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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थ मूल. + कित्तिय होइ, जहन्नयं परिताणतयं मेत्ताणं रासीणं अन्नमन्नभामो पडिपुन्नो जहन्नं जुत्ताणतय अहवा उक्कोसए परित्ताणतयंरूवं पखित्त जहम्नयं जुत्तागतयं होइ. अभवसिद्धियाणं तात्तिया होइ // लेांपरं अजहन्नमणकोसयाइ ठाणाई जाव उक्कोसयं जुत्ताणतयं ण पावती // उदोसयं जुत्तालयं केवड़यं होइ, जहन्नएणं जुत्ताणतणं विद्धय गुणिया, अन्नमन्नासो रूवुणो, उक्कोसयं जुत्ताणं तथं होइ, अहवः जहन्नयं अशंताणतयं रूंबूण, उक्कोसं जुत्ताणतयं होइ, // जहन्नयं अणंताताई कित्तियं होइ, जहन्नएणं जुत्ताणतएणं अभवसिद्धिया परस्सर गुनाकार को उस में से एक कप कमी करे ता उत्कृष्ट परिता अनंत जघन्य परिता अनंत का नाश को परस्पर गुकार करे, तव जयन्य युक्ता अनंत होवे अथवा उत्कृष्ट परेला अनंत में एक रोप करे, तान्य यका अनंत होने [चोथे अनंतरिने अनन्यजीव हैं, ] उस उपांत पाप मान्योत्वस र नहीं पःचे अधो भवन् ! उत्कृष्ट युक्त अनंत कितना होता है . म.प्याजधन्य युक्ता अनंत को अभव्य (चाये) अनंत से गुनाकार कर वह उत्कृष्ट युक्त अनंत छठा होवे. अथवा जघन्य अनंतानंत में से एक रूप कभी करे तब उत्कृष्ट युक्ता अनंत होवें. अहो भगवन् ! जघन्य अनंतानंत कितने होते हैं ? अहो शिष्य ! जघन्य युक्ता अनंत को अभव्यजीव 222880 'माण का विय 22 4. For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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