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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ 8- एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वारसूत्र -चतुर्थ मूल कारणं, णकडो वीरणाकारणं पिंडो घडस्स कारणं नघडोपिंडस कारण से तं कारणे।। से किं तं गुणेणं ? गुण-गुज्जति करेणं, पुप्फगंधेणं, लवणं रसेणं, मदिरं आसादएण. बत्थं फासेणं, से तं गुणेशं // से किं तं अवयवेत ? अजयो-हिसं / सिंगेणं, कुकुडसिहाए. हास्थविसाणेणं, बराहदादर, पिणं, आतखुरेण. वर्घनहेणं, चमरी वालगणं, दुप्पय मणस्य वादी, चउप्पय गावाति, बहुतयं मोमिया वह कडा तथा का कारण है परंतु काटा शरकट का कारण नहीं क्तिका का डिपका कारण है। परंतु घडा मृत्तिका के पिंड का कारण नहीं है. इत्यादि कारण कर जो कार्य निपजे उस कार्य को कार कर पहचान वह कारणेणं. यह कारणवत् हया, अो भगवन ! गुणवत् वि.से कहते हैं ? अहो शिष्य ! ! सुवर्ण का गुन कसोटी कर जाना जावे. पप्प का गुन गंध कर जाना जावे, निमक का गुन रस कर जाना जाये, मदिरा का गुन आस्वाद कर जाना जावे, वस्त्र का गुन स्पर्श कर जाना नावे इत्यादि गुन कर जाना जावे सो गुगेवल. अहो भावन् ! अग्यात किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! अवयव सो. शरीर के किसी एक अवयव (उपांग कर) जाना जाय जैस-शृंग से महिष शिखा कर कर्कट (o) को जाने, दांतों कर हस्ति को जाने, दाढ कर शूकर [वर को जाने, पांखों कर मयूर को जाने, सुर कर घोडे को जाने, नखों कर वाघ को जाने, चमर रूप बालों कर चमरी गाय को जाने, द्वियांब कर मनुष्य को।' *S8 प्रमाण विषा 4880 For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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