________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 980 यव्वा, वेमापियाणं भंते ! केवतिया वेउब्विय सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा * पण्णत्ता तंजहा-बंडेलयाय मुक्केलयाय, तत्थेणं जे ते बंडेलया तेणं असंखेजा, असंखेनाहिं उसप्पिणी ओसप्पिणीहि अवहीरंती कालतो, खेत्ततो असंखेजाओ सेढीओ पयररस असंखेजति भागो, तासिणं सेढीणं विक्खभसूई अंगुलवितीय वग्गमूलं तत्तिय वग्गमूलं पडुपन्न अहवणं अंगुल ततीय वग्गमूल घणप्पमाणमेत्ताओ सेढीओ, मूकेलया जहा ओहिया आहारग सरीरा जहा नेरइयाणं, तेयग कम्मग सरीरा असंख्यात अवसर्पिणी उत्सर्पिणी बीत जावे यह कालसे. क्षेत्रसे प्रतरके असंख्यातवे भाग जितने आवे वह विषमपने अंगुलपमे दूसरी वर्गमूल तीसरे वर्गमूल साथ गिनने से जितने आकाश प्रदेश आवे उतने हुवे. 256 का वर्ग मूल को चार 2 दो साथ गिने 8 होवे. उस के खंड में वैमानिक का एक शरीर स्थापन करे तो वह भरा जावे. अर्थात् असंख्यात श्रेणि प्रतर के असंख्यात भाग. उस श्रेणि की विष्कम्भ श्रेणि के सूची अंगूल प्रमाण क्षेत्र की विष्कम्भ असंख्यात है परंतु असत्कल्पना से 256 का दूसरा वर्ग मूल 4 का तीसरा वर्ग मूल 8 होवे. अथवा अंगुल प्रमाण क्षेत्र तीसरा वर्ग मूर दूसरा। 7 रूप का जो घन प्रमाण वह 8 रूप का होवे, उस श्रेणि की विष्कम्भ सूची कहना. और मुकेरकका जैसा ॐ औधिक का कहा तैसा कहना. आहारक शरीर का जैसा नेरीये का कहा तैसा कहना. और तेजस* एकत्रिंशचम-अनुयोगद्वार सूत्र-चतुथ मल अर्थ 2380 प्रमाणका विषय 8888 For Private and Personal Use Only