________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ago जलण सागर नहतल, तरुगणे, समो य जो होइ // भमर, मिय, घराण, जलरुह, रवि, पक्षण, समोय सो समणो // 5 // ते समणो जइसमणो, भावेणय जइए होइ पावणो // सभणेय जणेय समो, समोय माणावमाणे सु // 6 // से तं नो आगमतो काम समान सब जीवों को गिने उसे ही श्रमण-साधु कहना // 3 // किसी भी जीव के ऊपर जिस को राग द्वेष न हो इस क्षण से साधु होवे ऐप्ती अन्य भी पर्याय जानमा // 4 // अब साधु की 84 औपमा कहते है-१ सर्प समान, 2 पर्वत समान, 3 आम समान, 4 समुद्र समान, 5 आकाश समान, 6 वृक्ष समान, भ्रमर समान, 8 मग समान, 9 पृथ्वी समान, 10 कमल समान, 11 मुर्य समान, और 12 पवन समान. इन के समान जो गुन के धारक होवे वे ही निश्चय से श्रमण (साधु) जानना. * उक्त बारा ओपमा की ग्रन्थ कारने चौरासी ओपमा वर्णवी है बह इस प्रकार-[2] * उरग'-सर्प जैसे साधु होवे१ सर्प समान अन्य के लिये निष्पन्न किये मकान में रहे, 2 अगंधन कुल के सर्प समान वमन दिये विषय [ भोग] को पीछा ग्रहण नहीं करे, 3 सर्प के समान मोक्ष पंथ में सीधा जावे. 4 सर्प दिल में सीधा जावे त्यों साधु आहार का ग्रास सीधा पेट में उतारे, 5 सर्प के समान संसार रूप कांचली उतारी हुई पीछी धारण करे नहीं, 6 सर्प के समान साधु दीप रूपी कंकर कांट से डरे, 7 सर्प समान. लब्धिवंत साधु से देवादि भी डरते हैं. [2] 1 गिरी पर्वत समान साधु होवे- 1 पनि अनुयोगद्वार - एकत्रिंशत्तम Ego/> प्रमाण विषय 0 For Private and Personal Use Only