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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir +अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी तेणं परं अजहन्नमणक्कासयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं संखेजइ, नो पावइ, उक्कोसयं संखेजइ कित्तियं होइ, उक्कोसयस्स संखजयस्स परूवणं करिस्मामि-से जहानामए पल्लेसिया, एगं जायण सयसहस्मं आयामविक्खभेणं, तिण्णिय जायण सयसहस्साई सोलमय सहस्साई दोण्णिय सत्तावीसं जोयणसते तिजियकोसे अट्ठावीसं च धणुयसय तेरसय अंगुलाई अद्धअंगुलंच किंचि विसेसाहिया परिक्खेवणं पण्णत्ता जंबुद्दीवःपमा सेणंपल्ले सिद्धत्थयाणं भरति, तत्तणं तेहिं सिद्धत्यएहिं दीवसमुद्दाणं उद्धारो धेष्यति. एगेदीवे एगेसमुद्दे एवं पक्खिप्पमाणेणं जावइआणं दीवसमुद्दा तेहिं सिद्धत्यएहिं E? अहो शिष्य! जघन्य सख्यात के दो रूप होते हैं उस के उपरान्त अजयन्मोत्कृष्ट स्थानक यावत् उत्कृष्ट संख्यात तक होते हैं. अहो भगवन् ! उत्कृष्ट संख्यात कितने होते हैं? अहो शिष्य ! उत्कृष्ट संध्यात का में प्ररूपना करता हूं -यथा दृष्टान्त एक लाख योजन का लम्बा चौडा, तीन लाख संग हजार दो सो सत्तावीस योजन. तीनशेस एक सो अठावीस धनुष्य और सादी तेरे अगुल किंचित विशेष परधीपाला, जंबुद्धीप के बरावर आठ योजन का ऊंडे, पाले से सरसब कर भरे. उन सरसव कर द्वीप समुद्र का उद्धार करे अथात् उस पाले में का सरसब का दाना एक द्वीप में डाले. एक 'समुद्र में बाले, यो डालता 2 यावत् जितने द्वीप समुद्र में वह सरसच सब खाली होवे इतना प्रकाशक राजाबहादुर लामुखदेवमहायजी 1/5 दजी For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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