________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ 2010 एजोत्रिश-प-अनयोगद्वार मूत्र चतुर्थ मूल दोणि भणितिउ // जो जाणाही सोगाहीत्ति सुसिक्खिओ रंग मम्झंमि // 22 // भीयं, दुयं, मपिच्छं, उत्तालं व कमसो मुणेयध्वं // कागस्सरं मणुणासं, छद्दोसा होति गीयस्स // 23 // पुणरत्तं च अलंकियंच, वत्तं च तहेव विधुढे / महुरं समं सुललियं, अट्ठगुणा होति गीयस्स // 24 // उरकंठ सिर पसत्यं च, गिजंतो छंदो के तीन भेद और दो प्रकार की भाषा को जानता है. // 22 // गीत के गाने में षट् प्रकार के दोष होते हैं जैसे कि 1 भय सहित गाना, 2 शीघ्र 2 गाना. 3 श्वास होने पर गाना 4 ताल से विपरीत गाना, 5 कगवत् स्वर के होने पर गाना और नासिका में गाना / / 23 / गीत के गाने में अष्ट प्रकार के गुन निम्न प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं. जैसे कि 1 स्वर कला में प्रविणता, 2 राग में रक्तता 3 अलंकार सहित. 4 प्रगट वचन. 5 शुद्ध स्वर, 6 कोकिलावत् मधुर स्वर, 7 तालादि वादिंत्र सम स्वर, और 8 सललित स्वर हो. यही गीत के गाने के आठ गुन हैं. इन गुणों के साथ गीत गाने से गीत निर्दोष कहे जाते है. // 24 // प्रकारांतर से गीत शुद्धि का विवर्ण किया जाता है. जैसे कि उर, कण्ठ, शिर विशुद्ध होचे, मृदु गीत गाया जावे. चातुर्यता के साथ अक्षरों का संचारण किया जावे, पद धरचनाप होवे, फिर इस्तादि की वाल सम होवे. नृत्य करने वाले का प्रक्षेप ठीक होवे, इस प्रकार 484280 नाम विषय 4 80 For Private and Personal Use Only