SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 74 6. असंखि नइ भागे होजा, नो संखजेसु नो असंखेज्जसु नो सव्वलोए होजा नाणा दवाइ पडुच्च-नियमा सव्वलोए होजा // एवं अवत्तव्वग दव्वाणिवि भाणियवाणि णेगम ववहाराणं आणुपुल्वी दव्वाइं लोगस्स किं संखेजति असंख्यातवे माग व सघ लाक में होने नहीं. बहुत द्रव्य आश्री सघ लोक में होवे. ऐसे ही अवक्तव्य द्रव्य आश्री जानना. प्रश्न-नैगम व्यवहार नय से आनपूर्वी द्रव्य क्या लोक के संख्यात भाग में स्पर्श नुपूर्वी में कुछ कम कहा है. जैसे पुरुष अंगुली रूप देश में देवता के प्रदेश का अभाव की विवक्षा की जाय क्यों कि देश की अस्ति नहीं है. और भी कुछ कम सय लोक का खुलासा करते हैं-प्रश्न- ool द्रव्यानपूर्वी सब लोक व्यापी चाहिये पुनः कुछ कम कहने का क्या प्रयोजन ? उत्तर-लोक में आनुपूर्वी व अवक्तव्य यह दोनों सदैव होते हैं. अनानुपूर्वी का आकाश प्रदेश और अवक्तव्य का आकाश प्रदेश या तीन आकाश प्रदेशी स्कंध की क्षेत्रानपू से पृथक 2 . गवेषना की है. इस से प्रदेश कम द्रव्यानुपूर्वी कही. जैसे एक अचित्त के स्कंध में दूसरा अचित्त स्कंध है तो भी अचित्त महा स्कंध की मुख्यता देखाइ है जैसे एक राजा की सेना में अन्य मित्र राजाओं की सेना आमीलती है तो भी वह सब सेना मुख्य राजा की ही होती है, ऐसे ही द्रव्यानुपूर्वी में सब लोक कहा है. और जैसे राजा के 171 महल से प्रधान वगैरह का महेल अलग गिने जाते हैं वैसे ही यहां कुछ कम कहा है, *अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy