________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4000 एकत्रिंशत्तम-अनुयोगदार सूत्र-चतुर्थ मूल 488 पुव्वाणुपुब्बी ! उदईए, उवसमिए, खईए, ख उवसमिए,पारिणामिए, सन्निवाईए. से तं पुवाणुपुवी // से किं तं पच्छाणुपुब्बी ? पच्छाणुपुवी ! सन्निवाइए जाव उदईए, से तं पच्छाणुपुवी / से किं तं अणाणुपुब्बी ? अणाणुपबी एयाएचेव एगाइयाए एगुत्तरियाए छगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भामो, दुरूवृणो. से तं पुन्वी, से तं भावाणुपुब्बी // से तं आणुपुब्बी // आणुपुव्वीपद सम्मत्तं // 9 // // से किं तं करते हैं. अहो भगवन् ! भाव संबंधी पूर्वानपूर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! यह पुर्वान पट् पकार से वर्णन की गई है जैसे कि 1 उदयिक भाव, 2 उपशामिक भान. क्षायिक भव, ४क्षयोपशमिक भाव, 5 पारिणामिक भाव और 6 सनिपातिक भाव. यह पूर्वापूर्वी हु. अहो भावन ! पच्छानुपुर्वी किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! पच्छानुपूर्वी में सन्निपातिक भाव से उदायिक भाव पर्यंत गणना की गई है. यह पच्छानुपुर्वी हुई. अहो भगवन् ! अनानपूर्वी किसे कहते हैं ? अमो शिष्य ! बनानुपूर्वी में एक से छ पर्यंत एकेक की वृद्धि करते अन्योन्याभ्यास करके जो अं अवे उस में से हिला व अंत का अंक छोडकर शेष अंक को अनानी कहते हैं. यह भावान कायन हुवा. *यह अनानुपुर्वी का पद समाप्त हुवा // 14 // * / / अब नाम विषय में कहते हैं. अहो भगवन् ! नाम किसे 84880 मावानुपूर्वा का कथन 8 For Private and Personal Use Only