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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ 4.8 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिमी कति का नाम भी है, क्यों कि प्राति से पर ही प्रत्ययो की संयोजना की जाती है. सो जो प्रकृति में भाकृति रहे ससे नामिक कहते हैं. द्वितीय नैपातिक नो निपात में वर्णन किये गये हैं उसे नैपानिक कहते हैं. तृतीय आख्यातिकं जो अख्यात में शब्दों का विवर्ण किया गया है उसे भासयातिक कहते हैं, जो नाम उपसों में वर्णन किया गया है उसे औपसनिक कहते हैं और जो उपसर्ग और धातु मीलकर बनता है उसे मी कहत हैं. अब इन पांचों के उदाहरण कहने हैं. प्रथम नामिक का उदतु हरण अश्व का देते हैं. अश्व इस प्रकार से एक नाम है इस को प्रकृति रूप स्थापन करके प्रत्ययों की संगेजना करनी चाहिये जैसे कि अश्वःअश्वौ अश्वाः. अश्व, अश्वौ अश्वान् यो सातों विभक्तियों के रूप चाहिये. इसी प्रकार पुस्प वृक्ष घट घटादि सर्व नाम प्रकृति रूप होने से उसी को प्रत्यय लगाने से पद बन जाने ह. यह नामिक का कथन हुवा. विवित नैपातिक खलु आदि निपात हैं. इन के अंबर्गत ही अव्यय प्रकरण है क्यों कि जो शब्द तीनों लिंगों सातों विभक्तियों और सर्व वचनों में एक समान रहे उसे शब्द की अव्यय संज्ञा होती है और निपात उस को कहते हैं कि जिस का सूत्रोंद्वारा | कुच्छ और रूप सिद्ध होता हो परंत निपात करके उस का वही रूप रखा जाय वही नैपातिक होता है. अब आख्यातिक पद का कहते हैं. जो पद क्रिया का बोधक है उस को आख्यातिक कहते हैं. जैसे कि धावति या क्रिया का पद होने से आख्यातिक है. यह भगन की क्रिया बताता है. इन के धावति, धावतः धावंति अन् पुरुष, धावसि, पाक्थः पावय, मध्य पुरुष; और धावामि, धावावः धावामः यह है। *प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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