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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसो जहा, असूइ मलभारय // निझरसभाव दुगांधी, सबकालं पिधन्नाओ सरीर कलिंबहु मल कलुसं विमुच्चंति // 13 // रूव ·य वेस भासा, पियारिय लिगाय समुप्पन्नो // हासो मणप्पभातो पनामालिंगो रतो होइ // 14 // हामो रलो जहा पासुत्तमंसि मंडिय पडिशुद्ध // देशपलोयतीहाजाहणाश्ण भारपण, निय मझाहसती सामा // 15 // श्यिविप्पड गवंध बहवाहि विणि वारसंभ समुप्पन्नो अशच व मल से भरे वे श्रोत्रादि विवह जो स्वभाव से दुर्गम यह शरीर है उस को छोडदिया है. क्यों कि यह शरीर मल से कलुभाता है. सदैव काट इसके सामान को प्रस्रवण क रहे हैं. इसलिये वे धन्यवाद की योग्य हैं जो इमरमर शीर तोडकर मोक्ष गमन गये हैं. // 13 // अब हास्य रस का विपर्ण करते हैं. रूाला परिवत करता अथवा वृद्धादि का रूप धारण करना. भाषा विवशत बोली, जिसके द्वारा हाय की उत्पति और मग फुल हो हजार सो यही उक्त चिन्ह हार" हा क्षण 1 दाम्प पक्ष की प्रतीति होती है. F14 / इसके उदाहरण केवमाविवर्ण शिक्षामाची निल देवर का उपहास करती है और उसके मुखादि को कानय के लिये भी सच इ.स . उसी को हास्य रस करते हैं. // 15 // अब करुणा रस विषय कहते है. करुणा रस उसे कहते हैं. मो विषय के लावनारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ? अकाशक-रानाबहादुर लाला सुखद वसहायजा * For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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