________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * अक्षीण मानसिया आदि लब्धि रूप औषधी के धारण करनेवाले होते हैं, 2 पर्वत समान साधु परिषद रूपी वायु से कम्पायमान नहीं होवे. 3 पर्वत समान साधु पशु पक्षी गरीब श्रीमान सब जीवों को आधारभूत होवे, 4 पर्वत समान साधु ज्ञानादि गुन रूप नदी को प्रगट करे. 5 मेरु पर्वत समान साधु सब जीवों में ऊंच गुण के धारक होते हैं, 6 पर्वत समान साधु ज्ञानादि रत्नों की खान होते हैं, और 7 पर्वत समान साधु शिष्य श्रावकादि मेखला कुंटों कर शोभते हैं. [3] जलण-आ समान साधु होवे-१ अग्नि समान साधु ज्ञानादि गुन रूप इंधन कर नहीं होवे, 2 अग्नि समान साधु तप तेज रूप लब्धि कर दीपे, 3 आग्नि समान साधु रूप कचरे को जलावे, 4 अग्नि समान साधु मिथ्यात्व अन्धकार का नाश करे, 5 अग्नि समान साधु भव्य जीवों रूप सुवर्ण को उपदेश ताप कर निर्मल करे, 6 अग्नि समान साधु, जीव और कर्म रूप धातु और मट्टी को अलग 2 करे, और 7 अग्नि समान शिष्य श्रावक रूप कच्चे वर्तन को पक्क करे. (4) सागर-समुद्र समान साधु होवे. 1 समुद्र समान साधु गंभीर होवें, 2 समुद्र समान साधु ज्ञानादि गुन रूप रत्नों के आगर होवे, 3 समुद्र समान साधु तीर्थंकर की बन्धी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करे, '4 समुद्र समान साधु उत्पातियादि बुद्धि रूपी नदीयों को अपने में समावे, 5 समुद्र समान साधु पाखंडीआदि रूप मच्छों के खलबलाट से क्षोभ नहीं पावे, 6 समुद्र समान साधु कभी झलके नहीं, ॐऔर 7 समुद्र समान साधु का हृदय सदैव निर्मल रहे. [5] नभतक-आकाश समान साधु हो *प्रकाशक-राजाबहादुर न्हाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी For Private and Personal Use Only