Book Title: Anuyogdwar Sutram
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Page 361
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - भावसामाइए // से तं भावसामाइए // से तं सामाइए // से तं नामनिप्फणे // 16 // से किं तं सुत्तालावग निप्फन्ने ? इयाणि सुत्तालावग निप्फन्ने निक्खेवे इच्छावेए सेअपत्तलक्षणेवि ण णिखप्पइ, कम्हाइ ? लाघवत्थं अस्थिइउ अग्गेततीए श्रमण उन ही को कहते हैं जो द्रव्य से तो समनिर्विकल्प सदा मर्यादित वेष के धारण करनेवाले हो और भाव से आर्तध्यान रौद्र ध्यान का त्याग कर धर्मध्यान शुक्ल ध्यान के ध्याता हो स्वजन-सांसारिक सम्बन्धी परजन अन्य लोगों दोनों में समवृत्तिवाले तथा सत्कार सम्मान में ब अपमान में समवृत्ति रखने वाले हों. सामायिक के भाजन साधु होने से इस लिये साधु के गुन कथन किये तथा यहां ज्ञान क्रिया रूप अध्ययन को आगम से भाव सामायिक तथा आगम से एक देश वृत्तिपने से और नो शब्द के देशवतीपने से यहां सामायिकवंत साधु को नो आगम से भाव सामायिकपने ग्रहण किये हैं. क्यों कि सामायक गुन है और जो गुन धारक हो सो गुनी. गुन और मुनी के अभेदोपचार युक्ति मिलती है // यह भाव सामायिक हुई और सामायिक का कथन हुआ तैसे ही नाम निष्पन्न सामायिक हुइ. // 16 // अहो भगवन् ! सूत्रालापक निक्षपक किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! सूत्रालापक है निष्पन्न निक्षेपे का अवसर प्राप्त हुआ आत्मा को कहने की इच्छा उत्पन्न होवे वह निक्षेप प्राप्त लक्षण उस का स्वरूप का आना परन्तु वह निक्षेपा निक्षेप नहीं क्यों कि लाघवता का अर्थ अथवा बारम्बार *प्रकाशक राजाबहादुर काला सुखदेवसहायजी-ज्वालाप्रसादजी. For Private and Personal Use Only

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