Book Title: Anuyogdwar Sutram
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Page 358
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4+ प्रकाश समान साधु का मन सदैव निर्मल रहे. 2 आकाश समान साधु गृहस्थादि के अश्रय रहित रहे, 3 आकाश समान साधु ज्ञानादि सब गुनों के भाजन होवे, 4 आकाश समान साधु अपमान निन्दा रूप शीन ताप कर कुमलाये नहीं, 5 आकाश समान साधु वंदना परशंसाय रूप वृष्टी कर प्रफुलित (सुशी) नहीं होवे, 6 आकाश समान साधु दोष रूप शस्त्रकर चरित्राादे गुनका छेदन नहीं करे, और 7 आकाश सपान साधु पंचाचारादि अनंत गुन के धारक होवे. (6) तरुगण-वृक्ष के समान साधु होवे-१ वृक्ष समान साधु स्वयं शीत तापादि परिषह सहनकर आश्रिों को छ ही कांय जीवों को आश्रय भूत होवे. 2 वृक्ष समान साधु सेवा भक्ति पोषना करने वाले को ज्ञानादि गुन रूप फल देवे. 3 वृक्ष समान साधु चतुरगति में परिभ्रमण करने वाले जीव रूप पंथी को आधार भूत होंबे. 5 बृक्ष समान साधु दुःख निन्दा रूप वसूले से छेदन करने से रुष्ट होवे नहीं, 5 वृक्ष समान साधु प्रशंसा रूप चंदन चरचन से सतुष्ट होवे नहीं, 6 वृक्ष समान साधु ज्ञानादि गुन रूप देकर बदला लेना वांछे नहीं. और 7 वृक्ष समान शीत तापादि प्राणांत कष्ठ को प्राप्त होते भी संयम रूप स्वस्थान गेडे नहीं [7] भ्रमर भ्रमर समान साधु होवे-१ भ्रमर समान साधु आहार आदि ग्रहण करते दातार रूप फूल के दुःख देवे नहीं, 2 भ्रमर समान साधु गृहस्थ के घर रूप पुष्पों से अप्रतिबन्ध आहार आदि ग्रहण करे, o3 भ्रमर समान साधु बहुत घरों से थोडा 2 आहार आदि कर तप्त होवे, 4 भ्रमर समान साधु आहार ( *आदि अधिक प्राप्त हुढे संग्रह करे नहीं, 5 भ्रमर सामान साधु विनाबुलाये एकत्रिंशत्तम्-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थ मूल <280% प्रमाण विषय 48488 For Private and Personal Use Only

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