________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मान श्री अमोलक पिजी + आरेणं आयभावे समोतरेइ, तदुभयसमोतारेगं तिरिएलोएसमोतरेइ, आयभावेय, तिरियलोए आयसमोतारेणं आयभावेसमोतरइ, तदुभयसमोतारेणं लोएसमोतरेइ आयभावेय,से तं खत्तममोयारेय॥७॥ से किं तं .कालसमोयारेय ? कालसमोयारे दुविहे पण्णते तंजहा-आयसमोआरेय, तभयसमोआरेय, समयआयममोतारणं तदभयसमो __ आरेणं आवलियाए समोतरंति, आयभावेय, एवं आवलिया, आणापाणु, थोवे, लवे, मुहुत्त, अहोरते, पक्खे, मासे. ऊऊ, अयणे, संवच्छरे, जुगेवा, वाससते, और उभय समवतार सो भरतक्षेत्र जंगद्रीषये समावे यह दोनोंको स्वयं भावमें प्रवर्ते. जंबूद्वीप अपने भावमें वर्ते वह आत्म समवतार और उभय समवतार तिरछे लोक में समवतरे. और दोनों अपने 2 स्वरूप में पवते. 3 तिरछा लोक अपने स्वरूप में प्रवते वह आत्म समवतार और उभय समवतार लोक में प्रवर्ते. यह दोनों अपने 2 स्वरूप में प्रवते. यह क्षेत्र समचतार हवा // 7 // अहो भगवन् ! काल समवतार किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! काल कतार दो प्रकार कहे हैं तद्यथा-आत्म रूपवतार और 2 उभय समवतार एक समय सो एक समय के काल मान स्वयं स्वयं के आत्या में प्रवर्ते उभय समवतार आवलिका में समावे क्यों कि आवळिका में असंख्यात समय होते हैं, दोनों अपने 2 भावमें आत्म भावमें है. यों आवलि का आत्म भाव तदुभय सो आणुपाणु में समावे, दोनों स्वयं 2 आत्म भावमें हैं. ऐसे ही है प्रकाशक-गजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* For Private and Personal Use Only