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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .. एकानात्रंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थमूल . आगमत्तो दव्वज्झिणे // से तं दबझीणे // से किं तं भावज्झीणे ? भावझीणे ! दुविहे पण्णत्ते तंजहा-आगमतोय.नो आगमतोय // से किं तं आगमतो भावझीणे? आगमतो भावज्झीणे! जाणए उवउत्ते सेत्तं आगमओ भावज्झीणे॥ से किं तं नो आगमओ भावज्झीणे ? नो आगमओ भावज्झीणे! जहा दीवा दीवसतं पइप्पए दीप्पएय सोदीवोदीवं समायरिय दिप्पंति परच दीवति.से तं नो आगमतो भाव झीणे // से तं भावज्झीणे. सेतं अज्झीणे // 13 // से किं तं आए ? आए ! चउबिहे पण्णत्ते तंजहा-नामए, 11 आगम से और 2 नो आगम से. अहो भगवन ! नो आगम में भाव क्षीण किसे कहते हैं? अहो शिष्य ! आगम से भाव क्षीण सो आगम का जान उपयोग सहित आगम का अभ्यास करे. अर्थात् उपयोग के पर्याय अनंत हैं उन में समय 2 एकेक अपहरते अनंत उत्सर्पनी बीत जावे. तो भी क्षय नहीं हो यह आगम से भाव क्षीण कहा. अहो भगवन् ! नो आगम से भाव क्षीण किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! नो आगम से भाव क्षीण सो जैसे एक द्वीपक से सहश्रों दीपक करे तो भी मूलगा दीपक क्षीण नहीं होवे. तैसे ही आचार्य शिष्य को सूत्राभ्यास करावे अपना ज्ञान देवे अन्य का ज्ञान है दीपावे तो भी आचार्य का ज्ञान क्षीण नी होवे. यहां ज्ञान प्रवर्ता मन योग वचन जोग की प्रवृत्ति सो* नो भागम से जानना. यह भाव क्षीण हुवा. और अक्षीण भी हुवा // 13 // अहो भगवन् ! आय अर्थ 4848848 प्रमाण का विषय 48809-10 488 For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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