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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भरहेबसामि, दाहिणड्ड भरहे अणेगाइ गामागरणगर खेड कव्वड मंडब दोणमुह पट्टणा सम संबह सन्निवेसाई तेसु सव्वेसु भवं वसास ? विसुद्ध तरागो णेगमो भणति-पाडलिपुत्ते वसामि, पाडलिपुत्ते अणेगाइं गिहाई तेसु सव्वे भवं वससि ? विसुद्ध तरागो णेगमो भणति देवदत्तस्सघरे वसामि, देवदत्तस्सघरे अणेगा कोटगा तेसु सव्वेसु भवं वससि ? विसुद्ध तरागो णेगमो भणति-गब्भघरे वसामि, एवं विसुद्ध' णेगमस्स वसमाणोवसइएवमेव ववहारस्सवि, संगहस्स संथार समारूढो वसति, देवदत्त के घर में रहता हूं. मन--देवदत्त के घर में तो कोठे बहुत हैं उन सब में तू रहता है क्या? उत्तर विशुद्ध तराग नैगम नयाला बोला-मध्य के घर में रहता हूं. इस प्रकार विशुद्ध नैगम नय के हमत से वसति है.सा यह नैगम नय का कहा तैसा ही व्यवरार नय का भी कहना. संग्रह नयवाला बोलता है कि मैं संथारक में जहा बैठता हूं शयन करता हूं तहां रहता हूँ. ऋजु सूत्र नयवाला कहता है - जितने भाकाश प्रदेश मैंने अवगाहे हैं उसमें रहता हूं. और तीनों शब्द नयवाले कहते हैं कि मैं आत्म भाव में रहता हूं यह वसति का दृष्टान्त हुवा // 91 // अहो भगवम् ! प्रदेशका दृष्टान्त किस प्रकार है ? अहो / शिष्य ! प्रदेश के दृष्टान्त में नैगम नय के मत से छ के प्रदेश वह देश का प्रदेश अलग गवेषना. यह विशेषार्थ बताया, दूसरा संग्रह नय पांच का प्रदेश स्कन्ध में गवेषे. या भी सत्य नैगम 'झूठा ऐसा 8+ एक नात्रंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थमूल tast 42443 प्रमाण का विषय + For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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