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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सूत्र 267 मनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल तत्थणं जेते मुक्केलगा तेणं अणता अणंताहिं उसापिणी ओसारिणीहि अवहीरंति कालओ खेत्तओ अणंता लोगा अभवासिद्धिएहिं अणंतगणा सिद्धाणं अणंत भागो // 50 // केवइयाणं भंते ! वेउब्बिय सरीरा पण्णता? गोयमा ! दावहा पण्णता तंजहा--बंधेलगाय मुक्केलगाय तत्थणं जेते बद्धलगा तेणं असंखजा असंखिजाइ उलप्पिणी ओसापिणीहिं अवहीरंति कालओ खत्तओ अखेज्जा सेढीओ पयरस्स असंखेज्जतिभागे तत्थणं जेते मुक्केलगा तेणं अणता अणंताहिं / उस्सारिणी ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ सेसं जहा उरालिया मुक्केलगा शरीर अनन्त हैं, एकेक समय में एकेक शरीर का हरण करते अनंत सर्पिणी उत्सर्पिमी व्यतिक्रान्त हो जावे र से कहा और क्षेत्र से एकेक आकाश प्रदेश से एकेक शरीर स्थापन करने अनंत लोक के अकाश प्रदेश भरा जावे. क्यों कि इस संसार में परिभ्रमण करते इस जीव को अनन्तान्त काल व्यतिक्रान्त होगया हैं. अभव्य जीवों से अनन्तगुना अधिक और सिद्ध भगवंत के अनन्तो भाग कमी हैं // 50 // अहो भगवन् ! वैक्रेय शरीर कितने हैं ? अहो शिष्य ! वैक्रेय शरीर दो प्रकार के कहे हैं. तद्यथा-१ बंधेलक और 2 मूकेलक. इस में जो बघेलक हैं वे असंख्यात हैं. समय 2 में एकेक 'हरण करते असंख्यात सर्पिणी उत्सर्पिणी काल व्यतीत होजावे यह काल से और क्षेत्र से असंख्यात 80898808 प्रमाण विषय 4880 48+ एकत्रि For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
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Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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