष्य के बालाग्र जितनी माडी एकलीख, आठ लीख जितनी जाडी एक यूंका, आठ यूका जितना जाडा एक यव मध्य. आठ यवमध्य जितना बडा एक उत्सेध अंगुल होता है. इस उत्सधे अंगल के प्रमाणे से छ अंगुल का पाद. 12 अंगुल की विहत्थी,२४ अंगल हाथ,४८ अंगुल की ॐ कुच्छी, 96 अंगुल का दंड-धनुष्न-युग-नाला-आखा-मूशल होता है. इस धनुष्य से 2000 धनुष्य का For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 201 अर्थ एकत्रिंशतम-अनुयोगद्वार मन्त्र चतुर्थ मूल 8484881 माण विषय प्पमाणं दो धणु सहस्साई गाउयं च तारि गाउयाइं जोयणं // एएणं उस्सेहंगुले किं पयोणं ? एएणं उस्सेहंगुलेणं नेरइय तिरिक्खजोणिय मणुस्स देवाणं सरी रोगाहणामविनंति // 14 // णेरइयाणं भंते! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता तंजहा-भवधारणिज्जाय, उत्तरवेउब्वियाय तस्थणं जामा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं, उक्कोसेणं पंचधणु सयाइं, तत्थणं जामा उत्तर वेउविया सा जहन्नणं अंगलस्स संखजति भागं उक्कोसेणं थणुसहस्सं,रयणप्पभा पुढवी नेरइयाणं भंते! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णता?गोयमा! दुविहां पण्णत्ता तंजहा-भवधारणिज्जा उत्तर वेउम्विया, तत्थ जा सा भवधाराणिज्जा सा माऊ (कोस ) चार कोस का योजन. अहो भगवन् ! इस उत्सेध अंगुल का क्या प्रयोजन है.? अहो शिष्य ! इस उत्सेध अंगल से नरक तिर्यंच मनुष्य देवता की शरीर की अवगाहना का माप किया जाता है // 14 // अहो भगवन् ! नार की के नेरीये के शरीर की कितनी बडी अवगाहना है ? अहो गौतम ! नेरीये के शरीर दो प्रकार के होते हैं, तद्यथा-जन्मसे हो वह भवधारणिय शरीर और वैक्रय भूल बनावे बह चक्रेय शरीर. इस में जो भवधारणिय शरीर है उस की अवगाहना जघन्य * अंगुल के | असं त्यातवे भाग की उत्पन्न हो ते समय, उत्कृष्ट पांच सो धनुष्य की सातवी करक की अपेक्षा. gog For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक अपिली जहन्नण अंगुलस्स असंखेजति भागं उक्कोसणं सत्तधणुइं तिणिरयणी छञ्च अंगुलाई, तस्थणं जासा उत्तरवेउन्विया सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेजइ भाग उक्कोसणं पण्णरस. धणुइ, अढग्इज्जाउरयणीउ, सकरप्पभाए पुढवीए नेरक्याणं भंते! के महालिया सरीरो गाहणा पण्णत्ता ?गोयमा विहे पण्णत्ता तंजहा-भवधारणिजाय उत्तर वेउवियाय, तत्थणं जासा भबधारणिजा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखजति मा उक्कोसणं पणर सेणं घणुयाई अढाइजाउरयणीउ, तत्थणं जा सा उत्तर देउब्धिगा सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेजति मागं उक्कोसेणं एकतीसंधणुइं एगरयणीय / वालुप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा और जो उत्तर वैक्रय शरीर बनाते हैं उस की अवगाहना-जघन्य अंगुल के संख्यातवे भाग ( कृत्रि इतना ही होता है) उत्कृष्ट एक हजार धनुष्य की. अहो भगवन् ! रल प्रभा नरक रीये के शरीर की कितनी बडी अवगाहना है ? अहो शिष्य !दो प्रकार की अचमाहना कही है तद्यथा-मषारणिय शरीर की और उत्तर वैकेय शरीर की. इस में मवधारणिय शरीर की. नघन्य अंगुलके असंख्यात भाग की. उत्कृष्ट सात धनुष्य तीनहाय छअंगुल की, तहां को उत्तर वैक्रय की जघन्य अंगुलके असंख्यातये भाग की उत्कृष्ट पंदरा धनुष्य अदाइ राय की प्रकाशक-राजाराराला सुखदेवसाहत्यमी ज्वालापसावी. अर्थ अनुवादक For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पण्णत्ता तंजहा-भव धारणिजाय, उत्तर वेउवियाय तत्थर्ण आ सा भवधारणिया सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजति भागं, उक्कोसणं एकतीसं धइं. एगारयणाय, तत्थणं जा सा उत्तर वंउब्विया सा जहन्नगं जगलस्त संखेजति भागं, उक्कोसेणं वासविधणुयाइं. दो रयणीउय // एवं सव्वासि पुढ पुच्छा भाणियब्वा पंकप्पभाए भवधारणिज्जा जहम्मेणं अंगुलस्स असंखेजतिभाग, उक्कोसेणं वासाटुधणुइं, दोग्यणांउप. उत्तर वेउब्विया जहमेणं अंगुलरस संखेजहभागं उमोसेणं पणवीस धगुपय; धूमप्पभाए भवधारभिजा जहन्ने अंगुलस्म असंखजति मागं, उक्कोसणं पावीस धणुसयं, उत्तर वेउव्विया जहलेणं सखेजह भागं उक्कोसणं अट्टाहबाइ मोत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्य ऐसे ही प्रश्नात्तर आगे भी जानना. शर्करममा नरक की भवधारणिय शरीर की अपाय गुलके असंख्यात भाग. उत्कृष्ट प्रदरण धनुष्य अढाइहाथ की, उत्तर वैक्रय शरीर की अपन्य अंगुक के संख्यात वे भाग उत्कृष्ट ए तीस धनुष्य एक हाथ की, लुधमा पृथ्वी में भव धारणिय शरीर की जघन्य अंगुल के अख्यावचे भाग उत्कृष्ट सबी एकतीस धनुष्य की. उत्तर वैक्रय शरीर की जघन्य अंगुल संख्यात भाग उत्कृष्ट साही वोसठ धनुष्य की, पकममा भरक के नरी के भव धारषिप शरीर की अषम्य अंगुल के असंख्यातचे माग, उत्कृष्ट साडी बांसट पनुष्य की, उच्चर वैक्रय शरीर को अचन्य अंगुल के संख्यात For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्र | 4. अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋाप धणुसयाई, तमाए भवधारणिज्जा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजति. भागं, उक्कोसेणं अड्डाइजाइ धणुसयाई // तमाए भवधारणिज्जा अहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजति भार्ग उक्कोसण अढाइजार धणुलयाई, उत्तर वेउविया-जहन्नणं अंगुलस्स असंखजइ भागं,उक्कोसणं पंचधणु सयाई / / तमतमाप्पभा पुढबीए नेरइयाणं भंते! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णसा तंजहा-भवधारणिजाय उत्तर वेउब्वियाय, तत्थणं जा सा भषधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइ भागं, उक्कोसेणं पंचधणुसयाई, तत्थणं जा सा उत्तर बेउब्धिया सा जहन्नेणं अंगुलस्स्स. प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सखदेवसहायजी-ज्वालापलादजी* अर्थ वे भाग उत्कृष्ट सवासो धनुष्य की. धूम्रप्रभा नरक के नेरीये की भव धारणिय शरीर की जघन्य अंगुल के असंख्यातवे भाग, उत्कृष्ट सवासो धनुष्य की, उत्तर वैक्रय शरीर की जघन्य अंगुल के संख्यात भाग उत्कुष्ट अढासो धनुष्य की. तमप्रभा नरक के नेरी के भव धारणिय शरीर की जघन्य अंगुल के असंख्यातवे भाग उत्कृष्ट अढाइसो धनुष्य की, उत्तर वैक्रय शरीर की जघन्य अंगूल के संख्यातवे भाग उत्कृष्ट पांचसो धनुष्य की. मतमा प्रभा नरक के नेरीये की अवधारणिय सरीर की * जघन्य अंगुल के असंख्यातवे, भाग उस्कृष्ट पांच सो धनुष्य की, उत्तर वैक्रय शरीर की जघन्य अंगुल For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 889 206 983 एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चर्तुथ मूल संखेजइभागं उक्कासणं धणुसहस्सं // 15 // असुर कुमाराणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! दविहा पण्णत्ता तंजहा-भवधाराणिज्जाय उत्तर वेउव्वियाय तत्थणं जासा भवधारणिजा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेणं सत्तरयणीउ, तत्थणं जासा उत्तरवेउव्विया सा जहन्नेणं अंगुल. रस संखेजति भागं, उक्कोसणं जोयण सय सहस्सं एवं असुरकुमारगमेणं थाय कुमाराणं ताव भाणियव्वं // 16 // पुढवि काइयाणं भंते ! के महालिया सरीरो गाहणा पत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसणवि अंगुलम्स असंखेजतिभागं एवं सुहुमाणं ओहियाणं अपजतगाणं पज्जतगाणं एवं जाव बादरवाउकाइयाणं 28 प्रमाणका विषय 48862 के संख्यातवे भाग उत्कृष्ट हजार धनष्य की // 15 // असर कमार जाति के देवता के भवधारणय शरीरकी जयन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवे भाग उत्कृष्ट सात हाथकी,उत्तर वैक्रय शरीरकी जघन्य 40 अंगुल के संरुपात भाग उत्कृष्ट एक लाख योजन की. इस प्रकार की य.बत् रानीत कुमार पर्यंत दों है। जाति के भुवनपति देवता के शरीर की अवगाहना जानना. // 16 // पृथ्वाकाया अप्काय 00 तेजप्तकाया और वायु काया. इन चार के सक्षम के पर्याप्त अपर्याप्त की और बादर के पर्याप्त अपय For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir aamanand अनुवादक बालब्रह्मचारि मुनि श्री अमोलख ऋषिजी पजत्तगाणं अपज्जत्तगाणं भाणियव्यं 5 वणस्सइ काइयाणं भंते ! के महीलया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेनतिभागं उक्कोसेणं सतिरेगं जोयण सहस्साणं सुहुम वणस्सइ काइयाणं उहियाणं अपज्जत्तगाणं पज्जत्तगाणं तिण्हंपि जहन्नणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं,उकोसणं वि अंगुलस्सअसंखेजति भागं वायर वणस्सइ काइयाणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखजति भागंउक्कोसणं सातिरेगं जोयण सहरसं॥१७॥ एवं बेइंदियाणं पुच्छा?गोयमा। जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजतिभाग उक्कोसणंविवारसजोयणाइं,अपजत्तगाणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखजतिभागं उक्कोसेणंवि अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, पजत्तगाणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजति भागं उक्कोसेणं बारस जोयणाई // तेइंदियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिशरार की अवगाहना जघन्य उत्कृष्ट अंगल के असंख्यातचे भाग की. वनस्पति की जघन्य अंगुल के असंख्यातबे भाग उत्कृष्ट एक हजार योजन की, मूक्ष्म वनस्पाते की अपर्याप्त पर्याप्त की जघन्य उस्कृष्ट / अवगाहना अंगुल के असंख्यातवे भाग की, बादर वनस्पति की जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग उत्कृष्ट एक हजार योजन की // 17 // बेन्द्रिय की जघन्य अंगुल के असंख्यातवे भाग उत्कृष्ट प्रकाशक राजावहादुर लामा मुखदेवसहायजी ज्वालापसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 408 48 एकत्रिंशत्तम-अनुयोगदार मूत्र-चतुर्थ पूल. 480 भागं उक्कोसेगं तिण्णिगाउयाई, अपजतगाणं जहन्नेणंवि उक्कोसेणंवि अंगुलस्स असंखजति भागं पज्जत्तगाण जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजति भागं उक्कोसेणं तिण्णिगाउयाइ // चरिंदियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखजतिभागं, उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई, अपज्जत्तगाणं जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अमुलस्स असंखज्जति भागं, पज्जत्तगाणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजति भागं उक्कोसणं चत्तारि गाउयाइं // 18 // पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजति भागं, उक्कोसेणं जोयण सहस्सं, जलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा ? मोयमा ! एवं चेव, समुच्छिम जलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा ? पारा योनन की. तेन्द्रिय की जघन्य अंगुल के असंख्यातः भाग उत्कृष्ट तीन गाउ की, चौरिन्द्रिय की 4 भयन्य अंगुल के असंख्थातवे भाग उत्कृष्ट चार गाऊ की. इन तीनों विक्लेन्द्रिय के अपर्याप्त जघन्य उत्कृष्ट अंगुल की असंख्यावे भाग की अवगाहना जानना. और पर्याप्त की समुच्चय जैसे जानना. // 18 // Aसमुबय तिर्यंच पंचेन्द्रिय की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवे भाग उत्कृष्ट हजार योजन की 0 इतनी ही समूचय जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय की अवगाहना जानना. समूच्छिम जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यच योनि की मी इतनी अवगाहना भानमा. अपर्यास समुच्छिम जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनी की जघन्य [1 अर्थ प्रमाण का विषय 4882-486 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + गोयमा ! एवं चेव, अपजचग समुच्छिम जलयर पंचिदिय तिरिक्ख जाणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेणंवि उकारणवि अंगुलरस असंखेजइ भाग, पजत्तग समुच्छिम जलयर पंचिंदियस्म पुच्छा ? गोयमा / जहणणेणं अंगुलस्स असंखेजति भागं उक्कोसेणं जोयण सहस्सं गम्भवतिय जलयर पंचिदियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं उक्कोसेणं जोयण सहस्सं अपज्जत्तग गब्भवतिय जलयर पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलरस असंखेजतिभागं उक्कोसेणंवि अंगु. लस्स असंखेजतिभागं पजत्तग गब्भवतिय जलयर पुच्छा ? गोयमा, जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जति भाग, उक्कोसेणं जोयण सहस्सं // च उप्पय थलयर पंचिंदिय में उत्कृष्ट अंगल के असंख्यातवे भाग. पर्याप्त समूच्छिम जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय की जघन्य अंगुल के असंख्यानवे भाग उत्कृष्ट हजार योजन की. गर्भज जन्मवर पंचेन्द्रिय तिर्यंच की जयन्य अंगुल के असंख्यातवे भाग उत्कृष्ट हजार योजन की, अपर्याप्त गर्भज जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय की जघन्य उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवे भाग. पर्याप्त गर्भज जलचर की जघन्य अंगुल के असंख्यातवे भाग उत्कृष्ट एक 1 हजार यो नन की. चतुष्पद थलचर पंचेन्द्रिय की जघन्य अंगुल के असंख्यातवे भाग उत्कृष्ट छ गाऊ * | प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसाद ना* अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir शत्तम-अनुयोगद्वार मुत्र-चतुर्थमूल - पुच्छा ! गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजति भागं उकोसणं छगाउयाइ समुच्छिम च उप्पय थलयर पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नणं अंगुलस्स असंज्जिइ भागं उदासणं गाउय पुहत्तं, अपज्जत्त समुच्छिम च उप्पय थलयर पुच्छ। ? गोयमा ! जहणेगंवि उक्कोलणंवि अंगुलस्स असंखेजति भागं पजत्त समुच्छिम चउप्पय थलयर पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगलस्स असंखेजति मागं उक्कोसेणं गाउय पहतं गब्भवतिय चउप्पय थलयर पच्छा ? गोयमा! जहन्नेणं अंगलस्स असंखेजति भागं उक्कोखणं छगाउयाई अपजत्तगगम्भवक्रांतिय चउप्पय थलयर पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसणंवि अंगुलस्स असंखेजति भागं पजत्त की. समूच्छिय चतुष्पद स्थलचर की जघन्य अंगल के असंख्यातो भाग. उत्कृष्ट गाऊ पृथक्व की(दो कोस से नव कोसत) अपयाप्त स मचतुष्पद स्थटचर की जघन्य उत्कृष्ट अंगल के असंख्यातवे भागकी. पर्याप्त संकिम स्थलचर की जयन्य अंगुल के असंख्यातये भाग उत्कृष्ट प्रत्येक गाउ की, गर्भज स्थलचरतियंच की जघन्य के संख्यालये भाग उत्कृष्ट छ गाउ की अपर्याप्त गर्भज चतपद स्थरचर की जघन्य उत्कृष्ट अंगल के असंख्यातवे भाग की. पर्याप्त गर्भज चतष्पद स्थलचर की जयन्य अंगुल के असंख्यात भाग, उत्कृष्ट छ गाऊक., उरफारेसर्प स्थल पर की जयन्य अंगुल के असंख्यातवे भाग उत्कृष्ट हजार 44843 प्रमाण का विषय प अर्थ एक र M P For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्रीअमोलक ऋषिनी गम्भवतिय चउप्पय थलयर पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलरस असंखजति भागं उक्कोसेणं छ गाउयाई // उरपरिसप्प थलयर पंचिंदिय पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेणं अगुलस्स असंखेन्जनि भागं उक्कोसेणं जोयण सहरसं, समुच्छिम उरपरिसप्प थलयर पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्त असंखेजति भागं उक्कोसेणं जोयण पुहुतं, अपज्जतग समुच्छिम उरपरिसप्प थलयर पुच्छा? गोयमा ! जहन्नेणं वि उक्कोसेणंवि अंगुलस्स असंखेजतिभागं पजत्तग समुच्छिम उरपरिसप्प थलयर पुच्छा ? गोयमा ! जहणेणं अंगुलस्स असंखेजति भागं उक्कोसेणं जोषण पुहुत्तं, गब्भवतिय उरपरिसप्प थलयर पुच्छा ? गोयमा ! जहोणं अंगुलस असंखे. योजन की. सचिम उरपरिसर्प की जघन्य अंगुल के असंख्यातवे भाग उत्कृष्ट पृथक्स्प योजन की. अपर्याप्त समूच्छिम उरपरि सर्प की जघन्य उत्कृष्ट पंगुल के असंख्यातबे भाग, पर्याप्त समूचिम उरपरिसर्प की जघन्य अंगुल के प्रख्यात भाग उत्कृष्ट पृथवस्व योजन, गर्भेज उरपरीसर्प की जघन्य अंगुल के असंख्यातवे भाग उत्कृष्ट हजार योजन की. अपर्याप्त गर्भज उरपरिसर्प की जघन्य उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवे भाग, पर्याप्त गर्भज उरपरिसर्प की जघन्य अंगुल के असंख्यातवे भाग उत्कृष्ट हजार योजन प्रकाशक-राजावासादुर लाळा मुखदेवसम्झयजी ज्वालामसादर्ज For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 48 p एकार्यशतम-अनुयोगद्वार मूत्र चतुर्य मूल जतिभागं. उनोसणं जोयण सहस्सं. अप्पजत गम्भवतिय उरपरिसप्प थलयर पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजति भागं, उक्कोसणंवि अंगुलस्स असंखेजति भाग, पजत्तग गन्भवतिय उरपरिसप्प थलयर पंचिंदिय पुच्छा ? गोयमा / जहन्नेणं अंगुलरस असंखेजतिभागं उक्कोसेणं जोयणसहस्सं // भुय परिसप्प थलयर पंचिंदिय पुच्छा ? गोयमा ! जहन्न अंगुलस्स असंखजात भाग, उक्कोसेणं गाउपहुत्तं, समुच्छिम भुयपरिसप्प थलयर पुच्छा? गोयमा ! ___ जहन्नं अंगुलस्स असंखजति भागं, उक्कोसेणं, धणु पुहत्तं; अपजत्तग समुच्छिम भुयपरिसप्ष थलयर पुच्छा ? गोयमा ! जहनेणं अंगुलस्स असंखेजति भागं उक्कोसेणंवि अंगुलस्स असंखेजति भागं, समुच्छिम भयपरिसप्प थलयर की. भजपरिसर्प थलचर की जघन्य अंगल के असंख्यातघे भाग उत्कृष्ट पृथक्त्व गाऊ की, संमूच्छिम भुजपरिसर्प की जघन्य अंगुल के असंख्यातवे भाग उत्कृष्ट धनुष्य पृथक्त्व की, अपर्याप्त समूछिम भुजपर सर्प की जघन्य उत्कृष्ठ अंगुल का असंख्यातवा भाग, पर्याप्त समूचिम भुजपर सर्प की जघन्य अंगुल के असंख्यातवे भाग उत्कृष्ट पृथक्त्व धनुष्य की. गर्भज भुजपर सर्प की जघन्य अंगुल के असंख्यातवे. भाग उत्कृष्ट गाऊ पृथक्त्व की, अपर्याप्त गर्भज भुजपर सर्प की जघन्य उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यात भाग, पर्याप्त गर्मज भुजपरिसर्प स्थलचर की जघन्य अंगुल के असंख्यातवे माग उत्कृष्ट पृथक्त गाऊ अर्थ/ प्रमाण का विषय 4848 488 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंग्वेजति भागं, उक्कोसेणं धणु पुहुतं, गम्भवकृतिय भयपरिसप्प थलयर पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्म असंखजति भागं उक्कोसण गाउ पुहुत्तं, अपजत्तग गब्भवतिय भुध परिसप्प थलयर पुच्छा ? गोयमा ! जहणणंवि उकोसेणंवि अंगुलस्स असंखेजति भागं, पजत्तग गम्भवक्कंतिय भुय परिसप्प थलयर पुच्छा ? गोयमा ! जहन्न अंगुलस्स असंखेजति भाग, उक्कोसेणं गाउपडलं, खहपर पंचिदिय पुच्छा ? गोयमा! जहन्नेणं अंगुलस्सअसंखेजति भागं, उक्कोसेफ धणुपुहुत्तं / / समुच्छिम खहयराणं जहा भुय परिसप्पाणं 1 समुच्छिपाणं तिसुवि गमेस,तहा माजियव्वा. गब्भवकांनथ खहयर पुच्छा? गोयमा! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखिजइआन उबोसणं धणुपुहुत्तं अपजत्तग गब्भवतिय खयर पुच्छा?गोयमा! जहन्नेणंवि उकासेगधि अंगुलस्त १९३खजति भागं की. खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच की जघन्य अंगुल के असंख्यातये भाग उलट परिव धनष्य की, सच्छिम | खेचर के तीनों आलापक जैसे भजपर के कहे तैसे ही कहना. गर्भज खेचर ५चेन्द्रिय तिर्यंच की जघन्य है अंगुल के असंख्यातवे भाग उत्कृष्ट धनुष्य पृथक्त्व की. अपर्याप्त गर्भज खेचर की जयन्य उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवे भाग, पर्याप्त गर्भन खेचर की जघन्य अंगल के असंख्यातवे भाग उत्कृष्ट पृथक्त्व धनुष्य 0 की. अब तिर्यंच पंचेन्द्रिय की उत्कृष्ट अवगाहना संक्षेप में दो गाथा कर कहते हैं-समूच्छिम-जलचर की हजार प्रकाशक-रानावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4882486 Har एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूस 8883 पजचग गब्भवतिय खहयर पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असखेजतिभागं उक्कोसेणं धणु पहुत्तं // एत्थ संगहाणि गाहाउ भवंति तंजहा ( गाहा ) सहरस गाउय पुहुत्तं, ततोय जोयण पुहु तं // दोण्हं तु धणुपुहुत्तं समुच्छिमे होइ उच्चत्तं // 1 // जोयण सहस्स गाउयाई, तत्तोय जोयण सहस्सं || गाउय पुहुत्तं भुयगे, पखीसंभवेधणुपुहुतं // 2 // 19 // मणुस्साण भंते ! के महालिया सरीरो गाहणा पणता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखजति भागं उकोसणं तिण्णि गाउयाई, समुच्छिम मणुस्साणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलम्स असंखेजति भागं.उक्कोसेणंवि अंगुलस्सवि असंखेज्जति भागं गभवकंतिय मणुस्साणं पुच्छा ? गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखज्जइ भागो, उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई योजन की, चतुष्पद की पृथक्त्व गाऊ की, उरपर की पृथक्त्व योजन की, भुजपर की और खेचर की पृथक्त्व धनुष्य की. अब गर्भज की अवगाहना कहते हैं. जलचर की हजार योजन की. स्थ रचर की छ गाउ की, उरपर की हजार योजन की, भुनपर की पृथक्त्व गाउ की और खेचर की पृथक्त्व धनुष्य की. // 19 // अब मनुष्य की अवगाहना कहते हैं. समुचय मनुष्य की जघन्य अंगुल 4 के असंख्यातवे भाग उत्कृष् तीन गाउ की. समूच्छिम मनुष्य की जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग उत्ष्ट भी अंगुल के असंख्यातवे भाग, गर्भज मनुष्य की जघन्य अंगुलके असंख्यात अर्थ प्रमाण का विषय 380046 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक बालप्रमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अपत्तजग गम्भवक्कंतिय मणुस्साणं पुच्छा ? गोयमा!जहन्नेवि उक्कोसेणंवि अंगुलस्स असंखजति भागं, पजत्तग गम्भवक्वंतिय मणस्साणं पच्छा गोयमा !जण्डणेणं अंगलस्स असंखजति भागं उक्कोसेणं तिण्णिगाउयाई॥२॥वाणमंतराणं भवधारणिजाय उत्तरवेउब्बियाय जहा असुरकमासणं तहा भाणियव्वा जहा वाणमंतराणं तहाजो इसियाणं / सोहम्मे कप्पे देवाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता तंजहा-भवधारणिज्जाय उत्तरवेउब्बियाय, तत्थणं जासा भवधारणिज्जा सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखजति भागं उक्कोसेणं सत्तरयणीओ, तत्थणं जा सा उत्तर वेउब्बिया सा जहन्न अंगुलस्स असंखेजइ भागं उक्कोसेणं जोयण सयसहस्सं // एवं ईसाण कप्पेवि भाणियव्वं जहा सोहम्मे कप्पे देवाणं माग उत्कृष्ट तीन गाउ की, अपर्याप्त गर्भज मनुष्य की जघन्य उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवे भाग, पर्याप्त गर्भज मनष्य की जघन्य अंगुल के असंख्यातवे भाग उत्कृष्ट तीन गाउ की. // 20 // अब देवता की अवगाहना कहते हैं, वाणव्यंतर ज्योतिषी की जैसी असुरकुमार देवता की कही तैसे ही कहना, सौधर्म देवलोक के देवता के भवधारणिय शरीर की जघन्य अंगल के असंख्यातवे भाग उत्कृष्ट सात हाथ की, उत्तर वैक्रय करे उस की जघन्य अंगुल के संख्यातवे भाग उत्कृष्ट एक लाख योजन की. ऐसे ही ईशान देवलोक की भी कहना. सनत्कुमार देवलोक के देव के भवधारणिय शरीर की जघन्य प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 215 गिद्वार मन-चतुर्य मूल HR पुच्छा तहा सेस कप्पे देवाणंवि पुच्छा ? भाणियव्वा जाव अचुअकप्पो-सणंकुमार * भवधारणिज्जा जहन्नणं अंगुलस्स असंखजति भागं उक्कोसणं छ रयणीओ, उत्तरवेउब्बिया जहा सोहम्मे तहा सणंकुमारे, तहा माहिंदेवि, बंमलोग लंतएसु भवधारणिज्जा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जति भागं उक्कोसणं पंचरयणीओ, उत्तर वेउव्विया जहा सोहम्ने, महासुक्क सहस्सारमु, भवधारणिज्जा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजति भागं, उक्कोसेणं चत्तारि रयीओ, उत्सर बेउव्विया जहा सोहम्मे, आणत पाणत अराणअच्युएसुभव धाराणज्जा जहण्णेणं अंगुलरस असंखेजति भागं, उक्कोसेशं अंगुल से असंख्यातवे भाग, उत्कृष्ट छ हाथ की. उत्तर वैक्रय को सौधर्म देवलोक जैसी. माहेन्द्र देवलोक की भी सनत्कुमार जैसी जानना. ब्रह्म और लांतक देवलोक के देव के भक्धारणिय शरीर की जघन्य अंगल के असंख्यातबे भाग उत्कृष्ट पांच हाथ की.उत्तर वैक्रय की सौधर्मा देवलोक जैसी कहना." महाभुक्र और सहस्रार देवलोक की जघन्य अंगुल के असंख्यानवे भाग उत्कृष्ट चार हाय की, आरण 17 अच्युत देवलोक की भी इतनी ही कहना. उत्तर वैक्रय सौधर्म देवलोक जैसी. कहना. अवेयवेक के देवता के 3 एक भवधारणी ही शरीर है. यह उत्तर वैक्रय रूप नहीं बनाते हैं इसलिये ग्रीवेक के देवता की भवधारणीय 48*4280पयाणकाविषय 488B अर्थ 8.88शत्तम For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिष्णिरयणीओ उत्तर बेउब्विया जहा सोहम्मे / / गेवेजगा देवेणं भंते! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा एगे भव धाराणिज सरीरो पण्णत्ता सेजहणणं अंगुलस्स असंखजाति भागं, उक्कोसेणं दो रयणिओ॥ अणुत्तरोववाइया देवाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! एगे भव धारिणिज्जे सरीरे पण्णत्ते से जहण्णेणं अंगुलस्स असंखजति भागे उक्कोसेणं एमारयणी // 21 // से समासओ तिविहा पण्णत्ता तंजहा-सूईअंगुले, पतरंगुले, घणंगुले // एग अंगुलायया 21 // अनुवादक वाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी - * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसह अर्थ शरीर की जघन्य अंगल के असंख्यातः भाग उत्कृष्ट दो हाथ की. अनुत्तर विमानवासी देवता के भी एक भव धारणिय शरीर है उस की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवे भाग उत्पत्ति काल आश्रिय और उत्कृष्ट एक हाथ की यो चौवीस दंडक के. जीवों की अवगाहना उत्सेध अंगुल से कहीं // 21 // उत्सेघ अंगुल के तीन प्रकार कहे हैं. तद्यथा-२ सूची अंगुल, 2 प्रतर अंगुल और ३यनांगुल इस में एक अंगुल प्रमाण क्षेत्र की एक प्रदेशिक श्रेणी सो सूची अंगुल, सूची अंगुल को सूची गुना करे वह प्रतर अंगूल और प्रतर अंगुल को सूची से गुना करे वह घनांमुल, अहो भगवन् ! इन सूची अंगुल प्रतर अंगुल और घनागुल में कौन २किस 2 से ज्यादा की तुल्य वरावर ज्वालाप्रसादजी . For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्र 488 257 विशत्तम्-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुथ प्रल *80 एग पदेसीय सेढी सूई अंगुले, सूईसूइए गुणिआ पत्तर अंगुले, पयर सूईएणिते / धणंगुले // एएसिणं सूई अंगुले पयर अंगुले घणंगुलोणं कयरे 2 हिंतो अप्पेवा बहुएवा तुलेवा विसेसाहिएवा ? सब्बत्थोवे सूई अंगुले, पतरंगुले असंखजगुणे, / घणंगुले असंखजगुणे, सेतं उरसेहअंगुले // 22 // से किं तं प्पमाणंगुले ? पमाणं गुसे ! एगमेगस्सणं रण्णो चाउरंत चकवटिस्स अट्ठसोवण्णए कांगणी रयणे छत्तले है ? अहो शिष्य ? सब से थोडा सूची अंगुल, उस से प्रतर अंगुल असंख्यातगुना और उस से घनांगुल असंख्यातगुना. यह उत्सेध अंगुल प्रमान का कथन हुआ // 22 // अहो भगवन् ! प्रमाणु अंगुल किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! उत्सेध अंगुल से हजार गुना अधिक वह प्रमाण अंगुल तथा प्रकर्ष रूप जिस का प्रमाण सब से बडा हो उसे प्रमाण अंगुल कहीये. वह इस प्रकार होता है तादि क्षेत्र में जब एकेक चक्रवर्ती महारान होते हैं उनको उन यह कांगनी रत्न होता का वजन बार सौनेये भाडोना है. इस कांगर्न जा रफ के चार, ऊपर, नीचे प्रमाण विषय dogge+ 1 1 रती, (गुजा) 8 राति / ॐ नोट 4 मधुर तण फल का एकमाए, 16 समर्ष 6 का 1 मामा 16 मासा, का सीना For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजीक दुवालसंसिए अट्ट कणिए अहिगरण संगाणं संनिए पण्णत्ते, तस्सण एगमेगःकोडी उस्सेहंगुलविक्खंभा तं समणस्स भगवओ महावीरस्स अइंगुलं तं सहरसगुण प्पमाणंगुलं भवति // एतेणं अंगुलप्पमाणेणं // छ अंगुलाई पाउ, दुवालसं गुलाई विहत्थी, दो विहत्थीउ रयणी, दोरयणीउ कुत्थी दो कुत्थिओ धणु, दोधणु सहस्साई गाउयं; चत्तारिगाउय जोयणं॥एएणं प्पमाणंगुलेणं किं पयोयणं? एएणं प्पमाणगुलेणं दोनों योंछेतले होते हैं, ऊपर नीचे के चारों तरफ के आठ, और बीच में के चारों तरफ के चार बारहांस (पेल ) होते हैं, चार ऊपर के चार नीचे के यों आठ कणिका ( कौने ) होते हैं अधिकरक नाम ( सोनार की ऐरण) के. संस्थान ( आकार ) से संस्थित कहा है. उस कांगनी रत्न की एकेक कोडी (तले ) एक उत्सेध अंगुल के प्रमाण से चौडी कही है. और वह श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामीजी का आधा अंगुल+ उसे एक हजार गुना करने से प्रमाण अंगुल का प्रमाण होता है. इस अंगुल प्रमाण अर्थकार कहते हैं कि- श्री महावीर स्वामीजी का शरीर स्वत: के आत्मांगुल से 84 अंगुल ( साढे तीन हाथ ) ऊंचा है, उत्सेध अंगुल से 168 अंगुल का ऊंचा शरीर होता है. और जो उत्तम पुरुष का 108 अंगुल तथा 120 अंगुल शरीर ऊंचा कहा है यह 84 अंगल तो सहज ही ऊंची और दोनों हाथ ऊचे करें तब 24 अंगुल ऊपर होते / 108 अंगुल होते हैं *काशक राजााबहादुर काला सुखदेवसहायजी-ज्वालाप्रसादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल 888ods पुढवीकंडाणं, पातालाणं, भावणाणं, भवणपत्थडाणं, निरयाणं, निरयावलीणं, निरय / पत्थडाणं, कप्पाणं, विमाणाणं, विमाणवलीणं, बिमाण पत्थडाणं, टंकाण, कूडाणं, सेलाणं, सिहरीणं, पभाराणं, विजयाणं, वक्खारेणं, वासाणं, वासहराणं, वेइयाणं, दारागं, तोरणाणं, दीवाणं, समुदाणं,आयामविक्खंभोचत्तोवेहपरिक्खेवा मविजंति // से समासओ तिविहा पण्णत्ता तंजहा-सेढी अंगुले, पतरंगुले,घणंगुले, असंखेज्जाओ अर्थ 82 प्रमाण विषय g से छ अंगुल के दो पाव, बारा अंगुल की विहत्थी, दो विहत्थी का एक हाथ, दो हाथ की एक कुच्छी, दो कुच्छी का एक धनुष्य, 2000 धनुष्य का गाऊ (कोस)४ गाऊ का योजन. अहो भगवन् ! इस प्रमाण अंगुल से क्या प्रयोजन है ? अहो शिष्य ! इस प्रमाण अंगुल से रत्न प्रभा के 16 पृथ्वी का कांड, 4 पाताल कलश, 7 क्रोड 72 लाख भुवनपति के भुवन, भुवन के पाथडे, नरकावासे, देवताओं के विमान, विमान की पंक्ति, विमान का पाथडा, ढंक-पर्वतो का विभाग, गंगा आदि कुंड, चूल हेमवंतादि पर्वत, मेरु आदि पर्वत पर्वत की खाइ, महा विदेह क्षेत्र की विजय, बक्ष्कार पर्वतों, हेमवयादि वास क्षेत्र, पद्मवर वेदिकादि वेदीका, विजयादि द्वार, द्वारों पर के तोरण,जम्बू आदि द्वीप, लवणादि समुद्र, इत्यादि का लम्बा पना, चौडापना का प्रमाण किया जाता है. इस पयाण अंगल के भी तीन भेद कहे हैं. a8 388 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुनि श्री अमोलक ऋषिजीअनुवादक बालब्रह्मचारी जोयण कोडाकोडीगढी सेढीय गुणिता पयरं, पयर सेढीयगुणिया लोग, संखेजेणं लोगोगाणि: सखजालागा, अलखजेण लोगो गुणिउ असंखेजा लोगा, अणतेणं लोगो गाण: अंत लोगा // एएपिणं सेढी अंगुल पयरंगुल घणंगुलाणं कयरे 2 हिंतो अप्पाबा बहुयावा तुल्लावा विसेसाहियावा ? सव्वत्थोवा सेढी अंगुलै, पयरंगले असंखज्जगुणे, घगुले असंखेजगुणे // से तं प्पमाणं गुले // से तं वि तद्यथा-१ सूची अंगुल, 2 प्रतर अंगुल, और 3 घनांगुल इस में से असंख्यात कोडाकोडी योजन श्रेणि कहे उस श्रेणि से योजन गुनाकारकरे, उसे प्रतर की श्रेणि से गुनाकार करे तब लोक होवे, उसे संख्यात लोक से गुने तब अलोक में अंख्यात लोक की कल्पना होवे, उसे असंख्यात लोक से गनाकार करे, तव असंख्यात लोक की कल्पना होवे. उसे अनंत लोक से गुनाकार करे नब अलोक में अनंत लोक की कल्पना होवे.x अहो भगवन् ! इस सेडी अंगुल. प्रतर अंगल, घनांगल में कौन 2 थोडा ज्यादा तुला विशेष है ? अटो शिष्य ! सब से थोडा सेंही अंगुल, उस से प्रतर अंगुल असंख्यात गुना, उस से घन अंगुल असंख्यात गुना. यह म.ण अंगुल कहा. और यह विभाग प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदवसहायजा ज्वालामसादजीक x अनंत लोक के आकाश प्रदेश जितने निगोद के एक शरीर में जीन है, For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - एकत्रिंशत्तम अनुयोगद्वार सूत्र-चतर्थ मूल -- भागनिप्पन्ने, से तं खेत्तप्पमाणे॥२३॥से किंतं कालप्पमाणे? कालप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते / तंजहा-पदेस निष्फन्ने, विभाग निप्फन्नासे किं तं पदेसनिप्फन्ने ? पदेस निप्फन्ने एग समय टिईए, दुसमयट्टिईए, ति समयढिईए, जाव दस समयद्वितीए, संखेज समयद्वितीए, असंखेजसमए ठिबीए से तं पदेस निप्फन्ने // 24 // से किं तं वि भागानप्फन्ने ? विभाग निप्फन्ने ! 1 समया, 2 आवलिय 3 मुहुत्ता, 4 दिवस, 5 अहोरत्त, 6 पक्ख, 7 मासाय, 8 संवच्छरं, 9 जुग, 10 पलिया, ११सागर निष्पन्न क्षेत्र प्रमाण हुआ। और यह क्षेत्र प्रमाण भी हुआ // 23 // अहो भगवन् ! काल किसे कहत हैं ? अहो शिष्य काल प्रपाण दो प्रकार के कहे हैं. तद्यथा-१ प्रदेश निष्पन्न और 2 विभाग निप्पन्न / / अहो भगवन् ! प्रदेश निष्यन किसे कहते हैं ? अहे शिष्य ! प्रदेश निष्पन्न काल प्रमान से-एकसमय स्थिति वाला. दो समय स्थिति वाला, तीन समय स्थिति वाला, यावत् दश समय की स्थिति सख्यात, काल समय की स्थिति वाला, और असंख्यात समय की स्थिति बाला, यह प्रदेश आनष्पन्नहआ॥ 24 // अहो भगवन ! विभाग निष्पन्न वि.से कहते हैं। अहो शिष्य ! विभाग निष्पन्न सा-१समय 2 आंवलिका, 3 मुहूर्त, 4 दिन, 5 अहो रात्रि, 6 पक्ष 7 माहेने 8 सामः 111 84880ममाण विषय 8-800 | For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 52 उसाप्पणी, 13 परियट्टा // 25 // से किं तं समए ? समए! समयस्सणं परूवणा करिस्सामि से जहा नामए-तुन्नागदारए सिया तरुणे, बलवं, जुगवं,जवाणे, अप्पायंके थिरग्गहत्थे, दड्डपाणिपाय, पासपिटुंतराउरु परिणते तल जमल परिहाणि भवाहु चमेटुग दुहण मुट्ठिय समाहत निविय गतकाए, उस्सबल समन्नागए लंघण पबण जविण वायाम समत्थे छेए दक्खेपत्तटे कुसले मेहावी निउणे निउवण सिप्पो वगए, एमं महं तीती पडिसाडियंवा पट्टसाडियंवागाहाय संयराहं हत्थमेत्तं उसारेज्जा जुग, 10 पल्योपम, 11 सागरोपम, 12 उत्सर्पनी, 13 अवसपनी, 14 पुद्गल परावर्त // 35 // अहो भगवन ! समय किसे कहने हैं ? अहो शिष्य ! अब में समय की प्ररूपना करता हूं तथा दृष्टान्तदरजी का पुत्र तरुण अवस्था वाला, शरीर कर बलवान्, सुख युक्त का जाना, योवनवंत, रोग रहित. स्थिर संघयन का धारक, हाथ पां। जिसके द्रढ-मजबूत हो. ऐसे ही पृष्ट पृष्टान्तर-हृदय उरुसपल पर्ण हो तल वृक्ष के युगल समान वर्तुलाकार स्कन्ध हो. नगर की भांगल समान भुजा हो. लोह के मुदुल मुष्टीकर फिरा कर मजबुत निवड शरीर किया हो, हृदय के बलकर प्रतिपूर्ण हो किसी में प का उल्लंघन प्रल्लंघन करने में समर्थ हो, छेदज्ञ-प्रयोग का जान. प्रतिवृक्ष कुशल हो मेधावी पंडित हो, निपुण हो सिल्पोपग्राही हो, इस प्रकार का दरजी का पुत्र एक बडी वस्त्र की साडी सूक्ष्म मृत * प्रकाशक-राजाबइदुरबाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* / For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्र *8 Tags एकत्रिंशत्तम अनुयागद्वारमूत्र -चतुर्थ मूल 2883 तत्थ चोअर पण्णवयं एवं वयासी-जेणं कालेणं तेणं तुन्नागदारएणं तीसेपडि साडियाए वा पट्टसाडियाए वा सयराह हत्थमेते उसारिते से समए भवती ? नोइणटे समठे, कम्हा ? जम्हा संखेजाणं तंतृणं समुदय समिति समागमेणं एग पडिसाडिया निप्फजइ, उवरिमितंतुमी अछिन्ने हेट्ठिले तंमु नछिज्जइ, अन्नंमिकाले उवरिल्ले तंतु छिज्जइ अन्नंमि काले हेदिले तंतु छिज्जइ,तम्हा से समए न भवती, एवं वयंतं पंण्णवयं चोअयए एवं बयासी-जेणं कालेणं तेणं तुन्नाग दारएणं तीसे की बनाइ हुई उसे ग्रहण कर के शीघ्रता से हाथ कर फाडे तब शिष्य गुरु से यों कहने लगा कि-अहो भगवन् ! जिस वक्त वह दरजी का पुत्र उस साडी के पट को सूक्ष्म-वारीक सूत से बनाये हु को एक ही वक्त हाथ में ग्रहण कर फाडने लगा उसे समय कहना क्या ? अहो शिष्य ! यह अर्थ योग्य नहीं. अहे. भगवन् ! किस कारन यह अर्थ योग्य नहीं है ? अहो शिष्य ! जिस लिये संख्याते तंतू (तारा) के समुदाय के समागमकर एक पट साडिका वस्र निष्पन्न हुआ है उस में का उपर का प्रथम का एक तूंतू [ तार ] का छेदन हु विने अन्य नीचे के तार का छेदन नहीं होवे, इस लिये ऊपर 07 का संतू टूटा वह काल अलग और नीचे का दूसरा तंतू टूटा वह काल अलग. इस लिये उसे समय नहीं कहना.ऐसा सुनकर फिर शिष्य बोला-जिस वक्त वह दरजी का पुत्र उस पटसाटी का का ऊपर का 88- प्रमाण विषय 498 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kallassagarsuri Gyanmandir अनुनादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पडि साडिए एवा पट्ट साडिया एवा ज्वारले तं तुछिन्ने से समए भवति?नो इणटे समटे __कम्ह ? जम्हा संखेज्जाणं पमाणं समुदाय समिति समागमेणं एगे पम्हेछिन्नति उवरिल्ले पम्हेअरिन्ने हेदिल्ले पम्हेन छिज्जति अन्नंमिकाले पम्हेछिज्जति, अन्नंमिकाले हे हिलेपम्हे. छिजति तम्हा से समए न भवति,एथं वयंत तं पण्णवगं चोयए वयाची जेणे कालेणं ते तुम्नाग दारएणं तस्म तंतुस्स उवरिल्ले पम्हेछिन्ने से समए भवति! न भवति, कम्हा? जम्हा अगंताणं संघायाणं समुदय समिती समागमेणं एगे पम्हे निप्फजति उवरिल्ले संघाते अविसंघाते हटिल्ले संघाते नवि संघातिजति, अन्नंमि काले उवरिल्ले संघाते तार तोडे उनने में एक समय हो जाता है क्या: अहो शिष्य ! यह अर्थ भी समर्थ नहीं. अहो भगवन ! किस कारन यह अर्थ समर्थ नहीं ? अहो शिष्य ! जिस लिवे संख्याते हइ के तंतू के क समूह के समागम से वह एक तार बना है, उस में का ऊपर का हई का संतू तूटे विना नीचे का तंतू टूटता नहीं हैं. इसलिये ऊपर का तंतू तोडा वह काल अलग और नीचे का तंतू तोडा वह काल अलग इसलिये वह समय नहीं होता है. ऐसा मुन शिष्य ने प्रश्न किया अहो भगवन् ! जिस वक्त उस दरजी के पुत्र में उस सूत्र-तार का उपर का रुइ का तंतू तोडा उसे समय कहना क्या ? अहो शिष्य ! यह अर्थ समर्थ नहीं. अहो भगवन् ! सिसलिये यह अर्थ समर्थ नहीं ? अहो शिष्य ! वह रूइ का तंतू अनंत पुद्गल प्रमाणुओं केस समुदाय के मागम कर निष्पन्न हुवा है उस में *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी-ज्वालाप्रलादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकोत्रिंशत्तम-अनुयोमद्वार व चतुर्थ मूल +8+ विसंघाति, अन्नमि काले होटिल्ले संघाते विसंघातिजति, तम्हा से समए न भवति / एतोविअन्नं सुहुमतराए समए समणाउसो ! असंखजाणं समयाण समुदय समिति समागमेणं आयाल आत्तिपवुच्चति, . संखेज्जाउ आवलियाउ ऊसासो संखेजाउ अवलियाउ नीसासो, ( गाहा )-हवस्स अणवलगस्स, निरुवकिट्ठस्स जंतुणो // एगे ऊसासनिसासे एग पाणुत्ति पवुच्चइ // 1 // सत्तपाणुणिसेथोवे, सत्तथोवाणिसे लवे // लवाणं सत्तहत्तरिए, एस मुहुत्तेत्ति आहिते // 2 // तिणि व सहस्सा, का उपर का परमाणु अलग हुबे विना नीचे का परमाण अलग नहीं होता है, इसलिये ऊपर का परमाणु अलग हुवा वह काल अलग और नीचे का परमाणु अलग हुवा व: काल अलग. इसलिये है उसे समय नहीं कहनां. अहो शिष्य ! इस काल से भी अत्यन्त सूक्ष्म समय है अर्थात् एक तार तूटे उतने काल में असंख्यात समय व्यातीत हो जाते है. अहो श्रमण आयुष्यमंतो! इस प्रकार के असं-18 - ख्यात समय के समुदाय के समागम से एक आवलिका काल कहा है. संख्यात ( 3737 )आवलिको * का एक उश्वास होता है और संख्यात आवलिका का ही एक निश्वास होता है. यह श्वाशोश्वाप्त उस ही मनुष्य का ग्रहण करना कि जिस मनुष्य का शरीर हृष्टपुष्ट हो ग्लाननि व जरा कर रहित हो, किसी प्रकार के उपद्रव कर रहित ऐसे मनुष्य के श्वासोश्वास को आणपाण कहते हैं. ऐसे 7 आणपाण *8898g- प्रमाण विषय 48488 अर्थ ** For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म 223 सत्तयसयाई तेहत्तरि च उस्सासा // एस मुहुत्तो भाणिओ, सव्वेहि अणंत नाणीहिं // 3 // एएणं मुहुत्त पमाणेणं, तीसं मुहुत्ता अहोरत्तं // पण्णरस अहोरत्ता पक्खो, दो पक्खामासो दोमासा उऊ तिाण उऊ अयणं, दो अयणाई संवच्छरे, पंच संवच्छराई जुगे वीसजुगाई वाससयं, दसवास सयाई वास सहस्सं सयं वास सहस्साणं वास सय सहस्सं. चउरासी वास सयसहस्साई से ऐगे पुव्वंगे, चउरा सीई पुव्बंग सय सहस्साइं से एगे पुव्वे, चउरासीइं पुव्वसत से एगेतु डिअंगे, चउरसिति का एक स्तोक काल होता है. 7 स्तोक काल का ? लव. 77 लव का एक मुहूर्त तीन हजार सात सो तीहातर ( 3773 ) श्वासोश्वास का एक मुहूर्त अनंत तीर्थंकरोने कहा है. इस मुहूर्त के प्रमाण कर 30 मुहूर्त की अहो रात्रि, 15 अहो रात्रि का पक्ष, 2 पक्ष का महिना, 2 महिने की ऋतु, 3 ऋतु की अयन, 2 अयन का 1 संवत्सर (वर्ष ) पांच वर्ष का युग, 20 युग के सो वर्ष. दश सो वर्ष के. 1 हजार वर्ष, 100 हजार वर्ष के 1 लाख बर्ष, 85 लाख वर्ष का एक पूर्वांग, 85 लाख पूर्वांग का एक पूर्व. 84 // लाख पूर्व का 1 तुटिआंग, 84 लाख तुटिअंग का 1 तुटित. 84 लाख तुटित नका 1 अडडांग, 84 लाख अडडांग का ? अडड, 84 लाख अडड का 1 अवधाम, 84 लाख 10 अवधांग का एक अवय, 84 लाख अव का एक हुइआंग, 84 लाख हुहु आंग का ' हुहू 84 लाखहुहू अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋापनी+ *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी व्वालाप्रसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2 227 तडिअगं सत सहरसाई से एगेतुडिए, चउरासीति तुडिय सत सहस्साई से एगे अडडंगे, चउरासीति अडडंगे सत सहस्साइं से एगे अडडे, एवं अववंगे, अववे, दुहुअंगे हुहुए, उप्पलंगे, उप्पले, पउमंगे, पउमे, नलिणंगे, नलिणे, अत्थिनिपुरंगे, आत्थिनिपुरे, अउयंगे, अउए, पउअंगे, पउए, णउअंगे, णउए, चूलिअंगे, चूलिणा; चउरासीति सीसपहेलि अंगे सत सहरसाइं सा एगासीस पहेलिया // एतावता चेव गणिए, एतावता चेव गाणयस्सविसए, एतोपर उवमिए पवत्तत्ति // 26 // से किं 49803><28808 प्रमाण विषय अर्थ एकमिशत्तम अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल का 1 उत्पलांग, 84 लाख उत्पलांग का 1 उत्पल, 84 लाख उत्पल का एक पांग, 84 लाख पद्मांग 'F का एक पन. 84 लाख पद्म का 1 नलिनांग, 84 लाख नलीनांग का 1 नलीन, 84 लाख नलीन का 1 अधीनेपुरांग, 84 लाख अत्थिनेपुरांग का 1 अस्थिनेपुर, 84 लाख अथीनेपुर का 1 अउ अंगा 84 लाख अउअंग का 1 अउ, 84 लाख अउ का एक पउमांग, 84 लाख पउमांग का पउम,८४ लाख पउम का 1 नउअंग, 84 लाख नउअंग का 1 नउ, 84 लाख नउ का 1 लि आंग, 84 लाख चूलिआंग का 1 चलित, 84 लाख चूलित का 1 शिर्षपहेलिकांग, 84 लाख शिर्षपहेलीकाकंग का 11 शिर्षपहेली, यहां तक सब 194 अंक हुअ यहां तक गणित संख्या का प्रमाण है. इस के उपरांत 1 असंख्य होने से उस का स्वरूप ओपमा प्रमाण द्वारा कहते हैं // 26 // अहो भगवन् ! उपमिक 38 0 0 43 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक पिाजी तं उबमिए? उवमिए दुविहे पण्णत्ते तंजहा-पलिओवमेय,सागगेवमय ॥से किं तं पलिओ मे? पालेओवने तिविहे पणत्ते तंजहा-उद्धार पलिओवमे अद्धा पलिओवमे खेत्त पलिओवमे // से किं तं उद्धार पलिआवमे?उद्धार गलिओवमे ! दुविहेपण्णत्ते तंजहा सुहुमेय,ववहारिण्य // तत्थणं जे से सुहुमे ते ठप्पे // तत्थणं जे से ववहारिए से जहा नामए पलेसिया जोयण आयामविक्खंभेणं,जोयणं उव्वेहेणं तंतिगुणं सविसेसं प्रमाण किसे कहते हैं ! अहो शिष्य ! ओपमिक प्रमाण के दो भेद कहे हैं तद्यथा-१पल्योपप और 2 सागरोपम // अहो भगवन् ! पल्योपम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! पल्योपम तीन प्रकार के कहे हैं. तद्यथा-१ उद्धार पल्योपम, 2 अद्धा पल्योपम और 3 क्षेत्र पल्योपम / / अहो भगवन् ! उद्धार पल्योपम किसे कहते है ? अहो शिष्य ! उद्धार पल्योपम दो प्रकार के कहे हैं, तद्यथा-१ सक्षम उद्धार पल्योपम और 2 व्यवहार पल्योपम * इस में जो सूक्ष्म पल्योपम है उसे यहां स्थिर रखना * यहां अनुद्वार सूत्र में प्रथम उत्सेध अंगुल का मान भरतैरावत क्षेत्र के मनुष्य के बालान से कल्पा है यह / योजन तो फक्त 24 दंडक के जीवों के शरीर की अवगाहना की मपती करने कल्पा है इस लिये इस योजन को यहां कूप के प्रमाण में ग्रहण नहीं करना परन्तु जो भगवती सूत्र के 6 शतक 7 उद्देशे में महाविदेह क्षेत्र के मनुष्य के बालन की एक लीख गिनी है उस योजन के मान से एक योजन का कुप जानना. यह योजन उक्त योजन से कुछ कम होता है. यही योजन उद्धारादि पल्यापम के मान में ग्रहण किया गया है. *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिक्खेवेणं, सेणं पल्ले एनाहिय बेआहिय तेआहिय, उक्कोसणं सत्तरत्त परूढाणं संसटे सन्निवित्ते भरते बालग्गे कोडीणं तेणायलग्गा नो अग्गी डहेजा,नो वाउहरेज्जा, नो कुहेजा, नो पलिविद्धंसेजा नो पूइत्ताए हब्वमागच्छेजा तओणं समए 2 एगमेगं बालग्गं अवहाय जाव इएणं कालेणं सेपल्ले खीणे नीरइए मिल्ले के निट्ठिते भवइ, से तं ववहारिए उहार पलिओवमे // (गाहा) एएसि पल्लाणाणं, एकात्रंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्यमूल Page #221
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 47 अनु , बायमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - कोडाकोडिहवेज दसगुणिया // तंवव ववहारियस्स उद्दारसागरोवमस्स एगस्स भवे परिमाणं // 1 // 2 // एतेहि, चेवव वहारिया पलिओवन सागरोक्मेहिं किं पयोयणं एतेहिं ववहारिय पलि ओवमहिं सागरोवमैहिं पत्थि किंचिवि पउयणं केवलं पणवणा पणविनंति स तं ववहारिए उद्धार पलिओवमे // 28 // से किं तं सुहुमे उहार पलिओवमे ? सुहुमे उद्धार पलिओवमे से जहा णामए पल्ले सिया जोयणं आयामविक्खंभेणं जोयणं उव्वेहेणं, तंतिगुणसविसेसं परिक्खेवेणं सेणं पल्ले एगाहिया जाये एक भी बालान उस में रहे नहीं उतने काल के समुह को एक व्यवहार पल्योपम करना. और स उद्धार पल्योपम के काल को दस ऋोडाक्रोड गुना करे, उतने काल के समुहक उद्धार सागरोपम का प्रमाण होता है. // 27 // अहो भगवन् ! इस व्यवहार पल्योपम स से क्या #प्रयोजन है ? अहो शिष्य ! इस व्यवहार पल्योपम सागरोपम से कुछ भी प्रयोजन . यह भी काम में आता नहीं है, फक्त वस्तुतः भेद बताने के लिये ही यहां इस की रूपना की गई है.. व्यवहार उदार पल्योपप हुआ. // 28 // भहो भगवन् ! यूक्ष्म उदारापम किसे कहते हैं अहो शिष्य ! सूक्ष्म उद्धार पल्योपम भी यथा दृष्टांव पाला (या कुवा ).. जन का लम्बा चौडा और एक योजन का फंडा त्रिगुनी कुछ अधिक परपी वाला उस पाले से एक दिन के दो दिन के प्रकाशक-रानावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादबी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 43803 एकार्षशतम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्य मूल 288 बेआहिया तेआहिया उक्कोसेणं सत्तरत्त परूढाणं संसट्टे सनिवविते भरते वालग्गकोडीणं तत्थणं एगमगे बालग्गे अखि लाई खेडाईकजइ तेणं वालग्गा दिदिउगाहणाउ असंखेजति भागमे ना सुहुमस्स पणगजीवरस सरीरोगाहणाउ असंखेजगुण.. तेणं वालग्गा, नो अग्गीडहेजा नो वाउहरेजा, नो पलिविडंसेज्जा, नो पूइत्ताए .. च्छेज्जा, तउणं समए 2 एगमेगे वालग्ग अवहाय जावइएणं कालेणं से ...'नीरए निलेवे णिट्ठिए भवति से तं सुहुमे उद्धार पलिओवमे // एएसिं पल्लाणं तीन दिन के उत्कृष्ट सात दिन मे जन्मे बच्चे के बालाग्र उस एकेक बालाग्र के असंख्यात २खण्ड (टुकरे)। E, इतने बारीक हों जावें की जो दृष्टी के ग्राह्य में नहीं आवें. क्यों कि उनकी अवगाना अंगुल | के असंख्यातवे भाग होने से देखा नहीं. वह बालग्र सूक्ष्म फूलन में रहे जो जीपों हैं उनके शरीर की अवगाहना से असंख्यात गुना अधिक बडा जानना. ऐसे वालाग्र कर उस पाले को ऐसा ठोस 2 / कर भरे कि उसे अग्नि जला सके नहीं वायु उडासके नहीं, पानी सडा सके नहीं निाश पा सके मही कदापि दुध को प्राप्त होवे नहीं.फिर उन बालाब में से एकेक बालाग्र समय 2 में हरण कर निकालेले 24 जितने काल में वह पाला खाली होवे रज रहित लेप रहित होवे अर्थात् सब बालाग्र सुट जावे उस में | एक भी वालाग्र रहे नहीं उतने काल के समुह को एक सूक्ष्म उद्धार पल्योपम कहना. और ऐसे दशा प्रणा विषय " 488 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्रीनमोलक ऋषजी कोडाकोडी हवेज दसगुणिता तं सुहमरस उद्धार सागरोवमस्स भवेपरिमाणं // ___ एतेहिं सुहुम उद्धार पलिओवम सागरीवमेहि किं पयायणं ? एतेहिं सुहुम उद्धार पलिउवम सागरोवमेहिं दीवसमुद्दाणं उद्धारोघेप्पइ // 29 // केवइयाणं भंते ! दीव समुद्दा उद्धारेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! जावइयाणं अड्डाइजाणं उद्धार सागरो. वमाणं उद्धारसमया एवइयाणं दीव समुद्दा उद्धारेणं पण्णत्ता, से त सुहुमे उद्धार पलिओवमे / / से तं उद्धार पलिओवमे // 30 // से किं तं अडापलिओवमे ? अद्यापलिओवमे दुविहे पण्णत्ते तंजहा-सुहुमेय, ववहारिएय // 31 // तत्थणं जे कोडाकोड पाले खाली होवे यह सूक्ष्म उद्धार सागरोपम का प्रमाण जानना. अहो भगवन् ! इस सूक्ष्म , उद्धार पल्योपम सागरोपम से क्या प्रयोजन है ? अहो शिष्य ! इस सूक्ष्म उद्धार पल्योपम सागरोपम कर द्वीप समुद्रों का उद्धार [ संख्या ] का प्रमाण किया जाता है // 29 // अहो भगवन् ! वे द्वीप समुद्रों कितने हैं ? अहो शिष्य ! जिनने अढाइ (2 // ) उद्धार सागरोपम ( अर्थात् 25 फोडाकोड उद्धार पल्योपम ) जिस के समय होते हैं. इतने सब द्वीप समुद्रों कहे हैं. यह सूक्ष्म उद्धार दिल्योपम कहा हैं. // 30 // अहो भगवन् : अद्धा पल्योपम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! अद्धान पिल्योपम के दो भेद कहे है. तद्यथा-मूक्ष्म अद्धा पल्योपम और व्यवहार अद्धा पल्योपम // 31 // प्रकाशक-राजाबाहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादर्ज अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir R / जे से सुहमे सेटुप्पे, तत्थणं जे से ववहारिए से जहा नामए पलेसिया जोयणं 'म खिभेणं, जोयणं उव्वेहेणं, तं तिगुणं सविसेसेणं परिवखेवणं. सणे पला पाहिया तेयाहिय जाव भरिए बालग्ग कोडीणं तेणं लगा में आगीडहेजा, नो वाउहरे ज्जा, नो कुहेजा, नो पलिबिद्धंसेज्जा, नो इत्ताह भागच्छेजा, तणं वाससए 2 एगमेगं वालग्गं अवहाय जावइएणं * कालेणं से पल्लेखीणे निरए निल्लेवे, निट्ठिए भवति-सेतं ववहारिए अद्धापलिउवमे / / - एसिं पल्लाणं कोडाकोडी भविज दसगुणिया तं ववहारियस्स अहासागरोवमरस इस में सक्ष पल्योपम तो यहां ही रहा, और जो व्यवहार अद्धा पल्योपम है सो यथा दृष्टांत-उक्त अर्थ | प्रकार कोई पाला एक योजन का लम्बा चौडा और एक योजन का ऊंडा त्रिगुनी आधिक परधी वाला उस पाले को एक दिन दो दिन तीन दिन यावत् सात दिन के बच्चे के वालाग्र की क्रोडाकोडी कर. उस पाले को ठोस 2 भरे इस प्रकार भरे की उसे अग्नि जला सके नी, वाय उडा संके नहीं, पानी गलासके नहीं. किसी भी प्रकार विश्वास पासके नहीं फिर उस पाले में से सो सो वर्ष के अन्तर से एकेक वालाग्र निकालते 2 जितने काल में वह पाला खाली होवे रज रहित लेप रहित साफ खाली हो एक भी बालाग्र उस में रहे नहीं उतने वर्षों के समुह को एक अद्धा पल्पोपम कहना. और ऐसे दश क्रोडाकोडे / गद्वार सूत्र चत्य > प्रमाणका विषय 880888 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 234 १.अनुवादक वा ब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी - एगास भवे परिमाण।एएहिं ववहारि एहिं अद्ध पलिउवम सागरोवमेहिं किं पयोयण।एएहिं ववहारिएहि अडा पलिउवमेहिं सागरोवमेहिं नत्थि किंचि पयोयणं, केवल पण घणा पणविजंति, से तं ववहारिए अद्या पलिओवमे // 3: n से कि त सुहुमे अहा पलिओवमे-से जहा नामए पल्ले सिया जोयणं आयाम विक्खंभे, जोयणं उव्वेहेणं. तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, सेणं पल्लेए मडिया प्याहिया तेयाहिया जाव ससरत्त पसूढाणं, संसट्टे सन्निविए, भरिहे वालमाण कोडीण, तत्थणं एगमेगे वालेग्गे असंखज्जाइ खंडाइ कज्जाइ, तेणं बालग्गा दिट्ठीणं उग्गहणाओ असंखजइमे पाले खाली होवे इतने वर्षों के समूह को एक व्यहारिक अद्धा सागरोपम कहना. अहो भगवन् ! इस F व्यवहार अदा पल्योपम सागरोषम से क्या प्रयोजन है ! अहो शिष्य ! इस व्यवहार अद्धा पल्योपम सागरोपम से कुछ भी प्रयोजन नहीं है, फक्त प्रमाण मात्र बताया है. यह व्यवहार अद्धा पल्योपम कहा. // 32 // अहो भगवन् ! सूक्ष्म अद्धा पल्योपम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! म अद्धा पल्योपम सो यथा दृष्टांत-उक्त प्रकार का ही पाला एक योजम का लम्बा चौडा यावत् त्रिगुनी परधी बाला उस * पाले को एक दिन के दोदिन के तीन दिन के यावत् सातदिन के जन्मे बच्चे के बालाग्र ग्रहण कर उनमें से एकेक वालग्रह के असंख्यात खण्ड करे, वे ऐसे सूक्ष्म होजावे की वे दृष्टीसे देखसके न *प्रकाशक-राजाबहादुर लामा मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भागमेत्ता, सुहुमस्स पणग जीवस्स सरारोगाहणाउ असंखजगुणा, तेणं वालग्गणोअग्गीड हेजा नो वाउ हरेज्जा. नो कुहेजा, पलिविडसेजाना इत्ताए हव्वमगच्छेजा,ततेणं वाससए 2 एगमेनं वालग्गं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे निरए निल्लेवे निराविया भवति से तं सुहुमे अहा पलिउवमे // एएसिं पल्लाणं कोडाकोडी भवेज दस गुणिया तं सुहुमस्स अद्धा सागरोवमस्स, एगस्स भवे परिमाणं // एतेहिं सुहुमेहिं अद्धा पलिओवम सागरोवमेहि किं पयोयणं, एतेहिं सुहुमेहिं अद्धा पलि ग्वम सागरोवमेहिं नेरइय तिरिक्खजोणिय मणुस्स देवाणं आउयंमविकं // 498 488+प्रशसम अनुयोगद्वारसूत्र-चतुर्थ मूल अर्थ क्योंकि उन की अवगाहना अंगलके असंख्यातवे भाग की होती है, उन बालाग्र कर उस पालेको ठसोठस एसा भरे की जिसे अग्नि जलासके नहीं, वायु उडास के नहीं, पानी गाला नहीं किसी भी। प्रकार विध्वंस पासके नहीं, इन बालाग्र मेंकें सो सो वर्ष में एक बालान निकलते * जितने काल में वह पाला खाली होजावे रजररित लेप रहित साफ होजाये उतने वर्ष के समूह को एक मूक्ष्म “पयोपम *कहना और ऐसे दश कोडा क्रोडी पाले खाली होजावे इतने वर्ष के समूह को एक सूक्ष्म अद्धा सागरोपमी कहना // अहो भगवन् ! इस मूक्ष्म अद्धा पल्योपम से क्या प्रयोजन हैं ? अहो शिष्य ! इस सूक्ष्म अदा पल्योपम सागरोपम से नरक तिर्यंच मनुष्य देवता का आयुष्य का प्रमाण किया जाता है॥३३॥' प्रयाण का विषय 488248gp For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बालब्रह्मचारि मुनि श्री अमोलख ऋपिजी नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिइ पणता ?गोयमा! अइन्नेणं दसवास सहस्साई उकोसेणं तेतीसं सागरोबमाई, रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं भंते ! केवइयं काल ठिइ पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं दस वास सहस्साई उक्कोसेणं एग सारगावम, अपजत्तगरयणपब्भा पुढवी नेरइयाणं भने ! केवश्यं कालं ठिई पण्णता?गोयमा ! जहन्नेणंवि अंत्तोमुहुत्तं उक्कोसेणं वि अंतोमुहुत्तं, पज्जतगरयण प्पभा पुढवी नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालंठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं दस वास सहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं एग सागविमं अंतोमुहुत्तं / / सक्करप्पभा पुढवी नेरइया अहो भगवान् ? समुचय नरक के जीवों की कितने कालकी स्थिति कही है ? अहो शिष्य ! जघन्य दश हजार वर्ष की उत्कृष्ठ तेंतीस सागरोपम की / / अहो भगवान् ! रत्नप्रभा नरक के नेरीय की कितनी स्थिति कही है ? अहो शिष्य ! जघन्य दश हजार बर्ष की उत्कृष्ट एक सागरोपम की. अहो भगवान् ! 'अपर्या नरक के नेरीएकी किनने काल की स्थिति कही है ! अहो शिष्य ! जघन्य उत्कृष्ट अन्तर मुहुर्त एसे ही प्रश्नोत्तर आगे भी सर्व स्थान जनना. पर्याप्त रत्नप्रभानरक के नेगये जघन्य षश हजार वर्ष अन्तर गर्म कर्व (यह अपर्याप्त अवस्था का अन्तर मुहुर्त कभी जानना ऐसे ही सर्व स्थान प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी अश For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सू 80% एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार पुष चतुर्थ मूस-8890 णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! जहनेणं एग सागरोवमं, उक्कोसेणं तिष्णि सागरोवमाई, एवं सेसं पढवीसु पुच्छा?भाणियब्वाइं-जहणं एगं सागरोवमं, उक्कोसेणं तिष्णि; वालुप्पभा पुढवी नेरइयाणं जहण्णं तिाण सागरोवमाई, उक्कोसेणं सत्तसागरोवमाइं, पंकप्पभा पुढवी नेरइयाणं जहन्न सत्त सागरोवमाई, उक्कोसणं दससागरोवमाइं, धूमप्पभापुढवी नेरइयाणं जहण्णं दस सागरोवमाइं, उक्कोसेणं सत्तरस्ससागरोवमाई, तमप्पभाए पुढवी नेरइयाणं जहण्णं सत्तरस समारोवमाइं उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाई, तमतमा पुढवी नेरइयाणं भंते ! केवतियं कालंठिति पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्ण वावीस्वंसागरोवमाइं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई जानना) उत्कृष्ट एक सागगेमप अन्तर मुहुर्त कम. शर्करप्रभा नरक के नेरीये की जघन्य एक सागरोपम की उत्कृष्ट तीन सागरोपम की वालुप्रभा नरक के नेरीये की, जघन्य तीन सागरोपम उत्कृष्ट सात सागरोषम, पंकप्रभा नरक के नेरीये जघन्य सात सागरोपम उत्कृष्ट दश सागरोपम धूम्रपमा नरक के नेरीये की जघन्य दश सागरोपम उत्कृष्ट सतरा सागरोपम. तम प्रभा नरक के नेरीये. की जघन्य सतरा सागरोपम उत्कृष्ट रावीस सागरोपम की, तमतम प्रभा नरक के नेरीये की जघन्य 4+8874+8+ प्रमाण का विषय -238048 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी // 34 // असुरकुमाराणं भंते ! केवइयं कालंठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणं दसवास सहस्साई उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमं, असुरकुमारीणं भंते ? केवतियं कालं ठिति षण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्ण दसवामसहस्साई, उक्कोसेणं अडपंचमाई पलिओवमाइ // नागकुमारणं भंते! केवतियं कालंठिति पण्णत्ता ? गोयमा! जहण्ण दसवासहस्साइ, उक्कोसे देमूणाई दुणिपलिओवमाई, नागकुमारीणं भंते ! केवइय कालं ठिति पण्णत्ता? गोवमा ! जहण्ण दसवाससहस्साइं, उक्कोसं देसूणं पलिओबम, एवं जहा नागकुमाराणं देवाणं देवीणय सहा जाव थणियकुमाराणं देवाणय देवीणय भाणियध्वं // 35 // पुढवीकाइयाणं भंते ! केवइयं कालंठिइ पण्णत्ता ? वावीस सागरोपमकी उत्कृष्ट तीस सागरोपम की,॥३४॥असुर कुमार देवताकी जघन्य दश हजार वर्षकी उस्कृष्ट कुछ अधिक एक सागरापम की. असुर कुमार की देवी की जयन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट सादी चार पल्योपम की, नागकुस' देवता की जघन्य दश हजार वर्ष की उत्कृष्ट कुछ कम दो पल्योपम की, नामपार की देवी की 71 हमास्वप उत्कृष्ट कुछ कम एक. पल्यो म. यों जिस प्रकार नागकुमार, देवता की और देवी क स्थात - डी उस हा प्रकार यावत् स्तनित कुमार पर्यन्त देवता की देवी स्थिति कहना. // 35 // पृथ्वीकाया की जघन्य अन्तर्मुहूर्त की उत्कृष्ठ बावीस हजार वर्ष की सूक्ष्म पृथ्वी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालासादनी* अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org 48 एकत्रिंश्चत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल. 4 गोयमा ! जहण्णं अंतोमुहुर्त उक्कोसं बावीसं वाससहस्साई, सहमपुढवीकाइयाण ओहियाणं अप्पजत्तगाणं पजत्तगाणं तिव्हपिं पुच्छा ? गोयमा : जहणेणवि अंतोमुहत्तं उक्कोसेणति अंतोमुहुत्तं // बाद पढवी काइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! - जहणं अतोमुहुत्तं उक्कोसणे वाबीसं वापसहस्साई, अपजत्तग बादर पुढवी काइयाणं " पुच्छा ? गोयमा ! जहण्ण अंतोमुहुत्तं रोम वावीसं वाससहस्साइं अंतोमुहूतुणाई, एवं सेस काइयाणवि पुच्छा वियणं भाणिय-वं, आउकाइयाणं जहण्णं अंतोमुहुत्तं उक्कोसं मत्तवाससहस्साइं, सुहुमआउकाईया ओहियाणं अपज्जत्तगाणं पजत्तगाणं तिहिवि जहणेणंवि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं पज्जतगा बादर आउकाइयाणं है औधिक की अपर्याप्त की और पर्याप्त की जघन्य आरै जन्कृष्ट अंतर्मुहूर्त की स्थिति जानना. दादर 4 पृथ्वीकाय की जघन्य अंतर्मुहूर्त की उत्कृष्ट व वीस हजार नग की अपर्याप्त वादर पृथ्वीकाय की जघन्य भी उत्कृष्ट भी अंतर्मुहूर्त की. पर्याप्त सादर पृथ्वीकाया की अघन्य अंतर्मुहूर्त की उत्कृष्ट वावीस हजार वर्ष में अंतर्मुहूर्त कम. हीऐसे समुचय अप्काय पी जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की, सूक्ष्म 28 अप्काय सूक्ष्म अप्काय के अपर्याप्त और पर्याप्त की जघन्य सत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त की वादर अप्ायकी जघन्य अंतर्मुहूर्त की उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की. बादर अप्काय के अपर्याप्त की जघन्य उत्कृष्ट 488088 प्रमाण का विषय 428488 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सव 240 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी.. जहण्णगं अंतीमुहुत्तं उक्कोसं सत्तबाससहस्साई अंतो मुत्तूणाई, तेउकाइयाणं अहणं अंतोमनं उझोसेणं तिष्णिराइंदियाई सुहुन ते उकाइयाणं आहियाणं अपजत्ताणं पज्जत्ताणं तिण्णिवि जहणेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुतं, बादर तेउकाइयाणं जहणं अतोमुहुत्तं, उकोसेणं तिपिणराइंदियाई,अमजतगवादरतेउकाइयाणं जहन्नणंवि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं यिभंतोमहत्वं,पजत्तगचादर ते उकाझ्याणं जहण्णं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिण्णिराइंदियाणं अंतोमुहत्तणाई, बाउकाइयाणं जहणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिणिवास सहस्साई सुहुमवागुकाइयाणं उहियाणं अपजत्तगाणं पजतगाणय तिण्हवि जहणणीव अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं बादरवाउकाइयागं जहण्यं अंतोमुहुत्तं उक्कोसं अर्तमुहून की बादर अप्काम के पर्याप्त की जघन्य अंतर्मुहूर्त की उत्कृष्ट मात हजार वर्ष अनाहूर्द कम की. समुचय तेजस्काय की जघन्य अंतर्मुहूर्त की उत्कृष्ट तीन अहोरात्रि,कीसूक्ष्म तेजस्काय मूक्ष्म के अपर्याप्त और पर्याप्त तीनों की जघन्य उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त की बादर तेजस्कार की जयन्य है उत्कृष्ट तीन अहो रात्रि की, बादर तेजस्काय के अपर्याप्त की जघन्य उत्कृष्ट अंतर्मुहर्त की बादर है तेजस्काय के पर्याप्त का जघन्य अन्तर मुहूर्त की उत्कृष्ट तीन अहोरात्रि की अन मुहूर्त काम समुचय * वायुकाय की जघन्य अन्तर महत की उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष की सूक्ष्मवायुकाया सूक्ष्मवायुकाय के प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवस हायजी ज्वालाप्रसादजी * 891 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 098 एकत्रिंशत्तम्-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुथ मल 4880 तिष्णिवास सहस्साइं, अपज्जत्तग बादर वाउकाइयाणं जहन्नेजवि अंतोमुहुसं उक्कोसेणंवि अंतोमुहुत्तं. पज्जत्ता बादर वाउकाइयाणं जहन्नं अंओगटतं को सेणं तिण्णिवास सहस्साइं अंतोमुत्तुणाई, वणस्सइ कइयाणं जमत दसवाससहस्साई, मुहुमवणस्सइ काइयाणं ओहियाणं अपज्जतगाणं पजस गाणय तिण्हंवि जहन्नेणवि अंतोमुहुतं उक्कोसेणवि अंतोमुहुतं, वादग्वणस्सइ काइयाणं जहन्नं अंतोमुहत्तं उक्कोसं दसवाससहस्साइं, अपजत्तग चादरवणस्सइ काइयाणं जहन्नेणवि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पजत्तग यादरवणसर, काइयाणं अपर्याप्त पर्याप्त की जघन्य उत्कृष्ठ अन्तर मुहूर्त की. बादर वायुकाय की जघन्य अन्तर मुहूर्त की उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष की. बादर वायु काय के अपर्याप्त की जन्य उत्कष्ट अन्तर मुहूर्त की बादर वायुकाय के पर्याप्त की जघन्य अन्तर मुहुर्त की उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष अन्तर मुहूर्त कम की समुचय वनस्पति काय की जघन्य अन्तर मुहूर्त की उत्कृष्ट दश हजार वर्ष की. सूक्ष्म वनस्पति काय की, मूक्ष्मवनस्पति के अपर्यात की और पर्याप्त की जवन्य उत्कृष्ट अन्तर मुहूर्त की, बादर बनस्पति काय की जघन्य अन्तर 0 मुहूर्त की उत्कृष्ट दश हजार वर्ष की. बादर वनस्पति काय के अपर्याप्त की जघन्य उत्कृष्ट अन्तर पुहूर्त की चादर वनस्पनि काय के पर्याप्त की जघन्य अन्तर मुहूर्त उत्कृष्ट दश हजार वर्ष में अन्तर पुहूर्त / / प्रमाण का विषय अर्थ 800 498 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 242 नवाचारी पुनि श्री अमोलक पियाजी जहन्नं अंतोमुहुत्तं उकोसं दसवाससहस्साई अत्तोमुहत्तणाइ // 36 / बेदियाणं भंते ! लेवइयं कालं ठिति षण्ण ? गोयना ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकोमेणं बारस संवच्छराणि, अन तग दियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नंवि उकोसेणंवि अतोमुहत्तं पजत्तग बौदयाणं पुच्छा ? गोषमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकोसं बारस संबच्छराई अंयमहरामाई // तेइंदियाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पत्ता ? गोयक्षा ! जहन्न संत गात,कोसं गुणपण्णासं राइंदियाई, अपजक्ता लेंदिगं पुछा ! गोयना ! जाई. तो उन्को गावि तोमुहत्तं, पजत्तग तेदियाणं कुच्छा नया ! जहलेणं मुहुरा, बोलणं एम एमाले राइंटियाइं अंत मुलगाइ !! चरिंदियाणं भंत ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायगी ज्वालापसादजी* की॥३॥हन्द्रा भीममना मकी कायामान की. इन्द्रिय के अपर्याप्त की समय के अन्तर महत की उत्कृष्ट कार में आता मुलकी उत्कृष्ट गुनपचास दिन की. तेइन्द्रिय के अपर्याप्त की जानकान्द्रिय के पास की जघन्य अन्तर मुहुर्त की उत्कृष्ट शुनपचास दिन में अन्तर मुहीको चौरिन्द्रिय कीमपन्य अंतर महत की उत्कृष्ट छ महिने की, For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 808 243 + एकमिशत्तम अनुयोमद्वार सूत्र चतुर्थ मूल <3 जहन्नं अंतोमुहत्तं उक्कोसं छमासा, अपजत्तग चडरिदियाणं पुच्छा ? गोयमा ! / जहन्नणवि अंतोमहत्तं उघोषणत्रि अलोमहलं, पजरा चारदियाणं पच्छा ? गोयमा ! जान्नेणं अंतेहा जोर वासा ताई। 37 // पंचिंदिय तिरिक्खजोणियाणं भंते ! वाइयं कालं ठिा जाला ? गोयमा ! जहन्नं अंतोमुहत्तं, उक्कोसं तिणि पलिओवभाई, जलयर पंचिदिय तिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पणता ? गोयना ! जहन्नं अंतोमुहुत्तं उक्कोस पुव्वकोडी, समुच्छिम जलयर पंबिंदिय पुछा ? गोवमा ! जहन्नं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसं पुव्यकोडी, अपज्जत्ताग समुच्छिन जलयर पंचिदिय पुच्छा ? गोयमा ! चौरिन्ट्रिच के अपर्याप्त की जाय उत्कृष्ट तर मुदु की, चौरिद्रिय के पर्याप्त की जघन्य अन्तर मुहुर्त की उत्कृष्ट छ महीने में अन्तर मुहुर्त रस को 37 // समुच्च तिर्थव पंथन्द्रिय की जघन्य अन्तर मुहुर्त की उत्कृष्ट तीन पल्वोपम की, जलचर पंचिन्द्रिय तिनच योनिक की जघन्य अन्तर मुहुर्त की उत्कृष्ट कोड पूर्वकी. समूच्छिम जलचर पंन्द्रियतियच की जपमा भन्तर हूत उत्कृष्ट मोड पूर्वकी. अपर्याप्त समुच्छिम जलचर 23 की जघन्य. अन्तर मुहुर्त की पत्कृष्ट भी अन्तर मुर्त की, पर्याश समुच्छिप जलचर की जघन्य अन्तर मुहूर्त की उत्कृष्ट क्रोड पूर्व अन्तर मुहूर्त कम की. गर्भन जलचरकी अन्तर मुहुर्त की उत्कृट क्रोड पूर्व की, प्रमाण विषय <3g>Page #235
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit चारी मुनि श्री अमोळक ऋषिजी + जहन्नेगंवि उक्कोसणीव अंतोमुहु तं, पजत्तम समुच्छिम जलयर पचिदिय पुच्छा ? गोयमा / जहणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसं पुन्धकोडी अंतोमुहुत्तूणाइ, गब्भवक्कंतिय जलयर पंचिदिय पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुब्धकोडी, अपज्जत्तग गम्भवक्वंतिय जलयर पंचिंदिय पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेणवि अंतोमुहुत् उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पजत्तय गम्भवतिय जलयर पंचिंदिय पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नं अंतोमहत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी अंतोमुहुत्तूणाइ // चउप्पय थलयर पंचिदिय पच्छा? गोयमा / जहन्नं अंतोमहत्तं उक्कोसेणं तिमिलिमो बमाई, समुच्छिम चउप्पय थलयर पंचिंदिय पुच्छा ? गोयमा / जहमेण अंतोमुहुत्तं गर्भन अपर्याप्त जलचर की जघन्य उत्कृष्ट क्रोड पूर्व की. पर्याप्त गर्भज जलचर की अघन्य अंतर्मुहूर्त | उत्कृष्ट क्रोड पूर्व अंतर्मुहूर्त कम की. चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय की जघन्य अंतर्मुहूर्त भी उत्कृष्ट तीन पल्योपम की. समूच्छिम चतुष्पद स्थलचर की जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट चउराती हजार वर्ष | 1. अपर्याप्त समाञ्छम चतुष्पद स्थलवर की जघन्य उत्कृर अंतर्मुह प्ति समूचिम चतुष्पद स्थलचर की जघन्य अंतर्मुहूर्त की उत्कृष्ट चौरासी हजार वर्ष * अंतर्मुहूर्त कम की. गर्भज चतुष्पद् स्थलचर की जघन्य अंतर्मुहूर्व उत्कृष्ट तीन पल्पोपम की. पर्याप्त है। प्रकाशक राजाबहादुर लामा मुखदेवसहायजी-ज्वालाप्रसादजी. अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir amaramanawaranan----- 498 एकोत्रिंशत्तम अनुयोगद्वार त्र-चतुर्थ मूळ उकोसेणं चउगसीतिवास सहस्साई, अपज्जत्तय समुच्छिम चउप्पय थायर पंचिंदिय पुच्छा ! गोयमा ! जहन्नेणंवि उकासेणंवि अंतोमुहुत्तं पजत्राय समुच्छिम चउप्पय थलयर पंचिदिय ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसणं चउरासितीवास सहस्साइं अंतोमुहुत्तणाइं गब्भवतिय चउप्पय थलयर पंचिंदिय ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिणिपलिओवमाइं, अपज्जत्तम गम्भवक्कंतिय चउप्पय थलयर पंचिंदिय ? गोयमा ! जहन्नणंवि उक्कोसेणीव अंतोमुहुत्तं, पजत्राग गब्भवतिय चउप्पय थलयर पंचिंदिय ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं तिणिपलिओवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई // उरपरिसप्प थलयर पंचिदिय ? गोयमा ! गर्भज चतुष्पद स्थलचरकी जघन्य उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त की और पर्याप्त गर्भन चतुष्पद स्थ चरकी जघन्य अंतर्मुहूर्त की उत्कृष्ट तीन पल्योपा अंतर्मुहर्त कम की उरपरिसर्प स्थलचर की जघन्य अंतर्मुहर्त की उत्कृष्ट क्रोड पूर्व की. समुच्छिम उरपरिसर्प स्थळचर की जघन्य अंतर्मुहूर्त की उत्कृष्ट वेतन हजार / की. अपर्याप्त समूछिम उरपरिसर्प स्थल चर की नघन्य उत्कृष्ट अंसमुहूर्त की, पर्याप्त समूचिम उरपरिसर्प की नपन्य अंतर्मुहूर्त की उत्कृष्ट अपम हजार वर्ष में अंतर्मुहूर्त कम की. गर्भज परपरिसर्प स्वलचर की जघन्य अंबईहूर्त की उत्कृष्ट क्रोड पूर्व की. अपर्याप्त गर्भज घरपरि सर्ग थलचर की अन्य अंतर्मुहर्तः wwaamaan w and For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सन अनुवादक बाजब्रह्मचासत्री अमोलक ऋपिजी लोण अंतोमुदुन उकोमेणं पुबकोडी समुच्छिम उरपरिसप्प थत्टयर पंचिंदिय सह मुहुरा उकसणं तनवास सहस्साइं, अपजन्त समुच्छिमय उरपरिसप्प थलयर चियि ? मोयमा ! रवि उकासेणंवि अंतोमुहत्तं,पजत्तय समुच्छिम उरपरिसप्प पंचादय ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुरा उक्कोवणं तेवनवास सहस्साई अंनो मुहत्या / गल्भवतिय उर परिसप्प थलयर पंचिदिव्य ? गोयमा ! जहन्नेणं अंत मुहत्तं उबोलेणं पुनकोडी अपजत गब्भवतिय उरपरिसप्प थलयर पंचिदिय गोयमा ! होवि उके जवि अंतोड पजन्य गब्भवतिय उरपरिसप्प थलयर पबिदिय ? गोषमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं उत्कृष्ट भी अंतर्मन ही. पर्याप्त गर्भग सर्प स्थ मन्दर की जघन्य अंतर्भात उत्कृष्ट क्रोड पूर्व अंतर्मच कम की. भजपरिवार पर पेन्टिय लीद अंतर्त की उत्कृष्ट पूर्व फोडी की. समूछिम भुजपरिसर्प स्थल पंचोय भीमन्य डूत की उत्कृष्ट वयालीस हजार वर्ष की, पर्याप्त समुच्छिप भुगपरिसर स्थल पर की जघन्य अंतर्गत की उनष्ट भी अंतर्मुहूर्त की. पर्याप्त अमुछिम भुजपरिसर्प स्पलचर की जघन्य अंतर्मुहूर्त की उत्कृष्ट बायालीस हजार वर्ष अंतमुहूर्त कम की, गर्भज भुजपरिसर्प स्थउचर पचन्द्रिय कीजयन्य अंतर्मत की उत्कृष्ठ कोड पूर्व की क्यालीस अपर्याप्त गर्भन भुजपरिसर्प * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवस हायजी उवालामसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुवकोडी अंतोमहत्तणाइ // भय परिसप्प थलयर पचिंदिय ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोजह यज्योती. सस्लिम भयणीला थलगर पंचिंदिय? गोयमा ! जहणं अंतोनातं उसेणं बयालासंवामलहस्साई, अपजत्तम समुच्छिम भुषपरिसप्प थलथर पाचड़िय ? गोयमा ! जहन्नेवि उकोसेणंधि अंतोमुहुत्तं. पजत्तय समुच्छिभ भुयारिसप्प थलयर पजिदिय ? मोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुन्तं उमणं लायालीस वास सहस्साइ अतोमुहलणाइ, गब्भवक्तांतिय भुयपरिसप्प थलपर पंचिंदिय ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतीमुहुसं रक्कोसेणं पुयकोडी. अपज्जत्तय गम्भवतिय भुयपरिसप्प थलयर पंचिंदिय ? गोयना ! जहन्नेणवि उकोमणवि अंतोमुहुसं, पजदय गम्भवक्रांतिय भुयपरिसप्प थलयर पंचिंदिय ? अर्थ " स्थलना की जाय न . पर्याप्त गर्भज भुञ्जपरिसर्प स्थलचर की जघन्य अंतर्मुहूर्त की कोड पूर्ण क की को. खेघर कोन्द्रिय तिर्यंच की जघन्य अंतमुर्त की उत्कृष्ठ पल्योपम के असंख्याती भागकी, मखेचर पंचेन्द्रिय की जघन्य अंतर्मुहूर्त की उत्कृष्ट बहुतर हजार वर्ष की, अपर्याप्त समच्छिम खेचर तिर्यंच की जघन्य उत्कृष्ट अंतर्महत की. पर्याप्त सलिम खेचर की * एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चर्थ मूल - -e0प्रमाण का विषय 828 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋापनी गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुनकोडी अंतोमुहत्तपाइ // खहयरं पंचिंदिय जाव ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असं. खेजति भागे, समुच्छिम खहयर पंचिंदिय ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बावरिवाससहस्साई, अपजत्तग समुच्छिम खहयर पंचिदिय ? गोयमा ! जहन्नेणं शि उकोसणीव अंतोमुहत्तं, पजत्तग समुच्छिम खहयर पंचिंदिय ? गोयमा ! अनेणं अंतोमुहु उक्कोसेणं वावत्तरिवास सहस्साइं अंतोमुहुत्तणं // गब्भवतिय सहयर पाचदिय ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमहुसं उक्कोसेणं पलिओवमरस असंखजति नागो, अपजन्तग गब्भवतिखहयर पंचिंदिय ? गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणंवि अंतोमुहुत्तं, पजत गम्भवतिय खहयर पंचिंदिय ? गोयमा जघन्य अंतर्मुहूर्त की उत्कृष्ट बहतर हजार वर्ष अंतर्मुहर्त कम की. गर्भज खेचर की जघन्य अंतर्मुहर्त की उत्कृष्ट एल्योपम के असंख्यात भाग की. अपर्याप्त गर्भज नेचर तिर्यच की नपन्य उत्कृष्ट ने की और पर्यात गर्मज स्वेचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच की जघन्य अंतर्मुहूर्त की उस्कृष्ट पस्योपम के असंख्यातवे भाग अंतर्मुहूर्त कम की. यह तिर्यंच पंचेन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिती गाथा कर कहते हैंसमूछिम की, जलघर की क्रोड पूर्व की, स्वलचर की चौरासी हजार वर्षकी, दरपरिसर्प की पनजार प्रकाधक-राजाबहादुर लाला सुखदेक्सहायनी-ज्याठाकादमी* अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 438-486 जहमेणं अंतोमुत्तं उक्कोसे पलीओवमस्स असंखजति भागो अंतोमुहत्तणाई // सन एत्थणं एएसि संगहणीगाहा भवंती तंजहा (गाहा) समुच्छिमे पुवकोडी,चउरासीई भवे सहस्साई // तेवन्नाबायाला धावत्तरिमे पक्खीणं // 1 // गभमि पुवकोडी, तिण्णिय पलिओवमाई परमाउ // उरगभुयग पुन्चकोडी, पलिउवमासंख भागोय // 2 // 38 // मणुस्साणं भंते ! केवइयं कालठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! __ जहणेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसं तिण्णिपलिउवमाइं // समुच्छिम मणुस्सा ? गोयमा ! जहन्नेणंवि उक्कोसेणंवि अंतोमुहुत्तं, गम्भवक्कंतिय मणुस्साणं ? गोयमा ! जहन्नं अंतोमुत्तं उक्कोसणं तिण्णिपलिओवमाइ, अपज्जत्तम गम्भवक्कंतिय मणुस्साणं ? वर्ष की भुजपर की बयालीस हजार वर्ष की. खेचर की बहुतर इमार वर्ष की. और गर्भज की अर्थ 15जलचर की क्रोड पूर्व की, स्थलचर की तीन पल्योपम की, उस्पर की झोड पूर्व की भुजपर की क्रोड पूर्व की. खेचर की पल्योपम के असंख्यातवे भाग की // 38 // समुचय मनुष्य की जघन्य अंतर्मुहूर्त की जतकृष्ट तीन पल्पोषम की, समूळिम मनुष्य की जघन्य तथा उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त की ( यह अपर्याप्त परते हैं) गर्मज मनुष्य की जघन्य अंतर्मुहूर्त की उत्कए सीन पल्योपन की. अपर्याप्त गर्भज मनुष्य की एकत्रिंशत्तम-बनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्य मूल 48 प्रमाण विषय 40020486 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 11 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी? - गोयमा ! अहनेणंवि उकोसेणंवि अंतोमुटुत्तं, पज्जत गम्भवक्रांतिय मणुस्साणं ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिण्णिपलिओवलाई अंतोमुहुत्तूणाइ // 39 // बाणमंतराणं भंते ! देवाणं के नियं कालंटिती पण्णता ? गोयमा ! जहन्नं दसवास सहस्साई उकोसं पलिओचमाई वाणामतरणि भंते देवीण केयलिय ठितीकालं?गीयमा! जहन्नेणं दसवास सहस्सा. कोनं अद्ध पलिओचमाइ // 10 // जोतिसियाणं भंते! देवाणं केवइयंकालं ठिती गोयना!जहलेण अटभागप लिओवम उक्कोस पलिओवमं वास मतसहस्स मभहियं,चंदविमाणाणं भंते! देवाणं? गोयमा। जहनेणं च उभाग पलिओवर्म उकोसेणं पलि ओवमं वाससयसहस्सं ममहियं, चंदबिमाणाणं भंते ! देवीणं ? जयन्य उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त की. गर्भज मनुष्य की जयन्य अंनयुहूर्त की उत्कृष्ट तीन पल्योपम अंतर्मुहूर्त कम की॥३९॥ वाणव्यन्दर देवता की जघन्य दश हजार वर्ष की उत्कृष्ट एक एल्योपा की. वागव्यन्तर देवी सी जघन्य दश हमार वर्ष की उत्कृष्ट आधी पल्पोपा की. || 50 !! ज्योतिती देवता की अघन्य कुछ अधिक पल्यापम के आठवे भाग का उत्कृष्ट एक पत्योपप एक बार वर्षको योतिषी की देवी की, जघन्य पल्यापम के आठवे भाग की उकृष्ट प्राधा पस्योपम रवान हर वर्ष की. चन्द्र विमानवासी देवता की जयन्य पल्यापम के चौथे भाग की उत्कृष्ट एक पल्योपम एक लाख वर्ष की, चन्द्र विमानवासी * *काशक-राजाबहादुर लाळा सुखदेवसहायनी दालागसादजी* अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्र 251 -मोगदारसूत्र -चतुर्थ काम गोयमा ! जहन्नेणं चउभाग पलिओनमं, उचोलणं अपलि ओवमं पण्णासाए कारहरहिं महियं, सूरबिगाणा भंते ! देवाणं ? गोला / जहणं घमाग पनि उहको पाल आवमं वासलहा मोर सूचनाणाणं भंते ! देवीणं ? गोयभा ! जहन्नं च उभाग पलिओवमं, उक्कोसं अद्धपलिओवमं पंचहिवाससरहिं मभहियं. गहविमाणाणं भंते ! देवागं ? गोयमा ! जहणं चउभाग पलिओरमं, उक्कोसं पलिओत्रमं, गहविमाणाणं भंते ! देवीणं ? गोयमा ! जल्योगं चड साग पशिओरम, उकोसं अहपलिओवमं, णक्वत्तविभाणाणं भंते ! देवी की जघन्य पल्पोपय के चौथे भागभी उत्तष्ठ आधा पल्योपम पचास हजार वर्ष की. सूर्य विमान देव की जघन्य पल्पोपप के चोरेगा की उन्कर एक पल्योपम एक हजार वर्ष की, सूर्य विमान दली जयन्य पार पल्मोगा क प ल्य का यो की यह विपानवासी देवता की। पापा काकी उत्कृष्ट एक पतलीपर का विधानवासी देवी की जघन्य पात्र पल्योपम की उत्कृष्ट आरी पल्यापम की नक्षत्र विमानवाली देवता की जघन्य पाय पस्योपम की उत्कृष्ट आधे पल की, नक्षत्र विमानवासी देवी की जघन्य पार पल्यापम की उत्कृष्ट कुछ अधिक पाव पल्यापम की. Ra><283> प्रमाण विषय 48888 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 252 * अनुवादक बाल अमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी देवाण ? गोयमा / जहण्णेणं चउभाग पलिओवम उक्कोसं अद्धपलिओवम, णक्खत्त विमाणाणं भंते ! देवीणं ? गोयमा ! जहण्णेणं चउभाग पलिओवर्म, उकासेणं सातिरेगं च उभाग पलिओवमं, ताराविमाणाणं भंते ! देवाणं ? गोयमा ! अहण्णेणं सातिरेगं अट्ठभाग पलिओवमं उक्कोसेणं चउभाग पलिओवम, ताराविमाणाणं भंते ! देवीणं केवतियं कालंठिती पण्णता ? गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठभाग पलिओवमं उक्कोसेणं सातिरेगं अट्ठभाग पलिओवमं // 42 // विमाणियाणं भंते ! देवाणं केवइयं कालंठिइ पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमं उक्को सेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं, वेमाणिणीणं भंते ! देवीणं केवतियं कालंठिती पण्णता? तारा विमानवासी देवता की जघन्य पल्योपम के आटवे की उत्कृष्ट पाव पल्योपम की. ता {विमानवासी देवी की जघन्य पल्य के आठवे भाग की उत्कृष्ट कुछ अधिक पल्य के आठवे भाग की / / 41 // समुच्चय वैमानिक देवता की जघन्य एक पल्योपम की. उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम की. समुच्चय वैमानिक देवी की जघन्य एक पल्य की उत्कृष्ट पञ्चावन पल्य की. सौधर्म देवकोक के देवता की मघन्य एक पल्योपम की उत्कृष्ट दो सागरोपम की. सौधर्म देवलोकवासी परिग्रह देवीकी जघन्य एक पल्यो प्रकाश राजाबहदुर शला सुखदेवसहायजी ज्वालांमसादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4848808 एकाशचम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्यमूल 4882 गोयमा ! जहण्जेणं पलिओवमं उक्कोसेणं पणपण्ण पलिऔवमाइं // सोहमेणं भंते ! कप्पे देवाणं ? गोयमा ! जहण्णं पलिओवमं उक्कोसेणं दो सागरोवमाई, सोहम्मेणं भंते ! कप्पे परिगाहियाणं देवीणं अहन्नं पलिओवमं उकोसेणं सत्तपलिओवभाई, सोहम्मे कप्पे अपरिग्गहियाणं देवी जहन्नं पलिओवमं उक्कोसेणं पण्णास पलिओबमाइं // ईसाणेणं भंते ! कप्पे देवाणं ? गोयमा ! जहन्नेणं साइरेगं पलिओवम, उक्कोसेणं साइरेगाई दो सागरोवमाई, ईलाणेणं भो ? कप्पे परिगहियाणं देवीणं ? गोयमा ! जहन्नेणं साइरेगं पलिओवमं उक्कोसेणं नव पलिओवमाई, ईसाणेणं काये अपरिग्गहियाणं देवीणं अण्णं साईरेगं पलिओवमं, उक्कोसेणं पणाणपलिओवमं, पम की उत्कृष्ट सात पल्योपम की, सौधर्म देवलोकबासी अपरिग्रही देवीयों की जघन्य एक फ्ल्य की उत्कृष्ट पचास पल्य की. ईशान देवलोक के देवता की जघन्य कुछ अधिक एक पस्योपम की उत्कृष्ट कुछ। अधिक दो सागरोपम की, ईशान देषलाकेवासी परिग्रह देवी की जघन्य कुछ अधिक एक पल्योपम की उत्कृष्ट नव सागरोपम की. ईशान देवलोकवासी अपरिग्रही देवी की अघन्य कुछ अधिक एक पल्योपय की उत्कृष्ट पञ्चायम पल्योपम की. सनत्कुमारवासी देवता की जघन्य कुछ अधिक दो सागरोपम की एक सात सागरोपप की, माहेन देवलोक के देव की जघन्य कुछ अधिक दो सागर की उत्कृष्ट कुछ अधिक प्रमाण का विषय 4884 0 4 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी सणं कुमारणं भंते / देवाणं ? गोयमा ! जहानेणं दो सागरोवमाई उक्कोसणं सत्त सागरोवमाई, महिंदेणं भंते ! देवार्ण ? गोयमा ! जहोणं साइरेगाई दो सागरोवमाइं, उक्कोसेणं साइरेगाइं सत्त सागरोवाई. रमलोरणं भंते ! कप्पे देवाणं ? जहण्शेणं सप्त सागरोतमाई रलोमतो दर सागरोहमाई, लांतर कप्पे ? जहन्न दस सागरोबमाई उक्कारेण चउदस सागरोबमाई, महासके कप्पे ? जहन्नेणं चउदस सागरोवमाई. उक्कोसेणं सतरस्स सागरोवमाई, सहस्सारे कप्पे ? जहन्नेणं सतरस्स सामरोवमाई उक्कोसणं अट्टारस सागरोवमाई, अण्णए कप्पे देवाणं ? जहन्नेणं महारस सागरोबमाई, उक्कोसणं सात सागरोपम की, ब्रह्म देदोक देव की जघन्य सात सागरोपम की उत्कृष्ट दश सागरोपम की, लंतक देवलोक के देवता की जघन्य दश सागरोपम की उत्कृष्ट चउदा सागरोपम की, महसुक्र देवलोक के देव की जघन्य घउदा सागरोपम की उत्कृष्ट सतरा सागरोपम की, सहस्त्रार देवलोक के देवता की जधन्य सतरा सागरोपम की उत्कृष्ट अठाग सागरोपम की. आणत देवलोक के देशों की जघन्य अठारा सागरोपम की उत्कृष्ट उन्नीस सागरोपम की, प्राणत देवलोक के देवों की जघन्य अनीस सागरोपम की उत्कृष्ट बीस सागरोपम की. अरण देवलोक के देवों की अधन्य बीस सागरोपम की उत्कृष्ट इक्कीसा प्रकाशक राजामहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %2 - एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थ मूल. एगुणवीसं सागरोवमाइं, पणए कप्पे ? जहण्णेणं एगुणवीसं सागरोवमाई; उक्कोसं वीसं सागरोवमाई, आरणे ? जहणणं वींसं सागरोवमाइं उक्कोस इगवीसं सागरोवमाई.अच्चए ? जहणण एकवीसं सागरोवमाई उक्कोसं वावी सागरोवमाई: हेटिय हेट्रिमगेवेज विमाणेसुणं भंते ! देवाणं केवतिय कालं ठिती पत्ता ? गोयमः ! जहणं चावीसं सागरोबमाइं, उक्कोसेणं तीवीसं सागरोवमाई. इंटिम माझिमगे बेज्जविमाणेसुणं ? गोयमा! जहन्नतेवीसं सागरोवभाई उक्कोसं चउवीस सागरोषभाई, हेट्ठिम उवरिम गेविज देवाणं ? जहण्णेणं चउवीस सारगोवमाइ उक्कोसेणं पणवीस सागरोवमाइ,मझिम हट्ठिम गेबिजग देवागं? जहण्णेणं पणबीस सागरोवमाइ, उक्कोसेणं सागरोपम की. अच्युत देवलोक के देवों की जघन्य इक्की त सागरोपम की उत्कृष्ट बावीस सागरोपम की. नीचे के नीचे के ग्रैबेथक देवता की जघन्य वाचीस सागरोपम की उत्कृष्ट तेवीस सागरोपम की, नीचे के मध्य के वेयक के देवों की जघन्य तेवीस सागगेपम की उत्कृष्ट चौवीस सागरोपम की. नीचे के ऊपर के ग्रैधेयक के देवता की जघन्य चौबीस सागरोपम की उत्कृष्ट पच्चीस सागरोपम की. मध्य के नीचे के ग्रेवेयक के देवता की जघन्य पच्चीस सागरोपम की उत्कृष्ट छवीस सागरोपम की. मध्य के रुपध्य की वेयक के देवता की जघन्य छबीस सामरोपम की उत्कृष्ट सत्तावीस सागरोपम की, मध्य अर्थ प्रमाण का विषय 138*488 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 256 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी छब्बीसं सागरोवमाई, मज्झिम मज्झिप गेवेजग देवाणं जहप्पणं छब्बीस सागरोवमाई उक्कोस्रणं सत्तावीसं सागरोवमाई, मझिम उवरिम गेविजग देवाणं जहण्णेणं सत्तावीसं सागरोवमाइं उक्कोसेणं अट्ठावीसं सागरोवमाई, उबरिमहेट्ठिम गैवेजग. देवाणं जहणणं आढवीसं सागरोवमाइं उक्कोसेणं एगुणतीस सागरोधमाई, उवरिम मज्झिय गेवेजग देवाणं जहणणं गणतीसं सागरोवमाइं, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमाई, उवरिम उवरिम गेवेज्जग देवाणं जहण्णेणं तीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं एगतीसं सागरोबमाई, विजय वेजयंत जयंत अपरिजित विमाणेसुणं भंते ! देवाणं केवतियं कालं द्विती पण्णता ? गोयमा ! जहन्नं एगतीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं प्रकाशक-रानावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ऊपर की ग्रेवेयक के देवता की जघन्य सत्तावीस सागरोपम की उत्कृष्ट अठावीस सागरोपम की. ऊपर के नीचे के ग्रेवेयक के देवता की जघन्य अठावीस सागरोपम की उत्कृष्ट गुनतीस सागरोपम की, ऊपर के मध्य के ग्रैवेयक के देवता की जघन्य गुनतीस सागरोपम की उत्कृष्ट तीस सागरोपम की. अपर के ऊपर की प्रैवेयक के देवता की जघन्य तीस सागरोपम की, उत्कृष्ट इकतीस सागशेपम की. विजय वैजयंत जयंत अपराजित इन चार अनुत्तर विमानवासी देवता की जघन्य इकतीस सागरोपम की उत्कृष्टतेतीस सागरोपम की. अहो भगवन ! सर्वार्थ सिद्ध महा विमानवासी देवता की कितने काल की स्थिति कही है ? अहो For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 257 एकत्रिंशचम-अनुयोगद्वार सूत्र चर्तुध / तेतीसं सागरोचमाइं, सव्व? सिडेणं भंते ! महाविमाणे देवाणं केवतियं कालंठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नन्नमणुक्कोसं तेतीसं सागरोवमाइं / से तं सुहुमे अडा पलिओवमे / सेतं अद्धा पलिओवमं // 42 // से किं तं खेत्तं पलिओवमे ? खेत्तं पलिओवमे दुविहे पण्णत्ते तंजहा-सुहमेय ववहारिएय. तत्थणं ___ जे सुहुमे से टप्पे, तत्थणं जे से ववहारिए से जहा नामए पल्लेसिया जोयणं आयम विक्खभेणं, जोयणं उध्वेहेणं, तंतिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, से णं पल्ल एगा हिया बेआहिय तेआहिय जाव भरिते वालग्ग कोडीणं, तेणं वालग्गा णो अग्नी डशिष्य ! जघन्य अउत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम की. यह सूक्ष्म आधा पस्योपम हुषा और आधा पल्योपम भी हुवा // 42 // अहो मगवन् ! क्षेत्र पल्योपम किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! क्षेत्र पल्योपय के दो प्रकार कहे हैं तद्यथा-सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम और व्यवहार क्षेत्र पल्योपम. इस में से सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम को तो यहां स्थिर रखना. और व्यवहारिक क्षेत्र पल्यापम सो यथा दृष्टांत-उत्त प्रकार का योजन का लम्बा चौडा एक योजन का ऊंडा त्रिगुनी परधीवाला उस पाळे को एक दिन के दो दिन के * तीन दिन के यावत् सात दिन के जन्मे बच्चे के वालाग्र की क्रोडाकोडी के समुह कर ठसोठस भरे ऐसा भरे की वह अग्नि से जले नहीं वायु में उडे नहीं पानी में गले नहीं याक्त किसी भी प्रकार विनाश पाने 48488 प्रमाणका विषय 4 अर्थ 498 402 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ने * अवय दक शलब्रह्मचारि मुनि श्री अणेलख ऋषिनी + हेजा जाव णो पूइत्ताए हव्वमा गच्छेब्बा, जे णं तस्स पल्लरस आगास पएसा तेहि वालग्गेहि अप्फुन्ना तओणं समए 2 एगमेगं आगासपएसं अबहाय जावईएणं कालेणं से पल्ले खीणे जाव निदिए भवती से तं वहारिए खेत्त पलिओवगे // एसि पल्लाणं कोडाकोडी भवेज दस गुणियाते बवहारियरस खेत्त सागरोवमान. एगस्स भवेपरिमाणं // एएहिं धवहारिएहिं खेत्त पलिओवम सागरोवमेहि किं पओयणं ? एएहिं ववहारि नत्थि किंचिवी पओयणं, केवलं पणवणाविजंति, सेत्तं ववहारिए खेत्त पलिओवमे // 43 // से किं तं सुहुम खेत्त पलिओवमे ? सुहुम खेत्ते नहीं. उन बालाग्र को जितने आकाश प्रदेश स्पर्श रहे हैं ( एकेक वालाग्र को असंख्यात 2 आकाश रम्पर्श रहे हैं) उतने समय 2 में निकाले. अर्थात उस पाले में समय 2 में एकेक आकाश प्रदेश निक ले. यों निकालते 2 यह सब पाला वाली होजावे रज रहित यावन् साफ खाली होजावे सब वालाग्र रहित होये, उसे व्यवहार क्षेत्र पल्यो यस कहना. और ऐसे दश क्रोडाकोड पाले खाली होवे उतने काल के समुह एक और मा. अई भगवन् ! म पवहार क्षेत्र पल्योपम सागरोपम कर क्या प्रयोजन में है? अहा शिध्य! इस से कुछ वी प्रयोजन नहीं है फक्त प्रद्यपना रूप प्रमाण बताया है. यह हार क्षेत्र पल्योपम हवा // 43 // अहो भगवन् ! सुक्ष्म व्यवहार पल्योपम किसे कहते हैं ? अहो. प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * अर्थ 4880 एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार गुप-चतुर्ध मूस-887 पलिओवमे से जहा जामए पल्लेसिया जोयण आयम विक्खंभेणं जाव परिखे वेणं सेणं पल्ले एगाहिय बेयाहिय तेयाहिय जाव अरिते वालग्ग कोडीणं. तत्थणं एगमेग वालगा असंवेज्जाइ खंडाई कजति तेणं बरग दिट्ठीणं उगाहणाओ असंखेति भागमता सुहम पणगजीवरस संरीरोगहणाआ असंखेजगुणा, तेणं वालग्ग णोअग्गिड. हेजा जाव नो पूइत्ताए हव्व मागच्छेज्जा, ते णं तस्स पलरस आगास देसा तेहिं वालग्गेहिं अपन्नावा अगपुनावा तत्तोणं समए 2 एगमेगं आगासपएसं अबहाथ,जाय ईएणं कालेणं से पल्ले वीणे जाव णिति भवती, से तं सुहुमे खत्त पलिगोवमेतत्थणं चायए पण्णवहां एवं शिष्य ! सूक्ष्म व्यवहार पल्योपम सो यथा दृष्टांत-उक्त प्रकार से ही पाला एक योजन का लम्बा एक योजन का चौडा गोलाकार और एक योजन का झंडा उस पाले को एक दिन के दो दिन के तीन दिन के यावत् सात दिन जन्मे बच्चे के बालाग्र उन एक चालान के असंख्यात. खण्ड कर वे एमे सक्ष्म खण्ड करे कि दृष्टी से देखावे नहीं. क्यों दि. उन के असंख्यात भाग हुवे हैं वह एक खण्ड सूक्ष्म फूलन के जीवों की शरीर की अवगाना से महाराज ने आरेक बडे आनना, ऐसे बालाग्र कर उस पाले को ठसाठस भरे ऐसा परे की वे आपसे जले नही वायु से नहीं पानी से गले नहीं उन बालाग्र को स्पर्श हुवे अथवा नहीं भी स्पर्श हुबे अर्थात् उस पाला में के सब आकाश प्रदेश क्षेत्र पल्य के दृष्टीवाद के द्रव्य वालाग्र को स्पर्श जो प्रदेश तैसे ही कितनेक द्रव्य बालाग्र विना स्पी। प्रमाण का विषय 80- 800 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्र अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्रीअमोलक शीपना+ वयासी-अत्थिणं तस्स पलुस्स आगास पदेसा जेणं तेहिं वालग्गेहि भणपुन्ना ? हंता अस्थि, अहा को दिट्ठतो ? से जहा णामए मंचएसिया कोहडाणं भरिते तत्थणं माउलिंगा पक्खित्ता तेविमाया, तत्थणं विल्लापक्खित्ता तेवि माया, तत्थणं आमलगा खित्ता तेविमाया, तत्थणं वयरा पखित्ता तेवि माया, तत्थण चणगापखित्ता तेवि माया, तत्थणं मुग्गा पखित्त ते विमाया, तत्थणं सरीसवा पखित्ता ते वि माया, तत्थणं गंगावालुया पखित्ता सावि माया, एवमेव एतेणं दिटुंतेणं आत्थणं मी आकाश प्रदेश रहे हैं. जब आकाश प्रदेशों में से एकेक समय में एकेक आकाश प्रदेश निकाले, यो निकालते 2 जितने काल में वह पाल, खाली हो यावत् साफ होवे एक भी आकाश प्रदेश पस में न रहे उसे सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम कहना. तब शिष्य शंका का प्रेरा हुवा गुरु से प्रश्न किया कि-अहो भगवन् ! उस पाले में ऐसे भी आकाश प्रदेश रहे हैं कि जिन को बालाग्र का स्पर्शे नहीं हुवा ? गुरु बोले-हां शिष्य ! एक बालात्र से दूसरे बालान के बीच में असंख्यात आकाश प्रदेश ऐसे हैं कि जो चालान को स्पर्श नहीं हैं. अहो भगवन् ! यह कथन किस दृष्टांत कर माना जावे ? अहो शिष्य ! यथा दृष्टांत किसी कोठार में कुष्माणु (कोला) फल भरे हों उस में मातलिंग (विजोरा) का प्रक्षेप करे तो उन का उस में समावेश होजावे. उस में बिल्ल फल का प्रक्षेप करे तो वे भी उस में समाजावे प्रकाशक-राजाबाहादुर लाका मुखदेवस हायजी ज्वालामसादज For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तरस पल्लरस आगास पएसा जे णं तेहिं वालग्गेहिं अणषुम्ना, एए सिणं पलाणं कोडा / कोडी भवेज दस गुणिया तं सुहुम खत्त सागरोवमस्स एगस्स भवपरिमाणं // एएहिं सुहुमहिं खेत्तपलिओवम सागरोवमेहिं किं पयोयणं ? एतेहिं सुहुम खेत पलिओवम सागरोवमेहिं दिट्टिवादे दवामविज्जति // 44 // कति विहाणं भंते ! प्रशत्तम अनुयामद्वारसूत्र-चतुर्य मूल 48 488048 प्रमाण का विषय उस में आमले फल का प्रक्षेप करे तो वे भी उस में समाजावे. उस में बोर का प्रक्षेप करे तो वे Fउस में समाजावे. उस में चिने का प्रक्षेप करे तो वे भी उस में समाजाचे, उस में मूंग का प्रक्षेप करे तो वे भी उस में समाजामे, उस में सरिसा का प्रक्षेप करे तो वे भी उस में समाजावे, उस में गंगा नदी की बालुका प्रक्षेपासी समाजाने. इसी दृष्टान्त कर अर्थात बडे पदार्थ ठसोठस भरे हों तो भी उस में उस से छोटे पदार्थों का समावेश होमाता पालान कर भरे रखे पाले में भी असंख्यात आकार प्रदेश उन वालाग्र को विना स्पर्श रहे जानना. ऐसे दश क्रोडाकोड पाले 10 खाली होवे उसे मूक्ष्म क्षेत्र समोर का परिणाम जानना. अहो भगवन् ! इस सूक्ष्म क्षेत्र पल्पोपम। सागरोपम से क्या प्रयोजन है ? अहो शिष्य ! इस सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम सागरोपम से दृष्टीबाद के द्रन्य कीमपती की माती है / / 44 // अहो भगवन् ! दृष्टीराद में द्रव्य कितने प्रकार के कहे हैं ! अहो 486 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + दव्या पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता तंजहा-जीव दव्वाय अजीव दव्वाय // 45 // अजीव दवाणं भंते ! कतिविहा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता तंअहा-रूवी अजीव दव्याय, अरूवी अजीव दव्वाय // 46 // अरूवी दवाणं भंते ! कति वहा पण्णता ? गोयमा ! दस विह पण्णते तंजहा-धम्मत्थिकाए, धम्मात्थकायस्स देसा, धम्मत्थि कायस पदेसा; अधम्मत्थिकाय, अधम्मत्थि कायस्स देसा,अधम्मत्थि कायस्स पदेसा,आगसत्थिकाए.आगासत्थिकायस्स देसा,आगासात्थका यस्स पएसा, अद्धा समए // 4 // रूवी अजीव दव्वाणं भंते! कतिविहा पण्णत्ता गोयमा! शिष्य ! दृष्टीवाद में द्रव्य दो प्रकार के कहे हैं तद्यथा-१ जीव द्रव्य और 2 अजीव द्रव्य // 45 // अहो भगवन् ! अजीव द्रव्य कितने प्रकार के कहे हैं. अहो शिष्य ! अजीव द्रव्य दो प्रकार के कहे हैं तद्यथा-रूपी अनीव द्रव्य और अरूपी अजीव द्रव्य // 4 // अहो भगवन् ! परूपी अजीव द्रव्य कितने प्रकार के कहे हैं? अहो शिष्य ! अरूपी अजीव द्रव्य दश प्रकार के कहे हैं. तद्यथा१ धर्मास्ति काया,२धर्मास्ति काया के देश, ३घस्ति काया के प्रदेश 4 अधर्यास्ति काया,५अधर्मास्ति क्राप के देश, ६अधर्मास्ति काया के प्रदेश, 7 आकास्ति काया, 8 आकास्ति काया के देश, 9 आकास्ति काथा के प्रदेश. और 10 अद्धासमयकाल // 47 / / अहो भगवन् ! रूपी अजीव द्रव्य के कितने प्रकार कहे हैं। प्रकाशक-राजाबहादुर लाला एखदेवसहायजी पवालाप्रसादनी* म For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र 28 N एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल चउबिहा पण्णत्ता तंजहा-खंधा, खंधदेसा,खंधप्पएसा, परमाणु पोग्गलतेणं भंते! 14 किं संस्खजा असंखजा अणता ? गोयमा ! नो असखजा, नो असंखेजा अणंता से केणट्रेण भंते ! एवं वुच्चइ नो संखज्जा नो असंखजा अणता ? गोयमा ! परमाण पोग्गला अणंता, दुपएसियाखंधा अणंता, जाव अणंत पएसिया खंधा अणंता से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चति नो संखेजा नो असंखज्ज अणंता // अहो गौतम ! रूपी अजीव द्रव्य चार प्रकार के कहे हैं. तद्यथा-१ पुद्गलों का स्कन्ध, 2 पुगलों का देश, 3 पुद्गलों के प्रदेश और 4 परमाणु पुद्गल. अहो भगवन् ! यह स्कंध देश प्रदेश परमाणु रूप पदलों हैं सो संख्यात हैं कि संख्यात हैं कि अनन्त हैं ? भो शिष्य ! संख्यात असंख्यात नहीं है परंतु अनन्ते हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा कि संख्यात असंख्यात नहीं है परंत अनंत हैं? अहो शिष्य ! पग्माणु पुद्गल भी अनन्त हैं, द्विप्रदेशिक स्कन्ध जो दो परमाण पगल के संयोग से बना वह ] भी अनन्त हैं. यावत् संख्यात प्रदेशी स्कन्ध भी अनन्त हैं, असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध भी अनन्त है और अनन्त प्रदेशीक स्कन्ध भी अनन्त हैं. अहो शिष्य ! इस लिये ऐसा कहा है कि पुद्गलों / संख्यात असंख्यात महीं है परंतु अनन्त हैं, अहो भगवन् ! जीव द्रव्य कितने हैं दया सं कि असंख्यात बैंकि-अनंत हैं? अहो शिष्य ! संख्यात असंख्यात नहीं हैं परंतु अनन्त हैं. अमे भगवन् / +8 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अनुवादक वा ब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी जीव दवाण भंते! किं संखेज असंखजा अणंता ? गोयमा ! नो संखजा,नो असंखेजा, अणंता,से केणट्रेणं भंते! एवं बुच्चइ नो संखेजा णो असरमा अर्णता ? गोयमा ! अखिजा नेरइया, असंखेजा असुरकुमारा, जाव असंखेजा थणिय कुमारा, असंखेजा पुढवी काइया जाव असंखेना वाउकाड्या, अणंता वणसइ काइया,असंखेज्जा बेइंदिया जाव असंखेजा चउरिंदिया, असंखेजा पंचिंदिया तिरिक्खजोणिया, असंखेज्जा मणुसा, असंखेज्जा वाणमंतरा, असंखेजा जोतसिया, असंखेजा माणिया, अणंतासिहा, से तेणद्वेणं गोयमा! एवं बुच्चती जीव दव्वा नो संखजानो असंखेजा अणंता॥४८॥कतिणं किस कारन ऐसा कहा कि जीव द्रव्य अनन्त हैं ? अहो शिष्य ! असंख्यात नरक के मेरोये हैं, असंख्यात अमर कुमार देव हैं यावत् असंख्यात स्थनित कुमार देव है. असंख्यात पृथ्वी काया यावत् असं. ख्यात वायकाया के जीव हैं. अनंत वनस्पति काया के जीव है, असंख्यात बेन्द्रिय थावत् असंख्यात चौरिन्द्रिय जीव हैं. थसंख्यात तिर्यंच पंचेन्द्रिय, असंख्यात मनुष्य [संच्छिम आभिय] असंख्यात वाणभ्यन्तर, असंख्यात ज्योतिषी देव, असंख्यात वैमानिक देव और अनन्त सिद्ध भगवंत के जीव हैं। * अहो शिष्य ! इसलिये ऐसा कहा कि जीव द्रव्य संख्यात असंख्यात नहीं हैं. परंतु अनन्त हैं // 48 // अहो * प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्र JOD एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल 04 भंत! सरीरा पणता? मोयमा!पंचसरीरा पण्णत्ता-उरालए,वेउव्वए,आहारए, ते अएकम्मए नेरइयाणं भंते ! कति सरीरा एण्णता? मोयमातओ सरीरा पण्णता तंजहा-वेउत्रिए तेयए कम्मए, असरकमाराणं भंते! कति सरीर पण्णगोमायना तो सरीरा पत्ता तंजहा-विउव्वए तेयए कम्मर, एवं तिष्णि तं मीरा जाम थपियकुमारापुढवि काइयाणं भंते कति सरीरा पचा?गोयमानिओ सरीरा पा स्वत्साजना ओसलिए तेयए कम्मए एवं आउ. तेउवणसइ काइमाणवि,एते चव लिणि सरीरा भाणियबा, वाउकाइयाणं? गोयमा ! चत्तार सरीरा पणत्ता तंजहालिए वे उधिनेथए, NRS Agमाण विषय 20 भगवन् ! शरीर कितने कहे? अहोशिय ! शरीर पांच प्रकार के को है. ताया-१ औदारिक #2 वैक्रेय. 3 आहारक, 4 तेजस, और 5 कार्माण. अहो भगवन् ! नेरोये के कितने शरीर हैं ? अहो / है मौतम ! तीन शरीर दहे हैं तद्यथा-१ चक्रेय. 2 तेजम. और 3 काम से ही प्रश्रोत्तर आगे भी. औ स्थान जानना) असुर कुमारादि दनों ही भुवाति देव के 3 अरीर-१ बैक्रेय,२ तेजस. 3 कार्याग. पृथ्वी पानी तेउ और पनस्पति इन चारों स्थार के तीन 3 -1 और विक, 2 तेजस और 3 कार्माण. वायुकाया के चार भरीर--५ आदारिक, : वैन.प, 3 तेजस, * कार्माण. बेइन्द्रिय, इन्द्रियः चौरिन्द्रिय के तीन शरीर-५ औदारिक, 2 तेजस, 3 कार्माण. तिर्यंच पंचन्द्रिय के वायुकाया। For Private and Personal Use Only
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________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अर्थ 2 अनुगर क बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी22 कम्मए बेइंदिय तेइंदिय चा दियाणं जहा पुढविकाइयाणं पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं जहा वाउकाइयाणं, मणुस्साणं जाव गोयमा ! पंच सरीरा पण्णत्ता तंजहा-उरालिए वेउविए, आहारए, तेयए, कम्मए,वाणमंतरा जोतिसिया वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं, // 49 // केवइयाणं भंते ! ओरलिय सरीरा पत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता तंजहा-बंधेलगाय, मुक्केलगाय. तत्थणं जे ते बंधेलगा ते असंखेजाहि उसप्पिणी उसीप्पणीहिं अवहीरती, कालओ, खेत्तओ असंखज्जा लोगा. जैसे चार शरीर. मनुष्य के पांचों शरीर. वाणव्यन्नर, ज्योतिषी और वैमानिक के नेरीये के जैसे ही तीन शरीर पाते हैं // 49 // अहो भगवन् ! औदारिक शरीर कितने प्रकार के कहे हैं ? अहो शिष्य ! र आदीरक शरीर दो प्रकार के कहे हैं तद्यथा-जो शरीर बन्धन कर जीव बैठा है वह बन्धलक शरीर में और जो शरीर गये जन्म में कर 2 छोड आया है वह मुकेलक. इस में बंधेलक औदारिक शरीर , हैं गात हैं. 4 एकेक समय में एकेक औदारिक शरीरकाने हो असंला उत्तापणी। S ..... गाव. यह काल से कहा, और क्षेत्र से एकेक शरीर के साथ एकेक आकाश | में प्रदेश स्थापन पते असंख्यात लोक के आकाश प्रदेश स्थापन होजावे. और मुकेलक (छोडे हुवे) xनगोद में जीव अ परंतु शरीर तो असंख्यात ही है. एकेक शरीर में अनन्त२ जवि रहे हैं. * पकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी-ज्वालाप्रसादजी * For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सूत्र 267 मनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल तत्थणं जेते मुक्केलगा तेणं अणता अणंताहिं उसापिणी ओसारिणीहि अवहीरंति कालओ खेत्तओ अणंता लोगा अभवासिद्धिएहिं अणंतगणा सिद्धाणं अणंत भागो // 50 // केवइयाणं भंते ! वेउब्बिय सरीरा पण्णता? गोयमा ! दावहा पण्णता तंजहा--बंधेलगाय मुक्केलगाय तत्थणं जेते बद्धलगा तेणं असंखजा असंखिजाइ उलप्पिणी ओसापिणीहिं अवहीरंति कालओ खत्तओ अखेज्जा सेढीओ पयरस्स असंखेज्जतिभागे तत्थणं जेते मुक्केलगा तेणं अणता अणंताहिं / उस्सारिणी ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ सेसं जहा उरालिया मुक्केलगा शरीर अनन्त हैं, एकेक समय में एकेक शरीर का हरण करते अनंत सर्पिणी उत्सर्पिमी व्यतिक्रान्त हो जावे र से कहा और क्षेत्र से एकेक आकाश प्रदेश से एकेक शरीर स्थापन करने अनंत लोक के अकाश प्रदेश भरा जावे. क्यों कि इस संसार में परिभ्रमण करते इस जीव को अनन्तान्त काल व्यतिक्रान्त होगया हैं. अभव्य जीवों से अनन्तगुना अधिक और सिद्ध भगवंत के अनन्तो भाग कमी हैं // 50 // अहो भगवन् ! वैक्रेय शरीर कितने हैं ? अहो शिष्य ! वैक्रेय शरीर दो प्रकार के कहे हैं. तद्यथा-१ बंधेलक और 2 मूकेलक. इस में जो बघेलक हैं वे असंख्यात हैं. समय 2 में एकेक 'हरण करते असंख्यात सर्पिणी उत्सर्पिणी काल व्यतीत होजावे यह काल से और क्षेत्र से असंख्यात 80898808 प्रमाण विषय 4880 48+ एकत्रि For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 8+ अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी तहा एतेवि भाणियव्वा // 55 // केवतियाणं भंते ! आहारग सरीरा एण्णता ? गोयमा ! आहारक सरीरा दुबिहा पण्णत्ता तंजहा बद्धलगाय मुक्केलगाय तत्थणं जे ते बहेलगा तेणं सिअ अत्थि, लिअ नत्थि जइ अत्थि जहन्नेणं एगोवा, दोवा तिण्णिवा,उक्कोसेणं सहस्सं पुहुत्तं,मुलगा जहा ओरालिया सरीरा तहा भाणियव्वा // 52 // केवतियाणं भंते ! तेयग सरीरा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता श्रेणि प्रतर के असंख्यातवे भाग में आवे उस के जिनमे आकाश प्रदेश होते हैं उतने हैं. और जो म्केलक हैं वे अनन्ते हैं. समय 2 में एकेक का हरण करते अनन्त सर्पिणी उत्सर्पिणी काल व्यतीत होजावे और सब औदारिक मुकेलक का कहा तैसा कहना // 1 // अहो भगवन् ! आहारक शरीर कितने हैं ! अहो शिष्य ! आहारक शरीर दो प्रकार के कहे हैं तद्यथा-बधेलक और मूकेलक. इस में जो बंधेलक है वह किसी वक्त मिलता है किसी वक्त नहीं भी मिलता है क्यों कि जो पूर्व के पाठी आहारक लब्धि के धारक पृच्छा के समय ही यह बनाते हैं जो कभी मिले तो जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट / पृथक्त्व 2 से 1 हजार. और प्रकलक शरीर अनंत है जैसा औदारिक मूकेलक का कहा तसा आहारक का भी कहना. क्यों कि चौदह पूर्व के पाटी पटवार होकर आधा पटल परावर्तन संसार परिभ्रमण करते हैं // 20 // अहो भगवन ! तेजस शरीर कितने हैं? अहो शिष्य ! तेजस शरीर दो *काशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी चालापसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्र 269 एकत्रिंशत्तम्-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुथ मूल -*88%> ઈ तंजहा-बंघेलगाय मुक्केलगाय. तत्थण जे ते बंधेलगा तेणं अणंता, अणंताहिं उसप्पिणी उसप्पिणीहिं अवहीरंती कालओ खेत्तओ अणंता लोगा. हे हिं अणंतगुणा, सव्व जीवाणं अणंतभागूणं, तत्थणं जे ते मुक्कलगा तेणं अणता अणं ताहिं उसीप्पणीहिं उसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खे तो अगतालोगा सब्ब जीवहिं अणतगुणा, जीव वग्गरस अणंतभागो // 53 // केवतियाणं भो ! कम्मग सरीरा पत्ता ? प्रकार के कहे हैं. तद्यथा-बंधक और मकेला (तेमस शरीर हटे बांद आत्मा का साथ ही होना है। इस में बंधेलक हैं वे अनन्ते हैं (क्यों कि निगोद के अनन्त जीवों के तेजस शरीर अलग 2 है ) समयमें एकेक हा जयंती दिमागले अकम अधिक क्यों कि सिद्ध से अनंत गन अधिक निगोद के जीवों सब तेजस शीर के धारक है. और सब जीवों के अनंतवे भाग हीन. क्यों कि सब जीवों में सिद्ध के जीव भी समागये. इस लिये जितने सिद्ध हुवे उतने तेजप्स शरीर कमी होगये. और जो सुकेलक तेजस शरीर हैं वे अनंत हैं. समय 2 में एकेक हरण करते अनंत उत्सर्पिणी वसर्पिणी व्यतिक्रान्त होजाये. यह काल से और क्षेत्र से अनन्त लोकाकाश प्रदेश नितने, सब जीवों से अनंतमुने अधिक, और जीव वर्ग के असंलो भाग, अर्थात् जितने सब जीवों उन को उतने का करना. उसमें का एक भाग कमी करना .सिद्ध का] इतने 48418 प्रमाण कायय 888 | Age For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गोयमा दुविहा पण्णत्ता तंजहा-बहेलगाय मुक्केलगाय, जहा तेयग सरीरा तहा कम्मग सरीरावि भाणियव्वा // 54 ॥णेरइयाणं भंते ! केवतिया ओरालिया सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता तंजहा-बंद्धेलगाय मुक्केलगाय तत्थणं जे बंडेलगा देणं गत्थी तत्थणं जे ते मुक्केलगा तेणं जहा ओहिया ओरालिया सरीरा तहा भाणियव्वा // मेरइयाणं भंते ! केवतिया वेउव्विया सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता तंजहा-बंडेलगाय मक्केलगाय तत्थणं हैं // 53 // अहा मन कार्याण शरीर कितने कहे हैं? अहो शिष्य ! कार्माण शरीर दो प्रकार के कहे हैं. चेक और 2 केलक. जैसा तेजस शरीर का कहा तैसा ही कार्माण शरीर का कहना // 14 // अ. भगवन ! :., के औदारिक शरीर कितने प्रकार के हैं ? अहो शिष्य ! दो प्रकार के हैं. : बंधेलक और 2 सकेलक. इस में जो बंधेलक हैं वह तो वर्तमान काल में नहीं हैं क्यों कि नेरीये वैक्रेय शरीर धारी हैं. और मूलक तो औधिक औदारिक शरीर का कहा तैसा / कहना.अहो भगवन् नेरीये के वैकेय शरीर कितने प्रकार का कहा है?अहो शिष्य दो प्रकार के हैं तद्यथा बंधेलक और मूके लक. इस में से बंधेलक तो यात हैं एकेक समय में एकेक करने से असंख्यात अवसर्पिणी 10 उत्सर्पिणी बीस जाय यह काल से और क्षेत्र से असंख्यात श्रेणिक प्रतर के असंख्यात भाग में वह अनुवादक बाल ब्रह्मचारी नि श्री अमोलक ऋषिर्ज प्रकाशक-रानावहादुर ला सुखदेवसहाय जी ज्वालाप्रसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 04 एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र -चतुर्थ मूल -88.83:. अर्थ जे ते बंधलगा तेणं असंखज्जा असंखेजाहिं उसप्पिणी ओसप्पिणीहि अवहीरती कालओ, खत्राओ असंखेजाओ सेटीओ पयरस्स असंखेजति भागो तामिणं सेढीणं विक्खभ सूई अंगुल पढम वगमलबितिय वग्गमूल पडुपन्न अहवणं अंगुलं वितीय वग्गमूल घणप्पमाण मेत्ताओ सेढीओ,तत्थणं जेते मुक्केलया तंजहा ओहिया ओरालय सरीरा तहा भाणियब्वा आहारग बंधेलगा नत्थि,मुक्कलगा जहा ओरालिया तेयगकम्म सरीरा तंजहा-एतेसिं चेव विउव्विय सरीरा तहा भाणियव्वा // 55 // असुर कुमाराणं भंते केवातिया ओगलिया सरीरा पण्णत्ता? गोयमा ! तंजहा-नेरइयाणं श्रेणि जितन असंख्यात आवे पूर्व से पश्चिम तक लांबी एक अंगल प्रमाण चौडी इतने में जितने असंख्यात आये उतने नरक के वैकेय शरीर हैं, असतकल्पना से 256 श्रेणि. उस का प्रथम वर्ग मूल सोले, क्यों कि 16416-256, इसलिये सोले श्रेणि आई. जस को दूसरा वर्गमूल 4 क्यों कि 444%D16, 164464 श्रेणि असतकल्पना से आर. परंतु परमार्थ से तो असं-100 ख्यात श्रेणि जानना. उस के जितने आकाश प्रदेश उतने नरक के उत्कृष्ट शरीर जानना. और जो मूलक शरीर है वे जैसे औधिक औदारिक शरीर का कहा तसा कहना. नरक में आहारक शरीर बंधेलक तो नहीं हैं और नरक के जीवों ने प्रथम छोडे हुवे आहारक शरीर औदारिक शरीर के जैसे ॐ असंख्यात कहना. नरक के तेजस और कार्माण शरीर का जैसे वैक्रय शरीर का कहा तैसा ही कहना For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 272 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक पिाजी उरालिय सरीरा तहा भाणियव्वा / असुरकुमाराणं भंते ! केवतिया बउब्विया सरीरा पत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णता तंजहावंडे लगाय मुक्केलगाय, तत्थणं जे ते बंद्धलगा तेणं असंखजा,असंखेजाहि उसप्पिणी ओसप्पिणीहि अवहीरति कालओ खत्तओ, असंखेजाओ सेढीओ पयरस असंखेजइ भागे, तासिणं सेढीणं विश्वंभसूईअंगुल पढम बग्गम स्म असंखेजति भागो।मुक्केलगाजहा ओहिया ओरालिय सरीरा तहा माणियवा, असुरकुमाराणं भंते ! केवतिया आहारग सरीरा पणत्ता? // 55 // अहो भगवन् ! अमर कुमार देव के औदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा है ? अहो शिष्य : जैसा नरक के औदारेक शरीर का कहा तैसा ही कहना अहो भगवन् ! असरकुमार देवता के चैक्रय शरीर कितने हैं ? अहो गौतम ! वैकेय शरीर दो प्रकार के हैं. तद्यथा-१ बंधेलक और 2 मूकेलक. इस में बंधेलक हैं वे असंख्यात हैं वे समय पर हरण करते असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी हरण करते वीत जावे यह काल से. और क्षेत्र से असंख्यात श्रेणि प्रतर के असंख्यातवे भाग में आवे उस श्रेणि की लम्बी सूची अंगुल प्रमाण क्षेत्र की प्रथम श्रेणि उस का प्रथम वर्ग मूल 16 का, असंख्यात श्रेणि के असंख्यात आकाश प्रदेश जितने इतने अमुरकुमार देव के वैक्रेय शरीर जानना. नरक से असंख्यात भाग कमी होती है. और मुकेलक शीर तो जैसा औधिक औदारिक शरीर का कहा तैसा कहना. ओ. भगवन् ! असुर कुमार देव के आधरिक शरीर कितने प्रकार कहा है ? अहो शिष्य ! दो प्रकार *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org गोयमा! दुविहा पण सा तंजहा-बंडेलगाय मुक्केलगाय, जहा एतेसिं चेव आरालिय सरीरातहा भाणियव्या, तेयग कम्मरस सरीरा जहा एतेसिं चेव वेउब्धिय सरीरा तहा भाणियव्वा, जहा असुरकुमाराणं तहा . जाव थणियकुमाराणं ताव भाणियव्या // 56 // पुढवी काइयाणं भंते ! केवतिया ओरालिय सरीरा पण्णता ? गायमा ! दुविहा पण्णता तंजहा-चंडलगाय मुक्केलगाय, एवं जहा ओहिया ओरालिया सरीरा तहा भाणियव्वा, पुढवीकाइयाणं भंते ! केवतिया वेउव्विया सरीरा पण्णत्ता गोयमा ! दविहा पणत्ता तंजहा-बडेलगाय मुक्केलगाय, तत्थण जे ते बंडेलगा *28. एकोत्रिंशत्तम अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल train *98980- ममाण विषय +8 का कहा है. तद्यथा-१ बंधेलक और 2 मुकेलक. जिस प्रकार असुर कुमार के औदारिक शरीर का का कहा तैसे ही आहारक शरीर का भी कहना. और तेजस कार्मान शरीर का इन के वैकेय शरीर जैसा कहना, यह पांचों शरीर का जिस प्रकार असुर कुपार देव का कथन कहा तैसा ही यावत् स्तनित कुमार पर्यंत कहना. // 56 // अहो भगवन् ! पृथ्वीकाया के औदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा है ? अहो शिष्य ! पृथ्वी काय के औदारिक शरीर दो प्रकार का कहा है. तद्यथा* बंधेलक और मु.लक. इस में जैसा औधिक औदारिक शरीर का कहा वैसा ही पृथ्वी काय के औदारिक शरीर का कहना. अहो भगवन ! पृथ्वीकाय के वैक्रय शरीर कितने प्रकार का कहा है ? अहो शिष्य + For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्र 274 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋापनी लेणं नस्थि, मुक्केलया जहा उहिया ओरालिया सरीग तहा भाणियव्वा, आहारग स्पीरावि एवं चेव भाणियव्या,तेया कम्म सरीरा जहा एतेसिं चेत् ओरालिय कालीरा तहा भाणियन्या जहा पुढवी काइयाणं, एवं आउकाइयाणं, तेउकाइयाणयसव्व सरीरा भाणियन्या, वाउकाइयाणं भंते! केवतिया ओरालिया सरीरा पण्णता? गोवमा ! दुविहा पण्णत्ता तंजहा-बंडेलगाय मुक्केलगाय, जहा पुढवि काइयाणं ओरालिय सरी। तहा भाणियव्वा, वाउकाइयाणं भंते ! केवतीया वेउव्विय सरीरा पणता? दो प्रकार का कहा है. तद्यथा-बंधेलक और यूकेलक. इस में बंधेला तो नहीं है. और मूकेलक सो जैसा औधिक औदारिक शरीर का कहा नैसा कहना. आहारिक शरीर का भी ऐसा ही कहना तेजस और कार्मान शरीर का जैसा इस के औदारिक शरीर का कहा तैसा सहना. यह जिस प्रकार पृथ्वीकाया में पांचों शरीर का कथन किया, लैसा ही अप्काय और तेजस्काय का कहना. अहो में भगवन् ! वायु काया के औदारिक शरीर कितने प्रकार का है? अहो शिष्य'दो प्रकार का कहा है तद्यथा 1 बंधलक और यूकेलक. वायु का भी पृथ्वी काया के औदारिक शरीर जैसा कहना अहो भगवन्! वाय काया के वैकेय शरीर कितने प्रकार के कहे हैं ? अहो शिष्य ! दो प्रकार के कहे हैं तद्यथा प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी-ज्वालाप्रसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 88% 275 एकत्रिंशत्तम अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल * गोयमा ! दुविहा पण्णता तंजहा-बंद्धेलगाय, मुकेलगाय, तत्थणं जे ते बंडेलगा देणं असंखेजा समए 2 अवहीरमाणा 2 खत्त पलिओवमस्स असंखिजइ भागमेत्तेणं कालेणं अबही म्मि णो चेवणं अवहिरियासिया, मुक्केलया उब्विय सरीराय आहक सरािय जहा पुढवीकाइयाणं तहा भाणियव्वा,तेयग कम्म सरीराय पुढवी काइयाण तहा भाणियब्वा वणस्सइ काइयाणं ओरालियवे उब्विय आहारग सरीरा जहा पुढी काइयाणं तहा भाणियब्वा, वणस्सइ काइयाणं भंते! केवइया तेयग कम्म सरीरा पण्णता?गोयमा दुविहा पण्णत्ता तंजहा-बंडेलगाय मुक्केलगाय.जहा ओहिया तेयग़ कम्म सरीरा तहा वणस्सति काइयाणवि, तेयग कम्म सरीरा भाणियव्वा // 57 // बंधेलक और मकेलक. उस में जो बंधेलक हैं वे असंख्यात हैं एकेक समय में एकेक हरण करते पल्योपम के असंख्यातवे भाग में जितने आकाश प्रदेश आवे इतने काल में हरण करे तो भी होवे नहीं. और मूकेलक वैकेय शरीर आहारक शरीर जैसे पृथ्वी काया का कहा तैसा कहना. सैसे ही तेजस कार्माण शरीर का भी पृथ्वी काया के जैसा ही कहना. वनस्पति काया में औदारिक शरीर वैक्रेय शरीर आहारक शरीर जैसा पृथ्वीकाया का कहा तैसा कहना. और तैजस कार्माण शरीर दो प्रकार के हैं बंधेलक और मूकेलक. इस का कथन जैसा औधिक तेजस कार्माण का कहा तैसा ही कहना // 57 // ' 88% प्रमाण का विषय 48488 < For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir / अनुवादक बाल ब्रह्मचारा मुनि श्री अपोलक ऋपिनी * बेइंदियाणं भंते / केवतिया ओरालिया सरीरा पण्णत्तामा दविधा एस. तंजहा-बंडेलगाय मुबालगाय, तत्थणं बंडेलगा अपणी उसप्पिणी ई अवहरिंति कालउ सं .ओ अस.. जति भागो, तासिणं सेढीणं विक्खभमई असंखेजाओ जोयण कोडाकोडाओ असंखेजाइ सेढीवग्गमूलाई बेइंदियाणं ओरालिया बंडेल एहि पयरं अवहीरइ असंअहो भगवन् ! बेइन्द्रिय के औदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा है ? अहो शिष्य ! दो प्रकार के है तद्यथा----१ वेलक और 2 केलक. इस बोला. यात हैं समय 2 में एकेक हरण करते असंगत परिणी अवपिणी बीत जावे यह साल असंख्यात श्रेणि प्रतर असंख्यात भाग में है. असत्यल्पना से 64536 उसके वर्ग सूट करे. तहां प्रथम वर्ग मूल 256, दुमा र शल 6, तीसरा वर्ग मूल 4. शी ... - ------ से एक कार परस्पर गुनाकार कर तब 278 आये परंतु परमार्थ से अचात के अंधावे. उन के भील कर जितने जितनी श्रेणि आये उसके जितने आकाश प्रदेश होवें उतने बेइन्ट्रिय के औदारिक शीर में जानना. और भी प्रकारान्तर से कहते हैं-वह श्रेणि अरमानोडा जन चौडी उस अंक चौडापना अप्रख्यात विलम्ब सूची योजन की क्रोडामोर जानना. स असर यात श्रेणि के वर्ग मूल में प्रबन... जावादुर लाला मुखदेवसहायणी ज्वालाप्रमादजी / For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 28 खेजाइ उस्सणिणांउ ओसप्पिणिओ कालओ खेत्तओ अंगुलपयरस्स आवलियाएय असंखेजइ, भाग पलिभागेण,मुक्केलया जहा ओहिया ओरालिया सरीरातहा भाणियव्वा, बेउन्विय आहारग सरोरा बंडेलगा नत्थी, मुक्केलया जहा ओरालिया सरीरा तहा भाणियव्वा, तेयग कम्मग सरीरा जहा एतोस चेव ओरालिय सरीरा तहा एकत्रिंशतम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल 488-887 प्रमाण का विषय 8 जितनी श्रेणि के आकाश प्रदेश हों. अब दूसरा पक्ष कहते हैं-बेइन्द्रिय के बंधेलक औदारिक शरीर कहना. संपूर्ण प्रतर में अंगुल के असंख्यातवे भाग में जितने प्रदेश आवे उतने खंड ऊपर आवालिकाके से असंख्यातवे भाग जितने पावे उतने समय 2 पूर्वोक्त खंड के ऊपर एकेक बेइन्द्रिय जीव रखते जितने प्रतर पूर्ण होवे उतने खंड आवलिका के असंख्यात समय में रखते 2 असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी 4 व्यतीत होजावे इतने बेइन्द्रिय जीव हैं. यह काल से, और क्षेत्र से अंगुल प्रतर रूप क्षेत्र का असंख्यातवा भाग उस पर आवलिका रूप जो काल-उन का असंख्यातवा भाग (अंग) उस पर एकेक बेइन्द्रिय पूर्वोक्त खंड पर रखते जावे तो असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी बीत जावे इतने बेइन्द्रिय हैं.. मूकेलक जैसा औधिक औदारिक का कहा तैसा कहना. बेइन्द्रिय वैक्रेय और आहारक शरीर बंधेलक नहीं है, और मूकेलक औदारिक शरीर जैसा कहना. तेजस कार्माण शरीर का जैसा इन के औदारिक air 388 888 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स * अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भाणियव्या, जहा बेइदियाणं तहा तेइंदियाणं व उरिंदियागवि भाणियध्वा // 58 / / पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणवि ओलिय सरीरा एवं चेव भाणियव्वा // चिंदिय तिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवतिया वेउव्विय सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा पण्णत्ता तंजहा-बंधेलगाय मुक्केलगाय. तत्थणं जे बंधेलया तेणं असंखिमाहिं उसप्पिणी ओसप्पिणीहिं अवहीरंती कालतो खेत्तओ असंखेज्जाहलो सेढीओ पयररस असंखेजइ भागे, तासिणं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुल पढम वग्ग लस्स असंखेजति भागो, मुक्कोलया जहा ओहिया, ओरालिया आहारय सरीरा जहा बेइंदियाणं, शरीर का कहा तैसा कहना. जैसा यह बेडन्द्रिय का कथन कहा तैसा ही तेइनिय का और चौरिन्द्रिय का भी कहना // 58 // पंचेन्द्रिय तिर्यंच के औदारिक शरीर भी पूर्वात काया की प्रकार कहना. तिर्यंच पंचेन्द्रिय के वैक्रेय शरीर दो प्रकार का है-१ बंधेलक और मूकेलक. इस में बंधेलक शरीर सो एकेक समय में एकेक का हरण करते असंख्यात सर्पिणी उत्सर्पिणीत होजावे काल से. और क्षेत्र से असंख्यात श्रेणि प्रतर के असंख्यात भाग उस श्रेणि की विकभ सूची अंगुल प्रथम वर्ग मूल क्षेत्र के असंख्यातो भाग जितनी श्रेणि के आकाश प्रदेश उतने वैक्रेय शरीर हैं असुरकुमार से असंख्यातगने * अधिक जानना. और मकेलक का जैसा औधिक औदारिक का कहा तैसा कहना. आहारक शरीरं का अशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir in तेयगकम्म सरीरा जहा ओरालिया॥ 59 // मणुस्साणं भंते / केवतिया ओरालिय सरीरा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णता तंजहा-बंडेलगाय मुक्केलगाय, तत्थणं जे ते बंडेलया तेणं सिय संखेजा सिय असंखजा, जहन्न पदे संखेना कोडाकोडीओ तिजमलपयस्स उवरि चउजमल पयस्स हेट्ठा एगूणतीसं ठाणाइ *38** एकत्रिंशत्तम अनुयोगद्वारसूत्र-चक्षुर्य मूल जैसा बेइन्द्रिय का कहा तैसा कहना. तेजस कार्माण शरीर का औदारिक शरीर जैसा कहना // 59 // अहो भगवन् ! मनुष्य के कितने औदारिक शरीर कहे हैं ? अहो गौतम ! दो प्रकार के औदारिक शरीर कहे हैं. तद्यथा-१ बंधेलक और 2 मूकेलक. इस में बंधेलक शरीर स्यात् असंख्यात हैं (संमूच्छिम मनुष्य आश्रिय) और स्यात् संख्यात हैं, (गर्भज मनुष्य आश्रिय) मनुष्य जघन्य पद में संख्यात क्रोडाकोड लोने, ने तीन जमल पद के ऊपर आठ अंक जितने जानना. और चौथे जमल पद से 39 अंक कम सुननीस अंक में क्रोडाक्रोड आधे उतने हैं. अथवा छड़े वर्ग मूल को पांचवे वर्ग मूल साथ गुनाकार करे उतने हैं. वे इस प्रकार-एक से गिनती नहीं चलने से दो से लेते हैं. 242-4 यह प्रथम वर्ग मूल, 444-16 यह दसरा वर्ग मूल, 16416=156 यह तीसरा वर्ग मूल, 5. 2564256%65536 वह चौथा वर्ग मूल, 65530465536-4294967296 यह पांचवा वर्ग 488488.प्रमाण का विषय 2880 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अहवणं छट्ठावग्गो पंचमवग्ग पडपन्न अहवणं छणउइछे अणगहायरासी उक्कोसपदे असंखेज्जा असंखेजाहिं उसप्पिणी ओसाप्पणीहि अवहरिंति कालतो, खेत्तओ उक्कोसेणं रूवं पक्खित्तेहिं मणुस्सेणं सेढी अवहीरइ तीसे सेढीए कालखेत्तेहिं अवहीरोममगिज्जइ कालतो असंखिजाहि उसप्पिणी ओसप्पिणीहिं खेत्तओ अंगुल / 4 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी मूल. 429496729644294967296=18446762514264337593543980336 यह है छठा वर्ग मूल.उक्त पांचवे वर्ग:मूलसे छठे वर्ग मूलका गुनाकार करे तब 29 अंक आने हैं, अब 96 वक्त उसका छेद होता है वह कहते हैं-प्रथम 4 के वर्ग में दो छेदांक, दूसरे 16 वर्ग में 4 छेड़ांक, तीसरे वर्ग में, 8 छेदांक, चौथे वर्ग में 16 छेदांक, पांचवे वर्म में 32 छेदांक, छठे वर्ग में 4 छेदांक, पांचने वर्ग को छठे वर्ग के साथ गुने इस रिये पांचवे वर्ग में छठे वर्ग के छेदांक समा गये. तब 96 छेदांक होवे. (राशी के अंक का छेदन करते अन्त में प्रतिपूर्ण अंक आवे उसे छेदांक कहने हैं, यह 20 अंक होते , यह 29 अंक मितने जघन्य पद में मनुष्य हैं.) उत्कृष्ट पद में असंख्यात मनुष्य हैं. उन्हे एकेक समय में एकेक हरण करते असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी वीत जावे यह काल से, और क्षेत्र से उत्कृष्ट रूप प्रक्षिप्त उन मनुष्य करके एक आकाश श्रेणि का अपहरण करे काल से असंख्यात उत्सर्पिर्ण *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 281 सूत्र-चतुर्थ मूल. 1 पढम वग्गमूल तइयवग्गमूल पडुपन्ने, मुक्केलया जहा ओहिया ओरालिया // मणुस्साणं भंत ! केवइया वेउव्विय सरीरा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता तंजहा-बंधेलय मुझेलाय, तत्थणं जे ते बंधेलया तेणं संखिज्जा समए 2 अबहीरमाणा 2 संखेजेणं. काळेणं अवहीरति नो चेवणं अबहिला सिआ.मुकेलयाय जहा ओहिया // मणुरसाण भंते! केवतिया आहारय सरीरा पण्णत्ता गोयमा दुविहा पण्णत्ता तंजहा-बरेलयाय मुक्कल पाय तत्थेणं जे ते बद्धे लया तेणं सिय अस्थि सिय णत्थि,जइ अस्थि जहन्नेणं एकोवा अंक अपहरावे. अर्थात श्रेणि के अंगुल प्रमाण क्षेत्र में जो प्रदेश राशी होवे उसे प्रथम वर्ग मूल तीसरा वर्ग मूल के प्रदेश राशी के साथ गने तब जो प्रदेश राशी होवे उतने प्रमाण का क्षेत्र खंड जो एकेक में मनष्य का शरीर अनुक्रम से अपहरते असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कर सब श्रेणि अपहरावे. तब म मर्छम गर्भे पर के शरीर होवे. और मूकेलक मनुष्य के शरीर जैना औषेक में औदारिक शरीर का कहा तैसा कहना. अहो भगवन् ! मनुष्य के चक्रेय शरीर किस प्रकार का कहा है ? अहो गौतम ! दो प्रकार का कहा है तद्यथा-१ बंधेलक और 2 मुकेलक. इस में जो बंधेलक वैक्रेय शरीर है वे संख्यात हैं ( क्यों कि यह लब्धि प्रत्यय गर्भज मनुष्य के ही होता है ) वह एकेक समय में हरन / करते संख्यात काल में खुटजावे. परंतु किसीने अपहरन किया नहीं और न कोइ अपहरन करेगा। * और मूकेलक का जैसा औधिक का कहा तैसा कहना. अहो भगवन् ! मनुष्य के आहारक शरीरा For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 282 दोवा तिण्णिवा, कोसेणं सहस्स पुहत्तं, मुक्केलया जहा ओहिया।ओरालियाणं तयग कम्मग सरीरा जन एतेसिं चेव ओहिया ओरालियो तहा भाणियव्वा // 60 // वाणमंतराणं ओरालिया सरिरा जहा नेरइयाणं, वाणमंतराणं भंते ! केवतिया वेउन्विा सरीरा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता तंजहा–बंद्धेलागाय मुक्केलगाय, तत्थणं जे ते बंडेलया तेणं असंखेजा, असंखेजाहि उसप्पिणी ओस प्पिणीहिं अवहीरंती कालतो, खेत्तओ असंखेनामो सेढीओ पयरस्स असंखेज्जति अर्थ कितने प्रकार का कहा है ? अहो गौतम ! दो प्रकार का कहा है तद्यथा-१ बंधेलक और 2 मुकेलक. इस में बंधेलक शरीर किसी वक्त होवे किसी वक्त नहीं भी होवे. जब होवे तब जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट हजार पृथक्त्व और मूलक का जैसा औधिक औदारिक का कहा तसा कहना. // 6 // वाणव्यन्तर औदारिक शरीर का कथन जैसा नेरीया के औदारिक शरीर का कहा तैसा कहना. अहो भगवन्!वाणव्यन्तर के वैक्रय शरीर किबने प्रकार है? अहो गौतमदोपकार कहे है। तद्यथा-बंधेलक और मूकेलक. इसमें से जो बंधेलक है वे असंख्यात है. एकेक समय में एकेक हरन करने असंख्यात उत्सर्पनी अवसर्पनी है काल व्यतीत होजावे यह काल से कहा और क्षेत्र से प्रतर के असंख्याचवे भाग जितने आकाश प्रदेश में * की श्रेणि आवे विलम्बपने संख्यात सहस्र योजन उस का वर्ग करना उस के एक भाग में एकेक 2.अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसाद For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org -484883 सूत्र 4 भागो, तासिणं सेढीणं विक्खंभसूइ सखेज जोयण सयवग्ग, पलिभागो पयरल, मुक्केल या जहा उहिया ओरालिया आहारग सरीरा दुविहावि जहा असुरकुमाराणं, वाणमंतराणं भंते ! केवतिया तेअग कम्मग सरीरा पण्णता ? गोयमा ! जहा एएसिं चेव वेउन्बिया सरीरा तहा तेयग कम्मग सरीरावि भाणियव्वा, // 6 // जोइसियाणं भंते ! केवइया ओरालिय सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता व्यन्तर का शरीर स्थापन करे तो वह सब प्रतर भरा जावे इतने असंख्यात वाणव्यन्तर के बैक्रेय लक शरीर हैं. तिथंच पंचेन्द्रिय से असंख्यातगुने हैं, और मकेलक का जैसा औषिक औदारिक कहा तैसा कहना. वाणव्यन्तर के आहारक शरीर का जैसा असरकुमार का कहा तैसा कहना. अहो भगवन् ! वाणब्यन्तर के तेजस और कार्मान शरीर कितने प्रकार के कहे हैं? अहो गौतम जैसा वाणव्यन्तरके वैकेय शरीर का कहा तैसा कहना // 11 // अहो भगवन् ! ज्योतिषी के औदारिक शरीर कितने प्रकार के कहे हैं ? अहो शिष्य ! दो प्रकार के कहते हैं. तद्यथा-१ बंधलक और 2 मूकेलक, इन 8 दोनों का जैसा जेरीये का कहा तैसा कहना. अहो भगवन् ! ज्योतिषी के वैकेय शरीर कितने कहे हैं? ॐ अहो गौतम ! दो प्रकार के कहे हैं. तद्यथा-- बंधेलक और 2 मूकेलक, इस में जो बंधेलक कहे हैं बे एकेक समय में एकेक हरण करते असंख्यात उत्सपिणी अवसर्पिणी बीत जावे यह काल से, और एकत्रिशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थमूल 60 प्रमाण का विषय 480 + 498 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री अमोल्फ ऋषिजी. तंजहा-बंडेलयाय मुक्कलगाय, तत्थणं जे ते बंडेलया, जाव तासिणं सेढीणं विक्खंभसूइ छेछप्पन्नंगुलंसय वगालिभागो, पयरस्स, मुक्केलया जहा ओहियाणं, ओरालियाणं आहारय सरीरा जहा नेरइयाणं तहा भाणियव्वा, तेयग कम्म सरीरा जहा एएसिं चेव वेठबिया तहा भाणियव्वा // 62 // वेमाणियाणं भंते ! केवइया ओरालिय सरीरा पणत्ता ? गोयमा ! जहा नेरइयाणं तहा भाणि क्षेत्र से असंख्यात श्रेणि प्रता का भाग आये वह अणि चौडा पाने सूची की उतनी 256 अंगुल वर्ग उस रूप जो प्रथम भाग वे प्रतर के पर्याय में मूकेलक इत्यादि जैसा औधिक औदारिक शरीर का कहा तैसा कहना. ज्यन्तर सेज्योतिषी असंख्यात गुने अधिक जानना. आहारक शरीर का जैसा नेरीये का कहा तैसा ज्योतिपी का भी कहना और तेजस कार्माण शरीर का जैसा इन के वैक्रेय शरीर का कहा तैसा कहना // 12 // अहो भगवर ! वैमानिक के औदारिक शरीर कितने प्रकार के कहे हैं? अहो शिष्य : दो प्रकार के कहे हैं तद्यथा-१ बंधेलक और 2 मुकेलक.. इन दोनों का नेशये जैसा कहना. है अहो भगवन ' वैमानिक के वैकेय शरीर कितने प्रकार का कहा हैं ? अहो गौतम ! दो प्रकार से * कहा हैं शेरक और मुकेलक इस में से जो बंधेलक है वे असंख्यात हैं. एकेक हरण करते *माकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी प०अनुवादक वाल ब्रह्मचारी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 980 यव्वा, वेमापियाणं भंते ! केवतिया वेउब्विय सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा * पण्णत्ता तंजहा-बंडेलयाय मुक्केलयाय, तत्थेणं जे ते बंडेलया तेणं असंखेजा, असंखेनाहिं उसप्पिणी ओसप्पिणीहि अवहीरंती कालतो, खेत्ततो असंखेजाओ सेढीओ पयररस असंखेजति भागो, तासिणं सेढीणं विक्खभसूई अंगुलवितीय वग्गमूलं तत्तिय वग्गमूलं पडुपन्न अहवणं अंगुल ततीय वग्गमूल घणप्पमाणमेत्ताओ सेढीओ, मूकेलया जहा ओहिया आहारग सरीरा जहा नेरइयाणं, तेयग कम्मग सरीरा असंख्यात अवसर्पिणी उत्सर्पिणी बीत जावे यह कालसे. क्षेत्रसे प्रतरके असंख्यातवे भाग जितने आवे वह विषमपने अंगुलपमे दूसरी वर्गमूल तीसरे वर्गमूल साथ गिनने से जितने आकाश प्रदेश आवे उतने हुवे. 256 का वर्ग मूल को चार 2 दो साथ गिने 8 होवे. उस के खंड में वैमानिक का एक शरीर स्थापन करे तो वह भरा जावे. अर्थात् असंख्यात श्रेणि प्रतर के असंख्यात भाग. उस श्रेणि की विष्कम्भ श्रेणि के सूची अंगूल प्रमाण क्षेत्र की विष्कम्भ असंख्यात है परंतु असत्कल्पना से 256 का दूसरा वर्ग मूल 4 का तीसरा वर्ग मूल 8 होवे. अथवा अंगुल प्रमाण क्षेत्र तीसरा वर्ग मूर दूसरा। 7 रूप का जो घन प्रमाण वह 8 रूप का होवे, उस श्रेणि की विष्कम्भ सूची कहना. और मुकेरकका जैसा ॐ औधिक का कहा तैसा कहना. आहारक शरीर का जैसा नेरीये का कहा तैसा कहना. और तेजस* एकत्रिंशचम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुथ मल अर्थ 2380 प्रमाणका विषय 8888 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 281 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्रीअमोलक ऋषज जहा एतोस चेव, वेउन्विय सरीरा तहा भाणियव्वा, से तं मुहुम खेत्त पलिओवमे। सेत्तं पलिओवमे।से तं विभाग निष्फन्ने॥सेत्तं कालप्पमाणे॥६३॥सेकिंतं भावप्पमाणे ? भावप्पमाणे तिविहा पण्णत्ता तंजहा-गुणप्पमाणे, नयप्पमाणे, संखप्पमाणे // 6 // से किं तं गुणप्पमाणे ? गुणप्पमाणे दुविहे पणत्ते तंजहा-जीव गुणप्पमाणे अजीवगुणप्पमाणे / से किंतं अजविगुणप्पमाणे ? अजीवगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते तंजहा-वण्णगुणप्पमाणे,गंधगुणप्पमाणे,रसगुणप्पमाणे,फासगुणप्पमाणे,संट्ठाण गुणप्प माणं सेकिंतं वण्ण गुणप्पमाणे?वण्णगुणप्पमाणे पंचविहा पत्ता तंजहा कालगुणप्पमाणे कार्माण शरीरका जैसा इन का वैक्रेय शरीरका कहा तैसा करना. यह मूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम का कथन हुवा, यह क्षेत्र पल्पोपम और पल्योपम का कथन पूर्ण हवा. तैसे ही विभाग निष्पन्न का और काल प्रमाण का भो कथन हुवा // 63 // अहो भगवन् ! भाव प्रमाण किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! भाव प्रमाण के तीन प्रकार कहे हैं तद्यथा-१ गुन प्रमाण,२ नय प्रमाण,और 3 संख्या प्रमाण॥३४॥अहो भगवन् !गुनममाण किसे कहते हैं? अहो गौतम! गुन प्रमाण के दो भेद कहे हैं तद्यथा-जीवगुन प्रमान और अजीव गुनपमाण. अहो भगवन् ! अजीव गुन प्रमाण किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! अजीव गुन प्रमाण के पांच प्रकार कहे हैं. 'तप्रथा-१ वर्ण गुन प्रमाण, 2 गंध गुन प्रमाण, 3 रस गुन प्रमाण, 4 स्पर्श गुन प्रमाण, और प्रकाशक-राजाबाहादुर लाला मुखदेवसहायजी मालावताद / For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 0 एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूस 838 जाव सुकिल्ल गुणप्पमाणे,सेतं वण्णगुणप्पमाणे॥से किं तं गंधगुणप्पमाणे? धगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते जहा-सुरभिगंध गुणप्पमाणे, दुरभिगंधगुणप्पनाणे, सेत गंधगुण णप्पमाणे ।से किं तं रसगुगप्पमाणे? रसगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते तंजहा-तित्तरसगुणप्पमाणे जाव महुर रसगुणप्पमागे, से तं रसगुणप्पमाणे // से किं तं फासगुणप्पमाणे ? फासगुणप्पमाणे अट्टविहे पणत्ते तंजहा-कक्खड फासगु प्पमाणे, जाव लुक्खफासगुणप्पमाणे, से तं फासगुणप्पमाणे // से किं तं संहाण गुणप्पमाणे ? संट्ठाण गुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते तंजहा-परिमंडल 5 संस्थान गुन प्रमाण. अहो भगवन् ! वर्ण गुन प्रमाण कितने प्रकार कहे हैं ? अहो शिष्य : वर्ण गुन प्रमाण के पांच प्रकार कहे हैं. तद्यथा-१ कृष्ण वर्ण गुन प्रमाण, यावत् शक्ल वर्ण गुन प्रमाण. अह) भगवन् ! गंध गुन प्रमाण के कितने प्रकार कहे हैं! अहो शिष्य ! दो प्रकार कहे हैं. सुरभिगन्धगुण-प्रमाण 2 दुर्मिगंध प्रमान. अहो भगवन् ! रम गुन प्रमान कितने प्रकार कहे हैं? अहो शिष्य ! पांच प्रकार के. ई. तथा-१ तिक्त रस गुन प्रमान यावत् मधुर रस गुन प्रमान. अहो भगवन् ! स्पर्श गुन मान के कितने प्रकार कहे हैं ? अहो शिष्य ! स्पर्श गुन प्रमान के आठ प्रकार कहे हैं. तद्यथा , कर्कश स्पर्श गुन प्रमान. यावत् ऋक्ष स्पर्श गुन प्रमान. अहो भगवन् ! संस्थान गुन प्रमान कितने %80380 प्रमाण का विषय 1980 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सन 288 संट्राण गुणप्पमाणे, जाव आयम संटाण गुणप्पभाणे से तं संट्राण गुणप्पमाणे // से तं अजीव गुणप्पमाणे // 65 ॥से किं तं जीवगुणप्पमाणे ? जीवगुणप्पमाणे तिविहे पणते तंजहा-णाणगणप्पमाणे, दसण गणप्पमाणे, चरित्तगणप्पमाणे // से कि त णाणगुणप्पमाणे णाणगुणप्पमाणे चरविहे पण्णत्ता तंजहा-पचक्खे अणुमाणे,उवमे,आगमे // से किं तं पच्चक्खे ? पच्चक्खे दुविहे पण्णत्ते तंजहा-इंदिय पच्चक्खेय, णोइंदिय पच्चक्खेय // से किं तं इंदिय पच्चक्खे ? इंदिय पञ्चक्खे प्रकार कहे हैं ? अहो शिष्य ! संस्थान गुन प्रमान के पांच प्रकार कहे हैं. परिमंडल संस्थान यावत् अर्थ आयतन संस्थान यह संस्थान गुन प्रमान हुवा और यह अजीव गुन प्रगान भी इवा. // 65 // अहो भगवन् ! जीव गुन प्रमान किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! जीव गुन प्रमान तीन प्रकार का कहा है. तद्यथा-१ ज्ञान गुन प्रमान 2 दर्शन गुन प्रमान, और 3 चारित्र गुन प्रमान, अहो भगवन् ! ज्ञान गुन में प्रमान कितने प्रकार का कड़ा हैं ? अहो शिष्य ! चार प्रकार का कहा है. तद्यथा-१ प्रत्यक्ष प्रमानी 2 अनुमान प्रमान, 3 उपमा प्रमान, और 4 आगम प्रमान. अहो भगवन् ! प्रत्यक्ष प्रमान किसे कहते हैं है। हैं ? अहो शिष्य ! प्रत्यक्ष प्रमान के दो भेद कहे हैं तद्यथा-१ इन्द्रिय प्रत्यक्ष मान और 2 नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमान. अहाँ भगवन् ! इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमान किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! इन्द्रिय है। अनुवादक बालब्रह्मचारि मुनि श्री अगोरख ऋषिजी 6 प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 289 एकात्रंशत्तम्-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुथ मूल 48800 अथे पंचविहे पण्णत्ते तंजहा-सोइंदिय पचक्खे चक्खू इंदिय पञ्चक्खे, घाणिदिय पञ्चक्ख जिभिदिय पञ्चक्खे, फार्सिदिय पञ्चक्खे, से तं इंदिय पञ्चक्खे // से कि तं नो इंदिय पञ्चक्खे ? नो इंदिय पञ्चक्खेतिविहे पण्णत्ते तंजहा-ओहिणाण पच्चक्खे मणपज्जव णाण पच्चक्खे, केवलणाण पञ्चक्खे, से तं नो इंदिय पञ्चक्खे सेत पञ्चक्खे॥६६॥से कि तं अणुमाणे ?अणुमाणे तिविहे पण्णते तंजहा-पुत्ववं,सेसवं,दिद्विसाहम्मवं // 67 // से किं तं पुव्ववं ? पुव्ववं!माता पुत्तं जहा नवए जुवाणं पुणरागतं काइ पञ्चभिजाणेज्जा प्रत्यक्ष प्रमान के पांच प्रकार कहे हैं. तद्यथा-१ श्रोत्रेन्द्रिय प्रत्यक्ष, 2 चक्षुरेन्द्रिय प्रत्यक्ष, 3 घाणेन्द्रिय 2 प्रत्यक्ष, 4 रसेन्द्रिय प्रत्यक्ष और 5 स्पर्शेन्द्रिय प्रत्यक्ष, यह इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमान हुवा. अहो शिष्य नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमान किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! मो इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण के तीन प्रकार कहे हैं. तद्यथा-१ अवधिज्ञान प्रत्यक्ष, 2 मनः पर्यन ज्ञान प्रत्यक्ष, और 3 केवल ज्ञान प्रत्यक्ष. यह नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमान हुवा और यह प्रत्यक्ष प्रमान भी हुवा // 66 // अहो भगवन् ! अनुमान प्रमान किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! अनुमान प्रमान के तीन प्रकार कहे हैं तद्यथा-१ पूर्ववत्, 2 शेषवत् और 3 दृष्टिसाधर्मिकवत् // 67 // अहो भगवन् ! पूर्ववत् किसे कहते हैं ? अहो शिष्य : किसी माता का पुत्र बचपने में परदेश गया और युवान होकर पीला आया तो फिर माता अपने पुत्र को किस प्रकारका 48948 प्रमाण का विषय 48488 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मानि श्री अमोलक पिाजी पुवलिंग केणइ त खत्तेणवा वणवा लच्छणेणवा, मसेणवा, तिलरणवा, सेत्तं पुत्ववं / / 68 // से किं तं सेसवं ? सेसवं-पंचविहं पण्णत्तं तंजहा-कज्जेणं,कारणेणं गुणेणं, अवयवेणं, आलएणं // से किं तं कजेणं ? कजेण-मोरं किंका. ईएणं, हयं हेसिएणं, गयं गुलगुलाइएणं. रहं घणधणाइएणं, से तं कजेणं // से किं तं कारणेगं ? कारणेणं-तंतबो पडस्स कारणं, ण पडोत्तंतुकारणं, वारणा कडस्स पहचाने तो कि-प्रथम के देखे हुवे चिन्ह कर पहचाने. तद्यथा-१ खत करके-शरीर के लम्बे ठिगने से आकार कर, वर्णकार--ौर कृष्णादिवर्ण कर. वाण कर स्वस्तिकादि लक्षण कर मस्सकर तिलकर इत्यादि के अनुसार कर पहिचाने उसे पूर्ववत् का // 68 // अहो भावन् ! शेएवत् किसे कहते है ? अहो शिष्य ! शयर से पांच प्रकार कहे है. तद्यथा-१ कार्यकर, 2 कारण कर, 3/ अवघव कर, और 4 माशकर // अहो भगन् ? कार्यकर अनुमान किस प्रकार होता है ? अहो शिष्य ! 1 मयूर को कोकारन हद कर पायाने. 2 घोडे को उकार शब्द कार पहचाने, 3 हस्ति को गुरुगुलाट शब्द कर पड़नाने, 4 रथ को घणघणाट शब्द कर पहचाने. इत्यादि कार्य कर है पहचाने वह कार्यवत् कहना. यह कार्यवत् शुवा. अशे भव ! कारण किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! मृत है वह बस रूप कार्य साधने का कारण है. परंतु वस्त्र तंतु का कारण नहीं है. शरकट [ तुलाइ ] 2 *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ 8- एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वारसूत्र -चतुर्थ मूल कारणं, णकडो वीरणाकारणं पिंडो घडस्स कारणं नघडोपिंडस कारण से तं कारणे।। से किं तं गुणेणं ? गुण-गुज्जति करेणं, पुप्फगंधेणं, लवणं रसेणं, मदिरं आसादएण. बत्थं फासेणं, से तं गुणेशं // से किं तं अवयवेत ? अजयो-हिसं / सिंगेणं, कुकुडसिहाए. हास्थविसाणेणं, बराहदादर, पिणं, आतखुरेण. वर्घनहेणं, चमरी वालगणं, दुप्पय मणस्य वादी, चउप्पय गावाति, बहुतयं मोमिया वह कडा तथा का कारण है परंतु काटा शरकट का कारण नहीं क्तिका का डिपका कारण है। परंतु घडा मृत्तिका के पिंड का कारण नहीं है. इत्यादि कारण कर जो कार्य निपजे उस कार्य को कार कर पहचान वह कारणेणं. यह कारणवत् हया, अो भगवन ! गुणवत् वि.से कहते हैं ? अहो शिष्य ! ! सुवर्ण का गुन कसोटी कर जाना जावे. पप्प का गुन गंध कर जाना जावे, निमक का गुन रस कर जाना जाये, मदिरा का गुन आस्वाद कर जाना जावे, वस्त्र का गुन स्पर्श कर जाना नावे इत्यादि गुन कर जाना जावे सो गुगेवल. अहो भावन् ! अग्यात किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! अवयव सो. शरीर के किसी एक अवयव (उपांग कर) जाना जाय जैस-शृंग से महिष शिखा कर कर्कट (o) को जाने, दांतों कर हस्ति को जाने, दाढ कर शूकर [वर को जाने, पांखों कर मयूर को जाने, सुर कर घोडे को जाने, नखों कर वाघ को जाने, चमर रूप बालों कर चमरी गाय को जाने, द्वियांब कर मनुष्य को।' *S8 प्रमाण विषा 4880 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 14 मादि. सीह केसरेणं, वस्ह ककुहेणं महिलंवलयबाहाए परिअरबंधण भडं जाणिज्जा, 1 महिलिय निवसणेणं, मिशेण दोण विगं, कविंच एगाए गाहाए से तं अवयवेणं॥ से तिं आसरणं ? आसए-अग्निधूमणं. सलिलं बलागेणं, वुट्टि अभविगारेणं, कुलपुत्तसीलसमायारेणं, से तं आसएणं से तं वं // 69 // से कि तं दिहिराइम्म ? दिट्टिसाहम्मवं दुविहं पण्णत्तं तंजहा-सामन्नदिटुंच, विसेसदिटुंच जो चतुष्पद कर चतुष्पद [ पशू ] को जाने, बहुत पांव कर ओमज [ कान खजूरे ] को भाने, केसरा अर्थ कर सिंह को जाने, स्कन्ध कर वृषभ को जाने, बलिये घडीयों ] कर स्त्री को जाने, हथियारों के बन्धन कर सूभड को जाने. कंचूंकी कर विवाहित स्त्री को जाने, एक सीजे हुवे धान्य के कन कर सब धान को जान, काव्य कर कवि को जाने, इत्यादि अवयव कर जाने उसे अवयब कहना. यह अवयव हुवा. अहो भगवन् ! आश्रयवत् किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! एक के आश्रय कर अन्य को जाने सो आश्रयवन् जैसे-धूम्र के आश्रय कर अग्नि को जाने, मेघ (बद्दल ) कर वर्षाद को जाने. बगल कर सरोवर को जाने, कुलदन कर शीलवंत जाने, यह आश्रय जानना. यह सेसवं के भेदानुभेद हुवे // 65 // अहो भगवन् ! दृष्टी साधर्मिकवत् किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! दृष्टी सा(मकवत् कर दो प्रकार कहे हैं, तद्यथा- सामान्य और 2 विशेष // 70 // अहो भगवन सामान्य दृष्टी सार्मिक 1 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादराला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 223 // 70 // से किं तं सामन्नदिटुं ? सामन्नदिटुं जहा एगो पुरिसो तहा. बहवे पुरिसा, जहा बहवे पुरिसा तहा एगो पुरिसो, जहा एगो कारिसावणो, तहा बहवे ऋरिसावणा, जहा बहवे करिसावणा, तहा एगो करिसावणो, से तं सामन्नदिटुं / 71 // से किं तं विसेसदिटुं ? विसेस दिटुं से जहा नामए केइ पुरिसे. कंचि पुरिसं बहुणं पुरिसाणमझे पुव्व दिटुं पच्चाभजाणेज्जा अयं से पुरिसे बहु क :सावणाणं मझे पुव दिटुं करिसावणं पञ्चभिज्जाणिज्जा. अयं से करिसावणे किसे रहते हैं ? अहो शिष्य ! जो एक जैसा अन्य अनेक को देखकर जाने सोष्टी सामान्य जैसे-१ किसी एक देश के पुरुष को देखकर उस जैसे अनेक पुरुषों को जाने,तैसे ही अनेक पुरुषों को देखकर एक पुरुषों है को जाने, एक सौनये को देखकर अनेक सौनये को जाने अनेक सौनये से एक सोनये को जाने, इत्यादि कार से अनेक को और अनेक से एक को जाने सो सामन्य दृष्टी साधर्मिक कहना // 71 // अहो भगवन् ! विशेष दृष्टी साधर्मिक किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! विशेष दृष्टि साधर्मिक यथा दृष्टान्त कोई अनुमान का करने वाला पुरुष किसी एक पुरुष को बहुत पुरुषों की परिषद में बैठा हुवा देख कर of जाने कि मैंने इस पुरुष को पहिले कहीं देखा है ऐसे ही बहुत से सोनये के अन्दर किसी एक सोनये ॐ को देखकर जाने की यह सोनया पहिले देखा है. यह सामान विशेष दोनों का भेद कहा ऐसे अनुमान 48b48 प्रमाण विषय <28828 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1. अनुवादक बालब्रह्मचारा मुनि श्री अमोलक ऋापनी तं समासओ लिविहं गहणं भवति तंजहा--अतीत काल गहणं, पडुपन्नकाल गहणं, अणागयकाल गहणं // 72 // से किं तं अतीत काल गहणं ? अतीत काल गहणं उत्त-णाणि वणाणि, निप्फन्न सव्व सरसंवा मेदिणी पुण्णाणि, कुंड सरणदाहिया. तलागाणि पासित्ता तेणं साहिजइ जहा सुबुट्ठी आसी से तं अतीत काल गहणं // से किं तं पडुपन्न काल गहणं ? पडुपन्न काल गहणं साहु गोयरग्गगयं विछंडिय पउर भत्तपाण पासित्ता ते साहिजइ जहा सुभिक्खं वइ, प्रमान कर तीनों काल की बात को जानने का कहते हैं // वह अनुमान प्रमान से निर्णय तीन प्रकार से होता हैं. तबथा-१ अतीत (भू. ) कालका ग्रहण, 2 प्रत्युपान (वर्तमान ) काल का प्रण और 31 अनागत ( भविव्य) काल का हए // 72 // अहो भगवन् ! अतीत काल का ग्रहण किस प्रकार हाता है ? अहो शिष्य ! जैसे कोइ विचरण मनुप्य रास्ते में गमन करता बहुत हरित तृणोकर अच्छादित पृथ्वी को देखे फलफूल पत्रों के भार से भरे वृक्षो को देखे, शाम्यकार फरित खेंगो को देख. नदी तलाबादि जलाशयो पानी से पूर्ण भरे देखे तब उक्त अनुमान से प्रमान करे कि अतीत काल में जल वृटी अच्छी हुई. यह अतीत कालका ग्रहण कहा // अहो भगवन् / प्रत्युत्पन्न काल का ग्रहण किसे * कहते हैं ? अहो शिष्य ! जैसे कोई विचक्षण साधु गोवरी को गये उनोंने ग्रहस्थ के घरों में बहुत प्रचूरा *प्रकाशक-राजाबाहादुर लाला मुखदेवसहाय जी ज्वालाप्रसादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्र से तं पडुपन्न काल गहणं. से किं तं अणागत काल गहणं ? अणागत काल / गहणं-अब्भस्ल निम्मलतं, कारणाय निरिसाविजया मेहा, थाणियाउ भामो, सब्भारत्ता पणिद्धाय. वारुणं वा महिंद का अन्नयर वा पसत्थं उप्यायं पासित्ता तेणं साहिजइ जहा सुबुट्ठी भविस्लती. से ते अणागत काल गहणं, एहसिं चेव विवच्चा से तिविहं गहणं भवति तंजहा-अतीत काल महणं, पडुप्पन्न काल गहणं, अणागय काल गहणं, से किं तं अतीत काल गहणं ? अतीत काल एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थ 489363- प्रमाण का विषय 9822280 निपजता हुवा अन्य उदार भाव से दिव्याला हवा आहार पानी को देखकर जाने की या वर्तमान काल में सुभिक्ष वर्तता देखाता है. यह प्रत्युत्पन्न काल हुचा. अहो भायन ! अनागत काल ग्राण किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! कृष्ण वर्ण अच्छादित विजली सहित मेघ को देखे, पानी से नहुवा ऊंडा गर्जारव करता हुवा मेध देखे, रक्त वर्ण संध्या फुली हुई देखे. आर्द्रा मूलादि नक्षत्रों के योग के जो वायु का उत्पात उत्पन्न हुवा और भी इस प्रकार के प्रशस्त लक्षणों को देख कर उसे अनुमान 10 करे कि आगमिक काल में यहां वृष्टी होगी. यह अनागत काल कहा. अब इस के विपरीत चिन्ह ? कहते हैं, वह भी तीन प्रकार से ग्रहण किये जाते हैं. तद्यथा-१ अतीत काल ग्रहण, 2 प्रत्युत्पन्न 4 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 296 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री उपोलक ऋषिजी गहण नित्तणाइ निप्फसरस च मंदणी सुक्काणिय कुड सर णदा दह तलागाइ पासित्ता तेणं सादिजइ जहा कुबुट्ठी आसी. से तं अतीत काल गहणं // से किं तं पडुपन्न काल गहणं ? पडुपन्न काल गहणं-साहु गोयरग्गगयं भिक्खं अलभमाणं पासित्ता तेणं साहिज्जड़ जहा दुभिक्खं वट्टइ, से तं पडुपन्न काल गहणं // स कि तं अणागय काल गहणं ? अणागय काल गहणं-धुमायंति दिसाउ / संझाविमेइणी, अपडिबुद्धा वाया, नेरइया खल कुबुढामेयनिवेयंती // अग्गेयं वा काल ग्रहण, 3 और अनागत काल ग्रहण. अहो भगवन्! अतीत काल ग्रहण किसे कहते हैं ? अहो शिष्य !' कोई विचक्षण पुरुष रास्ते में गमन करता तृण रहित पृथ्वी को देखे, मुके हुवे कुंड नदी तलावादि जला शय को देखे, इत्यादि देख अनुमान करे कि यहाँ गत काल में वृष्टि अच्छी नहीं हुई है. यह अतीत काल का ग्रहण कहा. अहो भगवन् ! प्रत्युत्पन्न काल का ग्रहण किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! प्रत्युत्पन्न / काल का ग्रहण सो-कोई विचक्षण साधु गोचरी गये बहुत परिभ्रमण करते ही भीक्षा की प्रतिपूर्ण प्राप्ति नहीं हुई, उस से अनुमान करे कि वर्तमान में यहां दुर्भिक्ष होता देखाता है. अहो भगवन्! अनागत काल का ग्रहण किस को कहते हैं ? अहो शिष्य ! दिशाओं में धूंधलता देखे. सन्ध्या तेज रहित देखे, अप्रमाण है। प्रकाशक राजाबहादुर काला सुखदवसहायजी-ज्वालाप्रसादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 297 48. एकोत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूळ 4 वायव्वं वा अन्नयरं अप्पसत्थं उप्पायं पासित्ता तेणं साहिजइ जहा कुबुट्ठी भाविस्सति, से तं अणागयकाल गहणं, से तं विसेस दिटुं। सेतं दिट्ठि साहम्मवं // से तं अणुमाणे // 73 // से किं तं उवम्मे ? उवम्मे दुविहे पण्णत्ते तंजहा—साहम्मोवणी, एय, वेहम्मोवणीएय // 74 // से कि तं साहम्मोवणीए ? साहम्मोवणीए तिविहा पण्णत्ता तंजहा-किंचि साहम्मोवणीए, पायसाहम्मोवणीए, सव्वसाहम्मोवणीए / / 75 // से किं तं किंचि साहम्मे ? किंचि साहम्मे जहा मंदरो तहा सरिसवो, बायु चले, नैऋत्यकूण का वायु हो जिस से कुवष्टी जाने अधेय मंडल वाय मंडल और भी इस प्रकार का अप्रशस्त उत्पातादि देख कर जाने कि आगमिक काल में यहां कुवृष्टी होगा. यह अनागत काल का F ग्रहण किया यह विशेष दृष्टी सर्मिकपना कहा. और यह अनुमान प्रमान कहा // 73 // अहो भग-2 वन् ! उपमा परिमाण किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! उपमा प्रमाण के दो प्रकार कहे हैं तद्यथा-300 11 साधर्मोपनित और 2 वैधर्मो पनित // 74 // अहो भगवन् ! साधर्मोपनित किसे कहते हैं ? अहो 6 शिष्य ! साधर्मोपनित तीन प्रकार कहा है, तद्यथा-१ किंचित साधर्मोपनित,२ प्राय साधर्मोपनित, और " 3 सर्व साधर्मोपनित / / 75 // अहो भगवन् ! किंचित साधर्मोपनित किसे कहते हैं ? अहो शिष्य 11488 प्रमाण विषय +888 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org A 4. अजुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी जहा सरिसवो तहा मंदरो, जहा समुद्दो तहा गोप्पय जहा गाप्पेयं तहा समुद्दो. जहा आइच्चो तहा खज्जोतो, जहा खजातो तहा आइचो, जहा चंदो तहा कुमुदो, जहा कुमुदो तहा चंदो, से तं किंांचे साहम्मो // 76 / / से किं तं पाय- 218 साहम्मो ? पायसाहम्मो जहागो तहागवओ, जहा गवओ लहानो, से तं पायताहम्मे // 77 // से किं तं सव्व साहम्मे ! सव्व लाहम्मे उबने नत्थि तहावि तेणेव तस्त्र उवमं कीरति, जहा अरिहंतेहि अरिहंत सरिस कयं, चक्कवधिणा चावटि सरिसं किंचित साधर्मोपनित सो जैसा मेरु पर्वत तैमा सरिसव, और जैसा सरिसब तैसा मेरु. जैसा समुद्र तैसा गोपय-गाय के खुर स्थान रहा पानी बरसा गौपदलेला समुद्र. जैसा सूर्य तैसा खयोत-आगीया.जैसा खद्योत तैसा सूर्य, जैसा चन्द्र तैसी कुमुदनी जैसी बुदनी तसा चन्द्र. यह किंचित साधर्मिकपनः कहा / / 76 // अहो भग-2 वन : विशेष साधर्मिकपना किसे कहते है! अहो गिना जैसा बैक तैसा रोझ. जैसा रोझ तैसा वैच,यह विशेष साधर्मिक पना कहा // 7 // अहोगवन ! सवा पालिने ? भोप ! जहां औपमा नहीं उस का उस की औपमा कहना. जैसे वे अरिहंतने उन अरिहे। सरिखे हैं. अरिहंत के समान 4. * नीर्थ स्थापन्न अतिशयादि कार्य अन्य के नहीं होता है. इसलिये सर्व साधभिकपना जानना. तैसे ही है। *काशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir : कयं, बलदेवेण बलदेव सरिसंकयं, वासुदेवेणं वासुदेव सरिसकयं साहुणा साहु सरिसकयं से तं सव्व साहम्मे / सेत साहनात्रणीते / / 78 // से किं तं देहामायणीते वेहम्मोवणीते-तिविहा पण्णत्ता तंजहा-किंचिवहम्मे, पायवेहम्मे, सव्ववेहम्मे // 79 // से किं तं किंचि वेहम्मे? किंचि वेहम्मे जहा साबलेयो न तहा बाहलेयो,जहा बाहुलेयो नतहा साबले उ सेत्तं किंचि वेहम्मे // 80 // से किं तं पायवेहम्मे ? पायवहम्मे एकत्रिशत्तम अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल 803-प्रमाण विस्य < चक्रवर्ती चक्रवर्ती समान. बलदेव बलदेव रूपान, वासदेव वासुदेव समान, साधु साधु समान, इत्यादि। सर्व साभिक पना जानना. यह सर्व मार्मिक उपबित हुआ. // 78 // अहो भगवन् ! वैधाँपमित किले " कहते हैं ? अहो शिष्य ! पेय पनित तीन प्रकार को है. तबधा-१ किंचित वैधर्मोपनित. * प्रायः वैधोपनित, 3 और स वैषमापनित।। 7 // अहो भावन् ! किचित् वैधमोनित कि कहते हैं ? अहो शिष्य ! किंचित पैदानित सोसायगाय का बच्छा सा श्वेत गाय का बच्छा नहीं. और जैसा श्वेत गाय का बच्छा सैसा वाम गाय का नहीं. यह किंचित वैधर्मोपानत हु. // 80 // अहो भगवन् ! प्रायः ( बहुत ) वैधर्मोपनित किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! जैसा वायस ( काग ) होता है तैसा पायस ( गाडी का चक्र ) नहीं. वह सजीव परिभ्रमण करता है और वह >BR0 498 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्र श्री अमोलक ऋार्षजी + जहावायसो न तहा पायसो, जहापायसो नतहा वायसो से तं पायवेहम्मो॥८१॥से किंतं सव्व वेहम्मे ? सव्व वेहम्मेउबमे नत्थी तहावि तेणे तस्स उवमं करती जहाणीएणणीय सरिसंकथं दासण दास सरिसंकयं,कागेण काग सरिसं कयं, साणेणसाण सरिसंकयं, पाणेग पाण सरिसंकयं, से तं सव्व वेहम्मे // से तं वेहम्मोवणीते // से तं उवमे // 82 // से किं तं आगमे ? आगमे-दुविहे पण्णत्ते तंजहा लोइएय, लोगुत्तरिएय // 83 // से किं तं लोईए ? लोईए जणं इमं अण्णाणिएहिं निर्जीव परिभ्रमण करता है. ऐसे ही जैसे पायस तैसा वायस नहीं. यह प्रायः वैधर्मोपनित , हुवा. // 81 // अहो भगवन् ! सर्व वै धर्मोपनितपना किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! सर्व विपरीत औषमा नहीं है तथापि उस कर उस की औपमा कहते हैं. जैसे नीच मनुष्य को नीच जैसा कहा. दास को दास जैसा कहा. काग को काग जैसा, कुत्ते को कुत्ते जैसा. जीव को जीव जैसा कहा यह सर्व वैधर्म उपनित और औपमा प्रमाण हुवा // 82 // अहो भगवन् ! आगम प्रमाण किसे कहते हैं ? अहो शिष्य जो गुरुओं की परम्परा से चला आता हुवा तथा जीवादि पदार्थों का गम्य करानेवाला हो उसे आगम प्रमाण कहना. जिस के दो प्रकार कहे हैं. तद्यथा लोकिक और 2 लोकोचर // 83 // अहो भगवन ! लोकिक आगम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य प्रकाशक-राजाबहादुर राला सुखदेवसहायजी-ज्वालाप्रसादजी * अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मृत 488 मिच्छादिट्ठीहि, सच्छंद बुद्धिमति विगप्पियं तंजहा-रामायणं जाव चत्तारिवेया, संगोवंगा से तं लोइए // 84 // से किं तं लोगुनरिए ; लोगुत्तरिए जण्णं इमअरिहंते भगवंतेहिं उत्पन्न नाण दसण धरेहिं तीत पच्चपन्न गणागत जाणएहिं तेलुक्कबहिय महिय पूईएहिं सव्वहिं सम्बदरिसीहिं पणिय दुवालसंगं गणिपिडगं तंजहा-आयारो जाव दिट्ठिवाउ // 85 // अहया आगमे तिविहे पण्णत्ते तंजहा-सुत्तागमे, अत्थागमे, तदुभयागमे // अहवा मागमे अर्थ जो यह अज्ञानी मिथ्यात्व दृष्टी स्वच्छन्द बुद्धिवाले जिन के बताये शास्त्र तथथा- रामायन पावत्र जा चारों वेदों अंगोपांग सहित उन कि लोकिक आगम कहना // 84 // अहो भगक्न ! लोकोत्तर आगम किसे कहना ? अहो शिष्य ! लोकोत्तर आगम सो जो यह अरिहंत भगवंत केवल ज्ञान केवल दर्शन के धारक अतीत वर्तमान अनागत तीनों काल की बात के जानने तीनों लोक के जीवों के हितकर वंदनीक पूज्यनीक सर्वज्ञ सब दी उन के बनाये द्वादशांग आचार्य की पेटी समान तद्यथा-आचारांग यावत् दृष्टीवाद // 84 / / अथका आगम तीन प्रकार के कहे हैं तद्यथा-- सूभागम, 2 अर्थागम, और 3 उभ-0% 17'यागम. अथवा आगम तीत प्रकार के कहे : तद्यथा-१ मत्तागम-स्वयं के बनाये, 2 अनन्तरागम 48 एकाशित्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्य मूल. 48 प्रमाण का विषय 1.11 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 302 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी: तिविहे पणत्ते संजहा-अत्तागमे, अणंतरागगे, परंपरागमे // तित्थगराण अत्थस्स अत्तागमे, गणहराणं सुत्तस्स अत्तागमे अत्थरस अणंतरागमे, गणहर सीसाणं सुत्तरस अणंतरागमे, अत्थस्स परंपरागमे. तेणं परं सुत्तरसवि अत्थस्सवि नो अत्तागमे णो अणंतराग़मे परंपरागमे, से तं लोगुत्तरिए // से तं आगमे. से ते णाणगुणप्पमाणे // 86 // किं तं दसणगुण पमाणे ? दसणगुण प्पमाणे-चउविहे पण्णत्ते तंजहा-चक्खूदंसण गुणप्पमाणे, अचक्खू दसण गुणप्पमाणे, ओहि सण गुणप्पमाणे, केवल सण गुणप्पमाणे, // चक्खू सण गुरु आदि के बनाये, 3 परम्परागम-परम्परा से चले आते सो, जैसे-तीर्थकरने अर्थ कहा यह अतागम, गणधर ने उसे सूत्र रूप कहा वह मूत्तागम से अत्तागम, अर्थ से अन्तरागम, गणधरों के शिष्यो को मूत्र से अनन्तरागम, अर्थ से परम्परागम, उस के उपरांत मूत्र से भी और अर्थ से भी अत्तागम भी नहीं, अनन्तगगम भी नहीं. केवल परम्परागम जानना. यह लोकोत्तर और आगमका कथन हुवा. और पह ज्ञान गुन का प्रमाण हुवा // 86 / / अहो भगवन् ! दर्शन गुन प्रमाण किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! दर्शन गुन प्रमाण के चार भेद कहे हैं तद्यथा-1 चक्षु दर्शन गुन प्रमाण, 2 अचक्षु दर्शन गुन प्रमाण, अवधि दर्शन गुन प्रमाण, और 4 केवल दर्शन गन प्रमाण, यह जैसे-चक्ष दर्शनी चक्ष से घट पर अर्थ काशक-राजाबहादुर बाला सुखदेवसहायनी-ज्वालाप्रसादजी. | For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4 धखदसणस्स घड पड कड रहादिएमु दव्वेमु अचक्खू दसणिस्स आय भावे, ओहि दसणिस्स सव्वरूवी दव्वेहिं, न पुण सव्वपजवेहि, केवल दमण केवल सणस्स सव्वदव्वेहिय सबपज्जवेहिय, से तं देसणगुणप्पमाणं // 87 // से किं तं चरित्त गुणप्पमाणे? चरित्तगुणप्पमाणे पंचविहा पण्णत्ता तेजहा--गाइय चरित्त गुणप्पमाणे, छेदोवढावण चरित्त गुणप्पमाणे, परिहार विसुद्धिय चरित गुणप्पमाणे, मुहुम संपराय चरित्त गुणप्पमाणे, अहक्खाय चरित्त गुणप्पमाणे // सामाइय चरित्त अर्थ / कर आदि द्रव्य को देखता है. अचक्षु दर्शनी अचक्षु दर्शन से शब्द गंध रस स्पर्श को देखता है. "ह अवधि दर्शनी अवधि दर्शन से रूपी द्रव्य को देश से देखता है परंतु सर्व से नहीं, केवल दर्शनी केवल दर्शन से सर्व द्रव्य सर्व पर्याय को देखता है यह द्रव्य गुण प्रमाण कहा और यह दर्शन गुन प्रमाण कहा . 5 // 87 // अहो भगवन् ! चारित्र गुण प्रमाण किसे कहते हैं ! अहो शिष्य ! चारित्र गुण प्रमाण पांच प्रकार कहा है. तद्यथा-१ सामायिक चारित्र गुण प्रमाण, 2 छेदोपस्थापनीय चारित्र गुण प्रमाण, 11 परिहार विशुद्ध चारित्र गुण प्रमाण, 4 सूक्ष्म सम्पराय चारित्र गुण प्रमाण. और 5 यथाख्यात पारिश गुण प्रमाण. इस में सामायिक चारित्र गुण प्रमाण दो प्रकार का कहा है तद्यथा-१ इत्वरयोडे काल का सो प्रथम अन्तिम तीर्थंकरों के बारे में सामायिक चारित्र का परिवर्तन कर छदोषस्थापनी 48+ एकाशित्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्व मूल 88.प्रमाणका विषय 4848862 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4 अनुवादक बालब्रह्मचारि मुनि श्री अमोलख ऋपिजी गुणप्यमाणे दुविहा पगना तंज हा इतरिएय, आपकहर. छेसोवट्ठावण चरित गुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते तंजहा साइयारेय, निरइयारेय. परिहार विसुद्धिय चरित गुणप्पमाणं दुविहे पण्णत्ते तंजहा-णिविसमणार अणिविटुकाईएय // सुहुम संपराय चरित्त गुणप्पमाणे दुविहे पण्णते तंजहा-पडिवाइय, अपडिवाइय. अहक्खाय चरित्त गुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते तंजहा-छउमत्थएय, केवलिएय, से तं चरित दिया जावे मो और आवकाहिक धीच के बाईस तीर्थंकर के बारे तथा महा विदेह क्षेत्र में सब उम्मर सामायिक चारित्र ही रहे. 2 छेदोपस्थापनीय चारित्र गुण प्रमाण दो प्रकार का कहा. तण्यासातिचार सो किसी प्रकार कर बहा दोष सेवन किये दिया जावे सो. और निरातिचार सो-सामायिक चारित्र ग्रहण किये पाद सातवे दिन. चार महिने, तथा छ महिने में छेदोपस्थापनीय दिया जावे तथा तेवीसवे तीर्थंकर के साधु चौवीसबे तीर्थंकर के शासन में आते छेदोपस्थापनीय चारित्र प्रहण करे.. 3 परिहार विशुद्ध चारित्र गुण प्रमाण दो प्रकार कहा है तद्यथा-निर्विश्राम-जो तपश्चर्या करे सो. और विश्राम-वैयावच्च करे सो, 4 सूक्ष्म सम्पराय चारित्र गुण प्रमाण के दो भेद-प्रतिपाती-उपशम श्रेणिपाला और अपतिपाती-क्षपक श्रेणिवाला. 5 यथाख्यास चारित्र गुण प्रमाण दो प्रकार का + कहा है. तपथा-१ अस्त, और 2 केवल ज्ञानी. यह चारित्र गुण प्रमाण हुवा. और यह जीव गुण / काशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सा गुणप्पमाणे // से तं जीव गुणप्पमाणे // से तं गुगप्पमाणे // 88 // से किं ते नयप्पमाणे?नयप्पमाणे तिविहे पण्णत्ते तंजहा-पत्थग दिटुंतेणं विसहे दिटुंतेणं, पदेस दिटुंतेणं // 89 // से किं तं पत्थग दिटुंतेणं पत्थग दिटुंतेणं से जहा नामए केइपुरिसे परसुंगहाय अडविहुतो गच्छेजा तं पासित्ता केइ वदेजा कहिं भवं गच्छसि? अविसुद्धो णेगमो भणति-पत्थयगरस गच्छामि,तंच केइछिंदमाण पासित्ता बदेजा किं भवंछिंदसि? एकत्रिंशत्तम-अनुयोगदार ब-चतुर्थमुल .14 4884882 प्रमाण का विषय 4.28 प्रमाण हुवा. और गुण प्रमाण भी हुवा // 88 // अहो भगवन् ! नय प्रमाण किसे कहते हैं ! अहो शिष्य ! अनन्त स्वरूप वस्तु को एक अंश कर जाने उसे नय कहते हैं. उस का स्वरूप तीनों दृष्टांतों कर समझाते हैं. 1 पाया के दृष्टान्त से, 2 वसति के दृष्टान्त से. और 3 प्रदेश के दृष्टान्त से // 89 // अहो भगवन ! पाथे का दृष्टान्त किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! पाथे का दृष्टान्त सो-यथा दृष्टान्त कोई + पुरुष फरसी हाथ में ग्रहण करके अटवी में जाता है. उसे देख कर कोई कहे तू कहा जाता है ? तब अशुद्ध नैगम नय वाला बोला कि मैं पाथा के लिये जाता हूं. बह जाता तो है काष्ट ग्रहण करने परंतु / उस काष्ट का पाथा बनावेगा इस लिये यहां कारण में कार्य का उपचार किया है. उप्त काष्ट को कोई 561 छेदता हुवा देख फूछा तू क्या छेदता है ? ! विशुद्ध नै नप याला बोला- पाथा छेरना / 438 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वेसुद्धो गमो भणइ पत्थय छिंदामि. तंच केइ तत्थसणं पासित्ता वदेजा किं भवं तच्छसि ? विसुद्धतरागो णेगमो भणति, पत्थयं तच्छेमि,तंच केइ उकीरमाणं पासिता बदेज्जा-किं भवं कीरसि ? विसुद्धतरागो णेगमो भणति, पत्थयओकारामि. संच केई लीहमाणं पासित्ता वएजा-किं भवं लिहसि ? विसुद्धतरागो णेगमो भणति. पत्थयलिहामि. एवं विसुद्धतर णेगमस्स नामाउतिय उपत्थउ, एवमेव ववहारस्सवि. 408 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्रीअमोलक मापन - उस लकड को छीलता हुवा देख कोई पूछे क्या छीलता है ? सब विशुद्धतर नैगम नय वाला बोला पाथा छीलता हूं. उप्त ककड को कोरता हुवा देख कर पूछा तू क्या कोरता है? तब मिशुदतरागम नैगम नय चाला बोला-पाया कोरता हूं, उसे लिखता हुआ देख किसीने पूछा-तू क्या लिखता है ? सब विशुद्धतरागम नैगम नय वाला बोला-पाया लिखता हूं, इस प्रकार विशुद्धतरागम नैगम नय की| अपेक्षा से पाया हुवा. जैसा यह नैगम नय का कहा तैसा व्यवहार नय का भी कहना. 3 संग्रह नव के मत से सर्व प्रकार का धान का संग्रह किया पाथा में भर मपति करने के लिये रक्खा, धान से भरा पाया माने, 4 ऋजु मूत्र नयके मतसे धान्य मापतेको पाया माने, क्योंकि यह वर्तमान काळका ही मानने वाला है,और ऊपरकी तीनों शब्द नय समभीरुढनय और एवंभूत नय यह तीनों पाथाके जानने वाले को ही हैं। +प्रकाशक-राजबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्र भय * एकत्रिंशत्तम-अनुयागद्वार सूत्र-चतुर्थ मूस संगहस्सवि उभिय नेयसमारूढा पत्थर, उज्जुसुय पत्थउवि, पत्थउ मिजतिपत्थर, तिण्हं सदनयाणं पत्थयस्स अत्थाहिगार जाणउ पत्थउ, जस्सबा वसेणं पत्थर निप्पज्जइ से तं पत्थयदिटुंतेणं // 9 // से किं तं वसहिदिटुंतेणं ? वसहि दिटुंतेणं से जहा नामए केइ पुरिसे किंचि पुरिसं वदेजा कहिं भवं वसति ? अविसुद्धो णेगमो भणइ-लोगेवसामि, लोगे तिविहे पण्णत्ते तंजहा-उड्नेलोए, अहे. लोए, तिरियलोय तेसु सम्वेसु भवं वससि? विसुद्ध णेगमो भणइ-तिरियलोए वसामि, पाया माने क्यों कि इन नयोंवाले के उपयोग ही प्रमान है, वह पाया में नहीं है। इस लिये पाये के जान में को पाथा मानते हैं, जैसे " नमो बंभीए लिबीए" इस में लिपी के ज्ञायक ऋषभ देवजी को नमस्कार किया है परंतु लिपी को नहीं, क्यों कि लिपी में उपयोग नहीं होता है. यह प्रथम पाथा का दृष्टान्त / हुवा // 90 // अहो भगवन् ! वसति का दृष्टान्त किस प्रकार है ? अहो शिष्य ! यथा दृष्टान्त कोई पुरुष किसी पुरुष से कहे कि तू कहां रहता है ? उसे अशुद्ध नैगम नयवाले ने उचर दिया. मैं लोक में * रहता हूं. प्रश्न-लोक तो तीन हैं उर्ध्व अधो त्रिक. तू उन तीनों में रहता है क्या ? उत्तर-विशुद्ध * नैगम नयवाला वोला-मैं तिर्छ लोक में रहता हूं. प्रश्न-तिच्छे लोक में नंबूद्वीप से स्वयंभूरमण समुद्र पर्यंत असंख्यात द्वीप समुद्र हैं उन सब में तू रहता है क्या? उत्तर-विशुद्धतर नैगम नयवाला बोला 980288000 प्रमाण का विषय 48848817 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का अनुवादक वालब्रह्मचारी मुनि श्री अयोलक प्रषिजी. तिरियलोए जंबूहीवादिया मयंभरमण पज्जवसाणा असंखिज्जा दीव समुद्दा पण्णत्ता तेसु सव्वेसु भवं वलति ? विसुद्धतराउ गमो भणइ-जंबूद्दीवे वसामि, जंबू द्दीवे दसखेत्ता पण्णत्ता भरहे, एरवते, हेमवते, हेरणवते, हरिवासे, रम्मगवासे, देवकुरा, उत्तरकुरा पुव्वविदेह, अवरविदेह तेसु सव्वेसु भवं वससि ?विसुद्ध तरागो णेगमो भणति-भरहेवासे वसामि, भरहेवासे दुविहे पण्णत्ते तंजहा-दाहिणड्ड भरहेय, उत्तरड्ड भरहेय, तेसु सव्वेसु भवं वससि ? विसुद्ध तरागो णेगमो भणइ-दाहिणड्ड मैं जंबूद्वीप में रहता हूं. प्रश्न-जंबूद्वीप में दश क्षेत्र हैं. तद्यथा-१ भरत, 2 ऐरावत, 3 हेमवय, 4 हेरण्यवय, हरीवास, 6 रम्यकवास, 7 देवकुरु, 8 उत्सरकुरु, 9 पूर्व विदेह और 10 अवर विदेह. इन सब में तू रहता है क्या ? उत्तर-विशुद्धतर नैसम नयवाला बोला-मैं भरत क्षेत्र में रहता हूं. प्रश्न-भरत क्षेत्र के सो दो विभाग हैं तद्यथा- दक्षिणार्ध और 2 उत्तरार्ध. उन दोनों में रहता है। क्या ? उत्तर-विशद्धतर नैगम नयवाला बोला-मैं दक्षिणा भरत में रहता है. प्रश्न-दक्षिणार्ध भरत में तो अनेक ग्राम आगर नगर खेड कबड मडंब द्रोणमख पाटण आश्रम संशाह संनिवेस हैं उन सब में रहता है क्या? उत्तर-विशुद्धतराग नैगम नयवाला बोला-मैं पाटली पुत्र नगर में रहता हूं प्रश्न-पाटलीपुर नगर में तो अनेक घर हैं तो उन सब तू में रहता है क्या ? उत्तर-विशुद्धतराग नैगम नयवाला बोला मकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी ज्यालासादजी ** For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भरहेबसामि, दाहिणड्ड भरहे अणेगाइ गामागरणगर खेड कव्वड मंडब दोणमुह पट्टणा सम संबह सन्निवेसाई तेसु सव्वेसु भवं वसास ? विसुद्ध तरागो णेगमो भणति-पाडलिपुत्ते वसामि, पाडलिपुत्ते अणेगाइं गिहाई तेसु सव्वे भवं वससि ? विसुद्ध तरागो णेगमो भणति देवदत्तस्सघरे वसामि, देवदत्तस्सघरे अणेगा कोटगा तेसु सव्वेसु भवं वससि ? विसुद्ध तरागो णेगमो भणति-गब्भघरे वसामि, एवं विसुद्ध' णेगमस्स वसमाणोवसइएवमेव ववहारस्सवि, संगहस्स संथार समारूढो वसति, देवदत्त के घर में रहता हूं. मन--देवदत्त के घर में तो कोठे बहुत हैं उन सब में तू रहता है क्या? उत्तर विशुद्ध तराग नैगम नयाला बोला-मध्य के घर में रहता हूं. इस प्रकार विशुद्ध नैगम नय के हमत से वसति है.सा यह नैगम नय का कहा तैसा ही व्यवरार नय का भी कहना. संग्रह नयवाला बोलता है कि मैं संथारक में जहा बैठता हूं शयन करता हूं तहां रहता हूँ. ऋजु सूत्र नयवाला कहता है - जितने भाकाश प्रदेश मैंने अवगाहे हैं उसमें रहता हूं. और तीनों शब्द नयवाले कहते हैं कि मैं आत्म भाव में रहता हूं यह वसति का दृष्टान्त हुवा // 91 // अहो भगवम् ! प्रदेशका दृष्टान्त किस प्रकार है ? अहो / शिष्य ! प्रदेश के दृष्टान्त में नैगम नय के मत से छ के प्रदेश वह देश का प्रदेश अलग गवेषना. यह विशेषार्थ बताया, दूसरा संग्रह नय पांच का प्रदेश स्कन्ध में गवेषे. या भी सत्य नैगम 'झूठा ऐसा 8+ एक नात्रंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थमूल tast 42443 प्रमाण का विषय + For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4.अनुवादक पाळवमचारी मुनि श्री अमोलक काजी उज्जुसुपस्स आगासपएसे उगाढो तेसु वसति, तिण्हं सहनयाणं आयभावे वसेमि, से तं वसहि दिटुंतेणं // 11 // से किं तं पएसदिटुंतेणं ? पदेस दिटुंते-णेगमो भणति छण्हंपएसो तंजहा-धम्मपएसो, अधम्मपएसो, आगासपएसो,जीवपएसो,खंध पएसो,देसपएसो, एवं वयं गर्भ संगहो भणइ-जं भणसि छण्डंपएसो तं न भवति, कम्हा ? अम्हा देसपएसो सो तस्सेव दव्वस्त जहा को दिटुंतो ? दासण मेखरोकीओ सो यदासोवि मे खरोविमे तेमाभणाहि, छण्हं पएसो भणाहि पचण्हं परसो समझाया, भौर संग्रह नय का या अभिप्राय; थोडे बोल में बहुत का समावेश हुवा इस लिये 7 का परमार्य पांच में आया. 3 व्यवहार नय के मत छ का पांच का यों कहते षष्ठी विभक्ति का बहु वचन उस कर एक प्रदेश संघात को एक पांच का सम्बन्ध समझना, इस लिये पीछे की नय षष्टी तत्पुरुष समास से वह यहां नहीं. 4 ऋजु सूत्र कहता है तुम पांच भेद कहते हो वह सत्य हैं परंतु किसी को संदेह हो कि एकेक प्रदेश वह पांच 2 प्रकार का यों 25 भेद होवे. इस सन्देह की निवृत्ति के लिये ऐसा कहा स्यात् धर्मास्ति का प्रदेश, यों ऋजु सूत्र नय के मत से ऐसा बोले. पांचवा शब्द नयवाला बोला-तुमारा मत सत्य परंतु स्यात् धर्मास्ति का प्रदेश, स्यात् अधर्मास्ति का प्रदेश, यों करते धर्म का जो प्रदेश पर धर्म का प्रदेश और अधर्म का प्रदेश वह धर्म का प्रदेश. यों परस्पर एक भाव का प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसाद For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 488 एकत्रिंशसम-अनुयोगद्वारसूत्र -चतुर्थ मूल 138* तंजहा-धम्मपएसो अधम्मपएसो आगासपएसो जीवपएसो खंधपएसो, एवं वयंत संगहस्म ववहारो भणइ-जं भणसि पंचहं पएसो तं न भवति, कम्हा! जम्हा जइपंचण्हं गोट्ठियाणं पुरिसाणं केइ दव्वजाइ सामन्ने भवति तंजहा। हिरण्णेवा, सुवण्णेवा धणेवा धन्नेवा तहा पंचण्हं पएसो तं मा भणहि पंचण्हं पएसो भणाहि, पंचविहो पएसो तंजहा-धम्मपएसो, अधम्मपएसो, आगास पएसो, जीवपएसो, खंधपएसो. एवं वदंते ववहाररस उज्जुसुतो भणइ,जं भणसि पंचविहो पएसो तं ण सन्देह एक २को उत्पन्न होवे उसे टालने के लिये हमारे मत में धर्म प्रदेश वह प्रदेश धर्म इत्यादि कहा. समभिरूढ मय तुमने तमारा अभिप्राय कहा यह सत्य परंतु यहां समास होने आवे यह संदेह निवृत्तिको कर्म धारय से समास सहित ऐसा कहा धर्म ही वह प्रदेश वह प्रदेश धर्म इत्यादि पांचों बोल-१ एवंभूत नय-धर्मास्ति कायादि पांचों अखंड कहे खंड नाम कहते देश प्रदेश सब खंड वस्तु में आये, या सातों नय के अलग 2 मत कहे. परमार्थ से सब एक ही जानना. इस ही अधिकार को आगे मूत्र द्वारा कहते हैं-नैगम नय कहता है कि छे का प्रदेश-१ धर्मास्ति का प्रदेश, 2 अधर्मास्ति का प्रदेश, 3 आकाशा स्ति का प्रदेश, 4 जीवास्ति का प्रदेश, 5 पुद्गल स्कन्ध का प्रदेश, और 6 देश का प्रदेश. यों बोलते को नैगम से संग्रह कहने लगा कि जो तुम कहते हो छ का प्रदेश तैसा नहीं होता है. क्यों कि नो देश प्रमाण का विषय ! CR>< 498 > / For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नि श्री अमोलक ऋपिजी ण भवति. कम्हा ? जइते पंचविहो पएसो. एवं ते एकेको पएसो पंचविहो। एवं तेण पणवीसतिविहो पदेसो भवंति, तंमाभणाहिं पंचविही पदेसो भगाहिं, भइयव्यो पदेसो, सिय धम्मपएसो, सिय अधम्मपएसो, सिय आगारूपएसो, सिय जीव पएसो, सिय खंधपएसो, एवं वदंतं उज्जुसुत्तं संपतिसद्दनउ भणइ जं भणसि भइयव्यो पदेसो तं ण भवंति, कम्हा ? जइ भइयव्बोपएसो एवते. धम्मपएसोवि पाशक-राजावादादुर लाळा मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी. अनुवादक बाउन्नाचा जो देश का प्रदेश कहते हैं वह उस ही द्रव्य का प्रदेश है. इस लिये छठा भेद नहीं हुवा. यथा दृष्टान्त कर-किसी दासने मालक के वास्ते खर मो लिया. तब मालक बोला-यह दास भी मेरा और खर भी मेरा, यह दोनों पालक की वस्तु होवे, तैसे खन्ध प्रदेश और देश प्रदेश कहना. छ का प्रदेश तुमने कहा यह. पांच प्रदेश सद्यथा-धर्मास्ति काया का प्रदेश,अधर्मास्ति का ग का पर्देश, आकाशास्ति काया का प्रदेश,जीव का प्रदेश, और स्कन्ध का / प्रदेश. ऐसा बोलते हुवे संग्रह नक से व्यवहार नयवाला बोला जो तू कहता है कि पाच प्रदेश. यह नहीं होता। हे क्यों कि जिस लिये जैसे पांच गोष्टिले ( मित्र ) पुरुष का किसी के द्रव्य की जाति सामान्य हो. सद्या-चांदी, 2 मुवर्ण, 3 धन, 4 धान्य, तैसे पांच के प्रदेश, समावे एकत्र होवे इस लिये ना को पांच देश कहा. पांच प्रकार के प्रदेश को पांचों का प्रदेश ऐसा कहते तद्यथा-धर्मास्ति का प्रदेश, For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kallassagarsuri Gyanmandir 418 एकाविशतम अनुयोगद्वार सूत्र-चतुप मूल 438 सिय धम्मपएसो, सिय अधम्मपएसो, सिय आगासपएसो, सिय जीवपएसो, सिय खंधपएसो, अधम्मपएसोवि, सिय धम्मपएसो सिय अधम्मपएसो जाव सिय खंधपएसो / आगासपएसोवि सिय धम्मपएसोवि जाव सिय खंधरएमोवि. जीव पएसोवि, सिय अधम्मपएसो जाव सिय खंधपएसो, खंधपएसोवि, सिय धम्मपएसो है आकाशास्ति की प्रदेश, जीव का पदेश और स्कन्ध का प्रदेश. या व्यवहार नय बोलते हुवे ऋजु सूत्र नयवाला बोला जो तू कहना है पांच प्रकार प्रदेश तैसा नहीं होता है क्यों कि यद्यपि वे पांच प्रकार के प्रदेश में से एकेक प्रदे: 1.6 प्रकार होवे तो यो 25 प्रकार होजावे. इस लिये पांच प्रकार प्रदेश कहो. प्रदेशों को अलग 2 कठोर विकल्पनीय विजातीय पांच भाग से यों स्यात् है धर्मास्ति प्रदेश, वे प्रदेश अपने 2 हैं यह सम्बन्ध की आस्ति नहीं, क्यों कि वे अपने काम नहीं आवे इस लिये वे इस के मन में नहीं, इस के मत से विकाल और पर सम्बन्धी वस्तु सर्वथा नहीं है. यह ऋजू सूत्र के भाव कहे. इस प्रकार ऋजू सूत्र नरवाले कोलते हुवे को शब्द नयवाला कहने लगा. जो तूने कहा प्रदेश का भेद कहना तैसा नहीं होता है. क्यों कि यदि प्रदेश के भेद जो तुमारे मत से होते धर्मस्ति काया के प्रदेश भी कदाचिन धर्मास्ति काया के प्रदेश हो स्यात् अधर्मास्ति के प्रदेश. स्यात् आकाशारित के प्रदेश. स्या अनीव के प्रदेश. स्यात् स्कन्ध के प्रदेश, 5. अधर्मास्ति काया के मदेश भी स्यात् धर्मास्ति का प्रदेश Mom प्रमाण विषय 488A8+ / For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी : आव सिय खंथपएमा एवं ते अणवत्था भविस्सति तमा भगाइ, भइयव्वो पदेसो भणाहि, धम्मे पदेसे से पदेसे धम्मे. अहम्मे पंदने से पदेसे अहम्मे,अगामे पएसे से पएसे आगासे, जीव पदसे से पदेसे ना जीवे, खंधे पदेसे से पदेसे नो खधे, एवं वयं तं सद्द नयं, समभिरूढो भणति, जं भगासे धम्मेपदेसे से पदेस धम्मे जाव जीब. . यावत् स्यात् स्कन्ध प्रदेश आकाशाम्त काया के प्रदेश नी-म्यात् धर्मास्ति काया प्रदेश भी जान स्यात् स्कन्ध प्रदेश. जीव पए वि-स्यात् अधर्मास्ति काया के प्रदेश भी, यावत् स्यात् स्कन्ध प्रदेश भी. स्कन्ध प्रदेश भी-स्यात् धर्मास्ति प्रदेश यावत् स्यात् स्कन्ध प्रदेश. यों यह मर्याद के अभाव से अनवस्थ दोषो- - त्पन्न होते हैं उन को नहीं कहना. परंतु प्रदेश के भेद कहना ऐसा कहना. धर्मास्ति के प्रदेश को धर्म का प्रदेश कहना. अधर्मास्ति के प्रदेश को अधर्म का प्रदेश कहना आकाशास्ति के प्रदेश को आकाशका E प्रदेश कहना, जीवास्ति के प्रदेश को जीव का पदेश कहना. और पहल के स्कन्ध के प्रदेश को पुद्गल के स्कन्ध का प्रदेश कहना. परंतु जीव के प्रदेश को सम्पूर्ण जीव और स्कन्ध के प्रदेश को स्कन्ध नहीं कहना. इस प्रकार जो प्रदेश जिस से सम्बन्ध कर रहा हो जिस कार्य कर्म रूप प्रवर्त रहा हो है उस है। का प्रदेश कहना. यों ता धर्मास्ति आदि के प्रदेश पर अनन्त जीव के लथा पुद्गल के स्कन्ध है में वे अपने 2 भाव में प्रवर्तते हैं इस लिये उन को इस में सामिल नहीं करना. यों बोलते हुवे शब्द नय काशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी-ज्वालाप्रसाद जी * For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 880 Hot एकत्रिंशत्तम्-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल पएसे से पदेसे नो जीवे खंधे पदेसे से पदेसे नो खंधे तं ण भवति, कम्हा ? | इत्थ खलु दो समासा भवंति तंजहा-तप्परिन / कम्मधारएय तं ण जति. कतरेणं समासेण भणति किं तप्परिसेण कम्म धारणं जड़ , पुरिने भणसि को समभिरूदी नय बोला तूने जो कहा कि धर्मास्ति का प्रदेश वह धर्मास का प्रदेश है यावत जी का प्रदेश है वह जीव का प्रदेश काना और स्कन्ध के प्रदेश को स्कन्ध प्रदेश कहना परंतु प्रदेश को आर * स्कन्ध नहीं कहना. परंतु यह वात मिलती नहीं है. क्यों कि यहा निश्चय से दो समास होते हैं. तद्यथातत्पुरुष समास, कर्म पारय समास. धम्मा यह सप्त धर्मी में प्रदेश हुब जैसे बने इस्ति इस में वन अलग और हस्ति अलग, यहां नो नहीं बन में हाथी ऐसे तत्परुष समास है. तथा कर्मधारय धर्म प्रथमाधर्म जो वह प्रदेश हुवा, तब तो हंसो ऐसे कर्म धारय में धम्मे सप्तमी तत्परुप प्रथमातो कर्मधारय में सन्देश होथे इस लिये नहीं मालुम किस समासी धर्म प्रदेश ऐसा करते हैं. किं तत्परूप अथवा कर्म धारय समझ पडती नहीं है धम्म शब्द में 2 विभक्ति 17-11 जानाती सप्तमी नहीं की इस लिये वह तत्पुरुष कहता है वह ऐसे यहां स-पुरुष नहीं. और जो कर्म धारय से समास कह तो वह भी विशेष से के हे धर्म जो प्रदेश यहां जो विशेष कहना चाहिये ते धर्म प्रदेश धर्म श्वासो प्रदेशस्य इति समानाधिकरण कर्म धारय यों करते सममी की शंशा के अभाव से तत्पुरुष का संभव न होवे यह भाव. अधर्म जो दश For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तोमा एवं भणाहि अदकम्मभारणं भणास तो विसैसेउ भणाहि धम्मैअसे पदेसेय से पदेने धम्मे, अहम्मेय से 'पदेसेय, से पएसे अड़म्मे, आगामे अ सेपदेमेव मे पदेसे आगासे, जीवेअ सेपदसेय. से परसे नो जीवे, खंधेअ से पएसेय, से पएसे वह अधर्म पदेश. आकाश जो प्रदेश ते प्रदेश आकाश, नीर जो प्रदेश वे प्रदेश नो जीव. स्कन्ध में प्रदेश पे प्रदेश नो स्कन्ध एसा कहा. इस प्रकार बोलते हुये समधिरूढ को एवंभूत नय इस प्रकार बोला कि तू जो 2 धर्मास्ति कायादि वस्तु कहता है वो 2 सब देश प्रदेश कल्पमा रहित आत्म समरूपी संयुक्त उस के एक.पने से अवयव रहित एक नाम बोलाती वस्तु परंतु अनेक नाम बोलती हुई नहीं, इस लिये करे स्तिकायादिक वस्तु कहो परंतु प्रदेशादिक रूपपना मत कहो, क्यों कि देश प्रदेश मेरी अवस्तु Eप है. अखंड ही वस्तु के अस्तिकता मानमे से वह किस प्रकार है सो करते हैं-'पएसो वियवस्थ प्रदेश और प्रदेश का भेद है यहां जो प्रथम पक्ष ग्रहण करे तो भी मय अलग 2 भेट रूप देखना होवे वह भेद रूप तो देखाता नहीं है. और दूसरा अभेद रूप पक्ष ग्रहण करे तो धर्म शब्द और प्रदेश शब्द के पर्याय शब्दपना प्राप्त हवा इस लिये दोनों शब्द कर पर्याय 16 दोनों का तो बोलना सम काल में मिले नहीं क्यों कि एकही अर्थ के होने से दसर शब्द का निरर्थापना होवे इस लिये एक नाम से बोलाती वस्तु एक ही युक्ती से मिले. वह प्रदेश का दृष्टान्त संक्षेप में--पएसदिहूं. नैगमत्थणं पएसे अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक पिाजी *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 488+4 + RO अर्थ नो खंधे, एवं वयंत समभिरूढं, संपति एवंभूत भणनि जं जं भणसि, तं तं सव्वं कसिणं पडिपुन्नं निरवसेसं एगं गहणं गहितं देसेविसे अवत्थू पएसेविसेय वत्थू. से तं पएसदिटुंतेणं // से तं नयप्पमाणे // 92 // से किं तं संखप्पमाणे ? संखपमाणे अद्रविहे पण्णत्ता तंजहा-नामसंखा, ठवसंखा, दव्वसंखा उवमसंखा, परिणामसंखा, जाणणसंस्वा, गणणासंखा, भावसंखा, // णाम ठवणाउ पुव्व. भणियाओ, जावसेतं भवियसरीर दव्वसंखा // 93 // से किं तं जाणयसरीर 18 धम्मपएसो, यो छ ही अत्र षष्ठी तत्पुरुष संग्रह पंचण्डं पएसे-धम्मपएसे एवं पंच, सत्त पष्ठी तत्पुरुष, बबहार पंचविहो धम्मपएसो एवं 5 प्रथम ऋज़ सूत्र भायव्यो पएसो सिय धम्मपरसो एवं 5 पंच कदा चित् संदेह, शब्द नय धम्मपएसे से पएस धम्मे. सयांभरूढ धम्मेय से एएसेय पएस धम्प्रे, एवंभूत धम्मत्यीशया अखंड नाम. यह सातों नय का संक्षेप में परमार्थ जानना. इति प्रदेश दृशन्त. और यह तीनों दृष्टान्त से सातों नय का प्रयाण हुवा // 12 // अहो भगवन् ! संख्या प्रमाण किसे कहते हैं ? E/अहो शिष्य !' संख्या प्रमाण के आठ भेद कहे हैं. तद्यथा-१ नाम संख्या, 2 स्थापन संन्य 3 द्रव्य संख्या, 4 औषमा संरु I, 5 प्रमाण सख्या, 6 जानने की संख्या 7 गिनने की और र 8 भाव संख्या, इस में से नाम और स्थापना तो प्रथम आवश्यक में कही तैसे है। कहना : मात्र मानके भविय परीर और भविय शरीर की उत्तर पच्छा तहां तक कहना // 13 // अहो भगवन् माण विषय 48. एत्रिशतम अनुयोमा For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 अनुवादकाल ब्रह्मचारा मुनि श्री अमोलक प्रापिजी भवियसरीर वतिरित्त दव्यसंखा ? जाणयसरीर भवियसरीर यतिरित्त दबसंखा ! तिविहा पण्णचा तंजहा-एगभविए, बद्ध उए, अभिमुह नामगोत्तेय // 14 // एग भवरण भंतेएगभविएत्ति कालओ केवचिरं होइ, ?गोयमा! जहन्नणं अंतोमुहुत्त उक्कोसणं पुवकोडी।वहाउएणं भंते!वहाउएत्ति कालओ के वचिरंहोइ ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुषकोडी तिभागं अभिमुह नामगोत्तेणं भंते ! अभिमुहनामगोत्तेत्ति बेय शरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य संख्या किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! ज्ञेय और भव्य व्यति- अ रिक्त संख्या तीन प्रकार कही है तद्यथा- एक भव शंख का पूर्ण कर परवा में उत्पन्न होवे वह एक भविक, 2 शंख के आयष्य का वध किया वह बन्ध आयु संख्या. जार 3 शंख का भव प्राप्त करने सन्मुख हुवा समुद्घात वक्त अभिमुख नाम गोत्र संख्या // 94 // अहो भगवन् ! एक अविका एक भषिक की बार स्थिति कितनी होती है ? अहो शिष्य ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट कर 13. नियंचवत् तथा मनुष्य में से आवे सो. अहो भगवन् ! बन्ध आयुष्य की बन्ध आयुष्य में काल स्थिति कितनी कही ? अहो शिष्य ! जघन्य अन्तर्पत उत्कृष्ट गोटी पूर्व का तीसरा भाग. अहो भावन् ! अभिमुख नाम गौत्र की अभिमुख नाम गोपने काल स्थिति कितनी कही ? अहो शिष्य ! जघन्य एक समय सो भव का अन्तिम समय जानना और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त वह मारणान्तिक समुदात का पीछे * प्रकाशक-राजाबहादुर काला सुखदेवसहाय जी ज्वालाप्रसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सृत मल कालओ केवचिरं होइ, जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं अंतीमुहत्तं // 95 // इयाणि कोणा उकि संखं इच्छति, तत्थ णेगमं संगह, ववहारा, तिविहं संखं इच्छंति,तं एगभवयं द्धा यं. अभिमुहनाम गोत्तंच उज्जसुउ दुविहं संखं इच्छति तंजहा-बढाउयंच,अभिमुह नाम गतंत्र, तिणि सदनया अभिमह नामगोच संख इच्छति से तं जाणय सरीर भविय सर्गर, वइरित्त दव्यसंखा। सेतं नो आगमउ दवसंखा, से तंदबसंखा // 96 // से किं तं उवमसंखा? उवमसंखा / चउबिहा पण्णता तंजहा-अत्थि. संतयं संतएण E 488483 प्रमाण विषय 4880882 3. शहर में सीव के प्रदेश आने फिर दूसरी वक्त मारणान्तिक समुद्धात करे उस आश्रिय अन्तर्मुहूर्त जानना // 18 // अव यहां कौन नय शंव की माने सो कहते हैं-तहां 1 नैगम, 2 संग्रह, और 13 व्यहार सीनों शंख को मानती है. तद्यथा-१ एक भषिक. 2 बंधायु, और 3 नाम गोत्र अभिमुख 4 अाज सू नय दो प्रकार शंख का माने-. बन्धाय और 2 अभिमुख नाद गोत्र. और ऊपर की शब्दादि तीनों नय एक अभिमुख नाम गोत्र को ही मानती है, परन्तु यहां द्रव्य संख कोई मानती हैं, जघन्य एक समय अतो नजीक रहा इसलिये यह ज्ञेय शरीर भव्य शगेर व्यतिरिक्त द्रव्यसंख्या कही. और वह तो आगम से द्रव्य संख्या हुई. तैसे ही द्रव्य संख्या भी पूरी हुई // 9 // 20 अहो भगवन् ! औपमा संख्या किसे कहते हैं ? हे शिष्य ! औपमा संख्या चार प्रकार की कही है. है तद्यथ / होते पदार्थ को होते पदार्थ की औपया दे, 2 होते पदार्थ को अन होते पदार्थ की औपमा एकत्रिंशत्तम-अनयो | For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्र अर्थ अनुवादकपाल प्रमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी : उमिजइ, अस्थिसंतयं असंतएण उवमिजइ ? अस्थि असंतयं संतएण उवमिजइ, अत्थिअसंतयं असंतए उवमिति / तत्थ संतयं संनएणं उवमिति, अहा संता. अरिहंता संतएहि पुरवरोहि, सतरह कवाडेहिं संतएहिं वत्थेहिं उवमिजइ तंजहापुरयरकबाड वत्था, फलियभूया दुंदुभि थणिय घोसा सिरिवच्छं किअवस्था, सम्वेषि जिणा चउवीसं // 11 // संतयं असंतएण उवमिजइ, जहा संताइ नेरइय दे. 3 अन होते पदार्थ को होते पदार्थ की औपमा दे. और 4 अन होते पदार्थ को अन होते पदार्थ की औपमा दे, इन में होते को होती औपमा सो जैसे महावीर स्वामी जैसे ही पद्यनाम तीर्थकर होवेंगे. नगर की भागल समान तीर्थंकर की वाहां होती है, नगर के वुवाड समान तीर्थंकर का कदय. इस प्रकार औपमा की गाथार्थ-नगर कमाइ समान विस्तीर्ण हृदय, भागल समान भुजा. दुंदभी समान या गारव समान गंभीर निर्घोष, श्रीवत्स स्वस्तिक से अंकित इदय, सब चौवीस ही तीर्थकरों का होता है यह सब होती वस्तु को होती वस्तु की औपमा जानना. 2 अब होती वस्तु को अन होती Eवस्तु की औपमा कहते हैं. जैसे नरक का. तिर्यच का, मनुष्य का, देवता का पल्योपम सागरोपम- का जो आयुष्य है यह सत्य परन्तु जो चार कोश कूत्र में बालन भरने की ओपमा दी है घर असत्पं है। क्यों कि ऐसा कूबा किसीने भी चालान कर भरा नहीं कोइ भरेगा भी नहीं इसलिये यह बोपमा प्रकाशक राजावहादुर छाला सुखदवसहायमी-ज्वालाप्रसादजी। / - For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ + एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थ मूल 64 तिरिक्ख जोणियमणुस्स देवाणं आउयाइं असंतएहिं पलिउवम सागरोवमेहिं उवमिजइ असंतयं संतएणं उवमिज्जइ तं परिजुरिय परंतंचलंत वेढं पडंत नित्थिरं पत्तंवसणपत्तं काल. पतं भणइ गाहं-जह तुभेतह अम्हे, तुब्भेवि अहोहिआ जहा // अम्हे अप्पाहेइ, पडतं पंडुपत्तं किसलायाणं॥२॥णविअस्थि णवि य होही,उल्लाहोकिसलय पंडुपत्ताणं उवमा खलु एसकया,भवियजणविवोहणठाए // 3 // असंतयं असंतएहिं, उवमिज्जइ जहा खरविसाणं अन होती है, 3 अब अन होती वस्तु को होती वस्तु की ओपमा कहते है पिंपलादि वृक्ष का पत्ता / अत्यन्त जीर्ण अवस्था को प्राप्त हुआ अन्त अवस्था आकर रहा हलता हुआ वीट से खिरने को आया हलता हुआ अस्विरबना स्वस्थान त्यागने लगा मृत्यु के अवसर को पाया नैवीन आई हुई कुंपलों को खिलती हुई हंसती हुई देख कर कहने लगा कि जैसी तुम नवी हो ऐसे हम भी नवे थे. और जैसे हम ज्यूने हुओ वैसे तुम भी होगी, हमारे जैसे ही टूट कर नीचे पडोगी, इस प्रकार पंडरपत्तने किसलिये कुपलको कहा. परंतु ऐसा कभी हवा नहीं और होवेगाभी नहीं जो पत्र कुंपल से बोले. इसलिये यह os औपमा अनहोती है. और वातसच्ची है कि संसार की पुद्गल पर्याय नवीन उत्पन्न जीर्ण अवस्थाको प्राप्त होती है. यह दृष्टांत फक्त भव्य जीवों को प्रति बोधने के लिये ही कहा जाता हैं 3 अब अन होती बस्तु, 48848 प्रमाण का विषय 48488 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 322 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी तहा ससविसाणं॥४॥ तं उवमसंखा॥९७॥ से किं तं परमाणसंखा ? परमाणसंखा! दुविहा पण्णता तं नहा कालिय सुय सारिमाण संखःई,दिट्टिवाय सुय परिमाणसंस्वाय॥ से कि तं कालियलय परिमाणसंख? कालियसयपरिमाण संखा अणेगविहा पण्णत्ता तंजहा-पज्जवसंखः, अक्ख खा, संघाय खा, पदसंखा, पादसंखा गाहासंखा, सिलोगसंखा, वेढसंखा, निजतिसंखा, अणुउगदारसंखा, उद्देसगसखा, अज्झयण संखा, सुयखंधसंखा, अंगसंखा, सेतं कलियसुत परिमाणसंखा // 98 // से किं तं को अन होती ओपमा कहते हैं,-गद्धे के शृंग समान शृंगाल के शृंग, इत्यादि पद ओपमा संख्या प्रमाण हुआ / / 97 // अहो भगवन् ! प्रमाण संख्या किसे कहते है? हैं शिष्य ! प्रमाण संख्या दो प्रकार की कही है. तद्यथा-कालीक सूत्र प्रमाण संख्या और द्रष्टी वाद सूत्र प्रमाण संख्या // कालिक सूत्र प्रमाण संख्या किसे कहते है ? कारिक सूत्र प्रमाण संख्या अनेक प्रकार से कही है तद्यथा-१ अक्षर पर्याय की संख्या. 2 अक्षर की संख्या, 3 अक्षर के मिलापसे संघात हो उसकी संख्या 4 पदकी संख्या, 5 गाथा की संख्या, 6 श्लोक की संख्या, बेटा-छन्द की संख्या. 8 निक्षे उपोद्धात नियुक्ति की संख्या, 1 चारों अनुयोग द्वार की संख्या. 10 उद्देशे की संख्या, 11 अध्ययनों की संख्या, 12 श्रुतस्कन्ध की संख्या, 15 अंग की संख्या. यह कालिक मत्र प्रमाण हुवा // 28 // अहो *पकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालामसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 488 एकायशत्तम-अनाम: तम-अनुयोगद्वार सत्र चतु-व मूल दिविवाय मुत परिमाण संखा ? दिट्टिवाय सुत परिमाण मंखा अणेगविहा पण्णता तंजहा---जवसंखा जाव अणउपदारसंखा पहुड रखा, पाहुडिसंखा, पाहुइ पाहुडियाखा वत्युवा. से दिन यम परिता संखा से तं पीरमाणसंखा // 99 // संकि जापाखा ? जाणण रखा जो जणइ तंजहा-सदसहिउ गणितंगाणिउ. निर्मित्तं नेमित्तिउ कालंकालणाणी वेजयंवजो से तं जाण मिखा // 1.. | // से किं तं गणणाखा ? गण गणसंखा ! एकोग. __णणं ण उवेइ दुप्पमितिरूखा तंजह!-खजाए रूखेकार अपतए // 10 // भगवन् ! दृष्टिवाद परिमाण संख्या किसे कहते है ? अहो शिष्य ! दृष्टीवाद परिमाण संख्या भी अनेक प्रकार कही है. तद्यथा-१-१० पर्यव संख्या यवत् अनुयोगद्वार संख्या, 11 पाहुड संख्या, 1. पाहडीया संख्या. 13 पाइड पाहडीया संख्या 14 ५स्त संख्या यह दृष्टीनाद मत्र परिमाण हुवा। और परिमाण संख्या हई // 99 // अहो भावन् ! जाणणा ।ख्या किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! को यथार्थ जाने तद्यथा-शब्द को शब्द वेडी जाने गणित को गणित वेदी नाने. निपत्त ज्ञान को निमंतिक जाने. कार क लशन .. को वैध जनक ख्या / / 100 // अहो हैं भगवन् ! गणणा संख्या प्रमाण किसे कहते हैं ? अहो शिष्य : एक दो यावत् संख्याते *संख्याते अर्थ प्रमाण विषय 428428 / For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 1 से किं तं सखजो ? संखेज्जा तिविहा पणता जहा-जहन्नए उक्कोसए अजहन्नमणुक्कोसए // से किं तं असंखजा? असंखेजा तिविहे पण्णते तंजहा-परिता संखेज्जा, जुत्तासंखजाअ असंखज्जासंखेज्जाए // से किं तं परित्ता संखेजाति? परित्तासंखेजति तिविहा पण्णत्ता तंजहा-जहन्नए, उक्कोमए, अजहन्नमणुकोसए // से किं तं जुत्तासंखज्जए ? जुत्तासखेज्जए तिविहे पण्णत्ते तंजहा-जहन्नए उक्कोसए अनन्ते // 50 // अहो भगवन् ! संख्यात किस को कहते हैं ! अहो शिष्य ! संख्याते तीन प्रकार है के होते हैं तद्यथा-१ जघन्य संख्याते, 2 उत्कृष्ट संख्याते और 3 अनघन्य अउत्कृष्ट (मध्यम) संख्याते अहो भगवन् ! असंख्याते किस को कहते हैं ? अहो शिष्य ! असंख्यात के तीन प्रकार कहे हैं. तद्यथा-१ परिता असंख्याते. 2 जुक्ता असंख्याते. 3 असंख्यात असंख्यात॥अहो भगवन! परिता असंख्यान किसे कहते है? अहो शिष्य परिता असंख्यात के तीन प्रकार कहे है तद्यथा-१ जघन्य, 2 उत्कृष्ट और 3 अजघन्योत्कृष्ट // अहो भगवन् ! जुक्ता असंख्यात किसे कहते ? अहो शिष्य! जक्ता असंख्यात तीन प्रकार के कहे हैं. तद्यथा-१ जघन्य, 2 उत्कृष्ट अजघन्यात्कृष्ट जुक्ता असंख्यात. असंख्यात किसे कहते है ? असंख्यात के तीन प्रकार 1 जघन्य 2 उत्कृष्ट, 3 जघन्योत्कृष्ट. अहो भगवन् ! अनंत किसे करते ? अहो शिप्य अनन्त के तीन प्रकार कहे हैं, *प्रकाशक-राजाबाहादुर ल.ला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 484880% अजहन्नमणुकोसए // से कि तं असंखेज्जए 2 तिविहे पण्णत्ते तंजहा-जहन्नए, उक्कोसए, अजहन्नमणुकोसए // से किं तं अणंतए ? अणंतए तिविहे पण्णत्ते तंजहा-परिताणंतए, जुत्ताणतए, अणंताणतए // से किं तं परित्ताणतए ? परितागंतए, तिविहे पण्णत्ते तंजहा-जहन्नए उक्कोसए अजहन्नमणुक्कोसए // से किं तं जुत्ताणतए ? जुत्ताणंतए तिविहे पण्णत्ते तंजहा-जहन्नए उक्कोसए अजहन्नमणुकोसए // से किं तं अणंताअणंतए ? अणंताअणंतए दुविहा पण्णत्ता तंजहा-- जहन्नएय' अजहन्नमणुकोसए // 102 // जहन्नयं संखेजइ कित्तियं होइ, दो रूवयं 488 एकोनत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थमूल प्रमाण का विषय अर्थ तद्यथा-१ परिता अनंता, 2 युक्ता अनंता, 3 अनन्ता अनन्ता. अहो भगवन् ! परिता अनन्ता किमे कहते हैं ? परिता अनंता तीन प्रकार के कहते हैं तद्यथा-१ जघन्य परिता अनंता, 2 मध्यम परिता . अनंता, 3 उत्कृष्ट परिता अनंता. अहो भगवन् ! यक्ता अनंता किसे कहते हैं? अहो शिष्य / / युक्ता अनंता तीन प्रकार के कहे हैं ? तद्यथा-जघन्य युक्ता अनंता 2 उत्कृष्ट युक्ता अनंता, 3 अजघन्यो / स्कृष्ट युक्ता अनंता. अहो भागबन्। अनंतानन्त किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! अनंता अनंा दो प्रकार के कहे हैं, तद्यथा-जघन्य अनंतानंत, और अजयन्योत्कृष्ट अनंतानंत / / 102 // जघन्य संख्याते कितने होते 4.8 + For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir +अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी तेणं परं अजहन्नमणक्कासयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं संखेजइ, नो पावइ, उक्कोसयं संखेजइ कित्तियं होइ, उक्कोसयस्स संखजयस्स परूवणं करिस्मामि-से जहानामए पल्लेसिया, एगं जायण सयसहस्मं आयामविक्खभेणं, तिण्णिय जायण सयसहस्साई सोलमय सहस्साई दोण्णिय सत्तावीसं जोयणसते तिजियकोसे अट्ठावीसं च धणुयसय तेरसय अंगुलाई अद्धअंगुलंच किंचि विसेसाहिया परिक्खेवणं पण्णत्ता जंबुद्दीवःपमा सेणंपल्ले सिद्धत्थयाणं भरति, तत्तणं तेहिं सिद्धत्यएहिं दीवसमुद्दाणं उद्धारो धेष्यति. एगेदीवे एगेसमुद्दे एवं पक्खिप्पमाणेणं जावइआणं दीवसमुद्दा तेहिं सिद्धत्यएहिं E? अहो शिष्य! जघन्य सख्यात के दो रूप होते हैं उस के उपरान्त अजयन्मोत्कृष्ट स्थानक यावत् उत्कृष्ट संख्यात तक होते हैं. अहो भगवन् ! उत्कृष्ट संख्यात कितने होते हैं? अहो शिष्य ! उत्कृष्ट संध्यात का में प्ररूपना करता हूं -यथा दृष्टान्त एक लाख योजन का लम्बा चौडा, तीन लाख संग हजार दो सो सत्तावीस योजन. तीनशेस एक सो अठावीस धनुष्य और सादी तेरे अगुल किंचित विशेष परधीपाला, जंबुद्धीप के बरावर आठ योजन का ऊंडे, पाले से सरसब कर भरे. उन सरसव कर द्वीप समुद्र का उद्धार करे अथात् उस पाले में का सरसब का दाना एक द्वीप में डाले. एक 'समुद्र में बाले, यो डालता 2 यावत् जितने द्वीप समुद्र में वह सरसच सब खाली होवे इतना प्रकाशक राजाबहादुर लामुखदेवमहायजी 1/5 दजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स 327 अफुन्ना एसणं एवइए खेत्तेपल्ले आइठे पढमासलागा एवइयाणं सलागाणं असंलप्पालोगा भरित्ता तहाविउकोसयं संखजयं न पावति, जहा को दिदतो ? से जहा नामा मंचमिया, आमलगाणं भरिए तत्थ एगे आमलए पक्खित्ते सेवि माते अन्नेबि पक्षिसे सेवि माते, एवं परिख पमाणेणं / दाहिसेवि आमलए अभि खित्ते से मंचए भरिजइ.तत्थ आमलए नमाइहिंइ एवमेव उकोलए संखेजए रूवेपखित्ते, जहन्नयं परित्ता संखेज होइ, तेणंपरं अजहन्नमणुकोसयाइत्ताणाई जाव उक्कोसयं परित्ता संखेजयं ण पावति 2 उक्कोसयं परित्ता संखेजयं कित्तिय होइ जहन्नयं परित्ता एकत्रिंशत्तम-अनुयागेद्वारसूत्र-चतुर्थ मुस बड़ा उस द्वीप तथा समुद्र के प्रमाण में उस पाले को बनावे यह प्रथम सलाका. इन सलाकों को बिना गिनति के दाने से भरे तो भी उत्कृष्ट संसान होवे नहीं. प्रश्न किस दृष्टान्त से? सो कि-यथा दृष्टान्त कर मंच पाला होवे, उसे आश्ले कर पूरा भरे उस पर एक आमला रखे तो वह भी गिरजाय दूसरा प्रक्षेपा वह भी समा गया. यों प्रक्षेपी * जो आमळे प्रक्षेपे उस कर माचा भरावे फिर उस में आमला नहीं पाये. इस प्रकार सब सिलाके के पाले में सरसध मरे फिर सब पाळे के सरसव के दाने गिने वह उत्कृष्ट संख्याते हो. उस में से एक या दो दाने का करे बाकी दाने रहे सोसव मध्यम संख्याते, और उस उत्कृष्ट संख्याते के ऊपर एक दाना पत्रेप करे वह जघन्य परिता असंख्याता होवे. - For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 328 संदेजई जहन्नयं परित्ता संखेजमेत्ताणं रासीणं अन्नमन्नब्भासो रूवुणो, उक्कोसं परिता संखजयं होइ. अहवा-जहवय जुताण संखेजइरूवणं उक्कोसयं परित्ता संखेजयं होइ, जहन्नयं जुत्ता संखेजयं कित्तियं होइ, जह परित्ता संखेज्जइ मित्ताणं रासीणं अन्ननन्नभासो पडिपुन्नो, जहन्नयं जुत्ता संखेजई होइ, अहवा उकोस परिसा संखेजइ रूवं पखित्ता, जहन्नयं जत्ता संखेजयं होइ, आवलिया वितित्तिया चेव तेणंपरं अजहन्नमणकोसयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं जत्ता, संखेजइ न पावइ / उक्कोसयं जुत्ता संखेज्जयं कित्तियं होइ, जहन्नएणं जुत्ता उस के आगे अजघन्यो उत्कष्ट परिता असंख्यात यावत् उत्कृष्ट परिता नहीं पावे. अहो भगवन् ! उत्कृष्ठ परिता असंख्यात कितने होते हैं ? अहो शिष्य ! जघन्य परिता संख्याते की रासी से परस्पर गुनाकार करे से पांच पांच पच्चीस, पचीस पांच सवासो, सवासो पांच सवाछसो,* सवाछमो पांच सबाइकीससो. इस प्रकार परस्पर गुनाकर करे उस में से दो रूप कमी करे. वे मध्यम परिता असंख्यात होये और एक रूप ओर उस में डाल देये उत्कृष्ट परिता असंख्याते होवे.अहो भगवन् ! जघन्य युक्ता असंख्यात कितने होते हैं ? अहो शिष्य ! जघन्य परिता की राशी कही उस राशी को राशी मुने करे वह जघन्य युक्ता असंख्याता होवे. अथवा उत्कृष्ट परिता असंख्या तामें एक प्रक्षेप करे वे जघन्य युक्ता असंख्याते For Private and Personal Use Only 82 अनव दक बालब्रह्मचारि मुनि श्री अमोलख ऋषिजी भकासक-राजाबहार लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* अर्थ
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 488-% संखेचणं आवलिया गुणिया, अन्नमन्नभासोरूवणो, उक्कोसयं जुत्ता संखजयं हाइ, अश्या जहन्नयं असंखेजा संखेजइंरूवृणो, उक्कोसयं जुत्ता संखेजइयं होइ / / जहन्नयं मेखे जा असंखेजई कित्तियं होइ, जहमरणं जुना संखेजएणं, आवलियागुणिया अन्न मन्नभासो पडिपुन्नो जहन्नयं असंस्बेजा संखेजय होइ, अहवा उकोसए जुत्ता असंखे जएरूवं पखित्तं जहन्नयं असंखेजा संखेजयं होइ, तेणपरं अजहन्नमणुकोसयाई ठागाइं जाव उक्कोमयं असंखेज्जा संखेजई ण पावति // उकोसयं असन्वे जा संखेजयं कित्तियं होड़ जहन्नयं असंखेजा संखेजई मेत्ताणं रासीणं होवे. इतने एक आवालिका के समय होये. इस के उपरान्त अजघन्योत्कृष्ट स्थानक यावत् जहां तक उत्कृष्ट य का असंख्यात नींपावेतहांतक. उत्कृष्ट युक्ता असंख्याते कितने होते हैं ? जघन्य यक्ता असंख्यात की राशीकोप स्पर गनाकार कर एक कम राशि उत्कृष्ट असंख्याते हो जघन्य असंख्यात असंख्याते कितने हे ते हैं? अ ध्य! जघन्य युक्ता असंख्यातेकी राशीको परस्पर गनाकार करने से जितने रूप होवे वे जघन्य असंA ख्य.ते असं ज्याते होवे.अथवा उत्कृष्ट युक्ता असंख्याते में एक प्रक्षेप करे वह जघन्य असंख्यात असंख्याता होवे. 16 उसके ऊपर अजयन्योत्कृष्ट स्थानक यावत् राष्ट असंख्यात असंख्याते इस में नहीं पाये. अहो भगवन्! कृष्ट असंख्यात 2 कितने होते हैं ? अहो शिष्य ! जयन्य असंख्पात संरूपात राशी को परस्पर एक शचम-अनयोगदार मृत्र चतुर्थ मूल है अर्थ 86% प्रमाण का विषय 43800-488 / For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक शाषजी अपमन्नभासो रूवो उक्कोसयं असंखेजा असंखेज्जयं होइ, अहवा जहन्नयं परित गंतयं स्वर्ण उक्कोस असंखिजा असंखेजयं होइ, जहन्नयं परित्ताणतयं कित्तियं हेइ, जहन्नयं असंखेजा असंखेजयं मेत्ताणं रासीणं अन्नमन्नभामो पडिपुन्नो जहन्यं परित्ताणतयं होइ, अहवा उक्कोसए असंखेजा असंखेजए रूवं पखित्तं जहन्नयं परिचाणंतयं होइ, तेणं परं अजहन्नमणुकोसयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं परित्ताणतयं ण पावति, उक्कोसयं परित्ताणतयं कित्तियं होइ, जहन्नयं परित्ताणं तयं मेत्ताणं रासीणं अन्नमन्नम्भासो रूवुणो, उक्कोसं परित्ताणतयं होड़ अहा जहन्नयंजुत्ताणतयं रूवूणं उन्कोसयं परित्ताणतय होइ, // जहन्मयं जुत्ता गुनाकार करके एक कम करेवा कर अपंख्यात असंख्या अथक जयन्य पारिता शत्रका कभी करे वह उत्कृष्ट अख्यात रहावे. अहो मगर! जान्य बाता अनंत कितन होते ? जघन्य असंख्याल भगख्यात की राशी को पार गनाकार करनपूर्ण जितना रूप हाने से जपन्ध परिता अनंन होये. अथवा उत्कृष्ट प्रसंख्यामा ध्यान में एक रूप पक्षप कर वे जघन्य पारता अनंत होवे.. उस के उ.पर अजघन्योत्कृष्ट स्थान यावन् जहां तक तीसरा उत्कृष्ट परिता अनंन म होवे तहां तक दूसरा अनंता उत्कृष्ट परिता अनंत कितने होते हैं ? अहो शिष्य जघन्य परिता अनंत की राशी को. शक राजाबहादुर लाला मदन महाराजा ज्वालामसादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थ मूल. + कित्तिय होइ, जहन्नयं परिताणतयं मेत्ताणं रासीणं अन्नमन्नभामो पडिपुन्नो जहन्नं जुत्ताणतय अहवा उक्कोसए परित्ताणतयंरूवं पखित्त जहम्नयं जुत्तागतयं होइ. अभवसिद्धियाणं तात्तिया होइ // लेांपरं अजहन्नमणकोसयाइ ठाणाई जाव उक्कोसयं जुत्ताणतयं ण पावती // उदोसयं जुत्तालयं केवड़यं होइ, जहन्नएणं जुत्ताणतणं विद्धय गुणिया, अन्नमन्नासो रूवुणो, उक्कोसयं जुत्ताणं तथं होइ, अहवः जहन्नयं अशंताणतयं रूंबूण, उक्कोसं जुत्ताणतयं होइ, // जहन्नयं अणंताताई कित्तियं होइ, जहन्नएणं जुत्ताणतएणं अभवसिद्धिया परस्सर गुनाकार को उस में से एक कप कमी करे ता उत्कृष्ट परिता अनंत जघन्य परिता अनंत का नाश को परस्पर गुकार करे, तव जयन्य युक्ता अनंत होवे अथवा उत्कृष्ट परेला अनंत में एक रोप करे, तान्य यका अनंत होने [चोथे अनंतरिने अनन्यजीव हैं, ] उस उपांत पाप मान्योत्वस र नहीं पःचे अधो भवन् ! उत्कृष्ट युक्त अनंत कितना होता है . म.प्याजधन्य युक्ता अनंत को अभव्य (चाये) अनंत से गुनाकार कर वह उत्कृष्ट युक्त अनंत छठा होवे. अथवा जघन्य अनंतानंत में से एक रूप कभी करे तब उत्कृष्ट युक्ता अनंत होवें. अहो भगवन् ! जघन्य अनंतानंत कितने होते हैं ? अहो शिष्य ! जघन्य युक्ता अनंत को अभव्यजीव 222880 'माण का विय 22 4. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir T गुणया अन्नमन्नब्भासो पडिपुन्नो जहन्नयं अणताणतयं होइ, अहवा उक्कोसए जत्तागंतए रूवंपखित्तं जहन्नयं अणंता अगंतयं होइ, तेणं परं अजहन्नमणु कोसयाई ठाणाई // से तं गणणासंखा // 1.3 // से किं तं भावसंखा ? भावसखा अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्रीनमोलक औपज . की राशी से गुना करे परस्पर गुना करने से प्रतिपूर्ण हा होवे वह सातवा जघन्य अनन्तानन्त होवे, अथवा उत्कृष्ट युक्ता अनंत में एक रूप प्रक्षेपे दह भी जघन्य अनन्तानन्न होवे, उस उपरांत सब आठवा (मध्यप) अनंतानंत का स्थानक जानना. यह जितनी संख्या कही. इस संख्या मान से ग्रंथातर इस प्रकार कथन है-१ भनवस्थित, 2 शलाका, 3 प्रतिशला का, और४ महां शलाका इन चारों नाम के चार टोपले जंबद्वीप प्रमाने एक लक्ष योनन के लम्बे चौडे (गोल) और आठ योजन के है. इन चारों टोपले में से पहिले अमवास्थित टोपले में सरसों के दाने शिखाउन भरे. फिर कोई देवता एक तो दाने से भरा हुवा और जीन टोपले विना भरे जठावे. उस भरे टोपले में से एकदाना जम्बूद्वीप में एक दाना लवण समुद्र यों अनुक्रम से रखता हुवा जावे जब उस अनवस्थित टं पले में एक ही दाना रजावे तब उसे दूसरे शलाका नामक टोपले में रख जिस द्वीप . सपा में यह टोपला खाली हुदाथा. उस दीप व समद प्रमाने उस अनवस्थित टोप को बनाये फिर उसे दानों। शिधारभरे. फिर उस में से एक श्वाना द्वीपसमुद्र में डालतें जो एक दाना रहा जावे जब यह दाना भी शला प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायज मालामादजा * - For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ 3 3 28 * एकत्रिंशत्नम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थमुल नामक दूसरे टोपल में रख दे और जिस द्वीप व समुद्राजस में वहाटप शखला हुवा उतना हा वना फिर उस अनव-14 स्थित टोपले को बना सर सब केकाने से भर एक दोनों द्वीप समुद्रों में रखते जावे. एक दाना र हजावे तब फिर उसे शलाका में रखे यों अनवस्थित के बारे हुवे एकेक दाने कर शलाका को प्रतिपूर्ण भरे. शलाका भराजाधे तब शलाका को उठा कर एक दाना द्वीप में एक समुद्र में यों रखते एक दाना रह नावे वह प्रति शलाका 7 तीसरे टोपळे में रखे, टोपल ही अनवस्थित के बचे हुवे एकेक दाने कर शलाका को भरे औरके बचे हुवे एकेक दाने कर प्रति शलाका को भरे और नति शलाका के एकेक दाने कर महा शलाका को भरे.. यह शलाका चौथा टोपलो भराजावे तब उसे एकांत में रख फिर अनवास्थित कर शलाका को और शलाका कर प्रति शलाका यों भरे वह भी एकान्त में रखे फिर अनवस्थित कर शलाका को भरे. भरा जावे तब उसे भी एकान्त में रख और जिस स्थान वह अनास्थत किया हुवा इस द्वीप समुद्र # जितना बडा अनवास्थित टोपले को बना कर उस मशिखाउ सराव के ने भरे. चारों टोपलों को उठाकर एकान्त लाकर उस में के दाने का ढग लगावे. फिर उस ढगस एक दाना निकाल लेवे तब बेदाने उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण होते हैं. जिस रूप उपनिधिक कालानपकी पूर्वानपूर्वी में दिया उतना जानमा यह तीसरे संख्यात कथन हुवा. एक तो संख्या वाचक हान से गिना नहीं जाते हैं इस लिये V, दो को जघन्य संख्याते कहना. दो के ऊपर बत् उत्कृष्ट संख्यात तक के अंक में से एक अंक कमी को मध्यम संख्या कहना अ.गे को उत्कृष्ट संख्यात कहना. अब असंख्याते के ९भेद कहते हैं-ऊपर कहे चारों प्रमाण का विषय 484880 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मी वा ब्रह्मचारा मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * टोपले में के सब दानों का ढग कर उस में से एक दाना निकाला था वह पीछा डालदे वह 1 नपन्य परिता असंख्यात,२और इस जघन्य परिता असंख्याते को रामन को म दाना निकाले वह (3) उत्कृष्ट परिता असंख्याता और जघन्य पारिता से अधिक रिता र स्याता से पक कम मध्यम परिता असंख्याता कहना. फि. परिता असंतयात की राशी में से निकाला हुआ दाना पीछा उस राशी में डाल दे यह (4) जपन्य समस्यात. इतने एक वलीका के समय होते हैं फिर इस जयन्य युक्ता डीसी को मन स दाना कम करे वह (6) उत्कृष्ट युक्ता असंख्याता, और जघन्य युक्ता असंख्यात से एक अधिक उत्कृष्ट युक्ता असंख्यात से एक कम वह (5) मध्यम युक्ता असंख्याता. (7) फिर उत्कृष्ट युक्ता की राशी मे से निकाला हुआ दाना उस में डाल दे सो जघन्य अपरात असंख्याता. और इस जघन्य असंख्यात 2 राशी को र रास गुना कर एक दाना कम करे वर (9) उलष्ट असख्यात असंख्याता इतने धर्मास्ति अधर्मास्ति जीव स्ति और लोकालाशालिके मदेश, समय अख्यात संस्थाह से एक ज्यादा उत्कृष्ट असंख्यात असख्यात में एक की मम्बर त अस्पाता यह 9 भेद असंख्यात के हुआ. अब अनंत के 8 भेद कहते - असंख्यात 2 बीशी में से निकाला हुआ दाना पीछा उस में डाल दे वह (1) जघन्य परिता अनन्ता, इस जघन्य परितापी राशी को राश: गुन। करे उस में से एक दाना निकाल ले वह (3) उत्कृष्ट परिता अमन्ता, जघन्य परिता अनन्ता से एक प्रकाशक-राजाबाहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालासादी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वारसूत्र -चतुर्य मूल <2882 जे इमे जीवा संखागइनामगोत्ताई कम्माई वेदंति, से तं भावसंखा // सेतं संखप. माणे // सेतंप्रमाणे पमाणेत्तिग्य सम्मत्तं // 1.1 // * // से किं तं वत्तध्वया? वत्तब्धया तिविहापण्णतः तंजहा-ससमय वत्तव्यया,परसमय व तवया.ससमय परसमय वत्तव्यया 1 से किं तं ससमयवत्तव्यया? ससमय वत्तवया जत्थणं ससमय अधिक उत्कृष्ट परिता अनंता से 1 कम सो (2) मध्यम परिता अनंता उत्कृष्ट परिता अनता में का निकाला हुवा दाना पीछा उस में डाल दे वह (4) जघन्य युक्ता अनंता, जघन्य युक्ता की राशी को राश गुनाकर उस में से एक दाना निकाल लेवे सो (6) उत्कृष्ट युक्ता अनंता. जघन्य युक्ता अनंता से एक अधिक उत्कृष्ट युक्ता अनंता से एक कम वह (५)मध्यम युक्ता अनंता उस में वह दाना डाल दे। है वह (7) जघन्य अनंतानंत. जघन्य युक्ता अनंताअनंत की राशी को राश गुना करने से जो राशी होवे वह (8) मध्यम अनलानत है यह गणना संख्या का कथन हवा / / 103 // अहो अगवन् ! भाव संख्या प्रमाण किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! जो प्रत्यक्ष शंख नाम का जीव घेइन्द्रिय गति नाम कर्मके उदय कर कर्म को वेदता है वह भव संख्या प्रमाण. यह शंख प्रमाण और प्रमाण हवा, यह प्रमाण पद संर्ण हुवा // 104 * // अहो भावन् ! बक्तव्यता किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! वक्तव्यता के तीन भेद कहे हैं. तद्यथा-स्व समय की वक्तव्यता, 2 पर समय की वक्तव्यता, 3. स्व समय पर समय दोनों की वक्तव्यता // // इस में से स्वसमय की वक्तव्यता उसे कहते हैं जो स्व मत जिन प्रणित, 13.48 प्रयाण का विषय 11 2. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आधबिजति पण्णविजति परूविजंति, दंसइ निदंसिजइ, उदासवइ, स त ससमय वत्तव्यया ते कि त परसमय वत्तब्धया? परम्समय वत्तव्यया जत्थणं परसमय आघविजति जाव उवदसिजति से तं परसमय वसवया // से किं तं ससमय परसमय वत्तव्वया ? ससमय परसमय वत्तव्बया-जत्थणं ससमय परसमए आघविजात जाव उवदांसजति. सेतं ससमय परसमय वत्तव्वया // 2 // इयाणिकोनउ कं वत्त अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मान श्री अमोलक ऋषिजी - सूत्रों का संक्षेप में कहे. प्रज्ञपे विस्तार से प्ररूपना करे, दृष्टान्तादि कर दर्शावे. विशेष कर दर्शवे. परिषद में उपदशे. जैसे धर्मारित काथा ऐसा वहना सो आपविजात. गति लक्षण कहना प्रज्ञप्ता, असंख्यात प्रदेश कहना वह प्ररूपना. जल मच्छ का दृष्टान्त वह दर्शना, तैसीं धर्मास्ति काया एसा उपनय मिलाना वह निदर्शना. यथार्थ विस्तार व्याख्या वह उपदर्शना. यह स्वतःके समय की वक्तव्यता कहीं. // अहो भगवन् ! पर समय वक्तव्यता किसे कहते हैं ? ओ शिष्य ! जो अन्यमत के शान उक्त प्रकार सामान्य प्रकार कहे प्रज्ञपे, विस्तार से कहे, दृष्टान्त से सिद्ध करे, विशेष दर्शाने और उपदेशे. वह पर समय वक्तव्यता // अहो भगवन् ! स्व समय पर लमय वक्तव्यता किसे कहते में हैं ? अहो शिष्य ! जहां स्वतः के मत का और पर के मत का दोनों के मत का सामिल कथन कर * पज्ञपे विस्तार से कहे दृष्टान्त से दर्शाने, उपनय मिलावे. उपदेश दे वह स्व समय पर समय वक्तव्यता. * आकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी-ज्वालाप्रसादनी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 488+ एकोत्रिपक्षम-अनुयोगद्वार मूत्र चतुर्व पूल ध्वयंहग्छति तत्थ-णेगम संगह ववहारो तिविहं वत्तव्वयं इच्छीत तंजहा-ससमय वत्तस्वयं, परसमय वत्तव्वयं, ससमय पर समय वत्तव्वयं उज्जुसुउ दुविहं वत्तवयं इच्छद संजहा ससमय वत्तब्वयं,परसमयवत्तब्वयं,तस्थणं जासा ससमय वत्तध्वया सासमयंपरिट्ठा जा सापासमय बत्तव्वया सा परसमय परिठा, तम्हा दुविहावत्तव्वया, मस्थितिविहा वत्तव्वया, तिणिसहाणया एगसममय वत्तव्वयं इच्छंति,नत्थि परसमयवत्तव्यया. कम्हा! जम्हा परसमए अणटे अहेउ असम्भावे अकिरिए उमग्गो अगुवएसे मिन्छासण // 2 // अब आगे नय का कथन कहते हैं यहां कौनसी नय कौनसी वक्तव्यता को मानती है सो कहते हैं-१ तहाँ नेगम नय, 2 संग्रहनय, 3 व्यवहार नय, यह तीनों वस्तु वक्तव्यता माने वथा- ससमय वक्तव्यता, 2 पर समय वक्तव्यता. 3 ससमय पर समय वक्तव्यता, ऋजुमूत्र नय दो प्रकार की वक्तव्यता माने ससमय और पर समय परन्तु दोनों की मिश्र धक्तम्यता नहीं माने. इस में जो ससमय की वक्तव्यता है वह स्व समय में स्थापन करे* और पर समय की वक्तव्यता वह पर समय में समावे. इस लिये दो प्रकार की बक्तव्यता ही है परंतु तीन प्रकार की नहीं है. ऊपर की तीनों शब्द नयवाले एक स्वतःके समय की वक्तव्यता को इष्टते हैं। परंतु पर समय की बक्तव्यता इच्छते नहीं है. क्यों कि जो पर समय है वह अनर्थ है अहेतु है, अस 14+484 माण विषय 48488 - For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 338 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी माने श्री अमोकक ऋषिजी मितिकटु, तम्हासव्व ससमय वत्तव्वया, णत्थि परसमय वत्तव्यया से तं बतब्बया // 3 // से किं तं अत्थाहिगारे ? अत्याहिगारे जो जस्स अज्झयणस्स अस्थाहिगारे जहा-सावजजोग विरहगाहा से तं अत्याहिगारे॥४॥से किं तं समोआरे ? समोआर छबिहे पण्णत्ते तंजहा-नामसमोआरे, ठवणासमोआरे, दबसमोआरे, खेत्तसमोआरे कालसमोआरे, भावसमोआरे, // नामठवणाओ पुत्ववणियाओ जाव से तं भविय. दाव प्ररूपक है, अक्षुद्र वर्तमानवाला है, उन्मार्ग है, कू उपदेशक है, मिथ्यात्व दर्शन है, इस लिये ससमय की वक्तब्यता को माने पर समय की वक्तव्यता को नहीं माने. यह बक्तव्यता हुई // 3 // उपक्रम के पांचवे भेद की ब्यक्तव्यता कहते हैं-अहो भगवन्! अर्थाधिकार किसे कहते हैं? अहो शिष्य अधिकार सो जो जिस प्रकार सामायिकादि अध्ययनों का माना अर्थ होता है वह अर्थ रूप कर्तव्य को अर्थाधिकार कहना, तद्यथा-सामायिक सो सावध योग की विति रूप वृत का ग्रहण करना, यह अर्थाधिकार हवा // 4 // अब उपक्रम का छठा भेद समवतार की पृच्छा- अहो भगवन् ! समवतार किसे कहते हैं ? . अहो शिष्य ! स्वतः के या पर के अन्तर भाव का जो विचार करना उस समवतार के छ प्रकार कहे हैं तद्यथा-१ नाम समवतार, 2 स्थापना समवतार, 3 द्रव्य समवतार, 4 क्षेत्र समवतार, 5 काल समॐ बनार और 6 भाव समवतार. इन छ में से नाम का और स्थापना का तो जैसा आवश्यक में कहा तैसा पकाशक राजाबहादुर काला सुखदवसहायजी-ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्र एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल 8885 सरीर दब्बसमोयारे // 5 // से किं तं जाणगसरीर भवियसरीर वइरित्त दव्वसमोआरे ? जाणगसरीर भवियसरीर वइरित्त व्वसमोआरे तिविहे पण्णत्ते तंजहाआयसमोआरे, परसमोआरे, तदुभयसमोआरे // सव्वदव्याविणं आयसमोआरेणं आयभावेलमोअरंति, परसभोआरेणं जहा कुंडे बदराणि, तदुभयसमोआरेणं जहा घरे थंभो आयभावेय, जहा घडे गीवा आयभावेथ // अहवा जाणगसरीर भविय सरीर वइरित्ते दबसमोआरे दुबिहे पण्णत्ते तंजहा-आयसमोआरेय, तदुभययहां ही कहना. यावत् भविय शरीर द्रव्य समवतार तक कहना // 5 // अहो भगवन् ! ज्ञेय शरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य समवतार किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! नेय भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य समवतार के तीन प्रकार कहे हैं तद्यथा-१ आत्म समवतार, 2 पर समवतार, और 3 उभय समवतार इस में आत्म समवतार द्रव्यात्म के समवतार कर विचारता हुवा स्वतः के स्वरूप में समरतो क्यों कि सब जीव Eद्रव्य अपने स्वरूप से अलग नहीं है. ऐसे विचार से अपने 2 स्वरूप में प्रवृत्ति करे उसे आत्म समव तार कहना. 2 अन्य वस्तु में अन्य वस्त प्रवर्ते जैसे कंडे में बोर हैं परंतु बोरों में कंडा नहीं. इस पर एक समवतार कहीये. 3 तदर्भय समवतार-सो जसे घर में स्थम्भ और स्थम्भ पर घर रहा है. इस में स्थम्भ पर घर रहा है यह पर समवतार, स्थम्भ स्वयं स्वत: के स्वरूप में रहा है यह आत्म सावतार, पुनः दोनों के 4-889480 प्रमाण विषय 488488 488 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 अनुवादकपाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अपोजक ऋषिजी समोआरेय चउसट्ठिया आयसमीतारेणं आयभावेसमोतरंत,तदुभयसमीतारेण बत्तीसियाए समोतरइ आयभावय, बत्तीसियायसमोतारणं आयभावे समोतरंति, तदुभयसमोतारेणं सोलसियाए समोतरेइ आयभावेय, सोलसियाय समोआरेणं आयभावेसमोतरेइ, तदुभवसमोतारेणं अट्ठभाइयाए समोतोइ आयभावेय, अट्ठभाइया आयसमोतारेणं आयभावसमोतरेइ, तदुभयसमोअरेणं चउभाइयाए समोअरेइ, आयभावेय, चउभाइया आयसमोतारेणं आयमावेसमोतरइ, तदुभयसमोतारेणं अडमाणीए एकत्र लिखे वह तदुभय समवतार, तथा जैसे घडा में ग्रीवा नाल र नालव घडे पर है और पहा पडे के भाव में है आत्म भाव है. अथवा जय शरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त जो द्रव्य समवतार दो प्रकार कहा है तद्यथा-आत्म समवतार, और उभय समवतार. चउसठीये चार पल के मान में आत्म भाव समय तार आत्म भाव में समयतरे, बत्तीसीये आत्म पल्य के मान में आत्म भाव में समवतरे. आठ पल के बत्तीसीये आत्म स्वरूप में समवतरे वे उभय समवतार प्रवर्ने सोलह पल में समवतरे वा सोलह / आत्म भाव समवतार तदुभय समवतार. अठभाइया वे बत्तीस पल में समवनरे आत्म मावई आठ भाईये स्वयं अपने स्वरूप में प्रवर्ते यह तय समवतार. चउभाइये चौसठ पल में समवतरे यह दोनों के आत्म भाव चउभागिक आत्म समवतार, आत्म समतो वह नभय में समवसरे. 128 पल्य अर्धमानी प्रकाशक-राजाबहादुर गला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 49803 समोतरंति आयभावेय अदमाणी आयसमातारेणं आयभावे समोतरंति, तदुभयसमोतारेणं माणिएसमोतरंति, आयभावेअ. से तं जाणग भवियसरीर वइरित्तं दव्वसमोआरे // से तं नो आगमओ दव्वसमोयारे // से तं दव्वसमोआरे // 6 // से किं तं खेत्त समोयारे ? खेत्तसमोयारे दुविहे पण्णत्ते तंजहा-आयसमोआरेय. तदुभयममोआरेय, भरहेवासे आयसमोआरेणं, आयभावे समोतरइ, तदुभयसमोतारेणं जंबुद्दीवेसमोतरेइ, आयभावेय. अंबूद्दीवे आयसमो एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थ -प्रमाण का विषय में समवतरे यह दोनों आत्म भाव में प्रवर्ते. आधीमानी स्वयं स्वयं के स्वरूप में प्रवर्ते. यह उभय समवतार. 256 पल मानी में सपवतरे यह दोनों के आत्म भाव प्रवते. अर्थात् चार पल के चौसठीये 8 पल के बत्तीसीये में समावे, बत्तीसीये मोलसीयेमें समावे ऐसे ही सब जानना. यह ज्ञेय शरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य समवतार हुवा.यह नो आगमसे द्रव्य समवतार हुवा,और यह द्रव्य समवतार हुआ॥६॥अहो भगवन् ! क्षेत्र समवतार किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! क्षेत्र समवतार दो प्रकार का कहा है तद्यथाआत्म समावे सो समवतार जानना. सोलसीये अठ विभागी में समावे, चौसठीये विभागी में समावे, सोचउभागी 128 पलीये में (आधी माणी में समाये, 256 वे माणी में समाये. यों स्वयं स्वयं समवतार, तदुभय समवतार. जैसे भरत क्षेत्र स्वयं स्वयं के सरूप में प्रवर्ते यह आत्म भाव समय तार, 48808 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मान श्री अमोलक पिजी + आरेणं आयभावे समोतरेइ, तदुभयसमोतारेगं तिरिएलोएसमोतरेइ, आयभावेय, तिरियलोए आयसमोतारेणं आयभावेसमोतरइ, तदुभयसमोतारेणं लोएसमोतरेइ आयभावेय,से तं खत्तममोयारेय॥७॥ से किं तं .कालसमोयारेय ? कालसमोयारे दुविहे पण्णते तंजहा-आयसमोआरेय, तभयसमोआरेय, समयआयममोतारणं तदभयसमो __ आरेणं आवलियाए समोतरंति, आयभावेय, एवं आवलिया, आणापाणु, थोवे, लवे, मुहुत्त, अहोरते, पक्खे, मासे. ऊऊ, अयणे, संवच्छरे, जुगेवा, वाससते, और उभय समवतार सो भरतक्षेत्र जंगद्रीषये समावे यह दोनोंको स्वयं भावमें प्रवर्ते. जंबूद्वीप अपने भावमें वर्ते वह आत्म समवतार और उभय समवतार तिरछे लोक में समवतरे. और दोनों अपने 2 स्वरूप में पवते. 3 तिरछा लोक अपने स्वरूप में प्रवते वह आत्म समवतार और उभय समवतार लोक में प्रवर्ते. यह दोनों अपने 2 स्वरूप में प्रवते. यह क्षेत्र समचतार हवा // 7 // अहो भगवन् ! काल समवतार किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! काल कतार दो प्रकार कहे हैं तद्यथा-आत्म रूपवतार और 2 उभय समवतार एक समय सो एक समय के काल मान स्वयं स्वयं के आत्या में प्रवर्ते उभय समवतार आवलिका में समावे क्यों कि आवळिका में असंख्यात समय होते हैं, दोनों अपने 2 भावमें आत्म भावमें है. यों आवलि का आत्म भाव तदुभय सो आणुपाणु में समावे, दोनों स्वयं 2 आत्म भावमें हैं. ऐसे ही है प्रकाशक-गजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 880*> एकात्रंशत्तम्-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल वाससहरसे, वाससततहस्से, पुव्वंगे, पुव्वे, तुडिअंगे, तुडिए, अडडंगे, अडडे, अववंगे, अबवे, हुहुअंगे हुहुए, उप्पलंगे, उप्पले, पउमंगे, पउमे, णलिणंगे, नालणे, अत्थिनेपुरंगे, अथिनिपुरे, आउअंगे, आउए, नउअंगे, नउए, पउमंगे, पउए चलिअगे, चूलिया, सीसम्हलिअंगे सीसपहेलिया, पलिओवने,सागरोवमे,आयसमोआरेणं,आयभावेसमोतग्इ ॥तदुभय समोतारेणं उसप्पिसुउसीप्पणासु समोतारेइ आयभावे उसप्पिणुसप्पिणीओ आयसमोआरेणं आयभावे समोतरेइ आयभावे,तदुभयसमो / दो दो बोल आगे भी जानना. 4 संख्यात आंवलिका का स्तोक, 5 लव, 6 मुहूर्त, 7 अहोरात्रि. 18 पक्ष. 0 महिने, 10 ऋतु, 11 अयन, 12 संवत्सर, 13 युग, 15 सो वर्ष, 15 हजार वर्ष, 16 लाख वर्ष, 17 पूर्वाग 18 पूर्व, 11 तुदिदांग. 20 तुटिन. 21 अडडांग, 22 अडड, 23 अववंग, 24 अवत्र. 25 हुहुअंग 2626 27 तालंग 28 उत्पल, 29 पद्मांग, 3. पद्म. 31 नलिनांग, 32 नलीन. 33 अथीनेपुशंग, 34 आस्तनेपुर, 35 आउअंग, 36 आर, 27 नउअंग, 38 नउए, 39 ५उमांग, 40 पउम. 41 चूलीतांग, 42 चूलिय, 43 शीर्ष पहेलिकांग, 45 शीर्ष महेलिक, +45 पल्योपम, 46 सागरोपम, सागरोपम आत्म सम्वतार और 47 तदुभय समवतार सो सर्पनी उत्स 4880888-माण विषय -8086077 अर्थ 429 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्र 344 4.अनुवादक बाल ब्रह्मचारी पनि श्री अमोलक ऋषिजी तारेणं पोग्गलपरिय? समोअरइ, आयभावेय पोग्गलपरिय? आयसमोआरेणं आवभावे समोतरइ, तदुभयसमोआरेणं तीतद्धा अणागतडा सुसमोअरंति, आयभावे, तीतद्धा अणागतद्धा आयसमोआरेणं आयभावे समोअरंति, तदुभय समोतारेणं सवडाए समोअरंति आयभावेय, से तं कालसमोआरे // 8 // से किं तं भावसमोआरे ? भावममोआरे दुविहे पण्णत्ते तंजहा-आयसमोआरेय, तदुभयसमोआरेय, कोहे आयसमोआरेणं, आयभावे समोअरइ; तदुभय समोआरेणं माणेसमोअरइ. आयभा वेय, एवं माण माया लोभ रागे मोहणिज्जे अट्ठकम्मपगडीओ आयसमोआरेणं पनी यह स्वयं से दोनों आत्म भाव, 48 उत्सर्पनी अवसर्पनी आत्म भाव समवतार, तदभय समवतार पुद्गल परियट समवनरे, स्वयं से आत्म भाव. 49 पुद्गल प्रवर्तने आत्म समवतार आत्म समवतार में अवसरे, तभय समवतार सो गत काल दोनों अपने 2 स्वभाव में आत्म समवतार. 50 अतीत अद्धा अनागतद्धा आत्म समवतार आत्म भान में अवतार तदुभय समवतार सो सर्वद्धा. दोनों अपना 2 आत्म भाव में प्रवते यह काल समवतार का कथन हुवा // 8 // अहो भगवन् ! भाव समवतार किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! भाव समवतार के दो प्रकार कहे हैं, तद्यथा-आत्म समवतार और उभय ममवतार. क्रोध आत्म समवतार आत्म भाव में समवतरे. और तदभय समवतार सो मान विना क्रोध होवे. *भकाशक-रानावहादुर लाला मुखदेवसहायनी वालाप्रसादी * For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 488 आयभावेसमोयरंति, तदुभयसमोआरेणं छावहे भावे समोतरेइ आयभावेष. एवं छविहेभावे जीवे जीवस्थिकाए आयसमोयारेणं आयसमोअरंति, तवुभयसमोआरेणं तदुभयसमोअरंति सव्वदव्वेसमोतरंति आयभावे // एत्थसंगहणीगाहा-कोहे माणे मायालोभे, रोगेय मोहणिजेय // पगडीभावेजीवे, जीवत्थिकाय दव्वाय भासेयव्वा // 1 // से तं भावसमोयारे // से तं समोतारे // से तं उवक्कमे // 9 // इति पढम दार सम्मत्तं // 1 // . . नहीं इस लिये क्रोध मान में समवतार. दोनों आप 2 के गुन में आत्म समवतार. 2 ऐसे ही मान का, 3 माया का, 4 लोभ का, 5 राग का, 6 द्वेष का, 7 मोह का, 8 आठों कर्मों की प्रकृति का आत्म समवतार आत्मा में समवतरे, तदुभय समवतार उक्त छ ही भावों में समवतरे. यह आठों आपरके गुण में रहे सो आत्म समवतार. यह छ प्रकार के भाव जीव जीगस्ति काया में आत्म समवतार आत्म समवतरे. उभय समवतार सब द्रव्य में समवतरे, आत्म भाव में भी, यहां संग्रहणी गाथा-१ क्रोध, २मान, 13 माया 4 लोभ,५ राम, 6 मोहनीय, 7 प्रकृति. 8 भाव, 9 जीव. और १०द्रव्य, का कहना. यह भाव समवतार हवा. यह उपक्रम, // 9 // इति प्रथम द्वार संपूर्ण. // // अहो भगवन् ! निक्षेप किसे कहते? एकत्रिशत्तम अनुयागद्वार सूत्र-चतुर्थ +8+488+ प्रमाण विषय 48828+ 498 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्र अर्थ अनुवादक बालजमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी से किं तं निक्खेवे ? मिक्खेवे तिविहे पण्णत्ते तंजहा-ओहनिप्फन्ने नामनिप्फन्ने सुत्तलागवनिप्फन्ने // 1 // से किं तं ओहनिप्फन्ने ? ओहनिप्फन्ने चउबिहे पण्णन्ते तंजहा-अज्झयणे, अज्झीणे, आए, झवणा // 2 // से किं तं अज्झयणे ? अझयणे चउविहे पत्ते तंजहा- नामज्झयणे, ठवणाझयणे, दबझयणे, अहो शिप्य ! निक्षेप तीन प्रकार के कहे हैं. तद्यथा--, औषनिष्पन्न, 2 नाम निष्पन्न. और 3 मूत्री व्यापक निष्पन्न // 1 // अहो भगवन् ! औषनिष्पन्न कसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! सामान्य समुच्चय अध्यायन यों निष्पन हुवा नाम वह साभायिकादिक अध्ययन नाम लेकर विशेष कहना उस कर जो निष्पन्न हुवा. सूत्र-सामायिक अध्ययन नाम कहे उस का आलापक. करोमि भंते' यों सूत्र कहकर उस पे निष्पना व सभापक निष्पन्न रहना. अर्थत् औषनिष्पन्न में समुच्चय 6 अध्ययन जानने. जाममि में समापिदिछ अध्ययन कहना. सत्र.लापक में छ अध्ययन में अलग 2 पाठ मूत्र ना. 31 में छठा आरहबर का उपवर्मन् आउ छ ही आ करने योग्य इस लिये निश्चय से छ अध्ययन प्रती देन अध्ययन के सूत्र पाठ शुद्ध वर्तते हैं, तद्यथा-१ अध्ययन करने (पढने) योग्य सो अध्ययन, 2 शिष्यादि को पहाते सूत्र ज्ञान क्षीण न होवे इस लिये अक्षीण, 3 लाभ के दाता इस ललिये आय, 4 कर्म को क्षय करे इस लिये झवण // 2 // अहो भगवन् ! अध्ययन किसे कहते हैं। अहो शिष्य ! अध्ययन चार प्रकार के कहे हैं तद्यथा-१ नाम अध्ययन, 2 स्थापना अध्ययन, 3 द्रव्य कमकाधक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी-ज्वालाप्रसादजी * For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 48 9802 त्तम-अनुयागद्वार मात्र चतु-र्थ मूल भावज्झयणे, नामठवणाओ पुव्यवग्णियाओ // 3 // से किं तं दव्यज्झयणे ? दब्यज्झयणे दुविहे पप्णते तंजहा-आगमओ, नो आगमओ // 4 // से किं तं आगमओय दवज्झयणे ? आगमओ दव्यज्झयणं जस्सणं अज्झयणति पदंसिक्खित्तं जितं मितं परिजितं जाव एवं जावइया अणवउत्ता आगमतो तारमा दव्यज्झयणा // एवमेवववहारस्सवि // संगहस्सणं एगोवा अर जाव से तं आगमतो दव्यज्झयणे // 5 // से किं तं नो आगमती दव्वज्झयणे ? नो आगमतो दव्वज्झयणे तिविहे पण्गत्ते तंजहा-जाणगसरीर अध्ययन, और 4 भाव अध्ययन. नाम और स्थापना का तो पहिले आवश्यक में कहा तैसा कहना. // 3 // अहो भगवन् ! द्रव्य अध्ययन किसे कहते हैं ! अहो शिष्य ! द्रव्य अध्ययन के दो भेद कहे हैं तद्यथा-१ भागम से और 2 नो आगम से // 4 // अहो भगवन् ! आगम से द्रव्य अध्ययन किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! जिप्त अध्ययन का पद पढा हृदय में जना, परमित हुवा विशेष धारा यावत् इस प्रकार उपयोग विना किया हुवा आगम द्रव्य अध्ययन यह नैगम नय आश्रिय जानना. ऐसा ही व्यव*हार नय आश्रिय कहना. संग्रह नय से, एक अथवा अनेक आवश्यक करे सो. यावत् यह आगम से द्रव्य अध्ययन हवा // 5 // अहो भगवन ! आगम से द्रव्य अध्ययन किसे कहते हैं? अहो शिष्य !' अर्थ प्रमाण विषय 4848 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक पिभी दबझयणे भवियसरीरदबझयणे जाणगसरीर भवियसरीर बतिरित्ते दवझयणे // 6 // से कि तं जाणगसरीर दव्वज्झयणे? जणगसरीर दवज्झयणे-पदत्याहिगारा जाणयरस जं सरीरं ववगतचुतचवित चत्तदेहं जीवविपजढं; जाव अहोणं इमेणं सरीर समुस्सएणं जिणदिटेणं भावेणं अज्झयणेत्तिपदं आघवित्तं जाव उवदंसितं जहा को दिटुंतो ? अयं घयकुंभे आसी, अयंमहुकुंभे आसी, से तं जाणगसरीर दबझयणे // 7 // से किं तं भवियसरीर दव्वज्झयणे ? भवियसरीर दबज्झयणे जे जीवे जोणिजमण निक्खंते इमेणंचव आदत्तएणं सरीरं समुस्सएणं जिणदिट्टेणं मागम से द्रव्य अध्ययन तीन प्रकार से कहे हैं, तद्यथा- ज्ञेय शरीर द्रव्य अध्ययन, 2 भविय शरीर द्रव्य अध्ययन, 3 क्षेय भविय व्यतिरिक्त शरीर द्रव्य अध्ययन // 6 // अहो भगवन् ! नेय शरीर द्रव्य अध्ययम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! अध्ययन का पद अर्थ अधिकार जिस का जान था उस काम शरीर पडा हैं और उस में से जीव चवगया वह शरीर जीव रहित हुवा. उसे देख कर कोई कहे कि हो यह इस शरीर से जिनेन्द्र प्राणित भाव का अध्ययन ऐसा पद कहा था यावत् उपदेश था. पथा दृष्टांत यह पूत का घडा था. यह मधु का घडा था. इसे क्षेय शरीर द्रव्य अध्ययन कहना. // 7 // 'अहो भगवन् ! भव्य शरीर द्रा अध्ययन किसे कहना? अहो शिष्य ! जो जीव का योनी से है *प्रकाशक-गजाबाहादुर लामा मुखदेषसहावजी ज्वालाप्रसादजी: अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मडा Hot . 44808 349 भावेणं अज्झयणेत्तिपयं सेयकाले सिक्खिस्संति न तावसिक्वंति जहा को दिटुंतो अयं महकमे भविस्संति, अयं घयकों भविस्संति से तं भवियमरीर दवज्झयणं // 8 // से किं तं जाणगसरीर भवियसरीर वइरित्ते दव्वज्झयणे ? जाणयसरीर भवियसरीर वइरिते दव्यज्झयणे पत्तय पोत्थय लिहियं / से तं जाणगसरीर भवियसरीर वहरित दव्यज्झयणे ! से तं नो आगमतो दव्वझयणे // से तं दबझयणे // 9 // से किं तं भावज्झयणे ? भावज्झयणे दुविहे पण्णत्ते तंजहा-आगमतोय, णो आगमतोय // 10 // से किं जन्म हुवा [श्रावक के घर पुत्र हवा ] उसे देख कर कहे यह जीव जिनेन्द्र प्रणित भाव को आगमिक काल में पढेगा. अथवा नहीं पड़ेगा, यथा दृष्टांत यह घृत का तथा मधु का घडा होगा. यह भव्य शरीर द्रव्य अध्ययन हुवा. // 8 // अहो भगवन् ! ज्ञेय और भव्य शरीर से व्यातिरिक्त द्रव्य अध्ययन किसे कहना ? अहो शिष्य ! पत्र [ पाने ] पुस्तक लिखे हुवे वे ज्ञेय और भव्य शरीर से न्यतिरिक्त द्रव्य अध्ययन जानना. यह नो आगम से द्रव्य अध्ययन हुवा और द्रव्य अध्ययन का भी कधन दुवा // 9 // अहो भगवन् ! भाव किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! भाव अध्ययन दो प्रकार कहे हैं, तद्यथा-१ आगम से और नो आगम से. // 10 // अो भगवन् ! आगम से भाव अध्ययन कि अर्थ * एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्यमुल प्रमाण का विषय 4848 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तं आगमतोय भावज्झयणे ? आगमतोय भावज्झयणे जाणए उव उत्त से तं आगमतोय भावज्झयणे // 11 // से किं त णो आगमतीय भावज्झपणे? नो आगमतो भावज्झयणे अज्दयरमाणयाणं कम्माणं अवचयो उपचियाणं अणुवचउयनवाणं तम्हा अज्झयणमिच्छंति, से तं नो आगमओ भावज्झवणे, से तं अज्झयणे // 12 // से किं तं अज्झीणे ? अज्झीणे चउविहे पण्णत्ते तंजहा-नामझिणे, ठवणाझिणे, दव्वझिणे, भावज्झिणे // नामठवणाओ पुव्ववण्णियाओ // से किं तं / कहते हैं ? अहो शिष्य ! अध्ययन का जान और उपयोग सहित पढना है वह आगम से भाव अध्ययन जानना. // 11 // अहो भगवन् ! नो आगम से भाव अध्ययन किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! भो आगम से भाव अध्ययन सो अध्यात्मचित्त शुभ उपयोग स्थिर कर आठों कर्मों का अपत्य पुष्ट करना उपत्यय विशेष पुष्ट करना उस का क्षय करना और नये कर्मों का बन्ध नहीं करन ऐसा |जिस से हो इसलिये उसे अध्ययन कहना. यह गणधरादि के अवश्य पढ़ने योग्य हैं. यह आगम से भाव अध्यया हुवा. और यह अध्ययन का कथन हुवा // 12 // अहो भगवन् ! अक्षीण किसे कहते ल हैं ? महो शिष्य ! अक्षोण चार प्रकार के कहे हैं तद्यथा-१ नाम अक्षीण, 2 स्थापना अक्षीण. 151 द्रब्य अक्षीण, और 4 भाव अक्षीण, इस में नाम स्थापना गा तो पूर्ववत् जानना. अहो भगवन् ! का अनुवादक बालब्रह्मचारा मुनि श्री अमोलक ऋषिनी भकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वचा दव्यज्झिणे? दयाज्झिणे दुविहे पण्णत्ते तंजहा-आगमोय णो आगमीय // से कि तं आगमतोय दव्वझीणे ? आगमतो दवझीणे जस्सणं अज्झणिोत्तपदं सिक्खित्तं ठियंजितं मितं परिजितं जाव से तं आगमतो दव्वझीणे // से किं तं नो आगमतो दव्यज्झीणे ? नो आगमतो दव्यज्झीणे तिविह पण्णत्ते तंजहा. जाणगसरीर दव्यज्झीणे, भवियसरीर दव्वझीणे, जाणगसरीर भवियसरीर वतिरित्त दव्यज्झीणे // से किं तं जाणगसरीर दव्वझीणे ? जाणगसरीर दबझीणे अज्झीण एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मू-११ 40406.2 प्रमाणका विषय 11 द्रव्य अक्षीण किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! द्रव्य अक्षीण दो प्रकार कहा है. तद्यथा-१ आगम से और 2 नो आगम से. अहो भगवन् ! आगम से द्रव्य अक्षीप किसे कहने अहो शिष्य ! आगम से द्रव्य अक्षीण जिसने अक्षीण ऐसा पद बढा हृदय में किया अक्षरों के प्रमाण से पढा. विशेष पहा यावत् उसे आगम से द्रव्य अक्षीण कहना नो आगम से द्रव्य अक्षीण किसे कहते हैं? नो पागम से द्रव्य अक्षीण के तीन प्रकार किये हैं तद्यथा१. ज्ञेय शरीर द्रव्य सीण, 2 भव्य शरीर द्रव्य क्षीण, और 3 ज्ञेय भन्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य श्रीग.3 अहो मनवन् ! शेव शरीर द्रव्य श्रीण किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! अभीण पद का अर्थ अधिकार 5 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पयत्थाहिगार जाणयस्स जं सरीरयं ववगय चुतचवित चत्तदेहं जहा दबज्झयणे तहा भाणियन्वा, जाव से तं जाणगसरीर दव्वझीणे // से किं तं भवियसरीर दव्यज्झीणे ? भवियसरीर दव्यज्झीणे जे जीवे जोणि जम्मणनिक्खंते जहा दवज्झयणे जाव से तं भवियसरीर दव्बझीणे / से किं तं जाणग सरीर भवियसरीर वइरित दव्वझीणे ? जाणगसरीर भवियसरीर वइरित्त दव्वज्झीणे सव्वागाससेढी से तं जाणगसरीर भवियसरीर वरित दव्यज्झीणे // मे तं नो १.अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबाहादुर लाला मुखदेवसहायजी का जान जो शरीर उस में से जीव निकल गया इत्यादि जैसे द्रव्य अध्ययन का कहा तैसा अक्षीण का भी कहना. यावत् यह ज्ञेय शरीर द्रव्य अध्ययन हुवा. अहो भगवन् ! भव्य शरीर द्रव्य अक्षीण किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! जो जीव योनी से बाहिर निकला जन्म लिया इत्यादि द्रव्य अध्ययन के जैसा कहना यावत् यह भव्य शरीर द्रव्य अक्षीण हुवा. अहो भगवन् ! ज्ञेय भव्य व्यतिरिक्त द्रव्य क्षीण किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! सर्व लोक अलोक की अनंत आकाश की श्रेणि उस में का समय 2 एकेक आकाश प्रदेश अपहरण करते भी खुटे नहीं. इस लिये अक्षीण. यह ज्ञेय शरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य क्षीण. और नो आगम से द्रव्य क्षीण हुवा और द्रव्य क्षीण भी समाप्त हुआ अहो भगवन् ! भाव क्षीण किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! भाव क्षीण दो प्रकार कहा है नद्यथा For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .. एकानात्रंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थमूल . आगमत्तो दव्वज्झिणे // से तं दबझीणे // से किं तं भावज्झीणे ? भावझीणे ! दुविहे पण्णत्ते तंजहा-आगमतोय.नो आगमतोय // से किं तं आगमतो भावझीणे? आगमतो भावज्झीणे! जाणए उवउत्ते सेत्तं आगमओ भावज्झीणे॥ से किं तं नो आगमओ भावज्झीणे ? नो आगमओ भावज्झीणे! जहा दीवा दीवसतं पइप्पए दीप्पएय सोदीवोदीवं समायरिय दिप्पंति परच दीवति.से तं नो आगमतो भाव झीणे // से तं भावज्झीणे. सेतं अज्झीणे // 13 // से किं तं आए ? आए ! चउबिहे पण्णत्ते तंजहा-नामए, 11 आगम से और 2 नो आगम से. अहो भगवन ! नो आगम में भाव क्षीण किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! आगम से भाव क्षीण सो आगम का जान उपयोग सहित आगम का अभ्यास करे. अर्थात् उपयोग के पर्याय अनंत हैं उन में समय 2 एकेक अपहरते अनंत उत्सर्पनी बीत जावे. तो भी क्षय नहीं हो यह आगम से भाव क्षीण कहा. अहो भगवन् ! नो आगम से भाव क्षीण किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! नो आगम से भाव क्षीण सो जैसे एक द्वीपक से सहश्रों दीपक करे तो भी मूलगा दीपक क्षीण नहीं होवे. तैसे ही आचार्य शिष्य को सूत्राभ्यास करावे अपना ज्ञान देवे अन्य का ज्ञान है दीपावे तो भी आचार्य का ज्ञान क्षीण नी होवे. यहां ज्ञान प्रवर्ता मन योग वचन जोग की प्रवृत्ति सो* नो भागम से जानना. यह भाव क्षीण हुवा. और अक्षीण भी हुवा // 13 // अहो भगवन् ! आय अर्थ 4848848 प्रमाण का विषय 48809-10 488 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ठवणाए, दव्याए, भावाए // नामठवणाओ पुवभणियाओ से कि तं दव्याए? दवाए दुबिहे पण्णते तंजहा-आगमओ, नो आगमओ // से किं तं आगमओ?आगमओ! जस्मणं अएत्तिपयंसिखित्तं हितं जितं मितं परिजित जाव कम्हा ? अणुउवओगे दञ्चामातकटु // नेगमस्सणं जावइया अणुव उत्ता आगमतो तावइया ते दवाया, जाव सेतं आगमतोदव्वाए // से किं तं नो आगमतो दवाए ! नो अगामतो दवाए तिविहे पण्णत्ते तंजहा-जाणग सरीर दव्वाए, भविय सरीर दवाए, अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी लाभ) किस को कहना? अहो शिष्य ! आय चार प्रकार कहे हैं तद्यथा-१ नाम आय, 2 स्था. पना आय, द्रव्य आय, और 4 भाव आय, इस में नाम स्थापना का तो पूर्वोक्त प्रकार कहना. अहो न भगवन् ! द्रव्य आए किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! द्रव्य आय दो प्रकार कहे है तद्यथा-' आगम से और 2 नो आगम से. अहो भगवन् ! आगम से द्रव्य आय किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! आगम से द्रव्य आय सो जिसने आय ऐसा पद पडा हृदय में स्थित किया यावत् किस लिये द्रव्य कहा? अहो शिष्य ! अनुपयोग के कारण से, नैगम नय की अपेक्षा यावत् जितने उपयोग रहित आग पढे है उतने ही द्रव्य आय कहना. इत्यादि सर्व आवश्यक मुजब कहना, यह आगन से द्रव्य आवश्यक हुवा, 4 अहो भगवन ! नो आगम से द्रव्य आवश्यक किसे कहते हैं ! अहो शिष्य ! नो आगम से द्रव्य *पाकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी-ज्वालाप्रसादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Im 280 84. अ एकत्रिंशत्तम अनुयोगद्वारसूत्र -चतुर्थ मूल जाणग सरीर भविय सरीर वइरित्त दवाए // से किं तं जाणग सरीर दवाए ? जागग सरीर दव्वाए आयपयत्थाहिगारे जाणयस्स जं सरीरयं वबगयचुत्त चविय चत्तदहं जहादवज्झयणे जाव से तं जाणग सरीर दवाए // से किं तं भविय सरीर दवाए ? भविय सरीर दवाए जे जोवे जोणीजम्मण निक्खते जहा दवज्झयगे से तं भविय सरीर दवाए॥से किं तं जाणग सरीर भविय सरीर वइरित दव्याए?जाणग सरीर दव्य सरीर बइरित्त दव्याए तिबिहे पण्णत्ते तंजहा-लोइए, कुप्पावणिए, आय के तीन प्रकार किये हैं तद्यथा-१ ज्ञेय शरीर द्रव्य आय, 2 भव्य शरीर द्रब्य आए. औ ज्ञेय भव्य व्यतिरिक्त शरीर द्रव्य आय. अहो भगवन् ! ज्ञेय शरीर द्रव्य आय किसे कहते अहो शिष्य ! आय इस पद का अर्थ अधिकार का जान था उस का शरीर जीव प्राण रहित पहा है। इत्यादि सब द्रव्य अध्ययन जैसा कहना यावत् यह भव्य शरीर द्रव्य आय युवा. अहोगवन् ! ज्ञेय और भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य आय किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! तीन प्रकार से कहा है तद्यथा-१ लांकिक, 2 कपावनिक और 3 लोगोदर. अहो भगवन ! लौकिक किसे कहते हैं ? अहो (c) शिष्य ! तीन प्रकार को है सपथा-सचित्त लाभ, 2 अचित्त लाभ, और 3 मिश्र लाभ. अहो भगवन् ! सचित्त लाभ किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! सचित्त लाभ तीन प्रकार कहे हैं तवथा-१ 88- प्रमाण का विषय 1 80- 80 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लोगुत्तरिए // से किं तं लोइए ? लोइए तिविहे पण्णत्ते तंजहा–सचित्ते अचित्ते मीसएय // से किं तं सचित्ते ? साविते तिविहे पण्णत्ते तंजह-दप्पयाणं, चउपयाणं, अप्पयाणं / दप्पयाणं दासाणं, चउप्पयाणं आसाणं, हत्थीणं; अप्पयाणं अंबाणं अबाडगाणं,जाए।सेतं सचित्ते॥से किं तं अचित्ते?अचित्र सवण्ण रयण मणि मोत्तिय संख सिलप्पवाल रयणागंयाए सेतं अचित्ते // से किं तं मीसए ? मीसए दासाणं दासीणं आसाणं हत्थीणं समाभरिया उज्जालंकियाणं आए से तं मीसए लोइए // 1 E: द्विपद. 2 चतुष्पद, और 3 अपद. इस में द्विपद में तो दासादि, चतुष्पद में हस्ति आदि, अपद में अम्ब अम्बाडगादि, यह सचित्त हुवा. अहो भगवन् ! अचित्त लाभ किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! अचित्त सो सुवर्ण, रत्न, मणि, मोती, दक्षिणायत शंख, सिल्प, प्रवाल, रत्नादि का लाभ. यह अचित्त लाभ हुवा. अहो भगवन् ! मिश्र लाभ किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! मिश्र लाभ सो दास, दासी. अश्व. हस्ति, इत्यादि वस्त्र भूषणादि कर विभूषित किया उस का लाभ सो मिश्र लाभ. और यह लौकिक लाभ हुवा अहो भगवन् ! कुमावचमिक लाभ किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! कुमावनिक लाभ तीन प्रकार का कहा है, तद्यथा-१ सचित, 2 अचित्त और 3 मिश्र. इन का कथन जैसा लोकिक का * कहा तसा कहमा यावत् यह मिश्र का कहा और यह कुप्रावचनी कहा अहो भगवन् ! लोकोत्तर --09 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्रीअमोलफापज प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमादजी* , For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir + से किं तं कुप्पावयणीए ? कुप्पावयणीए ! तिविहे पण्णत्ते तंजहा--सचित्ते, अचित्ते, मीसाय. निणिवि जहा लोहए // जाव से तं मिसए // से तं कप्यावणिए // से किं तं लोगुत्तरिए ? लोगुत्तरिए तिविहे पण्णत्ते तंजहा-संचित्ते अचित्ते मिसए / से किं तं सचित्ते ? सचित्ते ! सीसाणं सीसणीणं आए से तं सचित्ते // से किं तं अचित्ते ? अचित्ते पडिगाहाणं वत्थाणं कंबलाणं पायपुच्छणाणं आए से तं अचित्ते // से किं तं मीसए ? मीसए सीसाणं सीस्सणीणं सभंडोवगरणाण आए से तं। 48488 357 अर्थ एकात्रिंशसम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ द्रव्यलाभ किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! लोकोत्तर द्रव्य लाभ तीन प्रकार कहे हैं तद्यथा-सचित्त अचित्त और मिश्र.अहो भगवन :सचित्त लाभ किसे कहते हैं ? अहोशिष्य ! सचित्त सोशिष्य शिष्यगी का लाभ होवे सो. #अहो भगवनू ! अचित्त लाभ किसे कहते हैं ! अहो शिष्य ! अचित्त पात्र वस्त्र कम्बल रजोहरण प्रमुख निर्दोष वस्तु साधु को मिले सो यह अचित्त हुआ.अहो भगवर ! मिश्र लाभ किसे कहते है ? अहो शिष्य ! शिष्य शिष्यनी का भंडोपकरणादि सहित लाभ होवे सो. यह मिश्र लाभ और लोकोत्तर लाभ हवा 4 और ज्ञेय भव्य शरीर व्यतिरित्त द्रव्य लाभ हुवा और नो आगम से द्रव्य भी हुवा. अहो भगवन् ! भाव लाभ किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! भाव लाभ के दो प्रकार कहे हैं तद्यथा-आग से और२ नो भागम से. अहो भगवन ! आगम से भाव लाभ किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! आगम से भाव लाभ दो: प्रकार प्रमाण का विषय 9.38-4th For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी मीसए // से तं लोगुत्तरिए // से तं माणग सरीर भविय सरीर बइरित्त दवाए // से तं णो आगमो दवाए // से किं तं भावाए ? भावाए ! दुविहे पण्णत्ते तंजहा-आगमअय, नो आगमओय // से किं तं आगमतो भावाए ? आगमतो भावाए ! जाणए उवउत्त से तं आगमतो भावाए॥से किं तं नो आगमता भावाए ? नो आगमतो भावाए दुविहे पण्णत्ते तंजहा-पसत्थे, अप्पसत्थे // से किं तं पसत्थे ? पसत्थे तिविहे पण्णत्ते तंअहा-णागए, दसणए. चरित्तए, से तं पसत्थे // से किं तं अपसत्थे ? अपसत्थे चउबिहे पण्णत्ते तंजहा-कोहाए माणाए मायाए का कहा है.तद्यथा-१ आगम से और 2 नो आगम से. अहो भगवन् ! आगम से भाव लाभ किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! जो जीव जानकार हो उपयोग युक्त सूत्र पढे, यह आगम से भाव लाभ हुवा. अहे. है भगवन् ! नो आगम से भाव लाभ किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! नो आगम से भाव लाभके दो प्रकार कहे हैं तद्यथा-१ प्रशस्त ( अच्छा ) भौर 2 अप्रशस्त (बुरा). अहो भगवन् ! प्रशस्त लाम किसे इते हैं ? अहो शिष्य ! प्रशस्त लाभ ती प्रकार का कहा हैं. द्यथा..., ज्ञान का लाभ, 2 दर्शन का लाभ, और 3 चारित्र का लाभ. यह प्रशस्त हुधा. अहो भगवन् ! अप्रशस्त किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! अपशस्त के चार प्रकार कहे हैं. तद्यथा-, क्रोध का, 2 मान का, 3 माया का और प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 20- लोभाए से तं अपसत्थे // से तं आगमतो भावाए // से तं भावाए // सं ते आए // 14 // से किं तं ज्झवणा ? उझवणा चउन्विहा पण्णत्ता तंजहा-नाम ज्झवाणा, ठवणा झवणा, दव्य ज्झवणा, भाव उझवणा, ना ठवणा पुव भणिता // ले किं तं दव्य ज्झवणा ? दब ज्झवणा दुविहा पणत्ता तंजहा-आगमाय नो / आगमोय // से किं तं आगमोय? आगमोय ! जस्सणं ज्झयणाइत्ति पदं सिखियं ठियं जियं मियं परिजियं ाव से तं आगमतो दव्य ज्झवणा // से किं तं नो आगमतः एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ अर्थ लोभ का लाभ. यह नो आगम से भाव लाभ हुवा. भाव लाभ और लाभ का कथन हुषा // 14 // अहो एभगवन् ! झवणा [ क्षय करना] किसे कहते हैं ! अहो शिष्य ! झवणा चार प्रकार की कही है। तद्यथा-१ आगम से और 2 नो आगम से. अहो भगवन् ! मागम से द्रव्य अवणा किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! आगम से द्रव्य झवणा सो 'झवणा ' ऐसा पद पढा हृदय में स्थापन किया, अजित किया, अक्षरों की संख्या सहित धारण किया आद्यन्त पठन किया यावत् आगम से द्रव्य झवणा कही. अहो भगवन् ! नो आगम से द्रव्य झवणा किसे कहते हैं? अहो शिष्य! नो आगय से रव्य झवणा के तीन प्रकार कहे हैं तवया-ज्ञेग शररि द्रव्य झवणा, 2 भव्य शरीर द्रश्य झवणा, अरि 3 जय भव्यम्पतिरिक्त 20 प्रमाण का विषय 1180 * For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दव्य झवणा ? नो आगमतो दव्व उझवणा तिविहा पणत्ता तंजहा-जणग सरीर दव्यज्झवणा, भविय दव्य ज्झवणा, जाणग भविय सरीर वइरित्ता दव उझवणा // किं तं जाणग सरीर दव्यज्झवणा?जाणा सरीर दव्व ज्झवण! ज्झवणा पदथाहिगार जाणगरस जं सरीरगं धवगत चुतचवित चत्तदेहं सेसं जहा नवाया जान से तं जाणगसरीर दव्वझवणे // से किं तं भवियसरीर दवझवणे ? भाग्यालरीर दव्यज्झवणे-जे जीव जोणि जम्मण निक्खंते से संजहा दव्यज्झयणे जाव से तं भवियसरीर अनुवादक बालब्रह्मचारि मुनि श्री अमोलख ऋषिजी प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालापसा द जी अर्थ शरीर द्रव्य झवणा. अहो भावन् ! ज्ञेय शरीर द्रब्य झवणा किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! ज्ञेय शरीर द्रब्य झवणा सो झवणा ऐसा पद का अर्थ अधिकार जाननेवाले का शरीर प्राण रहित पडा न शेष द्रव्याध्ययन जैसा कहना. यह शेय शरीर द्रव्य झवणा हुई, अहो भगवन् ! भव्य शरीर द्रव्य : झवणा किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! जो जीव योनी से जन्म हो बाहिर निकला शेष द्रव्याध्ययन जैसा कहना यावत् यह भव्य शरीर द्रव्य झवणा हुई. अहो भगवन् ! ज्ञेय भव्य व्यतिरिक्त द्रव्य झवणा क किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! जैसे ज्ञेय भव्य ब्यतिरिक्त शरीर द्रव्य लाभ कहा तैसा री कहना. यह ज्ञेय भव्य व्यतिरिक्त शरीर द्रव्य झवणा हुवा. यह नो आगम से द्रव्य झवणा का कथन पूर्ण हवा. अहो। For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3 एकत्रिशत्तम अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल 82 दवझवणा // से किं तं जाणगसरीर भवियसरीर वइरित्ता दव्वझवणा ? जाणगसरीर भवियसरीर वइरित्त दव्यज्झवणा जहा जाणगसरीर भवियसरीर वइरित्त दव्वझवणा भणिया तहा भाणियव्या, से तं जाणग. भवियसरीर वइरित्ता दव्वज्झवणा // से तं नो आगमओ दवझवणा ! से तं दव्वझवणा // से किं तं भावझवणा ? भावझवणा ! दुविहा पण्णता तंजहा-आगमओ नो आगमओ // से किं तं आगमओ भाव ज्झवणा! आगमओ भाव ज्झवणा जाणए उवउत्ते से तं आगमो भाव झवणा // से किं तं नो आगमो भाव ज्झवणा ? नो आगमो भगवन् ! भाव झवणा किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! भाव झवणा के दो भेद-१ आगम से और 2 नो आगम से. अहो भगवन् ! आगम से भाव झवणा किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! आगम से भाव झवणा सो झवणा इस सूत्र का जान उपयोग युक्त पढे सो आगम से भाव झवणा. अहो भगवन् ! 4नो आगम से भाव झवणा किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! नो आगय से भाव झवणा के दो प्रकार कहे हैं, तद्यथा-१ प्रशस्त और 2 अप्रशस्त, अहो भगवन् ! प्रशस्त किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! प्रशस्त के चार प्रकार कहे हैं तया-१ केध का क्षय करे, 2 मान का क्षय करे, 3 माया का क्षय 1882 प्रमाण का विषय 4894800 - 4.98 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - भाव ज्झवणा दुविहा पण्णत्ता तंजहा-पसत्थाय, अपसत्थाय // से किं तं पसत्था ? पसत्था चउविवहा पण्णत्ता तंजहा-कोह ज्झवणा, माणज्झवणा, मायाज्झवणा, लोभज्झवणा, से तं पसत्था // से किं तं अपसत्था ? अपसत्था निविहा पणाता तंजहा-णाणज्झवणा, दसणज्झवणा, चरित्तज्झवणा, से तं अपसत्था // से तं नो आगओ भाव ज्झवणा // से तं भाव ज्झवणा // से तं उहनिप्फन्ने // 15 // से किं तं नाम निप्फन्ने निक्खेवे ? नाम निष्फन्ने निक्खेवे सामाइए से समासओ चउंविहे पण्णत्ते तंजहा-नाम सामाइए, ठवणा सामाइए , और 4 लोभ का क्षय करे. यह प्रशस्त झवणा हुई. अहो भगवन् ! अपशस्त झवणा किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! अप्रशस्त झवणा तीन प्रकार की कही, तद्यथा-१ ज्ञान का नाश करे, 2 सम्यक्त्व का नाश करे, और 3 चारित्र का नाश करे. यह अप्रशस्त झवणा हुवा. यह नो भागम से भाव झवणा हुवा, यह भाव झवणा भी हुवा, और यह दूसरा अनुद्धार का औघ निष्पन्न नामक पठम भेद हवा // 15 // अहो भगवन् ! नाम निष्पन्न निक्षेप किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! नाय निष्पन्न में निक्षेप से यहां अन्यनय का नाम ग्रहण किया इस लिये सामायिक अध्ययन. इस का संक्षेप में चार प्रकार से कहा है. तद्यथा-१ नाम सामायिक, 2 स्थापना सामायिक, 3 द्रव्य सामायिक और *प्रकाश राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसाद अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्र 4. 3 दव्व सामाइए, भावं सामाइए // नाम ठवणाओपुन्य भणियाओ // दव्य सामाइएवि तहेव जाव से तं भविय सरीर दव्व सामाइए // से किं तं जाणग सरीर भविष सरीर वइरिचे दव्व सामाइए ? जाणग सरीर भविय सरीर वइरित्ते दव्व सामाइए पत्तय पोत्थय लिहिय से तं जाणय सरीर वइरित्त दव्व सामाइए // से तं नो आगमउ दव्य सामाइए // से तं दव्व सामाइए ॥से किं तं भाव सामाइए? भाव सामाइए दुविहे पण्णत्ते तंजहा-आगमोय नो आगमोय // से किं तं आगमोय 438 882 एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थ मूल 488+ प्रमाण विषय अर्थ 4 भाव सामायिक. इस में से नाम सामायिक और स्थापना सामायिक का कथन तो जैसा आवश्यक का कहा तैसा ही कहना. और द्रव्य सामायिक तैसे ही द्रव्य आवश्यकवत् विना उपयोग से करे सो जानना. यह भव्य शरीर द्रव्य सामयिक हुई. अहो भगवन् ! झेय शरीर और भव्य शरीर ब्यति-80 रिक्त द्रव्य सामायिक किसे कहना ? अहो शिष्य ! ज्ञेय भव्य व्यतिरिक्त द्रव्य सामायिक सो पत्र (पाने ) पुस्तको सामायिक की पुस्तको लिखी स्रो. यह ज्ञेय भव्य व्यतिरिक्त सामायिक हुई. ॐ आगम से भी द्रव्य सामायिक हुई और द्रव्य सामायिक भी हुई. अहो भगवन् ! भाव सामायिक किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! भाव सामायिक दो प्रकार की कही हैं सद्यथा-आगम से और नो / For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भावसामाइए ? आगमीय भावसामाईए जाणए उवउत्ते से तं आगमओ भाव. सामाइए॥ से किं तं नो आगमओ भावसमाइए ? नो आगमओ भावसामाइए ( गाथा ) जस्स सामाणिउ अप्पा संजमे णियमे तवे // तस्स सामाइयं होइ इइ केवलि भासियं // 1 // जो समो सव्व भूएसु, तसे सु थावरे मु य // तस्स सामाइयं होइ; इति केवलि भासियं // 2 ॥जह ममणपियदुखं, जाणिय एवमेव सव्वजीवाणं न हणइ न हणावइय, समणतितेण सो समणो // 3 // णत्थिसे कोइ वेसोपिओय, सव्वेसु चेव जीवेसु // एएणहोइ समणो, एसो अन्नोवि पजाओ // 4 // उरग, गिरि आगम से. अहो भगवन् ! आगम से भाव सामायिक किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! आगम से भाव सामायिक सो सामायिक सूत्रार्थ का जानकार उपयोग युक्त सामायिक का पाठ पढे यह आगम से भाव सामायिक हुई. अहो भगवन् ! नो आगम से भाव सामायिक किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! नो आगम से भाव सामायिक सो जिसने आत्मा स्थापन किया है संयम में नियम में तप में उस के सामायिक होवे ऐसा केवली ने कहा है // 1 // जो उस स्थावर सब जीवों पर सम भाव धारन करे उसे सामा. यिक होवे ऐसा केवलीने कहा है // 2 // जिस प्रकार मुझे दुःख होता है ऐसा ही सब जीवों को दुःख होता है ऐसा जानकर किसी भी जीव की घात आप करे नहीं अन्य के पास करावे नहीं, 2 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* अर्थ For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ago जलण सागर नहतल, तरुगणे, समो य जो होइ // भमर, मिय, घराण, जलरुह, रवि, पक्षण, समोय सो समणो // 5 // ते समणो जइसमणो, भावेणय जइए होइ पावणो // सभणेय जणेय समो, समोय माणावमाणे सु // 6 // से तं नो आगमतो काम समान सब जीवों को गिने उसे ही श्रमण-साधु कहना // 3 // किसी भी जीव के ऊपर जिस को राग द्वेष न हो इस क्षण से साधु होवे ऐप्ती अन्य भी पर्याय जानमा // 4 // अब साधु की 84 औपमा कहते है-१ सर्प समान, 2 पर्वत समान, 3 आम समान, 4 समुद्र समान, 5 आकाश समान, 6 वृक्ष समान, भ्रमर समान, 8 मग समान, 9 पृथ्वी समान, 10 कमल समान, 11 मुर्य समान, और 12 पवन समान. इन के समान जो गुन के धारक होवे वे ही निश्चय से श्रमण (साधु) जानना. * उक्त बारा ओपमा की ग्रन्थ कारने चौरासी ओपमा वर्णवी है बह इस प्रकार-[2] * उरग'-सर्प जैसे साधु होवे१ सर्प समान अन्य के लिये निष्पन्न किये मकान में रहे, 2 अगंधन कुल के सर्प समान वमन दिये विषय [ भोग] को पीछा ग्रहण नहीं करे, 3 सर्प के समान मोक्ष पंथ में सीधा जावे. 4 सर्प दिल में सीधा जावे त्यों साधु आहार का ग्रास सीधा पेट में उतारे, 5 सर्प के समान संसार रूप कांचली उतारी हुई पीछी धारण करे नहीं, 6 सर्प के समान साधु दीप रूपी कंकर कांट से डरे, 7 सर्प समान. लब्धिवंत साधु से देवादि भी डरते हैं. [2] 1 गिरी पर्वत समान साधु होवे- 1 पनि अनुयोगद्वार - एकत्रिंशत्तम Ego/> प्रमाण विषय 0 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * अक्षीण मानसिया आदि लब्धि रूप औषधी के धारण करनेवाले होते हैं, 2 पर्वत समान साधु परिषद रूपी वायु से कम्पायमान नहीं होवे. 3 पर्वत समान साधु पशु पक्षी गरीब श्रीमान सब जीवों को आधारभूत होवे, 4 पर्वत समान साधु ज्ञानादि गुन रूप नदी को प्रगट करे. 5 मेरु पर्वत समान साधु सब जीवों में ऊंच गुण के धारक होते हैं, 6 पर्वत समान साधु ज्ञानादि रत्नों की खान होते हैं, और 7 पर्वत समान साधु शिष्य श्रावकादि मेखला कुंटों कर शोभते हैं. [3] जलण-आ समान साधु होवे-१ अग्नि समान साधु ज्ञानादि गुन रूप इंधन कर नहीं होवे, 2 अग्नि समान साधु तप तेज रूप लब्धि कर दीपे, 3 आग्नि समान साधु रूप कचरे को जलावे, 4 अग्नि समान साधु मिथ्यात्व अन्धकार का नाश करे, 5 अग्नि समान साधु भव्य जीवों रूप सुवर्ण को उपदेश ताप कर निर्मल करे, 6 अग्नि समान साधु, जीव और कर्म रूप धातु और मट्टी को अलग 2 करे, और 7 अग्नि समान शिष्य श्रावक रूप कच्चे वर्तन को पक्क करे. (4) सागर-समुद्र समान साधु होवे. 1 समुद्र समान साधु गंभीर होवें, 2 समुद्र समान साधु ज्ञानादि गुन रूप रत्नों के आगर होवे, 3 समुद्र समान साधु तीर्थंकर की बन्धी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करे, '4 समुद्र समान साधु उत्पातियादि बुद्धि रूपी नदीयों को अपने में समावे, 5 समुद्र समान साधु पाखंडीआदि रूप मच्छों के खलबलाट से क्षोभ नहीं पावे, 6 समुद्र समान साधु कभी झलके नहीं, ॐऔर 7 समुद्र समान साधु का हृदय सदैव निर्मल रहे. [5] नभतक-आकाश समान साधु हो *प्रकाशक-राजाबहादुर न्हाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4+ प्रकाश समान साधु का मन सदैव निर्मल रहे. 2 आकाश समान साधु गृहस्थादि के अश्रय रहित रहे, 3 आकाश समान साधु ज्ञानादि सब गुनों के भाजन होवे, 4 आकाश समान साधु अपमान निन्दा रूप शीन ताप कर कुमलाये नहीं, 5 आकाश समान साधु वंदना परशंसाय रूप वृष्टी कर प्रफुलित (सुशी) नहीं होवे, 6 आकाश समान साधु दोष रूप शस्त्रकर चरित्राादे गुनका छेदन नहीं करे, और 7 आकाश सपान साधु पंचाचारादि अनंत गुन के धारक होवे. (6) तरुगण-वृक्ष के समान साधु होवे-१ वृक्ष समान साधु स्वयं शीत तापादि परिषह सहनकर आश्रिों को छ ही कांय जीवों को आश्रय भूत होवे. 2 वृक्ष समान साधु सेवा भक्ति पोषना करने वाले को ज्ञानादि गुन रूप फल देवे. 3 वृक्ष समान साधु चतुरगति में परिभ्रमण करने वाले जीव रूप पंथी को आधार भूत होंबे. 5 बृक्ष समान साधु दुःख निन्दा रूप वसूले से छेदन करने से रुष्ट होवे नहीं, 5 वृक्ष समान साधु प्रशंसा रूप चंदन चरचन से सतुष्ट होवे नहीं, 6 वृक्ष समान साधु ज्ञानादि गुन रूप देकर बदला लेना वांछे नहीं. और 7 वृक्ष समान शीत तापादि प्राणांत कष्ठ को प्राप्त होते भी संयम रूप स्वस्थान गेडे नहीं [7] भ्रमर भ्रमर समान साधु होवे-१ भ्रमर समान साधु आहार आदि ग्रहण करते दातार रूप फूल के दुःख देवे नहीं, 2 भ्रमर समान साधु गृहस्थ के घर रूप पुष्पों से अप्रतिबन्ध आहार आदि ग्रहण करे, o3 भ्रमर समान साधु बहुत घरों से थोडा 2 आहार आदि कर तप्त होवे, 4 भ्रमर समान साधु आहार ( *आदि अधिक प्राप्त हुढे संग्रह करे नहीं, 5 भ्रमर सामान साधु विनाबुलाये एकत्रिंशत्तम्-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थ मूल <280% प्रमाण विषय 48488 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अचिन्य भिक्षार्थ गृहस्थके यहां जावे. 6 भ्रमर सामान साधु निदोष * आहार रूप केतकी के पप्प पर संतुष्ट रहे. और 7 भ्रमर समान साधु ग्रहस्थने अपने निमित बनाया आहार सभी को अदा की गय-मृग समान व होवे-१ मग समान साधु पाप रूप सिंह से रता है, 2 भृग समान ला प रूप सिंघ का रबर किया सदोष आहार नहीं भोगवे, 3 मृग समान साधु प्रतिवन्ध रूप सिंह से डरता एक स्थान नहीं रहे. 4 मृग समान साधु रोगादि उत्पन्न हुवे एक स्थान रहे. 5 मृग समान साधु रागादि उत्पन्न हुवे औषधी नहीं करे (यह उत्सर्ग पंथ) 6 मृग समान साधु रोगादि उत्पन्न हुवे स्व ननादि का शरण नहीं वांछे और 7 मग ममान साधु रोगादि कारण की निवृत्ति हुवे अप्रतिबन्ध बिहारी बने. [9. धरणि-पृथ्वी समान साधु होवे-१ पृथ्वी समान साधु गीत ताप छेदन भेदन मलादि सम भाव सहे. 2 पृथ्वी समान साधु संवेग वैराग्यादि धन धान्य कर प्रतिपूर्ण भरे हैं, 3 पृथ्वः समान साधु धर्म ज्ञान रूप बाजोत्पत्ति के कारणभत, 4 पृथ्वी समान साधु शरीर की संभार व ममत्व नहीं करे, 5 पृथ्वी समान साधु परिषह दाता की किसी पास पुकार नहीं करे, 6 पृथ्वी समान साधु क्लेश रूप कादव जो अन्य के संयोग से उत्पन्न हुवा. उस का नाश करे, और 7 पृथ्वी समान साधु सब प्राण भूत जीव सत्य को आधार भूत होवे // (10) जल रूख-कमल के सामान साधु होवे-१ कमल सामान साधु काम 16 रूप कादव भोग रूप पानी कर लिप्त नहाँ होवे, 2 कमल सामान साधु उपदेश रूप शीतल सुगंध कर अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक विजी *प्रकाशक-राजाबाहादुर लाला मुखदेवसहायजा ज्वालाप्रसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ 14 भव्य पथिक को सुख उत्पन्न करे, 3 पोंडरिक कमल सामान साधु वेष कर और यश रूप मुगंध कर 4 शोभित होवे, 4 कमल समान साधु उत्तम पुरुप रूप मूर्य चन्द्र कर विक्मित होवे, 5 कपल समान धु सदैव विक्सित (अवशी) रहे, 6 कमल सामान साधु तीर्थंकर की आज्ञा रूप सूर्य के सन्मुख रहे और 7 कमल समान साधु धर्म ध्यान शुक्ल ध्यान कर हृदय को पवित्र रखे // (11) रवि-23 'ह, सूर्य समान साधु होवे -1 सूर्य सामान साधु अपने ज्ञान रूप प्रकाश कर सम्यक्त्व ज्ञान को 30 प्रकाशे 2 सर्य सामान साधु भव्योजनों रूप कमल के वन को विकिपत करे, सूर्य सामान साधु अनादि मिथ्या रूप रात्री के अन्धकार को क्षीण में नाश करे. 4 सूर्य सामान साधु तपतेज कर प्रदीप्त रहे. 5 सूर्य सामान साधु अपने गुनों के तेज कर पांडीया रूप ग्रह नक्षत्र तारा के सेज को छिपावे, 6 सूर्य सामान साधु-क्रोध रूपी अग्नि / तेज का नाश करे और 7 सूर्य सामान साधु त्रीरत्न के सहश्र गुणों रूपी किरणों H चारों तीर्थ र विकारों शोभित रहे // (12) पवन-वायु सपान साधु होवे- वायु समान साधु सन शालोमा हारे, 2 वायु समान साधु अप्रतिवन्ध विहारी होवे. 3 वायु समान साधु द्रव्ये उपाधी से, मात्र कषाय से हलका रहे, 4 वाय समान साधु अनेक देशों में विहार करे. 5 वायु के समान सायु पुण्य पाप रूप सुरभिगंध दुरभिगंध को दूसरे को दर्शावे. 6 वायु समान साधु किस के रोके रहे नहीं और 7 वायु समान साधु संवेग वैराग्य रूप शीतलता की लहर कर विषय कषाय रूप ताप को निधारे शान्ति शान्ति बरतावे. इति 84 औपया * - एकोत्रिशचम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ 48048 प्रमाण विषय 988-887 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - भावसामाइए // से तं भावसामाइए // से तं सामाइए // से तं नामनिप्फणे // 16 // से किं तं सुत्तालावग निप्फन्ने ? इयाणि सुत्तालावग निप्फन्ने निक्खेवे इच्छावेए सेअपत्तलक्षणेवि ण णिखप्पइ, कम्हाइ ? लाघवत्थं अस्थिइउ अग्गेततीए श्रमण उन ही को कहते हैं जो द्रव्य से तो समनिर्विकल्प सदा मर्यादित वेष के धारण करनेवाले हो और भाव से आर्तध्यान रौद्र ध्यान का त्याग कर धर्मध्यान शुक्ल ध्यान के ध्याता हो स्वजन-सांसारिक सम्बन्धी परजन अन्य लोगों दोनों में समवृत्तिवाले तथा सत्कार सम्मान में ब अपमान में समवृत्ति रखने वाले हों. सामायिक के भाजन साधु होने से इस लिये साधु के गुन कथन किये तथा यहां ज्ञान क्रिया रूप अध्ययन को आगम से भाव सामायिक तथा आगम से एक देश वृत्तिपने से और नो शब्द के देशवतीपने से यहां सामायिकवंत साधु को नो आगम से भाव सामायिकपने ग्रहण किये हैं. क्यों कि सामायक गुन है और जो गुन धारक हो सो गुनी. गुन और मुनी के अभेदोपचार युक्ति मिलती है // यह भाव सामायिक हुई और सामायिक का कथन हुआ तैसे ही नाम निष्पन्न सामायिक हुइ. // 16 // अहो भगवन् ! सूत्रालापक निक्षपक किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! सूत्रालापक है निष्पन्न निक्षेपे का अवसर प्राप्त हुआ आत्मा को कहने की इच्छा उत्पन्न होवे वह निक्षेप प्राप्त लक्षण उस का स्वरूप का आना परन्तु वह निक्षेपा निक्षेप नहीं क्यों कि लाघवता का अर्थ अथवा बारम्बार *प्रकाशक राजाबहादुर काला सुखदेवसहायजी-ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अणउगदारे अणुगमिति तत्थ णिखित्ते इहणिखेत्ते भवइ, इहवा णिखित्ते तत्थ णिखित्ते भवइ, तम्हा इहं ननिखिप्पइ तहिं चेव निखिप्फइ से तं निक्खेवे // 17 // से किं तं अणुगमे ? अणुगमे दुविहे पणते तंजहा-सुत्ताणुगमेय, निज्जुति अणुगमेय // से किं तं निज्जित्ति अणुगमे ? निज्जुति अणुगमे तिविहे / ही अर्थ कहते लघुतापना होवे इस लिये इस के आगे तीसरा अनुयोगद्वार अनुगम इस नाम का तहाँ / अर्थ | निक्षेपा हुआ यहां निक्षेपा बोलना अथवा यहां निक्षेपा था जिस लिये निक्षेपा बोलना इस लिये या निक्षेपना नहीं. तहां ही सीसरा अनुयोगद्वार अनुगम को नक्षेपेंगे यह निक्षेप हुआ. // 17 // अहो, भगवन् ! अनुगम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! अनुगम दो प्रकार का कहा है तद्यथा- सूत्र की है. व्याख्या करना सो सूत्रानुगम ओर 2 सूत्र के साथ लोली भूत भाव सम्बन्ध होवे उसे नियुक्ति कहीये उस नियुक्ति की युक्ति का प्रगट रस पने का कहना, नाम स्थापनादि प्रकार कर सूत्र को विभक्त कर सत्र की व्यार करना सो निर्यक्ति. अहो भगवन् ! नियुक्ति अनुगम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य : नियुक्ति *नुगम तीन प्रकार के कहे हैं तद्यथा-निक्षेप नियुक्ति अनुगम, उपोदघात नियुक्ति अनुगम और ३सूत्र फास नियुक्ति अनुगम. अहो भगवन् . निक्षेप नियुक्ति अनूगम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! पहिले आवश्यक तथा सामायिकादि पद का नाम स्थापनादि चार निक्षेप द्वार कर व्याख्यान किये हैं वह त्तम-अनुयाद्वार सत्र चतु-र्थ मूल. 4888888 प्रमाण विषय 3g- 882 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + पग्णत्ते तंजहा-मिक्खेय निति अणुगमे, उबुग्धाय निज्जुति अणुगमे, सुत्त फासिय निज्जुत्ति अणुगमे // से किं तं निक्खेवे निज्जुत्ति अनुगमे ? निक्खेव निज्जुत्ति अनुगमे अणुगमे, से तं निक्खव निजुति अनुगमे / से किं तं रघुग्घाय निज्जुति अणुगमे ? उबुग्घाय निज्जुति अणुगमे इमाहिं दोई गाहाहिं अणुगंतवे तंजहाव्याख्यान सव इस स्थान जानना उसे निक्षेप नियुक्ति अनुगम कहना. अहो भगवन् ! उपोद्धात नियुक्ति अनुगम किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! व्याख्या करने योग्य मूत्र की व्याख्या विधी समीप कहना अर्थात् उद्देशादि सूत्र कर प्रथम उस की व्याख्या करनाफिर सूत्र की व्याख्या करना उस का कथन आगे कही दोगाथा कर जानना तद्यथा-१ उद्देश सो सामान्य नाम रूप, 2 निदेश-नाम- कहना सामायिकादि अध्ययन, 3 निर्गम-सामायिक कहां से निकली? श्रृत समुद्र से निकली, 4 क्षेत्र शेसा ? सिद्धार्थ राजा के पुत्र महावीर स्वामीने अंगीकार किया, ५किस काल ? वैशाख शुक्र एकादशी 6 कौन पुरुष से पुरुष-इस काल में ऋषभ देव से ग्रगट हुवा, 7 किस कारण से मुना ! अहो शिष्य ! गौतम स्वामी आदिने भगवंत के पास से सुना, 8 कौन प्रतीत-केवल ज्ञान / काकी प्रतीरा, 9 वय लण-सम्यकत्व सामायिकका लक्षण, श्रद्धना प्ररूपना शुद्ध सो श्रुत सामामिक, चारित्र' सामायिक का निवृत्तिरूप लक्षण, 10 कौनसी नय ? यहां सामायिकपर सात मय उतारना, 11 किसमें प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी-ज्वालाप्रसादजी * For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकत्रि पत्त्य-अनुयोगद्वार गुव-चतुर्थ मूस-28 (गाहा) उसे, निदेसेय, निगमे; खित्त काल, पुरिसेय, कारण // पच्चय, लक्खण णए; समुआरणा, अणुमए, किं कितिविहं // 1 // कस्स, कहिं, केसु, कह, किंचिरं हवइ अंकालं // कति, मंतर, मविरहियं; भावा, गरिसं, फासेण, निरुत्ती // 2 // सेतं उवग्याय निजुत्ति अनुगमे // से किं तं सुत्तफासिय निजुत्ति अनुगमे ? मुत्तं लावतारी ? चौवीसस्तवादि अध्ययन में समावनारी, 12 किस नय से सामायिकमाने-नेगम व्यवहार संग्रा यह तीन नय तपसंयम निग्रन्थ प्रवचन रूप सामायिक माने और ऋजुत्रादिचारों नय समता रूप सामायिक को माने, क्योंकि वही निर्माणमाप्ति रूप है, 13 क्या सामायिक ? समभावी गुनत में E. सामायिक, १३प्रश्न-कितने प्रकारकी सामायिक? उत्तर-तीन प्रकारकी सामायिक-१सम्यकत्व सामायिक, 2 श्रुत सामायिक, 3. चारित्र सामायिक, १४प्रश्न-कौन पुरुष के सामायिक उत्तर-जिम की सामाधिमें आत्मा है उस ही पुरुष के सामायिक,१५प्रश्न-किस स्थानमें सामायिक उत्तर-आर्य क्षेत्रमें तीसरे चौथे पांचवे आरे . मनुष्य मति आदि बहुत बोल संयोगमें सामायिक,१६प्रश्न-किसमें सामायिक ? उत्तर-सर्व द्रव्यमें समता रस रूप सामायिक, १७प्रश्न-किस प्रकार सामायिक ? उत्तर-अव्याप्ती मनुष्य चित्त जाति कुल बल आरोग्य मूत्र श्रवण विनयोपचार के स्थान सामायिक, 18 सामायिक का कितना दीर्घ काल ? सम्यक्त्व सामायिक का और श्रुत सामायिक का 66 सागर कुछ अधिक, चारित्र सामायिक देमूना क्रोड पूर्व, १९प्रश्न कितनी 4882482 प्रमाण का विषय 488488 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 374 42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी उच्चारेयव्वं, अखलियं, अमलियं, अवच्चामालयं , पडिपुन्नं, पडि पुन्नघोसं, कंट्ठोटविप्प मुकं, गुरुवायणोबगयं तउतत्थणिजिहिंति,ससमय पयंवा, परसमय पयंवा, बंधमोक्ख पयंवा, सामाइयं पयंवा, नो सामाइय पयंवा, तउतंमि उवरित्ते समाणे किसिचणं भगवंताणं केइ अच्छाहिगारा अहिगया भवंति, केइअच्छाहिगार! आणेहिगया सामायिक ? सम्यक्त्व के श्रुत के असंख्यात लाभ कर. प्रतिवर्जमान आश्रिय पुयक्त्व सहश्न. कोडी देश वृत्ति आश्रिय असंख्यात,२०प्रश्न-अन्नर कितना पडे? उत्तर-एक जीव आश्रिय अन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट र अनंत काल आधा पुद्गल परावर्तन, २१प्रश्न-अविरह-सब जीवों आश्रिय विरह कहा नहीं. 22 सामायिक के कितने भव ? जघन्य आराधक आश्रिय दो भव उत्कृष्ट आठ भव पर्यंत लगोजा सामायिक आवे,२३ प्रश्न-आकर्षे-एक भव में तथा बहुत भव में वारम्बार आवे तो सम्यक्त्व असंख्यात वक्त एक भव आश्रिय सामा. यिक चारित्र पृथक्त्व सो वक्त,बहुत भव आश्रिय पथक्त्व हजार वक्त, 24 प्रश्न सामायिक कितना क्षेत्र स्पर्श ? उत्तर-जघन्य असंख्यातवा भाग एक जीव आश्रिय और केवली समुद्घात आश्रिय संपूर्ण लोक,और२ पतिरुक्ति सम्यक प्रकार युक्ति पद रूप लाभ की प्राप्ति हो वह सामायिक की निरुक्ति अर्थोत्पत्ति. यह उपोद घात नियुक्ति अनुगम हुवा. अहो भगवन् ! सूत्र फासिय नियुक्ति अनुगम किसे कहते हैं ? सूत्र फासिय नियुक्ति अनुगम सो. मूत्र का शुद्धोच्चार करना. सूत्र पढते स्खलना न होना, अन्य सूत्र के शब्द नहीं प्रकाशक-राजाबाहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 8 808एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थमुल भवति, ततो तेसिं अणहिगयाणं अहिगमणटाए पदंपदेणं व तवइस्सामि (गाहा)पंहिताय / पदंचव, पयत्थो पयाविग्गहो, चालणाय पसिद्वीय, छविहं विधिलक्षणं // 1 // मे तं सुत्तफासिय निज्जुत्ति अणुगमे // से तं निज्जुत्ति अणुगमे // से तं अणुगमे / मिलाना, उपयोग रहित बीच में छोडकर नहीं पड़ना, हुस्व दीर्घ पूर्ण पढना, पूलित उदातादि पूर्णाचार करे के ओष्ट आदि जिस का जो उत्पत्ति स्थान हो वहां से पूच्चिार करे. गुरुगम से उसे धारन करे, तब फिर जानकर होवे शुद्ध जीवादि का पद स्वरूप, पर समय अन्य मत का पद स्वरूप, कर्मबन्ध का और कर्म से युक्ति का पद स्वरूप, सामायिक का पद स्वरूप, सामायिक रहित का पद स्वरूप, हैं इसलिये शुद्ध मूत्र उच्चारने से कितनेक साधु भगवंत को कितनेक अर्थ के अधिकार ग्रहण होते हैं. कितनेक अर्थ के जान और कितनेक दुर्गम अर्थ का अनजान भी रहते हैं. इसलिये उन अनजाने पद को जानने के लिये एकेक पद की अलग 2 व्याख्या करूंगा. सूत्र अस्खलित कर फिर पद अलग 2 करना, फिर पदका अर्थ, फिर पदका सभास. फिर चालनाकर पूछे. फिर योग्य स्थान स्थापन करे. यो छ प्रकार से अर्थ कहने का लाभ जाने, यह अर्थ कथक लक्षण कहे. यह सूत्र अर्थ स्पर्श नियुक्ति अनुगम हुआ और नियुक्ति अनुगम हुआ और अनुगम का कथन पूर्ण हुआ // 18 // अहो भगवन् ! नय किसे 82086 प्रमाणका विषय 8848 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सन्न अर्थ / 01 अनुवादक बालब्रह्मचारि मुनि श्री अमोलख ऋषिजी // 18 // से किं तं नए ? सत्त मल नया पण्णत्ता तंजहा-णेगमे, संगहे, ववहारे, उज्जुसुए, सद्दे, समभिरुढे,एवंभूत // (गाहा)तत्थणेगमेहिमाणेहिं मिणइ, इति णेगमस्सय निरुत्ती, सेसाणंपि नयाणं लक्खणमिणमो सुणह बोच्छं // 1 // संगहिंअपडिअत्थं, संगहवयण समासओवित्ति // वच्चइ विणित्थिअत्थं, ववहारो सन्त्र दवेमु // 2 // कहते है ? हे शिष्य ! मूल नय सात कही है. जिन के नाम-१ नैगमनय, 2 संग्रहनय, 3 ब्यारनय, ऋजमत्रनय, 5 शब्दनय, 6 सपभिरुढ नय, और 7 एवंभूतनय. इन सात नय मे से प्रथम नेगम नय सो- सामान्य विशेष शब्द में विशेषन कर वस्त को जाने वस्तु का निर्णय करे. लोक में रहता हूँ इत्यादि प्रश्नोत्तर पूर्वोक्त प्रकार जानना. और भी जीव द्रव्य जीव द्रब्य के दो प्रकार-संसारी और असंसारी इत्यादि बोल जानना. इत्यादि आगें छही नय का उदाहरण लक्षण सनो // 1 // संग्रह नय सम्यक प्रकार से ग्रहण किया एक जाति रूप अर्थ वह संग्रहित पंडितार्थ बचन बहना ऐसा संग्रह नय का बचन संक्षेप से तीर्थकरने कहा. अर्थात् संग्रह नय वाला सामान्य रूप को ही मानता है जैसे 'एगे आया सर्व आत्मा को एक ही रूप जाने. 3 ब्यवहार नय विशेष निश्चय अर्थ लोक व्यवहार प्रसिद्ध पांचो वर्ण के वस्त्र मे रक्तवर्ण अधिक होतो लोक व्यवहार में रक्त वस्त्र ही कहे. प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्र पच्चुपण्णगाहिउज्जु-सुउणय विहीमुणेयन्वो // इच्छेइ विसेसाअंतरं पच्चुपन्न उसद्दो // 3 // वत्थुउ सकमणं होइ, अवत्थुनए समाभरूढे // वंजण अत्थ तदुभयं, एवं भूउ विसेसेइ // 4 // एगयमिगिव्हियत्वे आगीहियमि चेव अत्थंमि // जइ अव्व. मेवइ इज्जो, उवएसो सो नउनाम // 5 // सव्वेसिपि नयाणं, वत्तव्वं बहुविहं निसामित्ता॥तं सव्वनय विसुद्ध,जं चरणगुणटुिओ साहु // 6 // अणुउगदारा सम्मत्ता // 48 एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुर्थ मूल. Page #369
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपसंहार-(गाथा) सोलस सयाणि, चउरूत्तरााण होइउ इमंमि गाहाणं // दुसहस्स मणुहम छंद,सुत्तपरिमाणउ भाणिउ॥१॥नगर महा दाराइव, उवक्रम दाराणुउग्गवरदारा // अक्खर विंदु मत्ता, लिहिया दुक्खे खयट्ठाएं // इति श्री अनुयोगहार सूत्र समाप्तम्. // 13 // * * * * * अर्थ अनुवादक बाल ब्रह्मचारा मुनि श्री अमोलक ऋषिजी* विस्तारित वक्तव्यता कहने में बहुत समय चाहीये. सक्षेप में सातों नय का निश्चय व्यवहार में समावेश हो जाता है, 4 निक्षेप, 4 द्रव्यादि, इन पर्याय अर्थ नय में सुनकर उन सब नय को निर्दोष नय रूप प्ररूपे, जानने योग्य जाने, छोडने योग्य छोडे, आदरने योग्य आदरे इस प्रकार जो चारित्र में स्थिर रहा साधु ज्ञानादि युक्त विशुद्ध नय को समाचरे॥यह अनुयोग का स्वरूप दर्शाने वाला अनुयोगद्वार सूत्र संपूर्ण हुआ।। उपसंहार इस अनुयोगद्वार की 1604 गाथा 2000 श्लोक सूत्र का प्रमान कहा है. टवाका प्रमान 6000 सब ग्रन्थाग्रन्थ 8000 // 1 // यह अनुयोग द्वार सूत्र बडे नगर के द्वार समान इस में प्रवेश करने से उपशम ज्ञान नय महापदार्थ की प्राप्ति होवे. इस की अक्षर विन्दु मात्रा शद्ध लिखने से में सर्व दुःख का क्षय होवे // यह दोनो गाथा प्रकरण की जानना // अनुयोग द्वार सूत्र अर्थागमणे चितीयं साहुण धम्मसिंहेण साता सुहस्सहेतवे // इति अनुयोग द्वार मत्र समाप्तम् // 31 // + + + * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir o n . .. . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . askal +10 सोनत्रिंशत्तम-अनुरोगद्वार मूत्र चतुर्थमूल <888+ . . . . . " // इति एकत्रिशत्तम // akse // अनुयोगद्वार-सूत्र चतुर्थ मूल // 4848888 प्रमाण का विषय 480885 20 3050.x. " * वीर संवत् 2446 श्रावण वदी 6 बुधवार. * 488 For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir VAL VAATA MAA For Private and Personal Use Only
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ____www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शास्त्रोद्वार प्रारंभ म वीराब्द 2442 ज्ञान पंचमी ऋ अ इति .. 40.10.0.12. * अनुयोगद्वार सूत्र * समाप्तम् ॐ म रा लामु ज्वा मु अ बाप शास्त्रोद्धार समाप्ति " वीराब्द 244 6 विजयादशमी . For Private and Personal Use Only