Book Title: Kavivar Budhjan Vyaktitva Evam Krutitva
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री महावीर ग्रंथ अकादमी - नवम पुष्प कविवर बुधजन व्यक्तित्व एवं कृतित्व [१२ वीं शताब्दी के जयपुर नगर के हिन्दी जैन कवि के जीवन, व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन द्वारा स्वीकृत शोध प्रबन्ध] लेखक एवं शोधकर्त्ता डा. मूलचन्द जैन शास्त्री एम. ए. पी-एच. डी. सनावद (मध्य प्रदेश) प्रकाशक : श्री महावीर ग्रंथ अकादमी जयपुर प्रथम संस्करण : जुलाई १६५६ बोरनिर्माण सं. २५१२ मूल्य ५००० Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निदेशक एवं प्रधान सम्पादक रा. कस्तूरचन्द कासलीवाल, जयपुर परम संरक्षक- स्वस्ति श्री भट्टारक घारूकीति स्वामीजी, मूविद्री संरक्षक-श्री साहू प्रशोक कुमार जैन, पहली श्री पूनम चव जैन, झरिया . श्री रमेश चन्द जैन (पी. एस. जैन), देहली श्री डी. धीरेन हेगडे, धर्मस्थल श्री निर्मल कुमार सेठी, लक्षमऊ श्री महावीर प्रसाद सेठो. सरिया (बिहार) श्री कमलचक कासलीवाल, जयपुर 1. (श्रीमती) सरयू बी. दोशी, बम्बई श्री पन्नालाल सेठो, कीमरपुर श्री रूपचन्द कटारिया, बेहली भी गलबन्न जैन, संसब सदस्य, सागर अध्यक्ष श्री शास्सिलाल जैन, कलकत्ता कार्याध्यक्ष-श्री रतनलाल गंगवाल, कलकत्ता सह संरक्षाक-श्रो कपूरचन्द भौसा, जयपुर, पज्मश्री पंरिता मुमतियाई जी सोलापुर । श्री नानगराम जन मोहरी, जयपुर, श्री राजकुमार सेठी सीमापुर उपाध्यक्ष सर्व श्री गुलाबचन्द गंगवाल रेनवाल, अजित प्रसाद जन ठेकेवार वेल्ली, कन्हैया लाल सेठी जयपुर, परमचन्द तोतूका जयपुर, त्रिलोक बन्द कोठारी कोटा, चितामणी जैन इम्बई, रामचन्द्र रारा गया, रतनलाल विनायच्या जोमापुर, महावीरप्रसाद नपस्या जयपुर, लेखचन्न माकलीवाल कलकत्ता, पदमकुमार जैन, नेपालगंज, सम्पत कुमार जैन कटक, ललित कुमार जैन उज्जैन, मोहनलाल अग्रवाल जयपुर, मदनलाल घम्टेवाला बेहली, रतमलाल विनायक्या, भागलपुर, डा. ताराचन्द बलशी जयपुर, रतनचन्द पंसारी अयपुर, शान्तिप्रसाद बैन नई दिल्ली, धूपचन्द पांड्या जयपुर, बिजेन्द्र कुमार सर्राफ वेहली, राजेन्द्र कुमार ठोलिया, जयपुर । प्रकाशक-श्री महावीर ग्रंथ अकादमी प्रतियां : ११०० ५६७, अमृत कलश, बरकत नगर किसान मार्ग, टोंक फाटक, जयपुर । मुद्रक.-मनोज प्रिन्टर्स, ७६६, गोंदीको का रास्ता, किशनपोल बाजार, जयपुर फोन : ६७६६७ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री महावीर ग्रंथ अकादमी-प्रगति चर्चा श्री महावीर ग्रंथ अकादमी की स्थापना का उद्देश्य सम्पूर्ण हिन्दी एवं राजस्थानी जैन साहित्य के प्रतिनिधि कवियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के मूल्यांकन के साथ उनकी विशिष्ट कृतियों को २० भागों में प्रकाशित करना है। इसके अतिरिक्त शोघानियों को दिशा निर्देशन एवं युवा विद्वानों को जैन साहित्य पर कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करना रहा है । मुझे यह लिखते हुए प्रसन्नता है कि दोनों ही दिशामों में वह निरन्तर आगे बढ़ रही है। अकादमीचार प्रस्तुत पुष्प सहित ६ पुष्प प्रकाशित किये जा चुके हैं तथा १० वें पुष्प की तैयारी चल रही है । इस तरह प्रकादमी अपने उद्देश्य में ५० प्रतिशत सफलता प्राप्त करने की दिशा में प्रयत्नशील हैं। इसी तरह अमृत कलश स्थित अकादमी कार्यालय में पोधार्थी विद्वानों का बराबर प्रागमन होता रहता है। अकादमी द्वारा प्रकाशित पाठवें भाग में मुनि सभाचव एवं उनके हिन्दी पद्मपुराण को अविकल रूप में प्रकाशित किया गया था। इस प्रकाशन के पूर्व कवि एवं उनकी रचना पद्मपुराण दोनों ही हिन्दी जगत् के लिये प्रज्ञात एवं प्रचित थे। पद्मपुराण हिन्दी का बेजोड काम ग्रन्थ है जो सीधी सादी एवं सरल भाषा में संवत् १७११ में लिखा गया था । यह महाकवि तुलसीदास की रामायण के समान अंन रामायण है । जो दोहा, चौपाई, सोरठा एवं प्रडिल्ल छन्दों में निबद्ध है । इस प्रकार मुनि सभाषद की इस रचना की खोज, सम्पादन एवं प्रकाशन का समस्त कार्य अकादमी द्वारा किया गया । इसके पूर्व के भागों में भी बाई अजीतमति, कवि धनपाल, भ, महेन्द्रकीर्ति, सांगु, मुलाखीचन्द, गारवदास, चतुरूमल एवं ब्रह्म यशोघर जैसे प्रज्ञात एवं प्रचित कवियों को प्रकाश में लाने का श्रेय अकादमी को जाता है । महाकवि ब्रह्म जिनदास का सांगोपांग वर्णन अकादमी के तृतीय भाग में प्रकाशित हो चुका है। मुझे तो यह लिखते हुए प्रसन्नता है कि अकादमी के इन सभी प्रकाशनों में आये हुए कवियों पर प्रब विश्वविद्यालयों में शोध प्रबन्ध लिखे जा रहे हैं जो अकादमी के उद्देश्य की महती सफलता है। प्रस्तुत भाग में कविवर बुधजन के जीवन, व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश हाला गया है । डा. मूलचन्द शास्त्री ने अपनी पी.एच.डी उपाधि के लिये बुधजन कवि को लिया और कवि के व्यक्तित्व पर विशद प्रकाश डालते हुए उसकी कृतियों का जो मूल्यांकन किया है वह निःसन्देह प्रशंसनीय है । उज्जन में पं. सत्यन्धर कुमार जी सेठी द्वारा प्रायोजित सेमिनार में जब शोघ प्रबन्धों के प्रकाशन की चर्चा भायी मौर डा. मूलचन्द जी ने अपने शोध प्रबन्ध के प्रकाशन की प्रावधयकता बतलायी जस Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (iv) समय हिन्दी कवि पर शोध प्रबन्ध लिखा होने के कारण मैंने तत्काल उसे अकादमी द्वारा प्रकाशित करने का प्रस्ताव रखा जिसका सभी ने समर्थन किया । शोध प्रबन्ध के प्रकाशन में थोडा विलम्ब भवश्य हो गया लेकिन अकादमी के प्रकाशनों का कार्यक्रम बन चुका था इसलिये उसे तत्काल हाथ में लेना संभव नहीं था। फिर भी अकादमी द्वारा शोध प्रबन्ध को नवम पुष्प के रूप में प्रकाशित करते हुए हमें प्रसन्नता है । अकादमी के १०वें भाग में १८वीं शताब्दि के पांच कवियों को चुना गया है 1 इनमें टीकम, नेमिचन्द, खुशालचन्द काला, किशनसिंह, एवं जोधराज गोदीका जैसे कवियों का विस्तृत परिचय एवं मूल्यांकन रहेगा । ये सभी कवि साहित्य गगन के जगमगाते सितारे हैं । प्रस्तुत नवम भाग के प्रकाशन में दि. जैन महासभा के अध्यक्ष माननीय श्री निर्मलकुमार जी सा. सेठी एवं श्री हुकमीचन्द जी सा सरावगी ने जो आर्थिक सहयोग देने का आश्वासन दिया है, मकादमी उसके लिये दोनों हो महानुभावों की आभारी है। सेठी सा. की अकादमी पर असीम कृपा है और वे अपने भाषणों एवं साहित्यिक चर्चा के प्रसंग में अकादमी के कार्यों की प्रशंसा करते रहते हैं । नये सदस्यों का स्वागत अष्टमभाग के पश्चात् जिन महानुभावों ने अकादमी की सदस्यता स्वीकार की है उनमें श्री ब्रिजेन्द्र कुमार जी सा. जैन सर्राफ देहली एवं श्री राजेन्द्रकुमार जी ठोलिया जौहरी जयपुर के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं। श्री विजेन्द्र कुमार जी देहली के लाल मन्दिर के प्रमुख पदाधिकारी हैं। वे अत्यधिक धार्मिक प्रवृत्ति एवं सरल स्वभावी हैं। समाज सेवा की बात उन्हें अपने पिताजी रघुवीरसिंह जी से प्राप्त हुई है | साहित्यिक कार्यों में आपकी विशेष रुषि रहती है । इसी तरह श्री राजेन्द्र कुमार जी ठोलिया जयपुर के प्रसिद्ध बन्जी टोलिया परिवार में जन्मे युवा समाज सेवी हैं । श्राप प्रत्यभिक विनम्र, मधुर भाषी एवं सरल स्वभावी हैं। प्रकादमी के नये उपाध्यक्ष के रूप में हम आप दोनों का हार्दिक अभिनन्दन करते है । अन्य सदस्यों में सर्व श्री निहालचन्द जी कासलीवाल बम्बई, कस्तूरचन्द जी सर्राफ कोटा, ज्ञानचन्द जी मंवरलाल जी सर्राफ कोटा, प्रकाशचन्द जी शान्ति लाल जी जैन सर्राफ कोटा, विजयकुमार जी पांड्या कोटा, रिखबचन्द जी जन कानपुर, मांगीलाल जी पहाड़े हैदराबाद, एवं श्री सुमेरचन्द जी पाटनी लखनऊ के नाम उल्लेखनीय है । श्रीमती चमेली देवी कोठिया धर्मपत्नी डा० दरबारी लाल जी कोठिया का निधन अकादमी परिवार की गहरी क्षति है । श्रीमती कोठिया अकादमी के उपाध्यक्ष पद पर थीं तथा अकादमी को साहित्यिक कार्यों के प्रति गहरी रुचि रखती थीं । आपने अकादमी को सर्व प्रथम सदस्य और फिर उपाध्यक्ष के पद की स्वीकृति ६ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (v) अपनी प्रन्तः प्रेरणा से दी थी। एक महिला के मन में साहित्य के प्रति इतनी लगन एवं प्राधिक सहयोग एक अनुकरणीय उदाहरण है । उनके निधन से हमें गहरी वेदना हुई है। उनकी प्रात्मा को शांति लाभ की कामना करते हैं। प्रादरणीय डा. कोठिया सा. से अकादमी पर अपना पूर्ववत स्नेह एवं वरद हस्त रखने का मनुरोध करते हैं। अमृत कलश में विद्वानों का पागमन प्रमत कला स्थित अकादमी कार्यालय में समाज एवं देश के विशिष्ट महानुभावों एवं विद्वानों का मागमन होता रहता है । जिनके पधारने से हमें भी कार्य करने को प्रेरणा मिलती रहती है तथा वे अपने सुझावों से हमें लाभान्वित करते हैं। ऐसे महानुभावों में पं. विमल कुमार जी जैन सौरया सम्पादक धीतरागवाणी, राजकुमार जी सेठी प्रकाशन मंत्री, दि. जैन महासभा, जवाहर तरुण एवं डा. अनिल कुमार जैन अंकलेश्वर, . अपनी प्रसाद शर्मा हवाई विश्वविद्यालय होनालूलू । डा. इन्दुराय लखनऊ, डा. भागवन्द भास्कर नागपुर एवं श्री अश्विनी कुमार जयपुर के नाम उल्लेखनीय हैं । हम अमृत कलश में पधारने के लिये सभी महानुभावों के पाभारी हैं। डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना किसी भी देश के साहित्य का जन्म शून्य में नहीं होता । लेखक मपने युग जीवन, परिस्थितियों से सवा प्रभावित होकर मुगधर्मी साहित्य की रचना करता है, किन्तु कुछ ऐसे भी साहित्यकार होते हैं जो तारकालिक युग, समाज तथा राजनैतिक परिस्थितियों से प्रभावापन्न होकर भी शाश्वत, चिरंतन सस्य का ही अंकन साहित्य में करते हैं। लोकोपकार से भी अधिक मात्मपरितोष की भावना उनमें अन्तनिहित रहती है । कविवर बुषजन एक ऐसे ही संत परम्परा के कवि थे, जो जानकपीएम की प्रत छवि का अन्तदर्शन कराना चाहते थे। फकिवर जिस युग में उत्पन्न हुए थे बह प्रकारहवीं शताब्दी का महत्त्वपूर्ण भाग था 1 इस समय तक महाराजा सवाई पृथ्वीसिंहजी राजस्थान के प्रमुख नगर जमपुर में भली-भांति राज्य-सिंहासन पर प्रारूढ़ हो चुके थे। उनके कुछ समय पश्नात् ही महाराजा सवाई प्रतापसिह विद्या-रसिक नरेश हुए। उन्होंने अमृतसागर, शतकत्रय मंजरी और बृजनिधि ग्रंथावली मादि कई ग्रन्थों की रचना की। उनके अनन्तर महाराजा सवाई जगतसिंह हुए । उनके स्वर्गवास के अनन्तर महाराजा सवाई जयसिंह (तृतीय) राज्य गद्दी पर प्रारुल हए । उनका शासन कास वि० सं० १८७५ पौषबदी ६ से १८९२ माह सुदी चतुर्थी तक माना जाता है। इनके ही शासनकाल में कविवर बुधजन ने अनेक रचनाओं का प्रणयन किया । स्वयं कवि ने अपनी रचनाओं में सवाई जयसिंह (तृतीय) तथा महाराजा रामसिंह (द्वितीय) का नामोल्लेख किया है, जिससे स्पष्ट है कि कवि ने इन दो नरेशों का शासनकाल अपने जीवन में देखा था । यद्यपि राजनैतिक दृष्टि से यह शान्ति-पूर्ण काल नहीं रहा, क्योंकि महाराजा सवाई जयसिंह के समय में काबुलियों ने उपद्रव किये थे, किन्तु कुल मिलाकर मालोच्यकाल में शान्ति रही । शासन में भी कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुए । जयपुर नगर को बसाने का श्रेय महाराजा सवाई जयसिंह (दितीय) को है। कवि की मालोच्यमान कृतियों के माधार पर यह अनुमानित किया गया है कि उनका जन्म वि० स० १८२० के लगभग एवं मृत्यु वि. स. १८६५ के पश्चात् हुई होगी। प्राप्त प्रमाणों के आधार पर यह निश्चित है कि इनकी प्रथम कृति का रचनाकाल वि० सं० १८३५ है । अतः यदि कवि ने १५ वर्ष की अवस्था में रचना प्रारंभ की हो तो भी उनका जन्म वि० सं० १५२० ठहरता है। इसी प्रकार उनकी अंतिम कृति "योगसार' भाषा का रचनाकाल वि० सं० १८६५ है । अतः उस समय Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (viii) तक वे जीवित थे। उसके बाद ही उनकी मृत्यु हुई होगी । ग्रतः मृत्यु तिथि वि० सं० १८६५ अनुमानित है । यह कवि की निम्नतम समय-सीमा है। अधिक से अधिक वि० सं० १८१५ से लेकर १६०० तक कवि का समय माना जा सकता है। क्योंकि उक्त समय (१८३५ - १८६५) कवि का रचनाकाल है । कविवर बुधजन उनको परंपरा में कई हिन्दी लेखकों तथा कवियों की लम्बी परंपरा प्रकाशमान होती है । जैन कवियों में पं० दौलतराम, चैनसुख, जैतराम, पारसदास, जवाहरलाल, जयचंद, पं० महाचंद और पं० टोडरमल आदि के नाम इतिहास का विवरण प्रस्तुत करने वाले भालेखों में यांकित है, किन्तु कविवर बुधजन का नाम इस प्रकार की सूचियों में नहीं मिलता है । इसका कारण यही प्रतीत होता है कि १९वीं शताब्दी के प्रारंभ में जब ये भालेख प्रस्तुत किये गये, तब तक हिन्दी नई चाल में ढल चुकी थी और इस परंपरा को विकसित करने वाले कवि अपनी साहित्यिक साधना से जन-मानस तक नहीं पहुंच सके थे फिर भठारहवीं शताब्दी में आध्यात्मिक चेतना को लेकर मँया भगवतीदास, पं० भागचन्ध, धानत राय भूधरदास, दौलतराम (द्वितीय) तथा चेतन कवि भादि अनेक जैन साहित्यकारों की एक दीर्घ परंपरा ही विलासमान होती रही। इस युग के अधिकतर जैन कवि अध्यात्म के रंग में रंगे हुए लक्षित होते हैं । अतः " कविवर बुधजन " भी उससे अछूते नहीं रहे। उनका मुख्य विवेच्य विषय ही तत्वार्थ या प्रध्यारम है ! १ यद्यपि प्रविधि संकलित जानकारी तथा प्रकाशित सूचियों के अनुसार कवियर बुधजन की रची हुई १४ रचनाएं ही उपलब्ध हो सकी हैं जिनकी सूची इस प्रकार है : (१) नंदीश्वर जयमाला ( वि० सं० १८३५) (२) विमल जिनेश्वर की स्तुति ( वि० सं० १८५० ) (३) वन्दना जखड़ी (वि० सं० १५५५ ) (४) छाला (वि० सं० १८५६ ) (५) बुधजन विसास (वि० सं० १८६० ) (६) दोषबावनी (वि० सं० १८६६ ) (७) जिनोपकार स्मरण स्त्रोत (वि० सं०) (८) इष्ट छसीसी (e) बुधजन सतसई (वि० सं० १८७६) (१०) तत्वार्थ बोध ( वि० सं० १८७६ ) (११) पदसंग्रह (वि० सं० १५००-६१ ) ( स्फुटपद ) (१२) पंचास्तिकाय भाषा ( वि० सं० १८६२ ) (१३) वर्द्धमान पुराण सूचनिका (वि० सं० १८९५) (१४) योगसार भाषा ( वि० सं० १८९५ ) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ix) मृत्यु महोत्सव, चमितक, सरस्वती पूजा और भक्तामर स्तोत्रोत्पसिकथा इन रचनामों को नामों का उल्लेख भी मिलता है । इन रचनामों में से मृत्यु महोत्सव और चर्चा शतक नाम की कोई पृथक् रचना प्राण तक लेखक के देखने में नहीं माई । कई जैनमन्ध मंडारों का निरीक्षण करने पर भी यह निश्चित नहीं हो सका कि इस नाम से कोई स्वतंत्र रचना कविवर द्वारा रचित है। ग. कामताप्रसाद जैन, डा० नेमिचन्द्र शास्त्री तथा पं० परमानन्द शास्त्री ने कवि की जिन रचनामों का उल्लेख किया है उनमें भी उक्त रचनाओं का उल्लेख नहीं किया गया है। हमारे विवार में मृत्यु महोत्सव तथा चर्चाशतक पद संग्रह (स्फुट पर) के ही श प्रतीत होते हैं । इसी प्रकार सरस्वती पूजा का समावेश "बुषजन विलास" में लक्षित होता है । अब केवल भक्तामर स्तोत्रोत्पति कथा ही रह जाती है। वास्तव में राजस्थान के जैन अन्य भंडारों की सूची में भूल से इस रचना का नाम मुद्रित हो गया है या फिर यह किसी अन्य कयि की ही रचना है। उक्त अध्ययन से यह स्पष्ट है कि पावि की १२ नोलिक स . अविस स्थना है। पं० परमानन्दजी शास्त्री ने तत्त्वार्थबोष को तत्वार्थसूत्र के विषय का पल्लवित अनुबाद माना है। परन्तु नाम सारस्य या विषम सादृश्य के माधार पर न तो हम उसे सस्वार्ष सूत्र का ही अनुवाद कह सकते हैं मोर न गोम्मटसार का, क्योंकि इसमें जन धर्म तथा सिद्धान्तों के प्राचार पर मुख्य रुप से सात तत्वों का तथा मंगभूत विषयों के रूप में लगभग एक सौ विषयों का वर्णन किया गया है । हां, यह अवश्य कहा जा सकता है कि रचनाकार की मुख्य शैली प्राचार्य उमास्वामी के तत्वार्थ सूत्र का अनुवर्तन करती है। मालोच्य कवि मूल में संत परंपरा के कवि थे। मध्यकालीन हिन्दी-संतकवियों की भांति कविवर बुधजन ने भी ज्ञानधारा में हुबफर निर्गुण, निरंजन, निराकार परमात्मा की विविध मनुभूतिमयी भाव छवियों का वर्णन किया है । एक संत कवि की भांति गुरु का महत्व भी उन्होंने गाया है। वे कहते है कि गुरु ने ही हमें शान-प्याला पिलाया है। मैं प्राज तक ज्ञानामत का रसास्वादन नहीं कर पाया था; पर भावों के रस में ही मतवाला था । प्रतः परमात्मा की सुष-युष नहीं थी। किन्तु गुरु कृपा से शानाभूत का पान करते ही मैं उस ज्ञानानन्द को उपलब्ध हो गया हूँ और इतना थक गया हूँ कि क्षणभर में ही समस्त बंजाल (संकल्पविकल्प) मिट गये हैं। अब मैं ध्यान में मग्न होकर अद्भुत प्रानन्द-रस में केलि कर रहा हूं। कविवर ने स्थान-स्थान पर स्वारमानुभूति तथा अनस गुणशान से भरपूर परमात्मा-राम का स्मरण किया है। वे यह भी कहते है कि मेरा सांई मुझ में ही है । वह मुझ से मिल नहीं है । जो उसे जानने वाला है, वही जानता है । बह धनंत दर्शन, अनंतशान, अनन्त सुख और मनन्तशक्ति का धारक है, वह ज्ञायक है । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस प्रकार प्रखंड द्रव्य अपने गुणों से और पर्यायों से युक्त है । गंधकुटी में जैसे सर्वनदेव शोभायमान होते हैं वैसे ही एक प्रखंड चिदानन्द चतन्य स्वरूप, विज्ञानधन-स्वभाषी मेरा परमात्मा मुझ में विलसित है । इतना ही नहीं, कविवर ने भरम का विनाश करने के लिये और तत्व को प्रकाशित करने के लिये जिनवर के चरणों की शरण ग्रहण की है और उनके ही प्रसाद से अपने ग्रानको जायक माना है सथा परको व शरीरादि को जड़ जाता है । स्व-संवेदगम्य, ब्रह्मानुभूति स्वरूप, प्रात्मानुभव का वर्णन करता हुमा कवि कहता है प्राज निजपुर में (प्रात्मा मे) होली मची है । पानन्द से उमगकर सुमति रूपी गौरी (जीवात्मा) चिदानन्द परमात्मा के भाने का उत्सव मना रही है । प्राज सभी प्रकार की लोकलाज को छोड़कर ज्ञानरूपी गुलाल से अपनी झोली भरकर होली खेलने के लिये सम्यकस्वरूपी केशर का रंग धोलकर चारित्ररूपी पिचकारी छोर रही है । तस्मरण ही मजपा-गान होने लगा और अनहद नाद की झड़ी लग गई। कविवर बुधजन कहते हैं कि स्वयं उस ग्रानन्द धारा में निमज्जित होकर अलौकिकता का बेदन करने लगा हूं। हिन्दी साहित्य के क्रमिक विकास में जैन साहित्यकारों ने पर्याप्त योगदान दिया है । उन्होंने हिन्दी साहित्य को सदा आध्यात्मिक, साहित्यिक, सामाजिक एवं नैतिक पृष्ठभूमि में तष्ठित कि उनके साहि ने जामात्रकार में भ्रमित प्राणियों का दिशा निर्देशन कर ज्ञान प्रालोक प्रदान किया । हिन्दी के मुर्वन्य जैन कवियों में सरलता से बुधजन का नाम लिया जा सकता है। सरलता मोर सादगी, सतत अध्यवसाय और चितन उनके जीवन के अभिन्न अंग थे। उनकी रचनामों में भी हम सरलता (प्रसाद गुण) और भव्यता की झांकी देख सकते हैं। इस प्रतिभा शाली साहित्यकार के विषय में डा० नेमिचंद्रजी ज्योतिषाचार्य, आरा, डा. कस्तुर चन्दजी कासलीवाल, जयपुर, डा राजकुमारजी जैन, प्रागरा, डा० रामस्वरूप प्रादि ने कविवर बुधजन के सम्बन्ध में प्रकरणवश संक्षेप में प्रकाधा डाला है किन्तु उनके विवेचन से कविवर बुधजन की महत्ता एवं रचना कौशल का हिन्दी जगत को यथावत परिझान नहीं हो सका ।। महापंडित राहुल सांकृत्यायन, प्राचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डा. हीरालाल जैन, डा० वासुदेवपारण अग्रवाल प्रादि विद्वानों के शोषपूर्ण लेखों के परिणाम स्वरूप एवं उनकी इस स्वीकारोक्ति के कारण कि हिन्दी साहित्य का इतिहास जैन साहित्य के अध्ययन मनन के बिना अपूरण एवं पंगु ही रहेगा,"आज भी मनन, चितन के लिये प्रेरणाप्रद है। हिन्दी साहित्य का अध्ययन करने पर एक बात सदा मन को कचोटती रही कि अनेक जैन कवियों एवं साहित्यकारों ने सोलहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक हिन्दी साहित्य की पर्याप्त सेवा की, तथापि उनकी रचनामों को साम्प्रदायिक कहकर साहित्य की कोदि में नहीं लिया गया। इसका विवेचन तथा विश्लेषण करना Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xi) मेरी प्रनाः प्रेरणा का स्रोत रहा है । मेरी हार्दिक इच्छा विगत कई वर्षों से थी कि मैं कुछ कार्य करू, परन्तु ऐसा करने का सिलसिला तब तक जम न सका । सौभाग्य से इन्दौर में साक्षात्कार होने पर पादरणीय डा. देवेन्द्रकुमारजी शास्त्री, नीमच ने मेरा उत्साह बढ़ाया एवं प्रेरित भी किया एवं श्रद्धय गुरुवर्य पं. नायूलाल जी शास्त्री, संहिसासूरि इन्दौर ने मुझे शुभाशीर्वाद दिया । उक्त शोष प्रबंध में डा. देवेन्द्रकुमारजी शास्त्री ने मुझे जितना संभाला है, उनके प्रति कृतज्ञता करना धृष्टतामात्र होगी। उनके पवित्र निर्देशन में यह मोध कार्य पूर्ण हुन्मा है । वे निःसंदेह एक प्रादर्श निर्देशक हैं। यदि भक्टर साहब की प्रेरणा एवं निर्देशन प्राप्त न होता तो मैं भी हूँढारी (राजस्थानी) लोकभाषा के माध्यम से विक्रम की १६ वीं शताब्दी में हिन्दी साहित्य की सेवा करने वाले भनेक ग्रंथों के रचयिता कविवर बुधजन के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर शोधकार्य करने को उद्यत न हपा होता । प्रस्तुत गोध-प्रबंध में कविवर बुधजन को प्राप्त सभी रचनात्रों और उनकी जीवनी का अध्ययन एवं मंधन करने का प्रयत्न किया गया है । कवि की जीवनी एवं रचनाओं में मौलिक तत्वों की गवेषणा के साथ विभिन्न सामाजिक, राजनैतिक एवं धार्मिक प्रभावों को स्पष्ट करना रहा है । अन्तक्ष्यि और बहिसाक्ष्य के प्राचार पर कवि का काल निर्णय किया गया है । आज का हिन्दी सेवी संसार अन हिन्दी पदकारों की भध्यात्म रसमयी काव्य धारामों में अवगाहन कर ब्रह्मानंद सहोदरी रसानुभूति करे और इस उपेक्षित धारा का भी भारती माता के मंदिर में यथोचित समादर प्राप्त हो, मुख्यत: हमारी यही दृष्टि है । कविवर बुधजन की रचनाओं में उनका जीवन त्यागमय, संयत्त, अध्यात्मपरका एवं मानक्म से प्रोतप्रोत परिलक्षित होता है। उनकी उज्जवल रचनाएं उनके हृदय की उप्रवलता का प्राभास देती है। उनकी रचनाओं के अध्ययन से स्पष्ट है कि पर्याप्त अध्ययन-मनन के बाद ही लिखी गई है। कवि की अध्यात्म प्रधान रचनाएं जनहित के शाश्वत पाथेय होने के कारण वर्तमान में तया मावी पीढ़ी के लिये भी सदैव एक आदर्श प्रकाश स्तम्भ का कार्य करेंगी । वे बहुश्र त विद्वान थे । वे अपनी विद्धता एवं रचना चातुर्य के कारण हिन्दी के साहित्य-जगत् में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनका नाम हिन्दी साहित्य जगत् में संभवतः इसलिये प्रसिद्ध नहीं हो सका क्योंकि उनकी अधिकांश रचनाएं भप्रकाशित थीं। उन्होंने अपनी रचनामो के लिये तत्कालीन लोक भाषा ठूढारी (राजस्थानी) को चुना था जो उस समय जमपुर क्षेत्र की लोक भाषा थी। प्रस्तुत शोध प्रबंध के प्रथम अध्याय में ऐतिहासिक, राजनैतिक एवं तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के साथ-साथ साहित्यिक गतिविधियों पर विचार किया Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xii) गया है। द्वितीय अध्याय में अन्त: बाह्य प्रमाणों से पुष्ट कवि की जीवनी प्रस्तुत की गई है एवं कवि की समस्त रचनाओं की प्रामाणिकता की चर्चा की गई है। तृतीय अध्याय में कृतियों का भाषा विषयक एवं साहित्यिक अध्ययन एवं वस्तु पक्षीय विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है । चतुर्थ अध्याय में हिन्दी साहित्य के विकास में बुधजन का योगदान हिन्दी के कतिपय कवियों की रचनामों से उनकी रचनाओं की तुलना एवं उनकी भक्ति भावना पर विचार प्रकट किये गये हैं। ___ शोष के समय न तो कवि का प्रामाणिक चित्र ही उपलब्ध हुमा और न उनकी मुत्यु की निश्चित तिमि ही उपलब्ध हुई। उनके जन्म स्थान के सम्बन्ध में भी विशेष जानकारी उपलब्ध न हो सकी। लेकिन कविवर बनारसीदास एवं पं० टोडरमलजी के समान कनि का जीवन अन्तद्धन्दमय नहीं रहा । वे एक साधारण धार्मिक प्रकृति के सदगृहस्थ व्यक्ति थे । बनारसीदासजी एवं टोडरमलजी की तुलना में उनकी रचनाओं में अध्यात्म का विस्तृत विवेचन नहीं है, परन्तु भाव की व्यंजना अवश्य सघन है, जिससे कविवर के व्यक्तित्व का सहज में ही प्राकलन किया जा सकता है । __ कविवर बुधजन की रचनाओं के लगभग २८० पृष्ठों का अध्ययन कर लिया गया है । उनका साहित्यिक जीवन विक्रम संवत् १८२० से १८६५ तक का उन्हीं की कृतियों के आधार पर निश्चित होता है । ७५ वर्ष के अपने साहित्यिक जीवन में उन्होंने लगभग १४ रचनाओं का सृजन किया जो एक महान् उपलब्धि है । प्रस्तुत शोष प्रबंध में कवि का जीवन-परिचम, व्यक्तित्व, साहित्यिक कृतित्व एवं जमकी प्रतिनिधि रचनात्रों पर प्रकाश डालते हुए हिन्दी साहित्य में उनके स्थान को मूल्यांकन करने का प्रयरन रहा है। कवि के समस्त साहित्य का मनुशीलन करने के पश्चात् हम देखते हैं कि उनका समस्त साहित्य पद्यमय है एवं देशी भाषा में है। विविध रचनामों के अवलोकन से यह भी स्पष्ट जात हो जाता है कि उनका प्रतिपात्र मुख्यत: प्राध्यास्मिक विवेचन है। उनके मौलिक ग्रन्थ उनके अनुभवों तथा तत्वचितन को प्रतिफसित करते हैं । उनके टीका ग्रन्थ भी मात्र अनुवाद नहीं हैं, उनका चितन वहाँ भी जाग्रत है। ३३० भवानी रोड सनावद मा. मूलचन्द शास्त्री Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान सम्पादक की कलम से हिन्दी भाषा के विकास में जैनाचार्यों, सन्तों एवं कवियों का योगदान प्रत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । जन कवियों ने पहिले अपनश के रूप में प्रौर फिर हिन्दी के रूप में ८ वीं शताब्दि से ही रचनायें लिखता प्रारम्भ कर दिया था। राजस्थान के जैन ग्रंथागारों में उनके द्वारा निबद्ध हिन्दी ग्रंथों की हजारों पाण्डुलिपियों के प्राज मी दर्शन किये जा सकते हैं । लेकिन हिन्दी साहित्य के इतिहास में उनकी सबसे अधिक उपेक्षा हुई और प्राज भी उनको उत्तना स्थान नहीं मिल रहा है जितने स्थान की ये रचनाएं अधिकारी है। श्री महावीर ग्रंथ अकादमी की स्थापना समस्त हिन्दी जैन साहित्य को २० भागों में प्रकाशित करके उन्हें हिन्दी जगत् के समक्ष प्रस्तुत करने के उद्देश्य से की गयी है। यद्यपि २० भागों में समस्त हिन्दी कवियों एवं उनकी कृतियों को समेटना कठिन है फिर भी हिन्दी के प्रतिनिधि जैन कवियों का परिचय, मूल्यांकन एवं उनके काव्यों के मूलपाठ प्रकाशित किये जा सकेंगे ऐसा हमारा इढ़ विश्वास है। बुधजन ऐसे ही कवि हैं जिनके नाम से तो हम परिचित हैं। कभी-कभी उनके द्वारा रचित पदों को भी गाकर अथवा सुनकर हर्षित होते हैं लेकिन कवि के जीवन से एवं उसकी दूसरी कृतियों से हम प्रायः अपरिचित हैं। डा. मूलमन्द शास्त्री ने ऐसे कवि पर शोष कामं करके प्रकादमी के कार्य को हल्का कर दिया है । जिसके लिये हम उनके पूर्ण आभारी हैं। बुधमन जयपुर नगर के कवि थे। वे महापंडित टोडरमल एवं दौलतराम कासलीवाल के बाद में होने वाले कवि हैं। उनके समकालीन साथियों में पं. जयचन्द छाबड़ा, ऋषभदास निगोत्या, पं. केशरीसिंह, जोषराज कासलीवाल, पं. उदयचन्द, पं. सदासुन कासलीवाल, पं. मन्नालाल पाटनी, नेमिचन्द, नन्दलाल छाबड़ा आदि के नाम उल्लेखनीय है । ये सभी कवि जयपुर नगर के थे। जयपुर के बाहर राजस्थान, आगरा, देहली आदि में और भी कवि हुए हैं । लेकिन उनमें से किसी भी कवि ने बुधजन के बारे में कुछ नहीं लिखा । स्वयं बुषजन भी पं. जयचन्द छाबड़ा मनालाल पाटनी, नेमिचन्द के अतिरिक्त प्रपने दूसरे साथियों के बारे में मौन ही रहे। कवि का पूरा नाम बुद्धीवाद, बधीचन्द प्रथवा भदीचन्द था । बुधजन तो उन्होंने काष्यों में लिखने, पदो में लिखने के लिये रख लिया था। ये बज गोत्रीय खम्मेलबाल जाति के श्रावक थे। इनके पूर्वज पहिले प्रामेर में फिर सांगानेर में और Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xiv) अन्त में जयपुर आकर रहने लगे थे। उनके पिता का नाम निहालचन्द था । वे सोभावन्द के पौत्र एवं पूरणमल के पुत्र थे। उन्हीं के वंश में होने वाले प्रोफेसर नवीन कुमार जी बज ने जो अपनी वंशावली दी है वह पूरी की पूरी अलग से दे दी गयी है। कमि का जन्म, लालन पालन, शिक्षा दीक्षा, प्रादि के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता । प्राज भी जैसे हम हमारे इतिहास को कोई महत्व नहीं देते वसे उस युग में हमारे पूर्वजों की यही भावना रही होगी। कवि ने अपनी प्रथम कृति संवत् १८३५ में निबद्ध की थी । डा. शास्त्री ने कवि का समय संवत् १८२० से १८९५ तक का माना है । इसलिये जब वे १५ वर्ष के थे तभी उन्होंने लिखना प्रारम्भ कर दिया जो उनकी प्रखर बुद्धि का परिचायक है । कवि ६० वर्ष तक प्रर्थात् जीवन के अन्तिम क्षण तक जिनवाणी की सेवा में लगे रहे और एक के पश्चात् दुसरे ग्रंथ का निर्माण करते रहे । वे स्वयं संगीतज्ञ थे इसलिये उन्होंने संकडों पदों की रचना की थी। दूषजन राज्य सेवा में थे प्रथवा व्यापार मादि करते रहे इसका भी कहीं उल्लेख नहीं मिलता लेकिन उस समय भी जयपुर के अधिकांश जैन बन्धु राज्य सेवा में रहते थे इसलिये कवि भी किसी न किसी पद पर कार्य करते होंगे । तत्कालीन दीवान अमरचन्दजी का उनसे विशेष स्नेह था इसलिये यह भी संभव है कि कवि दीयान प्रमरचन्द जी के यहां कार्य करते होंगे। पंचास्तिकाय भाषा में उन्होंने दीवान अमर चन्द का निम्न प्रकार उल्लेख किया है संगही अमर बन्द दीवान, मोकू नहीं दयावर आन । पंचास्तिकाय की भाषा रयो, तो अघ हरो धर्म विस्तरो ॥१७॥ कवि ने अपने जीवन काल में पांच राजापों का राज्य देखा था। वे उस समय पैदा हुये थे जब जयपुर जैन समाज एक मोर राज्य के भय से आतंकित था। शैव एवं जैनों के झगड़े, मन्दिरों की लूटपाट प्रायः प्राम बात थी। दूसरी पोर तेरहपथ बीस पंथ के झगहों ने समाज को दो भागों में विभक्त कर दिया था । समाज में एक ओर महापंडित टोडरमल जसे तेरहपंथी विद्वान थे तो दूसरी पोर सुरेन्द्र क्रीति भट्टारक एवं उनके समर्थक पं. बस्तराम शाह जैसे बीसपंथ का प्रचार कर रहे थे । लेकिन जब वे वयस्क हुये होंगे तब सभी प्रोर शान्ती थी। प्रशान्त वातावरण से उन्हें जुझना नहीं पड़ा । स्वयं कवि तेरहपंथी थे लेकिन उन्होंने अपनी कृतियों में किसी पंथ का समर्थन नहीं किया क्योंकि वे दोनों ही समाजों में लोकप्रिय थे। बुधजन साहित्यिक प्रतिभा के धनी थे । काव्य रचना उनके स्वभाव में समा गया था ।एक पोर वे भक्त कवि के रूप में अपने आपको प्रस्तुत करते हैं तो दूसरी मोर प्रारमा की अघी उड़ान भरते हैं। उनकी प्रमुख रचनाश्नों में छहढाला, Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xv) बुधजन सतसई, योगसार भाषा, पंचास्तिकाय भाषा एवं ढेर सारे पद हैं जिनमें कषि ने अपनी प्रास्मा ओल कर रख दी है। हमने अभी तक बुधजन के महत्व को स्वीकारा ही नहीं। अत्यधिक सरल हृदय काव थे। अपना मन्तरात्मा की भावान पर उन्होंने जो कुछ लिखा है वह ऊंचाइयों को छूने वाला है। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में शोधकर्ता ने उनकी तुलना कबीर, तुलसी, मृद एवं सूरदास से की है वह एक दम तथ्यपूर्ण है। बुधजन १६ वीं शताब्दि के प्रतिनिधि कवि थे। गद्य एवं पत्र दोनों पर उनका समान अधिकार था । डा. शास्त्री ने उनकी जितनी रचनाओं के नाम गिनाये हैं यदि राजस्थान के शास्त्र भण्डारों की गहन खोज की जावे तो इनमें और भी नाम जुड़ सकते हैं । कवि ने विलास, बावनी, छत्तीसी, पल्पीसी, शतक संशक रचनायें लिखी और अपनी प्राध्य प्रतिभा का परिचय दिया। वे एवं उनकी कृतियां इतनी अधिक लोकप्रियता प्रारत करने में सफल हुई है कि रपना समाप्ति के कुछ समय (श्चात् ही उनकी प्रतियां अन्य शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत की जाने लगी । छहढाला की प्रति अपने निर्माण काल के कुछ ही महिनों पश्चात् तो टोडारायसिंह जैसे दुर नगर में पहुंच गयी । इसी तरह बुधजन विलास अंसी बड़ी एवं महत्त्वपूर्ण कृति भी अपने निर्माण काल के कुछ ही महिनों में तो भरतपुर, कामां एवं अन्य नगरों में प्रतिलिपि की जाकर पढ़ी जाने लगी। इस प्रकार १५० वर्ष पूर्व समाज में नयी. नमी कृतियों को पढ़ने की कितनी इच्छा रहती थी यह इन घटनाओं से जाना जा सकता है। डा० मूलचन्द जी ने कवि की कृतियों का भाषा, भाव एवं शिल्प की रष्टि से गम्भीर अध्ययन प्रस्तुत किया है । इसके लिये शास्त्री जी बधाई के पात्र हैं । वास्तव में जैन कवियों की अधिकांश कृतियां काव्यगत सभी गुणों से प्रास्तावित रहती हैं । उन में वे सभी गुण विद्यमान रहते हैं जो किसी भी अच्छी कृति में होने चाहिये । अकादमी द्वारा प्रकाशित पिछले पाठ पुष्पों में जितनी कृतियां प्रस्तुत की गयी हैं वे सभी साहित्यिक इष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं | कविवर बुधजन भी इस पक्ष में खरे उतरे है। राजस्थान विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के रीडर डा० शाम्भूसिंह जी भनोहर ने प्रस्तुत पुस्तक पर अपने दो शब्द लिखे हैं इसके लिये हम उनके पूर्ण आभारी हैं । डा. मनोहर बहुत ही खोजी विज्ञान हैं तथा जैन साहित्य के योगदान की सबब प्रशंसा करते हैं। श्री नानगरामजी जैन जोही जयपुर ने जो अकादमी के सह संरक्षक हैं, दो शब्द लिखने की कृपा की है हम उनके भी पूर्ण माभारी हैं। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xvi) मन्त में मैं उन सभी विद्वानों, शास्त्र भण्डारों के व्यवस्थापकों एवं प्रोफेसर नवीन कुमार जी बज का प्रभारी जिन्होंने कविवर बुधमन को प्रकाश में लाने में हमें पूर्ण सहयोग दिया है। नवीन कुमार जी हमारे कवि के वंश में हैं तथा राजस्थान विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं वे भी समाजशास्त्र के प्रवक्ता है। डा. मूलचन्द जी शास्त्री का भी मैं प्रत्याधिक भाभारी हूं जिन्होंने मपना शोध प्रबन्ध मकादमी को प्रकाशनार्थ दिया । इस शोध प्रबन्ध में छहळाला एवं सतसई के पाठ नहीं थे वे हमने इसमें और जोड़ दिये जिससे पाठकों के कवि मुल अंघों को भी पढ़ने का अवसर प्राप्त हो। इस बार प्रूफ रीटिंग का अधिकषि कार्य श्री महेशचन्द्र जी जैन ने किया है इसलिये उनका भी मैं हृदय से आभारी हूँ। डा. कस्तूरबम्ब कासलीवाल प्रमृत कलषा, बरकत नगर जयपुर ५-७-८६ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक विद्वद्वर डॉ. कस्तुरचंदजी कासलीवाल के दुष्यपूर्ण निदेशन में महावीर- अकादमी जयपुर द्वारा राजस्थान के जैन कवियों की भप्रकाशित रचनाओं को प्रकाशन खला में एक और नई और महत्वपूर्ण कड़ी जुड़ी है- 'कविवर बुधजन: व्यक्तित्व और कृतित्व' जिसके लेखक सम्पादक हैं-डॉ. मूलचन्दजी शास्त्री । डॉ. मूलचन्दजी का यह शोध प्रबंध है, जिस पर विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन ने उन्हें पी. एच. डी. की उपाधि से अलंकृत किया है। कविवर बुधजन १६वीं शताब्दी के जैन कवि थे, जिन्होंने जयपुर के दो राजाओं - जयसिंह (तृतीय) और रामसिंह का राज्यकाल देखा था । जैसा कि जैन कवियों की परम्परा रही है, कविसर बुधजन ने भी अपने समय की प्रचलित जनभाषा में काव्य रचना की । वस्तुतः इस अनूठी परम्परा के प्रवर्तन का श्रेय भगवान् महावीर को हैं, जिन्होंने प्रपनी जनपदीय भाषा में धर्मोपदेश कर यह सिद्ध कर दिया कि धर्म का बिरवा साहित्यिक भाषा के 'कूपजल' से नहीं, अपितु लोकगिरा के 'बहते नीर' से सिंचित होकर ही जन-जन के लिए फलदायी होता है। धर्म को लोक मानस में प्रतिष्ठित करने तथा उसे लोक जीवन का अंग बनाने के लिए लोक भाषा ही सर्वोत्तम माध्यम है। शास्त्रीय भाषा में उपदिष्ट धर्मोपदेश यदि कल्पतरु हैधरती से ऊपर उठा हुआ तो लोकभाषा में प्रचलित धर्म कल्पलता है। धरती पर प्रसरित, तः सर्वसुलभ ! कविवर बुधजन सहित राजस्थान के जैन कवियों ने लोक भाषा में साहित्य रचना कर धर्म की इसी कल्पलता को सर्वसुलभ किया है। इस दृष्टि से इन न कवियों ने न केवल जैन-धर्म की ही महती सेवा की, श्रपितु श्रपने समय की जनभाषा को साहित्य-सृजन का एक सशक्त माध्यम बनाकर राजस्थानी भाषा और साहित्य की समृद्धि में भी स्तुत्य योगदान दिया है । डा. मूलचन्दजी ने विवेच्य कृति में इस श्रद्यावधि प्रज्ञात कषि के व्यक्तित्व और कृतित्व का साङ्गोपाङ्ग विवेचन करते हुए एक प्रत्यन्त प्रामाणिक, गंभीर एवं विद्वत्तापूर्ण अध्ययन प्रस्तुत किया है। विवेचन की इस प्रक्रिया में विद्वान् लेखक ने अपने को एकान्ततः कवि की रचनायों तक ही सीमित न रख पृष्ठ भूमि के रूप में, जैन कवियों की सुदीर्घ साहित्य सेवा एवं यशम्बी काव्य-परंपरा पर भी प्रकाश डाला है, जिसके फलस्वरूप उसका यह शोध प्रबंध भारतीय वाङमय में जैन - काव्य-धारा के महत्व का बोध कराने की दृष्टि से भी उपादेय हो गया है । युग पर परिस्थितियां शीर्षक प्रथम खण्ड में जैन कवियों के इसी ऐतिहासिक योगदान का सम्यक् मूल्यांकन करते हुए लेखक ने तदयुगीन परिस्थितियों का Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xviii) सारगभित विवेचन-विश्लेषण किया है । जीवन-परिचय खण्ड के प्रतर्गन लेखक ने कवि का प्रामाणिक जीवन-वृत्त प्रस्तुत करते हुए उसके व्यक्तित्व की बहुमुखी विशेषलानों को मत्यन्त चारुता के साथ उभारा है । कयि की निस्पृह वृत्ति, धार्मिक भावना, सात्विक जीवन-चर्या तथा पारमार्थिक साधना जहां उसके व्यक्तित्व को प्राध्यात्मिक महिमा से मंडित करती है, वहां नि:स्वार्थ भाव से प्रेरित उसका लोकोपकारी एवं समाज सेवी रूप उसके व्यक्तित्व के सामाजिक पक्ष के प्रति हमारी श्रद्धा जगाते हैं। साथ ही, बुधजन एक कुशाल गायक एवं सरस्वती के अनन्य आराधक भी थे। डा. मूलचन्दजी ने कवि के व्यक्तित्व के इन्हीं सब मायामों को प्रपनी अशेष महत्ता के साथ उजागर किया है। प्रस्तुत कृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण माग कवि-कृतित्व के परिचय तथा उसके मूल्यांकन से सम्बद्ध है । लेखक ने कवि द्वारा प्रसीत सभी रचनाओं का, जो छोटी-बड़ी कुल मिलाकर १७ हैं, उनके रचनाक्रमानुसार परिचय देते हुए साहित्यिक दृष्टि से विशद् मूल्यांकन किया है। इसके अन्तर्गत इन रचनामों के भाषा, शिल्प व भावपक्षीय विश्लेषण के साथ-साथ इतका तुलसा सिचर भी पालत लिया गया है । इस सम्बन्ध में, विद्वानू लेखक ने काव्य के पारंपरिक प्रतिमानों के प्राधार पर कवि के रचना-वैशिष्टय का मूल्यांकन करते हुए यत्र-तत्र अपनी मौलिक अतरष्टि का मी परिचय दिया है। उदाहरणतः उसने साहित्य को व्यापक अर्थ में ग्रहण किए जाने पर बल देते हुए मह सर्वथा उचित ही कहा है कि भारतीय मनीषा ने कमी भी साहिरम को संस्कृति से विमिछल कर नहीं देखा है । प्रतः संस्कृति के प्रारण. भूत तत्व-धर्म और दर्शन को साहित्य' से बहिर्गत नहीं किया जा सकता । यही कारण है कि हमारे प्राचीन साहित्य, विशेषत: संत व भक्ति-साहित्य में जीवन के पारमाथिक लक्ष्य की प्राप्ति का सन्देश है, उच्चतम नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा है, जीवन के शाश्वत सत्यों का उद्घोष है । यह मात्र अनुरंजनकारी साहित्य नहीं, अपितु कालजयी चेतना का चिरन्तन मालेख है ! हमारा कृत्स्न भक्ति-साहित्प ऐसा ही मूल्य धर्मी साहित्य है, जिसका सम्यक् महत्वांकन हमारे इसी सांस्कृतिक संदर्भ एवं प्राध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में संभव है। डा. मूलचन्दजी शास्त्री ने साहित्य की इसी व्यापक अवधारणा के प्राधार पर कविवर बुषजन के कृतित्व का मूल्यांकन कर उसे साहित्य के साथ-साथ धर्म और दर्शन की गौरवमयी पीठिका पर भी प्रतिष्ठित किया है, जो निश्चय ही अभिनंद्य है। प्राशा है, विद्वत् समाज, शारदा के निर्माल्म-रूप महाबीर-प्रन्ध-अकादमी के इस है वे पुष्प को अपनी मजलि में समोद धारण करेगा ! शंभुसिंह मनोहर दि. १६-६-८६ एसोसिएट प्रोफेसर-हिन्री, राजस्थान विश्वविद्यालय जपपुर Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सह संरक्षक की कलम से श्री महावीर ग्रंथ अकादमी द्वारा प्रकाशित "कविवर बुधजन व्यक्तित्व एवं कृतित्व को पाठकों के हाथों में देते हुए हमें प्रतीव प्रसन्नता है । यह अकादमी का नवम पुष्प है । इसके पूर्व अकादमी द्वारा माठ पुष्प और प्रकाशित किये जा चुके हैं समस्त हिन्दी जैन साहित्य को २० भागों में प्रकाशित करने की योजना के अन्तर्गत अकादमी निश्चित रूप से प्रागे बढ़ रही है जो अत्यधिक उत्साहवर्धक है। वास्तव में किसी भी दिशा में योजनाबद्ध कार्य करना कठिन होता है लेकिन डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल का दृढ़ संकल्प एवं साहित्य के प्रति अभिरूचि इस योजना की प्राधार शिला है। डा. कासलीवाल जी को इस योजना में समाज का प्राप्त सह्योग भी निश्चित रूप से उनके कार्य को सुगम बनाने वाला है । अकादमी द्वार। जन हिन्दी साहित्य के २० भाग प्रकाशित हो जायेंगे तो हिन्दी जगत में यह एक पाश्चर्यजनक कार्य होगा। इसलिये हम उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे हैं जब हम हिन्दी जगत को यह अमूल्य मेंट कर सकेंगे। प्रस्तुत पुस्तक में जिस कवि का परिचय दिया जा रहा है वे जयपुर के निवासी थे। उन्होंने इसी नगर में रहते हुए कास्य रचना की थी और अपनी काव्य कृतियों से नगर वासियों को माध्यात्मिक एवं भक्ति रस में सरोबार कर दिया था। बुधजन कवि का "प्रभु पतित पावन में मपावन चरण भायो शरण जी" जसा भक्ति गीत पाज भी लाखों जैन भाई-बहिनों को कंठस्थ है मौर में प्रतिदिन उसका पाठ करते हैं। उनके पचासों हिन्दी पद, छहढाला एवं अन्य पाठ समाज में प्रत्यधिक लोकप्रिय है इसलिये बुधजन कवि जो जन-जन के कवि हैं उनके कण्ठ से निकला हुआ प्रत्येक गीत एवं फाध्य पाठक के हृदय को छूने वाला होता है । उनकी कृतियों में में इतना पाकर्षण है कि जो भी एक बार उन्हें पढ़ लेता है वह उन्हीं में डूब जाता है ! डा. मूलचन्द जी शास्त्री ने ऐसे जनप्रिय भक्त कवि एवं माध्यात्मिक कवि पर शोष प्रबन्ध लिखकर प्रशंसनीय कार्य किया है जिसके लिये वे बधाई के पात्र है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भकादमी अपने उद्देश्य में निरसार काम बड़ली रहे एपः निरः १४ का सहयोग भी प्रावश्यक है। यद्यपि अभी तक का प्रकाशन कार्य में उनका सहयोग मिला है लेकिन उसको गति इतनी धीमी है कि एक भाग को निकालने में काफी समय लग जाता है। हम चाहते हैं कि अकादमी की यह योजना सन् १९६० तक पूरी हो जावे । इसलिए मेरा समाज से मही अनुरोध है कि वह प्रकादमी के सदस्य बन कर इसकी प्रकाशन योजना को पूर्ण करने में सहायक बनें । प्राशा है मेरे इस निवेदन पर समाज का ध्यान अवश्य जावेगा । नानगराम जैन महावीर भवन हास्पिटल रोड जयपुर Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका प्रथम खंड-प्रथम अध्याय | মুসুলি अकादमी की प्रगति चर्चा प्रस्तावना प्रधान सम्पादक की कलम से प्रास्ताविक सह संरक्षक की फलम से विषयानुक्रमणिका १. युग मोर परिस्थितियां २. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ३, तरकालीन सामाजिक तथा राजनैतिक परिस्थितियां ४. सोक-परम्परा ५. खड़ी बोली की परंपरा तथा विकास ६. साहित्य-सर्जन डा. कासलीवाल डा. मूलचन्द शास्त्री डा. कासलीवाल डा, शम्भूसिंह मनोहर नानगराम जौहरी पृष्ठ संख्या द्वितीय खंड प्रथम अध्याय : जीवन परिचय १. जीवन परिचय २. अनुश्रुति एवं वंश परिचय ३. कवि का सामाजिक जीवन ४. कवि की धार्मिक वृत्ति ५. रचनाकाल ६. देहावसान एवं विशिष्ट व्यक्तित्व Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( xxii ) द्वितीय खंड (द्वितीय अध्याय) पृष्ठ मंग्या १. कृतियाँ २. कृतियों का परिचय । मूल कृतिया एवं अनुदित कृतियाँ ) तृतीय खंड ( प्रथम अध्याय) १. कृतियों का भाषा विषयक एवं साहित्यिक अध्ययन २. वस्तुपक्षीय विश्लेषण ३. प्रकृति चित्रण तृतीय खंड (वित्तीय अध्याय) १. भाव पक्षीय विश्लेषण तृतीय एवंड ( तृतीय अध्याय) ११८ १२२ J १. भाषा शिल्प सम्बन्धी विश्लेषण २. ध्वनि ग्रामीय प्रक्रिया ३. पर्यतत्व ४. मुहाबरे एवं लोकोक्तियां ५. प्रलंकार योजना ६. छन्द योजना ai W -20 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xxiii ) चतुर्थ खंड ( प्रथम अध्याय ) तुलनात्मक अध्ययन १. हिन्दी साहित्य के विकास में बुबजन का योग २. बुधजन साहित्य में प्रतिपादित श्राध्यात्मिक एवं दार्शनिक तत्त्व ३. गीति काव्य के विकास में बुधजन कर योग ४. विद्यापति और बुषजन ५. सूरदास और बुधजन ६. संत काव्य परंपरा में युवजन ७. बुधजन का भक्तियोग म छहढाला ९. बुधजन सतसई १०. अनुक्रमणिका संदर्भ ग्रन्थ ११. अनुक्रमणिका ग्रन्थ एवं कवि १२. बुधजन का उल्लेख विद्वानों की दृष्टि में पृष्ठ संख्या १३५ १३६ ** १५३ १५७ १६३ १६८ °9′ reo २१४ २१६ २१८ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड १ - युग और परिस्थितियां प्रथम अध्याय पृष्ठभूमि शताब्दियों तक समान रूप से व्याप्त रहने वाली संस्कृति का इतिहास प्रायः लिपिबद्ध किया जाता रहा है। की समय-समय पर श्रावृत्ति होती रही है । सभ्यता तथा संस्कृति को मुखरित करने वाला साहित्य उसका प्रमुख माध्यम रहा है । साहित्य में ऐसी घटनाओं का भी सजीव वर्णन उपलब्ध होता है, युग धोर परिस्थितियों का चित्रण मिलता है, जिनका उल्लेख इतिहास का विषय होने पर भी आज तक इतिहास के परिवेश के अन्तर्गत स्थान प्राप्त नहीं कर सका है। इसलिए हम केवल यही समझते रहे हैं कि इतिहास की पुस्तकों में जिनका विवरण नहीं मिलता, बे इतिहास की दृष्टि से उनकी चर्चा करना भी क्या प्रयोजनीय है ? इतिहास से परे हैं । मानवीय सभ्यता तथा इतिहास की घटनाओं जो प्रायः ऐतिहासिकों की युग-युगों में उपलब्ध होने वाले सभी प्रालेखों के आधार पर व्यापक भार तीय संस्कृति का श्रालेखन नहीं हो सका है । इसीलिये वर्तमान में भी नित नवीन अनुसंधानों के द्वारा हमें समीचीन तथ्य उपलब्ध होते हैं, दृष्टि से बोल रहे हैं । इतिहास में जिन तथ्यों का अंकन नहीं हो पाया है, उसके मुख्य दो कारण प्रतीत होते हैं । प्रथम तो इतिहासविदों के समक्ष सभी प्रकार की सामग्री का उपलब्ध न होना और दूसरे उनकी अपनी दृष्टि में मान्यता विशेष का होना । अपनी रुचि तथा दृष्टि विशेष के कारण सभी प्रकार के लेखक युग तथा परिस्थितियों के अनुसार साहित्य-सर्जन करते रहे हैं। राजनीतिक तथा सांस्कृतिक संक्रमण के युग में उनमें जो परिवर्तन लक्षित होते रहे हैं, उनका स्पष्ट प्रतिबिम्ब साहित्य में भी चित्रित होता रहा है । किन्तु वास्तविकता यह है कि सभी रचनात्रों में इस प्रकार की प्रवृत्ति लक्षित नहीं होती । फिर भी साहित्यिक रचनाओं में बहुविध चित्रण में उनका समावेश यथा स्थान पाया जाता है । "देश और काल से साहित्य का अविछिन सम्बन्ध है और प्रत्येक देश के विभिन्न कालों को सामाजिक, Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व राजनैतिक और धार्मिक यादि स्थितियों का प्रभाव उस देश के साहित्य पर पड़दा है।''1 "इम अर्थ में साहित्व और संस्कृति परस्पर निकट हैं क्योंकि दोनों का उद्देश्य सत्य, चिव तथा सौंदर्य का समन्वय कर मनुष्य को उदात्त भूमिका पर प्रतिष्ठित करना है, सम्यक् दृष्टि प्रदान करना है । ___ "भारत के इस परिवर्तन के प्रभाव से जैन साहित्यकार अछुते नहीं रहे । वे भी यहां के निवासी थे भौर अपने पड़ोसियों से पृथक् नहीं रह सकते थे। जैन जगत में इस परिवर्तन की प्रक्रिया सर्वांगीण हुई।" "संत्रहवीं शताब्दी से उप्नीसवीं शताब्दी तक के काल में हिन्दी-जैन-साहित्य-गन में ऐसे कवि नक्षत्रों का उदय हुआ, जिन्होंने अपनी भास्वर-प्रतिमा, ज्ञान-गरिमा एवं अनुराग-विरागात्मक संसार के अनुभवों द्वारा इस साहित्य को अक्षय-निधि से परिपूर्ण किया। महायावि तुलसीदास, केशवदास, सुन्दरदास के समान इन कवियों ने भी अपनी साहित्य-सर्जना द्वारा एक नवीन सूष्टि उत्पन्न की जो भारतीय साहित्य की अक्षम-निधि है ।"4 गद्य एवं पद्य दोनों विशानों में इन शताब्दियों में पर्याप्त साहित्य लिखा गया । कविवर बनारसीदास, रूपचन्द, द्यानतराय, भूघरवास, बुधजन, दौलतराम, भागचन्द जैसे कवि रत्नों ने इस काल में आत्मप्रभावक साहित्य द्वारा मानव समाज का वास्तविक दिशा निर्देशन किया । "इस समय तक खंडन-मंडन एवं शास्त्रार्थों की कटुप्रथा से जनता घणा करने लगी थी । उसे धर्म का आडम्बर युक्त रूप अत्यन्त खोखला प्रतीत होने लगा था । मानव अव अपने उद्धार का सरल, युक्ति-संगत एवं निर्विवाद मार्ग पाने के लिए छटपटा रहा था । निश्चय ही इन शताब्दियों में प्राध्यात्मिक संतों-कवियों ने अपना सम्पूरा जीवन, मानव-कल्याण की मौलिक समस्या के सुलझाने में लगा दिया । परिणामस्वरूप सच्चे प्रात्म-स्वरूप की ऐसी पावन स्रोतस्विनी प्रवाहित १. ज० श्याम सुन्दरदास : हिन्दी साहित्य, प्रथम संस्करण, पृ० २५ । 2. The purpose of culture is to Inbence and intensity once. plsion of that synthesis of truth and beauty which is the higbese and deepest reality. J C. Pawys, the meaning of culture. Page 164. ३. जंन कामता प्रसाद : हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ० ६३ । प्र० संस्करण २४७३, भारतीय ज्ञान पीठ प्रकाशन । ४. जैन ० रवीन्द्र कुमार : कविवर बनारसीदास जीवनी एवं कृतित्व, पृ० ७५ भारतीय ज्ञान पीठ प्रकाशन, १९६६ । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युग और परिस्थितियां हुई कि संपूर्ण भारत अपने पुरातन एवं बोझिल निर्भीक को शतखंडकर इसी में निमज्जित होने लगा। जैन साहित्यकारों ने भारतीय साहित्य और संस्कृति की अपनी रचनाओं द्वारा अपूर्व सेवा की है । उन्होंने संस्कृत, अपभ्रंश, प्राकृत और आधुनिक भारतीय भाषा में श्रेष्ठ रचनाएँ की । इतना ही नहीं, जैन साहित्यकारों ने दर्शन, धर्म और कला के क्षेत्र में भी अपनी कलम चलाई। संक्षेप में इतना ही कहना गर्याप्त होगा कि सभी क्षेत्रों में जैन विद्वानों एवं कवियों की रचनाएँ मिलती हैं। उनमें धर्म और राजनीति विषयक दृष्टिकोण की स्पष्ट छाप है। सौंदर्य, कल्पना और भाषा की दृष्टि से हिन्दी जैन साहित्य अनुपम है । हिन्दी साहित्य के इतिहास में जैन साहित्य एवं साहित्यकारों का न्यूनाधिक रूप में उल्लेख मिलता है, पर भाषा और भाव-धारा की दृष्टि से उनका सही मूल्यांकन आज तक नहीं हो सका कारण संभवतः यही हो सकता है कि जैन कवियों की रचनाएं धर्म और उपदेश के तत्वों से परिपूर्ण हैं । परन्तु इस दृष्टिकोण से साहित्य रचना करना कोई बुरी बात नहीं है। इस सम्बन्ध में जैन प्राचार्य स्पष्ट करते हुए लिखते हैं : " ही कवि वास्तव में कवि हैं, वे ही विद्वान् हैं, जिनकी लेखनी से नैतिकता की बात लिखी जाय । वही कविता प्रशंसनीय है जो नैतिकता का बोध कराये । इनके अतिरिक्त जो रचनाएं की जाती हैं वे केवल पाप को ही बढ़ाने वाली है ।"" हिन्दी साहित्य के मध्य युग में भक्ति की धारा सबसे अधिक परिपुष्ट है । उसके सगुण-निर्गुण दो रूप हैं । जैन विचारधारा के कवियों ने भी अनेक भक्तिविषयक रचनाएं की है, परन्तु उनका भावधारा की दृष्टि से अध्ययन नहीं हो सका है । भक्तिकाल के पश्चात् भी भक्ति की धारा का प्रवाह सूखा नहीं । जैन साहित्य में तो भक्ति की धारा प्रजत्र रूप से भक्तिकाल के पश्चात् भी प्रवाहित १. जैन, डॉ० रवीन्द्र कुमार : कविवर बनारसोवास जीवनी एवं कृतित्व पृ० ७५ प्र० संस्करण १६६६, भारतीय ज्ञान पीठ प्रकाशन । त एष कवयो धीराः, त एव विद्यमरः । येषां धर्म कांगत्वं, भारती प्रतिपद्यते ॥ धर्मानुबंधिनी या स्यात्, कवितर संव शस्यते । शेषा: पापाश्रवायव, सुप्रयुक्तापि जायते ॥ आचार्य जिनसेन : महापुराण प्र० पर्व : पद्य क्रमांक ६२-६३ भारतीय ज्ञानपीठ काशी प्रकाशन : वि० सं० २०००, १६४४ ई० । २. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व होती रही। इस काल की समस्त प्रवृत्तियां न्यूनाधिक रूप में जैन कवियों के पदों में उपलब्ध हैं । जैन कवियों ने लोक प्रचलित कथाओं में भी स्वेच्छानुसार परिवर्तन कर सुन्दर काव्य रचनाएं की है । मध्यकाल के प्रारम्भ में समाज और धर्म के बाह्यरूप संकीर्ण हो रहे थे । श्रुत: जैन लेखकों ने अपने पुरातन कथानकों और लोकप्रिय परिचित कथानकों में जैनधर्म का पुट देकर अपने सिद्धान्तों के मनुकुल हिन्दी भाषा में काव्य लिखे । बाहरी, वेश-भूषा पाखंड आदि से समाज विकृत होता जा रहा था, अतएव अत्यन्त ओजस्वी वाणी में हिन्दी के जैन कवियों ने उनका खण्डन किया। यही वह समय था जब जैन कवि ब्रज और राजस्थानी में प्रबंधकाव्य और मुक्तक काव्यों की रचना करने में संलग्न रहे। इतना ही नहीं, जैन कवि मानव जीवन की विभिन्न समस्याओं का समाधान करते हुए काव्य-रचना में प्रवृत्त रहे, धर्म-विशेष के कवियों द्वारा लिखा जाने पर भी जन साधारण के लिये भी यह साहित्य पूर्णतया उपयोगी है । इसमें सुन्दर श्रात्म- पीयूष - रस छल-छलाता है और मानव की उन भावनाओं और अनुभूतियों को सहर्ष श्रभिव्यक्ति प्रदान की गई हैं, जिनसे समाज एवं व्यक्तित्व का निर्माण होता है । जैन कवियों ने मानव के अन्तर्जगत् के रहस्य के साथ बाह्य रूप से भी होने वाले संघर्षो परिवर्तनों एवं पारस्परिक कलह तथा सामाजिक वितंडवादों का काव्यात्मक शैली में वर्णन किया । कविवर के युग में स्वाध्याय मालानों के रूप में "सैलियों" का प्रचार था 1 "उस समय समाज में धार्मिक अध्ययन के लिए आज के समान सुव्यवस्थित विद्यालय महाविद्यालय नहीं चलते थे । लोग स्वयं ही सैलियों के माध्यम से तत्वज्ञान प्राप्त करते थे । तत्कालीन समाज में जो श्राध्यात्मिक चर्चा करने वाली दैनिक गोष्ठियां होती थीं, उन्हें ही संली कहा जाता था । ये सेलियां सम्पूर्ण भारतवर्ष में यत्र-तत्र थीं। कविवर बनारसीदास जैसे कवि आगरा की अध्यात्म सैली के प्रमुख सदस्य थे ।"" इसी तरह पं. टोडरमल, पं. जयचन्द छाबड़ा, कविवर बुधजन थे । आदि प्रमुख विद्वान जयपुर की "सेली" में शिक्षित हुए इस प्रकार की श्राध्यात्मिक संली के सम्बन्ध में डॉ. बासुदेव शरण प्रनवाल लिखते हैं : बीकानेर जैन लेख संग्रह में भाष्यात्मी संप्रदाय का उल्लेख भी ध्यान देने योग्य है । वह आगरे के ज्ञानियों की मंडली थी, जिसे "सैली" कहते थे। ज्ञात होता है कि अकबर की दीने-इलाही प्रवृति भी इसी प्रकार की आध्यात्मिक खोज १. जैन संदेश शोधक जून १६५७ पृष्ठ १३५ । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युग और परिस्थितियां का परिणाम थी । बनारस में भी प्राध्यात्मियों की "सैली" या मण्डली थी। किसी समय राजा टोडरमल के पुत्र गोवर्द्ध नदास इसके मुखिया थे । १८वीं और १६वीं शताब्दी में मैया भगवतीदास, यानतराय एवं सुधजन जैसे कपियों इ परम्रा का प्रतिनिधि | स र अध्यात्म प्रधान कवित्त, पद एवं बड़े-बड़े पुराणों के अनुवाद देशभाषा में बहुत ही अधिक संख्या में हुए । पं. दौलतराम ने गद्यानुवादों एवं विस्तृत-व्याख्यानों द्वारा साहित्य-जगत में एक नई दिशा का निर्देशन किया, इससे भाषा का सौंदर्य निखरा तथा प्राचीन कवियों के नवरत्नों का उचित मूल्यांकन हो सका। आगे चलकर पं. टोडरमलजी ने एवं जयचन्द जी छाबड़ा, कविवर बुधजन प्रादि विद्वानों ने पर्याप्त मात्रा में ग्रंथ प्रणयन किया। ये केवल अनुवाद कर्ता ही न थे, सफल कवि भी थे। लेकिन वर्तमान २०वीं शताब्दी में अनुवादों को परम्परा क्षीण पड़ गई और कलाकार स्वतंत्र रचनाएं करने लगे। २. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि जैनाचार्यों और धर्मोपदेशकों की एक विशेषता यह भी रही है कि उन्होंने ग्रंय रचना के लिए तत्कालीन प्रचलित लोकभाषा को ही माध्यम बनाया । यही कारण है कि जैन साहित्य, मागधी, अर्धमागधी, संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रश, हिन्दी, समिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़ आदि सभी प्रचलित भाषाओं में उपलब्ध होता है । ७वीं ब वीं पाती में जैन लेखकों ने प्राकृत और संस्कृत का पल्ला छोड़ दिया था और तत्कालीन लोक-प्रचलित अपनश भाषा में विचारों को सुरक्षित रखने का प्रयास किया था । ८वीं शताब्दी में स्वयंभू में कवि ने पद्मचरित (पउमचरित) तथा हरिवंश पुराण की रचना की। १० वीं शती में पुष्पदंत कवि ने महापुराण की रचना की। १२वीं शताब्दी में तथा १३वीं शताब्दी में योगसार, परमात्म प्रकाश मादि रचनाएं हुई। अपभ्रंश की ये रचनाएं पुरानी हिन्दी के प्रति निकट हैं। इस शताब्दी में विमलकीर्ति की रचनाएं भी अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। १४ वी और १५ वीं शताब्दी में जैन कवियों ने व्रज प्रौर राजस्थानी भाषा में "रासा" ग्रंथों की रचनाएं की। गौतमरासा, सप्तक्षेत्ररासा भादि इस काल की रचनाएं हैं। "मयरए पराजय चरिउ' (भारतीय ज्ञान पीठ काशी से मुद्रित) इस काल की सुन्दर रचना है। १५ वीं और १६ वीं शती में ब्रह्म जिनदास ने आदि पुराण, श्रेणिक परित्र मादि कई रचनाएं लिखीं। १७ वीं शताब्दी में पं. बनारसी दास, रूपचन्द आदि अनेक जैन कबियों एवं साहित्यकारों ने अज और राजस्थानी भाषा में गद्य-पद्यात्मक रपनाएं लिखीं। १८ वी और १६ वी शताब्दी में भूधरदास, पं. टोडरमल, जयचन्द छाबड़ा, बुधजन, दौलतराम प्रादि अनेक कवियों एवं साहित्यकारों ने अनेक ग्रन्थों का हिन्दी में निर्माण किया । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व जयपुर के राजघरानों के इतिहास पर एक विहंगम दृष्टि डालने पर सष्ट हो जाता है कि इन नरेशों ने जयपुर के इतिहास को बनाने में अभूतपूर्व सहयोग प्रदान किया था । वि. सं. १६७८ से १६७६ तक होने वाले जयपुर के राजवंश की तालिका इस प्रकार है : ६ क्र० १. २. ४. ५. ६. 19. ८. १. १०. ११. १२. शासन फाल १६७८ से १७२४ तक १७२५ से १७४६ तक १७४७ से १७५६ तक १७५७ से १८०० तक १५०१ से १८०७ तक १८०८ से १८२४ तक १८२५ से १८३३ तक १८३४ से १८६० तक १८६१ से १८७५ तक १८७६ से १८६२ तक १५६३ से १६३७ तक १६३८ से १६७६ तक शासक मिर्जा राजा जयसिंह- प्रथम महाराजा रामसह-प्रथम महाराजा विष्णुसिंहजी सवाई जयसिंह द्वितीय साई ईश्वरसिंहजी सवाई माधोसिंह जी महाराजा पृथ्वीसिंह जी महाराजा प्रतापसिंह जी महाराजा जगतसिंह जी महाराजा जयसिंहजी (तृतीय) महाराजा रामसिंहजी (द्वितीय) महाराजा माधोसिंहजी (द्वितीय) कविवर बुधजन १६वीं शताब्दी के कवि थे । उन्होंने प्रपने जीवन काल में जयपुर में दो शासकों का शासन काल देखा था, यह कवि की रचनाओं के उल्लेख से स्पष्ट हो जाता है । कवि ने "बुधजन सलाई” की रचना वि. सं. १८७६ में की थी। कवि की अन्तिम रचना व मानपुराण सूचनिका है। इसका रचनाकाल वि. सं. १८६५ है । इस काल में महाराजा रामसिंहजी (द्वितीय) कुछ काल तक जयपुर के शासक रहे । दोनों ही शासकों का जयपुर के निर्माण में अभूतपूर्व योगदान रहा है । कविवर ने उक्त दोनों ही शासकों का अपनी रचनाओं में सादर उल्लेख किया है । जिस प्रकार जयपुर नगर को बसाने का सुयश महाराजा सवाई जयसिंह को है, उसी प्रकार जयपुर की सजावट तथा प्रजाहित के कार्यों की वृद्धि करने वाले महाराजा सवाई रामसिंह जी (द्वितीय) को दिया जा सकता है । ३. तत्कालीन सामाजिक तथा राजनैतिक परिस्थितियाँ "बुधजन " १६ वीं शती के कवि थे। उस काल की सामाजिक परिस्थितियां भच्छी नहीं थीं । समाजन्बाह्य ग्राहंबरों और पाखण्डो से विकृत हो रहा था । जैन समाज दिगंबर - श्वेताम्बर ऐसे दो संप्रदायों में विभक्त था । श्वेताम्बर संप्रदाय के सात्रों को लज्जा निवारण के लिए बहुत सादा वस्त्र रखने की छूट दी थी। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युग और परिस्थितियां कालान्तर में उसमें शिथिलता प्रा गई । दिगम्बर-श्वेताम्बर प्रतिमाओं में कोई भेद न था । प्राय: दोनों ही नगा प्रतिमानों को पूजते थे, परन्तु भविष्य में किसी प्रकार का झगड़ा न हो इस पृष्टि से श्वेताम्बर संघ ने प्रतिमानों के पाद-मूल में वस्त्र का चिन्ह बना दिया और कालान्तर में मूर्तियों को प्रांस, अंगी, मुकुट आदि द्वारा अलंकृत किया जाने लगा जो अाज तक प्रचलित है।"] "दिगम्बर सम्प्रदाय में भी शिथिलाचार प्रविष्ट हुना। मठाधीश भट्टारकों का प्रभुव बढ़ने लगा । वे उद्धिष्ट भोजन करते थे । एक ही स्थान पर बहुत समय तक रहते थे, तेल मालिश करते थे, मंत्र-तंत्र प्रादि विद्याओं का उपयोग करते थे ।" समाज में शिधिलाबार बढ़ रहा था। विद्वानों और साधुनों के बढ़ते शिथिलाचार को देखकर ही पं. पाशाघरजी को लिखना पड़ा कि : "इस काल के भ्रष्टाचरणी पंडितों ने एवं मठाधिपति साधुनों ने (भट्टारकों म) पवित्र जैन शासन को मलिन कर दिया है ।''3 यह सामाजिक विकृति न केवल जैन सम्प्रदाय में ही उत्पन्न हुई थी, अपितु संपूर्ण भारतीय समाज को भी विकृप्त कर रही थी। राजस्थान के इतिहास के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि "उस समय औरंगजेब का शासन काल था, जिसमें मुगल सत्ता उतार पर थी। मुगलों की पिछली संतान बहुत कुछ नष्ट हो चुकी थी । शिक्षा की कमी और असभ्य समाज के कारण उनका पतन हो गया था। असंयम तथा मद्यपान ने उन्हें अवनति के गर्त में फेंक दिया था । देश में स्थित प्रत्येक वर्ग के लोग, घोर अंधकार में पड़े हुए थे । निर्धन और धनवान प्रत्येक के जीवन का प्रत्येक कार्य ज्योतिष के अनुसार ही होता था।" उस समय राजस्थान के शासक भी निष्क्रिय थे। जयपुर के राजा सवाई जयसिंह ने अवश्य मुगलों के इस विघटन का लाभ उठाया, उन्होंने हिन्दू-प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयत्न किया । परन्तु सवाई जयसिंह के पुत्र ईश्वरसिंह के शासनारूढ़ होते ही (१७४४–१७५०) विघटन प्रारम्भ हो गया । उसके पश्चात् १. भारिल्ल गे. हुकमचन्द शास्त्रो : पं. टोडरमल व्यक्तित्व एवं कृतित्व, पृ. ६ । २. प्रेमी नाथूरामजी जैन साहित्य का इतिहास, पृ. ४६६ भारतीय ज्ञान पीठ प्रकाशन । ३. पंसितंभ्रष्ट चारित्रः बहरैश्चतपोधनः । शासनं जिनचंद्रस्य, निर्मलमलिनी तिम् प्रनगार-धर्मामृतः अध्याय २/९६ टीका । पं. माशापर-प्रज्ञा पुस्तक माला का १६ वां पुष्प प्रका. मोहनलाल काध्यतीर्थ, सिवनी, सी. पी. । ४. डॉ. विश्वेश्वर प्रसार डी. लिद : भारतवर्ष का इतिहास, पृ. २२२ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व उनका अनुज माधोसिंह जयपुर का शासक बना, इन्हीं की परंपरा में सवाई जयसिंह (तृतीय) हुए । कविवर बुधजन इन्हीं के समय में हुए थे, क्योंकि कविवर बुधजन का समय वि. सं. १८३० से १८६५ तक निश्चित होता है। सवाई जयसिंह (तृतीय) का समय भी वि. संवत् १८७५ से १८९२ तक का है । = यद्यपि वह समय राजनैतिक अस्थिरता का था। जैन विद्वानों की विशेष रुचि धार्मिक विचारों से परिपूर्ण थी, तथापि राजनीति में भी जनों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। बंगाल में मुर्शिदाबाद के जगत सेठ, दिल्ली के शाही खजांची ह्रसुखराय और सुगनचन्द, भरतपुर के नथमल बिलाला आदि उस काल के प्रसिद्ध व्यक्तियों में से थे । राजपूत राज्यों की राजनीति में भी उस काल के जैनों ने महत्वपूर्ण भाग लिया था। बुन्देलखण्ड में देवगढ़ का शासक जैन था जिससे सिंधिया का युद्ध हुआ था । "जयपुर में मिर्जा राजा जयसिंह के समय में बल्लूशाह जैनी एक उच्च पद पर नियुक्त था, उसका पुत्र विमलदास राजा रामसिंह और विशन सिंह के समय में दीवान था, वह वीर योद्धा भी था, इसका पुत्र रामचन्द्र छाबड़ा, महाराजा सवाई जयसिंह ( १७०१-४३ ) का दाहिना हाथ एवं प्रधान दीवान था, वह भी वीर योना एवं कुमाल सेनानी था। तदुपरान्त राव कृपाराम, शिवजीलाल, अमरचन्द प्रादि प्रसिद्ध दीवान जयपुर राज्य में हुए। दीवान अमरचन्द के सम्बन्ध में डॉ. ज्योतिप्रसाद का मत है कि दीवान श्रमरचन्द विद्वानों का भारी आश्रयदाता था, निर्धन छात्रों को छात्रवृत्ति देता था । स्वयं भी बड़ा विद्वान् और धर्मारमा था । उसने अनेक जन मन्दिरों का निर्माण एवं ग्रन्थों की रचना भी कराई थी। राजा का सारा दोष अपने ऊपर लेकर और अपने प्राणों की बलि देकर अंग्रेजों के कोप से उसने जयपुर राज्य की रक्षा की थी। इस काल में जयपुर राज्य के जैन साहित्यकारों ने विशेषरूप से हिन्दी खड़ी बोली के गद्य का भूतपूर्वं एवं महत्त्वपूर्ण विकास किया । जयपुर के विद्वानों का देश के अन्य प्रदेशों के जैन विद्वानों के साथ भी बराबर संपर्क रहता था। ग्रंथों की प्रतिलिपियां करने का एक विशाल कार्यालय भी इस काल में वहां स्थापित हुना, जहां से ग्रन्थ भेजे जाते थे । मनेक जैन मंदिरों के अतिरिक्त जैन मूर्तिकला के निर्माण का भी केन्द्र जयपुर बता । केवल जयपुर नगर में ही उस काल में लगभग दस बारह हजार जैनी थे । "2 कविवर बुधजन के समय में जयपुर में लगभग १५० जैन चैत्यालय थे । उनमें एक शांति जिनेश का मन्दिर बड़े मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध था। वहां तेरापंथ १. २. शर्मा पं. हनुमान प्रसाद, हितैषी पत्रिका, पृ० ८ जयपुर प्रकाशन । जैन, डॉ. ज्योति प्रसाद : भारतीय इतिहास एक दृष्टि, द्वितीय संस्करण पृष्ठ ५६३ । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युग और परिस्थितियां की अध्यात्म शैला चलती थी अर्थात् वहां प्रतिदिन एक गोष्ठी होती थी। उसमें अध्यात्म चर्चा और पटान-पाठन ही प्रमुख था। गोष्ठी में नाटक त्रय सदैव पड़े जाते थे, यह काम प्रातः और संध्या दोनों समय चलता था। सभी श्रोता तत्वज्ञान के जानकार होते थे । वुधजन भी उनमें से एक थे 1 कवि की लगन विशेष थी, प्रतः उन्हें शास्त्रों का अच्छा ज्ञान हो गया था। उस समय टीकाएं और वदनिकाएं ढूवारी हिन्दी में लिखी जाती थीं। टीका में मूलग्रंय के विचार और शब्दों का अनुवाद भर होता था। दीकाकार अपनी ओर से कुछ घटाने या बढ़ाने को स्वतन्त्र नहीं नाचनिक में मनुव: है हो ही चा, साप मिश्लेषण भी रहता था । वहां वचनिकाकार अपना मत भी स्थापित कर सकता था। ४. लोक-परम्परा लोक में प्रचलित परम्परा को लोक-परम्परा कहते हैं। लोक-साहित्य में ये परम्पराएं आज भी सुरक्षित है । लोक-प्रिय हैं । लोक-साहित्य में लोक-गीतों की प्रमुखता है । ये लोकगीत स्त्रियों को बहुत प्रिय हैं। होली, विवाह, वियोग संस्कार, बनड़ा, बाना बैठना, बड़ा विनायक, चाक पूजना, धार्मिक गीत, सती गीत, मांवरे, विदाई प्रादि अवसरों पर स्त्रियाँ लोक-परम्परागत लोका-गीत गाती रहती हैं। "लोफ भाषानों में अनेक गोतों, वीर गाथाओं, प्रेमगाथानों तथा लोकोक्तियों धादि की भी भरमार है । यह सामग्री अधिकांश में अभी तक अप्रकाशित है । लाक कथा और लोक कथानकों का साहित्य साधारण जनता के अन्तस्तर की अनुभूतियों का प्रत्यक्ष निदर्शन है।" लोक भाषा में हमारी लोक परम्परा दीर्घकाल से सुरक्षित है। सिद्ध लोगों ने उस समय लोक भाषा में कविता प्रारम्भ की। जिस समम शताब्दियों से भारत के सभी धर्म वाले किसी न किसी शास्त्रीय भाषा द्वारा अपने धर्म का प्रचार कर रहे थे और इसी कारण उनके धर्म के जानने वाले बहुत घोड़े हुमा करते थे। सिद्धों के ऐसा करने के कारण थे, वे प्राचार, धर्म-दर्शन नादि सभी विषयों में एक क्रान्तिकारी विचार रखते थे । वह सभी अच्छी-बुरी रूढ़ियों को उखाड़ फेंकना चाहते थे। "जोन विद्वानों ने लोक रुचि और लोक-साहित्य की कभी उपेक्षा नहीं की। जन-साधारण के निकट तक पहुंचने और उनमें अपने विचारों का प्रचार करने के १. राहुल सांकृत्यायन : हिन्दी साहित्य का वृहद इतिहास, घोडा भाग पृ. ५, यि. सं. २०१७ । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व लिए वे लोक भाषाओं का आश्रय लेने से भी कभी नहीं चूके । यही कारण है कि उन्होंने सभी प्रान्तों की भाषाओंों को अपनी रचनाओं में समृद्ध किया है | अपभ्रंश भाषा द्रविड़ प्रान्तों और कर्नाटक को छोड़कर प्रायः सारे भारत में थोड़े बहुत हेरफेर के साथ जातीको भाषा में भी जैन कवि विशाल साहित्य का निर्माण कर गये हैं । "1 सिद्धों, जैनियों और नाथ गुरुओं ने वेद शास्त्र, जन्मगत उच्चता के विरोध में जो तीव्र व्यंग किये हैं। तीव्रता के साथ श्रागे चलकर संत कवियों ने किये । अन्य सन्तों की भाँति कविवर बुधजन ने किया, सर्वसुलभ भक्ति मार्ग का प्रचार किया। बाह्य श्रान्तरिक तन्मयता मूलक भावना को प्रश्रय देते थे। उनकी सर्वतोमुखी व्यापकता थी जिसमें बनी निर्धन, तथा ब्राह्मण से लेकर चाण्डाल तक का स्थान था के लिए समान भाव से खुला हुआ था। किसी तीर्थ सेवन ब्राह्माचार एवं लगभग इसी शैली और इसी भी बाह्य आडंबरों का खण्डन कर्मकाण्ड की अपेक्षा वे भी कवि की सबसे बड़ी विशेषता सवर्ण-असद ग्रहम्थ-विरक्त " धर्म का द्वार, स्त्री-पुरुष सभी प्राचीन परम्परा के बन्धन में न कर अपनी वैयक्तिक अनुभूति एवं स्वतन्त्र पद्धति से अपने समय की सामाजिक विकृतियों को सुधारने की चेष्टा करते रहे। उन्होंने बड़े विश्वस्त भाव से कहाकि हमें श्रात्म-स्वरूप का अन्वेषण करने के लिए श्रन्यत्र जाने की यात्रश्यकता नहीं । सत्य के श्रेष्ठतम प्रतिष्ठान हमारी आत्मा में ही विद्यमान हैं। जैसे मृगनाभि में कस्तूरी है वैसे ही प्रयत्न पूर्वक खोज करने पर वह दुर्लभ वस्तु ( श्रात्मा में ही ) स्फुरित हो जाती है । उन्होंने स्वसंवेद्य ज्ञान को प्रधानता दी । उनकी आध्यात्मिकचेतना, शास्त्रीयता से परे, जीवन के प्रति सहज, व्यापक और उदार दृष्टिकोण से स्रोत-प्रोत है । यह न तो ग्रहण की पक्षपालिनी है और न त्याग की विरोधिनी । जीवन के साधारण कार्य व्यापारों के प्रति वह एक सुसंगत, संतुलन खोजकर तत् आचरण करने पर विशेष बल देती है। उन्होंने वह भूमिका तैयार की जो जन-सामान्य के श्रात्म विकास का निर्माण करती है । प्रत्येक व्यक्ति में आध्यात्मिक तरत्र का होना उन्हें स्वीकार है। व्यक्तिगत चितन के द्वारा परम चरम सौंदर्य का साक्षात्कार होना उनकी दृष्टि से असम्भव नहीं है। ५. खड़ी बोली की परम्परा तथा विकास (आत्मा) के कविवर बुधजन ने जिस क्रू दारी भाषा ( लोक भाषा) का अपनी साहित्यिक रचनाओं में प्रयोग किया है वह हिन्दी भाषा के अत्यन्त निकट है । केवल उसके १. जैन कामता प्रसाथ हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, पृष्ठ १०, भारतीय ज्ञान पीठ प्रकाशन । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युग और परिस्थितियां क्रिया पदों में सामान्य-सा परिवर्तन करने की मावश्यकता है। इस सामान्य से परियतन से वह खड़ी बोली का हिन्दी का) शुद्ध रूप प्रतीत होने लगता है । जिस हिन्दी भाषा का मान प्रयोग करने में जमा गन्न भाग है। अपभ्रश भाषा के अध्ययन के बिना हम हिन्दी भाषा एवं तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक एवं ऐतिहासिक विकास क्रम को समझ ही नहीं सकते । स्मरणीय है कि अधिकतर अपनश साहित्य जैन साहित्य है। जैन धर्मोपदेष्टा जन-जन तक धार्मिक विचारधारा को लोक भाषा में पहुंचाना चाहते थे। उस काल में प्रापभ्रश भाषा लोक भाषा थी, प्रतः उन्होंने इस भाषा को धर्मोपदेश के लिए सर्वाधिक उपयुक्त माना। अपनश भाषा के सम्बन्ध में डॉ. वासुदेव धारण अग्रवास लिखते हैं :--- "हिन्दी की कायापारा का मूल विकास सोलह पाने अपभ्रश काव्यधारा में अन्तनिहित है, अतः हिन्दी साहित्य के ऐतिहासिक क्षेत्र में अपना भाषा को सम्मिलित किये बिना हिन्दी का विकास समझ में नाना असम्भव है। भाषा, भाव शली तीनों दृष्टियों से अपनश भाषा का साहित्य हिन्दी भाषा का अभिन्न अंग समझा जाना चाहिये।" दंडी ने अपने काव्यादर्श में इस बात का उल्लेख किया है कि यह अपना भाषा भाभीर श्रादिकों की बोली है । 'मामीरादिक गिर: कानपभ्रश इतिस्मताः" इस उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह अपनपा भाषा प्राभीर प्रादिकों की बोली है और इसमें काव्यरचना भी होती थी। प्रगना में काव्य-रचना लगभग ७वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुई। ७वीं से ११वीं शताब्दी तक अपभ्रश भाषा प्रचलित रहीं एवं उसमें साहित्य-रचना होती रही। जैन साहित्यकारों ने भारतीय प्रादेशिक भाषानों में साहित्यिक रचनाएं की हैं क्योंकि सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक और ऐतिहासिक परिवर्तन की प्रक्रिमा को उन्होंने सदन स्वीकार किया था । बंगला, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगु, मलयालम प्रादि प्रादेशिक भापात्रों में लिखा गया जैन साहित्य दस बात का प्रमाण है । कैविधर बुधजन की भाषा पर राजस्थानी का प्रभाव है। उनके पदों में । राजस्थानी प्रवाह और प्रभाव दोनों ही विद्यमान है। एक उदाहरण देखिये : 'मैं देखा आतमरामा ।। टेक ॥ रूप फरस रस गंध तें न्यारा, दरस ज्ञान गुनधामा । नित्व निरंजन जाके नाहीं, क्रोषलोभ मद कामा ॥1 शुधजन : बुषजन विलास, पच क्रमांक ६१, जिनवारणी प्रचारक कार्या, १६११ हरीसन रोड, कलकत्ता । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व एक और उदाहरण देस्निये : "भजन बिन यों ही जनम गमायो ।। टेक ।। पानी पेल्यां पाल' न बांधी, फिर पीछे पछतायो । रामा मोह भये दिन खोवत, पाशा पाश बंधायो 11 जपतप संजम दान न दीनो, मानुष जनम हरायो ।।1 तमिल भाषा के प्रमुख महाकाव्यों में रो "चिंतामणि" तथा "सोलापदिकरम्" गैन लेखकों की कृतियां हैं। प्रसिद्ध निलदियर" का मूल भी जैन है । कहाकवि राहुल सांकृत्यायन की खोज के अनुसार भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी में प्राप्त सर्वप्रथम प्राचीन ग्रंथ "स्वयंभू रामायण" है जो स्वयंभू नामक जेन कवि की रचना है । कविवर बनारसीदास जैन द्वारा विक्रम की १७वीं शताब्दी में लिखित छन्दोबद्ध "भात्मकथा" हिन्दी साहित्य की प्रथम आत्मकथा है, जो आज भी महत्त्व६) पूर्ण मानी जाती है । हिन्दी में जैन लेखकों ने विविध छन्द व अलंकारयुक्त रचनाई करके साहित्य की समृद्धि में बड़ा योग दिया है। जैन धर्म में त्याग सथा ग्रात्म-कल्याणा का विशेष महत्त्व होने से उनकी रचनायों में इन बातों का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। यद्यपि कवियों एवं लेखकों ने धर्म प्रचारार्थ रचनाएं की हैं, तथापि हिन्दी साहित्य के विकास में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान है। अपनश से हिन्दी का विकास होने से विकास की प्रथमावस्था में भी उसमें जैन सिद्धान्तों का समावेश हुमा । भाषा-विज्ञान की दृष्टि से एवं हिन्दी साहित्य के प्रारंभिक विकास की दृष्टि से जैन साहित्य का बहुत महत्त्व है। प्राचीन हिन्दी का जो ऐतिहासिक रूप हमें उपलब्ध है, वह भी जैन विद्वानों की ही देन है। जैन विद्वानों ने लोक रचि का समादर करते हुए कुछ ऐसी रचनाएं मानव-समाज को दी हैं, जिनका सांस्कृतिक रष्टि से बड़ा महत्त्व है। हिन्दी जन साहित्य में कुछ ऐसी सर्वोपयोगी साहित्यिक रचनाएं हैं, जो ' संसार के साहित्य में बेजोड़ हैं और उनके कारण लोक-साहित्य में हिन्दी का मस्तक ऊंचा हुआ है। सारांश यह है कि "जन साहित्य के प्रध्ययन के बिना हिन्दी साहित्य का अध्ययन अपूर्ण रहेगा। काव्य के दोनों पक्षों में जैन कवियों ने अपनी काव्य प्रतिभा दिखाई है। जैन साहित्य संपूर्ण रूप से शान्त-रस में लिखा गया है। हिन्दी गद्य • के निर्माण का प्रारम्भ भी इसी युग से माना जाता है। गछ चितामणि तिलकमंजरी आदि सुन्दर गद्य रचनाएं इस काल में लिखी गई ।" १. बुधजन : बुधजम विलास, पद्य क्रमांक ६३, जिनवाणी प्रचारक कार्या., १६११ हरीसन रोड, कलकत्ता ।. २. अहिंसावारणी : वर्ष ह. अंक ६, जून १६५६ । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युग और परिस्थितियां ६. साहित्य-सर्जन "संसार में कवि और लेखक तो बहुत होते हैं पर वास्तव में उन्हीं का जीवन सफल हैं जिन्होंने ग्राध्यात्मिक रचनाएं करके अपनी कवित्व शक्ति का उपयोग स्वपर कल्याण के लिये किया। बुधजन ऐसे ही कवि थे, जिन्होंने अपनी काव्य प्रतिभा का उपयोग स्व-पर कल्याण के लिए किया । "" १३ rr भारतीय साहित्य का मध्यकाल काव्य सृजन की दृष्टि से महत्त्व का माना गया है । इस युग में जैन कवियों ने जो भी लिखा वह मात्र 'कलर के लिए कला" प्रायोजन नहीं था, वरन् समये तत्कालीन जन-जीवन स्पंदित था । इन कवियों ने कवि दृष्टि के साथ-साथ संस्कृति, नीति और धर्म को भी अपने काव्य की प्रमुख भूमि बनायी और ऐसा साहित्य लिखा, जिसने जन-जीवन को ऊंचा उठाया और श्रमण संस्कृति की निर्मलताओं को उजागर किया । हिन्दी के जैन कवियों की रचनाओं ने हमारे जीवन को प्रतिक्षप नया उत्थान दिया है | हमारे लोक जीवन को प्राध्यात्मिक ऊंचाई प्रदान की है। मानव को पशुला से मनुष्यता की मोर ले जाना ही उनका लक्ष्य रहा है । हिन्दी के जैन कवियों ने अपनी रचनाओं में दरिक व मात्रिक दोनों प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है । वणिक छन्दों का प्रयोग, अधिकांशतया संस्कृत की अनूदित कृतियों में और मात्रिक छन्दों का प्रयोग मौलिक कृतियों में किया जाता है । कवि की रचनाओं में यथा स्थान मुहावरों एवं लोकोक्तियों के सुन्दर प्रयोग हुए हैं। C बुधजन की रचनाएं प्रसाद गुण युक्त हैं । इस युग के सभी जैन कवियों ने खड़ी बोली का प्रयोग किया है। उनकी भाषा पर फारसी का स्पष्ट प्रभाव है । फारसी, ब्रज एवं राजस्थानी के शब्दों के तत्सम और तद्भव दोनों रूपों में प्रयोग मिलते हैं । बुषजन सध्य जैन साहित्यकारों ने साहित्य सर्जना करते समय जन साधारण की भाषा प्राकृत अपभ्रंश हिन्दी आदि को अपनाया क्योंकि उनका उद्देश्य चमत्कार एवं चातुर्य प्रदर्शन न होकर जन-मानस में जीवन के प्रति धर्ममय लगन को जागृत करना था । १. स एव कवयो घोराः स एव विचक्षणाः । येषां धर्म कयांगत्वं, भारती प्रतिपद्यते ॥ प्राचार्य जिनसेन महापुराण अध्याय - १ पद्म ६२-६३, पृ. ५, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वि. सं. २००० । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर वुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व जन साहित्य में मुख्यत: अहिंसा सिद्धान्त की अभिव्यक्ति हुई है। उसमें लोक-जीवन के स्वाभाविक चित्र अंबित हैं। उसमें सुन्दर प्रात्म-पीयूप-रस छमछलाता है। धर्म त्रिोष का साहित्य होते हुए भी उदारता की कमी नहीं है। मानव स्वावलंबी कैसे बने, इसका रहस्योदघाटन इसमें किया गया है । तस्व-चिंतन और जीवन-शोधन ये दो जैन साहित्य के मूलाधार हैं। जीवन गोगा -सोन) में सारा , सम्यक ज्ञान तथा सदाचार का महत्वपूर्ण स्थान है। जैन सदाचार, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य प्रार अपरिग्रह रूप हैं। प्रत्येक प्रात्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व है । प्रत्येक आत्मा राग-द्वेष एवं कर्ममल से अशुद्ध है । वह पुरुषार्थं से शुद्ध हो सकती है । प्रत्येक प्रात्मा परमात्मा बनने की क्षमता रखती है । जैन दर्शन निवृत्ति प्रधान है । रत्नत्रय ही निवृत्ति मार्ग है। सात तत्त्वों की श्रद्धा ही सम्यग्दर्जन है। प्रात्मा की तीन अवस्थाएं है-बहिरास्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । विचारों को अहिंसक बनाने के लिए अनेकान्त का प्राश्रय आवश्यक है। हिन्दी भाषा का जो रूप गांधीजी चाहते थे, वह इन जैन कवियों की रचनाओं में उपलब्ध होता है । परन्तु साधु संप्रदाय में पले इन कवियों की भाषा संस्कृत निष्ठ थी। जैन कवियों ने अनेकों महाकाव्य भी लिखे, मुक्तक काब्य भी लिखे । उनकी मुश्तक कृतियां उत्तम काव्य की निदर्शन है। वि. सं. १८००-१६०० तक जो भक्ति परक रचनाएं हुई, उन पर रीतिकान का प्रभाव था। उनकी भाषा में भी अलंकारों की भरमार श्री ।। ___ जैन कवियों की भाषा सरल और प्रवाहपूर्णं थी। उन्होंने अनेक नये छन्द, नई राग-रागिनियों में प्रयुक्त किये । अलंकारों के प्रयोग में वे मर्यादाशील बने रहे । भक्ति-काव्य का कोई अंश-अलंकारों के कारण अपनी स्वाभाविकता न खो राका । अनेक जैन कवि प्रकृति के प्रांगण में पले और वही उनका साधना क्षेत्र बना। प्रतः चे प्रकृति चित्रण भी स्वाभाविक ढंग से कर सके। साहित्य-सर्जन की दृष्टि से उत्तर भारत में इस काल में जैनों के प्रमुख केन्द्र गुजरात, दिल्ली और जयपुर थे। इन केन्द्रों पर संस्कृति, हिन्दी, गुजराती राजस्थानी आदि भापानों में साहित्य सुजन चलता रहा किन्तु उसमें गद्य एवं पद्य के हिन्दी साहित्य की ही बहलता रही। उसकी रचना में जमपुर केन्द्र सर्वाग्रणी रहा । म भी राजस्थानी साहित्य प्रेरणा और शक्ति का साहित्य रहा है । ___ इस काल में लगभग ५०-६० जैन कषियों एवं साहित्यकारों के नाम मिलते हैं, जिनमे निम्न लिखिन साहित्यकार उल्लेखनीय है : Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युग और परिस्थितियां "दौलतराम, बुधजन, सालोट जयर, शानसपुर, गलबन्द, देवदास', वृन्दावन, देवचन्द, चन्द्रसागर, रंगविजय, अमाकल्याण, नयनसुखदास आदि।। जैन साहित्य को प्रकाश में लाने का श्रेय पाश्चात्य विद्वान, डॉ. हर्मन जैकोबी, डॉ. हीरालाल जैन, डॉ. ए. एन. उपाध्ये, पं. जुगल किशोर मुस्तार, नाथूराम प्रेमी, डॉ. कामला प्रसाद जैन, डॉ. नेमीचन्द शास्त्री, पं. परमानन्द शास्त्री, अगरचन्द माहटा, प्रभृति विद्वानों एवं वर्तमान में डॉ. कस्तुरचन्द कासलीवाल, पं. कैलाश चन्द शास्त्री, डॉ. देवेन्द्र कुमार जन प्रति विद्वानों को है, जिन्होंने जैन धर्म का अध्ययन कर उसके साहित्य को खोज निकाला। अद्याप जैन कवियों एवं लेखकों ने धर्म प्रचारार्थ ही लिखा है तथापि हिन्दी साहित्य के विकास में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान है। जैन लेखकों ने साहित्यनिर्माण करते समय लोक भाषानों को अपनाया । अपभ्रंश भाषानों को भी जैन कवियों ने अपनाया क्योंकि जैन लेखकों ने साहित्य सर्जना करते समय जन-साधारण की भाषा का पूर्ण ध्यान रखा । यही कारण है कि अधिकांश जन साहित्य अपनश भाषा में लिला गया, क्योंकि उनका उद्देश्य चमत्कार एवं चातुर्य प्रदर्शन न होकर जन-मानस में जीवन के प्रति धर्ममय लगन को जागृत करना था। अपभ्रं पा से हिन्दी का विकास होने से हिन्दी विकास की प्रथमावस्था में भी.उच्च कोटि के प्रबंधकाव्यों की रचनाएं हुई। प्रतएव भाषा विज्ञान की इष्टि से ही नहीं, परन् हिन्दी साहित्य के प्रारंभिक विकास की दृष्टि से भी जन साहित्य का बहुत महत्व है। प्राचीन हिन्दी का जो ऐतिहासिक रूप हमें उपलब्ध है वह जैन विद्वानों की ही देन है। उन्होंने लोक रुचि का समादर करते हुए कुछ ऐसी रचनाएं मानव समाज को दी हैं, जिनका सांस्कृतिक दृष्टि से बड़ा महत्व है। कविवर बुधजन ने साहित्य रचनाकर भारतीय संस्कृति को सुरक्षित रखने का प्रयास किया है। डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री लिखते हैं, "प्रत्येक देश और जाति के मूल संस्कार उसकी अपनी भाषा, साहित्य तथा संस्कृति में निहित रहते है। जातीय जीवन, लोक परम्परा एवं सामाजिक रीति-नीतियों के अध्ययन से हमें उनकी पूरी जानकारी मिलती है। प्रतएव भाषा और साहित्य का प्रत्येक अंग लोक-मानस की अभिव्यक्ति का ही लिपिबद्ध स्वर होता है ।"- कानि का सम्पूर्ण साहित्य नैतिक मूल्यों की महत्ता का प्रतिपादक है। कहीं भी विषय भासक्ति को महत्त्व नहीं दिया है। १. जैम, डॉ. ज्योति प्रसाद : भारतीय इतिहास एक वृष्टि, पृष्ठ ५६२, द्वितीय संस्करण, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशम । २. रा. देवेन्द्र कुमार शास्त्री : अपभ्रंश भाषा और साहित्य को शोष प्रवृत्तियां, पु. १, भारतीय ज्ञान पीठ प्रकाशन । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड १ - जीवन - परिचय कविवर बुधजन का पूरा नाम विरश्रीचन्द या कुछ लोग प्रेमपूर्वक उन्हें वृद्धिचन्द या भदीचन्द भी कहते थे । वे जयपुर (राजस्थान) के निवासी थे । खण्डेबाल जाति में उनका जन्म हुआ था। उनका गौत्र बज था । काव्य-प्रतिभा उनमें बचपन से ही भी । वे गंभीर प्रकृति के माध्यात्मिक पुरुष थे। संसार से उदास, निरभिमानी, विवेकी, अध्ययनशील, प्रतिभावान, श्रद्धानी, आत्मानुभवी, श्रावकोचित नियमों के पालक, परोपकारी एवं सरलस्वभावी संत पुरुष थे। उनका जीवन श्राध्यात्मिक था। समकालीन विद्वान पं. दौलतराम ने अपनी प्रसिद्ध कृति "चहकाला " में उनका प्रादर पूर्वक स्मरण किया है । जन्म तिथि : afeवर बुधजन की जन्मतिथि के बारे में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता तथापि उनकी अपनी कृतियों से तथा समकालीन विद्वानों के उल्लेख से कवि का जन्म संवत् १८२० के आसपास निश्चित होता है । जन्म स्थान : कविवर बुधजन की जन्म तिथि के समान जन्म-स्थान के सम्बन्ध में भी कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता, केवल इतना ही उल्लेख मिलता है कि कवि के १. ठारा से पैंतीस को साल चौथ शनिवार । चैतजन्म जयमाल को भदीजन्य हितकार ।। बुधजन विलास (हस्तलिखित प्रति) की जयमाला शीर्षक रचना से | इकनव वसु एक वर्ष की, तीज शुकल वैशाख । करयो तत्त्व उपवेगा यह लखि बुधजन की भात || दौलतराम छहढाला प्रध्याय ६, पद्म संख्या १६, तेरहवां संस्करणा, जैन ग्रन्थ भण्डार, उदयपुर । सरल Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन परिचय पूर्वज आमेर में रहते थे, जो जयपुर के पूर्व 'हाड़ राज्य ली राजधानी थी। वहां से थे सांगानेर जा बसे, परन्तु जीवन-निर्वाह में कठिनाई का अनुभव होने से वे जयपुर जाकर रहने लगे, वहीं संवत् १८२० के आसपास उनका जन्म हुआ। मृत्य तिथि : कविवर बुधजन की मृत्यु-तिथि का भी कहीं कोई उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ। उनकी अंतिम रचनाएं वर्षमान पुराण सूचनिका एवं योगसार भाषा है, जिनकी रचना वि. सं. १८६५ में हुई । अत: यह निश्चित है कि कवि की मृत्यु वि. सं. १८९५ के पश्चात् ही हुई होगी। साहित्य सेवा: । उनका जीवन, चिन्तन और साहित्य-साधना के लिए समर्पित जीवन था। वे सभी प्रकार के भौतिक द्वन्द्रों से परे थे । सदैव प्रात्म-साधना व साहित्य-साधना में निरत रहते थे। राजनैतिक व सामाजिक विवादों से परे रहकर श्रावक धर्म का पालन करते थे। उनका कार्यक्षेत्र व अध्ययन क्षेत्र जयपुर था 1 "साहित्य-प्रेम उन्हें बचपन से ही था। वे बचपन से ही कविताएं किया करते। उन्होंने अपने उस साहिगि अगोजीन के अन्तिम क्षणों तक निभाया । वे सदा साहित्य-चिंतन में लीन रहा करते थे, पर अाज हमें उनके जीवन की रूपरेखा भली-भांति ज्ञात नहीं है ।" करियर बुधजन प्रध्यात्म-बोली के सदस्य थे। शीली गोष्ठी को कहते हैं, जो हिन्दी जन साहित्य के निर्माण केन्द्र थे । मागरा, अजमेर, ग्वालियर, जयपुर, दिल्ली मादि केन्द्रों पर १८वौं और १६वीं पाताब्दी में हिन्दी-जैन-साहित्य के प्रमुख ग्रन्थों का प्रणयन उक्त केन्द्रों पर होता रहा है। "बुधजन कवि के जीवन के २०० वर्ष पूर्व प्रागरे में एक गोष्ठी थी, जिसमें निरन्तर आध्यात्मिक चर्चाएं होती थीं। कविवर बनारसीदास जी उसके प्रमुख सदस्य थे। इस गोष्ठी के माध्यम से ही उन्होंने शिक्षा पाई तथा कवि व पंडित बने ।" इस मण्डली के अन्य प्रमुख विद्वान थे--"पं. रूपचन्द पांडेय, जगजीवन, धर्मदास, कुवरपाल, कवि सालिवाहन, नंदकवि, हीरानन्द, बुलाकीदास, भैया भगवतीदास, जगतराम, भूधरदास, नथमल बिलाला आदि 13 १. कवि बुधजन : सुषजन सतसई, प्रशस्ति पृष्ठ ५, संपादक नाथूरामग्री प्रेमी हि. सा. का. सं. इति, हिन्दी प्रन्ध रत्नाकर कार्यालय बम्बई प्रकाशन | २. जैन डॉ. प्रेमसागर : हिन्वी जैन भक्तिकाव्य मोर कवि पृ. १७, प्र. संस्करण १९१४ भारतीय ज्ञान पोठ काशी प्रकाशन । ३. देखिये हीरानम्म कुत समवसरण विधान । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन व्यक्तित्व एवं कृतित्व इसी प्रकार दिल्ली में भी एक गोष्ठी थी, जो सुखानन्द की सली कहलाती थी। कविवर यानतरायजी ने इस गोष्ठी के माध्यम से अपनी काव्य-शक्ति बढ़ाई जयपुर में तेरापंथी सैली थी, जिसके पं. टोडरमलजी भादि अनेक सुप्रसिद्ध विद्वान सदस्य रहे थे। कविवर बुधजन ने इसी सैली के माध्यम से अपनी काव्य-प्रतिभा को विकसित किया और उच्चकोटि के सुकयि बन गये । १८ साहित्य-सृजन की दृष्टि से उत्तर भारत में उस काल में जैनों के प्रमुख केन्द्र गुजरात, दिल्ली, आगरा और जयपुर थे । संस्कृत, हिन्दी, गुजराती आदि भाषाओं में साहित्य-सृजन चलता रहा। किन्तु उसमें गद्य एवं पद्य के हिन्दी साहित्य इस डेढ़ की ही बहुलता रही और उसकी रचना में जयपुर केन्द्र सर्वाग्रणी रहा । सौ वर्ष के अराजकता काल में ५०-६० जैन कवियों एवं साहित्यकारों के नाम मिलते हैं, जिनमें लगभग एक दर्जन पर्याप्त महत्वपूरणं हैं । कविवर वजन के समय में आचार्यकल्प पं. दोडरमल की विशेष ख्याति थी। उनकी पूर्व साहित्यिक सेवाओं के कारण जयपुर भारत का प्रसिद्ध साहित्यिक केन्द्र बन चुका था, अतः कविवर बुधजन भी स्वतः उधर मुड़ गये । यद्यपि कविवर बुधजन ने अपने विषय में विशेष कुछ नहीं लिखा है, किन्तु "बुधजन सतसई" की अंतिम प्रशस्ति से संकेत मिलता है कि "जिस प्रकार नायकों के मध्य में सरपंच होता है उसी प्रकार ढूंढार प्रदेश के मध्य में जयपुर नगर था। वहां का राजा जयसिंह था जो इन्द्र के समान था और वह प्रजा का हित करने वाला था 11 राजस्थान राज्य का इतिहास देखने से ज्ञात होता है कि कविवर बुधजन ने अपनी प्रसिद्ध कृति "बुधजन सतसई" में जिस जयपुर के शासक सवाई जयसिंह का नामोल्लेख किया है वह सवाई जय सिंह तृतीय थे। उनका शासन काल १८७६ से १८६२ तक था कवि का जीवन काल भी वि. सं. १८२० से १८६५ तक का रहा है । कवि की रचनाएं भी वि. सं. १८३५ से १८६५ तक की उपलब्ध हैं । श्रतः स्पष्ट है कि कवि ने सवाई जयसिंह की जो प्रशंसा की है वह सही है, क्योंकि कवि के समय में (सवाई जयसिंह) तृतीय जयपुर के शासक थे । २. अनुश्रुति एवं ठांश परिचय कविवर बुधजन के पूर्वज पहले आमेर में रहते थे, जो जयपुर के पूर्व राजस्थान की राजधानी थी। वहां जब जीवन निर्वाह में कठिनाई होने लगी, तो वे १. मधिनायक सरपंच क्यों, जैपुर मधि द्वार । नृप नर्यासह सुरिव तह पिरजा को हितकार ॥ कवि बुधजन : बुधजन सतसई : अन्तिम प्रशस्ति पृ. ५२ संपादक पं. नाथूरामजी प्रेमी हिन्दी प्रत्य रश्माकर कार्यालय, बम्बई । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन परिचय सांगानेर जा बसे, वहां भी जब जीवन-निर्वाह में कठिनाई होने लगी, तो इनके बाबा पूरनमलजी जयपुर पाकर रहने लगे। इनके पिता का नाम निहालचन्द जी था। धार्मिक प्रवृत्तिमय दैनिक षटकर्म प्रापकी नित्यचर्या के विशेष भग थे। वे पवित्र-जीवन निर्वाह करने में दत्तचित्त रहते थे। इन्हीं के घर कवि ने संवत् १८२० के पास-पास जन्म लिया ।। “ीशनकाल व्यतीत होने पर, विद्याध्ययन के लिए आपने गुरुचरणों का प्राश्रय लिया । आपके विद्यागुरु पं. मांगीलालजी ने आपको बड़ी ही तत्परता से पटाया ।"1 "बुधजन" प्रत्युत्पन्न मति थे। अतः अल्प समय में ही उन्होंने पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया । उन दिनों प्राज जैसे विश्वविद्यालय नहीं थे । शिक्षा का विशेष प्रचार नहीं था । संलियों के माध्यम से ही विद्याध्ययन करने की परम्परा थी। कविवर बुधजन का अधिकांश जीवन ढूढार प्रदेश में बीता। पवित्र जीवन-निर्वाह के लिए दीवान अमरचन्दजी के यहां प्रधान मुनीम के पद पर कार्य करते थे । ये अपने पिता की तृतीय संतान थे । प्राजीविका संचालन हेतु उन्होंने और क्या किया इसका उल्लेख कहीं से भी प्राप्त नहीं हो सका । पं. टोडरमलजी ने जिस तेरापंथ परम्परा को सुन बनाया, बुधजन भी उसी परम्परा के प्रबल समर्थक थे। प्रयत्न करने पर भी कवि की जन्म व मुत्यु तिथि का प्रामाणिक परिचय प्राप्त न हो सका। उनके जन्म स्थान व वंश-परम्परा का भी यथेष्ट परिचय प्राप्त ही रहा । संतान पक्ष एवं पारिवारिक जीवन के सम्बन्ध में प्रयत्न करने पर भी [विशेष जानकारी प्राप्त न हो सकी । कवि की रचनाएं ही उनका वास्तविक परिचय है। उन्होंने अपनी रचनामों में मां शारदा को अश्लील, भौतिक शृगार की बातों से कभी कलंकित नहीं किया । सुना जाता है कि कवि के जीवनकाल में जयपुर में १०० जैन मन्दिर थे । उनमें एक शांति जिनेश का मन्दिर बड़े मंदिर के नाम से प्रसिद्ध था। वहां तेरापंथ की अध्यात्म-शैली चलती थी अर्थात् यहां प्रतिदिन गोष्ठी होती थी। उसमें अध्यात्मचर्चा और पठन-पाठन ही प्रमुख था । गोष्ठी में नाटकत्रय सदंव पढ़े जाते थे। उनके अतिरिक्त और किसी ग्रंथ का पठन-पाठन नहीं होता था। नाटकत्रय प्राज भी अध्यात्म के प्रारस हैं । पठन-पाठन मा यह कम प्रातः और संध्या दोनों समय चलता था। परिणाम यह हुया कि श्रोता तत्त्वज्ञान के जानकार हो गये। १. कवियर बुधजन : तस्वार्थयोष की भूमिका प्रकाशन कन्हैयालाल गंगवाल, सर्राफा बाजार, लाकर 1 २. अनेकांत वर्ष १६, किरण ६, पृ० ३५३, फरवरी १९६७, वीर सेवा मंदिर, दरियागंण, दिल्ली। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व "पं नाथूराम जी प्रेमी के अनुसार कवि का वंश परिचय निम्न : प्रकार है" (१) निहालचन्द जी दुस जी (१) गुलाबचन्दजी, (२) अमीचन्दजी, (३) भदीचन्दजी, (४) श्योजीरामजी, (५) गुमानोरामजी, (६) भगतरामजी । अमरचन्दजी I मोतीलालजी शोभाचन्द्र जी 1 पूरणमल जी I सोनजी 1 फूलचन्द्रजी १. दीवान अमरचन्दजी की आज्ञा से श्रापने जयपुर में दो जिन मन्दिरों का निर्माण कराया था जो कवि की श्रमर-कीर्ति का गान कर रहे हैं । कवि की पवित्र विगता उनके मन्दिरों की दीवाल पर अंकित "मोहतोड़" "विषयछोड़", समयपाय चेतभाई से जानी जा सकती है । उस समय जयपुर में छह हजार जैन तथा ४ हजार अन्य जातियों के घर थे। कवि ने अपने जीवनकाल में जयपुर में महाराजा सवाई जयसिहजी (तृतीय) एवं महाराजा रामसिंह का शासन काल देखा था । कविवर बुधजन, जिस समय जयपुर में रह कर साहित्य साधना कर रहे थे, उस समय जयपुर नगर "सवाई जयपुर" के नाम से प्रसिद्ध था । उसका दूसरा नाम " तू काहड" भी था । वास्तव में ढूंढाड़ एक देश था और जयपुर उसका मुख्य नगर । उसके एक भाग में "डूंढाणी" भाषा चलती थी। जयपुर में उसके बोलने वालों की संख्या पर्याप्त थी। कुछ कवियों ने उस नगर को ही "दू ठाहड़" 11 प्रेमी, नाथूराम (सं०) युधजन सतसई प्रस्तावना हिन्दी ग्रंथ कार्यालय, बम्बई । I 1 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 I got: JVC M म 741 progra HD पुनर किसकी एक सी PIC रोल Sv ا لعدم مقسم TI 4 ret jo kattis ********* t.. 1 कुरसीनामा (वंशावली, सोनू जी बड जोर आहे. क WM. 4 Phata पु न لم *** " दोसत नगद जो ** धन्दा नम रहवनात 3 ६ वही MM 7 पूर जै पु STEP ★ ★ → गु र -H ---} WEMA A Broug रसक गुरु 1 Laserunt art wa Sr ा भरेन्द्र वीर जसे लावियल गर्नक Pr 7 .. M फै तान है r प्र A m Aww JWI Faizaila " of t SA कारण 4 ज्योती कुमार‌ जी भगवान थम के सद्‌भावली हजमी था कि आवेद S 3* Pra pro P कुछ क दौलत सक्छ जान S Tu Pa सोमना #.# → नवीन कु‌मार को लेक‌हुन्छन दुीन युगार भी 1 JAANI RANJA MarIciat Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन परिचय २१ देश लिखा है। ढूंढाड़ी भाषा में अच्छे साहित्य की रचना हुई। पं० टोडरमल जी की कृतियों में उसके निखरे हुए रूप के दर्शन होते हैं । "2 ३. कवि का सामाजिक जीवन महाकवि बुधजन भारत के अग्रगण्य गायकों में से थे। उनके प्रशान्त हृदयसागर से शांन्ति का अपर सन्देश लेकर जो धारा बह निकली, विश्व उसे देखकर हो गया। वे सांसारिक मोह माया के वातावरण में रहकर भी उससे अछूते रहे 1 जयपुर में अनेक साहित्यज्ञ हुए हैं और इसके लिए वह अपना एक विशेष स्थान रखता है । उस समय देश का शासन-सूत्र "मोहम्मद शाह" के हाथों में था । बुधजन भी जयपुर के साहित्यज्ञ । साहित्य प्रेम उन्हें बचपन से ही था, उन्होंने अपने इस साहित्य प्रेम को अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक निभाया। ये साहित्य चितन में सदालीन रहने वाले लब्ध प्रतिष्ठ कवि थे। उन्होंने जितना हो हमसे दूर रहने का प्रयत्न किया है, उनके अमर-काव्य ने उनको उतना ही अधिक हमारे संपर्क में ला दिया है। "बुधजन " शान्ति के सच्चे उपासक थे और इसीलिए उन्होंने कविता भी की। उनकी कविता में न तो कोई प्रदर्शन है और न बाह्याडम्बर ही। वे चिरशांति स्थापना के परिपोषक थे, उन्होंने शांति की रूपरेखा बड़ी विलक्षणता से अंकित की । प्राणिमात्र इरासे सुरक्षित रह सकेगा । एक दूसरे के अधिकार को नष्ट नहीं कर सकेगा 1 चाहते थे कि प्रत्येक व्यक्ति अध्यात्म-रस का रसिक बने । वे स्वयं एक चिंतनशील व्यक्ति थे। सदा ही मनन और चिंतन करते रहते थे । कविवर बुधजन के समय में हिन्दी साहित्य के पूर्ण वैभव का विकास हो रहा था । उनके जीवन का बहुभाग जयपुर में व्यतीत हुआ था । पं. सदासुखजी, पं. बख्तावरमलजी, पं. तनसुखलालजी, पं. वृन्दावनजी, काशी पं. भागचन्दजी हंसागढ़, पं. बस्तावरमलजी, पं. दौलतरामजी द्वितीय श्रादि कवि के समकालीन विद्वान थे । निःसंदेह कवि का साहित्यिक व्यक्तिगत व सामाजिक अनुभूति का क्षेत्र विपुल था। सरलता, सादगी व धार्मिक रुचि बुधजन की रचनाओं में प्रस्फुटित हुई । वे हस्थ में गृहस्थी में रहते हुए भी उनकी वृत्ति निरीह एवं सात्विकता की प्रतीक थी । कवि का संपूर्ण जीवन श्राध्यात्मिक था । पांडित्य प्रदर्शन से वे सर्वथा दूर थे। उन्होंने साहित्य-साधना में ही अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर १. प्रान्त वर्ष ११, किरा ६, पृ० २४३, वीर सेवा मन्दिर, दरियागंज, दिल्ली | Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व दिया था । उरकी रचनाओं में जीयन में घटित दैहिक, दैविक, भौतिक विपत्तियों मा अन्य किसी घटना का उल्लेख नहीं मिलता है । अनेक जर कवि ऐसे हुए हैं जो एक और संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश एवं हिन्दी के विशिष्ट विद्वान थे, सिद्धान्त और तर्कशास्त्र के पारगामी थे, तो दूसरी ओर सहृदय भी कम न थे। उनका काव्य उनकी सहृदयता का प्रतीक है । बुधजन कवि की गरगना भी ऐसे ही कवियों में की जाती है । बुधजन का सामाजिक एवं व्यक्तिगत जीवन अन्य साहित्यकारों एवं विद्वानों की भांति विवाद-ग्रस्त नहीं रहा, बे हिन्धी जैन साहित्य के निबिवाद पृष्टा थे । उन्होंने जिस द्दारी भाषा को अपनी रचनामों का माध्यम बनाया, वह हिन्दी के अत्यन्त निकट है, केवल क्रियापदों में थोड़ा सा परिवर्तन करने पर वह हिन्दी के प्रत्यन्त निकट ही है। कषि की रचनाओं में एवं उनके व्यक्तित्व से यह स्पष्ट है कि वे पं. बनारसीदास एवं टोडरमलजी के बाद अन्य जैन साहित्यकारों में अपना विशेष महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं । कवि की कुछ रचनाएं तो इतनी विस्तृत हैं कि उनपर स्वतन्त्र रूप से बहुत कुछ लिखा जा सकता है। उनके समय में हिन्दी साहित्य के पूर्ण वैभव का विकास हो रहा था। कवि के जीवन का बहुभाग जयपुर में व्यतीत हुआ, जयपुर उस समय अध्यात्म-विद्या का प्रमुख केन्द्र था, अत: स्वभावत: कवि के जीवन पर अध्यात्म विद्या की छाप थी 1 ४. कवि की धार्मिक वृत्ति वास्तव में जयपुर में अनेक साहित्यकार हुए हैं और इसके लिए जयपुर अपना एक विशेष स्थान रखता है। कविवर बुधजन बचपन से ही अध्यात्म-रस की कविताएं लिया करते थे । वे सदा स्वाहिल्य-चिंतन में लीन रहा करते थे, पर माज हमें उनके जीवन की रूपरेखा भलीभांति ज्ञात नहीं हैं। संभव है "कविवर बुघजन" प्रात्म-परिचय लिखना नहीं चाहते हों। इसमें उन्हें अभिमान की गंध मालुम हुई हो, लेकिन इससे उनकी महानता में कोई कमी नहीं पाती। वे एक लन्ध-प्रतिष्ठ कवि थे, उन्होंने जितना ही हमसे दूर रहने का प्रयत्न किया है, उनके अमर-काव्य ने उन्हें उतना ही अधिक हमारे सम्पर्क में ला दिया है। वे शांति के एक सच्चे उपासक थे और इसीलिए उन्होंने कषिताएं की। इसमें न तो आपका कोई प्रदर्शन है और न बाह्य आडम्बर हो । वे चिरशांति स्थापना के पोषक थे । उन्होंने शांति की रूपरेखा बड़ी ही विलक्षणता से अंकित की है। कत्रिवर बुधजन चाहते थे कि प्रत्येक व्यक्ति प्राध्यात्म-रस फा रसिक बने । कविवर चितनशील व्यक्ति थे और सदा मनन-चितन करते रहते थे। सत्यम् शिवम् सुन्दरम् का साक्षात्कार करने का उनका प्रयत्न' था। उनमें अनुभूति की तीन ध्यंजना थी। अनुभूति की तीव्र अभिव्यंजना ही कविता है । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन परिचय २३ "बुधजन" ने आत्म- प्रेरणा से प्रेरित होकर ही काव्य की रचना की थी। प्रदर्शन के लोभ से एक भी पद नहीं रचा है। आपकी सर्वश्रेष्ठ रचना है " बुधजन सतसई” । इसमें श्रापने संसार के प्रत्येक पहलू की व्यंजना बड़ी खूबी से की हैं । जैन पद संग्रह भक्ति रस के गीतों से स्रोत-प्रोत एक संकलन मात्र है जिसे गाकर कवि ने शांति का अनुभव किया होगा। आपके शब्द नपे-तुले होते थे । उनका एक-एक शब्द शांति और क्रांति का दोला था, लेकिन इस क्रांति से कविवर चिरशांति की स्थापना करना चाहते थे । वे एक कुषाल गायक थे, उनके गीतों में शान्त रस, प्रवाह बीर ग्रोज की विधारा मिलती है 1 महाकवि बुधजन एक सफल कलाकार थे। हिन्दी आप जैसे कलाकारों को पाकर धन्य हुई और ग्राम जैसे प्रशान्त गायक के श्रमरगीत इस संघर्षमय संसार में अपनी चिरशांति का आलाप सुना रहे हैं । उनकी रचनाओं में भक्ति की ऊंची भावना, धार्मिक सजगता और श्रात्मनिवेदन विद्यमान है। आत्म परितोष के साथ लोक-हित सम्पन्न करना ही उनके काव्य का उद्देश्य है | भक्ति विम्लता और विनम्र श्रात्म-समर्पण के कारण श्रभि व्यंजना शक्ति प्रबल है | कवि द्वारा रचित पदों में उनके जीवन और व्यक्तित्व के सम्बन्ध में अनेक जानकारी की बातें प्राप्त होती हैं। जिनभक्त होने के साथ कवि आत्म-साधक भी हैं। सांसारिक भोगों को निःसार समझना, साहित्य सेवा और सरस्वती श्रारावना को जीवन का प्रमुख तत्व मानना कवि की विशेषताओं के अन्तर्गत है । कवि की रचनाओं का अध्ययन करने से एक बात यह भी स्पष्ट हो जाती हैं कि उन्होंने अपने अन्तजंगल की अभिव्यक्ति अनूठे ढंग से की है । कवि की रचनाएं अध्यात्म प्रधान है | उनके पदों में विराट कल्पना, अगाध दार्शनिकता और सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विशेषताएं हैं । ५. रचनाकाल I कविवर बुधजन अध्यात्म के ज्ञाता थे। उनकी रचनाओं में उनके बहुमुखी व्यक्तित्व, कृतित्व एवं विषय चयन आदि दृष्टियों के दर्शन होते हैं । रचनाओं के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि वे दार्शनिक विचारों को जन-जन तक पहुंचाना चाहते ये | इसीलिए उन्होंने अपनी सम्पूर्ण रचनाएं जनभाषा में लिखीं। उनकी सम्पूर्ण रचनाओं में से कुछ रचनाएं अनूदित हैं । अनुदित रचनाओं में भी कई विषयों पर कवि के मौलिक विचारों का परिचय मिलता है । कविवर बुधजन की प्रथम मौलिक रचना है "हाला" । यह रचना वि० सं० १८५६ को श्रक्षय तृतीया को पूर्ण हुई। जंसा कि कविवर अपनी इस रचना में स्वयं लिखते हैं - ין Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व " द्वारा से पंचास अधिक नव संवत् जाना तीज शुकल वैशाख, ड़ाल पट् शुभ उपजानों ॥ 1 कवि की द्वितीय बड़ी रचना है "बुधजन विलास" | इसमें विभिन्न रागरागिनियों से युक्त पदों एवं भजनों का समावेश है । इसमें सैद्धान्तिक विषयों की प्रधानता है और उसी कारण इस रचना का नाम बुधजन विलास रखा गया है । वि. सं. १८६० से १८७८ के मध्य लिखी हुई रचना इसमें है । कवि की तृतीय बड़ी रचना है "बुधजन सतसई" जिसका रचनाकाल वि. सं. १८७६ है । ग्रंथ की प्रशस्ति में कविवर स्वयं लिखते हैं -- C संवत् द्वारा से श्रमी एक बरतें घाट | ज्येष्ठ कृष्ण रवि अष्टमी, हूवो सतसई पाठ 112 afa की $ : पूर्ण क्रिया था । कविवर इस ग्रंथ की प्रशस्ति में लिखते हैं संवत् द्वारा से विषं अधिक गुण्यासी देश । कार्तिक सुदि पंचमी, पूरन ग्रंथ असेस ॥ बड़ी रचना है "तत्वार्थबोध" कवि ने इसे वि. सं. १८७६ में कवि को पंचम बड़ी रचना है "पंचास्तिकाय" इस रचना की प्रशस्ति में fiकवि ने रचना काल का उल्लेख निम्न प्रकार किया है । ४. ५. रामसिंह नृप जयपुर से, सुदि प्रासीज गुरुदिन दसें । उगी से में घट हैं प्राठ, ता दिवस में रच्यो पाठ || कवि को छटी रचना "ब मान पुराक्षा सूचनिका है ।" यह कीति द्वारा रचित संस्कृत ग्रंथ के अनुकरण पर लिखी गई है। महावीर के अनेक भत्रों का भावपूर्ण वर्णन है। रचनाकाल वि० सं० १८६५ श्रगहन कृष्णा तृतीया गुरुवार है। ग्रंथ की प्रशस्ति में कविवर लिखते है : सकलकीति मुनिरच्यो, बचनिका ताकी बांची 1 तछन्द को रचन वृद्धि, बुत्रजन की रांची ॥ उगनीसी में घाटि पांच संवद वर अगहन कृष्ण तृतीया हुत्रो ग्रंथ पूरन सुरगुरु दिन 115 -- १. बुधजन छहढाला, पृ० ३९, सुवमा प्रेस, सतना प्रकाशन | २. बुधजन : बुधजन सतसई पद्य क्रमांक ६६६, १० १४५ प्र०सं०, सनावद । ३. सुधजन तत्वार्थबोध, पृ० सं० २७७ ए० सं० ११४, प्रकाशन कन्हैयालाल गं चाल, लश्कर | सुजन : पंचास्तिकाय भाषा, हस्तलिखित प्रति वि० जैन मन्दिर, जयपुर । बुधजन व मानपुरारण सुचनिकाः पच सं. ७७-७८ हस्तलिखित प्रति दि० अंन मन्दिर, जयपुर । भट्टारक सकल इसमें भगवान Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन परिचय २५ कवि की अन्तिम रचना "योगसार भाषा" है । इसका रचना काल वि० सं० १८६५ श्रावण शुक्ला तृतीया मंगलबार है । यह कवि की अन्तिम रचना प्रतीत होती है क्योंकि इसके बाद की कोई रचना उपलब्ध नहीं है । ग्रन्थ की प्रशस्ति में कवि ने रचना काल का उल्लेख इस प्रकार किया है : ठारासो पिचानवे संबत सावन मास । सौज शुक्ल मंगल विषस, भाषा ई प्रकाश ।। डा नेमीचन्द्र शास्त्री, ज्योतिषाचार्य पारा ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा" भाग-४ में बुधवन का साहित्यिक-जीवन वि० सं० १८७१ से वि० सं० १८६२ तक स्वीकार किया है। यह संभवत: इसलिए कि डॉ. शास्त्री ने कवि की सम्पूर्ण रचनामों के प्रबलोकन की कृपा नहीं की। उन्होंने कवि की केवल ६ रचनाओं का ही उल्लेख किया है, जबकि कवि' की अब तक १७ रचनाएं उपलब्ध हैं। कविवर की छहवाला की रचना वि० सं० १८५६ में हो चुकी थी। इसके पूर्व ही वि० सं० १८५० में विमल जिनेश्वर की विनती रची गई थी। स्वर्य कविवर के शब्दों में :-- द्वारा सं पंचास माह सुदि पुरन मासी। बुधजन को मरवास, की सुरपुरवासी ॥ यह विनती "बुधजन विलास" में संग्रहीत है। वि. सं. १८७१ में जिनोपकार स्मरण स्तोत्र (पाना २०) वि० सं० १८६६ में दोषबावनी (पाना २१) इसके भी पूर्व वे विसं. १८३५ में नग्बीश्वर जयमाला की कषिवर रचना कर चुके थे। उनकी एक रचना और उपलब्ध है, जिसका नाम "वंदना जखड़ी" है । इसमें रचना काल का बल्लेख नहीं मिलता, तथापि इसका रपना काल वि० सं० १९५५ मनुमानित है। "इष्ट छत्तीसी" यह भी कवि की सुन्दर रचना है। इसमें पंच परमेष्ठी के गुणों का स्मरण किया गया है । इसमें रचना काल का उल्लेख नहीं है। _ इस प्रकार कविवर बुधजन की १७ रचनाएं उपलब्ध हैं। अतः कविवर बुधजन का साहित्यिक रचना काल वि० सं० १८३५ से १८६५ तक रचनाओं के प्राधार पर निश्चित होता है । १. मुधजन : योगसार भाषा : गुटका संख्या २९६१ पृ.सं. १७, मामेर शास्त्र भण्डार, जयपुर। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ६. देहावसान एवं विशिष्ट व्यक्तित्व "यदि हम किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विश्लेषण करना चाहते हैं तो यह आवश्यक होगा कि उसकी कार्य-प्रवृसियों का हमें पूर्ण ज्ञान हो। क्योंकि व्यक्ति के विचार उसकी विभिन्न विषयों में लगने वाली प्रवृत्तियां एवं करने योग्य कार्यों का समूह ही व्यक्तित्व है। विचारों से हमें व्यक्ति के हृदय का ज्ञान होता है और प्रवृत्तियों से उसके चरित्र का बोध होता है। जैन विद्वानों ने जन सांस्कृति के संरक्षण में प्रभूतपूर्व योगदान दिया है और यह प्रावश्यक भी है क्योंकि संस्कृति के बिना कोई जाति जीवित नहीं रह सकती।" "कविवर पजन" के व्यक्तिरस का मानदण्ड है उनका प्राध्यात्मिक प्रेम, सहिष्णुता, उदारता एवं निर्माणात्मक कार्यों के सम्पादन की समता । मैंने कवि के इन्हीं गुणों से प्रभावित होकर एवं स्वयं यह जानकर कि भापकी "वेष दर्शन स्तुति" जिसका प्रारम्भ प्रभु पतित परब्रम" से होता है, एक अत्यन्त भावपूर्ण स्तुति है। कवि की यह छोटी-सी स्तुति समग्र जैन समाज में अत्यधिक प्रसिद्ध है। इसकी लोकप्रियता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि यह समाज के आवाल बद के कंठ पर है। शायद ही ऐसा कोई जैन बालक या बालिका होगी जिसे "बुधजन" की मह स्तुति कंठस्थ न हो। "कविवर बुधजन की सफलता का कारण, उनकी निःस्वार्थ सेवा और परोपकारशीलता का भाव है-धम नहीं। वे परम नैविक और धर्मस्मा व्यक्ति थे। बड़ी ही पढ़ता के साथ श्रावकाचार का पालन करते थे। वे अत्यन्त ही सादे किन्तु सबल व्यक्तित्व के धनी, बहु शास्त्रविद, प्रतिभाशाली, विद्वान, गंभीर प्रकृति के गहन अध्यात्मिक विचारक, मात्मानुभवी और प्रात्म-निष्ठ के रूप में प्रतिष्ठित ___ कविवर का देहावसान जयपुर नगर में कि० सं १८६५ के बाद हुमा, क्योंकि १८६५. के बाद की उनकी कोई रचना उपलब्ध नहीं है। कृतियों के माधार पर कवि का साहित्यिक जीवन ६० वर्ष निश्चित होता है । 1. पं. कैलाशचा सिद्धान्त शास्त्री : गुरुखोपासास परैया स्मृति नप, ० म० दि. जैन विद्वत परिषद सागर, मंत्र कृष्णा १२ वि.सं. २०३३। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-बुधजन द्वारा निबद्ध कृतियां एवं उनका परिचय कविवर बुधजन की कृतियां कालक्रमानुसार निम्न प्रकार उपलब्ध होती है१. नंदीश्वर जयमाला वि. सं. १८३५ इसका बुधजन विलास में संग्रह किया गया है। २. विमल जिनेश्वर स्तुति , १५५० ३. वंदना जखड़ी १९५५ ४. अहवाला (षटपाठ) १८५६ ५. बुधजन सतसंह १८७६ ६ तत्वार्थबोध १७६ ७. पंचास्तिकाय भाषा १८१२ ६ वर्षमान पुराए सूचनिका १८६५ बुधजन विलास में संग्रहीत 8. योगसार भाषा १६६५ १०. बुधजन विलास (जीवन के प्रारम्भ से लेकर अन्तिम समय तक छन्दोबद्द रचनाएं) ११. पद संह (संवत् १८०० से लेकर १८९१ तक) १२. इष्ट छत्तीसी १३, सेबोध पंचासिका १४. मृत्युमहोत्सव १५, पंचकल्याणक पूजा १६, पंच परमेष्ठी पजा १७. सम्मेदशिखर पूजा Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. नंदीश्वर जयमाला वि.सं. १९३५ जम दर्शन के अनुसार इस पृथ्वी पर असंख्यात द्वीप समुद्र हैं । ढाई द्वीप तक मनुष्यों का निवास है । उसके पागे मनुष्यों का मन नहीं हैं । पाठवें तीए का नाम नंदीश्वर द्वीप है । यहां पर प्रकृत्रिम जिन चैत्यालय व उनमें प्रकृत्रिम जिन प्रतिमाए हैं। वहां पर अष्टान्हिका पर्व में धार्मिक प्रकृति के देव-देवियों जिनेन्द्र प्रतिमानों की भक्तिभाव से पूजा करते हैं । चौसठ लाख, इत्यादि अनेक जाति के देव वहां जाकर पूजा करते हैं। यह नंदीश्वर द्वीप नंदीएवर समुद्र से वेष्टित है। इस द्वीप का विस्तार १६३८४००००० एक सौ सठ करोड़ चौरासी लाख योजन है । इस द्वीप की बाह्य परिधिः दो हजार बहसर करोड़ ततीस लाल चौवन हजार एक सौ नब्बे योजन है। इसकी पूर्व दिशा में अंजनगिरि पर्वत है । एक अंजन गिरि, चार दधिमुख, पाठ रतिकर इन तेरह पर्बतों के शिखर पर उत्तम रत्नमय एक एक जिनेन्द्र भवन स्थित है । ये मन्दिर १०० योजन लम्बे, ४० योजन चौड़े, ७५ योजन अचे हैं । इन जिन मंदिरों में देवतागण जल गंध, अक्षत, पुष्प प्रादि द्रव्यों से बड़ी भक्ति से पूजा, अर्था, स्तुति प्रादि करते हैं। पूर्व दिशा की भांति शेष तीन दिशात्रों में स्थित पर्वतों पर भी इसी प्रकार प्रकृत्रिम जिन मंदिर है व उनमें प्रकृत्रिम जिन प्रतिमाए विराजमान हैं। कविवर बुधजन भक्तिपूर्वक इन प्रकृतिम जिन चैत्यालयों की वंदना करते हुए अपनी लघुता प्रगट करते हैं "मैं मंदमति उन प्रकृत्रिम जिन चैत्यालयों की बंदना करता हू मुझ में वह शक्ति नहीं है कि मैं उन का विस्तृत वर्णन कर सकू। मुझ में सुन्दर छन्द निर्माण Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुघजन द्वारा निबद्ध कृतियां एवं उनका परिचय की योग्यता नहीं है । प्रतः विद्वान पाठक मुझपर दया करें। रचना के अन्त में कविवर बुधजन रचनाकास का उल्लेख करते हुए कहते हैं : __ मैंने यह रचना वि० सं० १८३५ चैत्र शुक्ला चतुर्थी, शनिवार को पूर्ण की प्रस्तुत रचना बुद्धजन विलास में संग्रहीत है। २. विमल जिनेश्वर की स्तुति वि. सं. १९५० कविवर बुधजन की यह एक अत्यन्त लघुकाय रचना है। जैन मान्यतानुसार धर्म के प्रबल प्रचारक चतुविशति तीर्थकर माने गये है। उनमें एक नाम विमलनाथ का है । अत्यन्त भाव-विभोर हो कवि विमल जिनेश्वर की स्तुति करते हुए कहते हैं: हे विमल जिन ! मैं आपके चरणों का ध्यान करता हूँ । मैं पागम के प्रनुसार वर्णन करता हूँ। पर आपके गुणों का वर्णन तो बड़े-बड़े इन्द्र, नरेन्द्र, फणीन्द्र प्रादि भी करते हुए नहीं अघाते फिर मेरी तो सामर्थ्य ही क्या है ? हे प्रभु ! प्राप राजपुत्र हैं । पर युवावस्था को प्राप्त होते ही प्रापने दीक्षा पारण की । कुछ समय बाद भम्पको पूर्ण ज्ञान (केवलज्ञान) की प्राप्ति हुई। पश्चात् उत्कृष्ट ध्यान के बल पर प्रापने सम्मेद शिखर (पार्श्वनाथ-हिल) पर्वत से मुक्ति प्राप्त की। आपकी बहिरंग विभूति तो अपार थी पर आपका मन उसमें नहीं रमा व मापने ध्यान के बल पर अपनी अन्तरंग विभूति (अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनंत' सुख, अनन्त बस) प्रगट कर ली । धन्य है ! वह सम्मेद शिखर पर्वत जो आपके घरण स्पर्श से तीर्थ बन गया । १. दग्दों भषि मंदिर जिन, अन कोन प्रति भारणे दी। वरण प्ररथ बल व होन, क्या धरो मुनि अप करि छीन ॥ बुधजनः, खुमलन विलास-नंबीश्वर जयमाला, पच स. १६, पृ. स. २६ हस्तलिखित प्रति से। द्वारासे पैतीस को साल बौषि यानिवार | संत जन्म जपमाल को, वीचन्द हियबार ।। अपचन , अषजन विलास, (नंदीश्वर जयमाला) पम सं. २० पृ. संक्पा २६ हस्तलिखित प्रति से । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व "अपनी लघुता प्रकट करते हुए कवि लिखते हैं. हे प्रभु ! मैं आपके पवित्र चरणों में अपना मस्तक झुकाता हू' । प्राप कृपया मेरी प्रार्थना सुन लीजिए । मेरी प्रार्थना यही है कि आप मुझे ऐसी शक्ति प्रदान करें जो मझे स्वर्ग-मोक्ष के सुखों को प्राप्त करा दे । कवि ने रचना के अन्त में रचनाकाल वि० सं० १८५० माह सुदी पूनम दिया है। ३. वन्दना जखड़ी वि. सं. १८५५ कविवर बुघजन की यह हस्तलिखित कृति श्री दि० जन लूणकरण पांड्या मंदिर, जमपुर से प्राप्त हुई थी। यह लघुकाय कृति कवि की मौलिक रचना है। इसमें कवि ने निर्वाण काण्ड के वर्णन की भांति प्रकृत्रिम जिन चैत्यालयों, भारत के समस्त जन तीर्थ क्षेत्रों, उन सीर्थ क्षेत्रों से तप द्वारा निर्वाण प्राप्त करने वाले यतियों, जयघवल, समयसार, पंचास्तिकाय गोम्मटसार, त्रिलोक्सारादि ग्रन्थों की भक्ति पूर्वक बंदना की है, तथा कमों की जकड़न से छटे परहन्त, सिद्ध एवं छटने का प्रयास करने वाले प्राचार्य, उपाध्याय, साघु इन पंच परमेष्ठियों की भी बंदना की है. एवं अहां जहां सिद्ध क्षेत्र व अतिशय क्षेत्र है, उनका भक्ति-भाव से नाम-स्मरण किया है। पह रचना अत्यन्त सरल भाषा में लिखी गई है। यह प्रतिदिन प्रातःकाल पाठ करने योग्य है। कवि ने रचना का प्रारंभ, चविणसि तीर्थकरों एवं विद्यमान बीस तीर्घरों की स्तुति से किया है । इस रचना में जहां जहाँ से जितने जीव सिद्ध पद को प्राप्त हुए हैं उनकी भी वंदना की गई है। जैन भक्ति साहित्य में प्राचीनकाल १. सुनिये विनती माप घरवं सीस सभाकं । ठारासे पंचास माह सुवि पूरनवासी। बुधजन की पररास की सुरपुर वासी ॥17॥ दुधजनः बुधजन विलास (विमल विनेश्वर की स्तुति) पाना 18 पृष्ठ सं. 9-17 हस्तलिखित प्रति से। २. मादि तीर्थर प्रथमाह बम्बों, बदमान गुण गाबी। प्रजितादि पारस जिनबरलों, पीस दोय मम मानी ॥ सीमंधर प्राधिक तीर्थगर, विरोह कोष माही जी। सकल तीर्थङ्कर गुरागण गाऊ, विरहमान मा माजी ॥ शुषजन : वंदना कसड़ी, पन सं. १-२, हस्तलिखित प्रति, वि. जंग लूणकरण मंदिर, जयपुर । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन द्वारा निबद्ध कृतियां एवं उनका परिचय से जखड़ियां लिखी जाती रही है । बुधजन कृत प्रस्तुत जखड़ी में केवल छत्तीस पद्म है। जखड़ी का अर्थ है जकड़ा हमा। जखड़ी एक प्रकार का सम्बोधन है। हिन्दी के अनेक जैन कवियों ने अपने-अपने ढंग से संसारी जीवों को संबोधित करने के लिए जड़ियों की रचना की । जिनमें भूधरदास, दौलतराम, रूपचव जैसे कवियों के माम . उल्लेखनीय हैं। "रचना के अन्त में कवि ने अपने नाम, स्थान व गुरु के नाम का उल्लेख किया। ४. छहढाला वि. सं. १८५६ यह रचना कवि की एक मौलिक-कृति है । यह छह बालों में निबद्ध है। सामान्यतः ढाल शव काव्य के लिए रूड़ अर्थ में प्रयोग किया जाता रहा है । जिस प्रकार साहित्य में फागु, विलास, रास प्रादि शब्द प्रचलित रहे हैं, उसी प्रकार ढाल शब्द का भी प्रचलन रहा है। यह माद ध्वन्यथं रूप में रास काव्य की भांति गेय रचना के लिए प्रयुक्त किया जाता रहा है। छहढाला के अतिरिक्त श्रीपाल काल. मगावती हाल प्रादि काव्य रचनाए भी उल्लेखनीय हैं । इसके प्रत्येक बन्द को पढ़ते समय एक विशेष प्रकार के प्रवाह का अनुभव होता है। इसमो. छन्द की गति मा चाल या ढाल कहते हैं। छहढाला के छह प्रकरणों में से प्रत्येक प्रकरण की अलगअलग छन्दों में रचना की गई है और पूर्ण रचना में छह प्रकार के छन्दों की ढाल (चाल) होने से इसको छहलाला कहा गया है। कविवर बुधजन की यह रचना धौलतराम की छहवाला का प्रेरणा स्रोत है। ये वे दौलतराम नही है, जिनका उल्लेख प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने पद्मपुराण के निर्माता के रूप में किया है। इनका 'छहढाला' नाम इतना लोकप्रिय हुआ कि १. नगर भौरासें खड़ी कोनी, सकस भव्यमान भाषनी । पास बिहारी (युषजन) विनती गा, मामलेस भुखं पाये जी ।। अषमम : वंदना एखड़ी, पत्र संख्या ३६, हस्तलिखित प्रति रि जन सूरएकरण पास्या मंदिर, जयपुर। २. पाचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, तृतीय संस्करण । पृ. संख्या ४११, काशी मागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी वि. सं. २००३ । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषिपर बुधमन : या संकलित द्यानतराय की पंचासिका और दौलतराम का सत्व-उपदेश भी छहढाला कहलाने लगे । सर्व प्रथम कविवर द्यानतराय ने वि. सं. १७१८ कार्तिक मास की त्रयोदशी को इस प्रकार की छह भागों में विभक्त साधारण उपदेशात्मक रचना की थी तथा कुल ५० छन्द होने से उसका नाम पंचासिका रखा था, जैसा कि ग्रन्थ के अंतिम छंदों से ज्ञात होता है। इसके बाद कविवर खुषजन ने साल शुक्ल तृतीया (अक्षयतृतीया) वि. सं. १८५९ में विषय के क्रमानुसार प्रकरण बद्ध करते हुए इस प्रकार की एक रचना की थी तथा उसका नाम 'छहढाला' रखा था । यह रचना पं. द्यानतराम की रचना से विषय-वर्णन में मधिक विस्तृत है। इसके पश्चात कवि दौलतराम ने 'कवियर बूधजन' की बहढाला से प्रेरणा प्राप्त कर शिल्प-कला के कोशल के साथ सर्या गपूर्ण रखना प्रस्तुत की। उनकी इस रचना में बुधजन की भाषा और भावों की छाया यत्र-तत्र दिखाई देती है। श्री दौलतराम ने स्वयं अपनी रचना के अंतिम छंद में निर्देश भी किया है । उनके ही घाब्दों में: मुझ पं. दौलतराम ने कवि बूधजन 'छहढाला' का प्राश्रय लेकर वि. सं. १८९१ की अक्षय तृतीया को यह ग्रन्थ पूर्ण क्रिया । सामान्यत: यह स्वीकार कर लिया गया है कि दौलतराम की 'छहढाला' के पूर्व कविवर बुधजन की छहहाला मादर्श रूप में श्री बुधजन की यह रचना सुन्दर और महत्वपूर्ण है । पहले सर्वत्र इसी का पठन-पाठन होता था । इस रचना ने अनेक व्यक्तियों पर प्रभाव डालकर उनके जीवन को बदलने और अध्यात्मिकता की प्रोर झुकाने में बड़ा योग दिया है । कविवर बुधजन और कविवर दौलतराम, इन दोनों की छहताला प्राध्यात्मिक जैन साहित्य की अनुपम निधि है । बड़े-बड़े ग्रन्थों का सार इनमें भर दिया गया है। कविवर बुधजन 'छहढाला' की पहली दाल में परिणत वैराग्य बद्धिनी बारहभावनाएं, भाद और लय की मधुरता दोनों एष्टियों से बढ़िया हैं । भाषा और भाव -- - - १. भय उपशम पलसों कहे, थामत प्रक्षर सेह । देख सुबोष पंखासिका, मुषजन शुख करेह ॥ कषि धानसराय : छहबाला, पम संख्या ४७, पृ. सं. १६, प्र. संस्करण शान्तिवीर नगर, महावीरजी।। इकनवबसु एक वर्ष की, तीज शुक्ल साह । कर्यो तस्व उपवेश यह ललिषवन की भाष ।। दौलतराम : छहवाला, पत्र सं. १६, पृ. ५२, सरल जन प्रग्य भंगार, जबलपुर प्रकाशन । ४. हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री : सन्मति शंबेगा. वर्ष १३, अंक सितम्बर १९६८ । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन द्वारा निबद्ध कृतियां एवं उनका परिचय ३३ की दृष्टि से यह रचना अनुपम है। इसकी भाषा प्रज-मिश्रित खड़ी बोली है । कहींकहीं राजस्थानी भाषा के बाद भी मा गये हैं। भाषा-सरल, स्वाभाविक, मुहावरेदार मौर हत्य-स्पी है । प्रध्यात्म जैसे विषय को इतने सरल और रोचक ढंग से प्रस्तुत करना, कषि की बहुत बड़ी विशेषता है। इस पुस्तक में वैराग्य-वईक, शान्त रस ही प्रधान है तथा स्वाभाविक रूप से प्राए हुए उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक मादि प्रसंकार भी यत्र-तष पाये जाते हैं । इसमें चौपाई, नरेन्द्र छन्द, परिचन्द, सोरठा, बालचंद, रालाछन्द इन अन्दों का प्रयोग किया गया है। इसकी विविध छन्द युक्त पदावली पढ़ने में बहुत रुचिकर लगती है तथा सरलता से मर्थ स्पष्ट रहने से बड़ा मानन्द प्राता है और शान्ति मिलती है । वास्तव में यह रचना सभी इष्टियों से अनूठी है। कवि की यह रचना वि. सं. १८५६ को पास शुक्ल: वृतिया (क्षा दृती . दिन पूर्ण हुई । कविवर बुधमन की इस रचना के ठीक ३२ वर्ष बाद कवि दौलतराम (द्वितीय) ने छहढाला की रचना की थी। हिन्दी जैन साहित्य के कवियों ने प्रध्यारम-रस से भरपूर ऐसी अनकों रचनाएं की हैं । पं. बनारसीदास, पं. भागचन्द, यानतराय, बुधजन, दौलतराम मादि कवियों ने अपनी पद रचनामों में मध्यात्म रस की मधुर-धारा बहाई है, उनमें से यह एक छहढाला है, जो सुगम शैली से वीतराग-विज्ञान का बोध कराने वाली है। खुषजन की छहळाला में एवं परवर्ती हिन्दी के जन कवि दौलतराम (द्वितीय) की यहवाला नामक रचना में क्या साम्य पाया जाता है। यह निम्न लिखित बातों से स्पष्ट है । यथा१. बुधजनकृत छहढाला का निर्माण वि. सं. 1859 वैशाख शुक्ला तृतीया (प्रदाय तृतीया) को हुना था, जबकि दौलतराम कृत "छड्काला" का निर्माण उसके ठीक 32 वर्ष बाद वि. सं. 1891 वैशाख शुक्ला ततीमा (अक्षय तृतीया) को हुआ था। 2. दोनों रचनाओं की छहों वालों में पर्याप्त साम्य है। 3, दोनों का प्राधार बादशानुप्रेक्षा प्रादि प्राचीन ग्रन्थ है। ४. दोनों रचनात्रों में विषय-चयन का क्रम निम्न प्रकार है: बुधजन कृत छहढाला की प्रथम ढाल में बारह भावनाओं का वर्णन है। द्वितीय हाल में जीवों के चतुर्गति में भ्रमण सम्बन्धी दुःखों का वर्णन है। तृतीय ढाल में काल लब्धि और सम्पष्टि के भावों का वर्णन है। चतुर्थ हाल में अष्टांग निरूपण है। पंचम दाल में श्रावक-धर्म का वर्णन है। छठी काल में मुनि धर्म का वर्णन है और जगत् के जीवों को सम्बोधन है। दौलतराम कृत "छहवाला" की प्रथम दाल में जीवों के संसार परावर्तन के साथ चारों गतियों के दुःखों का वर्णन है एवं संसारी जनों की गुरु की शिक्षा समझाई गई है। द्वितीय ढाल मैं संसार-भ्रमण के कारण भूत गृहीत, भगृहीत Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ कविवर बुधजन : ध्यक्तित्व एवं कृतित्व मिध्यादर्शन, मिथ्याज्ञान एवं मिथ्याचरित्र के स्वरूप का वर्णन है । इन तीनों को छोड़ने एवं सम्यग्दर्शन, सम्परमान, सम्यकचारित्र को अपनाने की प्रेरणा है। तृतीप दाल में प्रात्मा का सुख बतलाकर उसके उपाय रूप से सम्यग्दर्शन का सांगोपांग निरूपण है और इसे ही धर्म का मूल कहा है । चतुर्थ हाल में व्यवहार सम्यादर्शन, सम्पपज्ञान एवं सम्पक चारित्र का वर्णन है। इसमें मुख्यतः सम्यक्त्वा श्रावक के विश्वास का वर्णन है । पांचवीं काल में जगत्-काय एवं भोगों से विरक्त होने के लिए मारह भावनाओं का वर्णन एवं उनके चिंतन करने का उल्लेख है। इसमें अणुवृत्ती धावक की दैनिक चर्या तथा उसके नतों व जीव मोक्ष-माप्ति की मोर किस प्रकार अग्रसर होता है-इनका वर्णन है । छठी बाल में मुनि पर्म एवं स्वरूपाचरण-बारित्र का पर्णन है एवं जीवों को परम पद की प्राप्ति का उपाय बताया है। समय एसे अपना कल्याण कर लेना चाहिए ऐसी शिक्षा जीवों को दी गई है। ५- बुधजन कृत छहताला की अपेक्षा दौलतराम कुत छहढाला का वर्णन कम अधिक व्यवस्थित है, क्योंकि इसमें पहले चतुर्गति के दुःखो का वर्णन है तथा चतुर्गति में भ्रमण के कारण मिथ्या दर्शन, मिथ्याज्ञाम, मियाधारित्र का वर्णन है । बुधजन कृत छहकाला में मोक्ष के कारण प्रत स्नाय का उस्लेख है। तथापि उसमें सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान का संयुक्त माप से एवं सम्माचारित्र का पृथक से वर्णन किया गया है । ७- दोनों कवियों की रचनाओं में केवल दो आन्दों को छोड़कर शेष में पूरा-पूरा साम्य है । छन्दों की तालिका निम्न प्रकार है: बुधजन कृत छहवाला के छन्द दौलतराम कृत छहवाला के छन्द प्रथम हाल में-चौपाई छन्द द्वितीय दाल में- जोगीरासा छन्द तृतीय ढाल में-पद्धडि छन्द पसर्थ हाल में - सोरठा छन्द पंचम ढाल में-चाल छन्द षष्ठ हाल में--प्रोजगत् गुरु की चाल प्रथम द्वाल में--चौपाई छन्द द्वितीय हाल में-पद्धडि छन्द तृतीय हाल में जोगीरासा बसुध हाल में होला पांचवीं हाल में-चाल छन्द छठी हाल में हरिगीतिका ८- बुधजन कृत "छहढाला' में जैसा मात्म-उद्बोधन है, वसा दौलतराम कत "यहहाला" में नहीं मिलता । उदाहरण के लिए Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० बुत्रजन द्वारा निबद्ध कृतियां एवं उनका परिचय जन चितवत अपने मांहि माप हूं चिदानन्द नहिं पुण्यपाप । मेरा नाहीं है राग-भाव, ये तो विविधवरा उपजे विभावः ॥ ६- छठी ढाल का प्रारम्भ करते हुए "बुषजन" ने मुनि दीक्षा लेने वाले व्यक्ति का जो सुन्दर चित्र खींचा है वह पढ़ने योग्य है । ग्रन्थ की समाप्ति करते हुए बुधजन ने भब्य जीवों का ध्यान एक बार फिर सम्यक्त्व की ओर प्राकपित किया है ' सम्यग्दर्शन सहित नर्क में रहना अच्छा है परन्तु सम्यग्दर्शन के बिना देव व राजा प्रादि की मनुष्य पर्याय भी बुरी है । 2" कितना भावपूर्ण संबोधन है। पहली काल में जो बारह भावनाओं का वर्णन किया है । वह तो विषय और व्यवहार दोनों दृष्टियों से अनुपम है । भात्म- - हितैषियों वारा मनन-पठन योग्य है । २ ३५ दोनों ही कवियों ने अपनी-अपनी छहढाला नामक रचनाओं में सम्पूर्ण जैन वाङ् मय का सार भरकर "गागर में सागर" भरने की उक्ति को चरितार्थं कर दिया है । इस दृष्टि से ये दोनों अनुपम कृतियां है । जो व्यक्ति और समाज दोनों को मोजकर उनमें शक्ति के माध्यात्मिक स्रोत जम्मुक्त कर सकती है । श्री दि. जैन मन्दिर लुगकरगा पांड्या पचेवर का रास्ता, जयपुर के ग्रन्थ भंडार का अवलोकन करते समय द्यानतराय, बुधजन व दौलतराम के अतिरिक्त पं. काशीराम (किशन पंडित) की बह्याला भी हमारे देखने में थाई थी । इस रचना का भली भांति श्रवलोकन करने पर विदित हुआ कि साहित्यिक दृष्टि से यह रचना उत्तम कोटि की नहीं है। रचना अत्यन्त सघुकाय है। कवि ने रचनाकाल वि. सं. १८५२ दिया है । ये बुत्रजन कवि के समकालीन ही हैं। जो भी हों इन चारों कवियों की कृतियों में सर्वाधिक व्याप्ति दौलतराम कृत बहढाला की है । दूसरे नम्बर पर "वजन" की छाला भाती है । शेषं दो रचनाएं प्रसिद्धि को प्राप्त न हो सकीं। फिर भी यह निश्चित हैं कि दाल के रूप में काव्य-रचना उस युग की एक विशेष काव्य-विद्या थी । १- बुधजन छहबाला, तृतीय बाल, पू. संख्या २, पृ. ३४, सुषमा प्रेस सतना प्रकाशन । : भला नरक का वास, सहित समकित के पाता 1 अरे बने जे देव, नृपति, चियामत माता क्वन: छहढाला छठी ढाल, पद्म सं. म, पृ. ३० सुषमा प्रेस सतना प्रकाशन । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व कविवर बुधजन ने अपनी इस कृति की प्रत्येक हाल के अन्त में अपने नाम का उल्लेख किया है। ग्रन्थ के अन्त में कवि ने अपने नाम व रचनाकाल का उल्लेख इस प्रकार किया है: "हे बुधजन तू अपने चित्त में करोड़ों बातों की एक बात यह रखना कि मन, बचन, काय की शुद्धि पूर्वक सदा जिनमत की शरण ग्रहण करना ही प्रत्येक धावक का कत्र्तव्य है। तीनों छहढाला ग्रन्थों के मंगलाचरण की प्राश्चर्य कारिणी समानता इस बात की प्रतीक है कि तीनों ग्रन्थों के रचयिता एक ही परम-तत्व-वीतरागता के उपासक थे। ५-अधजन विलास बुधजन बिलास में कवि की स्फुट कवितामों एवं पदों आदि का संकलन है। इन्हें पढ़कर प्रत्येक सहृदय व्यक्ति प्रात्मविभोर हो उठता है। इनका संकलन वि.सं. १८६२ में किया गया था । कृति के अवलोकन से विदित होता है कि कविता पर उनका असाधारण अधिकार था। उनकी काव्य कला हिन्दी साहित्य-संसार में निराली छटा को लिये हुए हैं। कवि की रचना प्रायः वराग्य रस से परिपूर्ण है और बड़ी ही रसती एवं मन-मोहक है। इसको पढ़ते ही चित्त प्रसन्न हो उठता है और छोड़ने को जी नहीं पाहता । इसके अध्ययन और तदनुकूल प्रवृत्ति करने से मानव-जीवन बहुत कुछ ऊंचा उठ सकता है। वास्तव में कविवर बुधजन की काव्य-कला का विशुद्ध लक्ष्य प्रात्म-कल्याण के साथ-साथ लोक की सच्ची सेवा करना रहा है । जो प्रशानी मानव पाप पंक में निमग्न है, विषय-वासना के दास है, तथा मारमपतन की ओर अग्रसर हो रहे हैं। उन्हें सम्बोषित करके सन्मार्ग पर लगाने का कषि ने भरसक प्रयत्न किया है । कविता के उच्चादर्श का पता बुधजन-विलास की कवितामों के अध्ययन से 1- कोटि बाप्त की बात परे दुषमन पित घरमा । मन ब तम शुख होय गहरे गिन मस का सरना ॥ ठारासे पंचास मधिक नव चित् जानो। तीज शुक्ल शास बालषट् शुभउपमानो ॥ सुषनमः छहढाला, पठीवाल, पच संपया १०, पृ.सं. ३६ सुषमा प्रेस सतना प्रकाशन Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन द्वारा निबद्ध कृतियां एवं उनका परिचय ૨૭ सहज में ही चल जाता है। उनमें लोक रंजन या ख्याति - लाभ पूजादि को कोई स्थान नहीं है । अलंकार तथा प्रसाद गुण से विशिष्ट होने के साथ-साथ उक्त रचना सरल, सरस एवं गम्भीर अर्थ को लिये हुए हैं । कविता में कहीं-कहीं उर्दू, गुजराती अपभ्रंश, राजस्थानी व्रज प्रादि भाषाओं के शब्दों का यथोचित समावेश किया गया है । इसमें भिन्न-भिन्न विषयों पर लिखी गई कविताओं का सुन्दर संकलन है । इसमें निम्नलिखित रचनाएं संग्रहीत हैं, जिनके शीर्षक इस प्रकार हैं— E १ विचार पच्चीसी २ दर्शन पच्चीसी ३ अरहंत देव की स्तुति देव दर्शन स्तुति ४ दर्शना ५ ६ पूजा के दोहे ७ दर्शन के पद म ढाल त्रिभुवन गुर स्वामी की ढाल मंगल की ९ विनती पव विष, छत्तीसी १० ११ द्वादशानुप्रेक्षा १२ शुद्धात्मा - जखड़ी १३ सक्यकत्व - भावना १४ सरस्वती पूजा १५ पूजाष्टक १६ शारदाष्टक १७ गुरु विनती १८ चौबीस दारणा १६ स्फुट पद २० जिनोपकार स्मरण स्तोत्र २५ पद २५ पद ४ पद पद ७ पर्व ६ पद 5 पद ४ प १२ पद ३६ पद १४ पद ८ पर्द १० पद (कवि र की सम्मत भावना का हिन्दी पद्यानुवाद | १५ पद 8 पद पद १४ पद ५० पद १० पद २० पद १- बुधजनः बुधजन विलास शास्त्र भण्डार, बि० जैन मन्दिर, सोनकच्छ म. प्र. वि० सं. १६६६, हस्तलिखित प्रति । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमिवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ५२ पद २१ रोष पापी पति जाने की विनती २२ उपदेश छत्तीसी ३६ पद २३ वचन-मतीसा ३२ पद २४ बोध-दावशी -- १२ पद २५ ज्ञान-पञ्चचीसी २६ नंवीश्वर-जयमाला भाषा २१ पद २७ विराग भावना ५२ पद २८ पद २३५ पद बुधजन विलास में प्राप्त उपयुक्त विषय श्री दि० जैन मन्दिर सोनकच्छ मि. प्र.) से प्राप्त हस्त-लिखित प्रति के प्राधार से स्लिखित हैं। उक्त ग्रन्थ के लिपि कर्ता बृजलाल हैं । हस्तलिखित ग्रन्थ संवत् १९६६ ममसिर सुदी दसवीं को लिखकर पूर्ण हुअा था। बुधजन-विलास की ही एक हस्त -लिखित प्रति हुकुमचन्द जी एम. ए. के सौजन्य से दि. जैन मारवाड़ी मन्दिर ट्रस्ट में प्राप्त हुई थी। इसमें उपयुक्त विषयों के प्रतिरिक्त कुछ विषय और भी हैं वे हैं-1 १. पूजन पहली पढ़ने के दोहा २. समकित जखड़ी ३. लघु श्रावकाचार बत्तीसी इस प्रकार फुल ३१ संख्यक संक्षिप्त रचनामी का सुन्दर संकलन बुधजन विलास में दष्टि गोधर होता है। इनमें कुछ रचनाएं तो इसनी बड़ी हैं कि वे स्वयं एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में संकलित की जा सकती हैं। बुमजम बिलास की कविताएं काव्य-कला की दृष्टि से संपूर्ण रीतियों, शब्दालंकार एवं प्रतिकार से परिपूर्ण है। इसमें स्थान-स्थान पर अनुप्रास और यमक की झलक भी दिखाई देती है । छन्दों की दृष्टि से भी मह अन्य महत्वपूर्ण है। इसमें लगभग ५२ प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया गया है, जिनके नाम इस प्रकार हैं : (१) सोरठा (2) दोहा (३) ढाल त्रिमुखन गुरुस्वामी की (४) लाल करूनाल्योजी की (५) त्रिभंगी छन्द (६) दाल मंगल की १७) हाल नोमंग की (4) चौपाई (६) गीता छन्द (१०) पद्धड़ि छन्द (११) चौपाई छाद (१२) मरहठी छन्द (१३) कुण्डलिया (१४) प्रजिल्ल (१५) सम्यकब जोगिता (१६) राग भैरू' (१७) भैरू की वंचरी (१८) मैरवी (१६) षट्ताल तितालो १२) रागपढा (२१) राग रामकली (२२) राग ललित (२३) विसावल कनड़ी (२४) प्रलहिया 1. कवि बुधजमः सुषवन विवास, हसमिजित प्रति, वि. अन मारवाड़ी मदिर ट्रस्ट, इन्दौर । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन द्वारा निमद्ध कृतियां एवं उनका परिचय बिलावल (२५) प्रासापरी (२६) राग-सारंग (२७) राग सुहरी सारंग (९८) पूरवी साल (२६) राग धनाक्षी (३०) राग गौरीताल (३१) राम ईमन (३२) राग दीपचादी (३३) काफी कनड़ी (३४) पनड़ी जलद (३५) मोटी (३६) राग अंगला (३७) राग अहिंग (३८) राग खंभाषत (३९) राग परज (४०) राग कांहरो (४१) राग प्रभारणो (४२) राग केदारो (४३) सोरठा इक्तालो (४४) सोरठ जलद (४५) राग विहागड़ो (४६) राग विहंग (४७) राग जे जैवंती (४८) मालकोष (४६) राग कालिंगड़ो (५०) गजल रखता (५१) राग मल्हार (५२) मल्हार रूपक । भाषा-दुधजन क्लिास की भाषा बम मिश्रित राजस्थानी है। कवि, राजस्थान के प्रमुख नगर जयपुर के निवासी थे। जयपुर उस समय हिन्दी म साहित्य का प्रमुख केन्द्र था । कारक रचना में ब्रज की विशेषता पाई जाती है। कवि की इस रचना में संयुक्त बगौ को स्वर विभक्ति के द्वारा पुथक करने की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है । प्रथा-सरव (सर्व) जनम (जन्म) खेवर (क्षेत्र) सुभाव (स्वभाव) सबर (शब्द) परतीसि (प्रतीति) प्रातमा (प्रास्मा) पदारथ (पदार्थ) . दरस (दर्य) सत्वारथ (तत्वार्थ) सरधान (श्रद्धान)। इसी प्रकार-- संयुक्त दों को सरल बनाने की पद्धति भी मिलती है। यथा स्तुति का (युति) स्वरूप का (सुरूप) मुति का (दुति) जन्ममरण का (जामन-मरण) स्थान का पान इत्यादि । मुहावरों व लोकोक्तियों के प्रयोग में प्रन्यान्य हिन्दी कवियों की भांति बुधजन में भी भाषा के सौंदर्य का ध्यान रखते हुए उनके सफल प्रयोग किये हैं। यथा निंदक सहले दुःख लई। वन्दक लई काल्यारण। डूबत जलधि जहाज । कहा कमाई करत है गुड़ी उड़ावन हार । समता नीर बुझाय। बैठेशान जहाज में त उतरे भवपार । बुधमन विलास उर्दू एवं फारसी के सन्द जैसे इलाज, स्पाल, सलाह, अरज, पीर, सिरताज, मतलब, दलगीर, दुनियां, जाहर, नहान,मणा इत्यादि मिलसे हैं। झाद विधाम-वुधजन विलास में कषि ने मात्रिक व परिणम दोनों प्रकार के छन्दों के प्रयोग किये है। माधिक धन्दों में दोहा, सोरठा, चौपाई, सवैया आदि छन्द प्रमुख हैं। वणिक छन्दों में कवि ने अनेक छन्दों के सफल प्रयोग किये है, जो उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है। उपयुक्त तालिका कवि के चन्द शाम का स्पष्ट परिचय देती है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० कवियर बुधका पक्तित्व एवं कृषि प्रस्तुत संग्रह में स्थान-स्थान पर अनुप्रास और यमक की झलक भी दिखाई देती है। इस में यद्यपि सभी रचनाएं भाव, भाषा, सन्द, अलंकार प्रादि की रष्टि से उत्तम है परन्तु उन सब में विवेचित रचनाएं बड़ी ही चिन्ताकर्षक आन पड़ती है। कवि अध्यात्म व भक्ति रस के कवि थे अतः उनके कतिपय भक्ति परक पद प्रस्तुत हैं :पद उत्तम नरभव पापके मति भूले रे रामा टेक॥ कीट पशु का तन जब पाया, तब तू रक्षा निकाया । मग नरदेही पाय सयाने क्यों न भजे प्रभु नामा ॥१॥ सुरपति याकी चाह करत उर, कर पाऊं नर जामा । ऐसा रतन पायके भाई, क्यों खोदत विन फामा २॥ घन जीवन तन सुन्दर पाया, मगन भया ललि भामा । काल प्रचानक झटिके खायगा, परे रहेंगे ठामा ॥३॥ अपने स्वामी के पद-पंकज, करो हिये बिसरामा । मेटि कपट भ्रम अपना बुधजन, ज्यों पावो शिवधामा ॥४॥ इसी प्रकार के एक अन्य पद में कितनी प्रबोध पूर्ण पाणी में कवि कहता है संसार एक बाजार है और मनुष्य उसका एक व्यापारी है। व्यापारी बाजार में जाता है और सौदा खरीदता है 1 जो व्यापारी सौदे की पारखी होता है वह हमेशा ऐसा सौदा खरीदता है, जिसमें उसे अधिकाधिक लाभ हो । हानि पहुंचाने वाले सौदे का वह स्पर्क भी नहीं करता । परन्तु जिस ब्यापारी को अच्छे-बुरे माल की परख नहीं होती वह खराब सौदा भी खरीद लेता है। फल यह होता है कि वह हानि उठाता है मोर कुशल व्यापारी अपनी व्यापारिक कुशलता के कारण दिन-प्रतिदिन प्रगति करता है मौर व्यापार में पूर्ण सफलता प्राप्त करता हुमा सुख और शान्ति का अनुभव करता है । कविवर बुधजन की दृष्टि में संसार एक बाजार है और उसका प्रत्येक मनुष्य एक व्यापारी है। इस संसार-बाजार में मानव-व्यापारी को सुकृत का सोदा करना है। ऐसा करने पर ही वह अपने जीवन में लाभ उठा सकेगा। जीवन का सास्वत आनन्द ले सकेगा। इसके लिये मानव-व्यापारी को प्रति-अप अपनी विवेक-अखि जागृत रखनी है। उसे अतीत के घाटे के सौदे पर, पर्तमान में सुकृत के सौवे पर और भावी जीवन को परमानन्दमय एवं पूर्ण निराकुल बनाने के लक्ष्य पर 1, बुजमः बुधजन विलास,पद्य संख्या 66, पृ. संख्या 34, जिमवारणी प्रचारक कार्यालय, 161/1हरीसन रोड, कलकत्ता प्रकाशन । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन द्वारा निबद्ध कृतियां एवं उनका परिचय ४१ सतर्कता से दृष्टि रखनी है। एक क्षण का प्रसाद उसे अनन्त घाटे का सौदा करा सकता है । कवि स्वयं को सम्बोधित करते हुए कहता है। हे भ्रात्मन् 1 लुइस संसार रूपी बाजार में परमार्थ के लिये, आत्म-कल्याण के लिये सुकृत का सौदा करले सम्यक् आचार का पालन कर तूने सौभाग्य से सर्वश्रेष्ठ सद्गृहस्थ के कुल में जन्म लिया है और इस पर भी तुझे वीतराग मार्ग पर चलने का सुअवसर मिला है। फिर भी रे मूढ़ श्रात्मन् ! तू इस सुयोग को क्यों क्षणिक एवं विनश्चर भोग-विलास में बिताये है रहा हैं? हे आत्मन्! मोहनिद्रा में पड़े-पड़े तुम्हें चिरकाल व्यतीत हो गया । तुम्हें पता नहीं है कि कर्मचक्र किस प्रकार तुम्हारे आत्म-गुण रत्नों की लूट कर रहा है। जागो, अब भी नहीं जाग रहे हो ! जीवन व्यापार में लाभ उठाने के इच्छुक प्रत्येक मानवात्मा के लिये कविवर की यह पवित्र प्रेरणा न मालूम कब तक स्फूर्ति प्रदान करती रहेगी। 1 कविवर बुधजन के पूर्ववर्ती व परवर्ती अनेक हिन्दी के कवियों ने विलास नाम से रचनाएं की हैं। सच तो यह है कि १६वीं शताब्दी से १६वीं शताब्दी तक के कवियों में इस प्रकार की रचना करने की एक परम्परा ही चल पड़ी थी । विलास नामक रचनाओं की परम्परा सम्बन्धी संक्षिप्त तालिका कालक्रमानुसार निम्न प्रकार है : १. करले हो जीव, सुकृत का सौदा करले । परमारथ कारज करले हो || उत्तम कुल को पायक, जिनमत रतन लहाय । भोग भोग ये कारने, क्यों शठ देत गमाय ॥ व्यापारी वन ग्राइयो, नर-भव हाट-भंभार । फलदायक व्यापार कर, नातर विपत्ति तयार || भव अनन्त बरती फिरयो चौरासी बन मांहि । अब नरदेहीं पायक, अध खोवे क्यों नाहि || जिनमुनि भागम परखकें, पूजो करि सरभान । कुगुरु, कुदेव के मानवे, फिर्यो चतुर्गति धान | मोहनी-मां सोवता, डूबी काल अटूट | " बुवजन" क्यों जागो नहीं, धर्म करत है लूट || सौदा करले, करते हो जीव सुकृत का सौदा करले हो ।1 " afa बुधजन, बुधजन विलास, पद संख्या २३५ जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, १६१/१ ह्ररीक्षन रोड, कलकत्ता Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जीवन परिचय क्रमांक प्रतिनिधि कवि रचना का नाम शताब्दी * १७ थी १८वां १. सुन्दर दास जगन्नाथ बनारसीदास धानतराम जगतराम ६. जटमल विलाला ७. मुनि हर्ष समुद्र ८. मशोविजय १. लक्ष्मी यल्लभ १०. खड्गसेन ११. दौलतराम कासलीवाल १२. भूधरदास १३. बुधजन १४. दौलतराम (द्वितीय) १५, मैया भगवतीदास १६. विजय गच्छ १७. विनय विजय १८. नथमल बिलाला १६. दीपचन्द शाह २०, युन्दावन लाल २१. ज्ञानानन्द २२. वृन्दकवि २३. देवीदास २४, बखतराम २५. गुलाबराय २६. मनरंगलाल २७. लालचन्द २८. परमानन्द जौहरी २६. पारसदास निगोत्या ३०. मोतीलाल ३१. पं. लक्ष्मीचन्द ३२. जोधराज कासलीवाल सुन्दर-विलास भामिनी-विलास बनारसी-विलास बानत-बिलास शान-विरास प्रेम-विलास भावना-विलास जस-विलास भावना-विलास मागम-विलास विवेक-विलास भूधर-विलास बुधजन-विलास दिलाराम-विलास ब्रह्म-विलास राज-विलास विनय-विलास जिनगुण-विलास अनुभव-विलास चन्दाबन-विलास ज्ञानानन्द-विलास घुन्द-विलास परमानन्द-विलास बुद्धि-विलास शिखिर-विलास शिखिर-विलास शिखिर-विलास चेतन-विलास पारस-विलास मरकत-विलास लक्ष्मी-विलास सुख-विलास Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन द्वारा निबद्ध कृतियां एवं उनका परिचय ४३ इनके अतिरिक्त यम विलास, शील बिलास, सभा विलास, कारक विलास विवेक विलास, नमन सुख विलास इत्यादि अनेक रचनाएं विलास नाम से इन शताब्दियों में रखी गई। ये अधिकतर गेय रचनाएं हैं । "सुधजन विलास" की प्राय: सम्पूर्ण रचनाएं गेय हैं। प्रायः सभी मुक्तक छन्द हैं। इन सभी रचनाओं को विषय की दृष्टि से मुख्यतः तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है । (१) नीति प्रधान रचनाएं (२) संद्धान्तिक रचनाएं (३) आध्यात्मिक रचनाएं | (नीति प्रधान रचनात्रों में बुधजन सतसई, पद संग्रह, बुधजन-विलास श्रादि । बाध्यात्मिक रचनाओं में छहढाला तत्वार्थ बोध, वर्ल्ड मान पुराणसूच सुचनिका, योगसार भाषा आदि । आध्यात्मिक रचनाओं में पंचास्तिकाय भाषा आदि हैं । इनके अतिरिक्त भक्ति प्रधान रचनाएं भी हैं, जिनके नाम हैं-नंदीश्वर जयमाला, इष्ट छत्तीसी, विमल जिनेश्वर स्तुति, वन्दना जखड़ी आदि ३) बुधजन विलास की दो प्रमुख कृतियों का परिचय निम्न प्रकार है । ६ - दोष बावनी ( १८६६ बि. सं.) कवि की यह एक लघु कृति है 1 इसमें कुल ५२ पद्य है । यह खौपाई छन्द में लिखी गई है। इस रचना के निर्माण में कवि का लक्ष्य यह रहा है कि मनुष्य पाप कार्यों से सदा बचता रहे क्योंकि पाप कार्यों का फल अन्ततः दुःख रूप ही होता है । इम्हीं पाप कार्यों के कारण जीवों को खोटी गतियों में जन्म लेना पड़ता है । - कवि ने बड़े ही सुन्दर ढंग से दुर्जन के लक्षण बताये हैं वे लिखते हैं:दुर्जन व्यक्ति कभी प्रभु का नाम लेना नहीं चाहता जबकि सज्जन पुरुष प्रभु का नाम सुनते ही प्रसन्न हो जाता है। सच्चे व झूठे देवी-देवताभों की परीक्षा न कर सकने के कारण दुर्जन पुरुष दुर्गाति के पात्र होते हैं । दुर्जन पुरुष मक्ष्य, अभक्ष्य का, धर्म, अधर्म का । जाति कुजाति का अन्तर नहीं समझते। पांचों इन्द्रियों के विषय भोगों में दिन-रात लीन रहते हैं । रात-दिन खोटे बंधों में व्यस्त रहते हैं। धर्म चर्चा में गूंगे बन जाते हैं | नाटक-सिनेमा, नाच-गाना प्रादि में रस लेते हैं । कभी त्याग करते नहीं । कदाचित् दानादि देते भी है तो मान हैं। श्रद्धालु धर्मो जनों की हंसी उड़ाते हैं । रातभर जागते हैं । बड़ाई के लिए देते रचना के अन्त में कवि ने अपने नाम का तथा रचना काल का उल्लेख किया है जो इस प्रकार है--- १ ठारेसे छाछ के साल श्रावरण सुदि दिन तीन विशाल । शेष अगले पृष्ठ पर Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ७-जिनोपकार स्मरण स्तोत्र (१८७१ वि. सं.) यह रपना एक प्रकार का स्तोत्र है। चौपाई, कुण्डलिया, सोरठा, छन्दों में लिखी गई है । भक्त जन अपने आराध्य के समक्ष अपने को दीन-हीन मानता है । बह अपने माराध्य में प्रनंत गुणों का समाबेश देखता है। चौपाई छन्द में कवि कितनी महत्वपूर्ण बात कह रहा है : हे प्रभु ! जो लोग प्रापका भक्ति-भाष पूर्वक ध्यान करते हैं वे अापके समान बन जाते हैं। इसी कारण मैं आपका ध्यान करता हूं। मैं आपके अनंत उपकारों को जानता हूं । भक्त को इस बात का पूरा ज्ञान है कि स्त्री, पुत्र, आभूषण, धन, मकान ये सब वस्तुए' क्षणिक है अतः इनके उपजने व नष्ट होने में वह हर्ष-विवाद नहीं मानता । बहिरात्मा (भौतिकवादी) पन का त्याग कर अन्तरात्मा (ज्ञानी) बनता है । देहादि के स्वभाव को वह भली भांति जानता है कि ये देहादि क्षणिक हैं । वस्तुतः जीव मरता नहीं पर प्राणों के वियोग को व्यवहार में मरण कहा जाता है । भक्त जानी जन जानते हैं कि मनुष्य, देव, मंत्र तंत्र औषधि आदि भी इस जीव को मरने से बना नहीं सकते । वह अपनी ज्ञान निधि को ही सर्वश्रेष्ठ मानता है। वह अपने को ही सम्बोधित करते हुए कहता है । है प्रास्मन | तू तो ज्ञानस्वरूपी है । तथापि समवश अडवत हो रहा है। रागी-द्वेषी बन कर विपत्तियों में फंसा हुआ है। इसमें तेरी ही मूल है। कवि एक सुन्दर रष्टान्त देते हुए कहते हैं- यद्यपि दूध और पानी मिल जाते हैं तथापि वे दोनों अपनी अपनी सत्ता को नहीं छोड़ते । भिन्न-भिन्न ही रहते हैं 1 उसी प्रकार शान सष्टि से विचार करने पर शरीर व मारमा की भिन्नता भी स्पष्ट हो जाती है । क्योंकि शरीर जड़ है प्रवेतन है, नाशवान है, रूपी पदार्थ है जबकि प्रात्मा चेतन है, स्थायी है अरूपो है, ज्ञान, दर्शन शक्ति सम्पन्न है । अतः दोनों की एकता का कोई प्रश्न ही नहीं। दोष बावनी पूरण भया, "बुधजन' पढ़ियों रचि बया ।। कवि बुधजन : खुषनन विलास (वोव बावनी) पाना नं. २१ हस्तलिखित प्रति के मापार से। २- तुम जिन ध्यान लोक जो करे, सो निश्चय तुम तुलिता धरे । तातें ध्यान कर हूं तोय, तुम उपगार बान में जोय ।। सुधजन : बुधजन विलास (जिनोपकार स्मरए स्तोत्र) पाना मं. १८-१९ हस्तलिखित प्रति । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 बुधजन द्वारा निबद्ध कृतियां एवं उनका परिचय ४५ भक्त पुनः कहता है- अनादिकाल से यह जीव कर्मों से सम्बन्ध होने के कारण मलिन है तथापि है जिनवाणी चापके प्रसाद से वह मत्यन्त निर्मल हो जाता है और पूर्ण ज्ञानमय हो जाता है । ८- इष्ट छत्तीसो जैन कायों में पंच परमेष्ठी का महत्वपूर्ण स्थान है। पंच परमेष्ठियों को ही पंच परमगुरु माना गया है । अरहन्त, सिद्ध, पाचार्य, उपाध्याय और साधु (मुनि) ये पंचपरमेष्ठी हैं । अरहंत को जिन या जिनेन्द्र भी कहते हैं । उनका सौंदर्य प्रेरणा का अक्षय पुंज है। जैन धर्मानुयायी सर्व प्रथम प्रातःकाल उठते ही पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हैं । कविवर बुधजन ने इष्ठ बत्तीसी ग्रन्थ में मंगलाचरण के रूप में अरहन्त की ही भक्ति की है। वे लिखते हैं: "मैं श्री अरहन्त को प्रणाम करता हूं । दयामय धर्म को नमस्कार करता हूँ तथा निर्ग्रन्थ (परिग्रह रहित ) गुरु ( प्राचार्य, उपाध्याय साधु) को नमस्कार करता हूँ मंगलाचरण के पश्चात् अरहंत परमेष्ठी के ४६ गुण, सिद्ध परमेष्ठी के प गुण, प्राचार्य परमेष्ठी के ३६ उपाध्याय परमेष्ठी के २५ गुण तथा साधु परमेष्ठी के २८ गुणों का विस्तार से विवेचन किया है । ग्रन्थ के अन्त में कवि कहता है कि: "मैंने यह इटीसी ग्रन्थ साधर्मी जनों के नित्य पठन-पाठन हेतु बनायर है। हित-मित शिवपुर पंथ प्रदाता पंचपरमेष्ठी के गुणों का वर्णन मुझ श्रल्प मति (बुधजन ) द्वारा किया जाता है । 1 यह रचना मुख्यतः सोरठा और दोहा छन्दों में लिखी गई है । ६ - बुधजन सतसई (वि. सं. १८७६) यह कविवर बुधजन की लोक प्रिय काव्य रचना है। कविवर बुधजन नीतिकाव्य निर्माता के रूप में हिन्दी जैन साहित्य में ख्याति प्राप्त हैं । जैन रचनाएँ १- प्रभू श्रीरहंत, दया कथित जिनधर्म को । गुरु निरपत्य महंत, और न मानू सर्वदा || बुधजन शुषजन विलास (इष्ट छत्तीसी) पाना १३, हस्तलिखित प्रति से। १- साधरमी भव पठन को इष्ट बत्तीसी प्रत्थ । शेष अगले पृष्ठ पर - Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ___ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व भारतीय नीति काव्य की अक्षय राशि हैं। जैन धर्म की प्राचार प्रधानता के कारण जैन साहित्य में भी नीति उक्तियो प्रधान लक्ष्य बनकर ग्राई है। मध्यकालीन हिन्दी काब्याकामा में तुलसी, बिहारी, रहीम व वृन्द के समान बनारसी दास, धानतराय', भूधरदास, बुधजन प्रादि जैन कवि भी उन नक्षत्रों में से हैं जो अपने विवेक-आलोक से अज्ञानान्धकार से भूल मटोहियों का पथ प्रशस्त करते रहे हैं तथा प्रागे भी करते रहेंगे। कषि की नीति सम्बन्धी प्रसिद्ध रचना बुधजन सतसई एवं अन्य रचनात्रों का मध्ययन प्रस्तुत करने के पूर्व नीति शन्द की व्याख्या प्रस्तुत करना आवश्यक है। यह निम्न प्रकार होगी नीति-शब्द प्रापणात धातु "नी" (णी) तथा भावार्थक प्रत्यय (क्तिन् ति के संयोग स निष्पन्न होता है । इसका अर्थ है नयन (ले जाना) प्रथवा प्रापण (पहुंचाना। परन्तु आज कल यह प्रायः उक्ति अर्थ में प्रयुक्त होता है । हिन्दी के कवियों ने नीति शब्द का प्रयोग सर्वत्र उमित अर्थ में ही किया है । हाल कवि ने प्राकृत भाषा में 'माथा सप्तगती' की रचना ईसा की प्रथम द्वितीय शताब्दी के लगभग की थी। उसी के अनुकरण पर मुक्तक काव्य में सतसई की रचना हिन्दी में होने लगी । सर्वाधिक श्रेय "बिहारी सतसई' को प्राप्त हुआ । शृगार की रचना होते हुए भी यह इतनी लोक-प्रिय हुई कि इसके प्रमुकरण पर, विक्रम सतसई, मतिराम सससई, बुन्दसतसई, वीर सवसई प्रादि अनेफ सतसई ग्रन्थ लिखे गए हैं। प्रस्तुत रचना भी इन्हीं सतसई ग्रन्थों की पद्धति पर ७०२ दोहों में लिखी गई है । इस सरस नीति पूर्ण रचना में देवानुराग शतक, सुभाषित नीति: उपदेशधिकार और विराग भावना ये चार प्रकरण हैं। प्रथम-देवानुराग-शतक मक्ति प्रधान है। इस खंड में कवि ने १०० दोहे लिखे हैं । दास्म-माव की भक्ति अपने प्राराध्य के प्रति प्रगट की गई है । अपनी मालोचना करना और जिनेन्द्र की महानता को व्यक्त करना ही कवि का लक्ष्य है पिछले पृष्ठ का शेष मल्प बुद्धि बुधजन ररुयो, हितमित शिवपुर पंथ ॥ अषन्नन : , इष्ट छत्तीसी, पाना १४ हस्तलिखित प्रति से । १- पी प्रापणे, पाणिनिः सिद्धान्त कौमुधो, पृ. सं. ४७० ई. सन् १९३८ निर्णय-सागर प्रेस, बम्बई। २- 'स्त्रियां क्तिन' पाणिनी, अष्टाध्यायी, ३-३-६४ निर्णय सागर प्रेस, अंबई ३- शर्मा,राजनारायण एम. ए. मध्यकालीन कवि और उनका काव्य, पृष्ठ सस्या ? Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन द्वारा निबद्ध कुतियां एवं उनका परिचय ४७ ४७ प्रतः वह कहता है: हे प्रभु ! मेरे प्रषगुणों की पोर ध्यान मत दो क्योंकि मेरे अवगुणों की गिनती नहीं है, मैं अवगुणों का धाम हूँ। मैं पवित्र हूँ और आप पतितउद्धारक । मत: मुझ जैसे पतितों का काम बमा दीजिये । द्वितीय-सुभाषित खण्ड-में ३०० दोहे हैं । ये सभी दोहे नीति विषयक हैं । लोक मर्यादा के संरक्षण के लिए कवि ने अनेक हितोपदेश की बातें लिखी हैं । कबीर तुलसी, रहीम, और वृन्द के दोहों से इस विभाग के दोहे समानता रखते हैं। इस विभाग के अनेक चोहे नीति के निदर्शन है । यथा ___ "योग्य प्रकार पर योग्य ही वचन बोलना चाहिये। जिस प्रकार पानी यदि सावन, भादों में बरसता है तो उससे सभी को शान्ति मिलती है । जो लोग योग्य अवसर के बिना बोलते हैं उनका मान घटता है, जैसे बादल यठि कार्तिक मास में बरसते हैं तो सभी उनको बुरा कहते हैं, कोई भी उनकी सराहना नहीं करता। इत्यादि तुतीया-उपवेशाधिकार में 200 दोहे हैं । इस खंड में विविध विषयों का क्रमबद्ध वर्णन है । विद्या-प्रपांसा, मित्रता मोर संगति, जुना-निषेध, शिकार-निन्दा, चोरी-निन्दा, परस्त्री-सम-निषेष पीर्षकों में यह खंड विमानिस है। __चतुर्थ-विराग भावना-खण्ड में बराग्यवद्धक 202 दोहे हैं । नीतिकाम्प की रष्टि से सुभाषित नीति तथा उपदेशाधिकार ही विशेष महत्वपूर्ण हैं । इस खण्ड में संसार की भसारता का बहुत ही सुन्दर मौर सजीव चित्रण किया मया है । इस खण्ड के सभी दोहे रोचक और मनोहर हैं । सुभाषित नीति में सो विविध-विषपों का प्रायः कोई विशेष क्रम लक्षित नहीं होता, परन्तु उपदेशाधिकार के दोहे विद्या प्रशंसा आदि शीर्षकों में विभाजित है । इसके एक एक दोहे में जीवन को प्रगतिशील बनाने वाले पमूल्म सन्देश मरे है । कतिपय उदाहरण प्रस्तुत है । या-- -- - ४. मेरे भोगुम मिन ; मैं मोगुनको धाम । पतित उद्धारक पाप हो, करो पतित को काम । धुषजनः देवानुरागशतक पीर्षक, सुधजन सप्तसई, पद्य सं. ७५, सनावद । प्रोसर परखके बोलिये, प्रथा बोगता धेन । सावन भादों बरसते. सब ही पावै बेन ॥११॥ बोलिजळे मोसर विमा, ताका रहे न मान । जैसे कातिक बरसते, निग्ये सकल महान ॥११॥ बुधजनः बुधजन सतसई (मुभाषित नीति) प. सं. ११६-११७, सनावर 2. बुधजनः बुधमन-सतसई, पब सं० १०८, 125,223 (सनाब) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व एक चरन ह नित पढ़, तो काटे अज्ञान । पनिहारी की लेज सौं, सहज कटे पाषाण ।। 108 || महाराज महावृक्ष की, सुखदा शीतल छाय । सेवत फस मासे न तो, छाया तो रह जाय ॥ 125 ।। पर उपदेश करन निपुन, ते तो लखे अनेक । करे समिक बोले समिक, ते हजार में एक ।। 223 ।। इस खण्ड के कतिपय दोहे तो पंच तंत्र और हितोपदेश के श्लोकों का अनुवाद प्रतीत होते हैं । तुलसी, कबीर और रहीम के दोहों से भी कवि अनुप्राणित प्रतीत होता है। इन दोहों के मनन-चिंतन-स्मरण और पठन से प्रात्मा निर्मल होती है। हृदय पवित्र भावों से भर जाता है और जीवन में सुख-शान्ति का अनुभव होता है । इष्टान्ती द्वारा संसार की वास्तविकता चित्रण करने में कवि को अपूर्व सफलता मिली है। वस्तु स्थिति का बास्तविक चित्र प्रोखों के सामने मूर्तिमान होकर उपस्थित हो जाता है । कतिपय रष्टान्त प्रस्तुत हैं । यथा इस जीव का इस जगत् में वास्तव में कौम पुत्र है और कौन स्त्री ? किसका धन एवं परिवार है ? जिस प्रकार धर्मशाला में देश-विदेश के, विभिन्न जातियों के, विभिन्न धर्मों के लोग एकत्रित हो जाते है, परन्तु थोड़े ही समय के पश्चात् सब बिछुट जाते हैं। जिस सम्पत्ति के लिये यह मानव निरंतर कष्ट उठाता है, भरते समय वह भी साथ नहीं जाती, यहीं पड़ी रह जाती है। जिसे नाना प्रकार से लिलाया पिलाया-सजाया-संवारा जाता है, वह देह भी यही पड़ी रह जाती है। इस संसार में जो भी भाया है उसे एक न एक दिन अवश्य ही जाना होगा । भव राजा दशरथ, लक्ष्मण और राम असे वली एवं न्याय-नीति पूर्वक जीवन व्यतीत करने वाले पुरुष भी जीवित नहीं रह सके तो झूठ, कपट प्रादि करने वाला तू कैसे चिरकाल तक जीवित रह सकेगा? ___कवि की चुभती हुई उक्तियां हृदय में प्रविष्ट हो जाती है तथा जीवन के प्रान्तरिक-सौदर्य की अनुभूति होने लगती है। सतसई के एक-एक दोहे में कवि को है सुत को है तिया, काको धन परिवार । पाके मिले सराये में, बिछ रेगे मिरपार ॥५०३।। परी रहेगी संपदा, परी रहेगी काय । छलवलकर क्यों ना बचे, कान मपट ले जाय ।।१५।। माया सो नाहीं रझा, बशरण लक्ष्मण राम । तू वैसे रह नायगा, झूठ कमर का पाम ॥५२३।। बुधजनः बुधमन सतसई, पच सं. ५०३, ५१५, ५२३ प्र. संस्करण, सनावद। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन द्वारा निबद्ध कृतियां एव उनका परिचय ने जीवन को गतिशील बनाने वाले अमूल्य संदेश भरे हैं। इसमें भक्तिमार्ग, सुभाषित नीति, उपदेश, विद्याप्रशंसा, वैराग्यभावना, प्रात्मानुभव के विषय में सात सौ दोहे लिखकर जिज्ञासुग्नों के लिए अपूर्व विज्ञान दिया है। इसमें बड़ी ही कला कुशलता के साथ अध्यात्म, वैराग्य और सदाचार की त्रिधारा प्रवाहित की गई है । 'इसकी रचना वि० संवत् १८७६ में हुई थीं।1 सतसई की रचना का उद्देश्य मानव को प्रसत् से सत् को प्रोर ले जाने का प्रतीत होता है । ग्रन्थ की प्रशस्ति में कवि स्वयं लिखते है "भूख सहन करना पड़े तो कर लो । दरिद्रता सहन करना पड़े तो उसे भी . सहन कर लो। लोकापवाद सहन करना पड़े तो उसे भी सहन कर लो, पर कभी भी निन्दनीय कार्य मत करो। इसी प्रकार एक और अन्य पश्च में कवि कहता है । 'मैने यह रखना अपनी अन्तः प्रेरणा से ही बनाई थी, अन्य कोई विशिष्ट वहश्य नहीं था। न किसी की प्रेरणा से, न किसी की प्राशा से मैंने यह रचना की है, किन्तु केवल अपनी बुद्धि को परिमाजित करने के लिए ही मैंने यह ( रचनने देवानुराग शतक में कवि अपने आराध्य को अनंतगुणों और रूपों वाला देखता है और अपने आपको उनका वर्णन करने में असमर्थ पाता है । ५ कि नर पर्याय बार-बार नहीं मिलती प्रस: वह इस अवसर को चूकना नहीं चाहता । वह अपनी प्रार्थना किसी के माध्यम से नही वरन स्वयं ही करना चाहता है । यथा जो में कहा और तें, तो न मिट उरझार । मेरी तो सोपं बनी, तातै करों पुकार' ।। १. संवत् कारा से प्रसी, एक बरसते घाट । ज्येष्ठ कूष्ण रवि प्रष्टमी, हवो सतसई पाठ ।। सुषजनः पुषजन सतसई, पर सं० ६६६, पृ०सं० १४५, प्र० संस्करण, समावव । २. भूल सहो वारिद सहो, सहो लोक भपकार । निधकाम तुम मतिकरो, यहै प्राथको सार । धुधजनः बुषजन सतसई, तृ० प्रावृत्ति, पृ०सं० ७४१६६६, जैन ग्रन्थ रस्नाकर कार्यालय, बम्बई, प्रकाशन । ३. ना काहू की प्रेरणा, ना काहू की प्रास । अपनी मति तीखी करन, बरभ्यो बरन विलास ॥ बुषमनः सुषजन सतसई, ४. प्रावृत्ति, पृ.सं. ७४/६९६, जग प्रन्य रत्नाकर कार्यालय, अम्बई प्रकाशन । ४. बुधजनः सुषज. सतसई, पद्य संख्या १३ पृ०सं ३, प्र० संस्करण सनावद । . Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व afa अपने इष्ट को तनिक भी कष्ट देना नहीं चाहता, वह अपने कार्य को शीघ्र भी करना नहीं चाहता। वह तो यही चाहता है कि उसका कार्य सही रूप से हो जाये । रचना के अवलोकन से लगता है कि यह कवि की श्रेष्ठ रचना है। इसमें उत्तम कवियों की भांति अनुभूतियों का तीव्र व्यंजन्ग है। संसार के प्रत्येक पहलू की व्यंजना बड़ी ही खुशी के साथ की गई है। उन्होंने सूर, तुलसी और मीरा की भांति अपने आराध्य को महान एवं स्वयं को क्षुद्र बताया है। वे लिखते हैं : ५० हे प्रभु पाप तो श्रीनानाथ हो और में दीन एवं अनाथ हूँ । मुझे श्रापका सत्संग प्राप्त हो गया है अतः अब मुझे सम्पन्न एवं सनाथ करने में विलम्ब मल कीजिये ।'1 हे प्रभु ! जगत्-जन तो स्वार्थ में लिप्त हैं । केवल आप ही निःस्वार्थं दिखते हो । अन्य जन पाप - परम्परा की बुद्धि में सहायक है, जबकि श्राप पापों को नाश करने वाले हों । हे प्रभु ! श्राप मेरे अवगुणों पर ध्यान मत दीजिए क्योंकि वे अनंत हैं । श्राप पतित उद्धारक हैं, अतः मुझ जसे पतितों का उद्धार कर दीजिए ।' हे प्रभु ! मेरी कोई भौतिक अभिलाषाएं नहीं हैं, न मैं किसी प्रकार की कोई याचना ही करना चाहता हूं। मैं तो केवल यही चाहता हूं कि अपलक नेत्रों से केवल श्रापकी शान्त, वीतराग नासाग्रदृष्टि, मुद्रा को देखता रहूं सच्ची आत्मसिद्धि की कितनी सरल, ललित व्यास्था इस पथ में है: ।' डा० रामस्वरूप शास्त्री के शब्दों में : 4 एक देखिए जानिये, रमि रहिये इक ठौर | समल- विमल न विचारिये, यह सिद्धि नहि और ४. 'हिन्दी का नीतिकाव्य यद्यापि रचनाओं की संख्या, परिणाम, विषय वैविध्य तुम तो दीनानाथ हो मैं हूँ दीन श्रमाथ । अब तो ढील न कीजिये, भलो मिल गयो साथ || और सकल स्वारथ सगे दिन स्वास्थ हो श्राप । पाप मिटायत श्राप हो, और बढ़ावल पाप ।। मेरे अवगुन जिन गिनी, मैं धागुन को पाम । पतित उद्धारक प्राप हो, करो पतित का काम || एही वर मोहि वीजिये, जाचू नहि कुछ और अनिमिध हम निरखत रहू, शान्त छबी चित-चोर ॥ कवि बुधजनः बुधजन सतसई, पथ सं० ४२,४८,७८, १५ ४० संस्करण सनाव | ५. यही Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन द्वारा निबद्ध कृतियां एवं उनका परिचय और उपयोगिता की दृष्टि से संस्कृत के नीति-काध से कम नहीं, तथापि यह मानना ही पड़ता है कि विशेष प्रतिभाशाली कवियों की कमी के कारण वह संस्कृत के नीति काव्यों के समान सरस, चमत्कारी और प्रमूविष्णु नहीं बन सका, फिर भी पालि, प्राकृत और अपनश के नीति काब्यों से तो बह प्रत्येक रष्टि से थष्ठ ही है । बुधजन सतसई का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन... बुधजन सतसई की भाषा ग्रम मिश्रित राजस्थानी है. किन्तु उसका रूप साहित्यिक है । अतः इसमें पाये हुए किया पदों पर अध्ययन प्रस्तुत किया जाता है । क्रिया (१) सतसई में प्रयुक्त अधिकांश कियाएं कर्तरि प्रयोग में हैं । (२) कुछ क्रियाएं कर्मणि प्रयोग में भी पाई जाती हैं, जिनके द्वारा क्रिया का कम स्पष्ट है, उनके कर्ता का उल्लेख नहीं मिलता। उदाहरण (क) बंदत श्री महाराज । पद्य संस्था २० (ख) एक और राजत प्रबल: । पद्य संख्या २३ (ग) भली बुरी निरखत रही । पद्म संख्या २४ (घ) प्ररज गरज की करत हूँ । पद्य संख्या ३७ काल रचना-बुधजन सतसई में प्रयुक्त क्रियाओं में तीन अर्थ पाये जाते हैं, निश्चयार्थ, प्राज्ञार्य तथा सम्भावनार्थ । निश्चयार्थं से भूत, वर्तमान तथा भविष्य तीनों में कार्य होने की सूचना मिलती है। माशार्थ वर्तमान तथा भविष्य-इन दो कालों में मध्यम पुरुष में प्राज्ञा तथा अन्य पुरुषों में स्वीकार-सम्मति सूचित कर्ता है । सम्भावनार्थ उस क्रिया का घोतन करता है, जहां कार्य सम्पन्न नहीं हुप्रा रहता। इस प्रकार से प्रयुक्त से छह काल सामान्य काल कहे जा सकते हैं । ये निम्न प्रकार है : (१) वर्तमान निश्चयार्थक (२) भूत निश्चयार्थक (३) भविष्य निश्चयार्थक डा० राम स्वरूप ऋषिदेश: हिन्दी में नीतिकाव्य का विकास, पृ.सं ६४१ बिल्ली प्रकाशन, दिल्ली १९६२। बुधमनः बुधजन सतसई, पद्य सं० २० पृ० सं० ५३० संस्करण प्रकाशन बुधजन: शुषजम सतसई, पच सं. २३ पृ० स ५ प्र० सस्करण, सनावद प्रकाशन मुषजनः वधजन सतसई, पच स० ६ प्र० संस्करण सनावर प्रकाशन सुधजनः सुषजन सतसई पद्य स, ३७ पृ० स प्र. संस्करण प्रकाशन । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १४) वर्तमान प्राज्ञाधक (५) भविष्य प्राशार्थक (६) सम्भावनायक इन छह कालों के अतिरिक्त सहायक क्रियानों की सहायता से भी अन्य फालों की सृष्टि हुई है । इन्हें संयुक्त काल कह सकते हैं। इस प्रकार विभिन्न कालों की दृष्टि में रखते युए 'बुधजन-सनसई में प्रयुक्त समस्त क्रियाओं को निम्न बों में विभाजित करके उनकी विवेचना की गई है। (१) सामान्य क्रियाएं (२) सहायक क्रियाएं (३) पूर्व कालिक क्रियाए' (४) संयुक्त क्रियाएं तथा (५) क्रियात्मक संज्ञा सामान्य क्रियानों के अन्तर्गत (क) वर्तमान कालिक क्रियाए' (ख) प्राज्ञार्थक क्रियाएं (ग) भूतकालिक क्रियाएं (घ) भविष्य कालिक क्रियाए माती है : उदाहरण-- धातु+अहि - जा+अहिं -- जाहिं (६३) प्रो+महि -होहिं (५२२) धातु+ए: लह+ए-लहै (४६) मिल-ए-मिल (३२६) लख+ए-लखै (१११) धातु-एँ: पीड+एं--पी. (५७७) पूज+एं-पूर्जे (५२) कर+एं- करें (१३४) धातु+ों: देख ---ो-देखों (४२४) अज+मो-अजों (४६७) जास+मो-जासों (४६६) धातु+प्रत आव+मत-पावत +प्रत-देत पातु+ई: Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन द्वारा निबद्ध कृतियां एवं उनका परिचय ज्वार + ई – ज्वारी (४४६) अमल + ई - श्रमली (४४६) यथा कृदन्त रूप- vi बार + ई – बारी (४४६ ) धातु + श्री : हरो (३) हर + ओ मैट श्रो- मेटो ( ७ ) धातु + श्रो- मिल्यो (१२) राच यो—राच्या (१५) पर | यो पर्यो (१०० ) इनके अतिरिक्त कृदन्त व तद्धित रूप भी पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं । तदिन रूप धातु + ऐन: था | एन-देन (७६) बातु + श्रायः लह + आय - लहाय (६३५) बन + आय-बनाय (४४१) एव + श्राय-बाय ( ३३५ ) धातु + प्राइ छुड + श्राइ - छुड़ाइ (४४० ) धातु + सी: जा - सी - जासी (५४०) रह + सी रहसी (५७७) पायसी - पायसी (६३६) शब्द + रीः रस-री-रसरी [५] राव | री-रावरी (१६) जब + री - जेवरी ( ३३५) शब्द तरें: पग + तरें—पगतरे (३) ५.३ सब + तरें --- सबतरें (३) शब्द + तें: गुरु-गुरु (४३६) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व कर -कष्टते (५८१) शब्द + : (भाववाचक में) दुःख - मां-दुःम् (६६, ६८४) सुख- प्रां-"मूखां (६५७) नरक--नरका १६६६) इनके अतिरिवस बुधजन सतसई में शब्दों को बदलने की प्रवृत्ति भी पाई जाती है । यथा स्थान का थान (१५, ११३) सुस्थिर का सुथिर (३०,६८) सुस्थान का सुथान (४२६) कहीं कहीं-श के स्थाय पर स किया गया है । अथा विशुद्धता का विसुद्धता (२५) अशक्त का असक्त (७) विषय का विसय (९१) अशुचि का प्रसुचि (४५७) रचना में कहीं-कहीं ठेठ हिन्दी के शब्द भी पाये जाते हैं यथाकम लिंगोरे ८४, ठाठ ५१३, ठौर ५३६, कुछोर (६२) दाम का संक्षिप्तीकरण किया गया है । यथा दान का दो (४१५) बुधजन सतसई में संज्ञाए तथा क्रियाए प्रोकारांत हैं। इसमें का विभक्ति के स्थान पर को का प्रयोग देखा जाता है । यथा राजको (३६३) पहिवे को ४२८, संसारी को ५७५ । संक्षेप में इतना ही है कि-- भारतीय आर्य भाषा के मध्य एवं प्राधुनिक काल के संक्रांतिकाल में क्रियापद पर्याप्त रूप में विश्लेषणावस्था की ओर अग्रसर हुए और संयुक्त क्रियाओं का व्यवहार बड़ा । माधुनिक काल में क्रिया पद प्रक्रिया तो और भी सरल हो गई। आधुनिक प्रार्य भाषाओं में तिङन्त रूप थोड़े हैं । इनमें कृदन्त रूपों को ही प्रधानता मिली है और संयुक्त क्रिया मों का प्रयोग बढ़ा है ।। "बुधजन सतसई की भाषा अज मिश्रित दूढारी (राजस्थानी) है, किन्तु उसका रूप साहित्यिक है । अतः उसमें प्राये हुए क्रिया पदों पर अध्ययन प्रस्तुत राजकुमारी मिश्र : हिन्दुस्तानी त्रैमासिफ भाग २५, पंक १-४ जनवरी दिसम्बर १६६४, हिन्दुस्तानी एफेजमो, इलाहाबार, पृ० ० २१४ 1 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन द्वारा निबद्ध कृतियां एवं उनका परिचय किया गया है । इतना और ज्ञातव्य है कि {1) सतसई में प्रयुक्त अधिकांश क्रियाएं कर्तरि प्रयोग में हैं। (२) कुछ क्रियाए' मर्मणि प्रयोग में भी पाई जाती हैं, जिनके द्वारा क्रियानों का कर्म स्पष्ट है, उनके वर्ता का उल्लेख नहीं मिलता। इसमें फारसी आदि के सद्रूप भी प्राप्त होते हैं । यथा हुनर (२६७) माफिक (३६३) जिहाज (२६-६०) खुस्याल (२१२) बजार, हकमी (२५८} (१४०) ऋतिपय-राजस्थानी भाषा के शब्दों के प्रयोग में भी द्रष्टव्य हैं। यथामोसर (१२) प्रवार (१२) दुखां की खान (६६) मिनख । ६४४) ओसर (१२) समझसी (३३०) खोसिलेय (२३५) पायसी (६३६) अनेक देशज शब्दों के प्रयोग पाये जाते हैं । यथा नालरि (२२१) पाछी (२२१) बुगला (२२१) परेवा (३१५) भोत (४०५) आदि हिन्दी के तद्भव रूपों के प्रयोग भी पाये जाते हैं । यथा-- पौगुन १७८) तिया, जुर (६१) सरमस (४७०) पान (६) रतन (१५) चितामनि (१५) घरी (२०) परगट (३२) मारग (४६) चरन (५६) अलप (३०७) निरवाह (६३) इत्यादि कतिपय अपभ्रश भाषा के शद भी प्रयुक्त हुए हैं । यथाजुद्ध (१११) जुत्त (१४३) जदपि (२८६) इत्यादि । कतिपय संस्कृत के शब्द भी द्रष्टव्य हैं । यथा विपदा । १४७) दीनानाथ (४२) पथ्यापथ्य (१४२) भतिथिदान (१७६) एक मात सुतभ्रात ११८०) विबुध (२६६) क्षुधा (२५) तुषा (२५) भवार्णव (७४) इत्यादि एकाधस्थलपर 'एवजुत' (एव--- जुत) जैसे रूप भी मिलते हैं, जिनमें अरबीहिन्दी का मिश्रण लक्षित होता है | भाषा में प्रायः छोटे-छोटे प्रथालित समस्त रूपों का ही प्रयोग किया गया है, परन्तु कहीं-कहीं प्रत्युग्रचित (१३६) दयाभिलाष (१३३) जैसे शब्दों के प्रयोग भी है, जो उनके संस्कृत ज्ञान को संसूचित करते हैं। कहावतों तथा मुहावरों के प्रयोग भी दिखाई देते हैं । यथा-तेता पांव पसारिये जेती लांबी सौर (२६१) डील न कीजिए (४२) पर्यो रहूं तुम चरनतट (४३) काटे पाय पहार (३३६) मेलों क्यों न कपूर में हींग न होय मुवास (३४२) पोलो घट सूघो सदा (३४१) सपंन दूध पिलाइये विष ही के दातार (३८१) जीने से मरना भला (४०३) इत्यादि। प्रलंकार योजना-- सतसई में तीनों प्रकार के अलंकार दिखाई देते हैं । शब्दालंकारों में छेकानप्रास, बृत्यानुप्रास, वीप्सा, लाटानुप्रास प्रादि फा तथा अर्थालंकारों में उपमा, इष्टान्त, Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ कविवर बुधज : व्यक्तित्व एवं कृतित्व अन्तर न्यास, रूपक, यथा-संख्य उल्लेख तुल्य योगिता श्रादि का और उभयालंकार में संसृष्टि का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है । शब्दालंकार (१) 'गिरि गिरि प्रति मानिक नहीं, वन-वन चंदन नाहि ' चीप्सा (२) 'सुधर सभा में यों लखें, जैसे राजत भूष' पद्य संस्था ( २०६ ) कानुप्रास ( ३ ) ' घन सम कुल सम धरम सम समय मीत वनाय । पद्य संख्या (४४६) (४) ' दुराचारि तिय कलहिनी किकर कर कठोर' पद्य सं. (२५१ ) नृत्यनुप्रास अर्थालंकार— (५) 'बक त हित उद्यम करें, जो हैं चतुर विसेखि ।' पद मं. (१५२ उपमा (६) 'सत्यदीप वाती क्षमा, सीलतेल संजोग ।' पद्म सं. (२००) रूपक (७) भला किये करि हे बुरा, दुरजन सहज सुभाय । प पायें विष देत हैं, फरणी महा दुखदाय || ( १०४ ) इष्टान्त (८) 'जैसी संगत कीजिये, तेसा हा परिनाम । तीर गछे ताके तुरत, माला तें ले नाम ।। ( ३१६) अर्थान्तरन्याय यह बात ध्यान देने की है कि उपमा, ष्टान्त भादि अलंकारों से युक्त दोहे अधिकतर पूर्ववर्ती वाक्यों से प्रभावित हैं । मौलिक नहीं । उभयालंकार - १. २. १. नीतिवान नीति न तजें, सर्व्हे भूख तिस त्रास | ज्यों हंसा मुक्ता विना, घनसर करे निवास ॥ पय सं० (३२० ) ( लाटानुप्रास, छेकानुसास, दृष्टान्त की संसृष्टा ) विधान-छन्द-शैली समग्र रचना पुस्तक दोहों में है और छन्द-शास्त्र की दृष्टि से दोहे प्रायः निर्दोष हैं । गुण-दोष-प्रसाद और माधुर्य रचना के प्रधान गुण हैं । कहीं-कहीं प्रप्रयुक्त तत्व दोष भी दृष्टिगत होता है 13 निम्नांकित दोहे में विचित्र का प्रयोग 'बुद्धिमान' के अर्थ में किया गया है, परन्तु ये सब सामान्य स्कूलन है, जिनसे सर्वथा मुक्त रहना कदाचित् किसी भी कवि के वश में नहीं । मुख्यदोष तो नीरसता है, जिनके कारण विषय की दृष्टि से उत्तम होने पर भी रचना, वृन्द सतसई के समान लोक-प्रिय न हो सकी 12 भयो वा अपमान निज, भाई नाहि विचित्र । डॉ० रामस्वरूप ऋषिकेश, हिन्दी में भीतिकाव्य का विकास, पृ० ५५६ दिल्ली पुस्तक भंडार, दिल्ली । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन द्वारा निबद्ध कृतियां एवं उनका परिचय ५७ रचना में यद्यपि विविधता है तथापि इस रचना का वृन्द सतसई आदि नीति ग्रन्थों के समान प्रचार-प्रसार न हो सका, यह परिताप का विषय है । भजन सतसई : अनुशीलन सतसई के नीति सम्बन्धी अंशों पर दृष्टिपात करने से विदित होता है कि कवि ने केवल उपदेशात्मक ही नहीं, सामान्य नीति की भी अनेक उपयोगी बातों का न किया है। मुख्यतः 'बुधजन सतसई' एक सुन्दर नीति ग्रन्थ है। इसमें पांच प्रकार की नीतियों का समावेश है। वे इस प्रकार हैं : (१) वैयक्तिक नीति (२) पारिवारिक नीति (३) सामाजिक नीति (४) आर्थिक नीति ( ५ ) इतर प्राण विषयक नीति । १. वैयक्तिक नीति जैन रचनाओं में प्रायः शारीरिक सुखों की उपेक्षा ही दिखाई गई है, परन्तु बुधजन ने दुःखों से छूटने की प्रेरणा ही नहीं दो, रोगनिवारण के उपायों का उल्लेख भी किया है । कतिपय वैयक्तिक नीति सम्बन्धी दोहे उच्चत हैं पट पनही बहु खीर गो, प्रौषधि बीज प्रहार । ज्यों साभे त्यों लीजिये, कीजे दुःख परिहार ॥ कोड़ मांस, घृत जुर विषे, सूल दिल भी टार । हम रोगी मैथुन तजो, नवां वान अतिसार ॥ असत् न नहि बोलिये, तसें होत विगार 1 वे सस्प नहि सत्य है, जाते है उपकार || पुस्तक गुरु विरता लगन, मिले सुधान सहाय । तब विद्या पढ़ियां बने, मानुष गति परजाय * ।। सींग पूछ बिन बैल है, मानुष बिना विवेक । भय अभय समझे नहीं, भगिनी भामिनी एक ॥ पारिवारिक नीति कवि ने सुभाषित नीति में अनेक उपयोगी बातों का उल्लेख किया है। मातापिता की सेवा तथा पातिव्रत पर तो सभी नीति-कवियों ने थोड़ा बहुत लिखा है, परन्तु बुधजन ने भाई के प्रति पुत्र और पत्नी से भी अधिक प्रेम तथा भानजे के प्रति सावधानता का उल्लेख किया है कतिपय पारिवारिक नीति सम्बन्धी दोहे उद्घृत हैं--- १. २. २. ४. धवन सतसई, पथ संख्या २३८ प्रथम संस्करण, सनाक्षय वही, पथ संख्या २७८ यही पद्म संख्या ६७७ वहीं, पद्म संख्या ४२६ यही पथ संख्या ४३७ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व निजभाई निरगुन भलो, पर गुलजुत किहि काम । आगन समितिमा राखे थाम ॥११॥ विद्यादयें कुशिव्य कों, करे सुगुरू अपकार । लाख लड़ावो भानजा, खोसिलेय अधिकार ॥२३५।। सामाजिक मीति पातिव्रत पर तो प्रायः सभी नीति-कवि बल देते हैं, परन्तु पत्नी व्रत पर विशेष बल जन कवियों की विशेषता है । तदनुसार बुधजन ने भी सामाजिक यौनपवित्रता की रक्षा के लिये परस्त्री सेवन एवं वश्या सेवन का निषेध किया है व इस विषय पर अनेक भावपूर्मा दोहे लिखे हैं। कतिपय सामाजिक नीति सम्बन्धी दोहे उद्धृत हैं--- अपनी परतख देखिके, जैसा अपने दर्द । तसा ही परनारिका, दुखी होता है मर्द ।।४६१।। हीन-दीन में लीन है, सेती अंग मिलाय । लेती सरबस संपदा, देती रोग लगाय' ।।४७३।। प्रायिक नीति यद्यपि बुधजन ने धन-जन्य सम्मान, तथा दारिद्र' य-जन्य अपमान का अनेक दोहों में सनिस्तार उल्लेख किया है, तथापि उन्होंने चोरी, अन्याय, जुना भादि साधनों में पत-संग्रह को बहुत बुरा कहा है। उनके मत में नीति का परित्याग नितान्त अनुचित है । आर्थिक नीति सम्बन्धी पप उदृत हैं नीति तजे नहि सत्पुरुष, जो धन मिले करोर । कुलतिय बने न कंचनी, भुगते विपवा घोर ॥३१८| इतर प्राणि विषयक नीति 'प्राए सबको प्यारे होते हैं और अहिंसा जैनों का मुख्य सिद्धान्त है, इसलिये बुधजन ने मांस-भक्षण तथा आखेट का प्रबल निषेध किया है। इसके अतिरिक्त मद्यपान के त्याग के ये हेतु प्रस्तुत किये हैं फि---उसके नशे में मनुष्य गोपनीय बातें प्रकट कर देता है । सुधबुध भूल कर गलियों में गिर कुत्तों से मुख चटवाता है मद्य-निर्माण में होने वाली हिंसा के पाप का भागी होता है।" १. बुधजन सतसई, पद्य स. १५१ । २. से ४. वही, प स १८१, १२३५, ४६१, ४७३ ५ बुधजन सतसई पास'. ३१५ ६. वही, ४५३ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन द्वारा निबद्ध कृतियां एवं उनका परिचय उपयुक्त नीतियों के अतिरिक्त अन्य नीतियों भी रचना में देखी जा सकती हैं । यथा-मिश्रित नीति प्राधि । म पशंसनीय है रिन्द्र देना उसकी हाल नहीं गलती । उसमें वह पाक्ति नहीं कि उद्यमी को सुख, विद्या, प्रागु, धन प्रादि से प्रसन्न कर सके । पूर्व जन्म के कर्म इतने प्रबल हैं कि शिशु जब गर्भ में होता है तभी से उसके लिये ये वस्तुए निश्चित हो जाती हैं : सुख दुःख विद्या पायु धन, कुल बल वित्त अधिकार । साथ गर्भ में अवतरे, देहधरी जिहि बार ॥२४६।। १०-तत्वार्थबोध-वि० सं० १८७६ कविवर बुधजन की एक अन्य रचना तत्वार्थयोष है जो एक पद्य ग्रन्थ है। इसमें गृद्धपिच्छाचार्य के तस्वार्थं सूत्र के सूत्र विषय का पल्लवित अनुवाद दिया हुआ है । इसके अतिरिक्त इस अन्ध में निम्नलिखित विषयों का समावेश किया गया है : (१) मंगलाचरण (२) चतुर्गति वर्णन (३) सप्ततत्त्व कथन (४) सम्यगदर्शन, ज्ञान, चारिक (५) मिथ्या दर्शन, ज्ञान, पारित्र, (६) नय, (७) निक्षेप, (८) सम्यग्तत्त्व के २५ दोष, (६) अनेकांत, (१०) जीन के नो अधिकार, (११) समुद्रघात, (१२) षद्रव्य, (१३) पल्य का प्रमाण (१४) उर्ध्वलोक-मध्यलोक-अपोलोक वर्णन, (१५) द्रव्य-गुण-पर्याय, (१६) पच्चीस क्रिया (१७) प्रष्टकर्म (१८) निर्देश (१६) स्वामित्व (२०) साधन (२१) अधिकरण (२२) विधान (२३) प्रकृति-प्रदेश-स्थितिअनुभागबंध, (२४) १४ गुणस्थान (२५) पंचपरमेष्ठी (२६) श्रावक की ग्यारह प्रतिमा (२७) मुनिधर्म कथन (२८) घ्यान का वर्णन इत्यादि ।। इनके अतिरिक्त अन्य कई विषयों का समावेश इस ग्रन्थ में है । पं० परमा. नन्द जी शास्त्री के अनुसार इसमें सम्यक्तत्व के सभी अंगों का विशद विबेचन, पल्य, सागर व राजू के प्रमाण का वर्णन, मध्यलोक की व्याख्या, चौदह गुणस्थानों की चर्चा, घावकाचार की कथनी, १० धर्म और १२ तपों का वर्णन, शील के १८००० भेदों का वर्णन भी उपलब्ध होता है। इसमें गोमदसार जीवकांड के प्रायः सभी विषयों पर प्रकाश डाला गया है।" इस ग्रंथ में प्रात्म-स्वातंत्र्य प्राप्त करने के मार्ग का काव्यमय घोली में सुन्दरता के साथ प्रतिपादन किया गया है। परिणामों में वैराग्य भाव जगाने के लिये कवि एक ही पद्य में कितनी मार्मिक बात कहते हैं : १. वही २४६ २. परमानन्द शास्त्रीः अनेकान्त, वर्ष ११, किरण ६, पृ. २४६, वीर सेवा मंदिर प्रकाशन । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तिव एवं कृतित्व 'शरीर, धन और स्त्री का साहचर्य ही जगत् का मूल है, संसार-बंधन का कारण है । अज्ञानी जीव इन्हें अपना इष्ट, अनुकूल एवं प्रिय मानता है ।" वे मागे सखी होने का उपाय बताते हुए कहते हैं: "हे प्राणी ! यदि तू सुखी होना चाहता है तो सुखी होने का उपाय बताता हूं उसे ध्यान पूर्वक सुन । जगत के समस्त स्त्री, पुरुष सुख्न चाहते हैं, परन्तु ये सुख की प्राप्ति का ठीक साषम नहीं जानते , २ चा फास सुश मानते हैं । परन्तु यह समझ ठीक नहीं है । धन सम्पन्न व्यक्ति प्रत्यक्ष में दुःखी देखे जाते हैं, उन्हें राजा, चोर, रोग, मोक, ग्लानि प्रादि के अनेक दुःख होते रहते हैं। वे धन की प्राप्ति हेतु नदी, पर्वत, तालाब, वन प्रादि भयानक स्थानों में जाते हैं तथा भोजन, पानी, निद्रा का भी परित्याग करते हैं । अावश्यकता पड़ने पर दूसरों के प्राणों को पीढ़ा पहुंचाते हैं । इतने कष्ट उठाने के बाद भी यदि उन्हें धन की प्राप्ति नहीं होती तो बहुत अधिक दुःख का अनुभव करते हैं। कदाचित् पुण्य योग से धन की प्राप्ति हो भी जाती है परन्तु प्रस्वस्थता के कारण उसको भोगने में असमर्थ रहते हैं । कदाचित् सम्पूर्ण साधन मिल भी गये तो भोगों में आसक्त होकर जन्म, मरण, रोग प्रादि के दुःखों को भोगना पड़ता है । भाव यह है कि मानय जीवन प्रादि से अन्त तक दुःख पूर्ण है, प्रल : जिनमत को धारण करो। इसके धारण किये बिना सुखों की प्रान्ति दुर्लभ है। इसी ग्रन्थ में धन के विषय में कवि लिखते हैं : मन के कारण भाई-भाई परस्पर में लड़ते हैं । धन की मधिक प्राप्ति न होने से सेवक स्वामी का साथ छोड़ देते हैं । धन के कारण ही चारों का भय रहता है। - - - -- १. सन धन त्रिया जगत का मूल, जीव रहें इनके अनुकूल । सुनौ अवस्था तिमको अके, कछ विरागता प्राय सबै ॥ मुषजन. तरवार्षबोध, पद्य संख्या १३, पृ. संख्या २, कन्हैयालाल गंगवाल, लश्कर प्रकाशन। सुखी हुषा पाहो जगमाहि, जल में घुत कई निस्सै नाहि । चार गति में फिरे प्रश्राम, ताको परम विविध विधान ॥ सुख चाहे नरनारी सवे, मातहि धनतें सो नहिं पाये । परतखि दुःखी लख्खे धनवान, भूप पोर न सोक गिलान ।। मी तमाग संसवन फिरे, असन पाम निशा परिहरै। परफू, पीई प्रापति लहै, जिन प्रापति तुल प्राधिका है ।। करि नहिं सके मिल जो भोग, शक्ति हीन के होय वियोग । सो भागन त भोगे भोग, वादे जन्म-मरण दुख रोग ।। बुधजन : तत्वार्थबोध, पद्य संख्या ६, १०, ११, १२, पृ००२ लश्कर प्रकाशन Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन द्वारा निबद्ध कृतिया एवं उनका परिचय शासक भी धन के कारण भयभीत करते रहते हैं । धन अधिक हो जाने पर मनुष्य मद्यपान, वेश्यागमन, परस्त्री सेवन, मांस भक्षण, जुमा प्रावि दुर्व्यसनों का सेवन करने सग जाना है। धन की गाजित होने रक्षा का भग नौद उसके विनष्ट हो जाने पर दुखों का अनुभव करता है । धन के लिये नाना प्रकार से क्रोध, छल मादि करता है। अतः आदि, मध्य और अन्त कहीं भी किसी भी दशा में धन सुख का कारण नहीं है । सुख तो परिणामों में समता भावों को धारण करने से प्राप्त होता है।" सम्यग्दर्शन के बाहरी कारणों का दिग्दर्शन कवि ने निम्न शब्दों में कराया है : जिन महिमा जिन छवि दरस, दुख बेदन सुर रिद्धि । भव सुमरण, पागम श्रवण, कारण बाहय प्रसिद्धि । सम्यग्दर्शन के अन्तरंग कारणों का उल्लेख करते हुए कवि कहते हैं : अन्तरंग सम्यक्त्व का, करन लब्धि है मूर । तातें वरनू सन्धि कू, जैसे माषी सूर ।। कवि ने निश्चय और व्यवहार दोनों नयों की उपादेयता और अनुपादेयता का बड़ा ही भावपूर्ण एवं तर्कसंगत वर्णन किया है । उसे कवि के ही शब्दों में :-- "जिसमें पर की अपेक्षा नहीं है, जो मनुएम है, जिसका न मादि है और न मन्त । अपने ही गण-पर्यायों में जो भेद ग्रहण नहीं करता तथा वस्तु के शुद्ध स्वरूप को ग्रहण करता है उसे निश्यय नय कहते हैं | प्रसत्यार्थ नय को व्यवहारनय तथा सत्यार्थ नय को निश्चय-नय कहते हैं । निश्चय नय के प्राश्रय से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है । वह बंध का कारण नहीं है । इस जीब ने व्यबहार नय से वस्तु के स्वरूप को अनंतकार श्रद्धा में लिया और सुना परन्तु निश्चय नय के बिना संसार में भ्रमण ही किया । प्रतः आपापर का भेद विज्ञान होने पर, स्वानुभव के द्वारा समस्त वेदों (लिगों) का अथवा भव-भ्रमण का उच्छेद करना ही योग्य है ।" "उपयूँ ऋत थोड़े से दोहों में जो पर्थ गांभीर्य है, उस पर से ही पाठक इस ग्रन्थ की उपयोगिता, महत्ता और विषय विवेचन की सरल एवं मनोहर सरणि का २. ३. कुषजन : तत्वार्थोष, पत्र स. ९, १०, ११, १२, १३ लस्कर, प्रकाशन । वही, पद्य स. ६३, अही, पद्य स. ६४। युधजनः तत्वार्थबोध, पद्य सख्या ३६, ४४, पृ० १७, १८, १८ लाकर Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व मूल्य मांक सकेंगे और कबि के भावुक हृदय की गतिविषि को भी पहिचान सकेंगे।" इस प्रकार यह सारा ही अन्ध सैद्धान्तिक विवेचन सुन्दर, सुगम एवं ललित सूक्तियों, विविध अनुप्रासों आदि को लिये हुए हैं । तत्वार्थ बोध का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन तत्वार्थबोध की भाषा अज मिश्रित राजस्थानी है, किन्तु उसका रूप साहित्यिक है। अतः उसमें श्राय ५ क्रियापदों पर अध्ययन प्रस्तुत किया जाता है । विधान-छन्द-शैलो रामन रचना मुख्य रूप से मुक्तक दोहों में है और छन्द शास्त्र की दृष्टि से दोहे प्रायः निर्दोष हैं। विवेच्यरचना में कवि ने दोहा छन्द के अतिरिक्त सोरठा, चौपाई, छप्पय, अडिल्ल, कुण्डलिया, गाथा और गीता छन्दों के प्रयोग किये हैं। प्रसाद और माधुर्य गुण से रचना परिपूरणं है । इस प्रकार के अध्ययन से विदित होता है कि कदि का भाषा पर अद्भुत अधिकार पा । वे बड़े से बड़े गंभीर भाव को एक पंक्ति में स्पष्टता और पूर्णता के साथ व्यक्त कर सकते थे। 'इसमें गोम्मटसार जीवाड़ के प्रायः सभी विषयों पर प्रकाश डाला गया है । इस ग्रन्थ को कविवर ने वि.सं. १८७९ में राजा जयसिंह के शासनकाल में बनाकर पूर्ण किया।' ११-पव-संग्रह (स्फुटपद) १८८०-६१ वि०सं० 'कविवर बुधजन का पद संग्रह भी विभिन्न राग-रागिनियों से युक्त है । इस संग्रह में २४३ पद हैं । इन पदों में अनुभूतियों की तीनता, लयात्मक, संवेदनशीलता और समाहित भावना का पूरा प्रस्तिस्व विद्यमान है। इनके पदों में स्वानुभूति एवं अध्यात्म की तल-स्पशिनी छाया विद्यमान है। भाव और भाषा की दृष्टि से यह परमानन्द शास्त्री : अनेकान्त वर्ष ११, किरण ६, सपा. झुगल किशोर मुख्तार, धीर सेवा मंदिर, सरसावा (सहारनपुर), वि०स २००६ परमानन्द शास्त्री, वर्ष ११, किरण ६ पृ० २४६ । संवत् अठारा सं विर्ष, अधिक गुण्यासी वेगा । कार्तिक सुदि शशि पंचमी, पूरण अन्य प्रशेष || मुखस बर्स जयपुर तहां, नप जयसिंह महाराज । बुधजन कोनो अन्य तहां, निज पर के हित काज ।। बुधजनः तस्वार्थबोध, पद्य संख्या १३, १४ पृ.स २७७ प्रका• कन्हैयालाल गंगवाल, सस्कर। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन द्वारा निवद्ध कृतियां एवं उनका परिचय ६३ रचना उच्च कोटि की है। इनके पदों का कवित्व पक्ष व गैय पक्ष दोनों ही परिपुष्ट है' 1 | दार्शनिक तत्वों को समझाने के लिये हमारे कवियों ने जो पद और भजनों का माध्यम अंगीकार किया है, उसके अनेक कारण हैं । एक तो यह कि पद में कविता के साथ में गेय तत्व सम्मिलित रहता है । यह संगीत, पदों को राग-लय श्रीर दान की अपरिमित संभावनाएं प्रदान करता है । दूसरे यह कि पद का विस्तार सीमित होता है अतः संक्षेप में सब कुछ प्रा जाता है । तीसरे यह कि उपर्युक्त विशेषताओं के कारण पद आसानी से याद हो जाता । अतः अध्यात्म-तत्व के चिंतन-मनन में सहायता मिलती है । एक बात और इन पदों का दैनिक जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान है और इनका स्पष्ट प्रयोजन है । हमारे आध्यात्मिक जीवन को यह परंपरा रही है कि प्रायः प्रत्येक धर्म ग्रौर के व्यक्ति अपने-अपने धर्म स्थानों में प्रातः सायं एकत्रित होते थे, वहां शास्त्र प्रवचन सुनते थे और अन्त में स्तुति पदों का गान होता था । धर्म का यह अत्यन्त सुन्दर, सरस और ग्राह्य रूप था। आज भी जिन मंदिरों में शास्त्र सभाएं होती हैं, वहां वे पद या इसी प्रकार के अन्य पद गाये जाते हैं । इस प्रकार का भजन गात गांधी जी की प्रार्थना सभाओं का मुख्य अंग था। हिन्दी जैन कवि 'दौलतराम' ने धार्मिक प्रवचन का एक ऐसा सुन्दर चित्र खींचा है कि मन मुग्ध हो जाता है । साधर्मी जन मिलते है, प्रवचन की अमृत रूपी झड़ी लगती है- ऐसी कि समग्र पावस- फीके पड़ जांच 'इन पदों की भावात्मक पृष्ठ भूमि, विचारों की सात्विक्ता श्रात्मनिष्ठ अनुभूतियों की गहराई, श्रभिव्यक्ति की सुधराई, सरलता, शालीनता और सरस गेयता सब भब्य । इन सब तत्वों का समन्वय ही पाठक के मन में लोकोत्तर श्रानंद की सृष्टि करता है । बुधजन के पदों में भावावेश, उन्मुक्त प्रवाह, प्रान्तरिक संगीत कल्पना की तुलिका द्वारा भाव चित्रों की कमनीयता, प्रानश्व विव्हलता, रसानुभूति की गंभीरता एवं रमणीयता का पूरा समन्वय बिद्यमान है । कवि 'बुवजन' द्वारा रचित पदों में उनके जीवन और व्यक्तित्व के सम्बन्ध में अनेक जानकारी की बा प्राप्त होती हैं। इनके समस्त पद गेम हैं । १. २. ही वगैर डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्रो ज्योतिषाचार्यः तीर्थंकर महावीर और उनको ठाता परंपरा भाग-४, ० भा० दि० जैन विद्वत् परिषद प्रकाशन, पृ० २ जैन डॉ० राजकुमार : अध्यात्म पदावली, १०२१-२२, भारतीयता है । प्रकाशन । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व इनकी रचनाप्नों में रूपक मलकार के दर्शन होते हैं । यथानिजपुर में आज मची होली, निज पुर में | उमगि चिदानन्द जी इत प्राये, उत पाई समक्ति गोरी ।।१।। लोक्साज कुल कानि गंवाई, कान गुलाल भरी झोरी । समक्ति केशर रंग बनायो, पारित की पिक छोरी ।।२।। गावत भजपा गान' मनोहर, अनहद झरसों वरस्योरी । देखन भाये "युधजन" भौगे, निरख्यो ख्याल प्रनखोरी ।।३।। पद संग्रह भक्ति रस गीतों से प्रोतप्रोत एक संकलन मात्र है, जिसे गाकर कवि ने शान्ति का अनुभव किया होगा। जन जगत में “बुधजन" के पदों का अत्यधिक प्रचार है। अब तक उनके २६५ पद प्राप्त हो चुके हैं । पदों के प्रध्ययन से पता चलता है कि वे उच्च प्राणी के कवि थे । प्रारभा-परमात्मा एवं संसार सम्बन्धी चिन्तन कई वर्षों तक करते रहे धौर असी का परिशीलन भी किया करते थे। ' उन्होंने अन्य कवियों की भांति प्राम-दर्शन किये थे । 'जैन साहित्य में रूपकों की · अटा केवल "बुधजन" की रचनात्रों में ही नहीं, उनके पूर्ववर्ती प्रपना भाषा के कवियों की रचनाओं में प्रचुरता से मिलती है। इन विचारों की रचना पौर मात्मानुभूति की प्रेरणा पाठकों के समक्ष ऐसा चित्र उपस्थित करती है, जिससे पाठक प्रास्मानुभूति में लीन हुए बिना नहीं रहता 1 संसार में मनुष्य अपनी पर्थशक्ति मौर जन शक्ति का बड़ा भरोसा रखता है। कि समय पाने पर हमारा धन और मालापिसा, पुत्र-मित्र, स्त्री एवं परिजन वगैरह अवश्य ही हमारे काम प्राऐंगे और विपत्ति 'हमारा साथ देंगे। धनादि को वह अपनी निकटतम वस्तुए मानता है, परन्तु समय पर वही मनुष्य देखता है कि उसका पैसा और उसके स्वजन-परिजन कोई भी अपत्ति के साथी नहीं है—एक भी ऐसा नहीं है जो उसकी विपत्ति को हलका व उसे मालूम पड़ जाता है कि जगत में जिस धन और स्वजन-परिजन अपना कहकर उद्घोष करता था उनमें से एक भी उसका नहीं है । विपत्ति में यदि कोई सहायता करता है। उसे शान्ति-सुख और वह है उसकी मात्मा का भाव कर्म । रंग शीर्षक से "अहिंसा वाणी" पत्रिका में प्रका० वर्ष 7, हिन्दी पर समह, पृ० १६० वि० जन अतिशय · भवन, जयपुर, मई १९६५ भाषा और साहित्य, पृ० सं० २७७ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन द्वारा निबद्ध कृतियां एवं उनका परिचय प्रात्म-परिणाम, शान्ति, संतोष और समता प्रादि ही अपने कहे जा सकते हैं क्योंकि ये भाव प्रात्मा के स्वभाव हैं जो निरंतर प्रात्मा के साथ रहने वाले हैं । धनस्वजन-परिजन प्रात्मा से पृथक हैं और हर हैं । इति जो वस्त पानी नहीं है, उस पर प्रतीति रखमा व्यर्थ है और प्रशता की सूचक है। कविवर बुधजन ने निम्न लिखित पद में इसी धर्मतस्क के महत्त्व का दिग्दर्शन कराया है। पद कर्ता के शब्दों में देखिये वे कहते हैं कि "हमें धर्म पर ही सम्यक प्रतीति और अपनत्व का भाव रखना चाहिये ।" 'धर्म विन कोई नहीं अपना ।' सुख-संपति-धन, थिर नहिं जम में जैसे रेन सपना ।।१।। है प्रास्मन् ! संसार में धर्म ही अपनी वस्तु है और इस पर ही भरोसा किया जा सकता है कि समय आने पर यह विपत्ति में सहायक होगा। जगत् की समस्त सुख-सामग्री और प्रर्थ का कुछ भी ठिकाना नहीं है । जिस प्रकार रात्रि का स्वप्न जागने पर मिथ्या निकल पाता है, उसी प्रकार जगत् का यह वैभव भी क्षरए नश्वर है और रात्रि के स्वप्न के समान न अपने में कुछ अर्थ रखता है और न इस मारमा को समय पर कुछ सहायता पहुचा सकता है । वास्तव में धर्म के बिना कोई अपना नहीं है । मागे "बुधजन" कहते हैं कि हमारा वर्तमान प्रतीत के धर्माचरण का फल है और भविष्य का निर्माण हमारे धर्माचरण पर निर्भर है। किसने स्पष्ट शब्दों में वह धर्माचरण की उपयोगिता पर प्रकापा डालते हैं : प्रागे किया सो पाया भाई याही है निरना । प्रन जो करेगा सो पावेगा, तातें धर्म करना ।। हे प्रास्मन् । यह स्पष्ट है कि पूर्व जन्म में जो कुछ तुमने धर्म का पालन किया था उसके अनुसार हो तुम्हें वर्तमान में सुख सामग्री प्राप्त हुई है और वर्तमान में जैसा धर्माचरण करोगे तदनुसार ही भविष्य में साधन-सामग्री मिलेगी इसलिये पुर्ण शांति एवं सुख प्राप्त करने के लिये केवल धर्म का ही पालन करना चाहिये 1 कविवर वुधजन लोक दृष्टि से भी धर्माचरण की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि: ऐसे सब संसार कहत है, धर्म किये तिरना। परपीड़ा विसना दिक सेये, नरक विर्ष परना ।। समस्त संसार इस बात का समर्थन करता है कि जीव, धर्म के द्वारा ही संसार-सागर से पार होता है इसके विपरीत जो दूसरों को कष्ट पहुंचाता है और व्यसन आदि कर सेवन करता है वह नरक में जाता है और प्रसीम दुःखों को उठाता हुमा संसार समुद्र में गोते लगाता रहता है । कविवर कहते हैं : माशुभ कर्म का उदय राजा और रंक किसी को भी नहीं छोड़ता है। देखिये : Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व नृप के घर सारी सामग्री ताके ज्वर सपना । अरु दारिद्री केहू ज्वर है पार उदय अपना ।। राजा भी इस संसार में सुखी नहीं है और दरिद्र भी सुखी नहीं है । राजा के यहां यद्यपि संपूर्ण सुख-सामग्री विद्यमान है फिर भी तृष्णा के कारण वह सामग्री उसे दुःख और संताप ही पहुंचा रही है। दरिद्री सो अपने अपभ राम के कारण अभाव में दुःखी है ही । कविवर बुधजन आगे कहते हैं : विपत्ति में कोई सगा सम्बन्धी भी साथ नहीं देता । संसार स्वार्थी है उससे सहायता की प्राशा करना दुराशा मात्र है । ऐसे अवसरों पर धर्म का ही केवल भरोसा किया जा सकता है । उनके ही शब्दों में सुनिये : "नाती तो स्वारथ के साथी तोहि विपति भरना । वन-गिरि-सरिता-प्रगनि जुद्ध में धर्म ही का शरणा॥ मात्मन् । तेरे जितने भी सम्बन्धि-जन है, जिन्हें तू अपना बतलाता है, सब स्वार्थ के साथी हैं । अपना काम निकल जाने पर तुम्हारा कोई भी साथ देने वाला नहीं है । विपत्तियों का बोझ तुझे ही उद्याना होगा। वन में, पर्वतों पर नदी और अग्निकांडों में तपा युद्ध जैसे अवसरों पर केवल धर्म ही तुम्हें शरण दे सकता है। कविबर के शब्दों में ही धर्म की संक्षिप्त रूप रेखा देखिये : चित बुधजन' संतोष धारना, परचिता हरना। विपति पड़े तो समता रखना, परमातम जपना ।। प्रात्मन् । चित्त में सदेव संतोष धारण करना । दूसरों की प्राकुलता को दूर करना, विपति काल में व्याकुल न होकर समता धारण करना और निरंतर परमात्मा का पुण्य स्मरण करना यही धर्म है । जगत में धर्म के सिवाय कोई अपना नहीं है। 'धर्म बिन कोई नहीं अपना' इस प्रकार यह स्पष्ट है कि हिन्दी के जन कवियों के भजन व पद सदियों से हमारी अमूल्य-निधि रहे हैं। उन्होंने हमारे जीवन को प्रति क्षए नया उत्थान दिया है। इसमें अपरंपार शास्त्रीय मंथन सुपुष्त पड़ा है । कविवर बुधजन समझाना चाहते हैं कि मनुष्य पर्याय पाकर उसे विषय भोग में बिता देना बहुत बड़ी मुर्खता है । कैसा चुभता हा उदाहरण दिया है : यों भव पाय विषय सुख सेना गजबकि ईधन ढोना हो।' इस चित्र को प्रांखों के मागे सड़ा कीजिये । कैसा मूर्ख होगा वह पुरुष जो राजसी हाथी को ईधन ढोने के काम में प्रयुक्त करे । प्राध्यात्मिक पव तो अन्य कवियों ने भी लिखे हैं, परन्तु "बुधजन" के भजन अपनी अलग विशेषता रखते हैं । धानतराय, दौलतराम, भागचन्द आदि के समान Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन द्वारा निबद्ध कृतियां एवं उनका परिचय "वुधजन" के भजन भी प्रानन्द-दायक है । कषि के प्राध्यात्मिक भन न उनकी वैराग्य भाधना का मूर्तिमान प्रतिबिंध है । भजनों में कवि ने राग-रागिनियों के चुनाव का विशेष ध्यान रखा है । प्रत्येक पद याध्यात्मिक रस से प्रोत-प्रोत है और ध्यान से पढ़ने-सुनने वालों पर वैराग्य की अमिट छाप छोड़े बिना नहीं रहते सच तो यह है कि-कवि ने भजनों के बहाने जैन धर्म की प्रात्मा हो सील कर रख दी है। कविवर बुधजन के ये प्राध्यात्मिक भजन माज भी उतने ही उपयोगी एवं प्रेरणा दायक हैं जितने पूर्वकाल में ये 1 'इस जड़वाद के युग में अाज ऐसे भजनों की उतनी ही मावश्यकता है जितनी रेगिस्तान के प्रवासी को जल की प्रावश्यकता होती है। बुधजन कवि का साहित्य माध्यात्मिक रस से ग्रोत प्रोत है और ध्यान से पढ़ने सुनने वालों पर वैराग्य की अमिट छाप छोड़े बिना नहीं रहता। बुधजन ने मुमुक्ष जगत् का महान उपकार किया है । साहित्य स्वयं एक कला है और उस कला को दूसरी कलानों के अभाव में दबाया नहीं जा सकता। उत्तम साहित्य को पढ़कर हृदम में जो गुद गुदी और अनुभूति होती है, वह बुधजन के पद साहित्य में है।' बुधजन ने मुख्यत: आध्यात्मिक पर लिखे हैं। इन पदों के निर्माण में कवि का एक मात्र लक्ष्य है--मानव का विवेक जागृत हो व वह अपना जीवन नीति पूर्वक व्यतीत करे । कवि के समस्त पद शान मूलक व उदबोधनकारी हैं। इस विषय को स्पष्ट करते हुए जैन मो. राजकुमार लिखते हैं-'कवि के ज्ञान मूलक उद्बोधनकारी पदों की एक विशेषता यह है कि उनमें वस्तुतत्व को प्रतिपादित करने के लिये जो उपमाए अलंकार और प्रतीक लिये गये हैं, उनमें व्यावहारिकता का पुट है। समस्त साहित्यिकता और सरसता को अक्षुण्ण बनाये रखकर भी कवि ने प्रयत्न किया है कि इन पदों की प्राध्यात्मिकता सर्व साधारण के लिये सुलभ हो, इसलिये इनकी अली, अभिव्यंजना और उपमा बड़ी सीधी भोर हुवय ग्राही है । प्रायः प्रत्येक दार्शनिक स्थापना के समर्थन में व्यावहारिक हेतु और उजागर दृष्टान्त प्रस्तुत किये गये हैं 1*2 ___ उदाहरणों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि पदावली की भाषा में विशेषण और संज्ञाए भोकारान्त हैं । इसमें भूतकालिक मोकारान्त क्रियाए, सर्वनाम और परसर्ग के अनेकानेक रूप मिलते हैं जो इनकी रचनाओं को स्पष्टतया ब्रम भाषा से प्रभावित घोषित करते हैं किन्तु यह प्रभाव ही है । पदों की मूल भाषा निश्चय' ही हिन्दी है। १. २. ग. लाल बहादुर शास्त्रीः प्रध्यात्म पद संग्रह को भूमिका, पृ०५। बैन ० राजकुमार : मध्यात्म पक्षापती भाग-२, पृष्ठ १६, भारतीय सामपीठ काशी प्रकाशन, १९६४ । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुवजन : व्यक्तित्व एव कृतित्व १२-पंचास्तिकाय-भाषा (१८६२ वि०सं०) ७. पंचास्तिकाय भाषा वि० सं० १८९२) जयपुर के तत्कालीन दीवान संघी अमरचन्द की प्रेरणा से कविवर बुधजन ने इस ग्रन्थ की रचना की थी। यह कवि की अनूदित कृति है । यह जैन दर्शन के सिद्धान्तों के प्रतिपादक प्राकृत भाषा के महान ग्रंथ 'पंचास्तिकाय' का हिन्दी पद्यानुवाच है । इस कृति में ५५२ पद्य हैं । यह एक दीर्घकाय रचना है। ___ यह आचार्य कुन्द कुन्द के पंचास्तिकाय (प्राकृत) का हिन्दी पद्यानुवाद तो है, पर इसमें कवि की अपनी मौलिकता के भी दर्शन होते हैं। इसमें जैन दर्शन के सिद्धान्तों में से मुख्यतः षट् द्रव्यों का वर्णन विस्तार से किया गया है । जीव, पुद्गल धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय प्रोर आकाशास्तिकाय इन पांच प्रस्तिकाय द्रव्यों को बहुप्रदेशी एवं काल द्रश्य को एक प्रदेशी कहा गया है। संपूर्ण ग्रंथ दर्शनशास्त्र की गहन व्याख्या प्रस्तुत करता है। इसमें प्रतिपादित वस्तुतत्व का सार इस प्रकार है : विश्व अर्थात् अनादि-अनंत स्वयं सिद्ध सत् ऐसी प्रनंतानंत वस्तुओं का (छहों द्रव्य का) समुदाय । प्रत्येक वस्तु अनुत्पन्न एवं अविनाशी है । प्रत्येक बस्तु में में अनंत शक्तियां अथवा गुण हैं जो अकालिक नित्य हैं । प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण अपने कार्य करती है अर्थात नवीन दशाए'-अवस्थाए-पर्शायें धारण करती है तथापि के पर्यायें ऐसी मर्यादा में रहकर होती हैं कि वस्तु अपनी जाति को नहीं छोड़ती अर्थात् उसकी शक्तियों में से एक भी कम अधिक नहीं होती । वस्तुपों की (द्रव्यों को) भिन्नभिन्न शक्तियों की अपेक्षा से उनकी (दस्यों की) खह जातियां हैं-जीप द्रव्य', पुद्गल द्रव्य, धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, प्रकाश द्रश्य और काल द्रव्य जिसमें सदा मान, दर्शन, चारित्र, सुख प्रावि अनन्तगुण (शक्तियो) हों वह जीब द्रव्य हैं, जिसमें सदा वर्ण, गंध, रस, स्पर्श प्रादि अनन्त गुण हों, वह पुद्गल द्रव्य है शेष चार बन्यों के विशिष्ट गुण अनुक्रम से गति-हेतुत्व, स्थिति हेतुत्व, अवगाहन हेतुत्व तथा वर्तना हेतुस्व हैं । इन छह नव्यों में से प्रथम पांचद्रव्य सत् होने से तथा शक्ति अथवा शक्ति अपेक्षा से विशाल क्षेत्र वाले होने से प्रस्तिकाय हैं, काल द्रव्य 'अस्ति' है किन्तु काय नहीं है। यह सर्व द्रव्य-अनंत जीवद्रव्य, अनंतानंत पुद्गलद्रव्य, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्म द्ध्य, एक अकाण द्रव्य तथा असंख्य काम द्रव्य स्वयं परिपूर्ण हैं और अन्य द्रव्यों से बिल्कुल स्वतंत्र हैं, वे परमार्थतः कभी एक दूसरे से मिलते नहीं हैं, भिन्न ही रहते हैं । देव, मनूष्य, तिर्यन्च, नरक, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, मादि जीवों में जीव पुदगल मानों मिल गये हों ऐसा लगता है किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है, वे बिलकुल पृषक हैं । सर्द जीव अनंतशानदर्शन, सुख, अल की निधि है तथापि, पर द्वारा उन्हें कुछ सुख-दुःख नहीं होता तथापि संसारी अज्ञानी जीव अनादि काल से स्वतः अशान पर्याय रूप परिएमित होकर Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन द्वारा निबद्ध कृतियां एवं उनका परिचय अपने ज्ञानानन्द स्वभाव को, परिपूर्णता को, स्वातंत्र्य को एवं अस्तित्व को भी भूल रहा है और पर पदार्थों को सुख दुःख का कारण मानकर उनके प्रति राग-ष करता रहता है, जीव के ऐसे भावों के निमिस से पुदगल स्वतः शानावरणादि कर्म पर्याय रूप परिगमिस होकर जीव के साथ संयोग में आते हैं और इसलिये प्रनादि काल से जीव को पौद्गलिक देह का संयोग होता रहता है। परन्तु जीव और देह के संयोग में भी जीम और पुदगल बिलकुल पृथक हैं तथा उनके कार्य भी एक दूसरे से बिलकुल भिन्न एवं निरपेक्ष हैं। जीव केवल भ्रान्ति के कारण ही देह की दशा से तथा इष्ट अनिष्ट पर पदार्थों से अपने को सुखी छुःखी मानता है। वास्तव में अपने सुख-गण की विकारी पर्याय रूप परिणमित होकर जीव के साथ सयोग में पास है और इसलिये अनादिकाल से जीव को पोद्गलिक देह का संयोग होता रहता है । परन्तु जीब और देह के संयोग से भी जीव और पुदगल सर्वथा पृथक् हैं तथा उनके कार्य भी एक दुसरे से बिलकुल भिन्न एवं निरपेक्ष हैं। जीव केवल भ्रान्ति के कारण ही देह की दमा तथा इष्ट अनिष्ट पर पदार्थों से अपने को सुखी दुःखी मानता है। वास्तव में अपने सुख गुण की विकारी पर्याय रूप परिणमित होकर वह अनादिकाल से दुखी हो रहा है। कवि ने बिषय को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि अब तक जीव वस्तु स्वरूप को नहीं समझ पाता तब तफ अन्य लाखों प्रयत्नों से भी मोक्ष का उपाय उसके हाथ नहीं लगता । इसीलिये इस ग्रन्थ में सर्व प्रथम पंचास्तिकाय और नव पदार्थों का स्वरूप समझाया गया है कि जिससे जीव बस्तु तत्त्व को समझकर मोक्ष मार्ग के मुल मन सम्यग्दर्शन को प्राप्त हों। प्रस्तिकायों और पपायों के निरूपण के पश्चात् इसमें मोक्ष मार्ग सूचक-चूलिका है। यह अन्तिम अधिकार शास्त्र रूपी मन्दिर पर रन कलश की भौति शोभा देता है। सर्वप्रथम भाचार्य कुन्द-कुन्द ने अन्य जीवों की भलाई के लिये इस प्रन्य की रचना की और इसके रहस्य को जानकर प्राचार्य प्रमृतचन्द्र ने इसकी संस्कृत टीका की और उसकी हिन्दी वनिका हेमराज ने लिखी। इन रचनामों का मनन कर 'बुधजन' ने हिन्दी में इनका पद्यानुवाद किया । रचना का अध्ययन करने में मिथ्यात्व का नाश होकर सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है और सम्यक्त्व की प्राप्ति से प्राणी संसार समुद्र से पार होते हैं। ग्रन्थ की महानता कविवर बुधजन के शब्दों में-"इसकी महिमा का वर्णन नहीं किया जा सकता। मैं मन, वचन, काय से इसकी वंदना करता है।"प्रन्थ रचना के प्रेरक संधी अमरचन्द दीवान का उपकार मानते हुए कवि कहता है--"संधी अमरचन्द दीवान ने क्या पूर्वक इसके हिन्दी पद्यानुवाद की मुझे प्रेरणा दी। मैंने श्रद्धा पूर्वक इस रचना का हिन्दी पद्यानुवाद किया ।" अन्य के अन्त में ये लपता १. परकारन कुदकुरव बलामी, ताका रहस्य अमृतचंद्र मानि । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर गुभान : जानिस र हतिद प्रगट करते हुए लिखते हैं---यदि इसके हिन्दी पद्यानुवाद में श्रुटियां हों तो विजन मूल ग्रन्म का अवलोकन कर शुद्ध कर लें।" "कवि के समय में जयपुर के शासक सवाई रामसिंह थे । कवि ने यह रचना प्रासोज सुदी दशमी गुरुवार बि. सं. १८६२ में पूर्ण की थी।" जयपुर से प्रकाशित मासिक पत्रिका "हितैषी" से इस बात की पुष्टि हो जाती है कि "बुधजन" ने अपने जीवन काल में दो सासकों का शासन काल जयपुर में देखा था। १३. वर्द्धमान पुराण सूचनिका वि० सं० १८६५ ८ वढं मान पुराण सूचनिका [वि० ० १८९५] ____ यह कधि की अन्तिम रचना है । इसमें तीर्थकर महावीर के पूर्व भवों का वर्णन किया गया है । पुरवा भील की पर्याय से महावीर की पर्याय तफ इस जीव ने जो-जो प्रमुख पर्यायें [३३] प्राप्त की उनका सप्रमाण क्रमबद्ध वर्णन है । इस लघु कृति में केवल ८० पद्य हैं। रपना के अन्त में कवि ने अपना नाम व रचना काल का उल्लेख किया है। सकल कीर्ति मुनि ने संस्कृत भाषा में "वर्द्धमान पुराण सूचनिका" ग्रन्थ की रचना की थी। उसी की गद्यात्मक हिन्दी वनिका पढ़कर तथा उसी से कम भाग लेकर मेरी बुद्धि उसे पाबद्ध करने की हुई इसे मैंने वि० सं० १८६५ में प्रगहन कृष्णा तृतीया गुरुवार को पूर्ण किया । टोकारची संस्कृप्त वानी, हेमराज वननिका पानि ॥५७७॥ करें सम्यक्त्व मिश्यास्व हरें, भगसागर लोला ते तर ।। महिमा मुख से कही न जाय, 'बुधजन' बन्ने मनवयकाय ॥२७॥ सांगही अमरचंद बीवान, मोक' कहो यावर मान । मन्द अर्थ यो मैं लह.यो, भाषा करन तवै उमगयो ||५७६॥ कवि बुषजम : पंचास्तिकाय भाषा, पश्च संख्या ५७७, ५७८, ५७६ । भक्तिप्रेरित रचना प्रानी, सिखो पढौ वांचो भषि कानी । जो कछ यामें प्रमुख निहारो, मूल ग्रंथलखि ताहि सुधारो।। कवि बुषमम : पंचास्तिकाय भाषा, पद्य संख्या ५०० । रामसिंह भूप जयपुर बसे, सुदि मासोज गुछ दिन बसें । उगरगोस में घदि है माठ, ता विवस में रस्मो पाठ ।। कमि दुधजन : पंचास्तिकाय भाषा, पत्र संख्या ॥११॥ सकल फीति मुनिरच्यो, वनिका ताफी बाँची । सर्व ईव को रखन, सुद्धि "सुषमन" की रांची ।। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन द्वारा निबद्ध कृतियां एवं उनका परिचय कवि में अन्य के अन्त में लोक कल्याण की भावना से प्रेरित होकर लिखा है "राजा, देण, नगर, ग्राम, घर और प्रत्येक व्यक्ति का मंगल हो । नगर में सदा नृत्य, गान प्रादि मनोरंजन के कार्य चलते रहें। सबके घर धन-धान्य से परिपूर्ण हों, सम लोग धर्मी अनों की संगति करें, जिससे पापों का नाश हो व सब लोग प्रभु का गुण स्मरण करते रहें।" उपरोक्त कथन से यह स्पष्ट है कि कवि की यह अन्तिम रचना है । क्योंकि इसमें लोक मंगल की जिस भावना का उल्लेख कवि ने किया है उसे देखने से लगता है कि उन्होंने अपने अन्तिम क्षणों में इसकी रचना की होगी या वृद्धावस्था में इसकी रचना की होगी। दूसरी बात यह भी है कि इसके बाद की कोई रचना कवि की उपलब्ध नहीं है । अतः मेरी सम्मति में यह कवि की अन्तिम रचना है । "बुधजन" ने हिन्दी भाषा में अपने विचारों की अभिव्यंजना कर वाड्मय की वृद्धि की है । उन्होंने समाज कल्याण की प्रेरणा से ही काव्य की रचना की है । भोग-विलास और राग-द्वेष के प्रदर्शनात्मक शृगार प्रादि रसों से कवि का कोई प्रयोजन नहीं । ग्रन्थ के अवलोकन से कविबर बुधजन की काव्य प्रतिभा भौर सिद्धान्त-ज्ञान का अच्छा परिचय मिलता है। के चारों अनुयोगों (वेदों) के विद्वान थे, कवि तो धे ही। रचना की भाषा से अवगत होता है कि उस समय हिन्दी की खड़ी बोली का प्रारम्भ हो यगा था। कवि ने यह रचना अपने कास की हिन्दी की खड़ी छोली में की है । रचना सरस और सरल है । १४. योगसार भाषा (वि० सं० १८६५) 9. पोगसार भाषा वि. स. १८६५) ___ प्राचार्य योगीन्द्रदेव द्वारा रचित अपभ्रंश रचना के माधार पर कविवर बूधजन ने इसका भाषानुवाद हिन्दी पद्यों में किया। यह रचना प्रारम-संबोधन हेतु रची गयी है । इसका विषय प्राध्यात्मिक है । इसमें निश्चय पोर व्यवहार नय की सापेक्षता दिखाई गई है। निश्चयनय मात्मा के वास्तविक स्वरूप को बताने वाला है, पर व्यवहार नय के बिना निश्चय नय का वर्णन नहीं हो सकता, तथापि अपने उगनीसा में घाटि, पांच संवत् घर मगहन । कृष्ण तृतीया हुवो प्रप पूरन सुर गुरु दिन । कवि बुधजन : बर्डमाम पुराण सूत्रनिका, पझ सं० ७७-७८ हस्तलिखित प्रसि, जयपुर मंगल हो नप देश नगर, ग्रामैं जन-सम-घर । १, Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : जतिाल एवं शनिव शुद्ध स्वरूप [परमात्मा के सन्मुख होने के लिये व्यवहार नय की कोई उपयोगिता भाषा की दृष्टि से यह रचना उत्कृष्ट नहीं है, तथापि विषय आध्यात्मिक होने से उपादेन है । ग्रन्थ के अन्त में कवि अपनी लघुता प्रकट करते हुए कहते हैं: ___ "मैंने अपनश के अन्य योगसार के प्राधार से भन्यजनों के हितार्थ इसे हिन्दी भाषा में लिखा है । यदि इसमें किसी प्रकार की त्रुटि हो तो सज्जन-जन इसमें मुघार कर ले ।" __ इस रचना में कवि ने अपने नाम व रचनाकाल का उल्लेख भी किया है। जिससे स्पष्ट है कि कवि ने इसे सावन शुक्ला तृतीया मंगलबार वि० सं० १८६५ को पूर्ण किया । इस प्रकार स्पष्ट है कि "वर्द्धमान पुराण सूचनिका" और "घोगसार भाषा" हो कवि का अन्तिम रचनाएं हैं। होय सवा तगाम, पान-पन रहै होषभर॥ करो सुपात्रो हान, इष्ट प्रभु पूज रछावो । धर्मातम संग करो, हरो अथ प्रभुगुन गावो । कषि बुधजन : वसंमान पुराण सूचनिका, पल सांस्था ७१, ८० हस्तलिखित प्रति, जयपुर। मिचय परमातम बरस, पिन व्योहार महोह। परमातम अनुभौसमय, नय ज्योहार न कोई। सुधजन : योगसार भाषा, हस्तलिखित प्रति, पन सं. १०६, दि. जैम लणकरण पाया मंदिर, जयपुर । जोगसार अनुसार यह, भाषा भवि हितकार, दोहा बुधजन निज रचे, सज्जन सेहु सुधार ॥११०।। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड प्रथम अध्याय १. कृतियों का भाषा विषयक एवं साहित्यिक अध्ययन भारतीय भाषाओं के साहित्य में ऊपर से दिखाई देने वाली भित्रता रूपगत है । सभी भाषाओं को अपनी-अपनी विशेषताएं हैं । किन्तु उद्गम और विकास की दृष्टि से सामान्यतः सभी भारतीय धायें भाषाओं में एकता लक्षित होती है क्योंकि उनका मूल स्रोत एक है। इसी प्रकार लगभग उन सभी प्राधुनिक भारतीय आर्यभाषायों का उदगम काल दसवीं शताब्दी के आस-पास कहा जाता है । इतना ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीय साहित्य के विकास की पृष्ठभूमि में भी एक जैसी सांस्कृतिक और सामाजिक चेतना का स्वर सुनाई देता है । मध्य युगीन संतों की वाणी और भक्ति साहित्य भार्य भाषश्यों की ही धरोहर नहीं है अपितु दक्षिण भारत की भाषाओं तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम में भी उनकी रचना प्रचुर मात्रा में हुई है। रूढ़ियों के प्रति विद्रोह, नई परम्पराओं के निर्माण तथा प्रेम और श्रृंगार के अंकन की प्रवृत्ति सम्पूर्ण भारतीय साहित्य की मूल घारा न रही है । भारतीय साहित्य को धर्म संप्रदाय और जाति के आधार पर विभक्त करना उचित नहीं है, क्योंकि भाषागत भित्रता तथा जातीय संस्कारों के विद्यमान होने पर भी हमारे देश का साहित्य हमारे जीवन श्रोर संस्कृति का प्रतिविम्ब है । भाषा और लिपि के ऊपरी आवरण को सहज उसके समग्र रूप को देखें, तो उसकी मूलभूत एकता का लक्ष्य बोष हो सकता है । किसी देश की संस्कृति का अध्ययन, उस देश के निवासियों के मानसिक सामाजिक तथा आध्यात्मिक जीवन का समवेत ग्रहकलन उसके सम्पूर्ण रूप को समझने के लिए देश की मादि युगीन अवस्था से लेकर माधुनिक युग तक की भवस्था के क्रमिक विकास को विभिन्न युगों में प्रचलित प्रवृतियों तथा परम्परामों के प्रकाश में देखने की तथा उसके अंगों पर दृष्टि रखने की आवश्यकता है । यद्यपि संस्कृति के अनेक अंग हो सकते हैं किन्तु सामान्यतः चार उपादान प्रमुख माने जाते है । संस्कृति के मुख्य चार अंग है : (१) साहित्य और भाषा । (२) धर्म और दर्शन | Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ कविवर बुधजन ! व्यक्तित्व एवं कृतित्व (३) राजनीतिक तथा भौगोलिक परिस्थितियां । (४) सामाजिक परिस्थितियां। यहाँ साहित्य शब्द का अर्थ संकुचित न होकर व्यापक है । उसके अन्तर्गत केबल सृजनात्मक साहित्य ही नहीं, धार्मिक, दार्शनिक, सामाजिक और राजनैतिक सभी प्रकार का साहित्य है जो क्षणिक, सस्ता मनोरंजन न देकर शास्वत सत्य सत्यम, शिवम्, सुन्दरम् का उद्घाटन करने में समर्थ होता है, वही सरसाहित्य है । "जैन साहित्य अध्यात्म-प्रधान साहित्य है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश', प्रान्तीय भाषाएं और हिन्दी में जो जन साहित्य माज प्राप्त है, उसका मूल स्वर अध्यात्म है । धार्मिक क्रान्तिकां साहित्य की दिशा सदा से बदलती रही हैं और ऐसा न साहित्य में भी हुमा है।" एक बात जो ध्यान देने की है, वह यह है कि प्रायः एक ग्रंथ को लेकर हम यह नहीं कह सकते कि उसमें केवल राजनैतिक या प्राध्यात्मिक स्थितियों का ही विश्लेषण है । उस ग्रंथ में अन्य प्रकार की स्थितियों तथा तस्वों का विवेचन होता है । अतः हम समस्त सहर५ का वर्गीस, माननिता जिक, धार्मिक प्रादि रूप में न करके दूसरे प्रकार से करेंगे। यह वर्गीकरण समय तथा प्रवृत्ति दोनों के विचार से होगा । संस्कृति से सम्बन्धित समस्त साहित्य को हम निम्न वर्षों में बांट सकते हैं। [१] वैदिक-साहित्य । [२] लौकिक साहित्य ! [३] पौराणिक-साहित्य । [४] स्तोत्र-साहित्य । [५] दर्शन-साहित्य । [६] पुरुषार्थ-साहित्य । [७] सृजनात्मक-साहित्य । जिस दिन हम प्राचीन भाषाओं में निबद्ध साहित्य को भूल पायेंगे, उसी दिन से हमारा पतन होने लगेगा। संस्कृति क्या है ? धर्म क्या है ? और उनका दैनंदिन के जीवन में कैसे उपयोग हो सकता है, इत्यादि बातों का बोध हमें प्राचीन साहित्य से ही होता है। इससे हमें मानसिक तृप्ति तो मिलती ही है, साथ ही शास्वत सुख और उसकी प्राप्ति के साधनों का बोध भी हमें इसी साहित्य से होता है । १. जन डॉ० रवीन्द्रकुभार : कविवर बनारसीदास जीवनी और कृतिस्त्र, पृष्ठ ४६, भारतीय ज्ञानपीठ काशी प्रकाशन । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतियों का भाषा विषयक एव साहित्यक अध्ययन ७५ "यदि विचार कर देखा जाय तो धर्म एक है और उसे जीवन में उतारने का मार्ग भी एक ही है परन्तु विश्व में जो अनेक धर्म दिखाई देते हैं और उनमें परस्पर जो अन्तर है उसको दार्शनिक पृष्ठ भूमि का ज्ञान हम इस साहित्य का गहन मंथन किये बिना नहीं कर सकते।" कविवर खुपम जिस टीEET) वर में शादिस रचना की, उसका इतिहास डॉ० जार्ज ए० प्रियर्सन के अनुसार निम्न प्रकार है : "इस प्रकार जयपुर की सीमा के निकट मारवाड़ क्षेत्र में बोली जाने वाली मारवाड़ी भाषा मारवाड़ प्रान्त में ददारी कहलाती है। यह जयपुरी भाषा का एक नाम है क्योंकि इस पर जयपुरी का गहरा प्रभाव है । वास्तव में यह मिश्रित भाषा है और जयपुर सीमा के निकट होने से मारवाड़ी की अपेक्षा संभवतः जयपुरी के अधिक निकट है । हूँढारी के भी दो भेद हैं । [१] चट्टानी पहाड़ियों की एक श्रेणी जो करीब-करीब सम्पूर्ण पोखावाटी (जयपुर प्रदेश) को दो भागों में विभाजित करती है । उत्तर पूर्षी दिशा में और उसी के पास पूर्षी दिशा में पहाड़ियों के पूर्व की और का भाग ददारी कहलाता है। यह एक ऐसा नाम है जो पहले-पहल राजपूताने के एक विशाल भाग के लिये प्रयुक्त था, जबकि पश्चिम की ओर बाजार नामधारी प्रदेश, जिसमें सम्पूर्ण शेखावाटी सम्मिलित है और सम्पूर्ण रेतीले प्रदेश को सम्मिलित कर लिया जाता है, जहां कि पानी बड़ी गहराई से प्राप्त होता है। जोधपुर रियासत के सुदूर उत्तर पूर्व में जहां वह प्रदेश, जयपुर का सीमा प्रदेश बनता है। वहां की बोली मारवाड़ी और जयपुरी का मिश्रण है अथवा बाद वाली भाषा को भी स्थानीय रूप से तू दारी कहते हैं। इस पर जयपुरी का विशेष प्रभाव है। यहां वास्तव में भाषा मिश्रित है और जयपुर सीमा के पास है और सम्भवत: यह भाषा मारवाड़ी की अपेक्षा जयपुरी के अधिक निकट है। Thus the Marwari spoken in Marwar close to the Jaipur frantier is called in Marwar Dboordhari on of the names of Jaipuri, Because the Jaipuri influens, is very strong. Here indeed the language is mixed one and near the Jaipur border is probably ncarer Jaipury then Marwari. A Range of rocky hills inter sects nearly the whole shekhawati in the Jaipur state. In a nocth estert direction and close upon its castern frentier, the country on the east side of the hills is called Dhoondhari ( A name which was fojmarly applied to a large part of Rajputana which that to the west is called १. पं० फूलसम्ब सिवान्तशास्त्री : वर्णो स्मृति प्रन्य, खण 2, पृष्ठ ६८, प्र० भा० वि० जैन विद्वत् परिषद, सागर म०प्र० प्रकाशन । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व Rasar which includes nearly the whole shekhawati and is generally apply to wundy country where is water is only procarable to at a great depth. In the extreme North east of the Jodhpur stale, where its borders and the Jaipur state the dialect is said to the mixture of Marwari and Jaipuri, or the letter is rocky called Dhoondhari. The language is a mixed on and near the Jaipur border is probably nearer Jaipuri theo Marwari 11. Lingujestic survey of India Zild 9 (vol.) part II page 71, डारी भाषा का एक उद्धरण देखिये, जिससे भाषा के सोष्ठव एवं माधुर्य का परिचय मिलता है । कहा है-'एक जणां के दो टाबर हा । वा में सू छोटक्यो पापका बापने क्यो के बाबा जी मारे पांती में प्रावे जकी माल भनेषो । जघांनी आपकी घर निकरी वाने बोट दीनी । गोहका दिना पो यो-यो वाली की संगली पूजी मेलीकर परदेस गयो । वठे आपकी सारी पूजी लफडा में उड़ादी। सगड़ी गिड़िया पछे बी देस में जवरो अकाल पड़ियो। कविवर बुधजन का अधिकांश जीवन टूढाइ प्रदेश में ही बीता था। ददाड़ प्रदेश में बोली जाने वाली भाषा दूदारी है, जिसका मूलाधार अजभाषा है। इस भाषा में खड़ी बोली का पुट है। इसे हम मिश्चित हिन्दी (बज भाषा और राजस्थानी) कह सकते है 1 अपने भाष-प्रकाशन में कविवर को जिस भाषा का जो शायद उपयुक्त लगा उसका खुलकर उपयोग किया है । भाव-प्रकाधान में भाषा के सरल-प्रवाह का अत्यधिक ध्यान रखा गया है। कहीं भी भाषा की कठिनता के कारण भाव-दुरुहता नहीं प्राने पाई है। गभीरतम दार्शनिक विचारों को भी इतनी सरल भाषा में अभिव्यंजना हुई है कि पाठक को उन्हें हृदयंगम करने में कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ा है। शैली बहुधा व्यास प्रधान है । भाषा और भाषों का इतना अनुपम सामंजस्य हिन्दी साहित्य की कम ही रचनाओं में प्राप्त होता है। डिगल, अवधी मोर सज के समान ही ढूढारी भाषा भी एक साहित्यिक भाषा है । इसका विस्तृत शब्द मंडार तथा व्याकरण है। कवि ने स्वच्छ, मधुर एवं प्रवाहपूर्ण ब्रज मिश्रित राजस्थानी भाषा का प्रयोग अपनी रचनामों में किया है। कवि की रचनामों में विदेशी भाषा के शब्दों का प्रयोग भी मिलता है, किन्तु ऐसे शब्द बहुत कम है। १. ० जार्ज एनियर्सन : लिंग्विस्टिक सर्वे श्राफ इडिया, जिल्द , भाग २ पृष्ठ ७१। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. कृतियों का भाषा विषयक एवं साहित्यिक अध्ययन "प्राचीन काव्यों की भाषा वैसे ही दुरूह होती है फिर उसका उद्धरण यदि सावधानी से न छपे तो श्रयं संगति बिठाना श्रीर भी कठिन हो जाता है"। राजस्थान के क्षेत्र विशिष्ट की साहित्यिक भाषा डिंगल है। डिंगल भाषा प्राकृत और अपभ्रंश से उत्पन्न मानी गई है । 1 'प्राकुल और पभ्रंश से उद्भूत डिंगल भाषा, एक क्षेत्र विशेष की जनता और विशिष्ट वर्ग, दोनों के अभिव्यक्ति का माध्यम रही है। डिंगल भाषा शादिकालीन (प्राचीन) भाषा है तथा इसमें प्रचुर सामग्री उपलब्ध है । 22 वस्तुत: प्रदेश की साहित्यिक धाराओं में हिन्दी उर्दू, व्रज, अवधी तथा मैथिली के अतिरिक्त गिल साहित्य बारा भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसकी कई विशेषताए है। डिंगल साहित्य की परंपरा का सम्बन्ध संस्कृत साहित्य से विशेष न होकर प्राकृत तथा अपभ्रंश साहित्य धाराओं से अधिक निकट का है, फिर यह केवल उच्च वर्ग से सम्बन्धित साहित्य नहीं है बल्कि जन संपर्क में लिखा गया है। डिंगल में पद्य साहित्य के साथ-साथ गद्य साहित्य भी प्रचुर मात्रा में मिलता है। रस बुधजन के साहित्य में यों तो सभी रस यथास्थान अभिव्यंजित हुए हैं पर मुख्यता मान्तरस की है। सभी हिन्दी जैन साहित्यकारों ने अपने साहित्य में शान्त रस की धारा ही प्रमुख रूप से बहाई हैं । उनकी रचनाओं में स्वान्तः सुखाय की दृष्टि विशेष रूप से परिलक्षित होती है। उन्होंने साहित्य को कभी भी भाजीविका का साधन हिन्दी साहित्य के विकास में पर्याप्त योग दिया। उन्होंने जैन रहकर ही साहित्य सेवा की। वे कवि भी थे और भक्त भी । मक्ति के प्रतिपादन को ही उन्होंने अपना साध्य बनाया । बुधजन सतसई में उनकी भक्ति की अनन्यता यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होती है । यथा नहीं बनाया | उन्होंने परंपरा के अन्तर्गत १. २. ७७ वारक वानर बाघ यहि, श्रंजन मील मंडार | जाविधि प्रभु सुखिया किया, सो ही मेरी बार ||३६|| तुम तो दीनानाथ हो, मैं हू दीन ग्रनाथ अब तो ढोल न कीजिये, मलो मिल गयो साथ || ४२ ॥ वीरवाणी, वर्ष ७, अंक ६, पृष्ठ १२३ - २४, जयपुर । विद्या भास्कर डिगल साहित्य प्रकाशकीय १६६०, ३० जगदीश प्रसाद एम०ए०, डी० फिल०, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, उ०प्र० इलाहाबाद । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व "कवि को प्रमु के चरणों की शरण इतनी प्रिय है कि वे भव-भव में उसी की याचना करते हैं।" कविवर बुधजन जैन दर्शन और सिद्धान्त के पारंगत अनुभवी विद्वान थे। दुधजन की तरह बनारसीदास, मैया भगवतीदास, घानतराय, दौलतराम आदि ने भी आध्यात्मिक व नीति परक रचनाएं की। बिहारी सतसई के फसिपम दोहे नीलि सम्बन्धी हैं । वृन्दसतसई, गिरधर की कुण्डलियां, दीन दयाल गिरि की रचनाए' भी नीति परक हैं। इस प्रकार हिन्दी में १६ वीं शताब्दी तक नीति परक रचनाएं होती रहीं । बुधजन की रचनाए' मुख्यतः तीन भागों में विभाजित की जा सकती हैं । (१) नीति प्रधान रचनाएं (२) सैद्धान्तिक रचनाएं (३) प्राध्यात्मिक रचनाए। नीति परक रचनाएं समास पाली में लिखी गई हैं । जैन कवियों ने अपने साहित्य सृजन के मूल में ही प्रध्यारम को रखा है । प्रायः सभी हिन्दी जैन कवियों ने मात्म-जागरण प्रधान पदों की रचना की है । प्राज भी सभी लब्धप्रतिष्ठ कवि अपनी कविता का चरम लक्ष्य प्रारमा की उन्नति ही मानते हैं। वास्तव में कविता वही है ओ मानव की प्रात्म उन्नति का पथ प्रशस्त कर सके । बुधजन ने अपनी रचनाओं में मुख्यतः दोहा, चौपाई, पद, कुण्डलिया, कवित्त, सर्वया आदि छन्दों का प्रयोग किया है । इनके पड़ों में ब्रज और राजस्थानी (ढूढारी) के मिश्रण की स्पष्ट झलक है। बारी में जैन साहित्य के बड़े-बड़े पुराणों का पद्यानुवाद भी उन्होंने किया है। ऋत्रिकी सैद्धान्तिक रचनात्रों में विषय प्रवान बर्णन चली है । उन्होंने सभी सिद्धान्तों का समावेश सरल-माली में किया है। हिन्दी में उनके द्वारा लिखित अध्यात्म, भक्ति और रूपफ काथ्य सम्बन्धी भी हैं। उनकी सभी रचनाए' हिन्दी भाषा में हैं । उनके समस्त पद भक्ति रस से परिपूर्ण हैं । कवि ने अपने भाराष्य की भक्ति करते हुए उसके रूप लावश्य' का विवेचन किया है उनकी समस्त रचनाए पछ बद्ध हैं। एक बात और विशेष ध्यान देने की है कि सुधजन के पदों की भाषा पर ब्रज का प्रभाव है । अजभाषा की मूल प्रकृति प्रोकारान्त है । कवि के पदों में अनेक प्रकारान्त शब्द मिलते हैं । यथा-मिल्यो, कर्यो, मर्यो, गयो, गहयो, भन्यो इस्यादि । यही १. या नहीं सुरवास, पुनि नरराम परिजन साथ भी । पुष याचर तुम भक्ति भव-भव बीजिये शिवनाथ को ।। बुधअनः देवदर्शन स्तुति, ज्ञानशेठ पूजांजलि, पद्य , पृ० ४३४-३५ भारतीय भानपीठ काशी प्रकाशन । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tr कृतियों का भाषा विषयक एवं साहित्यिक अध्ययन नहीं - संज्ञा, विशेषण और सर्वनाम भी प्रकारान्त प्रयुक्त हुए हैं। सर्वनाम -साधित रूप यथा-जाकों, वाकों, लाकों, काकों इत्यादि । ७६ 1 शब्द कोष-पद संग्रह की शब्दावली बड़ी ही विलक्षण और महत्वपूर चुषजन ने अपने की लोकभाषा कोलों में स्थान दिया है । परिणामतः अनेक देशी शब्दों का स्वाभाविक प्रयोग सर्वत्र दिखलाई पड़ता है । यथा-लेज (बु. स. प. सं. १०८) मेती (४७३) नातरि (२२१) बुगला (२२१) परवा (३१५) वायुका (१६२) लूंग (६५) वाय (६६) विज (६५) पदे (७) डोलना (४) इत्यादि । कवि की रचनाओंों में सर्वाधिक संख्या तद्भव शब्दों को है जो नि परिवर्तन के बाद बहुत ही श्रुति मधुर और आकर्षक रूप ग्रहण कर लेते हैं । वे संस्कृत के ज्ञाता थे। उनकी रचनाओं में संस्कृत के प्रनेक रूप प्राप्त होते हैं । यथा चित्रकार (६९) वारि (६८) सुयश (६७) कलुषित (६६) निरंतर (६६) परिवर्तन (६४) कर्माश्रय (६४) पल्लव (६१) यदि | (२) वस्तु पक्षीय विश्लेषण :-- भारतवर्ष प्रति प्राचीन काल से प्रध्यात्म विद्या की लीला भूमि रहा है । अपनी आषि दैखिक एवं श्राषि भौतिक संमृद्धि के साथ उसके मनीषी साथकों ने अध्यात्म क्षेत्र में जिस चिरंतन सत्य का साक्षात्कार किया उसकी भास्वर रमि माला से विश्व का प्रत्येक भू-भाग प्रालोकित है । भारतीय साहित्य और इतिहास का अध्ययन इस बात का साक्षी है कि आध्यात्मिक गवेषणा और उसका सम्यक् श्राचरण ही उसके सत्य शोधी पृथ्वी पुत्रों के जीवन का एक मात्र अभिलषित लक्ष्य रहा है । इसी लौक मंगलकारिणी माध्यात्मिक उत्क्रान्ति के द्वारा भारत ने चिरकाल से विश्व का नेतृत्व किया और इसी की संजीवनी शक्ति से प्रनुप्राणित होकर श्राज भी उसकी वैदेशिक नीति विश्व को विस्मय विमुग्ध करती हुई विजयिनी हो रही है । जैन परंपरा में अध्यात्म-विधा की गरिमा का यथेष्ट गान जैन कवियों ने किया है | अध्यात्म में आत्म-विवृद्धि का प्रतिमान प्रस्तुत किया जाता है, क्योंकि मनुष्य जन्म का मिलना अत्यन्त दुर्लभ है । यह जीव अनंत काल तक चौरासी लाख योनियों में जन्म-मरण करता है और बड़ी कठिनाई से मनुष्य जन्म का लाभ कर पाता है । इसके लिये उसे श्रविराम साधना करनी पड़ती है । वह अपने अन्तर्मल को स्वच्छ करता है और आत्म शुद्धि को एक सौ में पहुंचकर मनुष्य भव हो प्राप्त करता है । दूसरे शब्दों में मनुष्य भव की प्राप्ति एक सीमा तक आत्म-विशुद्धि का १, जैन, डा० राजकुमार अध्यासन पत्रावली, पृ० सं० १ तृतीय संस्करण १६६५, भारतीय ज्ञानपीठ काशी प्रकाशन । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्किल एवं कृतित्व परिणाम है जो इस बात को सूचित करता है कि यह जीव अब ऐसी स्थिति में है कि प्रयत्न करने पर सस्मिना कर्मबंधन से मुक्त होकर शाश्वत सुख प्राप्त कर सकता है, परन्तु ज्योंही इसे मनुष्य भव मिलता है वह इसे प्राप्त करने के लिये की गई मपनी गंमीर साधना को एकदम मुल जाता है भौर उन असंख्य योनियों में भोगे हुए अनंस पीडामों के पुज को। फल यह होता है कि यह जीव मनुष्य होकर भी प्रज्ञानी होकर भूल जाता है भ्रमश प्रमानधीय कार्य करने लग जाता है और अपनी साधना से पतित होकर पुन: उसी पीड़ा पयोधि में गोते लगाना प्रारंभ कर देता है। मनुष्य के लिये इससे अधिक लज्जा एवं करुणाजनक बात और क्या हो सकती है कि वह अपनी अनंत साधना से प्राप्त की गई चितामणि सा दुसंभ वस्तु को यों ही खो देता है और फिर दीन-हीन बनकर रोने-सिसकने लगता है। मनुष्य के पतन की यह चरम सीमा है। कविवर बुधजन ऐसे विवेक-विकल मानव को ही सम्बोधित करते हुए कहते हैं : 'नर भव पाम फेरि दुःख भरना, ऐसा काज न करना हो ।' हे प्रात्मन् ! तुम ऐसा काम कमी न करना जिससे मनुष्य मव प्राप्त करके मी फिर से तुम्हें दुःख भोगना पड़े। कविवर बुधजन की दृष्टि में कर्म बन्धन ही संसार के दुःख जाल का कारण है, जो ममत्व भाव से और भी बढ़ होता जाता है, इसलिये वे कितने स्पष्ट एवं सरल शब्दों में मनुष्य को मतलब की बात बतला 'नाहक ममस ठानि पुद्गल सौं, फरम जाल क्यों परना हो । प्रात्मन् ! तुम पुद्गल-परवस्तु से (जो अपनी नहीं है) ममत्व जोड़ कर ध्यर्थ क्यों कर्म चक्र के बन्धन में पड़ते हो? तुम ऐसा काम कभी न करना जिससे मनुष्य भव प्राप्त करके भी तुम्हें फिर से दुःख भोगना पड़े। कविवर प्रात्म-स्वभाव एवं पर वस्तु के स्वरूप में अन्तर दिखलाते हुए कितने सुन्दर ढंग से जीव को भेदविज्ञान की ओर प्रेरित करते हुए कर्त्तव्य मार्ग पर मारूढ़ रहने के लिये गुरु का उपदेश बता रहे हैं : यह तो जड़, तू जान प्ररूपी, तिल तुष ज्यों गुरु वरना हो । राग दोष तजि, भज समता को, कर्म साथ के हरना हो । हे पात्मन् ! यह पुद्गल परवस्तु है । जड़ है, तुम प्ररूपी हो और ज्ञान-मय हो । तुम दोनों का तिल-तुष के समान सम्बन्ध है। जिस प्रकार तिलों से तुष को प्रथक् कर देने पर शुद्ध तेल मात्र अवशेष रह जाता है, उसी प्रकार कर्ममल से विमुक्त होने पर प्रात्मा भी शुद्ध स्वरूप में प्रदीप्त हो उठता है इसलिये मात्मन् ! तुम राम द्वेष को छोड़कर अपने कर्म बंधन को तोड़ दो और अपने भीतर संपूर्ण समभाव को (मोद्-राग-द्वेष रहित अवस्था) को जागृत करो। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतियों का भाषा विषयक एवं साहित्यिक अध्ययन ८ १ कविवर बुषजन सरलता के साथ श्राध्यात्मिक विषय का विवेचन करने में श्रत्यन्त निपुण हैं। उन्होंने सर्वत्र अल्पाक्षरों में भावगाम्भीमं को समाहित किया है, किन्तु चलती हुई भाषा में कहीं भी क्लिष्टत्तर का बोध नहीं होता । कहीं-कहीं तो उपमानों के प्रयोग से ही कवि ने काम चलाया है। यथा है श्रात्मन् । इस मनुष्य भव को प्राप्त करके भी विषय-सुख में मस्त हो जाने का अर्थ है हाथी पर सवारी करने के बाद रोना इसलिये श्रात्मन् 1 यदि तुम भवसागर से पार होना चाहते हो, संसार के दुःखों से छुटकारा चाहते हो तो तुम्हें समझदारी के साथ उन जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों की उपासना करनी चाहिये, जिन्होंने अपनी आत्मा को कर्मबन्धन से मुक्त कर लिया है। मनुष्य, मनुष्य का जन्म लेकर भी जब तक सदा के लिये दुःखों से छुटकारा पाने के मार्ग पर दृढ़ता एवं निष्ठा से अग्रसर नहीं होता, कविवर बुषजन की वाणी उसे पुकार पुकार कर सम्बुद्ध करती रहेगी । 'नरभवपायफेरि दुःख भरना, ऐसा काज न करना हो कविवर बुधजन का एक पद्य देखिये 'बाबा में न काहू का ' मोह का यह सबसे बड़ा मद है । संसार का मानव भादि काल से उसके मद में उन्मत्त है । इसके कारण उसे एक क्षण के लिये भी शुद्ध धात्म स्वरूप की झलक मिल पाती। यह सोच ही नहीं पाता कि शरीर के अन्दर रहने वाला 'मैं' क्या है और उसके साथी शरीर तथा अन्य बाह्य वैभव-सामग्री का इस "मैं और इससे पृथक् अन्य वस्तुओं का क्या सम्बन्ध है । इस बात का यथार्थं विवेक न होने के कारण मह इन सब चीजों में अपनस्थ मान बैठता है और 'मैं' के स्वरूप को भूलकर बाह्य वस्तुओं में ही 'में' के दर्शन करने लगता है। इसे ही पर्याय मूढ़ता ( पर वस्तु में अपने की मानना ) कहते हैं । मैं सुखी दुःखी मैं रंक राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव | मेरे सुततिय में सबल दीन, वे रूप सुभग मूरख प्रवीन' ।। इत्यादि कल्पनाओं में मोह का प्रबल उक ही लक्षित होता है प्रोर इसी भाव के कारण समस्त वस्तुओं में इष्ट और अनिष्ट की कल्पना करके यह जीव चिरकाल से आकुल व्याकुल हो रहा है । कालविष ग्राने पर तथा पुरुषार्थं जागृत होने पर इसे आत्मभान होता है - मैं तथा इससे सम्बन्धित समस्त वस्तुओं की ठीक-ठीक जानकारी होती है । मोह मद-मंद हो जाता है | अंतरात्मा स्वपर विवेक की उज्जवल ज्योति से आलोकित हो उठती मोर गुन गुनाने लगती है । १. पं० दौलतराम, छहढाला, द्वितीय ढाल, पद्य संख्या ४ पृष्ठ संख्या ११. सरल जैन ग्रन्थ भंडार, जबलपुर प्रकाशन ! Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ fr कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व 'बाबा में न काहु का, कोई नहीं मेरा रे । सुरनर नरक तिर्यग्गति मांही, मो को कर्मन घेरा रे ।।' बाबा मैं किसी का नहीं हूं और कोई मेरा नहीं है। शुद्ध आत्म स्वभाव ही मेरोनिवि है और उसकी संपूर्ण उपलब्धि ही मेरा लक्ष्य है । अन्य समस्त सांसारिक वस्तुओं का इस ग्रात्म-स्वभाव से कोई मेल नहीं है । संसार की इन चीजों में भी 'स्व' (आत्मा) की कल्पना करने से मुझे कर्मों ने नरक, तिर्थच मनुष्य और देव गतियों में बुरी तरह रुला दिया । श्रन्तष्टि खुलते हो "मैं" से सम्बन्धित समस्त वस्तुत्रों की सम्यक् प्रतीति होने लगती है और तब आत्मा बड़ी सरलता से अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप को पहिचान लेती है | देखिये : अन्त में किस प्रकार स्व-पर विवेक की ज्योति जागृत हो रही है— 'मात-पिता- सुल-तिय-कुल- परिजन मोह गरल उकेरा रे, तन-धन-वसन भवन-जड़ न्यारे हूँ चिन्मूरति न्यारा रे ॥ माता, पिता, पुत्र, स्त्री, कुल और नौकर-चाकर यह सब मोह जाल में फंसाने वाले हैं । इनमें राग और अपनत्व बुद्धि करके आज तक हम मोहपाश में फंसे रहे और दुखों को उठाते रहे । वास्तव में शरीर, वन, वस्त्र और मकान का आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है । ये समस्त वस्तुएं जड़ हैं और ग्रात्मा से पृथक् हैं । ग्रात्मा का चैतन्य स्वभाव है और वह स्वयं इन सब चीजों से पृथक् अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व रखता है । विभाव भावों को छोड़कर किस प्रकार कविवर आत्म स्वरूप का साक्षात्कार कर रहे हैं - 'मुझ विभाव जड़ कर्म रचित हैं, कर्मन हमको छोरा रे । विभाव चक्र तजि घारि सुभाषा, अब आनन्द घन हेरा रे || शुद्ध म्रात्म-स्वभाव को छोड़कर अन्य समस्त भाव एवं कल्पनाएं वैभाविक है, जो स्वयं श्रात्म स्वरूप से पृथक् जड़ स्वरूप है और नवीन कर्म परंपरा की सृष्टि के कारण हैं और कर्म ही हमें संसार भ्रमण के द्वारा हलाते हैं। अब हमने वैभाविक भावों को छोड़ दिया है और शुद्ध भावों को अपना लिया है। इस समय हम केवल शुद्ध चिदानन्दमय श्रात्म-स्वरूप का साक्षात्कार कर रहे हैं । कविवर 'बुधजन' सच्चिदानन्द के पान में इतने तन्मय हो रहे हैं कि इसके सामने उन्हें अन्य समस्त जप-तप केवल उसी साध्य को प्राप्त करने वाले साधन भर ही दिखलाई दे रहे हैं । कविवर के शब्दों में सुनिये : Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतियों का भाषा विषयक एवं साहित्यिक अध्ययन खरच खेद नहीं अनुभव करते, निरखि चिदानन्द तेरा रे । जप-तप-व्रत शु तसार यही है, बुधजन कर न भवेरा रे ॥ शुश चतन्यमय प्रात्म-स्वरूप को साक्षात्कार करने पर हमें त्याग करते समय खेद का अनुभव नहीं होता है क्योंकि हमने निश्चय कर लिया है कि हमारा सम्बन्ध और अपनत्व केवल शुद्ध प्रात्म-स्वभाव से है, इसलिये अन्य समस्त पर बस्तनों के स्याग में हमें तनिक भी दुःहला गनुभा नहीं होना । जप-प-मन गौर संपूर्ण शास्त्र ज्ञान का भी यही ध्येय है कि हमें अपने सच्चिदानन्द मय प्रात्म-स्वरूप के स्थिर दर्शन हों। आज लोक में अपने दायित्व को उपेक्षित कर कर्तव्य से जी चुराने वाले अनेक जन ऐसा कहते हुए पाये जाते हैं। 'बाबा मैं न काहू का, कोई नहीं मेरा रे ।' जनाचार्यों ने प्राकृत के समान ही संस्कृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी प्रादि बिभिन्न भाषाओं में अपने विचारों की अभिव्यंजना कर वाड्मय की वृद्धि की है। गृहस्थावस्था में रहते हुए भी कवि ने सरस्वती की साधना द्वारा तीर्थकर की बाणी को जन-जन तक पहुंचाया है। काव्य-साहित्य की प्रात्मा भोग-विलास और राग द्वेष के प्रदर्शनात्मक शृगार और वीर रसों में नहीं है किन्तु समाज कल्याण की प्रेरणा ही काव्य साहित्य के मूल में निहित है। दर्शन, आचार, सिद्धान्त प्रगति विषयों की उद्भावना के समान ही जन-कल्याण की भावना भी काथ्य में समाहित रहती है । अतएव समाज के बीच रहने वाले कवि और लेखक गाईस्थिक जीवन व्यतीत करते हुए करुण भाव की उद्भावना सहज रूप में करते हैं। एक प्रोर जहां सांसारिक सुख की उपलब्धि और उसके उपायों की प्रधानता है तो दूसरी ओर विरक्ति एवं जन-कल्याण के लिये प्रास्म-समर्पस का लक्ष्य भी सर्वोपरि स्थापित है। निश्चय ही बुधजन के साहित्य में अहिंसा सिद्धान्त की अभिव्यक्ति हुई है उसमें लोक-जीवन के स्वाभाविक चित्र अंकित हैं । उसमें सुन्दर प्रारम-पीयूष रस छल छलाता है। धर्म विशेष का साहित्य होते हुए भी उदारता की कमी नहीं है। मानव स्वायलंत्री कैसे बने, इसका रहस्योद्घाटन किया गया है। तत्व-चिंतन मौर जीवन शोधन ये कवि की रचनामों के मूलाधार हैं। . प्रारम शोधन में सम्यक श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र का महत्वपूर्ण स्थान है । सम्यक चारित्र, अहिंसा, सत्य, अचार्य, ब्रह्मचर्य मौर अपरिग्रह की संपूर्णता है, जो वीतराग भाव में निहित है । प्रत्येक प्रात्मा का स्वतंत्र अस्तित्व है। प्रत्येक 'कहा Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रारमा राग द्वेष एवं कर्ममल से प्राप्त है, वह पुरुषार्थ से शुद्ध हो सकती है । प्रत्येक प्रात्मा में परमात्मा बनने की क्षमता है । जैन दर्शन निवृत्ति प्रधान है। रत्नत्रम ही नित्ति मार्ग है । सात तत्त्वों की श्रद्धा ही राम्यग्दर्शन है। विचारों को अहिंसक बनाने के लिये अनेकान्त का प्राथय मावश्यक है ।' कवि की प्राध्यात्मिक रचनाओं का प्राधार ही प्रास्मा है । प्रतः आत्म-स्वरूप की यथार्थ जानकारी अत्मम्त आवश्यक है । प्रात्मा के सम्बन्ध में विभिन्न दार्शनिकों ने गहन-चिंतन किये हैं और अपनीअपनी स्वतंत्र मान्यताएं स्थिर की है, परन्त वे सब एकान्त दर्शन पर आधारित है और यही कारण है कि वे अनन्त गुणात्मक प्रात्म-स्वरूप का स्पर्श नहीं कर पाती । जन-दर्शन में प्रात्मस्वरूप का अनेकान्त इष्टि से किया गया सर्वां गपूर्ण विवेचन उपलध होता है। कहा भी है कि "जीव उपयोगमय है, प्रभूत्तं है, कर्ता है, स्वदेह प्रमाण है, भोक्ता है, संसारी है, सिद्ध है और स्वभाव से ऊर्ध्वगामी है" ।' जोय उपयोगमय है : जीब आत्मा का नामांतर है, उपयोग जीव का स्वरूप है। ज्ञान और दर्शन की उपयुक्त अवस्था को उपयोग कहते हैं। ज्ञान और दर्शन का अर्थ है-जानना मौर देखना । जीव को जानने की और देखने की क्रिया निरंतर बनी रहती है । एक क्षण के लिये भी उपयोगात्मक स्वभाव को नहीं छोड़ता है, इसलिये जीव उपयोग मय कहा जाता है। जीव प्रमूर्त है : जीव का दूसरा स्वरूप प्रमूर्त है । मूर्त का अर्थ है--जिसमें रूप, रस, प्रन्य और स्पर्श ये चार गुण प्राप्त होते हैं । इस भ्याख्या के अनुसार पुदगल द्रश्य ही मतिक ठहरता है । जीव मूर्तिक नहीं है, क्योंकि उसमें रूप, रस गंध और स्पर्श नहीं पाये जाते हैं। जीष कर्ता है : जैन दर्शन में जीव को कर्ता माना गया है । इसका अर्थ यह है कि जीव अपनी संसार और मुक्त दोनों दशानों का स्वयं कर्ता है । सांख्य दर्शन प्रास्मा को का स्वीकार नहीं करता । उसकी मान्यता में वह सर्वथा अविकारी-कूटस्थ नित्य एवं सर्वव्यापक है । निष्क्रिय है और सकता है । क्रियाशीलता केवल प्रकृति का धर्म १. जीयो उपयोगमयो भमुक्तिका सवेह परिमारणो। भोक्ता ससारस्मो सिद्धोसौ विस्ससोबढ़गई ।। अनाचार्य नेमिचान; अन्य साह गाथा नं० २, पृ० ४, जबलपुर प्रकाराम Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतियों का भाषा विषयक एवं साहित्यिक अध्ययन है। इस दर्शन में प्रास्मा को पुरुष नाम से अभिहित किया गया है । सांख्य दर्शन में प्रकृति और पुरुष का निम्न लिखित लक्षण पाया जाता है। जो त्रिगुणमय, अविवेकी. विषय, सामान्य, अचेतन और प्रसवधर्मी है वह प्रकृति है और इससे विपरीत जो त्रिगुणातीत, विवेकी, विषमी, विशेष, चेतन तथा अप्रसवधर्मी है, वह पुरुष है। जीव स्ववेह प्रमाण है : वेदान्त दर्शन में आत्मा को व्यापक और एक माना गया है । उसकी मान्यता है कि मस्निल ब्रह्माण्ड में एक प्रारमा का ही प्रसार है । प्रात्मा के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है । सांस्य, योग और मीमांसा दर्शन भी प्रात्मा को व्यापक मानते हैं। एक अन्य मान्यता प्रारमा को अपरिमाण स्वीकार करती है, परन्तु जैन दर्शन उसे स्वदेह प्रमाण माना है। लघु महत् मायापार र एक मात्म-द्रव्य के प्रदेशों में भी संकोच-विरतार होता है । इस प्रकार प्रत्येक दशा में वह शरीर प्रमाण ही रहता है। जीव भोक्ता है : जन दर्शन में जहां प्रत्येक द्रव्य को अपने-अपने गुग-पर्यायों का कर्ता माना गया है वहां भोवतृत्व योग्यता जीव में ही मानी गई है। जीव के सिवाय अन्य द्रव्य जड़ है, उनमें भोग करने की योग्यता नहीं है । जीव में यह भोक्तत्व योग्यता भी स्वद्रव्य के भोग पर ही प्राधारित है । वह किसी भी स्थिति में पर पदार्थों का भोग नहीं करता । जहाँ भी पर पदार्थों में जीव के भोक्तृत्व की कल्पना की जाती है, वह मिथ्यात्व-विलास के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है । जीव सिद्ध है : अन्य द्रव्यों की भांति जीव भी एक स्वतंत्र द्रश्य है। अनादि कालीन कर्म शरीर से बद्ध होने के कारण ही वह संसार दशा का भोग करता है, परन्तु ज्योंही कर्म-बन्धन से मुक्त होता है अपने शाश्वत सिद्धस्व को प्राप्त कर लेता है और सदा के लिये अपने इस विशुद्ध स्वभाव में रहता है 1 सिद्धत्व भी जीव का स्वभाव है। जीव कवं गति है: यह एक गंभीर प्रश्न है कि कर्म-बन्धन से मुक्त होते ही जब यह जीव अपने विशुद्ध स्वभाव को प्राप्त कर लेता है तब यह जाता कहाँ है ? समाधान यह है कि ज्यों ही यह जीव कर्म बन्धन से मुक्त होता है लोक के अन्त तक ऊपर चला जाता है । नीचे तिरछे इस लिये नहीं जाता है कि वह स्वभावत: ऊर्ध्वगामी है। ऊर्ध्वगमन त्रिगुरणभवेकि विषयः सामान्य भवेतनं प्रसषधम । व्यक्तं तथा प्रधान तविपरील स्तया पुमान् ॥ सांख्य कारिका, ११। २. 'तवनन्तरमूवं गच्छन्त्यासोकान्तात् । उभास्वामी तत्वार्थसूत्र, म. १०, Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व करता हुआ लोक के अन्त में इसलिये ठहर जाता है कि लोक के बाहर गमन-निमित्तक धर्मद्रव्य का प्रभाव है। प्रात्म-स्वरूप को यथार्थ जानकारी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवम सम्माचारित्र द्वारा बतलाई गई है। सम्यग्दर्शन-प्रात्म विकास की दृष्टि से किया गया, जीव, अजीय, प्राधव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष स्वरूप तत्वों का यथार्थ दर्शन सम्यग्दर्शन है । इसकी दूसरी व्याख्या है-सच्चे देव, शास्त्र, गुरू का तीन मूढ़ताओं और पाठ मदों से रहित और आठ अंग सहित यथार्थ श्रदान करना सम्यग्दर्शन है। इसकी तीसरी व्याख्या के अनुसार स्वानुभूतिमयी श्रदा को सम्यग्दर्शन कहा है। सम्यग्दर्शन की उक्त तीनों व्याख्यानों में शाब्दिक अन्तर होते हुए भी अर्थतः कोई अन्तर नहीं है। श्रात्म-जागरण की वेला में साधक अपने प्रात्मा से सम्बद्ध अजीब तत्व की जानकारी करता है और इसके बाद उसके नन्ध के कारण तथा बच्चन मुक्ति के कारणों को हृदयंगम कर अन्त में विशुद्ध मात्मानुभूति को ही उपादेय मानकर अपनी रुचि प्रात्म-स्वभाव में ही केन्द्रित कर लेता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन की तत्वार्थ श्रद्धान रूप प्रथम व्याख्या स्वानुभूतिमयी श्रद्धा से बाह्य नहीं ठहरती । संपूर्ण जैन साहित्य अध्यात्म प्रधान साहित्य है । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, प्रान्तीय भाषाए और हिन्दी में जो कुछ भी जैन साहित्य भाज प्राप्त है उस सबका मूल स्वर अध्यात्म है। इस तथ्य को ध्यान में रख कर ही हम जैन साहित्यकारों की परंपरा का अध्ययन संपूर्ण रूपेण कर सकेंगे। १. धर्मास्तिकाया भावात्' उमास्वामी : सत्वार्थसूत्रः १००% २. तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् उमास्वामी : तस्वार्थ सूत्र १-२ ३. श्रद्धानं परमार्थानामाप्तानमतपो मताम् । त्रिभुकापोढमष्टांग, सम्यग्दर्शनमस्मयम् ।। पाचार्य समन्तभद्र : रश्नकर श्रावकाचार, १-३, सरल जैन य भंडार, जबलपुर। ४. तस्माच्छ खावयः सर्वे, सम्यातवस्वानुभूति मत् । ततो स्ति यौगिकी दि :, श्रद्धासम्यक्त्व लक्षणम् ।। अवष्य विरुद्धस्यात् प्रबतं स्वात्मानुभूति मत् ॥ पंडित राजमल्ल : पंचाध्यायी २,४१६-४२३ ।। ५. डॉ० राजकुमार : अध्यात्म पदावली, पृ० ५६, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतियों का भाषा विषयक एवं साहित्यिक अध्ययन संपूर्ण जन साहित्य विषय की दृष्टि से चार भागों में विभक्त है-प्रथमानुयोग, परमानुसोग, करगानुयोग यौनव्यानुयोग । प्रथमानुयोग में- महापुरुषों के जीवन चरित्र और उन्हीं की लोकोपकारी घटनाए। चरणानुयोग में आधार और चरित्र सम्बन्धी चर्चाए । करणानुयोग में लोक और नरक प्रादि गतियों का वर्णन । द्रव्यानुयोग में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, भाकाश पौर काल इस षट् द्रव्यों का वर्णन । जैन कवियों या लेग्य कों वा दष्टिकोणा धार्मिक होते हुए भी काव्य कोमल प्रदर्शित करने में वे किगी से पीछे नहीं हैं। ऐसे अनेक स्थल है जहां हमें एक प्रत्यन्त उच्चकोटि के सरल और सरस काव्य के दर्शन होते हैं। इनके काम में लोक रुचि के अनुकूल पर्याप्त सामग्री प्राप्त होती है । सरलता और सरसता को एक साथ प्रस्तुत करने का प्रयत्न प्रशंसनीय है । कधिधर बुधजन ने श्रावक धर्म का विषाद वर्णन किया है। उन्होंने थापक धर्म के ग्रहण की पात्रता बतलाकर ५ अगुव्रत, ३ मुरगपत, ४ शिक्षा यत तथा सल्लेखना के प्राचरण को संपूर्ण सागार धर्म बतलाया है । उक्त १२ प्रकार के धर्म को पाक्षिक श्रावक अभ्यास रूप से, नेगिसक ग्रावरण रूप से और साधक प्रात्मलीन होकर पालता है । पाठ मूल गुणों का धारण, सप्त व्यसनों का त्याग, देव पूजा, गुरू उपासना, पात्रदान प्रादि क्रियाओं का आचरण करना पाक्षिक प्राधार है । धर्म का मूल अहिंसा और पाप का मूल हिंसा है। अहिंसा का पालन करने के लिये मद्य, मांस, मधु और अभक्ष्य का त्याग अपेक्षित है । रात्रि भोजन त्याग भी हिंसा के अन्तर्गत है । गृह-विरत श्रावक प्रारंभी हिसा का त्याग करता है और गृहरत धावक संकल्पी हिंसा का । सत्माणुनत प्रादि का धारण करना भी यावश्यक है। श्रावक मुगावत और शिवावतों का पालन करता हुप्रा अपनी दिनचर्या को भी परिमाजित करता है । व एकादश प्रतिमाओं का पालन करता हुआ अन्त में सहलेखना द्वारा प्राणों का विसर्जन कर सद्गति लाभ करता है । इस प्रकार कवि ने अपनी रचनाओं में श्रावक की चर्यायों का वर्णन किया है । कवि ने प्रात्मा के अस्तित्म प्रादि का कथन करते हुए प्रात्म देव दर्शन निनन्य गुरू सेवा, जिनवाणी का स्वाध्याय इन्द्रिय-दमन प्रादि क्रियानों को प्रारमस्वरूप की प्राप्ति का साधन बताया है। सम्यग्दृष्टि ही आस्तिक होता है और प्रास्तिक ही पूर्पज्ञानी और परमपद का स्वामी होता है । नास्तिक को संसार में ही भ्रमण करना पड़ता है। उन्होंने भगवान महावीर के उस उपदेश का प्रतिपादन Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एव कृतित्व फिया जिसके लिये जाति, पद, भाषा, देश मा धर्म की रेखाए बाधक नहीं थीं सब उनके उपदेश में लाभ उठाते थे । प्रत्येक धर्म की प्राचार और विचार ये दो शाखाए होती हैं । इन दोनों ही शासानों में जब तक रहता है, तभी तक धर्म की धारा अविच्छिन्न रूप से चलती है । प्राचार-चारित्र की दृढ़ता लाता है जिससे शिथिलाचार नहीं पा पाता और दर्शन की परिपक्वता (विचार पक्ष) उसे प्राबर नहीं बनने देती । कविवर बुधजन में इन दोनों पक्षों का अपनी रचनाओं में प्रतिपादन किया है । उन्होंने दोनों के सन्तुलन का पूरणं ध्यान रखा है 1 अहिंसा, सत्य, पचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रह परिमारण या अपरिग्रह इन पांच अणूयतों को धर्म का प्राचार पक्ष कहा है। कवि में भावानुभूति भी है और अभिव्यक्ति भी। धर्म में प्राचार का महत्व है(व्रत, उपवास, पूजन, तप आदि) परन्तु इस आचार में हमारी निष्ठा होना चाहिये। इस आचार का सम्बन्ध हृदय से होना चाहिये, प्रदर्शन के लिये नहीं। धर्म में वसम्य एवं प्रभासक्ति का विशेष महत्व है । अनासक्ति के प्रभाव में चित्त में निर्मलता नहीं भा सकती। चित्त की निर्मलता के बिना जीवन में सादगी, पवित्र-चिंतन एवं तप में तल्लीनता असंभव है। बुधजन की सैद्धान्तिक रचनामों में विषय-प्रधान वर्णन शैली है। कवि ने सभी सिद्धान्तों का समावेश सरल शैली में किया है। हिन्दी में इनके द्वारा लिखित ११ रचनाएं विषय-प्रधान शैली में लिखी गई है। "बुधजन सतराई" नीति परक रचना है। (३) प्रकृति-चित्रण : ___भारतीय साहित्य में प्रकृति-चित्रण की परंपरा प्राचीन काल से है। इसका कारण यह है कि भारतीय जीवन और संस्कृति मुख्यतः प्रकृति के प्रांगण में ही विकसित हुई है । अतः प्रकृति के प्रति भारतीय जनसा का प्रेम स्वाभाविक ही है । रामायण और महाभारत की रचना तपोवनवासी ऋषियों द्वारा हुई अतः उनकी रचनात्रों में प्रकृति के भनेक चित्र इष्टिगोचर होते हैं । अनेकों जैन कवियों में त्यागी बनकर बन का मार्ग ग्रहण किया वहां वे प्राश्रम में रहे। उन्होंने प्रकृति के खुले वातावरण में रहकर प्रकृति का अवलोकन किया था। वाल्मीकि रामायरण का एक चित्र देखिये राम पुष्पक विमान में सीता को ले जा रहे हैं । प्रकृति का रम्य रूप उनके सामने है अतः वे सीता जी से कहते हैं-हे सीते ! इस रमणीय तटवाली विचित्र मंदाकिनी को देखो । जिसके तट पर हस और सारस कल्लोल करते हैं और जो पुष्पित शुक्षों से घिरे हैं। पवन से प्रताड़ित शिखरों से जो नत्य सा करता है, ऐसा पर्वत वृक्षों से नदी पर चारों ओर पुष्प और पत्र विकीर्ण करता है । हे भद्रं ! पवन के झोकों से नदी के तट पर बिखरे हुए पुष्पों के ढेर को देखो और इन दूसरे पुष्पो, को देखो जो उड़कर जल में जा गिरे हैं । जैन मुनी प्रायः नदी, सरोवर के किनारे, पर्वतों के ऊपर या गुफानों में तप करते थे। प्रकृति प्रपना रोष दिखलाती Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतियों का भाषा विषयक एवं साहित्यिक अध्ययन ८१ थी, किन्तु ये विचलित नहीं होते थे। सदन का महीना है श्रोर नेमीश्वर गिरनार पर्वत पर तप करने चले गये हैं इस पर राजमती कहती है पिया सावन में व्रत लोगे नहीं, घनघोर घटा जुर श्रावेगी | चहु भोर तें मोर जु शोर करें, बन कोकिल कुहल सुनावेगी ॥ पिय रेन अंधेरी में सूझे नहीं, कछु दामिनि दमक डरावेगी ॥ उक्त उदाहरणों से यह बात स्पष्ट है कि भारतीय कवियों ने प्रकृति को अपनी खुली झांखों से देखा है और उसके प्रति उनका सहज अनुराग है। प्रकृति के किसी दृश्य को चमत्कार पूर्ण ढंग से कहने की प्रवृत्ति उनमें नहीं है । हिन्दी साहित्य के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि भक्तिकाल में प्रकृति चित्रण तो हुआ है पर उस काल के संतों और भक्तों की वाणी उपदेश परक थी । उन्होंने अपने प्राध्यात्मिक अनुभवों को व्यक्त करने के लिये प्रकृति के प्रतीकों का सहारा लिया है प्रत्योषित के माध्यम से प्रकृति का आलंबन लेकर उन्होंने अपने विचारों को व्यक्त किया है । तुलसी जैसे भक्त कवियों ने वर्षा और शरद का वर्शन किया है, परन्तु प्रकृति के विभिन्न क्रियाकलापों के माध्यम से उन्होंने उपदेश ही दिया है। उन्होंने प्रकृति का वरन झालंबन के रूप में ही किया है । रीतिकालीन कवियों ने इसके विपरीत प्रकृति का वर्णन उद्दीपन रूप में afro किया है। जायसी का बारहमासा बन, बदलती हुई ऋतुनों में नागमती की विरह व्यथा को उद्दीप्त करता है । ऋतुओं का उपयोग भी उन्होंने उद्दीपन रूप में ही किया है । परन्तु जैन कवियों ने प्रकृति का वर्णन नीति व शिक्षा के रूप में किया है । कविवर वजन द्वारा जैन साहित्य में, बाह्य प्रकृति के नाना रूपों की अपेक्षा मानव प्रकृति (स्वभाव) का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। कविता करते की प्रेरणा उन्हें जीवन की नाबरता और अपूर्णता के अनुभव से ही प्राप्त हुई है । उनकी सौंदर्य ग्राहिणी दृष्टि प्रकृति के बाह्य रूपों की प्रोर भी गई और उन्होंने प्रकृति के सुन्दर चित्र भी प्रकित किये पर शान्त रस के उद्दीपन के रूप में ही । प्रकृति के विभिन्न रूपों में सुन्दरी नर्तकी के दर्शन भी अनेक जैन कवियों ने किये हैं, किन्तु वह नतंकी कुछ ही क्षणों में कुरूपा और वीमल्स सी प्रतीत होने लगती है । रमणी के केश-क्लाप, सलज्ज कपोल की लालिमा और साज-सज्जा के विभिन्न रूपों में विरक्ति की भावना का दर्शन करना जैन कवियों की अपनी विशेषता है। कविवर बुधजन ने होली का वर्णन किया है। वे लिखते हैं निजपुर में प्राज मची होली निजपुर में । उमंग चिदानन्द जी इतनाये, उत भाई सुमती गोरी || निज० ॥ लोकलाज कुलकारिण गमाई, ज्ञान गुलाल मरी झोरी || निज० ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व समकित केसर रंग बनायो, चारित पिचकारी छोरी ।। निज०॥ गावत प्रजपा मान मनोहर, अनहद झरसो बरस्योरी ॥ निज ।। देखन प्राय बुश्रजन भीगे, निरख्यो ख्याल अनखोरी । निज० ।। चेतन आत्मा अपने में ही होरी का खेल मचा रहा है। एक पोर उमंग में भरे चिदानंद जी हैं तो दूसरी पोर सुमति रूप गौरी है। इन दोनों ने लोक लाज का ख्याल न रखते हुए ज्ञान रूपी गुलाल से अपनी झोरी भर ली है । उसने सम्यक्त्व रूपी केयार का रंग बना लिया है और अब चिदानंद जी चारित्र रूपी पिचकारी छोड़ेंगे । इस प्रसंग पर मनोहर अजपा गान होने लगा और अनहद नाद होने लगा । इस प्रकार की होली को, बुधजन को भी देखने का अवसर मिला तो वे भी सुमति रानी के साथ होली खेलने लगे। इस प्रकार संपूर्ण वातावरण प्रानंद से भर गया। जैन म । जीवन, जीव को परम नियस की प्रोर बहाने का एक प्रयत्न है अत: यहां होली का मादक उन्माद भी समता-श्री वृद्धि का सहायक होता है । कवि की उपयुक्त भावधारा में मौलिक होली अध्यात्म प्रगति की होली बन गई है। प्रात्मा के घट में बसन्त फूट पड़ा है और फिर मुमुक्षुषों के लिये शाम्वत सुख केलि का कोई अन्त ही नहीं रहा है। १५नीं शताब्दी के श्री 'वर्षमान पुराणु" काव्य के प्रणेता श्री नवलराम ने अनेक होली पद लिखे हैं। यहां एक संक्षिप्त पद पर विचार किया जा रहा है। कवि का विमर्श है कि अश्लील भंड रूप से होली खेलना उचित नहीं है। उसके अनुसार महाठग कुमति-रमणियों का साथ एकदम छोड़, सुज्ञानरूप पसियों का प्रसंग करना इष्ट है । होली का खेल तो कुछ इस प्रकार ही होना चाहिये । यथा ऐसे खेलि होरी को खेल रे । कुमति गोरी को अब तजि करिके, साथ करो सुमती गोरी को ॥ कवि कह रहा है कि व्रत रूपी बन्दन लीजिये, तपती सात्विक भरगजा (सुरमित लेसन) लेकर संयम रूपी जल छिड़किये, फिर देखिये क्या बहार प्राती है ? ऐसा होली का खेल खेलिये । ___ कवि बुधजन अपनी 'बुधजन-विलास' रचना में चेतन राजा को सावधान करते हुए कहते हैं कि 'हे चेतन राजा ! यदि तुम्हें होली खेलना ही हो तो तुम सुमतिरानी के साथ ही होली खेलना । अन्य स्त्रियों की प्रीति तोड़कर सुमति रानी से संग जोड़ने से चेतन और सुमति की अच्छी जोड़ी बन गई है। यह डगर-डगर डोलती धी। परन्तु इस प्रकार डगर-उगर डोलना उचित नहीं है। हे चेतन ! अपना प्रात्मानुभव रूपी रंग क्यों नहीं छिड़कते ? तुम ने सुमति रानी का साथ किया है, Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतियों का भाषा विषयक एवं साहित्यिक अध्ययन ६१ प्रतः उसके सहयोग सं अपने मिथ्यात्व आदि पापो का त्याग कर प्रात्मानुभव रूपी गुलाल से अपनी भोरी भर ले, यात्मा को निर्मल बना ले। सुमति का संग न रहने सेतू ने पहले प्रनेकानेक योनियों में भ्रमण किया और अनेक कष्ट उठाये। कवि बुधजन कहते हैं कि अपने देश को सुधारो प्रति सम्यग्दृष्टि बनकर बारित्र धारण करो, जिससे मुक्तिरमा के संग प्रानंद की प्राप्ति हो सके। इसी प्रकार की होली खेलने के लिये कवि ने चेतन राजा को प्रोत्साहिल किया है तथा अन्य प्रकार की होली खेलने का निषेध किया है । उन्हीं का एक और पद देष्टव्य है : 'सुमति रूप मारी श्री जिनवर के दरबार में होली खेलना चाहती है । इसके लिये वह निभाव-भावों का परित्याग कर शुशु स्वरूप बनाना चाहती है । बह प्रतिज्ञा करती है कि मैं कभी भी कुमति नारी का संग नहीं करना चाहती । मैं मिथ्यात्व रूप रंग की अपेक्षा सम्यक्त्व रूपी रंग में बना उचित समझती हूँ। कवि बुधजन भी अपनी आत्मा के प्रानन्द रूगी रस में (रंग) खूब छक गया है और अब उसे मानंद ही पानंद की प्राप्ति हो रही है । निरानन्द का कोई कारण ही नहीं रहा ।' कविवर बुधजन ने लोक भंगल' की कामना से प्रेरित होकर प्रकृति का चित्रण किया है यह कोई नई बात नहीं है । तुलसी, गिरधर प्रादि कवियों ने भी इस प्रकार लोक मंगल की कामना से प्रेरित होकर प्रकृति का चित्रण किया है। 'अनादि काल से प्रकृति मानव को सौंदर्य प्रदान करती आ रही है । वन, पर्वत, नदी, नाले, उषा, संध्या, रजनी, ऋतु प्रादि सदा से अन्वेषण के विषय रहे हैं। हिन्दी के जन कवियों को कविता करने की प्रेरणा जीवन की नवरता और अपूर्णता के अनुभव से ही प्राप्त हुई है । मुख्य बात यह है कि भारतीय साहित्य में प्रायः सभी कवियों ने किसी न बुधजन, बुधजन विलास, पाना संख्या ३१, पद्य सं० ३३, हस्त लिखित प्रति । वेतन खेलि सुमति संग होरी ॥ टेक ।। तोरी प्रानकी प्रीति सयानी भली बनी पा जोरी ॥१॥ खगर-डगर होले है यो ही, भाव पावनी पोरी। निज रस फगुमा क्यों नहीं बांटो, नातर सुधारी तोरी ॥२॥ क्षार कषाय त्याग या गहिले, समक्ति केसर थोरी।। मिथ्यापायर गरि धारिले, मिज गुलाल की ओरी ॥३॥ खोटे भेष घरे डोलत हैं, दुख पाय बुधि मोरी । "बुधजन" अपना भेष सुधारो, ज्यो विलसी सिव गौरी ॥४॥ २. डॉ. नेमिचन्द शास्त्री : संस्कृत काव्य के विकास में बैन कवियों का योगवान, पृष्ठ संख्या ५८५, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व किसी रूप में प्रकृति का श्रालंबन, उद्दीपन रूप में चित्रण किया है। यह चित्रण जहां सौंदर्य को अभिव्यक्त करता है नहीं मानवीय पक्षों के चित्रण में भी सहायक माना जाता है किन्तु मानव की मूल प्रकृति का यथा तथ्य वर्णन करना विशिष्ट कवियों की प्रतिभा का ही कार्य प्रतीत होता है। प्रकृति के बाह्य रूपों का वर्णन करना सरल है, किन्सु बाह्य प्रकृति का श्रालंबन लिये बिना प्रत्यक्ष रूप से मानव-प्रकृति का वर्णन करना असंभव नहीं तो क्लिष्ट अवश्य है । 'बुधजन' जैसे कवि ही इस प्रकार के प्रकृति चित्रण करने में समर्थ हैं । इतना ही नहीं 'अनेक जैन कवि प्रकृति के प्रांगा में पले और वह ही उनका साधना क्षेत्र बना अतः वे प्रकृति चित्रण भी स्वाभाविक ढंग से कर सके । उन्होंने प्रकृति के माध्यम से अनेक प्रकार की शिक्षा दी है। यथा-रात्रि का दीपक चन्द्रमा है । दिन का दीपक सूर्य है। सारे संसार का दीपक धर्म है और कुल का दीपक शूरवीर पुत्र है । शिक्षा देने पर भी जो श्रद्धा नहीं करता । रातदिन झगड़ा और फिसाद करता रहता है । ऐसा पूत पुत नहीं, भूल है । वह तो अपने घोर पापों का फल है। कवि ने बिम्ब-प्रतिविम्ब रूप में भी प्रकृति का चित्रण किया है । यथा संपत्ति के सबही हितु, विपक्ष में सब दूर । ।। १६८ ।। सुखोसर पंखी तजे, सेवें जलते पू यहां पंखी - सरोबर का बि संपत्ति पानी से भरा सरोवर विपत्ति-सुखा सरोबर डॉ० प्र ेमसागर जैन जैन भक्तिकाव्य और कवि, पृ० २० ज्ञानपीठ लोकोवय ग्रन्थमाला, प्रत्थान्क १८६० संस्करण, १६६४ २. बुधजन : बुधजन सत्तसई: पृ० सं० १८१, पृष्ठ सं० ३७ ३. बुधजन : बुधजन सतसई, पृ० सं० १५२, पृष्ठ संख्या ३८ ४. बुधजन बुधजन सतसई, पद्म संख्या १६८, पृष्ठ संख्या ३५ सनावद Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय- अध्याय १. भाव पक्षीय विश्लेष कविवर बुधजन की रचनाओं में एक मोर भारतीय लोक-नीति-रीतिपरक भावाभिव्यंजना प्रतिफलित हुई है, वहीं दूसरी ओर भात्मा को केन्द्र बिन्दु मानकर उसके अस्तित्व, रुचि व श्रद्धा ज्ञान एवं ध्यान से सम्बन्धित भावों की स्पष्ट श्रभिव्यक्ति हुई है। भावों में विकल्पात्मक चिंतन तथा साहित्यिक अभिव्यंजना मानदीय संवेदनाओं को सहेजे हुए स्पष्टतः लक्षित होती है । भावों में भले ही कथात्मक सहजता तथा मार्मिक प्रसंगों की योजना न मिलती हो, पर सरसता का गुण सर्वत्र है । मनुष्य का मानवीय पक्ष क्या है ? जगत् और जीवन के साथ उसका क्या सम्बन्ध है ? इन्हीं बातों का विचार करते हुए लेखक ने चिन्तन पूर्ण विवेचन क्रिया है । उनकी रागात्मिका अनुभूति भाषों के बक में उतनी अधिक रमी नहीं है, जितनी कि भात्रों के विश्लेषण में संलीन लक्षित होती है । -- भावों के होने में वित्त की सहजवृत्ति तथा संस्कारों का प्रभाव विशेष रूप से क्रियाशील रहता है। इसलिये यदि कवि का झुकाव अनात्मीय पदार्थों से हट कर ग्रात्मा-परमात्मा की प्रोर विशेष रूप से रहा है, तो यह सहज व स्वाभाविक है क्योंकि संसार की विषय वासनाओं से प्रसूत होने वाले राग-रंग के भाव एक और हैं और वीतरागता को प्रकट करने वाले भाव दूसरी भोर हैं। यह समझना उचित प्रतीत नहीं होता कि साहित्य में गारमूलक भाव ही मुख्य होते हैं । यदि ऐसा ही हो तो फिर शास रस के उज्जवल प्रकाशन में महाकवियों की वाणी को क्यों मौन-मंग करना पड़ा। क्या शान्ति व वैराग्य प्राणी मात्र को इष्ट नहीं है ? संसार का स्वभाव बताता हुआ कवि कहता है-मिष्या विकल्पों (राग द्वेष के भाव ) की रचना करके संसारी जीव वित्त को चिता के समान रच रहा है। इस तरह के भाव तो सदा उत्पन्न होते ही रहते हैं। एक भाव के उत्पन्न होते ही सरक्षरण दूसरा भाव उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार भावों का प्रवाह शाश्वत रूप से अनादि काल से प्रवहमान हूं । श्रतः प्राणी को सुख व शान्ति प्राप्त नहीं होती है । कविवर ने लोक जीवन व लोक है । वास्तव में प्राणी ने जैसे जैसे भाव प्राप्त कर चुका है, कर रहा है व करेगा। रीति की शिक्षा पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला किये हैं, कर रहा है व करेगा, वैसे-वैसे फल कोई किसी का भाग्य नहीं बदल सकता Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व - है । जो अपना भाग्य बनाता है, बही बदल सकता है । इसलिये अशुभ-भावों से हटकर शुभमाव करते रहना चाहिए और शुद्ध भावों की भावना भानी चाहिये । कविवर के भान पक्षीय विश्लेषण में यही वृत्ति मूल्य रूप से लक्षित होती है । चे भूत, भविष्य की चिंता छोड़कर वर्तमान को सम्भालने का भाव करने की ही सीख देते हैं। उनकी दृष्टि में वर्तमान सबसे महत्वपूर्ण है। यदि इस समय हमारी रुचि सम्यक् नहीं बन पाई, भाव भी बसे न हुए, तो हमारे जीवन से क्या लाभ? मूल भाव की दृष्टि से कविवर की रचनायों में रहस्यानुभूति के दर्शन होते हैं । विविध रूपकों के द्वारा उन्होंने प्रात्मा-परमात्मा की रहस व सुरति को चित्रित किया है। एक सन्त कवि व नीति-उपदेशक के रूप में उनके भाव स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त हुए हैं 11 मोरया ... मोह मदिरा के नशे में विहल मनुष्य की दशा मद्य-पान करने वाले व्यक्ति के सपा हो जाती है । यही दशा मोही जीवों की जानना चाहिये । स्वार्थी संसार : जीन एकाकी मां के गर्भ में प्राता है और नव मास पर्यत अधोमुख होकर बिताता है, वहां से जब निर्गत होता है, उन दुःखों को तो बही जानता है, अन्य कोई तो जान ही क्या सकेगा ? जो माता उसे उदर में धारण करती है, उसे भी उस बालक के दुःखों का पता नहीं 1 जब निर्गस हुमा तब बाल्यावस्था में शक्ति व्यक्त न होने से, इच्छा के अनुकुल कार्य न होने से जो कष्ट उसे होते हैं, उनके वर्णन करने में अन्य किसी को सामथ्र्य नहीं । उसे तो भूख लगी है, दुग्धपान करना चाहता है, परन्तु मां अफीम पान कराकर सुलाने की चेष्टा करती है। वह सोना चाहता है, मां कहती है बेटा दुग्धपान कर लो। कहने का तात्पर्य यह कि सब तरह से प्रतिकूल कायों में ही बाल्यकाल को पूर्ण करना पड़ता है । जहाँ पांच वर्ष का हुआ, मातापिता, बालक को पढ़ाने का प्रयत्न करते हैं । ऐसी विद्या का अर्जन कराते हैं, जिससे लौकिक उन्नति हो । यद्यपि लौकिक उन्नति में पारित नहीं मिलती तथापि मातापिता को जैसी परंपरा से पद्धति चली पा रही है, तदनुकुल ही उनका, बालक के प्रति भाव रहेगा । जिस शिक्षा से प्रात्मा को शान्ति मिले, उस ओर लक्ष्य ही नहीं। १. झूठे विकलप रचि फरे, चिता चत्त के माहि । एक मिट दूजी जठं, साता पावै नाहिं ।। बुधजन : बुधजन विलास, वैराग्य, दोहा संख्या १३, पाना स. २७ । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव पक्षीय विश्लेषण पालक गुरु से कहते हैं जिसमें बालक खान-पान के योग्य द्रव्यार्जन कर सके-अधकरी विद्या की ही शिक्षा देना । जहां बालक २०-२२ वर्ष का हो गया माता-पिता ने दृष्टि बदली और यह संकल्प करने लगे कि कब बालक का विवाह हो जाय ? इसी चिन्ता में मग्न रहने लगे । मन्ततोगत्वा अपने तुल्य ही बालक को बनाकर, संसार वृद्धि का ही प्रयत्न करते हैं । इस तरह यह संसार चक्र चल रहा है। इसमें कोई विरला ही महानुभाव होगा जो अपने बालक को ब्रह्मचारी बनाकर स्वपर के उपकार में प्रायु पूर्ण करे । प्राज से २००० वर्ष पूर्व श्रमण-संस्कृति थी। तब बालक गण मुनियों के पास रहकर विद्याध्ययन करते थे। कोई तो मुनिवेश में अध्ययन करते थे। कोई ब्रह्मचारी वेश में ही अध्ययन करते थे । कोई साधारण देश में विद्या प्रध्ययन करते थे । स्नातक होने के अनन्तर कोई तो गृहस्थावस्था को त्यागकर मुनि हो जाते थे, कोई माजन्म ब्रह्मचारी रहते थे, कोई गृहस्थ बनकर ही अपना जीवन निर्वाह करते में, परन्तु अब तो गृहस्थाचस्था छोड़कर कोई भी त्याग करना नहीं चाहता । सतत् गृहस्थ धर्म में रहकर जन्म गंवाते हैं। कुछ लोग मान के क्षेत्र में विभिन्न मतों की सृष्टि करते हैं । मारमा और ब्रह्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन उपनिषदों में तथा अद्वैत वान्त के रूप में उपलब्ध होता है । वास्तव में यात्मवाद और ब्रह्मवाद ये दोनों ही स्वतंत्र सिद्धान्त हैं। किसी एक से दूसरे का विकास नहीं हो सकता । प्रथम सिद्धान्त के अनुसार अगणित प्रात्मा संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं, और अगणित ही परमात्मा बन गये हैं । ये परमात्मा संसार की उत्पत्ति, स्थिति और लय में कोई भाग नहीं लेते। इसके विपरीत, ब्रह्मवाद के अनुसार प्रत्येक वस्तु ब्रह्म से ही उत्पन्न होती है और उसी में लय हो जाती है। विभिन्न प्रारमाए एक परबह्म के ही अंश हैं । जैन और सांख्य मुख्यतया प्रात्मवाद के सिद्धान्त को मानते हैं, जबकि वैदिक परंपरानुयायी ब्रह्मवाद को । परन्तु उपनिषद् इन दोनों सिद्धान्तों को मिला देते हैं और प्रास्मा तथा ब्रह्म की एकता का समर्थन करते हैं। वस्तुत: बुधजन जैसे जैन कवि काव्य के माध्यम से दर्गन, जान, चारित्र की अभिव्यंजना करते रहे हैं । ये आत्मा का अमरत्व एवं जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों की अपरिहार्यता दिखलाने के पूर्व पर्वजन्म के आख्यानों का भी संयोजन करते रहे हैं। प्रसंगवश, चार्वाक, तत्वोप्लववाद प्रति नास्तिक वादों का निरसन कर प्रात्मा का १. वीवारणी, ३,२५४/२६० २. डॉ० प्रा० ने० उपाध्येः परमात्म प्रकाश तथा योगसार की प्रस्तावना, रायचंद्र शास्त्रमाला बम्बई, सन १६७४ । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व अमरत्व और कर्म संस्कार का वैशिष्ट्य प्रतिपादन करते रहे ।। कविवर बुधाजन की समस्त रचनाओं का अध्ययन करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उन्होंने प्रनादि कर्मबन्धनबद्ध जीवों को सन्मार्ग में प्रवृत्त कराने का प्रयत्न किया है । उन्होंने संसार भ्रमण की विभीषिका का बड़े ही मार्मिक शब्दों में वर्णन किया है। वे लिखते हैं : जगत् के प्रारणी प्रात्म हित की खोज में उद्यमशील दृष्टिगोचर होते हैं परन्तु सदुपदेश के प्रभाव से मृगतृष्णा में जान-संकल्प-प्रान्त मृगों की तरह इतस्तत: भटकते हुए प्रभीष्ट फल से वचित ही रहते हैं। उन्हें जीव का वास्तविक हित क्या है और उस हित साधन को साक्षात् तथा परम्परा प्रणाली क्या है ? इसका ज्ञान न होने से खेद खिन्न होना पड़ता है । जीव के प्रानन्द रूप गुण विशेष को सुख कहते हैं । यह सुख गुरण अनादि काल से ज्ञानावरणादि प्रष्ट कर्मों के निमित्त से भाविक परिणति स्प हो रहा है । सुख गुण की इस वैभाविक परिणति को ही दुःस्त्र कहते हैं । इस प्राकुलता रूप दुःख के दो भेद हैं—एक साता और दूसरा प्रसाता । संसार में अनेक प्रकार के पदार्थ हैं, जो प्रति समय यथायोग्य निमित्त मिलने पर स्वाभाविक तथा वभाषिक पर्याय हा परिणमन करते हैं । यदि परमार्थ दृष्टि से देखा जाय तो कोई भी पदार्थ न इष्ट है और न अनिष्ट है । यदि पदार्थों में ही इष्टानिष्टता होली तो एक पदार्थ जो एक मनुष्य को इष्ट है वह सबही को इष्ट होता और जो एक को भनिष्ट है वह सबहीं को अनिष्ट होता। परन्तु संसार में इससे विपरीत देखा जाता है। इससे सिद्ध होता है कि पदार्थों में इष्टानिष्टता नहीं है। किन्तु जीवों न भ्रमवण किसी पदार्थ को इष्ट और किसी को अनिष्ट मान रखा है। मोहनीय कर्म के उदय से दुरभिनिवेश पूर्वफ इष्टानिष्ट पदाथों में यह जीब राग-द्वेष को प्राप्त होता है, जिससे निरंतर ज्ञानाचरणादिक कर्मों का बन्ध करके इस संसार में भ्रमण करता हुआ इष्टानिष्ट, संमोग-वियोग में अपने को सुखी-दुःखी मानता है। भ्रमवमा इस जीव ने जिसको सुख मान रखा है वह वास्तव में माकुलतात्मक होने से दुःख ही है । ये सांसारिक पाकुलतात्मक सुख-दुःख प्रात्मा के स्वाभाविक सुट गुरु का कर्मजन्य विकृत परिणाम है। कर्मों से मुक्त होने पर गुरण की स्वाभाविक पर्याय को ही यथार्थ सुस्व प्रथया वास्तविक आत्महित कहते हैं। १. जैन डॉ० नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य : भगवान महावीर और उनकी प्राचार्य परंपरा, भाग-४, पृष्ठ-२ । २. दौलतराम : छहढाला, तृतीय ढाल, तेरहवां संस्करण, पञ्च सं० १ पृष्ठ स' १७ सरल जन प्रन्थ भंडार ४०७, जवाहरगंज, जबलपुर । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव पक्षीय विश्लेषण कषि ने प्रारम हित के यो साधन बतलाये हैं। पहला मुनिधर्म और दूसरा गृहस्थ धर्म । उन्होंने मुनिधर्म को प्रात्महित का साक्षात् साधन कहा तथा गृहस्थ धर्म को परंपरा मोक्ष का या प्रारम-हित का साधन कहा । साक्षात् सुख के साधन को स्पष्ट करते हुए कवि ने रुिपा है, या मुखएको गिरा कोराले शानावरणादि प्रष्ट कर्म हैं । जब तक ये कर्म मात्मा से जुदे न होंगे तब तक इस जीव को यथार्थ सुख नहीं मिल सकता। न्याय का सिद्धान्त है कि जिस कारण से जिस कार्य की उत्पत्ति होती है उस कारण के प्रभाव से उक्त कार्य की उत्पत्ति का भी प्रभाव हो जाता है। उक्त न्याय के अनुसार यह बात सिद्ध होती है कि जिन कारणों से कर्म का सम्बन्ध होता है उन कारणों के प्रभाव से कर्म का वियोग अवश्य हो जायगा । मिष्या ज्ञान पूर्वक राग-द्वेष से कर्म का बन्ध होता है, प्रत: सम्यग्ज्ञान पुर्वक राग-द्वेष की निवृत्ति से यह जीव कर्मों से मुक्त हो सकता है । एक देश ज्ञान की प्राप्ति तथा राग ष की नियुसि यद्यपि गृहस्थाश्रम में भी हो सकती है परन्तु पूर्णतया ज्ञान की प्राप्ति तथा राग-द्वेष की निवृत्ति मुनि अवस्था में ही होती है । इसलिये प्रात्म-हित का साक्षात् साधन मुनिधर्म ही है । यह मुनि धर्म बारह भावनाओं के चितवन करने से ही प्रगट होता है। प्रध्यात्म राग : कविवर अध्यात्म शास्त्रों के कोरे पंरित ही न थे किन्तु उन्होंने उन मध्यात्म शास्त्रों के अध्ययन-मनन एवं चिसन से जो कुछ भी ज्ञान प्राप्त किया था, वे उसे दढ श्रद्धा में परिणत करने के साथ-साथ प्रांशिक रूप से अपने जीवन में तद्नुकूल वर्तन करने का भी प्रयत्न करते थे। उनका जीवन अध्यात्म रस से सिंचित था तथापि ये इष्ट यस्तु का बियोग होने पर भी कायरों की भांति दुःखी नहीं होते थे, किन्तु वस्तु स्थिति का बराबर चितन करते हुए कमजोरी से जो कुछ भी पोड़े से समय के लिये दुस मपवा कष्ट का अनुभव होता था वे उसे अपनी कमजोरी समझते थे और उसे दूर करने के लिये वस्तु स्वरूप का चिंतन कर उससे मुक्त होने का प्रयत्न करते थे। इन्हीं सब विचारों से उनकी गुणशता और बिवेक का परिचय मिलता है। वेधात्म ध्यान में इतने तल्लीन हो जाते थे कि उन्हें बाहर की क्रियानों का कुछ भी पता नहीं चलता था । किसी की निंदा और प्रशंसा में वे कभी भाग नहीं लेते थे । यदि देवयोग से ऐसा अवसर प्रा भी जाता तो बुद्धि पूर्वक उसमें प्रवृत्त नहीं होते थे पौर न अपनी शान्ति भंग करने का कोई उपक्रम ही करते थे । वे कर्मोदय १. मुनि सकल तो बस भागी, भव भोगन से वैरागी। वैराग्य उपावन माई, रिले अनुप्रेक्षा भाई॥ हौलत रामः अहवाला, पांचवों ढाल, पा. १ पृष्ठ सस्या ३७, सरल जैन प्रत्य भंडार, जबलपुर। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व जन्म क्रियाओं द्वारा होने वाले इष्ट-अनिष्ट पदार्थों के वियोग : संयोग को कर्मोदय का विपाक समझते थे । उसमें प्रपनी कर्तृत्व बुद्धि और अहं क्रिया रूप मिथ्या वासना को किसी प्रकार का कोई स्थान नहीं देते थे । इसी कारण वे व्यर्थ की प्रशान्ति से बच जाते थे। साथ ही प्रतत्व-परिणति और मोह ममता से अपने को बचाये रखने में सदा सावधान रहते थे—कभी असावधान अथवा प्रमादी नहीं होते थे। वे स्वयं सोचते और विचारथे वे कि हे प्रात्मन् ! जब तेरी अन्तष्टि जागृत हो जायगी उस समय काललब्धि, सत्संग, निर्विकल्पता और गुरु उपदेश सभी सुलभ हो जायेंगे । विषय-कषायों की ललक मुरझा जायगी, वह फिर तुझे अपनी प्रोर भाकृष्ट करने में समर्थन हो सकेगी, मन की गति स्थिर हो जाने से परिणामों की स्थिरता हो जायगी । फिर विवेक रूपी अग्नि प्रज्वलित होगी और उसमें विभाव-भाव रूप ईधन नष्ट हो जायगा । तेरे मन्तघट में विवेक जागृत होते ही मन पर परणति में रागी नहीं होगा और तू सब तरह से समर्थ होकर अनुभव रूपी रंग में रंग जायगा । तभी सू स्वानुभव रूप प्रात्म-रस का अनुभव करने लगेगा जो सहज, स्वाभाविक सार पदार्थ है। 'जिनेन्द्र भक्ति कवि का जीवन जहाँ मध्यात्म शास्त्रों के अध्ययन में प्रवृत्त होता था, वहां यह भक्ति रस रूप बारगंगा की निष्काम बिमस धारा के प्रवाह में डुबकियां गाता रहता था । वे जिनेन्द्र भगवान के गुणों का चिन्तन एवं भक्ति करते हुए इतने तन्मय अथवा प्रात्म-विभोर हो जाते थे कि उन्हें उस समय बाहर की प्रवृत्ति का कुछ भी ध्यान नहीं रहता था- भक्ति-रस के अपूर्व उदक में वे अपना सब कुछ भूल जाते थे- भगवद भवित करते हुए उनकी कोई भी भावना उसके द्वारा धनादि की प्राप्ति अथवा ऐहिक भोगोपभोगों की पूर्ति रूप मनोकामना को पूर्ण करने की नहीं होती थी, इसी से उनकी भक्ति निष्काम कही जाती थी। कवि की भक्ति का एक मात्र लक्ष्य सांसारिक विकल्पों को मिटाने और आत्मगुणों की प्रान्ति का था । उनकी यह दृढ़ श्रद्धा थी कि उस वीतरागी जिनेन्द्र की दिव्य मूर्ति का दर्शन करने से जन्म-जन्मान्तरों के अशुभ कर्मों का ऋण शीघ्र चुक जाता है वह विनष्ट हो जाता है और पित्त परम प्रानन्द से परिपूर्ण हो जाता है। यद्यपि जिनेन्द्र का गुणानुवाद अत्यन्त गंभीर है, यह बचनों से नहीं कहा जा सकता और जिसके सुनने अवधारणा करने अथवा श्रद्धा करने से यह जीवात्मा कर्मों के फन्द से छूट जाता है। वे स्वयं कहते हैं-हे प्रभो ! मैंने प्राज तक भारकी पहिचान नहीं की, यत्र तत्र भटकता रहा न जाने कौन कौन से रागी-वैषी देवों की उपासना करता रहा । यही कारण है कि भ्रमवश प्रात्मा के लिये अहितकारी पदार्थों को अपना हितकारी मानता रहा । मिथ्या मान्यता के कारण मैंने जो कर्मोपार्जन किये, उन्होंने मेरे संपूर्ण ज्ञान-धन को लूट लिया । शान-धन के सुट जाने से अपने कर्तव्य को भूलकर सन्मार्ग से भ्रष्ट हो अनेक प्रकार की खोटी गतियों में भटकता रहा । हे प्रभो ! आज की घड़ी धन्य है, प्राज का दिवस धन्य है, मौर माज मेरा Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- काशी विश्रा ६ε यह मानव जीवन भी धन्य हो गया । प्राज मेरे सौभाग्य का उदय हुआ है, जो मैंने आपके दर्शन प्राप्त किये। प्रापको विकार वर्जित नासाग्र दृष्टि, प्रष्ट प्राति हार्य, नग्न मुद्रा, अनंतगुण युक्त आपकी छवि को निरखकर श्राज मेरा जन्म-जन्मांतर से लगा मिथ्यात्वभाव या अज्ञान भाव नष्ट हो गया । श्राज मेरे श्रात्म स्वरूप की पहिचान कराने वाला सम्यकत्व रूपी सूर्य का उदय हुआ है। हे प्रभो ! आपके शुभ दर्शन प्राप्त कर मुझे अपार हर्ष हो रहा । ऐसा हषं हो रहा है, जैसा किसी रंक को मरिण भादि रत्नों के प्राप्त होने पर होता है । हे प्रभो ! मैं हाथ जोड़कर प्रापके पवित्र चरणों में नत मस्तक होता हू । हे प्रभो ! आपके शुभ दर्शन कर मुझे किसी भी सांसारिक पदार्थ की प्रभिलाषा नहीं है । में श्रापकी भक्ति के प्रताप से न स्वर्ग चाहता हूं, न राजा बनना चाहता हू और न कुटुम्बियों का साथ चाहता हूँ । केवल एक ही प्रार्थना है कि मुझे जन्म-जन्मान्तर में भापकी पुनीत भक्ति प्राप्त होती रहे । कवि के निम्न पद इसी भावना के द्योतक हैं : सरस्वती (जिनवाणी) की स्तुति जिनेन्द्रभक्ति के समान ही कवि द्वारा की गई है। जिनवाणी के प्रति कवि की आस्था प्रद्वितीय है । वे लिखते हैं- जिनेन्द्र के मुख रूपी कुड से वाणी रूपी गंगा निकलती है, उसने संसार के विषम संताप एवं १. प्रभु पतित पावन में अपावन, चरण ग्रामो शरण जी । यो विरह आप निहार स्वामी, मेटि जामन मरण जी ।। तुम ना पिछान्यो अन्य मान्यो देव विविध प्रकार जी । या बुद्धि सेतो मिज न जान्यो, भ्रम गिन्यो हितकार जी || भव- विकट वन में कर्म बेरी, ज्ञानधन मेरो हरयो । सभ इष्ट मूल्यो भ्रष्ट होय, अनिष्ठ गति बरतो फिर्यो । घन घड़ी यो बम-दिवस यो हो धन जमन मेरो भो । भय भाग्य मेरो उदय भयो, वरश प्रभुजी को ललि लयो || छवि वीतरागो भगन मुद्रा, वृष्टि नाशः पे धरे । वसु प्रातिहा अनंत गुरण युत कोटि रवि छवि को हरे ॥ मिट गयो तिमिर मिध्याहन मेरो उवय रवि मातम भयो । मी जर हरष ऐसो भयो, मन रंक वितामरिंग लयी ॥ मैं हाथ जोड़ मनाऊ मस्तक, वीनऊ तुम चरण ओ । सर्वोत्कृष्ट त्रिलोक पति जिन सुनहु तारण तरण जी || या नहीं सुरवास पुनि नरराज परिजन साथ जी। ग्रुप यावहू तुम भक्ति भव-भव दीजिये शिव नाथ जी ॥ कवि दुषजनः देवदर्शन स्तुति, ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि, पु० ५३४-३५ भारतीय ज्ञानपीठ काशी प्रकाशन | Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व भ्रम को दूर कर दिया है। जो प्राणी जिनेन्द्र के वचन रूप जहाज में बैठ जाता है। वह भव समुद्र से तिर जाता है। इसके सिवाय संसार समुद्र से पार होने का मन्य कोई इलाज नहीं है । जिनवाणी के प्रति कवि के प्रन्तःकरण में कैसी टूट श्रद्धा है— अनन्य मावना है, यह देखते ही बनता । यह रचना कवि की कवित्व शक्ति की परिचायक है । कवि ने सरस्वती माता को अष्टद्रव्य से पूजा की है। वे लिखते हैं- हे माता ! मैं जो श्रापके पुनीत चरणों में जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप धूप और फल रूप प्रष्ट विष सामग्री चढ़ता हूँ वह तो आलंबन मात्र है, वस्तुतः मैं तो अपने भावों की शुद्धि चाहता हूँ और वही मेरा लक्ष्य है। वे भागे कहते हैं- मैं अनादि काल से संसार में भ्रमरण कर रहा हूं। मिथ्याबुद्धि के कारण में आज तक श्रात्म-ज्ञान से सर्वथा परिचित रहा । मैं विषय कषाय रूप श्रम- कूप डूबा रहा । श्राज मैं भाग्यशाली हूं, जो मैंने आपका शरण प्राप्त किया । धाप जिनेन्द्रदेव के मुख से प्रगट हुई हो, अनेकान्त स्वरूप हो । मुनिजन प्रापकी सदैव सेवा करते हैं । भाप भ्रमरूप विष को दूर करने के लिये अमृत तुल्य हो । संसार के विषम-संताप को दूर करने के लिये गंगा की धारा के समान हो । है माता ! आप दया की कंद हो, परोपकार करने में सदा तत्पर हो । आप चार अनुयोग रूप चार वेदों में विभक्त हो 12 प्रथमानुयोग रूप प्रथम वेद द्वारा प्राणी पुण्य-पाप के फल का विचार करते हैं । करणानुयोग रूप द्वितीय वेद के द्वारा प्राणी तीनों लोकों की रचना का ज्ञान करते हैं | चरणानुयोग रूप तृतीय- वेद के द्वारा मुनि और श्रावक के आचरण की प्रेरणा प्राप्त करते हैं और द्रभ्यानुयोग रूप चतुर्थं वेद के द्वारा प्राणी जीवादि षट् द्रव्यों के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करते हैं । इस प्रकार चार वेद रूप चारों अनुयोगों का संक्षेप में वर्णन करते हुए कचि ने अंतिम पद्य में अपनी लघुता प्रकट करते हुए अपने नाम का भी उल्लेख किया है । वे लिखते हैं -: १. हे जिनवाणी । श्राप श्ररयन्त उदार हो, गुण रूप जल की धारा श्राप में श्री जिन बेन जहाज, गहते ही भवि तरि गये । या बिन नाहि इलाज, जनम जलधि के तिरम को || बुधजमः सरस्वती पूजा, शास्त्र-भंडार वि० अंन मंदिर पाटोदी, जयपुर हस्तलिखित प्रति 1 २. तुम दयाव उपगार वारि, जन-जन कहते हो वेद चार जम: सरस्वती पूजा, शास्त्र भंडार वि० जैन मंदिर पाटोदी, जयपुर हस्तलिखित प्रति । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाक पक्षीय विश्लेषण १०१ 1 प्रभावित होती है । आपके गुणों का कोई पार नहीं पा सकता । मैं केवल प्रपने मुख से आपका गुणानुवाद गाता हुम्रा आपके चरणों में मस्तक झुकाकर प्रार्थना करता हूँ कि श्राप मेरे (बुधजन के ) संपूर्ण दोषों को दूर करें 11 इसके अतिरिक्त पूर्ववर्ती प्राचार्यों एवं कवियों की भांति मुषजन ने भी बारह भावनाओं का सुन्दर वर्णन किया है । बारह भावनाओं के वर्णन की जैन साहित्य में एक लम्बी परंपरा प्राप्त होती है। प्रस्तुत प्रकरण में बारह भावनाओं के रचयिता आचार्यों एवं कवियों के नाम मात्र दे रहा हूँ । उन विद्वानों ने विभिन्न शताब्दियों में विभिन्न भाषाओं में इस प्रकार को सरल रचनाएं की है : सर्वप्रथम जंनाचार्य कुंदकुद ने प्राकृत भाषा में 'बारस प्रणुवेक्खा' नाम से रचना की थी उनके पश्चात् स्वामी कार्तिकेय, जल्हासिंह रइलू, मट्टारक सकल कौति, पं. योगदेव, भट्टारक गुणचन्द्र दीपचन्व शाह, बुषजन, मंगत राय, पं० लक्ष्मीचन्द, पं० ब्रह्म साधारण भूधरदास, जगसी, हेमराज, जयचन्द, दीपचन्द, दौलतराम, मैया भगबतीदास, शिवलाल, गिरधर शर्मा, ब० चुन्नीलाल देसाई, युगलजी कोटा, नथमल बिलाला क्षु० मनोहर बरप ने नसुखदास, डॉ० ज्योतिप्रसाद बारेलाल आदि ने बारह भावनाएं लिखीं 1 . कविवर बुधजन ने 12 भावनाओं में सांसारिक जीवन की प्रसारता को सरसता के साथ कहा है। इस संसार में राजा और रंक सबको मरना है। मरने से उन्हें कोई रोक नहीं सकता। लोक में जन्म, जरा और मरण से प्राक्रान्त जीव की शरण स्थिति का विचार करना अशरण भावना है। संसार के स्वरूप और उसके दुःखों का विचार करना संसार अनुप्रेक्षा है । म्रात्मा प्रकेला जन्मता है और अकेला मरता है तथा अकेला ही अपने कर्मफल का अनुभव करता है । कोई किसी के सुखदुःख में साझी नहीं हो सकता । इस प्रकार चिंतन करना एकत्व भावना है। जीव का शरीर आदि से प्रथक् चितन करना अन्यत्व भावना है। शरीर की अपरिहार्य शुचिता का विचार करते हुए उससे विरक्त होना अशुचि भावना है। कर्मों के श्राश्रव की प्रक्रिया का चिंतन करता और उसे श्रनन्त संसार बंध का कारण समझना आश्रव भावना है । संघर के स्वरूप का चिंतन करना संवर अनुप्रेक्षा है। कर्म की निर्जरा श्रौर उसके कारणों के सम्बन्ध में विचार करना निर्जरा भावना है। लोक के स्वभाव और आकार आदि का चिंतन करना लोक भावना है। सम्यक् दर्शन, १. तुम परम उबारा हो गुन धारा, पाराबारा पारकरो । सुखतें गुनगाऊ, सोस नमाऊ, 'बुधजन' के सब दोष हरो ।। कवि बुधजनः सरस्वती पूजा, शास्त्र भंडार दि० जैन मंदिर, पाटोदी, लिखित प्रति जयपुर, हस्त Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व सम्यम्मान और सम्यक् चारित्र रूप बोधि की दुर्लभता का विचार करना बोधि दुर्लभ भावना है। धर्म के स्वरूप का विचार कर पात्मा को धर्ममय बनाने का विचार करना धर्म भावना है। कविवर बुधजन का कहना है कि इन बारह भावनाओं का चितवन करने से भावों में वैराग्य की जागति होती है । इस विश्व के गवं देह के वास्तविक स्वरूप का विचार करत-करते भात्मा विषय-भोगों से विरक्त हो, विलक्षण प्रकाश युक्त दिव्यजीवन की ओर झुकता है । जन कवि मंगतराय कितने उद्बोधक शब्दों में मानव भाकृति धारी इस लोक और उसके द्रव्यों का विचार करता हुना प्रात्मोन्मुख होने की प्रेरणा करता है। प्रत्येक संसारी जीव अपने-अपने भावों के अनसार किस प्रकार और कौन-कौन से कर्मों का बंध करता है । बुधजन कवि के अनुसार उक्त सारणी में दृष्टव्य है । गुरणस्थान अपेक्षा प्रकृतियों के बंध १. मिथ्यात्व तीर्थकर, प्राहारफ शरीर, प्राहारक अंगोपांग का बंध छूट जाता है। १२०-६-११७ २.सासादन मिथ्यात्व, हुंडक संस्थान, नपुसक बैद, नरकगति नरकगत्यानुपूर्व, नरफायु, अर्सप्राप्तामृपारिका-संहनन, एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, स्थावर, आताप, सूक्ष्म, अपर्याप्त साधारण का बंध सुट जाता है। ११७-१६-१०१ ३. मित्र अनंतानुबंधी जन्म २५ प्रकृतियां और मनुष्यायु देवायु का बंघ नहीं होता है। १.१-२७-७४ ४. भविरत सम्यग्दृष्टि तीर्थंकर, मनुष्यायु, देवायु का बंध होता ७३-३-७७ ५. देश विरति अप्रत्याख्यान-४, मनुष्यगति, मनुष्य गत्यानुपूर्वी मनुष्यायु, देवायु, औदारिक १. जैन ० राजकुमार : मध्यात्मपावली, पृ० ५५, भा. शामपीठ प्रकाशन १९६४ २. लोक अलोक भाकाश माहि थिर, निराधार बाना । पुरुष रूप करकटी भये, षट् द्रष्यनिसों मानो ।। बंग कवि मंगतराय : बारह भावना (लोक भाषमर), निनवाणी संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ काशी प्रकाशन । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव पक्षीय विश्लेषण १०३ ७७-१०-६७ ६७-४-६३ ६. प्रमत्त ७, अप्रमत्त ६३-६२-५६ ५६-१-५८ ८. अपूर्वकरण ६. अनिवृत्तिकरण शरीर मंगोपांग बनवृषभनारायसंहनन का बंध घट जाता है। प्रत्याख्यान-४ का बंप छुट जाता है। अस्थिर, प्रशभ, मसातावंदनीय, अयशकीर्ति प्ररति, शोक प्रादि ६ का बंष छूट जाता है। प्राहारक शरीर, माहारक अंगोपांग का बंन्ध होता है । देवायु का बंध खट आता है। निद्रा, प्रचला, तीर्थकर, निर्माण, प्रशस्त विहामोगति, ५ इन्द्रिय, तेजसशरीर, कामांसशस, आहारक था और अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियक शरीर और अंगोपांग, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, देवायु स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, प्रगुरुलघु, उपघात, परवात, उच्छास, श्रस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, हास्य, प्रादेय, रति, जुगुप्सा भयं । संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ, पुरुष वेद ये पांच प्रकृतियां छूट जाती हैं । ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ४, मत राय ५, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र का बंध छुट जाता है। उपरोक्त अनुसार एक ही प्रकृति का बंध होता है। सातावेदनीय का बन्ध उपचार से होता ५८-३६-२८ १०. सूक्ष्मसापराय २२-५-१७ ११. उपशान्तमोह १७-१६-१ १२. क्षीणमोह १३. संयोगकेश्वली १४. अयोगकेवली एक भी प्रकृति का बंध नहीं होता है निर्वाण का किनारा है।। १. बुधजन: सत्यार्पयोष, पृष्ठ १६१-१७७, पद संख्या ६६-११५, प्रकाशक कन्हैयालाल गंगवाल, लश्कर । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व 'कविवर बधजन के औषधिविज्ञान से सम्बन्धित उदाहरण (१) अधिक खाने से बीमारी होती है । अधिक बोलने से मान घट जाता है। अधिक सोने से घन का विनाश हो जाता है । अतः किसी भी बात को अति नहीं करना चाहिये ।। (२) वस्त्र, जूते, गाय का दूध, दवाई, बीज और भोजन इनसे जितना लाम मिलता है, उतना लाभ अवश्य लेना चाहिये जिससे कि कष्टों का निवारण हो । (३) उलटी मा के करने से कफ का नाश होता है । मालिश करने से वायु विकार मिटता है । स्नान करने से पित शमन होता है और लंघन करने से बुखार का नाश होता है ।। (v) कोढ़ी व्यक्ति को मांस, ज्वर के रोगी को घृत, शूल के रोगी को दो दालों वाला अन्न, नेत्र के रोगों की मथुन संवन नहीं करना चाहिये । अतीसार के रोगी को नया अन्न नहीं खाना चाहिये । (५) अपध्य-सेवन से, स्वाद का ध्यान रखने से, रोग दूर नहीं हो सकता अत: यदि रोग दूर करना हो तो कुटकी का चिरायता (कड़वीदवा) पीने योग्य है और रूखा भोजन (सुपान्य) करना योग्य है । (६) भूख से कम खाना प्रमुस तुल्य होता है और खूब प्रधाकर खा लेना विष के समान है । ऊनोदर भोजन शरीर को पुष्ट करता है और बल बढ़ाता سم प्रतिखाने में रोग है, अति बोले ज्या मान । प्रतिसोयें धनहानि है, प्रति मतिकरो सुजान ।।१२६।।। २. पट पनही बहस्वीर गो, भोषषि बीज प्रहार । ज्यों लाभ स्यों लीजिये, कीजे तुख परिहार ॥२३॥ वमन करते कफ मिटै, मरदम मेटें बास । स्नान किये ते पित्त मिटे, संधन तेंडर जात ॥२७॥ ४. कोढ़ मांस घृत अरवि, सूल द्विदल यो टार । गरोगी मैथुन तो, नवौ धाम प्रतिसार ॥२७॥ ५. स्वाद लख रोग न मिट, कीये कुपथ अकाज । सातै कुटंकी पीजिये, खां लूशा नाज ॥३२॥ कषि बुधजन सप्तसई, पड संख्या १२६,२६८,२७७,२७८ । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव पक्षीय विश्लेषण है परन्तु अधिक खाने से रोगों की वृद्धि होती है। (७) भूख की दवा भोजन और ठंड की दवा वस्त्र है । (८) स्वाना, पीना, सोना, लघुशंका, दीर्घशंका ये प्रसाध्य रोग हैं।" (६) जीम की लोलुपता वश अनेकों व्यक्तियों का बिगाड़ होता है। प्रतः जीम की लोलुपता त्यागने पर ही सुख होता है । मछली, कबूतर, मगर, बन्दर थे जिव्हा के लोलुपी है अतः उन्हें हर कोई पकड़ लेता है । इनके प्राण संकटापन्न रहते हैं।' (१०) सत्य कहने से दोष मिट जाते हैं, परन्तु अन्यथा (असस्य) कहने से दोष नहीं मिटते । अपने रोग की यथावत् जानकारी देने वाले व्यक्ति की ही योग्य चिकित्सा सम्भव है । (११) यदि किसी अनुचित कार्य को रोकने में हमारा वश नहीं चलसा हो तो उसका समर्थन न करते हुए प्रबोल रहना ही ठीक है, क्योंकि बोलने से उपद्रव बढ़ता है, जैसे तूफानी समुद्र में हवा लगने से उपद्रव और बढ़ता है। बीच-बीच में लोक प्रचलित एवं रचनानों में समागत लोकोक्तियों का यथास्थान प्रयोग किया गया है। इनसे विषय की स्पष्टता के साथ-साथ शैली में भी गतिशीलता पाई है । कुछ इस प्रकार है : १. अमत ऊगोवर असन, विषसम खान प्रधाम । रहै पुग्ट तम बस करें, यात रोग बढ़ाय ॥३२४॥ २. भूख रोग मेटन प्रसन, वसन हरनकों सीत ।।३२५॥ ३. खाना पीमा सोवनी, कुनि लघु वीरघ व्याषि ॥३७६।। रावरंक के एकसी, ऐसी क्रिया प्रसाधि ॥ ४. मे बिगरेते स्वावतें, सज स्वाद सुख होय । मोम परेवा मकर हरि, परिलेत हर कोय ॥३२२।। ५. सांच कहे सूषन मिट, नासर दोष न जाय । ज्यों की स्यों रोगी कहै, ताको वन उपाय ।।३३२।। ६. अनुचित हो है बसिधिना, सामै रहो प्रबोल । मोले ज्यों वारिलगि, सायर जठं कलोल ॥४१३॥ सुधजन सतसई, पद्य संख्या ३२४,३२५,३७३,३२२, तथा ४१३ बुधजन, सतसई, पथ सख्या ११,१४,१५,३७,५४,६४,१२२,१२३,८४,११४,११५ तथा १६५। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व (१) पीजै तुषा समान। (२) हरषत है मनमोर। (३) रतन चितामणिपायके गहै कांच को हाथ । (४) तारो गरि हाथ । (५) जैसा बनि निरखतिसा सीसामें दरसाय: 1 १६) महाराज की शेव तजि से कौन कंगाल' । (७) अमृती पास विचारिक छतीदंत छिटकाय' । () सरघा सं संसय सब जाय । (E! सीख दई सरधै नहीं, कर रन दिन सौर। (१०) पूत नहीं वह भूत है, महापापफल थोर ।। (११) कर्म किंगाःहिगा है। (१२) अवसरत बोलो इसो ज्यों आटे में नौना । (१३) मालनिढाके टोकरा, छूटे लखिके छल । (१४) अधिक सरलता सुखद नहि, देखो विपिन निहार । सीधे बिरवा काटि गये, वाके खड़े हजार ।। जैन शास्त्रों का एक वर्गीकरण चार अनुपयोगों के रूप में भी कवि द्वारा किया गया है :(१) प्रथमानुयोग (२) करणानुयोग (३) चरणानुयोग (४) द्रव्यानुयोग अनुयोगों की कथन-शैली प्रादि का सामान्य वर्णन तो पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों में मिलता है पर वह अति संक्षेप में है। कविबर बुधजन ने चारों अनुयोगों का सुन्दर एवं सूक्ष्म विश्लेषण किया है । __अब हम प्रत्येक अनुयोग के सम्बन्ध में संक्षिप्त रूप में अनुशीलन प्रस्तुत करेंगे। प्रथमानयोग जिन ग्रन्थों में चारों पुरुषार्थों, किसी एक महापुरुष के चरित्र और असल शलाका पुरुषार्थों के चरित्र का वर्णन होता है उन कथा, चरित्र, और पुराण कहे जाने वाले ग्रंथों को प्रयमानुयोग कहते हैं। प्रथमानुयोग के अध्ययन से श्रद्धा की वृद्धि होती है। प्रथमानुयोग के १. प्राचार्य समन्तभद्रः रलकरम्हश्रावकाचार, अध्याय-२, श्लोक ४२-४६ सरम जम अन्य भंडार, जबलपुर । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव पक्षीय विश्लेषण १०७ प्रध्ययन से पुण्यमय परिणाम होते हैं। प्रथमानुरोग के अध्ययन से एना गरीब ब्राह्मण को नैराग्य हो गया। प्रथमानुयोग के अध्ययन के पश्चात् अन्य अनुयोगों के प्रध्ययन से आत्मा का कल्याण हो जाता है । प्रथमानुयोग के अध्ययन से महापुरुषों के जीवन में से उत्थान पतन होता है। संसार की दशा क्या है इस बात को स्पष्ट करते हुए बुक या ई-सा रब नाते कच्चे धागे के समान हैं । सच्चा साथी एक मात्र धर्माचरण ही है 11 सामान्य श्रेणी में अच्युत्पन्न व्यक्ति अथवा मिथ्यावृष्टि के लिये प्रथमानुयोग का अभ्यास प्रारम्भ से अवश्यक है । प्रथमानुयोग की शब्दशः ब्युत्पत्ति गोम्मटसार जीवकांड में इस प्रकार प्राप्त होती है : प्रथम अर्थात् मिध्यादृष्टि, अवती अथवा अञ्युत्पन्न विशेष ज्ञान रहित व्यक्ति . का प्राश्नय लेकर प्रवृत्त हुअा जो अनुयोग अर्थात् अधिकार है वह प्रथमानुयोग है। उसके अभ्यास से दुर्बल अन्त:करण को अपार बल एवं प्रेरणा प्राप्त होती है। राष्ट्र के जीवन-निर्माण में उसके सत्पुरुषों का इतिहास जिस प्रकार उत्साह को जगाता हुना नव चेतना प्रदान करता है, उसी प्रकार तीर्थकर, चक्रवर्ती, कामदेव, कादि महापुरुषों की जीवन गाथा में प्रभ्यास से शोध ही मन की मलिनता दूर होती है । हृदय का संताप दूर होता है । भावों में संक्लेष वृत्ति के स्थान में विशुद्ध परिपति का प्राविर्भाव होता है । उससे यह तत्व प्रकाश में आता है कि महान् पतित परिणाम तथा अवस्या बाला जीव किस प्रकार धर्म की मारण ग्रहण कर क्रमशः उन्नति करता हुआ Jष्ठ अवस्था को प्राप्त करता है। प्रथमानुयोग में प्राप्त एक दृष्टान्त इस प्रकार है : सुभग नाम के ग्वाले ने भयंकर शीतऋतु में देखा कि एक मुनि रात्रि भर अंगल में ध्यान करते रहे । उनको यह तपस्या देखकर उसका मन कारंबार उनका स्मरण करता रहा । प्रातःकाल मूर्योदय के होने पर णमो अरहताणम्' सबन का उच्चारण कर वे मुनिराज चारण ऋद्धि के प्रताप से आकाश में गमन करते हुए अन्यत्र चले गये। उन मुनिराज के जीवन से गोपालक को बड़ी प्रेरणा मिली । उसने सदा 'गमो नरहंताणम्' शब्द का उच्चारण करना-मरण करना अपना कर्तव्य बना लिया । मृत्यु के पश्चात् बद्द सुदर्शन सेठ हुमा और रत्नत्रय की प्राराधना क फलस्वरूप वह मोक्ष पदवी का स्वामी बन गया । प्रश्रमानुयोग में भगवान महावीर के पूर्व भवों का वर्णन अत्यन्त रोचक ढंग से कथा के रूप में वरिणत है जो प्राणी मात्र को प्रेरणादायक है। १. बुधनमः बुधजन विलास, पक्ष संख्या ४४, पृष्ठ संख्या २३, प्रका० जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, १६१।१ हरीसन रोड़, कलकत्ता । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ___ जनसाधारण की हितकारी सामग्री प्रथमानुयोग में प्राप्त होती है । इसमें जीवन को प्रदान माने गाली निता सापणी प्रान मोली है। इससे बालक, स्त्री, ग्रामीण, जन साधारण का अकथनीय कल्याण होता है। संकट के समय धैर्य धारण, वमं पालन में तत्पर प्रात्मानों का वर्णन पढ़कर दुःखी हृदय को सास्वना प्राप्त होती है । उस विपत्ति की दिशा में सत्पुरुषों की जीवनवार्ता चन्द्रिका के समान प्रकाश तथा शान्ति प्रदान करती है। महापराण में लिखा है कि नरकामु का बंध होने पर व्यथित मन वाले श्रेणिक महाराज ने गौतम स्वामी से पुण्य कथा निरूपणार्य प्रार्थना की थी उसने वाहा था 'भगवान ! कृपा कर प्रारम्भ से शलाका पुरुषों की जीवन कथा कहिये । मेरे दुष्ट कार्यों का निवारण पुण्यकथा-श्रवण द्वारा सम्पन्न होगा। विपत्ति की बेला में तत्वज्ञान का शुष्क उपदेश मन पर उतना असर नहीं करता है जितना उन महापुरुषों का पाख्यान, जिनने हंसते-हंसते विपत्ति के सागर को तिरा है । तत्वज्ञानी उपदेश देता है कि शरीर और प्रात्मा पृथक-पृथक हैं परन्तु उसका कथन शीघ्र समझ में नहीं प्राता । परन्तु जब हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि मात्म ध्यान में निमग्न साधुराज सुकुमाल स्वामी के शरीर का भक्षण स्यालिनी ने किया परन्तु साधुराज' सुकुमाल ध्यानस्थ रहे उनके इस चरित्र द्वारा उपरोक्त कथन कितना स्पष्ट होता है । इसीलिये स्वामी समन्तभद्र ने प्रथमानुयोग को बोधि अर्थात रत्नत्रय की प्राप्ति का कारण कहा है तथा उसे समाधि का भंडार बताया है । अपने पुर्ववर्ती प्राचार्यों की परम्परा के अनुसार कविवर बुधजन ने भी चारों अनुयोगों को पागम कहा है और प्रागम प्रमाण माना है। प्रथमानुयोग का ज्ञान भी सम्यग्ज्ञान है क्योंकि वह प्रागम है । इन पुराणों (प्रथमानुपोग के ग्रन्थों) के पढ़ने से तत्काल महान पुण्य का संचय होता है और अशुभ कर्मो की मिर्जरा हो जाती है। चूकि ये भी जिनबचन तत्प्रसीव विभो वक्तुमामूलात्पावनां कथाम् । निस्क्रियो दुष्कृतस्यास्तु ममपुण्य कथा श्रुतिः ।। प्राचार्य जिनसेम: महापुराण, पर्व-२, श्लोक-२५, प्रथम भाग, १९४४, प्रथम संस्करण, भारतीय ज्ञानपीठ, फाशी ।। २. प्रथमानुयोगमधास्थानं चरितं पुराणमति पुण्यम् । बोधि समाधि निधानं बोधति बोधः समीचीनः ।। प्राचार्य समन्तभद्रः रत्नकरण्ड श्रावकाचार, द्वितीय परिच्छेद, श्लोक संख्या ४३ सरल जैन ग्रन्थ भंडार, जबलपुर। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव पक्षीय विश्लेषण है, बारहवें अंग के पांच भेदों (परिक्रम, सूत्रों, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका) में से यह प्रथमानुयोग तृतीय भेद रूप है, इसलिये द्वादशांग के अन्तर्गत ही है ।। करणानुयोग जो थ तज्ञान लोक-प्रलोक के विभाग को, युग के परिवर्तन को और चारों गतियों के परिवर्तन को दर्पण के समान जानता है उसे करणानुयोग कहते हैं । पं. टोडरमल लिखते हैं:-जिसमें गुणस्थान मार्गणास्थान आदि रूप जीव का तथा कमों का पोर तीन लोक सम्बन्धी मगोल का वर्णन होता है उसे करणानुप्रोग कहते हैं ! करण शब्द के दो अर्थ हैं परिणाम और गणित के सूत्र प्रत: खगोल और भूगोल का वर्णन करने वाला तथा जीव मौर कर्म के सम्बन्ध प्रादि के निरूपक कर्म सिद्धान्त विषयक ग्रंथ करणानुयोग में लिये जाते हैं। इसके अन्तर्गत द्वीप, समुद्र, पर्वत, नदियां, क्षेत्र एवं नगरादि के साथ सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारा आदि का भी वर्णन पाता है । यह ऐसा नो साहिता है. जिसमें आधुनिक ज्योतिष, निमित्त, ग्रह-गणित और भूगोल का समावेश हो जाता है । इसमें अधोलोक, मध्यलोक, उर्च लोक इन तीन लोकों का वर्णन रहता है । अधोलोक में ७ नरकों तथा उनके ४९ पटलों का वर्णन रहता है । मध्यलोक में जंबदीप तथा लवण-समुद्र प्रादि असंख्यात द्वीप समुद्रों का वर्णन रहता है। कचलोक में कल्प और कल्पातीत विमानों को बतलाकर सोलह स्वर्गों में विमानों की संख्याः इन्द्रक विमानों का प्रमाणादि, श्रेरिणजस विमानों का प्रवस्थान, दक्षिणेन्द्रों और उत्तरेन्द्रों का निवास, सामानिक आदि देवों की संख्या कल्पों में स्त्रियों के उत्पत्ति स्थान, प्रवीवार, विक्रिया अवधिज्ञान का विषय, जन्म मरण का अन्तरकाल, इन्द्रादिका उत्कृष्ट विरहकाल, वायु, लोकान्तिक देवों का स्वरूप, देवांगनामों की प्रायु, उच्लासव आहार ग्रहण का काल, गति प्रगति आदि का कथन है। संस्थान विचय धर्मयान करणानुयोग के ग्रन्थों के अध्ययन से ही किया जाता है । कर्म प्रकृतियों के उदय मादि के समय विपाक विनय धर्मध्यान होता है अतः यह स्पष्ट है कि यह करणानुयोग सम्यकत्व व संयम का कारण है । १. लोकालोक विभवतेयुग परिवृतेश्चतुर्गतीनां । मादमिष तथा मतिरवैति करणानुयोग छ । प्राचार्य समन्तभद्र, रत्नकरंड श्रावकाचार, पथ स. ४४ पृ० स० ३३ सरल जैन ग्रन्थ भंडार जबलपुर । २. प्राधिका ज्ञानमती: प्रवचननिर्देशिका, पृ० सं० १४३-४४ प्रका०वि० मैन त्रिलोक शोष संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ) १९७७ । ३. पं. टोडरमल मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ० सं० ३६३, किशनगढ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व परगानुयोग जो सम्बरज्ञान थावक और मनगार ( मुनि ) के चारित्र की उलति वृद्धि और रक्षा का साधन है ऐसे शास्त्रों की प्राचार्य धरणानुयोग पागम कहते हैं । गृहस्थ और मुनियों के प्राचरण नियमों का वर्णन चरणानुपांग के शास्त्रों में होता है। द्वादशांग में भी प्राचारोग नामक अंग सबसे प्रथम प्रग है जिसमें मुनियों के चारित्र का सांगोपांग बर्णन है । भगवान के समवणारग में भी बारह सभामों में से भगवान के सन्मुख पहली सभा में मुनिगरा ही विराजते हैं चूकि भगवान के उपदेश को साक्षात् ग्रहण करके मोक्ष की सिद्धि करने वाले मुनि हो हैं । चारित्र सभी के द्वाग और सदा पूज्य है। अतः चरणानुयोग से पारिन का लक्षण जानकर उसे धारण करना चाहिये। द्रव्यानुयोग जो शास्त्र, जीव-अजीव तत्वों को, पुण्य-पाप को, बंध-मोक्ष को भाव चुत के अनुसार जानता है उसे द्रव्यानुयोग कहते हैं । करणानुयोग विषयक साहित्य की तरह द्रष्यानुयोग विषयक जैन साहित्य भी बहुत महत्वपूर्ण है । भगवान महावीर उबत तत्त्वों के प्रधान ज्ञाता एवं प्रवक्ता थे । द्रव्यानुयोग विषयक साहित्य का मूलश्रोत श्रस का दृष्टिबाद अंग है । भगवान महावीर के पश्चात् प्राचार्य कुन्द कुन्द नेद्रव्यानुयोग सम्बन्धी साहित्य की रचना की। द्रव्यानुयोग के विषय को स्पष्ट रूप से ममझाने के लिये सबल युक्तियों का प्रयोग प्राचार्य कुन्द कुन्द ने किया है। क्योंकि वे इस अनुयोग के विषयभूत पदार्थों का सच्चा श्रदान कराना चाहते थे। उन्होंने जीवादि छह द्रव्य क सात तत्वों की व्याख्या इतने सुन्दर ढंग से की है कि मध्यस्थ भाव धारण करने वाला व्यक्ति इसके अध्ययन से वीतरागता की प्रेरणा प्राप्त कर लेता है। बीतरागता की प्राप्ति करना ही उनका प्रयोजन या । भगवान महावीर एवं गोतम गण घर के पश्चात् कुदकुदाचार्य का स्मरण इस बात का प्रमाण है कि वे जैन सिद्धान्तों के प्रभावक प्रवक्ता एवं ज्ञासा रहे हैं । इस ध्यानुयोग विषयक साहित्य को दो भागों में विभक्त किया गया है १. गृहभेध्यनगाराणां, चारित्रोत्पत्ति परिक्षागम । चररणानुयोग समय, सम्यमान विजानाति ॥ प्राचार्य समन्तभद्रः रत्नकरड श्रावकाचार, श्लोक सं० ४५, पृ. सं. ३३ २. पं. टोडरमल : मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृ० स० ३६३, किशनगढ़ । ३. जीवाजीरसुतत्वे, पुण्यापुग्ये च मंध मोक्षी छ । घव्यानुयोग दीप: अ तबिधा लोकमातनुते ।। प्राचार्य समन्तभद्रः रस्नकरंड श्रावकाचार, श्लोक सत्या ४६, पृ० स० ३४ ४. मंगलं भगवान वीरो, मंगल गौतमो गणो । मंगलं कुन्धकुन्दायो, जैन धर्मोस्तु मगलम् ।। मंगलाचरण । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावपक्षीय विश्लेषण १११ विषयक शास्त्रों के प्रणेता एवं प्रवक्ता हैं। इनके द्वारा रचित प्रमुख ग्रन्थ हैंसमयसार, अष्टपाहुड, दश परम प्रकाश जिनमें तत्वों का निशांय fare युक्तियों व प्रबल प्रमाणों द्वारा किया जाता है, वह सत्य ज्ञान विषयक शास्त्र है। पंचास्तिकाय प्रवचनसार, नियमसार तत्वार्थ सूत्र, सर्वार्थसिद्धि तत्वार्थवार्तिक, द्रव्यसंग्रह, तत्वार्थसार, वृहद्रमसंग्रह आदि ग्रन्थ तत्वज्ञान का प्रतिपादन करते हैं अतः इन्हें तत्वज्ञान विषयक शास्त्र कहा जाता है। दोनों ही प्रकार के द्रव्यानुयोग विषयक साहित्य का मुख्य प्रयोजन स्व-पर का भेद विज्ञान कराना है । चारों ही अनुयोग वीतराग भावों की वृद्धि करने वाले हैं। छतः कोई एक अनुयोग विशेष अच्छा है ऐसा कहना ठीक नहीं। अनुयोगों का अध्ययन क्रम अनुयोगों के अध्ययन क्रम का कोई निश्चित नियम निर्धारित करना संभव नहीं, क्योंकि पाथ की योग्यता और रुचि भिन्न भिन्न प्रकार की होती है तथापि कतिपय ग्रन्थों में अनुयोगों के अध्ययन कम का वर्णन मिलता | पूजन के बाद जो शांति पाठ जैन मंदिरों में पढ़ने की परंपरा है उसमें क्रम इस प्रकार है । प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः प्रथमानुयोग करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग को नमस्कार है । संपूर्ण श्रुतज्ञान या द्वादशांग वाणी को ११ श्रंग व चौवह पूर्व में गंधा गया है । उनमें सर्वप्रथम भाषारांग का उल्लेख है क्योंकि श्राचारशास्त्र आबाल वृद्ध सभी के जीवन को सुखी बनाने वाले नियमों का निर्धारण कर वैयक्तिक और सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन को व्यवस्थित बनाता है। अशुभ परिणामों या प्रशुभ कार्यों से निवृत्त होना और शुभ परिणामों में या सत कार्यों में प्रवृत्त होना ही श्राचारशास्त्र का विधान है। प्राचारशास्त्र जीव को सचेत करता है सम्रा विषयसुखों में रत होने वाले जीव को विषय मुख से विरक्त करता है। विषय सुख को हेय बताकर उससे ग्लानि उत्पन्न कराता है। विषय सम्बन्धी मोह और तृष्णा को दूर करता है | मोह और तृष्णा के दूर होने से विषय विष के समान मालूम होने लगते हैं। सांसारिक दुखों का मूल कारण विषय वासना है। उसका परित्याग आचारांग बताता है । श्राचारांग यह भी बताता है कि हे जीव ! यदि तुझें अलौकिक आत्म-एस का पान करना है तो विषय-वासनाघों का परित्याग कर श्रात्म सुख का विकास करो और मनुष्य पर्याय को सफल करो। जो प्रानन्द ज्ञान की चर्चा में है उससे अनन्त गुणा इस चारित्र में है । तैंतीस सागर तक ज्ञान चर्चा का अनुभव करके जो श्रानन्द प्राप्त नहीं हुआ उससे अनन्तगुणा श्रानन्द मुनिपद धारण करने में हुआ । इसलिये मानव मात्र का कर्त्तव्य है कि वह अपनी अग्नि की शिखा के समान प्रज्वलित विषय-वासनाओं का त्याग करने के लिये प्रथम आचारांग का प्राश्रय ले । श्रध्यात्मविषयक और तत्वज्ञान विषयक | अभेद रत्नत्रय का जिसमें वन हो बह अध्यात्म शास्त्र है | कुदकुद, प्रमृतचन्द्रसूरि, जयसेन यादि आचार्य श्रध्यात्म Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व काव्य खंडकाव्य मुक्तक-काध्य १ वर्धमान पुराण सूचनिका गेय दोहा जखड़ी स्तुति पूजा स्फुट (फुटकर) (१) छहळाला १ सतसई बंदनाजखडी विमल जिने- सरस्वती तत्वार्थ बोध एवर स्तुति पूजा (२) पदसंग्रह नंदीश्वर (३) बुधजन विलास जयमाला बुधजन विलास के विषय बुधजन : विलास मेयपद १ विनती (२) ढाल मंगलकी ३ हाल त्रिभुवन गुरु स्वामी की ४ विमल जिनेश्वर विनती ५ भरे मूढ तू क्यों भरमाना (चिनती) ६ ऐसी है वाणी जिनवर की विनती) ७ लगन मोहिलागी देखन की (विनती) ८ थे तत्व विचारो जी (विनती) ६ तुम जगत पिछान्याजी (विनती) १० अरहंत देव की स्तुति ११ सममित भावना १२ पूजाष्टक १३ गुरु विनती १४ जिनोपकार स्मरण स्तोत्र भाषा १५ शुद्धात्म जखड़ी छन्दोबद्ध मुक्तक १ विचार पच्चीसी २ बिवुध-छसीसी ३ उपदेश छत्तीसी ४ बोधद्वादसी ५. दर्शन-पच्चीसी ६ दोष वावनी ७ वधन बत्तीसी जान पञ्चीसी वैराग्य भावना १० चौबीस ठाणा ११ इष्ट छत्तीसी १२ दोदशानुप्रेक्षा १३ श्रावकाचार बत्तीसी Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव पक्षीय विश्लेषण १६ शारदाष्टक १७ नंदीश्वर जय माला १८ जिनवाणी जब माला १६ दर्शनाष्टक कविवर बुधजन ने अपनी प्रसिद्ध रचना 'तत्वार्थ बोध' में विभिन्न विषयों पर विस्तृत प्रकाश डाला है । उन्होने चिप्स की एकाग्रता के लिये ध्यान को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। उनके द्वारा प्रतिपादित ध्यान के प्रकार निम्न चार्ट द्वारा समझे जा सकते हैं। ध्यान पातं ध्यान रौद्र ध्यान धर्म ध्यान शुक्ल ध्यान १ इष्ट वियोग १ हिसानंद १ प्राज्ञाविचय १ पृथक्त्व वितर्क २ प्रनिष्ट संयोग २ मृपानन्द २ उपायविचम २ एकत्व वितर्क ३ पीटा चिंतन ३ स्तेयानंद ३ विपाकविचय ३ सूक्ष्मक्रिया प्रति पाती ४ निदानबंध ४ परिग्रहानंद ४ संस्थानविचय ४ व्युपरत क्रिया निवर्ती ध्यान की परिभाषा कविवर बुधजन के शब्दों में :-- चित्त को एकाग्र करना प्रर्थात् प्रात्म गुणों की अोर लगाना तथा अन्य संसार सम्बन्धी संपूर्ण विकल्पों को हटाना या उनसे दूर रहना, उन्हें चित्त में न माने देना इसी फा नाम ध्यान है । वह ध्यान चार प्रकार का है। प्रात, रोद्र, धर्म और शुक्ल । इनमें से प्रथम दो प्रकार का ध्यान (मातं और रौद्र ध्यान) अशुभ ध्यान हैं। दूसरे दो ध्यान १. चित्त एकापरोकना, विकल्प मान निबार । ध्यान कहत है सासका, भेव चार परकार ॥१२॥ पारस न कुष्यान वो, अशुभ कुति वातार । धर्म शुक्ल शुभ ध्यान जो सुरशिव सुख दातार ॥१३॥ क-विषजनः तरवार्थयोष पृ० २५८ ध्यानरचना प्ररूपण, श्लो. १२-१३, पृ०स० २५८ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ( धर्म और शुक्ल ) ये शुभ ध्यान हैं। ये दोनों ध्यान स्वर्ग व मोक्ष के साधक हैं। इससे यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि प्रारंभ के श्री ध्यान नरक व तिर्यच गति के साधक है । लोक की व्यवस्था के सम्बन्ध में कवि के विचार लोक जो समस्त द्रव्यों को अपने में अवकाश देता है उसे श्राकाश द्रव्य कहते हैं । आकाश द्रव्य के दो भेद हैं । १. लोकाकाश, २. श्रलोकावण । प्राकाश द्रव्य के जितने भाग में धर्माचिक द्रव्य निवास पाते हैं उनने भाग को लोकावरण और जहां अन्य कोई द्रव्य नहीं केवल आकाश ही आकाया है, उसे अककमा कहते हैं। यह सपूर्ण लोक धनोदधि वस्तवलय घनवातवलय और तन्वातत्रलय से वैद्रित है। लनुज्ञातवलय प्रकाश के प्राश्रम है और आकाश अपने ही याश्रय है । उसको दूसरे आश्रय की श्रावश्यकता नहीं है क्योंकि प्राकाश सर्वव्यापी है। धनोदधि वातवलय का वर्ण रंग के समान, धनवातत्रलय का वर्णन गोमूत्र के समान और तनुवातवलय का व अव्यक्त है ।" इस लोक के बिलकुल बीच में एक राजू चौड़ी, एक राजू लम्बी और चौदह राजू ऊंची त्रस नाड़ी है। इसका व्यास एक राजू है। त्रस जीवों की उत्पत्ति स नाड़ी में होती है। बस नाड़ी के बाहर नहीं । यह क्षेत्र का प्रमाण स्वतः है किसी के द्वारा किया हुआ नहीं है । इस स्वतः के प्रमाण में कमी बेशी नहीं होती ।" इस लोक के तीन भाग हैं। १. अधोलोक २. मध्यलोक ३. उर्ध्वलोक । मूल से सात राजू की ऊंचाई तक अधोलोक है। सुमेरू पर्वत की ऊंचाई (एक लाख चालीस योजन) के समान मध्य लोक है और सुमेरू पर्वत के ऊपर अर्थात् एक लाख चालीस योजन कम सात राजू प्रमाण ऊर्ध्वलोक है । श्रधोलोक नीचे से लगाकर मेरू की जड़ पर्यन्त सान राजू ऊंचा अधोलोक है । जिस पृथ्वी पर अस्मदादिक निवास करते हैं उस पृथ्वी का नाम चित्रा पृथ्वी है। इसकी मोटाई एक हजार योजन है और यह पृथ्वी मध्यलोक में गिनी जाती है। सुमेरू पर्वत की जड़ एक हजार योजन चित्रा पृथ्वी के भीतर है तथा निन्यानबे हजार योजन चित्रा पृथ्वी के भीतर है तथा निन्यानवे हजार योजन चित्रा पृथ्वी के ऊपर है और चालीस योजन की चूलिका है । सब मिलाकर एक लाख चालीस योजन ऊखा मध्यलोक है । मेरू की जड़ के नीचे से प्रोलोक का प्रारंभ है। १. बुधजन : तत्वार्थ बोध, पद्य ० २५, पृ० ४३ बुधजन : तत्वार्थ बोध पद्य सं० २६-३०, १० ४४ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव पक्षीय विश्लेषण ११५. सबसे पहने मेरू पर्वत की आधारभूत रत्नप्रभा पृथ्वी है। इस पृथ्वी का पूर्व पश्चिम और उत्तर-दक्षिण दिशा में लोक के अन्त पर्यन्त विस्तार है । इस ही प्रकार शेष छह पृथ्वियों का भी पूर्व पश्चिम और उत्तर दक्षिण दिशाओं में लोक के प्रान्त पर्यन्त विस्तार है । मोटाई का प्रमाण सबका भिन्न-भिन्न है । पान के उदय से यह जीव नरक गति में उपजता है, जहां कि नाना प्रकार के भयानक तीव्र दुखों को भोगता है । पहली बार पृथ्वी तथा पांचवी के तृतीयांश नरकों में उष्णता की तीव्र वेदना है तथा नीचे के नरकों में शीत की तीव्र वेदना है । अन्य स्वकृत-परकृत नाना प्रकार के दुख हैं जिनका वर्णन प्रसंभव है । इसलिए जो महाशप इन नरकों के घोर दुःखों से भयभीत हुए हों, वे जुआ, चोरी, मद्य, मांस, वेश्या, पर स्त्री तथा शिकार यादिक महापापों को दूर ही से छोड़ देगें । मध्यलोक मध्यलोक का वर्णन कविवर बुधजन ने काफी विस्तार के साथ किया है । उन्होंने मध्यलोक पंचासिका शीर्षक द्वारा ५० पद्यों में मध्यलोक का वर्णन किया है। प्रारंभ करते हुए कवि लिखते हैं- मैं सर्वज्ञ को मस्तक झुकाकर तथा ग्राम (जिनवाणी) का सार समझकर मध्यलोक पंचासिका का वर्णन बहुत सोच विचार कर करता हूँ । भूमि में जड़ है तथा निन्यानवे हजार योजन भूमि के ऊपर ऊंचाई है और चालीस योजन की चूलिका है। यह सुमेरू पर्वत गोलाकार भूमि पर दश हजार योजन चौड़ा है तथा ऊपर एक हजार योजन चौड़ा है। सुमेरू पर्वत के चारों तरफ भूमि पर भद्र शाल वन है। वह भद्रशाल वन पूर्व और पश्चिम दिशा में बावीस २ हजार योजन और उत्तर दक्षिण दिशा में ढाई ठाई सौ योजन चौड़ा है। पृथ्वी से पांच सौ योजन ऊंचा चलकर सुमेरू के चारों तरफ द्वितीय कटनी पर पांच सौ योजन चौड़ा सोमनस वन है | सौमनस से छत्तीस हजार योजन ऊंचा चलकर सुमेरू के चारों तरफ तीसरी कटनी पर चार सौ चोरानवे योजन चौड़ा पाण्डुक वन है । मेरू की चारों विदिशाओं में चार गजदन्त पर्वत है। दक्षिण और उत्तर भद्रसाल तथा निषध और नील पर्वत के बीच में देवरू श्रीर उत्तर कुरु है । मेरू की पूर्व दिशा में पूर्व विदेह और पश्चिम दिशा में पश्चिम विदेह है । जम्बूदीप से की खंड और पुष्करार्थं द्वीप में है । मनुष्य लोक के भीतर और तीस भोग भूमि हैं । दूनी रचना धात पन्द्रह कर्मभूमि सरवन कूं सिरदायकं, लखिजिभ भागम सरर | मध्यलोक पंचासिका, परतू विविध विचार || युधजन: तत्वार्थ बोध, मद्य संख्या ४४, पृ०४५ लश्कर । १. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व पाठवें नंदीश्वर द्वीप में अभिम जिन मंदिर तथा प्रकृत्रिम जिन प्रतिमाए है। "मानुषोत्तर पर्वत के बाहर जो जिन मंदिर है वहां की प्रतिमानों के दर्शन देवगण ही कर सकते हैं तथा मानुषोत्तर पर्वत के अन्दर प्रर्थात् ढाई द्वीप में जो प्रकृत्रिम जिन मंदिरों में प्रकृत्रिम जिन प्रतिमा है उनके दर्शन देव तथा विद्याधर कर पकते हैं। ढाई ही के हर नि गोदीव नहीं पहुँच सकते, केवल ऋद्धिधारी ही पहुंच सकते हैं । यह समस्त रचना अनादि अनिघन है। यहां कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। ऊर्ध्वलोक मेरू से ऊर्ध्वलोक के अन्त तक के शव को ऊधलोक कहते हैं । इस ऊर्वलोक के दो भेद हैं, एक कल्प और दूसरा कल्पालील । जहां इन्द्रादिक की ? __ अधोलोब के ऊपर एक राजू लम्बा एक राजू चौड़ा और एक लारन चालीस योजन ऊचा मध्यलोक है । इस मामलोक के बिल्कुल बीच में गोलाकार एक लक्ष योजन व्यास बाला जम्बूद्धीप बरे खाई की भांति धेरै हुए गोलाकार लवण समुद्र है । इस लवण समुद्र की चौड़ाई सर्वन दो लक्ष योजन है । पुनः लचरण समुद्र को चारों ओर से घेरे हुए गोलाकार घातको खंर द्वीप है जिसकी चौड़ाई सर्वत्र चार लक्ष योजन है। धातकी खंड को चारों तरफ से घेरे हुए प्रा3 लक्ष योजन चौड़ा कालोदधि समूद्र है तथा कालोदधि समुद्र को चारों तरफ से घेरे हुए सोलह लक्ष वोजन चौड़ा पुष्कर द्वीप है । इस ही प्रकार से दूने दूने विस्तार को लिए परस्पर एक दूसरे को घेरे हुए असंख्यात द्वीप समुद्र हैं। अंत में स्वयंभू रमण समुद्र है। चारों कोनों में पृथ्वी है। पुष्कर द्वीप के बीचों बीम मानुषोतर पर्वत है जिससे पुष्कर द्वीप के दो भाग हो गये हैं। जम्बू द्वीप पातकी खंड द्वीप पुष्कराचं द्वीप इस प्रकार ढाई द्वीप में मनुष्य रहते हैं । ढाई द्वीप से बाहर मनुष्य नहीं है तथा तिथंच समस्त मध्यलोक में निवास करते हैं। स्थावर जीव समस्त लोक में भरे हुए हैं । जलचर जीव लवणोदधि, कालोदधि और स्वयंभू रमण इन तीन समुद्रों में ही होते हैं अन्य समुद्रों में नहीं । जम्बूद्वीप एक लक्ष योजन चौड़ा गोलाकार है । इस जम्बूद्वीप में पूर्व और पश्चिम दिशा में लम्बायमान दोनों तरफ पूर्व और पश्चिम समुद्र को स्पर्श करते हुए हिमवन, महाहिमवन निषघ, नील कक्मि और शिखरी इस प्रकार यह कुलाचल (पर्वत) हैं । इन कुलाचलों के कारण सात भाग हो गये हैं । दक्षिण दिशा के प्रथम भानुषोत्र बाहर जिनकाम, तहाँ देव ही करें प्रणाम । हाईद्वीप भीतर जिनगेह, सुर विद्यावर पदे तेह ॥ अधजन: तत्वार्थ बोध, पद्य संख्या ४५-४६, पृष्ठ संख्या ४६ लश्कर । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव पक्षीय विश्लेषण भाग का नाम भरत क्षेत्र, द्वितीय भाग का नाम हेमवत और ततीय भाग का नाम हरिक्षेत्र मे । इस ही प्रकार उत्तरदिशा के प्रथम भाग का नाम ऐरावत, द्वितीय भाग का नाम हैरण्यवत और तृतीय भाग का नाम रम्यक क्षेत्र है । मश्ग्रभाग का नाम विदेह क्षेत्र है। भरतक्षेत्र की चौड़ाई ५२६ योजन है | विदेह क्षेत्र के बीचों बीच सुमेरु पर्वत है । सुमेरु पर्धन की एक हजार योजन कल्पना होती है, उनको कल्म कहते हैं और जहां ग्रह कल्पना नहीं है उमे कल्पातीत कहते हैं । कल्प में १६ स्वर्ग हैं-१ सौधर्म, २ ईशान, 3 मार, ४ प , हे तर ७ लावत, ८ कापिष्ठ, ९ शुक्र, १० महाशुक्र, ११ सतार, १२ सहसार, १३ मानत १४ प्रारखत, १५ प्रारण, १६ प्रच्युत । इन सौलह स्वर्गों में से दो-दो स्वारे में संयुक्त राज्य है । इस कारण सौधर्म ईशान, सान्त कुमार-माहेन्द्र इत्यादि दो-दो स्वर्गों का एक-एक युगल है । उपरोक्त १६ स्वगों में १२ इन्द्र है। सोलह स्वों के ऊपर कल्पातीत में लो अपो ग्रेवेयक, तीन मध्यम प्रेवेयक और तीन उपरिम प्रवेयक इस प्रकार नव ग्रेवेषक है। नव प्रेदेयक के ऊपर नव अनुदिश विमान तथा उनके ऊपर पंच अनुसर विमान हैं । इस प्रकार इस उर्वनोफ में बंमानिक देवों का निवास है। मरू को चुलिका से एक बाल के (केश के) अन्तर पर ऋजु विमान है। यहां से सोधर्म स्वर्ग का प्रारंभ है। मरू तल से लगाकर डेढ़ राजू की ऊंचाई पर सौधर्म-ईशान युगल का अन्त है । उसके कार डेढ़ राजू मैं सानत्कुमार-माहेन्द्र युचल है । उससे ऊपर आधे-साधे राजू में छहूँ युगल हैं। इस प्रकार छह राजू में पाठ युगल हैं। लोक के अन्त में एक राजू चौड़ी, सात राज् लम्बी और ग्राउ पोजन मोटी ईयत् प्रारभार नामक पाठची पृथ्वी है। उस पाठबी पृथ्वी के बीच में रूप्यमयी छत्राकार मनुष्यक्षेत्र समान गोल ४५ लक्ष योजन चौड़ी मध्य में पाठ योजन मोटी (अंत तक मोटाई क्रम से घटती हुई है ।) सिद्ध शिला है । उस सिद्ध शिला के ऊपर तनुवाद में मुक्तजीव विराजमान हैं। उस शिवालय धाम (मोक्ष) में अनन्त सिद्धजीत्र हैं वे अनंत ज्ञान अध्यावाघ सुत प्रादि अनंत गुणों से शोभायमान हैं कविवर बुधजन उनको सदा प्रणाम करते हैं। १ सिद्ध अनंतानंसको, तहां शिवालयथाम । राजे प्रव्यायाधसुख, तिनको सदा प्रणाम !! बुधजनः तत्वार्यबोध, पद्य संख्या ४२ पृष्ठ ४६ प्रका. कन्हैयालाल गंगवाल, लश्कर Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय (भाषा वैज्ञानिक अध्ययन) १. भाषा शिल्पसम्बन्धी विश्लेषण कविवर बुधजन ने जिस भाषा का प्रयोग अपनी रचनामों में किया है, उसके सम्बन्ध में गंभीरता से विचार करने से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि उनकी मौलिक तथा अनुदित रचनानों की भाषा में--न्यूनाधिक प्रन्तर प्रयश्य रहा है । अतः यह कहा जा सकता है कि उनकी भाषा के दो रूम रहे हैं। कविवर बुधजन ने संस्कृत, प्राकृत भाषाओं में लिखे ग्रन्थों का देशी भाषा में रूपान्तरण किया। उन्होंने अनेक दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक ग्रन्थों का हिन्दी में मूल-स्पर्शी अनुवाद किया । अनुवाद में मौलिकता को पूर्ण सुरक्षा है । उन्होंने देशी भापा में दार्शनिक विचारों का प्रतिपादन कर जन-जन तक प्रध्यात्म धारा प्रवाहित करने का महान कार्य किया। प्राचीन काल में मगधी और प्रमागधी भाषा में अन्य लिखे जाते थे । कालान्तर में जब उस भाषा में समझना कठिन हो गया, तब संस्कृत में शास्त्र रचना होने लगी। और जब संस्कृत भाषा व्याकरण के नियमों से अत्यधिक जकड़ दी गयी, तब उसमें भी समझना कठिन हो गया और तभी देशी भाषाओं में रचनाएं होने लगीं । जन-साधारण को समझाने के निमित्त ही ऐसी रचनामों का प्रणयन हुआ। कहा भी है-इस निकृष्ट समयविर्षे हम सारिख मंद बुद्धीन से भी हीन बुद्धि के घनी घनेजन प्रमलोकिये हैं । तिनको तिन पदनि का अर्थ ज्ञान होने के प्रथिधर्मानुराग के वशतें देश भाषामय ग्रन्थ करने की हमारे इच्छा भई, ताकारी हम' यह ग्रन्थ बनावें हैं । सौ इन विष भी अर्थ सहित तिन ही पनि का प्रकाशन ही है । इतना तो विशेष है जैसे प्राकृत, संस्कृत पद लिखिये है, परन्तु मर्थ विर्षे व्यभिचार किल्लू नाहीं । जैनाचार्यों एवं विद्वानों ने प्राकृत के समान ही संस्कृत, अपन्नश एवं हिन्दी प्रादि विभिन्न भाषाओं में समान रूप से अपने विचारों की अभिव्यंजना कर थाङमय की वृद्धि की है। कविवर बुधजन ने भी उक्त पद्धति का अनुसरण कर छाङ्गमय की वृद्धि की। १. पं० टोरमल : मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृ. संस्था-२६, अनन्त कीति अन्धमाला, Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिल्प सम्बन्धी विश्लेषण ११९ अज मिश्रित द्वारी (राजस्थानी) भाषा कवि की कृतियों में स्पष्ट रूप से दृष्टि गोचर होती है । कविवर की रचनामों में सामान्यतः यही भाषा प्रयुक्त है । राजस्थान प्रदेश की भाषा राजस्थानी है। यह राजपूताना, मध्यभारत के पश्चिमी भाग, प्रदेश, सिंगरय, पं: निमन क्षेः बोली जाती है। मुख्य रूप से वह मरूभूमि की भाषा है । डा. प्रियसन ने इसे चार भागों में विभक्त किया है : (१) मारवाड़ी (२) मध्यपूर्वीय समुदाय (जिसकी विशिष्ट बोली जयपुरी है। (३) पश्चिमोलरी समुदाय (जिसकी विशिष्ट बोली मेवाती है) और (४) मालवी । इन्हीं चारों को राजस्थानी की चार मुख्य-विभाषानों के रूप में स्वीकार किया गया है 1 डॉ० चटर्जी ने राजस्थानी बोलियों को पश्चिमी और पूर्वी इन दो वर्गों में समाहित किया है, किन्तु डॉ० तिवारी इनके चार वर्ग मानते हैं। यथा(११ पश्चिमी राजस्थानी मारवाड़ी) (२) पूर्वी राजस्थानी (जमपुरी, किशनगढ़ी, नजमेरी, हाडोती) (३) दक्षिण पूर्वी राजस्थानी (मालवी) (४) दक्षिणी राजस्थानी (भीली-सौराष्ट्री) इनके अन्तर्गत प्रसिद्ध उप बोलियां भी हैं । साहित्यिक दृष्टि से मारवाड़ी भापा समद्ध है । वास्तव में राजस्थानी का उदगम शौरसेनी अपभ्रश से खोजा जाता है। उसका एक पर्वतीय प मध्य पहाड़ी का स्रोत भी है। दूसरी बात यह है कि हरा, शाक, गर्जर आदि लोगों के सहवास और प्रसार के इन क्षेत्रों को कुछ समानत! प्रदान की है। राजस्थानी में अनेक द्वारों से शब्द-प्रवेश हुमा है। यह व्यवस्था केवल राजस्थानी भाषा पर ही लागू नहीं होती, अपिसु प्रायः सभी बोलियों और भाषानों पर लागू होती है । राजस्थान एक प्रदेश है, जहां प्राचीन काल में अनेक जातियों का आवागमन होता रहा है । उनके संपर्क से अनेक शब्द राजस्थानी में प्रविष्ट हए । राजस्थानी का शब्द समूह अधोलिखित स्रोतों से सम्बन्धित है और उसका विभाजन इस प्रकार है। १ तत्सम शब्द २ तद्भव शब्द ३ अनार्य भाषाओं के शब्द ४ अाधुनिक बोलियों से उधार लिये पाकन ५ देशम शब्द ३ विदेशी-शब्द विभिन्न स्रोतों से प्राप्त इन शब्दों को राजस्थानी बोली से ध्वनि और रूपतत्व के अनुरूप इस प्रकार पचा लिया है कि वे अब उसी के बन गये हैं। संस्कृत अरबी, फारसी तथा अग्रेजी शब्द इस प्रकार राजस्थानी की प्रकृति में ढले Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन व्यक्तित्व एवं कृतित्व मिलते हैं कि वे विदेशी प्रतीत ही नहीं होते। यहां तक कि कई संस्कृत शब्दों में ध्वन्यात्मक परिवर्तन ही नहीं हार वरन् उनमें पर्य-परिवर्तन के भी मनोरंजक दृष्टान्त मिलते हैं। इसमें तत्मम शब्द की अपेक्षा तदभव शब्द अधिक हैं। उन सबका विवरण प्रस्तुत करना गंभव नहीं है । यहा कतिपय विशिष्ट शब्दों को ही लिया जा रहा है, जो इस प्रकार है : तत्सम शब्द-सरपति १६) प्रानंदघन (१४) माताप (१४) भानुप्रताप (१८) वचनामृत (२२) दीनानाथ (४२) प्रतिविम्बित (२१) पाषाण (१७८) साम्राज्य (८७) शून्ना (१२८) प्रतिथिदान (१७६) सुगुरू (२३५) रिपूधात (२८७) सुथा (३५६) अन्याय (२६) हितमित (४१०) उज्जवल (४६८) कोविद (५१४) ज्ञानामत (५४४) अपचर्ग (५८६ तद्भव शम्द-पदार्थ (पदारथ) प.सं. ८, तृषा (तस) ११, अर्गला (ग्रागल) ग्राहक (गाहक) लवण (लोण) तत्वार्थ (तत्वारथ) त्रिया (तिया) ७८, ज्वर (जुर) ६१, सर्वम्व (सरवस) ४५०, रत्न (रतन) १५, प्रगट (परगट) माग (मारग) ४६, मल्प (अलप) ३०७, निर्वाह (निरनाह) ६३, दर्शक (दरसक) ५२, इत्यादि। देश शब्द-नातरि (२२१) पाली (२२१) बुगला (२२१) हुकमी (२५८) परेवा (३१५) मौत ४०५) इत्यादि । विवेशी शब्द बिदेशी शब्द-मुसलमानों और अंग्रेजों के प्रभाव से आये हैं। राजस्थान पर मुसलमानों का शासन नहीं रहा, पर दिल्ली दरवार से उनका संपर्क रहा है, जिसके फलस्वरूप अनेक अरबी, फारसी के पाद राजस्थानी में प्रविष्ट हुए। इन्हें बोलने वाला ग्रामीण व्यक्ति यह अनुभव नहीं करता कि ये राजस्थानी के शब्द नहीं हैं । ये शब्द हिन्दी, उर्दू के माध्यम से, कुछ जनसंपर्क से और कुछ कचहरियों के माध्यम से राजस्थानी भाषा में घुलमिल गये हैं । यथा दर्द (४६१) चकत (५८) मतलब (६२) मंगरूर (११४) गाफिल (३८५) जल्दी (५.१३) करार (इकरार) (उस्ताद) दरगा (दरगाह) जायदाद, तजुर्बा, दस्तखत, दुरूस्त, परवस, मतलब (६२) इत्यादि। अग्रेजी शब्द-टाइम, पेंसिल, फोटू, पेंसन, अफसर, साइंस मिडिल, पुलिस मास्टर, मिनिट, अस्पताल, मीटिंग इत्यादि । राजस्थानी शब्द-वनरौ (५) बरजोरी (५) चंडार (३६) प्रबार (१२) दुखां की ख़ान (६६) खोसिलेय (२३५) कलाविना, पायसी (६३६) इत्यादि टूढारी का क्षेत्र विभाजन मोखावटी के अतिरिक्त पुरा जयपूर, किशनगढ़ तथा अलवर का अधिकांश भाग, अजमेर मेरवाड़ा का उत्तर पूर्वी भाग । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिल्पी विश्लेषण १२१ कविवर बुधजन ने अपनी रचनाओंों में प्रचलित लोकोक्तियों एवं मुहावरों के प्रयोग भी यथा स्थान किये हैं, जो प्रत्यत्र दृष्टव्य हैं। यथा--- (१) जिससे अन्न खादे तिसौ मन्न हुवे | (२) कर्द घी घग्णां, कर्द मुठी चरणां ॥ इत्यादि so धीरेन्द्र वर्मा ने अपने 'हिन्दी भाषा का इतिहास' में शौरसेनी अपभ्रंश से राजस्थानी भाषा का विकास माना है। वास्तव में राजस्थानी भाषा में 'ड' वर्ण की बहुलता है | बहुवचन के अन्त में भा जाता है । यथा तारा (तारों) रातां (रातों) मातां (बातों) । को के स्थान पर ने न हम के लिये म्हें, चलसू (चलूगा) जानू' (जाऊंगा) चलसी (चलेगा ) इत्यादि । 1 भाषाओं के सम्वन्ध में निम्न लिखित चार्ट से यह स्पष्ट हो जायेगा कि हिन्दी प्रदेश की भाषाएं किस प्रकार एक दूसरे से सम्बद्ध हैं । हिन्दी प्रदेश की भाषाएं (मध्यदेश) T पूर्वी बोलिया पश्चिम बोलियां T T अवधी छत्तीसगढ़ी भोजपुरी बिहारी राजस्थानी ब्रज बुदेवी पहाड़ी खड़ीबोली I मारवाड़ी ढूंढारी मानवी मैत्राती राजस्थानी पक्ष- रचनात्मक संगठन में भी कुछ समानताएं देखी जा सकती हैं कर्ता में द, कर्म में कु, करण में से, संप्रदान में ताई, कू, अपादान में से, ते सम्बन्ध में को, का, की, रो, रा, री, अधिकरण में मां । पूर्वी राजस्थानी में तो 'त' (हिन्दी ने) कर्त्ता कर्म तथा संप्रदान तीनों पाया जाता है इसमें सहायक क्रिया 'छे' पाई जाती हैं । भूतकालिक कृदन्त वाले रूप, राजस्थान में थो ( ब०व०या) प्रत्यव वाले पाये जाते हैं । यथा चल्यो, गयो । बुधजन की रचनाओं में बज भाषा व राजस्थानी का सम्मिश्र समावेश देखा जा सकता है । ब्रज भाषा का संक्षिप्त व्याकरण निम्न प्रकार दृष्टव्य है— १. डॉ. जगदीश प्रसाद हिन्दी उद्भव विकास और रूप, पृ० सं० ६३, प्रथम संस्कररण, किताब महल, इलाहाबाव । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ कविवर बुधज : व्यक्तित्व एवं कृतित्व कर्ता कारक-में, में । कर्मकारक-क-व संप्रदान कारक-जु', कों, के, कें । करण व अपादान–सों, सू, ते, ते । सम्बन्ध कारक-को, के (पुल्लिंग), स्त्रीलिंग की । प्रधिकरण कारक-में, में, पे, गौ । विशेषण प्रायः खड़ी बोली की भांति ही होते हैं, किन्तु पुल्लिग प्रकारान्त शब्द यहां प्रौकारान्त हो जाते हैं । इनके तिर्यक रूप ॥क बचन के रूप से प्रथया ए और पुल्लिंग बहुवचन के रूप ए, ऐ या ए प्रत्यान्त होते हैं । क्रिया रूप वर्तमान में, ह। भूत-में था या हती। एकवचन बहुवचन एकवचन (स्त्री) एकवचन (पु०) हो । हो । बहुवचन (पुरु) बहुवचन (स्त्री) संक्षेप में, कविवर बुधजन ने जिस देश भाषा का प्रपनी रचनात्रों में प्रयोग किया है, यह टूढारी (जयपुरी) भाषा कही जाती है। यही उस प्रदेश की तत्कालीन लोक प्रचलित भाषा भी। इसमें व्याकरण के निशेष बन्धन नहीं थे । अत: जो लोग व्याकरणादि से अपरिचित थे, वे भी भली भांति समझ सकते थे। कवि के साहित्य में तत्सम, और देशी भाषा के शब्द मिलते हैं। इतना ही नहीं, अन्य भाषानों के देशी-विदेशी लोक-परंपरा के माध्यम से प्राधगत शब्द भी कदिवर बुधजन की रचनाओं में भली-भांति परिलक्षित होते हैं। जहां तक भाषा-शिल्प का प्रश्न है, कवि ने विभिन्न-धाराओं से समागत बोलचाल की शब्द सम्पत्ति से भरपूर सहज, स्वाभाविक पदनामों की रचनाफर भाषा को एक विशिष्ट कलेवर प्रदान किया है। (२) ध्वनि प्रामीय प्रक्रिया ध्वनि भाषा का मूल रूप है । हम जो भी उछमारण करते है, यह सब Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिल्प सम्बन्धी विश्लेषण ध्वनिमय है । इसलिये भाषा की रचना वर्णों से नहीं ध्वनियों से होती है। मानस के लिये ध्वनि की शक्ति अपरिमित है । मंत्र, तंत्र, यंत्र, संगीत, साहित्य तथा विज्ञान में ध्वनि की विशिष्ट शक्तियों का उल्लेख निहिल है । संपूर्ण वायुमंडल में ध्वनि अव्यक्त रूप में व्याप्त रहती है । प्रन: सामान्यतः ध्वनि शरीर व्यापार की यह क्रिया है जिसे स्थासोन्यास लेने व रिग कहा जाता है । मंसार की लगभग सभी भाषाओं में केफड़े से निःसृत होने वाली वायुध्वनि का निर्माण करती है। ध्वनि की कोई निचित परिभाषा नहीं की जा सकती क्योंकि ध्वनि विभिन्न प्रकरणों के अनुसार भिन्न-भिन्न अर्थ की वाचक होती है | घंटा या किसी वाद्य के मित होने के पूर्व उस पर टोका या पानात किया जाना आवश्यक है । जिस स्थान से ध्वनि उत्पन्न होती है, यदि उसका स्पर्श किया जाए तो हम उसकी गति का अनुभव कर सकते हैं जिसे कंपन कहते हैं । अतः कंपनशील गति का नाम ही इवनि है । ध्वनियां कई प्रकार की हो सकती हैं, किन्तु हमारा यहां अभिप्राय भाषरग-ध्वनि (Speach sound er pl. T) से है । यथार्थ में भाषण में परिलक्षित होने दाली कई ध्वनियां भाषा में नहीं मिलती । प्रत: ध्वनियां वे कंपन है जो क्षिप्रता, तीव्रता तथा समय परिमाण से कर्णन्द्रिय से टकराकर अपने गुणों के साथ भाग-ग्राह्य होते है । भाषण ध्वनि एक ध्वन्यात्मक इकाई है, किन्तु ध्वनिग्राम एवा परिवार है जिसे बारध्वनि भी कहा गया है। पहले कहा जा चुका है कि भाषण ध्वनि एक ध्वन्यात्मक इकाई है। इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन संभव नहीं है । बचाकरसों के मत में इवनि सकोट मलक है । 'स्फोट' पाब्द है, क्योंकि उससे अयं स्फुरित होता है और ध्वनि शब्द का गुण है । दोनों में व्यंग्य-व्यंजक सम्बन्ध है 1 ध्वनि व्यंजक है और शब्द व्यंग्य ।। ध्वनिग्राम किसी भाषा की वह अर्थ भेदक ध्वन्यात्मक इकाई है जो भौतिक यथार्थ न होकर मानसिक यथार्थ होती है तथा जिसकी एकाधिक ऐसी संध्वनियां होती है, जो ध्वन्यात्मक दृष्टि से मिलती-जुलती अर्थ भेदकता में असमर्थ तथा मापस में या तो परि पूरक या मुक्त वितरण में होती है । भाषा विशेष के ध्वनिग्रामों में उस भाषा में अर्थ-भेद करने की क्षमता होती है । उदाहरण के लिये हिन्दी में काना और 'गाना' में अर्थ का अन्तर 'क' और 'ग' के कारण है अर्थात 'क' 'ग' हिन्दी में अर्थ-भेदक हैं । मे व्यनिग्राम है। अब तक ध्वनियों के विषय का सूक्ष्म-विवेचन नहीं किया जाता तब तक ध्वनि याब्द को तत्सम्बन्धी ध्वनि ग्राम कहते हैं, जैसे का, की, कु में मूल मनि का है । वैज्ञानिक दृष्टि से इस 'क' को ध्वनिग्राम कहते हैं। ध्वनियाम दो प्रकार के होते हैं:-खंड्यध्वनि ग्राम तथा खंड्येतर ध्वनिग्राम । । प्रथम का उपचारण स्वतंत्र रूप से हो सकता है। इसमें किसी भाषा के स्वर-ध्वनिग्राम तथा व्यंजन स्वनिग्राम Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ कविवर बुधजन व्यक्तित्व एव कृतित्व प्राते हैं । खंड्येतर-ध्वनिग्राम जिनका उच्चारण स्वतंत्र रूप से न हो सके, जो अपने जच्चारण के लिये खंड्वध्वनि ग्राम पर ही प्राधारित हो । दीर्घता, अनुनासिकता, बलाघात, सुर, लहर, संगम या निवृत्ति खंड्ये तर ध्वनिग्राम के अन्तर्गत आते हैं। ___हिन्दी में ध्वनिग्राम दो प्रकार के हैं :- संजय और खंतर । संख्यध्वनि ग्राम के दो भेद है (१) स्वर ध्वनिग्राम (२) व्यंजन ध्वनिग्राम खंड्येतर ध्वनि ग्राम के ५ भेद है-दीर्घता, अनुनासिकता, बलाघात, अनुमान और संगम । पचा ऑफिस में या-प्रों । बाल-वॉल । काकी-कॉफी । हाल का हॉल । हिन्दी में सभी स्वरों के अनुनासिक रूप मिलते हैं पथा--हंसना, दांत सिंघाड़ा, सींचना, सोंठ, भेस इत्यादि । ___ इनके अतिरिक्त धातुओं के पीछे शब्द लगाकर अनेक कुदन्त रूप व धातु नों को छोड़कर शेष प्राब्दों के परे प्रत्यय लगाने से अनेक तद्धित शब्द बनते हैं। इसका साष्टीकरमा निम्न प्रकार है । कृदन्त । १ कतवाचक २ कर्मवाचक ३ करण वाचक १ जैसे गर्वमा २ गाया हुमा ३ जैसे-चलनी ४ भाववाचकः ५ क्रियावाचक ४ जैसे-बहराब ५ जैसे खाता हुना। सद्धित १ भाववाचक २ गुण जैसे-दूधवाला ५ खटिया हिन्दी में मुख्य केन्द्रीय ध्वनिग्राम ३५ हैं। इनमें से मुख्य स्थर ध्वनि-ग्राम १० हैं यधा-ग्र आ इ ई उ ऊ ए ऐ मो प्रो इनमें भी ए ऐ नो प्रो संयुक्त हैं ध्यंजनध्वनिग्राम-व्यंजन ध्वनियों का वर्गीकरण मुख्य रूप से तीन प्रकार से किया जा सकता है-- (१) घोषत्व की दृष्टि से । (२) उच्चारण प्रयत्न की दृष्टि से । (३) उच्चारण स्थान की दृष्टि से । व्यंजनों में कुछ संयुक्त व्यंजन हैं। यथा-क्ष मज । उदाहरण मित्र, विज्ञ, विद्यार्थी, बच्चा, क्षत्रिय इत्यादि । दो व्यंजन वाले शब्द फैक्ट्री, दक्तुत्व, Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिल्प सम्बन्धी विश्लेषण १२५ लक्ष्मी, व्यंग्यार्थ, तीक्ष्ण सूक्ष्म । तीन व्यंजन वाले शब्द-स्वातन्त्र्य, वत्स्य इत्यादि । बलाघात P -त्याग, बुद्धि परजाय कु । यागबुद्धि, परजाय कू ं । स्थाग बुद्धि परजान, क्रू ये मेरे गाड़ी गड़ी | १. ये 'मेरे', गाड़ी गढ़ी | ये मेरे 'गाढ़ी, गढ़ी' | सुरलहर करो नाहि कराग । करो नाहि कछु राग ? करो नाहि कछु राम । संगम - तोरी, मोरी लाज । नोरीमोरी लाज । रोको, मत जाने दो । रोकोमत, जाने दो। यहां तोरी शब्द में चमत्कार है। हिन्दी की कुल ध्वनियां ५६ हैं । 'उ' और 'ल' स्वतंत्र ध्वनियां हैं । कवि की रचनाओं में भी 'उ' और 'ल' स्वतंत्र ध्वनियां हैं । यद्यपि ये केवल स्वर, मध्य तथा पदान्न में ही पाई जाती हैं, पद के बादि में नहीं । ठीक यहीं बात 'एल' ध्वनि के विषय में भी कही जा सकती है। यह भी इन दोनों बोलियों में परिनिष्ठित खड़ीबोली की तरह 'न' का ध्वन्यंग नहीं है तथा यह ध्वनि कथ्य खड़ी बोली तक में पाई जाती है । के विषय में यह ध्यान देना आवश्यक है कि ध्वनि का अभिप्राय केवल भाषण ध्वनि से है । यह भाषा की अत्यन्त सूक्ष्मधारा है | संवेदनशील और अभ्यासगत है कि ध्वति संयोगों के उच्चारों को सुनते ही उसका अर्थ होने लगता है । शब्द में अर्थ कहीं से याता नहीं है अपितु उसी में है । संक्षेप में इतना ही कहना है कि ध्वनियों के परिवार को ध्वनिग्राम कहा जाता है । ये ध्वनियां किसी परिधि वा परवेश तक उच्चारगत अर्थ की दृष्टि से भिन्न प्रतीत नहीं होतीं । इसलिये सुनने वाला परिचित ध्वनि के रूप में ही उसे सुनता है । ध्वनिग्राम स्वन प्रकारों का समूह है जो ध्वन्यात्मक दृष्टि से समान तथा परिपूरक, वितरण या मुक्त परिवर्तन में होते हैं । 1 डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री भाषा शास्त्र तथा हिन्दी भाषा की रूपरेखा पृ० १०३ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व अर्थतत्व १ प्रर्थ परिवर्तन की दिशाए २ अर्थ-विस्तार ३ अर्थ संकोच ४ अर्थादेश ५ प्रत्यय ६ उपसर्ग ७ समास - पूर्व-सगं १ परसर्ग १० ध्वनि-अर्थ ११ मुहावरे, लोकोक्तियां तथा अन्य प्रयोग १ अर्थपरिवर्तन की दशा-यथार्थ प्रथं परिवर्तन की दिशाए पुरणं रूप से नियत नहीं की जा सकती, क्योंकि प्रथं परिवर्तन का मुख्य कारण मानव-मस्तिष्क है । उच्चरित एक ही शब्द का मानत्र-मस्तिष्क विभिन्न प्रर्य ग्रहण कर लेता है । इसका कारण यह है कि गध्द स्यूल होले हैं और अर्थ सूक्ष्म । प्रथं बौद्धिक होते हैं अत: उनमें सतत परिवर्तन होते रहते हैं | शब्दों की अपेक्षा अर्थ अधिक व्यापक होता है । कई बार शब्द-प्रयोग न होने पर भी संकेत मात्र ग्रहण किये जाते हैं। 'श्रील' महोदय के अनुसार अर्थ परिवर्तन की तीन दिशाएं मानी जाती हैं:--- १ अर्थ-विस्तार २ प्रर्थ-संकोच ३ प्रदेश प्रायः प्रत्येक युग में शब्द और उनके अर्थ में कुछ न कुछ परिवर्तन होता रहता है । इसी प्रक्रिया में दरिया (नदी) शब्द गजराती और हिन्दी में समुद्र का वाचक हो गया है । संस्कृत का 'पास' शब्द अपभ्रश में प्राम अर्थ देने लगा और साहसिक (डाकू) शब्द, उर्दू-हिन्दी में साहसी (हिम्मती) भर्थ का वाचक हो गया प्रत्यन्त प्राचीन काल में संस्कृत में घणा का अर्थ 'पिघलना था' बाद में दा हो गया और प्रब वह नफरत का अर्थ देने लगा। इसी प्रकार 'पाखंड' शब्द पहले एक संप्रदाय था, बाद में उस शब्द में कुछ परिवर्तन हया तो पाप का खंडन करने वाला अर्घ देने लगा और प्राज उसका प्रथे डोंग या आडंबर है।। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिलाविण्य १२७ (१) अयं परिवर्तन अर्थ परिवर्तन की प्रक्रिया से यद्यपि शब्द और अयं सदा किसी संदर्भ में परिस्थतिवश बदल जाते हैं, किन्तु वे अपने मूल अर्थ को नहीं छोड़ते इसलिये हजारों वर्षों के बाद भी उनका मूल स्रोत खोज लिया जाता है और उनकी वास्त विक स्थिति का पता चल जाता है । इस प्रकार अयं परिवर्तन की पद्धति से शब्द के इतिहास की जानकारी मिलती है । (२) अर्थ विस्तार जन सामान्य शब्द विशेष अर्थ में और विशिष्ट शब्द सामान्य पर्थ में प्रयुक्त होता है, तब अर्थ विस्तार हो जाता है। अर्थ के विस्तार के कारण अर्थ अपने शाब्दिक अर्थ से अधिक बढ़ जाता है। "भतृहरि" ने बहुत विस्तार के साथ इसका विचार किया है | उनका कथन है कि विशेष की अविवक्षा और सामान्य की विवक्षा से प्रायः अर्थ विस्तार हो जाता है। जैसे—तेल 'शब्द' तिल के द्रवित सार को कहते थे, परन्तु अब - सरसों, मूंगफली, अलसी सोयाबीन यहां तक कि घासलेट को भी तेल कहने लगे । इसी प्रकार चाह अर्थ में चाय (४६८) जुधारी (४५५ ) चारि (४४६) स्वाल (४३२) लगन (४२६) गार (४१७) परत (४०४) भाटा (३०३) इत्यादि शब्दों के प्रयोग होने लगे। इस प्रकार मनुष्य जब काम करके बहुत थक जाता है, तत्र कहता है आज तो मेरा तेल ही निकल गया । (३) अर्थ संकोच 'श्रील' महोदय का कहना है कि जो राष्ट्र या जाति जितनी अधिक विकसित होगी, उसमें ग्रर्थं संकोच उतना ही अधिक होगा। यदि इस प्रकार से का संकोच न हो तो सभी शब्द सभी अर्थों के वाचक हो जायेंगे । अर्थ के संकोच में सास्कृतिक परिवर्तन विशेष महत्त्वपूर्ण माना जाता है (४) यथावेश एक अर्थ के स्थान पर दूसरा अर्थ हो जाना ही प्रथादेश है। कभी-कभी, ज्ञात-अज्ञात रूप से विचारों के सम्पर्क के कारण गौा अर्थ से सम्बन्ध हो जाता है और वह अर्थं ही मुख्यार्थं बन जाता है। इस प्रकार एक अर्थ के स्थान पर दूसरा भ हो जाता हूँ | जैस गंवार शब्द का मूल अर्थ ग्रामीण है, किन्तु ग्राम जस्ता मूर्ख मनुष्य को गंवार कहती है । इसी प्रकार 'बुद्ध' शब्द का अर्थ बुद्धिमान है, किन्तु लोक में बुद्धिहीन व्यक्ति को 'बुद्ध' कहा जाता है। इस प्रकार अथादेश में अर्थ अपने मूल से भिन्न हो जाता है । उपसर्ग के विविध प्रयोगों से भी श्रर्थ में परिवर्तन लक्षित होने लगता है । जैसे कि संस्कृत की 'द' धातु से हर और हार शब्द निष्पन्न होते हैं । 'हार' के पहले 'प्र' उपसर्ग जोड़ देने से 'प्रहार' 'वि' जोड़ देने से 'बिहार' 'मा' जोड़ दन से प्रहार 'सं' जोड़ देने से संहार, 'नी' जोड़ देने से नीहार' ग्रादि विभिन्न अर्थ के वाचक शब्द बनते हैं ! Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व इसी प्रकार विश्लेषरण, लोक प्रसिद्धि, प्रत्ययों के प्रयोग से भी अर्थ परिवर्तन हो जाता है। चूंकि अर्थ- परिवर्तन की दिशा कभी अच्छे और कभी दूरे अर्थ की ओर प्रवाहित होती रहती है | अतः इन्हें अलग से श्रर्थं परिवर्तन की दिशाएं मानना यहीं है । १२८ प्रत्यय ऐसे अधिकारी शब्द या शब्दांश जो धातु या मूल शब्द के पश्चात् जुटकर उनका श्रयं परिवर्तन कर देते हैं, प्रत्य कहलाती हैं। जैसे मिठाई शब्द में वाला प्रत्यय जोड़ देने से 'मिठाई वाला' बन जाता है। इस प्रकार मिठाई और मिठाई वाला शब्दों के ग्रंथों में परिवर्तन हो जाता है। इसी प्रकार पढ़ना से पढ़ाई शब्द में भी अर्थ बदल जाता है। प्रत्यर्थी का स्वतंत्र प्रर्थ श्रर प्रयोग नहीं होता | केवल मूल पाद से जुड़कर ही ये भिन्न अर्थ के प्रतिपादक होते हैं। प्रत्यय सभी प्रकार के शब्दों के साथ सयुक्त हो जाते हैं । प्रत्ययों से निर्मित शब्दों के दो भेद होते हैं - कृदन्त और तद्धित । धातुयों के पीछे जो शब्द लगाये जाते हैं वे कृदन्त कहलाते हैं। जैसे- लिखना से लिखाई तथा धातुयों के अतिरिक्त संज्ञा, सर्वनाम, विषलेषण शब्दों में जो प्रत्यय लगाये जाते हैं तथा उनके लगाने से जो शब्द बनते हैं उन्हें तद्धि कहते हैं । जैसे दशरथ से दाशरथि, प्यार से प्यारा इत्यादि । हिन्दी प्रत्यय ( फक्त) --- भ - यह प्रत्यय अकारान्त धातुधों से जोड़ा जाता है, जिससे भाव-वाचक संज्ञाएं बनती हैं। जैसे लूटना से 'लूट' उछलता से 'उछलकूद' इत्यादि । श्रा- इस प्रत्यय के योग से भाववाचक संज्ञाएं बनती हैं जैसे घेरना से धैरा इत्यादि । इसी प्रकार श्राई, आऊ, आव, आप श्राव प्रावह, श्रावना, भावा, ग्रास, श्राहट, इयल, ई, इया, क, एरा, ऐसा आदि अनेक प्रत्यय है, जिनके संयोग से अनेक शब्दों में अर्थ परिवर्तन होता है । हिन्दी प्रत्यय ( तद्धित ) (१) भाववाचक (२) गुणवाचक ( ३ ) अपत्य वाचक (४) कर्तृवाचक (५) न्यूनवाचक इत्यादि अनेक प्रकार के तद्धित हैं, जिनके उदाहरण क्रमशः निम्न प्रकार हैं : : (१) बुढ़ापा (२) रंगीला ( ३ ) वासुदेव ( ४ ) दूधवाला (५) खटिया जिन शब्दों या शब्दाशों का धातु के पूर्व प्रयोग होता है, उन्हें उपसगं कहते हैं । तथा जिन शब्द या शब्दाशों का प्रयोग धातु के प्रांत में होता है, वे प्रत्यय कहे जाते हैं । संस्कृत और हिन्दी में शब्द के साथ प्रत्यय का संयोग प्राय: प्रांत में होता है । प्रकृति और प्रत्यय के योग से ही शब्द का निर्माण होता है । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिल्प सम्बन्धी विश्लेषण १२९ ६ उपसर्ग ऐसे अधिकारी शब्द या शब्दांश जो मूल शब्द के प्रादि या पूर्व में जुड़कर उनका अर्थ परिवर्तन कर देते हैं, उपसर्ग कहलाते हैं। जैसे कर्म पाब्द के प्रागे सु जोड़ देने से 'सुकर्म' शब्द उपसर्ग से बना है जो, 'कर्म' शब्द का अर्थ बदल देता है । ७. समास भाषा रचना में शब्द तथा शब्दांशों का योग किसी न किसी रूप में देखने को मिलता है। दो या दो से अधिक माब्दों के योग को समास कहा जाता है । जिस प्रकार शब्द एक इकाई है, उसी प्रकार एक इकाई के रूप में जब समस्त पद का प्रयोग किया जाता है, तब वह समास कहलाता है । समास एक प्रकार से शब्दों का संक्षेपीकरण करने हेतु प्रयुक्त होता है । समास का अर्थ ही संक्षेप है। हिन्दी की समास रचना पूर्णतः संस्कृत का अनुसरण नहीं करती । यही कारण है कि हिन्दी में न तो लम्बे समास मिलते हैं पोर न बन सकते हैं । ८-६ पूर्व सर्ग-परसगं हिन्दी में संज्ञा शब्दों के रूप मिलते हैं जो संघटना के अनुसार निश्चित होते हैं । परसर्ग के पूर्व । लड़के । तथा अन्य लगभग सभी स्थानों पर । लड़का । प्रयुक्त होता है। कुछ परसर्ग सीधे संज्ञा शब्दों के पश्चाद प्रयुक्त होते हैं। अधिकतर परसों की स्थिति कारक की है। जहां पर वे भिन्न स्थिति में लक्षित होते हैं वहां वे ध्याकरणात्मक शब्द हैं। १०. ध्वनि-अर्थ पहले कहा जा चुका है कि ध्वनियां सार्थक होती हैं । समाज में भाषा का महत्त्व केवल प्रर्थ के कारण है । ध्वनियों के माध्यम से ही प्राणीमात्र भाव-प्रेषण करता है । ध्वनियों का सीधा सम्बन्ध अर्थतत्व से है । मदि वक्ता भाषा के ध्वनि संयोगों के रूप और अर्थ सादृश्य पर प्रबलंबित न रहे तो एक क्षण से दुसरे क्षण में भाव-प्रेषण प्रसंभव हो जायगा । इसलिये भाषा-जगत में केवल श्रोत्र-ग्राह्य ध्वनियों का प्ली विचार किया जाता है, जो भाषण ध्वनियों के अनुक्रम में अर्थ से सम्बद्ध होती हैं। ध्वनि और प्रयं सदा संश्लिष्ट रूप में रहते हैं, इसलिये भाषा में परिवर्तन इन्हीं दो रूपों में होता है 10 १. राबर्ट ए. हाल० : इंट्रोडक्टरी लिपिष्टिक्स, पृ० २२८ । २. ना. देवेन्द्रकुमार शास्त्री : भाषा शास्त्र तथा हिन्धी भाषा की रूपरेखा, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, पृ० १६७ । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ___ शब्द में अर्थ कहीं से प्राता नहीं है, बल्कि उसमें से ही उदभावित होता है । यथार्थ में शब्द की सत्ता अर्थ बोध में निहित है । 'मुलाब' पाब्द कहने से केवल गुलाब के फूल का ही नहीं वरन् गुलाबी रंग का भी बोध होता है। यह अर्थ बोध स्वयं शब्द में निहित है । वाक् और अर्थ दोनों ही रांप्रक्त है-एक दूसरे से अभिन्न । संस्कृत विद्वान पाणिनि ने लिखा है --.''सशधाः स्पन भावेन भवति, सः तेषामर्थः अर्थात् सभी पाद अपने भाव में रहते हैं जो उनका प्रय कहा जाता है । शब्द से, शब्द और अर्थ दोनों की प्रतीति होती है, परन्तु प्र पहले से ही सृष्टि में विद्यमान है। इसलिये शब्द अर्थ का उत्पादन न होकर ज्ञायक पा प्रतीति कराने वाला है। सक्षेप में-धान्द से अर्थ भिन्न नहीं है । जिस प्रकार शिन से शक्ति भिन्न नहीं है हमें प्रर्थ का पता शब्द से ही चलता है । शब्द से ही अर्थ समझ में आता है।' ११. मुहावरे और लोकोक्तियां रचना को अधिक सजीव एवं प्राणमान बनाने के लिये भाषा में लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग किया जाता है । साधारण वाक्यों की अपेक्षा मुहावरेवार वाक्यावनी बावकों को अत्यधिक प्रमावित करती है। कभी-कमी तो एक ही लोकोक्ति हमें लम्बी-चौड़ी व्याख्या के श्रम से बचा लेती है। अत: इस कथन में किसी भी प्रकार की अतिशयोक्ति नहीं है कि लोकोक्तियों और मुहावरों में भाव को श्रोताओं के हृदय तल तक पहुंचाकर उन्हें गुदगुदा देने तथा प्रभावित करने की अदभुत क्षमता होती है। अतः भाषा में अभिव्यंजना-कौशल, प्रगट करने के लिये अधिक से अधिक लोकोक्तियों एवं मुहावरों का प्रयोग किया जाना चाहिए । महाचरा तथा लोकोक्ति में अन्तर :-मुहावरा तथा लोकोक्ति दोनों में पर्याप्त अन्तर है । मुहावरा एक ऐसा बास्यांश है, जिसके शब्दों का साधारण अर्थ (याच्यार्थ) न लगाकर एक विशेष अर्थ (लक्ष्यार्थ) लगाया जाता है। जैसे ----वह तो पास्तीन का माप है । यहां, 'धास्तीन का सांप' ग्रास्तीन में सांप पालना नहीं है। किन्तु इस नाक्यांश का अर्थ है-एक ऐसा आदमी जो ऊपर से मित्र तथा मीतर से शत्रु हो । इस घन में कितनी अधिक लाक्षणिकना है। यह लाशगिकता सीधे-सादे शब्दों से पंदा नहीं होती। यदि कथन में चमत्कार लाना है तो मुहावरों का प्रयोग अपेक्षित है, जो भाषा को सजीव बना देते हैं। १. गिरा प्ररथ जल धोबि सम कहियत भिन्न न भिन्न । रामचरित मानस बालकांड, १८। धागाविव संपत्तो, वागर्थ प्रतिपत्त्ये। जगत् कि तिरो वरे, पार्वती परमेश्वरी । रघुवंश, १,१।। तुलसीदास रामचरित मानस, बालकांड, १८) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिल्प सम्बन्धी विश्लेषण लोकोक्ति या कलावल एक पूरा वाक्य होता है और अपनी स्वतंत्र सत्ता रखता है । इसका प्रयोग किसी कथन की पूर्ति में उदाहरण स्वरूप किया जाता है। जैसे बनावटी परहेज के लिये कहा कि गुरुवार गुणों से..' हो कथन में अधिक-चमत्कार आ जाता है। ४. अलंकार योजना अलंकार छद्र का अर्थ है शोभा बढ़ाने वाला । इसकी व्युत्पत्ति 'अलंकरोति इति अलंकार है, जो वस्तु को अल अर्थात् पर्याप्त सुन्दर बना दे, वह अलंकार है। जिस प्रकार भांति-भांति के अलंकार (माभूषण) पहनने से नारी-शरोर की शोभा बहुत बढ़ जाती है, उसी प्रकार कविता में प्रयुक्त होने वाले विशेष शब्द या उक्तियां उसके भाव को अत्यन्त नाकर्षक बना देते हैं। प्राचार्यों ने काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्मों को अलंकार कहा है-'काव्य शोभा करान् धर्मान् अलंकारान् प्रवक्षले हिन्दी के प्रसिद्ध कवि आचार्य केशवदास को तो भूषण के बिना कविता वनिता (नारी) दोनों ही अच्छी नहीं लगती थी, चाहे वे कितनी ही उमस क्यों न हों। __ "जैन कवियों की कवितामों से प्रमाणित है कि उनमें अलंकारों का प्रयोग तो हुआ है, किन्तु उनको प्रमुखता कभी नहीं दी गई । वे सदैव मूलभाव की अभिव्यक्ति में सहायक भर प्रमाणित हुए हैं । जैन कवियों का अनुप्रासों पर एकाधिकार था।" हिन्दी के जैन काव्यों में अनेक अर्थालंकारों का प्रयोग हा है। उनमें भी उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक और श्लेष में सौंदर्य अधिक है । हिन्दी के जैन कवियों की रचनाओं में रूपक अलंकारों के सुन्दर प्रयोग हुए हैं । उन्होंने उपमेय में उपमान का प्रारोप कुशलता से किया है । देखिये ___ 'मन सुना है, और भगवान जिनेन्द्र के पद पिंजड़ा। इस मन रूपी सुए ने संसार के अनेक वृक्षों के कड़वे फलों को तोड़-तोड़ कर चखा है किन्तु उनसे कुछ नहीं हुमा, फिर भी वह निश्चिन्त है । भगवान के चरण रूपी पिंजरे में नहीं बसता । काल रूपी बन-विलाब उसको ताक रहा है। वह भवसर पाते ही दाब लेगा फिर कोई न बचा सकेगा।' १. जैन डॉ. प्रेम सागर : हिन्दी अन भक्ति काव्य और कवि, प्रथम संस्करण १६६४, भारतीय ज्ञान पीठ प्रकाशन । २. मेरे मन सुमा, जिनवर पीजरे बस, यार लाद वार रे ।। संसार में बलवृक्ष सेवत, गयो काल अपार रे।।। विषयफल तिस तोड़ि वाले, कहा देख्यो सार रे ।। sto प्रेमसागर जैन : हिन्वी जैन भक्ति काव्य और कवि, प्रथम संस्करण १९६४, भारतीय ज्ञानपीठ, प्रकाशन । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व काव्य में प्रलंकार योजना का भी विशेष स्थान है । भावों की स्फुट अभि. व्यक्ति और वस्तु के उत्कर्ष एवं प्रांतीय मानचित्र या बिम्ध को अभिव्यजित करने के लिये प्रलंकार योजना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी प्रतीत होती है। यदि कल्पना भावों को जगाती है तो प्रसंकार उसे रूप प्रदान करता है । इसलिये प्राचीन प्राचा ने काव्य में प्रकार विधान की अनिवार्यता का निर्देश किया है। वास्तव में सीधी सादी बात में पाकर्षण कम दिखाई पड़ता है। अलंकार योजना में उसका चमत्कार बढ़ जाता है । इमीलिए काम्य में उसका महत्व है। मलंकारों को सीमा में नहीं बांधा जा सकता है । बात कहने के जितने ढंग होते हैं उसने ही अलंकार हो सकते हैं। प्रसंकारों में उपमा सबसे प्रधान प्रलंकार है मौर कदापित् प्रलंकारों के विकास के मूल में यही अलंकार रहा होगा । भारतीय साहित्य में ऐसा कोई काश्य न होगा जिसमें उपमा अलंकार का प्रयोग न हुआ हो । __मलंकार--विधान में कविवर बुधजन ना पांडित्य स्पष्ट रष्टि गोचर होता है । मलंकारों से तथा छन्दों की विविधता से समूचा काध भरा पड़ा है। उन्होंने तीनों ही प्रकार के अलंकारों का प्रयोग किया है। शम्दालंकारों में कविवर बुवजन ने छेकानुप्रास, वृस्यनुप्रास, बीसा, लाटानुप्रास प्रादि का एवं अर्थालंकारों में उपमा, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, रूपक, यथासंस्प, उल्लेख, तुल्योगिता प्रादि का एक उभयालंकार में संसृष्टि का प्रयोग दष्टिगत होता है। इनके अतिरिक्त भी उनकी रचनामों में अन्य अनेकों अलंकारों के सुन्दर प्रयोग पाये जाते हैं। इतने मधिक अलंकारों का प्रयोग होने पर भी उनके काव्य में रसात्मकता की कमी नहीं । कवि की यह प्राश्चर्य-जनक सफलता उनकी प्रौढ़ एवं प्रसाधारण कला-कुशलता की परिचायक है । 'बुधजन', काव्य के स्वाभाधिक स्वरूप के विकसित करने में विश्वास करते थे 1 काव्य को बाध उपकरणों द्वारा चमस्कृत करना कदाचित् वे अनावश्यक समझते थे । 'बुधजन', के भाग्य में नलकारों के प्रयोग देखिये :-- बालंकार गिरिगिरि प्रति मानिफ नहीं धन वन चंदन नाहि ।। वीप्सा सुधरसभा में यों लस, जैसे राजत भूप ।। छेकानुप्रास घनसम कुलसम घरमसम समवय मीत बनाय || लाटानुप्रास १. बुधजन सतसई : पृष्ठ २८ २६४ । २. बुधजन सतसई : पृष्ठ ३१ । २९ । ३. अधजन सतसई : पृष्ठ ४७ । ४४२ । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिल्प सम्बन्धी विश्लेषण दुराचारितिय कहिनी, किकर कर कठोर । वृत्यनुप्रास प्रतिकार जकवत हित उद्यम करें, जे हैं चतुर बिसेखि ॥ उपमा सत्यदीप बादी क्षमा, सील तेल संजोय ।। रूपक भलाकिये करि है बुरा, दुर्जन सहज सुभाय । पय पाये विष देत है, फणी महा दुखदाय ।। ष्टान्त जैसी संगति कीजिये, तैसा हूँ परिनाम । तीर गहें तार्क तुरत, माला ते ले नाम ॥ अन्तरन्यास उभयालंकार नीतिवान नीति न सजे, सहैं भूख तिसत्रास । ज्यों हंसा मुक्ता बिना, वनसर करें निवास । (लाटानुप्रास, छेकानुप्रास, इष्टान्त की संसृष्टि) ५. छन्द-योजना वि० संवत् १६:: PROFIो हनी-मर सपो ने औसका एवम् मात्रिक दोनों ही प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है । अनूदित ग्रन्थों में वगिक का और मौलिक ग्रन्थों में मात्रिक छन्दों का प्रयोग है । दोहा, सया, चौगाई, कवित इन मात्रिक छन्दों का विशेष प्रयोग हुमा है । धनाक्षरी मादि का भी प्रयोग हुमा 'बुश्वजन विलास' में कवि ने सर्वाधिक छन्दों का प्रयोग किया है, जिनका उल्लेख द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। विधान, छन्द, शैली अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'पुषजन सतसई' में कवि ने मुक्तक दोहों का प्रयोग किया है । छन्दशास्त्र की एष्टि से ये दोहे प्रायः निर्दोष हैं । सामान्यतः तथ्य-निरूपक शली का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है। उपदेशात्मक तथा शब्दावतंक शैलियां दिखाई तो देती हैं, परन्तु बहुत कम है ।। १. बुधजन सतसई : पृष्ठ ३४ । ३१६ । २. बुधजन सतसई : पृष्ठ २७ । २५१ । ३. बुधजन सतसई : पृष्ठ २२ । २०० । ४. अषजन सतसई : पृष्ठ १२ । १०४ । ५. बुधजन सतसई : पृष्ठ ३४ । ३१६ । दुषजम सतसा : पृष्ठ ३५ । ३२० । जैन डॉ. प्रेमसागर : हिन्बी जैम भक्ति काग्य और कपि, पृष्ठ ४३५, प्रथम संस्करण, १९६४, भारतीय शासपीठ, प्रकाशन । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व जिस प्रकार संस्कृत में श्लोक को, प्राकृत भाषा में गाया को, अपभ्रश भाषा में दूहा को मुख्य छन्द माना गया है । उसी प्रकार हिन्दी में 'दोहा बन्द को प्रमुखता दी गई है । जैन कवियों ने दोहा बन्द का प्रयोग अपनी माध्यात्मिक रचनात्रों में किया है । १६वीं शताब्दी के पाण्डे रूपचन्द धादि ने, १७वीं शताब्दी के पाण्डे हेमराज नादि ने, १६ वीं शताब्दी के गमग 'प्रादि वी शताबी के 'बुधजन प्रादि कवियों ने इस छन्द का प्रयोग अपनी प्राध्यात्मिक एवं नीति–परक रचनाओं में किया है । आपने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'बुधजन सतसई' में इस छन्द का इतना सफल प्रयोग किया है कि उस काल का अन्य कोई कवि अपनी सफलता से उसकार प्रयोग नहीं कर सका । जन्होंने सम्पूर्ण ग्रन्थ ही दोहा छन्द में लिखा है। 'बधजन सतसई के अतिरिक्त अपनी अन्य रचनामों में कवि ने चौपाई कवित, सया, दोहा, छप्पय, धनाक्षरी, फागु पद प्रादि अनेकों छन्दों का सफल प्रयोग किया है । रचनाओं की भाषा सरन और प्रवाह पूर्ण है। अनेक नये-नये छन्द, नयी-नयी राग-रागिनियों में प्रयुक्त किये गये हैं । इस दिशा में कषि की मौलिकता प्रशंसनीय है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड तुलनात्मक अध्ययन (१) हिन्दी साहित्य के विकास में कविवर सुधजन का योग अपभ्रंश तथा लोक साहित्य को विभिन्न विधानों से सामान्यतः हिन्दी साहित्य प्रभावित हुआ । जन व व्रज और राजस्थानी में प्रबन्ध काव्य और मुक्तक काव्यों की रचना करने में संलग्न रहे । इतना ही नहीं वे मानव जीवन की विभिन्न समस्याओं का समाधान करते हुए काव्य रचना में प्रवृत्त रहे । जन-सामान्य के लिये यह साहित्य पूर्णतया उपयोगी है । इसमें सुन्दर प्रात्म-पीयूप-रस छल छलाता है और मानव को उन भावनांगों तथा अनुभूतियों को अभिव्यक्ति प्रदान की गई हैजो समाज के लिये संघल हैं और जिनके प्राधार पर ही समाज का संघटन, संशोधन तथा संस्करण होता है। हिन्दी साहित्य के प्रादिकाल का यदि पुनः सर्वेक्षण हो तो वह जन कवियों की रचनानों के प्राधार पर ही किया जा सकता है। क्योंकि जैन कवियों ने गौतमरासा, मप्तक्षेत्र रासा, पशोधर रासा, धनपाल रासा, सम्यक्तत्व रासा, नेमीश्वर रासा आदि अनेक रासा प्रब उस काल में लिखे थे । भारतीय साहित्य के मध्यकाल पर यदि विचार करें, तो यह काल भी कान्य सृजन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माना गया है । इस युग में भी जन कवियों ने जो भी लिला, वह मात्र 'कला के लिये फला का आयोजन नहीं था परन् उसमें तात्कालिक जन-जीवन भी स्पंदित था। इन कवियों ने कवि रष्टि के साथ संस्कृति, नीति और धर्म को भी अपने काव्य की प्रमुख भूमि बनाया और साहित्य की रचना की जिसने जनजीवन को ऊया उठाया और श्रममा संस्कृति की निर्मलतानों को उजागर किया । लोक जीवन के जिस चारित्रिक धरातल पर जैन कवियों ने साहित्यिक रचनाए' की, उनसे न केवल जैन समाज उपकृत हया वरन् सम्पूर्ण भारतीय समाज उपकृत हा। हन फवियों ने अपनी रचनाओं के द्वारा हमारे जीवन को उन्नत बनाया । मानव को पशुता से मनुष्यता की प्रोर ले जाना ही जन कवियों का लक्ष्य रहा है । जैन कवियों ने साहित्य को कलाबाजी कभी नहीं माना । जनका साहित्य गुण और परिमा दोनों ही दृष्टियों से महान है । संस्कृत, प्राकृत, वनड़, तमिल, गुजराती, मराठी, Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व राजस्थानी, ब्रजभाषा प्रभृति भारत की समस्त प्रादेशिक भाषानों में जैनाचार्य और बैन कवियों ने साहित्य का सृजन किया । सम्पग जैन साहित्य अभी तक प्रकाश में नहीं पाया है। जिसने ग्य प्रकाश में आये हैं, उनसे कहीं अधिक संख्या में जैन भाण्डागारों में अद्यावधि प्रप्रकाशित दशा में हैं। ___ हिन्दी जन साहित्य के अवलोकन से यह स्पष्ट हो जाता है कि 'दि जैन साहित्य में हिन्दी प्रन्थों की संख्या भी बहुत अधिक है। विगत तीन सौ वर्षों में अधिकांस अन्य हिन्दी में ही रचे गये हैं। जैन-श्रावक के लिये न्याध्याय करना मावश्यक है । अतः जन साधारण की भाषा में जिनवाणी को निबद्ध करने की चेष्टा प्रारम्भ से ही होती पाई है। इसी से हिन्दी जन साहित्य में गवग्रम्प बहुतायत से पाये जाते हैं। सोलहती द र दिन-प्र जन साहित्य में उपलब्ध हैं और इसीलिए हिन्दी भाषा के क्रमिक विकास का प्रध्यमन करने वालों के लिये ये बड़े काम के हैं।। अालोच्य काल में संस्कृत, और अपभ्रंश भाषा के ग्रंथों का हिन्दी गद्य में अनुवाद हुमा । अनुवाद का यह कार्य सर्व प्रथम जयपुर के विद्वानों ने बढारी भाषा में प्रारम्भ किया था । माज भी उनके अनुवाद उसी रूप में पाये जाते हैं। जैन कवियों ने केवल अनुवाद ही नहीं किये, किन्तु स्वतन्त्र रूप से भी हिन्दी और पद्य दोनों में रचनाएं की। गद्य साहित्य में पंडित प्रवरमल का 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' पं० दौलतराम की पद्मपुराण की बचानका प्रादि प्रसिद्ध ग्रंथ है। पद्य-साहित्य में पं० दौलतराम छह डाला, कविवर बुधजन की छहढाला व बुधजन सतसई, मादि जैन साहित्य की प्रमूल्य-निधि है। इनके अतिरिक्त पं० सदासुख, घानत राय, मंया भगवतीदास, पं० जयचन्द छाबड़ा, भूधरदास प्रादि विद्वानों ने अपने समय की भाषा में गा एवं पद्य अथवा दोनों में पर्याप्त रचनाएं की। 'बुधजन साहित्य में यों तो सभी रस यथास्थान अभिव्यजित हुए हैं, पर मुख्यता शान्त-रस की है । कवि की मूल भावना अध्यात्म-प्रधान है। वह संसार से बिरक्ति भौर मुक्ति से मनुरक्ति की प्रेरणा देती है। शान्त रस का स्थायी भाव निवेद है। यही कारण है कि प्रत्येक काव्य का प्रन्स शान्त रसात्मक ही है । शुगार रस सर्वथा नहीं है, ऐसी बात नहीं है' 12 १. पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री : जैन धर्म, पृ० सं० २५६, चतुर्म संस्करण, १९६६, भा० वि० जन संघ, धौरासी, मधुरा।। २. डॉ० नरेन्द्र भानावत : 'जिनवारणी' पत्रिका, वर्ष ३२, मक ४-७, जयपुर । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक अध्ययन गीतिकाव्य के क्षेत्र में भी बुधजन का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उनके सम्पूर्ण पद गेय हैं, जिनमें हृदय का मार्मिक स्पंदन माधुर्य से अनुप्राणित है । उन्होंने भाषा को अपने प्रकृत रूप में ही प्रभावशाली बनाया । उनके साहित्य में पाडंबरों के लिये अाग्रह नहीं है । उनके साहित्य में मौलिक चेतना तरंगित होती है । गम्भीर-चिंतन, समुन्नत हादिक प्रसार, कबि की रचनामों में उपलब्ध है । वैसे तो हिन्दी साहित्य का निर्माण वि० सं० १६० से प्रारम्भ हुमा। एक जैन कवि ने इसका प्रारम्भ किया था । वह सतत चलता रहा। जैन कवि लिखते रहे। उन्होंने जो कुछ लिखा उनमें थोड़ा या बहुत मक्ति का अंश अवश्य था । अत: मध्यकाल में वि० सं० १००० से १६०० तक हिन्दी साहित्य में भी जन भक्ति धारा चलती रही । इस काल में बनारसीदास, भूधरदास, प्रानन्दघन, दौलतराम मादि के समान अधजन ने मी भक्ति-रस-पूर्ण रचनाएं की हैं जो जन जगत में अत्यधिक लोकप्रिय हैं । इस प्रकार की रचनामों में बुधजन" का एकमात्र लक्ष्य रहा है कि मनुष्य केवल लोकिक विषय-वासनानों में प्रासत न रहे। किन्तु अपनी पहिचानकर, अपनी उन्नति का प्रयत्न करे। उन्होंने जितनी भी रचनाएं की हैं उनके पीछे उनका कोई स्वार्थ नहीं रहा । वे साधारण गृहस्थ थे उन्होंने जो कुछ लिखा स्वान्तः सुखाय ही लिखा । रीतिकाल के कवि होते हुए भी उन्होने नायिकानों के नख शिख का वर्णन रंचमात्र भी नहीं किया । यह उनकी बहुत बड़ी विशेषता कही जा सकती है। 'मध्ययग के साहित्यिक काटियों ने हिन्दी भाषा में जिस भावधारा का ऐश्वर्य विस्तार किया है उसमें असाधारण विशेषता पाई जाती है । यह विशेषता यह है कि उनकी रचनात्रों में उच्च कोटि के साधक एवं कवियों का एकत्र सम्मिश्रण हुमा है। इस प्रकार का सम्मिलन दुर्लभ है ।' जीवन-व्यापिनी सापना तथा साहित्य-साधना को हम भिन्न-भिन्न रूपों में लक्षित नहीं कर सकते हैं । क्योंकि मध्य-युगीन हिन्दी कवियों में अधिकतर ऐसे ही सन्त कवि हुए हैं, जिनकी वैयक्तिक साधना ने ही उनके साहित्यिक जीवन का निर्माण किया और साधना की जीवन्त-धारा ही साहित्य-बनकर स्फुटित हुई। अध्यात्म की एक पोर पूर्ण झुकाव होने के कारण बुधजन भी सन्त कवि के समान थे । एक सन्त-साधक थे और उनकी साधना ही उनके साहित्य की पीयूष धारा है। 'इस प्रकार मध्य युगीन साहित्य में स्वतः उत, बहुमुखी, साहित्यिक भावधाराएं प्रसारित हुई । जिनमें तात्कालिक जन-जीवन अत्यधिक प्रभावित हुआ । सांसारिक नश्वर सुख-दुख की परिधि से उसका हृदय कपर उठा, उसने बड़े शान्त १. अनेकान्त वर्ष १६ : किरण ६, फरवरी १९६७, पृ० सं० ३४६ । २. डॉ० हजारी प्रसाद विवेवीः हिन्दी साहित्य, पृ० ५७ । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर चुमलत: व्यक्तित्व एवं कृतित्व भाव से परिस्थितियों से समन्वय' किया तथा भक्तिपरक जीवन की मोर अग्रसर हुप्रा ।। कविवर बुधजन जयपुर के निवासी थे । मत: उनकी समस्त रचनाओं में हूढारी भाषा का प्राधान्य है । कवि की १४ रचनाएं अभी तक उपलब्ध हो सकी हैं। उनकी सभी रचनाएं भाव और भाषा की दृष्टि से उपादेय हैं। कवि बाह्य संसार से अनासक्त प्रतीत होते हैं । ऐसा लगता है साहित्य रचना करते समय कवि ने अन्तर्मन से अधिक प्रेरणा प्राप्त की है। चम-चक्षुषों की अपेक्षा कवि के मानसचक्षु अधिक उबुद्ध प्रतीत होते हैं। आत्मानुभूति का परिचय ही विशेष रूप से दिखाई देता है । ऐग लगता है कि कवि ने प्रात्म-शान्ति की प्राप्ति के लिये ही रचनाएं की हैं। कवि हिन्दी साहित्य में अध्यात्म स्रष्टा के रूप में प्रकट हुपा है। जहां हम प्रन्यान्य प्रकार की रचनामों को महत्व देते हैं, वहां हमें इन प्रध्यात्म स्रष्टा कलाकारों की रचनामों को भी महत्व प्रदान करना होगा। हमें यह स्वीकार करने में तनिक भी संकोच नहीं होता कि बुधजन जैसे जैन कवियों के साहित्य के अध्ययन और स्वाध्याय से कुछ समय के लिये सांसारिक विषमतामों को भूलाया जा सकता है। पाठक के समक्ष प्रादर्थ का ऐसा मनोरम चित्र उपस्थित होता है जिससे वह अपनी कुत्सित वृत्तियों से जीवन को परिष्कृत करने के लिये दृढ़ संकल्प कर लेता है । जीवन को परिष्कृत करने की जितनी क्षमता जन साहित्य में है, उतनी लोकग्राही शक्ति भी विद्यमान है। साहित्य मानव मात्र की सौंदर्य विपासा, चारित्रिक उत्थान एवं जीवन-निर्माण के करने में उपादेय है। जन साहित्य स्रप्टानों ने अखंड चैतन्य प्रानन्द रूप प्रात्मा का अपने अन्तस में साक्षात्कार किया और साहित्य में उसी की अनुभूति को मूर्तरूप प्रदान कर सौंदर्य के शास्वत प्रकाश की रेस्त्रामों द्वारा वाणी का चित्र नकित किया है । जिस जैन समाज पर ऐसे ऋवियों के साहित्य को प्रकाश में लाने का उत्तर-दायित्व है । वे इस योर सचेष्ट प्रतीत नहीं होते । इससे भी अधिक परिताप का विषय यह है कि हिन्दी साहित्य के विकास में जिनका पर्याप्त योगदान रहा है । ऐसे कविवर वनारसीदास, पानतराय, दौलतराम, भूधरदास, भागचन्द, बुधजन आदि के विषय में हिन्दी के साहित्यकार भी मौन हैं । इनमें से अधिकतर वावियों का हिन्दी साहित्य के इतिहास में नामोल्लस्त्र तक नहीं है । बुधजन भी एक ऐसे कवि हैं, जिनका हिन्दी साहित्य के इतिहास में उल्लेख नहीं है। किन्तु इनकी "सतसई" एक अमर रचना है जो हिन्दी को दीर्घ परंपराओं को सहेजे हुए हैं। उसमें लोक की रीति-नीतियों का जो वर्णन किया गया है, यह अनपम है । उसी को लक्ष्यकर संभवतः कहा गया है कि 'जैन साहित्य की विशेषता १. सुखदेव मिथ हिन्दी साहित्य का प्रभाव, पृ० १६३-६४ । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक अध्ययन यह है कि विवेक उसका पथ-प्रदर्शन करता है और उसके भावों को अनुप्रारिणत करने वाली विश्वप्रेम पूरफ अहिंसा है। इनके ही समकालीन जैन कवियों में पं. दोलत राम, पन सुखदास, पारसदास, जवाहरलाल, जयचन्द, महाचन्द के नाम तो उल्लेखीय है ही। इन को अतिरिक्त कवि नथमल बिलाला, नयनसुख दास, रूपचंद परिय, जगजीवन, धर्मदास, कुयरपाल, सालिवाहन, नंदक नि, होरान, बुलाकीवास भोर जगतराम नादि भी हैं। इन कवियों की संवाद सौ के लगभग ही जाती है। उन राबका उल्लेख करना यहां सचित नहीं। (२) शुषजन माहित्य में प्रतिपादित प्राध्यात्मिक एवं दार्शनिक तत्व ___वस्तुत: जैनधर्म निवृत्ति-मूलक प्रवृत्ति मार्ग है । पर इसका यह अर्थ नहीं कि इसमें प्रवृत्ति के लिये यत्किंचित् भी स्थान नहीं । वस्तुतः प्रवृत्ति कचित् निवृत्ति की पूरफ है । अशुभ मौर शुभ से निवृत्ति होकर जीव की शुद्ध प्रारम-स्वरूप में प्रति हो, यह इसका अंतिम लक्ष्य हैं । इसका अपना दर्शन है जो प्रात्मा की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करता है । प्राचार्य कुदकुद समग्रसार में पर से भिन्न प्रात्मा की पृथक सत्ता का मनोरम चित्र उपस्थित करते हुए कहते हैं कि ग्रहो प्रास्मन् ! झन दर्शन स्वरूप तू अपने पापको स्वतंत्र मौर एकाकी अनुभव कर । विश्व में तेरे दायें-बायें, प्रागे-पीछे, ऊपर-नीचे पुद्गल की जो अनंत राशि दिखलाई देती है. उसमें मणमात्र भी तेरा नहीं है । वह सब जड़ है और तू चेतन है यह सब अविनाशी पद का धारी है। उसके साथ सम्बन्ध स्थापित कर तुने खोया ही है, कुछ पाया नहीं । संमार खोने का मार्ग है । प्राप्त करने का मार्ग इससे भिन्न है, यह अध्यात्म का मार्ग है । ___ 'कविध र बुधजन ने अपने साहित्य में प्रतिपादित किया है कि जन धर्म ने प्रत्येक प्रात्मा की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करके व्यक्ति स्वातंत्र्य के आधार पर उसके बंधन से मुक्त होने का निर्देश किया है। उसने प्रत्येक प्रात्मा को स्वावलंबी बनने का उपाय बताया है । स्वायनं ही सुबी है और परावलंबी दुःखी है | स्वावलंबी बनने के लिये अपने शुद्ध स्वरूप को समझने की आवश्यकता है । प्रात्म-शक्तियों का परिचयज्ञान ही मनुष्य को स्वावलंबी बनाता है । अनादि काल से यह जीव पर का अवलंबन लेता रहा है। एक बार, स्वावलंबन की झलक भी इसने नहीं देखी। हां ! यदि प्रयत्न करे, ग्रात्म-शक्तियों को पहिचान ले तो स्वावलंबी हो सकता है । जब तक यह जीव भौतिकवाद में भटकता रहेगा तब तक उसे सुख-शान्ति और संतोष की प्राप्ति नहीं हो सकती। कधि बुध जन, ग्रन्थों में यही प्रतिपादित करते हैं, कि भोगवादी १. बाबू कामता प्रसाद : हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, प्रथम संस्करल, १९७७ पृ०सं० १७, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व दृष्टिकोण संप तक श्राकुलता है तब तक दुःख है । स्वावलंबी व्यक्ति केवल भ्रात्मगुणों का अवलंबन करता है । स्वका अवलंबन करना यानी श्रात्मगुणों का अवलंबन करना और इनसे भिन्न राग द्वेषादि, शरीरादि, धनादि का अवलंबन छोड़ना, यही सुखी होने की प्रध्यर्थं भौषधी है । जेन संस्कृति का लक्ष्य हो जीव को स्वावलंबी बनाना है । मानव स्वावलबी कैसे बने, इसका रहस्योदघाटन इसमें किया गया है । तत्व-चिंतन और जीवन-शोधन ये दो जैन साहित्य के मूलाधार हैं । भ्रात्म-शोधन में सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान के साथ सदाचार का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन धर्म सदाचार, अहिंसा, सत्य, अधीर्य, ब्रह्मचयं और अपरिग्रह रूप है। प्रत्येक श्रात्मा का स्वतंत्र अस्तित्व है । प्रत्येक श्रात्मा - राग द्वेष एवं कर्ममल से अशुद्ध है पर वह पुरुषार्थ से शुद्ध हो सकता है। प्रत्येक श्रात्मा परमात्मा बनने की क्षमता रखती है । जैन दर्शन निवृत्ति प्रधान प्रवृत्ति मार्ग है । रत्नत्रय ही प्रवृत्ति मार्ग है । सात तत्वों को श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है । आत्मा को तीन अवस्थाएं होती हैं, (१) बहिरात्मा (२) अन्तरात्मा ( ३ ) परमात्मा । जो शरीर और श्रात्मा को एक मानता है वह मिथ्यावादी, अज्ञानी बहिरात्मा है। जिसने शरीर आदि से भिन्न आत्मा को जाना है ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव अन्तरात्मा है । प्रन्तरात्मा के उत्तम, मध्यम, जघन्य ऐसे तीन भेद किये गये हैं । अरहंत एवं सिद्ध जीव परमात्मा कहलाते है । यह मानव जीवन बड़ा ही दुर्लभ है । मानव जीवन की दुर्लभता एवं उसकी उपयोगिता के सम्बन्ध में कवि का निम्न पद देखिये : नरभवाय फेरि दुःख भरना, ऐसा काज न करना हो । नाहक ममत ठानि पुद्गल सों, करम जाल क्यों परना हो ॥ १ ॥ यह तो जड़ तू ज्ञान रूपी, तिलतुषज्यों गुरु वरना हो रागद्वेष तजि, भज समता को, कर्म साथ के हरना हो ॥ २ ॥ यो भवपाय विषय सुख सेना, गजचढ़ि ईंधन कोना हो । बुधजन समुझि सेय जिनवर पद, जो भव सागर तरना हो ||३|| नर भव पाय फेरि दुःख भरना, ऐसा काज न करना हो ॥ १. जिनयर सिद्ध परमातम । सम्यक्ती सौ अन्तर प्रातम | बहिरात मिथ्या ज्ञानी । त्रिविध मात्मा कहे सुनामी ॥ ८२ ॥ बुधजन: तत्वार्थबोध, पृ० संख्या २२, पद्म संख्या ८२ प्रकाशक: कन्हैयालाल गंगवाल, लश्कर | Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक अध्ययन १४१ मानया जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण की प्राप्ति है। उसकी प्राप्ति पूर्ण प्रहिंसक बनने पर ही हो सकती है। ___ कविधर बुधजन ने अपने साहित्य में अनेक माध्यारिमक एवं दार्शनिक सिद्धान्तों का सरल भाषा में वर्णन किया है । वे प्रमाण, नम और निक्षेप का अपने प्रसिद्ध अन्य तत्वार्थ कध एव पधान्तिकाय माषा मे बड़ी ही सूक्ष्मता एवं स्पष्टता के साथ वर्णन करते हैं : नय-प्रमाण द्वारा जाने गये पदार्थ के एक प्रश को जानने वाला ज्ञान प्रमाण-वस्तु के समस्त प्रशों को जानने वाला ज्ञान प्रमाण है। नय को विशेष रूप से समझाते हुए कवि ने विविध दृष्टान्तों का प्रयोग किया है । ये नय के मुख्य दो भेद करते है-द्रव्याश्रिवा नय और पर्यायाथिक नय । च्यार्थिक नय-द्रव्य को विषय करने वाताध्याथिका रवं चयनि मन की पिच करत या पयायाथिक नय है । द्रष्याथिक नय के १. भेद हैं-(१) पर उपाधि-निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यायिक नय, जैसे-संसारी जीव सिद्ध के समान शुद्ध है (२) ससा-ग्राहक शुद्ध दध्यापिक नय, जैसे जीव नित्य है । (३) भेद कल्पना निरपेक्ष शुद्ध नव्याथिक नय, जैसे-टूक्ष्म अपने गुण पर्याय स्वरूप होने से भिन्न है । (४) पर उपाधि सापेक्ष प्रशुद्ध द्रव्याथिक नय, जैसे--प्रात्मा कर्मोदय से क्रोध, मान मादि भाव रूप है । (५) उत्पाद व्यय सापेक्ष अशुद्ध प्रघ्याथिक नप, जैसे—एक ही समय में उत्पाद, व्यय, धौम्य रूप है। (६) भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नय, जैसे-पात्मा के ज्ञान दर्शन आधि गुण है । (७) अन्त्यम द्रव्याथिक नय, जैसे-द्रव्य गुण पर्याय-स्वभाव है। (८) स्वचतुष्टय प्राहक द्रव्याथिक नय, जैसे-स्वद्रष्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा द्रव्य है। (२) परचतुष्टय मादक द्रव्यार्थिक नय, जैसे पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा द्रव्य नहीं है (१०) परमभाव ग्राहक द्रव्याथिक चय, जैसे-पारमा ज्ञान स्वरूप है। इसी प्रकार पर्यायाथिक नय के ६ भेद बतलाये हैं १-प्रनादि नित्य पर्यायाथिक ! जैसे सुमेरुपर्वत प्रादि पुदगल पर्याय नित्य है । २-सादि नित्य पर्यायाथिक नय-जैसे सिद्ध पर्याय नित्य है । ३-उत्पादब्यय ग्राहक पर्यायाथिक नय । जैसे पाय क्षण क्षरण में नष्ट होती है । ४-सत्ता सापेक्ष पर्यायाथिक नय । जैसे-पाय एक १. सफलश परमाए है। नय एक देश प्रमान | विम सापेक्षानय मिथ्या, सापेक्षा सत्तिमान । सुधजनः तरवार्थबोध, पद्य सं० २० पृ. सं. १५ प्रकाशक कन्हैयालाल गंगवाल लश्कर, प्रकाशन । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्विर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ही समय में उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप है। ५-पर उपाधि तिरपेक्ष शव पर्यायाथिक मय-जैसे संसारी जीवों की पर्याय सिद्ध भगवान के समान शुद्ध है । ६-पर उपाधि सापेक्ष प्रशुश पर्यायाथिक नय' । जैसे-संसारी जीवों के जन्म मरण होते हैं । संकल्प मात्र से पदार्थ को जानने वाला नंगम नय है । उसके तीन भेद है-- १-भूत, २-भावी, ३-पतमान । भूतकाल में वर्तमान का भारोपण करना मत नैगम नय है। जैसे दीपावली के दिन कहना कि-माज भगवान महावीर मुवत हुए हैं । भविष्य का वर्तमान में पारोपण करना भावी नैगम नय है । जैसे अरहंत भगवान को सिद्ध कहना । प्रारंभ किये हुए कार्य को सम्पन्न हुया काहना दर्तमान नैगम मय है। जैसे-दूल्हे में अग्नि जलाते समय यों कहना कि मैं चावल बना रहा हूँ । पदार्थों को संग्रहीत (इकट्ठे) रूप से जानने वाला संग्रहनय है। इसके दो भेद हैं-सामान्य संग्रह- से समस्त पदार्थ द्रश्यत्व की प्रपेक्षा समान हैं। परस्पर प्रविरोधी हैं । २-विशेष संग्रह-जैसे समस्त जीव जीवत्व की अपेक्षा समान हैं । परस्पर विरोधी है। संग्रह तय के द्वारा जाने गये विषय को विधि पूर्वक भेद करके जानना व्यवहार नय है । इसके दो भेद हैं-सामान्य व्यवहार जैसे पदार्थ दो प्रकार के हैं १ जीव २ अजीब । विशेष व्यवहार नय-जैसे जीव दो प्रकार के हैं । १ संसारी, २ मुक्त । ___ वर्तमान काल को ग्रहण करने वाला ऋजुसूत्र नय है । इसके भी दो भेद हैं। १ सूक्ष्म ऋजु सूत्र । जैसे पर्याय एक समययती है । २ स्थूस ऋजु सूत्र । जैसे–मनुष्य प्रादि पर्याय को जन्म से मरण तक प्रायु भर जानना । संख्या, लिंग मादि का व्यभिचार दूर करके शब्द के द्वारा पदार्थ को ग्रहण करना । जैसे-अभिन्न लिंग बाची दार (पु०) भार्या (स्त्री०) कला (10) प्राब्दों के द्वारा स्थी का ग्रहण होना । एक शब्द के अनेक अर्थ होने पर भी किसी प्रसिद्ध एक रूढ़े अर्थ को ही शब्द द्वारा ग्रहण करना । जैसे-गो शब्द के पृथ्वी वाणी, कटाक्ष, किरण, गाय प्रादि अनेक अर्थ है फिर भी गो शब्द को ही जानना ।। शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार उसी क्रिया में परिणत पदार्थ को उस शब्द द्वारा ग्रहण करना एवंमूत नय है। जैसे गति इति गो (जो चलती हो सो गाय है) इस व्युत्पत्ति के अनुसार चलते समय ही गाय को गो पाद से जानना एवंभूत नय है । नय की शाखा को उपनय कहते हैं। उपनय के ३ भेद हैं-१ सद्भूत व्यवहारनय २ ससद्भूत व्यवहारनय ३ उपचरित प्रसदभूत व्यवहारनय । __ सद्भूत व्यबहारनय के दो भेद हैं-१ शुद्ध सद्भुत व्यबहार नय-जो शुद्ध गुण गुली, शुद्ध पर्याय पर्यायो का भेद कथन करे जैसे सिद्धों के केवल ज्ञान दर्शन प्रादि गुण हैं । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक अध्ययन १४३ २-अशुद्ध सद्भूत व्यवहारनय जो अशुद्ध गुण गुणी तथा श्रशुद्ध पर्याय पर्यायी का भेद बन करे – जैसे संसारी श्रात्मा की मनुष्य आदि पर्याय है । श्रसद्भूत व्यवहार नय के ३ भेद है- १ बजाति श्रसद्भूत व्यवहारनयपरमाणु बहु‍देशी है । २ विजाति पर जैसे प्रतिज्ञान मूर्तिक पदार्थ से उत्पन्न होता है ऐसा कहना । ३ स्वजाति विजाति असदभूत व्यवहारनय जैसे ज्ञ ेय (ज्ञान के विषयभूत ) जीव प्रजोष में ज्ञान है क्योंकि वह ज्ञान का विषय है ऐसा कहना | उपचरित प्रसद्भूत व्यवहारनय के भी ३ भेद है । १ स्वजाति उपचरित प्रसद्भूत व्यवहार - जैसे पुत्र, स्त्रीश्रादि मेरे हैं । २ विजाति उपचरित प्रसभूत व्यवहारनय-- जैसे मकान, वस्त्र आदि पदार्थ मेरे हैं । ३ स्वजाति विजाति उप-चरित प्रसद्भूत व्यवहार--जैसे नगर देश मेरा है। नगर में रहने वाले मनुष्य स्वजाति ( चेतन ) हैं । मकान वस्त्र प्रावि विजाति ( प्रचेतन ) हैं | नय के दो भेद और भी किये गये हैं- १ निश्चय २ व्यवहार । जो प्रभेदोपचार से पदार्थं को जानता है वह निश्चयतय है— जैसे श्रात्मा शुद्ध, बुद्ध, निरंजन है । जो मेदोपचार से पदार्थ को जानता है वह व्यवहारमय है जैसे जीव के ज्ञान आदि गुण हैं | प्रकारान्तर से भी कवि ने इन दोनों नयों का स्वरूप बताया है । जो पदार्थ के शुद्ध प्रदेश का प्रतिपादन करता है वह निश्चय नय है, जैसे जो अपने चेतन प्राण से सदा जीवित रहता है वह जीव है । जो पदार्थ के मिश्रित रूप का प्रतिपादन करता है वह व्यवहारनव है। जैसे- जिसमें इन्द्रिय ५, बल ३, प्रायु और श्वासोच्छवास ये यथायोग्य १० प्राण पाये जाते हैं, या जो इन भागों से जीता है वह जीब है । वस्तुतः नय आंशिक ज्ञान रूप है अतः वे सभी सत्य होते हैं जबकि वे अन्य नयों की अपेक्षा रखते हैं। यदि वे अन्य नयों की अपेक्षा न रखें तो वे मिथ्या कहलाते हैं । कहा भी है " सापेक्ष्य नय सत्म होते हैं और निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं प्रयोजन दोनों नयों का प्रयोजन आत्मा को जानने का है जैसे शरीर में प्रोत्र, नाक, कान दो-दो हैं पर जिल्हा जिससे स्वाद लेते हैं बहु एक ही है। आत्मानुभव के समय तत्वों का स्वाद लेने में दोनों नयों की अपेक्षा नहीं है। एक नव वस्तु स्वरूप को नहीं बताता | निश्चयन केवल एक नय है और व्यवहार नय भी एक नम है यतः किसी भी नय के प्रति पक्षपात नहीं करना चाहिए । नय छोड़ना नहीं पड़ते, छूट जाते हैं । अतः नयों के विषय में पक्षपात करना या उन्हें विवाद का विषय बनाना उचित नहीं । सप्ततत्व एवं षद्रव्य Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर सप्लतत्व - विवेचन में अन्य दार्शनिकों की भांति कविवर बुधजन ने भी इनका सूक्ष्म एवं विशद विवेचन किया है - कषि ने तत्वार्थबोध में पृष्ठ संख्या २६ से पृष्ठ संख्या ५२ तक उपरोक्त विषय का ही स्पष्टीकरण किया है । १४४ बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व 'जीव, जीव, श्राश्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये सात तब हैं। इनका श्रद्वान करने वाला सम्यग्दृष्टि हैं ।" इन लवों की यथार्थता के सम्बन्ध में डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री लिखते हैं: - 'यह यथार्थ है कि जैन दर्शन का विकास मात्र तत्वज्ञान की भूमि पर न होकर याचार की भूमि पर हुआ है । जीवन शोधन की व्यक्तिगत मुक्ति प्रक्रिया और समाज तथा विश्व में शान्ति स्थापना को लोकेषणा का मूलमंत्र हिंसा है श्रतः मुमुक्षु के दुःखों से निवृत्ति प्राप्त करने के लिये तत्वज्ञान की आवश्यकता है। प्रयोजनीभूत तस्व सास हैं : – (१) जीव ( २ ) अजीब (३) श्राश्रव (४) बंध ( ५ ) संकर (६) निर्जरा (७) मोर । पु और एप से दोनी व ही के होने के कारण प्रथक् तत्व रूप में परिगणित नहीं हैं। इनको अलग मानने से तो पदार्थ हो जाते हैं ।' जीव तस्व- जो भूतकाल में जीता था, वर्तमान में जीता है और भविष्य काल में जीता रहेगा, जिसका कभी नाश नहीं होता। जैसे अग्नि में उष्शाता है उसी प्रकार जीव में चेतना गुरण है | वह चेतना गुरु कवि बुधजन के विचार से सीन प्रकार का होता है१. ज्ञान चेतना २ कर्म चेतना, ३ कर्मफल चेतना । सिद्ध श्रात्मानों में एवं सम्यग्दृष्टि जीवों में ज्ञान चेतना पाई जाती है। राग द्वेष की प्रधानता वाले यस जीव कर्म चेतना सम्बन्ध वाले है तथा स्थावर जीव कर्मफल चेतना युक्त हैं । वह अमूर्तिक है | चेतनागुरण संयुक्त है । कर्ता है, भोक्ता है, शरीर प्रभारण है, ऊर्ध्वगामी और उत्पाद व्यय तथा श्रीष्य युक्त है । श्रात्मा (जीव ) में वीतरागता, चेतना, शान, दर्शन, सुख, वीर्यं श्रादि गुण विद्यमान हैं। पर संयोग से राग, द्वेष, तृष्णा, दुःख श्रादि विकार आत्मा में निहित है । श्रतः श्रात्मा के यथार्थ स्वरूप द्वारा ही विकारी और पर संयोगी प्रवृत्ति को दूरकर उसे युद्ध और निर्मल बनाया जा सकता है । १. डॉ० सुरेन्द्रनाथ दास गुप्त ने जीव तत्व का विश्लेषण करते हुए लिखा है:'यह स्मरणीय है कि जैनों के अनुसार आत्मा (जीव ) जिस शरीर में रहती है, उसे पूर्ण रूप से व्यापती है । परिणामतः मस्तक के बाल के प्रभाग से पैर के नाखून जीव प्रजीव श्राश्रवाबंध, संवर निर्जर मोक्ष समंत्र । सातत्य इनका सरधान, सो नर सम्यक् वनवान ॥ बुधजनः तस्वार्थबोध: पृ० संख्या २६ पद्म संख्या १९३ उमास्वामी तत्वार्थ सूत्र, प्र० अध्याय । : Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक अध्ययन १४५ तक जहां कहीं भी इन्द्रियक ज्ञान का कारण होता है, वह (आत्मा) उसका तुरन्त अनुभव कर लेती है।' मुख्य बात यह है कि जन दर्शन में बहुजीववाद स्वीकार किया गया है तथा प्रत्येक जीव की स्वतम सत्ता स्वीकार की गई है। जीव द्रव्य को पत्र भेः । ....पुदाल, ', प, प्रकाश और काल । जो रूप, रस, गन्ध, स्पर्श प्रादि गुणों से युक्त है वह पुद्गल है। यह कंध अवस्था में पुरण-गनन क्रिया रूप होता रहता है । समस्त ष्य जगद इसी का विस्तार है। शब्द. बंघ, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, तम, छाया, उद्योत, प्रातप से सब गुद्गल द्रव्य की पर्याय (दशाए) है। पुद्गल परमाणु स्वभावतः क्रियाशील है। उसकी गति-सीन, मन्द, मध्यम, अनेक प्रकार की होती है। पारीर, इन्द्रिय, प्रारण, अपान, श्वासोच्छवास प्रादि पुद्गल से ही निर्मित हैं 1 धर्मद्रव्य मौर अधमंद्रव्य-जीव और पुद्गल के समान धर्म और अधमंद्रष्य भी हो स्वतंत्र द्रव्य है। इनका अर्थ पुण्य-पाप नहीं है । धर्मद्रव्य गतिला परिणमन करने वाले जीव और पुद्गलों को गमन में सहायक होता है और अधर्मद्रव्य ठहरते हुए पुद्गल और जीवों को ठहरने में सहायक हैं । ये दोनों द्रव्य लोकाकाश के बराबर हैं । रूप, रस, गंध, स्पर्श प्रौर शब्द से रहित होने के कारण प्रमूर्तिक और निष्क्रिय है । उत्पाद, ध्यय और प्रौव्य युक्त है । लोक और अलोक का विभाग इन दोनों द्रव्यों के सवभाव का फल है । यह द्रश्य समस्त भजीवादि दृश्यों को पदगाह स्थान देता है । अर्थात् जीय, पुद्गल धर्म, अधर्म, कालादि समस्त पदार्थ युगपत जिसमें प्रवकाश प्राप्त करते हैं, वह पाकाया है । यह निष्क्रिय प्रौर रूप, रस, गंध, स्पर्श एवं शम्दादि से रहित होने के कारण प्रमूर्तिक है। प्रकाश दान ही इसका असाधारण गुण है । पुदगल का एक परमाणु जितने भाकाश को रोकता है, उसे प्रदेश कहते हैं। इस प्रमाण से It is well renembrance that according to the Jain's the sound occupies the whole of the body in which it lives, so that from the tip of the hair to the nail of the foot, where ever there may be any cause of sensation, It can atona feel it. A history of Indian Philosophy : Cambridge University press, 1938 P 189 २. सोबंधी सुहमो, थुलो स'ठारण भेदतम छाया। उजोदादव सहिया, पुग्गल दव्वस्स पज्जाया ॥ प्राचार्य नेमिचन्द्र, द्रम्पस प्रह, गाथा क्रमांक १६, पृ०स० १२ वि०म० २०३३ प्रका० हस्तिनापुर। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्राकाश अनन्त प्रदेशी है । इसके दो भेद हैं—लोकाकाश और अलोकावाण । कुछ दार्शनिकों ने दिशा को स्वतंत्र द्रव्य माना है परन्तु जैन दार्शनिकों ने दिक् द्रव्य का अनार्भाव आकाश द्रव्य में ही कर लिया है। काल द्रव्य समस्त द्रव्यों के उत्पादादि रूप परिस। मन में सहकारी काल द्रश्य होता है। इसका लक्षण वर्तचा है। यह स्वयं परिवर्तन करते हुए प्रन्य प्रकों के परिवर्तन में सहकारी होता है और समस्त लोकाकाश में घड़ी, घंटा, पन, दिन, रान प्रादि ध्यवहार में निमित्त होता है । यह भी अन्य द्रव्यों के समान उत्पाद, व्यय और प्रौनग युक्त है, अमतिक है । 'प्रत्येक लोकाकाश के प्रवेश पर एक-एव कालाणु अप स्वतंत्र सत्ता बनाये हुए है । धर्म और अधर्म द्रव्य के समान यह लोक काश व्यापी प द्रव्य नहीं है, क्योंकि प्रत्येक प्रकाश प्रदेश पर एक एक कालाणु अवस्थित है। नाल द्रव्य के दो भेद हैं-नियचयकाल और व्यवहारकाल ।' (३) प्रानब तस्य कभीक आने वार को मायव महाजित प्रकार द्वार से हम गृह में प्रवेश करते हैं उसी प्रकार जिस मार्ग से प्रात्मा में कर्मों का आगमन होता है उसे प्राश्रय कहते हैं । योग के निमित्त से (मन, वचन, काम नात्मा में पुद्गली का प्रागमन होता है। इसके दो भेद हैं । भावाश्रव और द्रव्याधव । जिन भावों से कर्मों का प्राश्रय होता है उन्हें भावाश्रव और कर्म का जाना व्याश्रव कहलाता है। (४) दो पदार्थों के विशिष्ट सम्बन्ध को बन्ध वाहते हैं । मन्ध दो प्रकार का है--एक भाव बन्ध और दूसरा द्रव्य बन्ध । जिन राग द्वेप पीर मोह प्रादि विकारी भावों से कर्मों का बन्धन होता है, उन भावों को भायबन्ध कहते हैं और कर्मपुद्गलों का प्रारम-प्रदेशों से सम्बन्ध होना द्रश्य बैंच कहलाता है । प्रात्मा और कर्म के प्रदेशों का परस्पर मिलकर एक क्षेत्रावग्राह रूप होना बंधतत्व है। (५) संवरतरव जिन द्वारों से कर्मों का मानन होता था, उन द्वारों का निरोध करना संवरतत्व है । प्राश्रय योग से (मन, वचन, काय की चंचलता) होता है, प्रतः योग को रोकना ही संवरतत्व है। १. लोयायास पदेसे इक्वेषक जेठिया इक्वेक्का रयगाणं रासीमिव ते कालाए प्रसंख वग्यारिए । नेमिचन्द्र प्राचार्य : द्रव्यसंग्रह, गाथा संख्या २२ पृ. संख्या १६, हस्तिनापुर (मेरठ) प्रकाशन्न । पूज्यपाद प्राचार्य : सर्वार्थसिखि, प्र० प्र० सूत्र। पूज्यपाद प्राचार्य : सर्वार्थसिनि म० १, सूत्र १ । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक अध्ययन १४७ (६) निर्मरातत्व पूर्व कर्मों को घोड़ा-थोड़ा नष्ट करना निर्जरा है । यह दो प्रकार की हैअविपाक और सविपाक । पक्ति प्रगने पुरूपार्थ से अपने संचित कर्मों को उदयावस्था को प्राप्त हुए बिना ही न2 कर सकता है । इ मदर पूर्वक हाती ई. संवर पूर्वक सम्पन्न होने वाली निर्जरा ही मुक्ति का कारण है। इसे अविषाक निर्जरा कहते हैं। कर्मों की स्थिति पूरी होने पर जब वे उदय में माते हैं और उनका फल भोग लिया जाता है तब निजी हो जाते हैं, वह सविपाक निर्जरा है । ये घोनों भेद भाव निर्जरा और द्रव्य निर्जरा दोनों में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं । (७) मोक्षतस्य "समस्त कर्म बन्धनों का प्रामा से पृथक् हो जाना मोक्षतत्व है! 1" प्रात्मा का जो परिणाम राभी कर्मों में क्षय में हेतु है, यह परिणाम भावमोक्ष कहलाता है और श्रात्मा से सर्व कर्मों का क्षय हो जाना द्रव्य मोक्ष है । इस प्रकार मोक्षसत्य के भावानव एवं द्रव्यानव ऐसे दो भेद हैं ।। कर्म-सिद्धान्त समस्त लोक में कर्मवर्गणा जाति के असंख्य सूक्ष्म परमाणु (Matter) भरे। हए हैं जिनमें फलदान करने की शक्ति है जीवात्मा का स्वभात्र निश्चल और निष्कंप रहने का है किन्तु जिस समय वह मन वचन काय के द्वारा अपने स्वभाव के विपरीत कुछ भी क्रिया करता है तो उसके प्रात्म-प्रदेशों में हलन-चलन की क्रिया होती है । जीवात्मा में होने वाले इस प्रस्वामी कम से लोक में भरे हुए कर्म प्रदेश उसी प्रकार प्राकर्षित होते हैं जिस प्रकार प्राग में तपा हुआ लोहे का गोला पानी में पड़ जाने पर पानी को भी अपनी ओर खींचता है । इस प्रकार फर्म वर्गणलए प्रात्मा में प्राती तो हैं किन्तु यदि प्रात्मा में क्रोध, मान, माया, स्लोभ, कषाय रूप गोंद विद्यमान होता है तब तो वे यहां प्राफर चिपक जाती है (एक क्षेत्राचगाही हो जाती है, अन्यथा वहां से निकलकर चली आती है। कषाय तेज होगी तो कर्मवर्गणाएं अधिक समय के लिये बंधेगी। इस प्रकार पुद्गल कर्म-वर्गसानों द्वारा फल का दिया जाना, ईश्वर या एमराज या धर्मराज मी विसी शक्ति का फल से सम्बन्ध म बतलाकर कर्म सिद्धान्त को वैज्ञानिक रूप में उपस्थित करना कविवर सुधजन की बहुत बड़ी विशेषता थी। कवि ने प्रात्मा के साथ बंधने वाले कर्मों की स्थिति ४ प्रकार की मसलाई है। १ प्रकृतिबंध, २ प्रदेशबंध, ३ स्थितिबंध और ४ अनुभागबंध । बच्छ को प्राप्त १. पूज्यपाद प्राचार्य : सर्वार्थ सिद्धि, अध्याय १, सूत्र ४ । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व होने वाले कर्म परमाणुषों में अनेक प्रकार का स्वभाव पड़ना प्रकृतिबंध है। उनकी संख्या का नियत होना प्रदेशबंध है । उनमें काल की मर्यादा का पड़ना कि अमुक समय तक जीत्र के साथ बंधे रहेंगे, स्थिति बंध है और फल देने की शक्ति का उत्पन्न होना अनुभाग बन्ध है। कर्मों में अनेक प्रकार के स्वभाव का पड़ना तथा उनकी संख्खा का होनाधिक होना योग पर निर्भर है। इस तरह "प्रकृतिबंध और प्रदेश बन्ध तो योग से होते हैं तथा स्थिति बन्ध अनुभःम बन्ध कषाय से 11" ___ "प्रकृतिबंध के पाठ भेद हैं।" ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, श्रायु, नाम, गोत्र मोर अन्तरराय । झानावरण कर्म जीव के ज्ञानगुरग को धातता है। इसके कारण कोई अल्पज्ञानी और कोई विशेष ज्ञानी होता है । ज्ञानावरग के ५ भेद हैं मतिझानावरण, श्रुतज्ञानाबरण, अधिज्ञानावरण, मनः पर्यय ज्ञानाबरण और केबल ज्ञानावरण । दर्शनावरण कर्म जीव के दर्शन गुण को आच्छादित करता है । दर्शनावरसा के नौ भेद हैं। चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनाधरण, अवधि दर्शनावरण, केवल दर्शनावरण, निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला और स्त्यानगृद्धि। जीव की सूख दुख का देदम-अनुभव देणार का होता है। वेदनीय कर्म के दो भेद हैं-सातावेदनीय और असातावेदनीय, "निजमात्मा में, पर प्रात्मा में या उभय पास्मानों में स्थित दुःख, शोक, ताप, माक्रन्दन, बघ और परिवेदन ये प्रसासावेदनीय फर्म के प्रावध हैं। प्राणि-अनुकंपा अति अनुकंपा दान, सराग-संयम आदि का उचित ध्यान रखना तथा शान्ति और शौच ये सातावेदनीय कर्म के प्रास्रव है ।" जीव को मोहित करने वाला कर्म मोहनीय कहलाता है । इसके दो भेद है-वर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीम । दर्शन मोहनीय' जीब को सच्चे मार्ग पर चलने नहीं देता है। इसके २८ भेद हैं। कविवर बुधजन ने इन्हें अपने साहित्य में भली भांति विवेचित किया है जिन्हें "तत्वार्थबोव," "पंचास्तिकाय" भाषा आदि ग्रंथों से भली भांति जाना जा सकता है । "कषाय क उदय से होने वाला आत्म का तीब परिणाम-धारित्र मोहनीय कर्म का प्राश्रव है।" जो निश्चित समय तक जीव को नर नारकादि पर्यायों में रोके रखता है वह प्रायू कर्म है । इसके चार भेद हैं-नरकायु, तिर्थचायु, मनुष्यायु और देवायु बहु १. जोगापयशिपमेशा ठिवि प्रभागारण कषायदोहोति । नेमिचन्द्र प्राचार्य : द्रब्य संग्रह : गाथा संख्या ३३, पृ० सख्या २२ प्रकाशक दि. जैन त्रिलोक शोष हास्थान, हस्तिनापुर (मेरठ) २. कवि वीतलन्धि : चन्द्रप्रभ चरित्र : सर्ग १८, श्लोक ९८ । ३. उमास्वामी : तरवार्थपूत्र अध्याय ६, सूत्र १० १२ ४. उमास्वामी : तस्वार्थसूत्र अध्याय ६, सत्र स० १४ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ तुलनात्मक अध्ययन P प्रारंभ और परिग्रह का भाव का के प्रश्रय पाया तियंवायु के श्राश्रव, प्रल्प आरंभ और अल्प परिग्रह का भाव मनुष्यायु के पात्र एवं सराग संगम, संगमासंयम, अकाम निर्जरा और बालतप देवायु के भाश्रय के हेतु हैं। जिसके कारण शरीर और गोपांग श्रादि की ना हो, वह नामकर्म है। नामकर्मके ४२ भेद हैं। जिसके निमित्त से जीव उच्च या नीच कुल में जन्म लेता है उसे गोत्र कर्म कहते । इसके दो भेद हैं- उच्च गोष और नीच गोत्र | "परनिन्दा, भात्म-प्रशंसा, दूसरों के अच्छे गुणों का आच्छादन और उनके दुर्गुणों का उद्भावन नीच गोत्र के प्राश्रव के हेतु हैं एवं पर प्रशंसा, आत्म-निन्दा, नम्रवृत्ति, और अभिमान का प्रभाव या कमी ये उच्च गोत्र के आश्रम के कारण हैं ।" इच्छित वस्तु की प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करने वाला कर्म अन्तराय है इसके पांच भेद हैं-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय श्रौर उपभोगान्तराय, और वीर्यान्तराय । दानादि में दिधन उत्पन्न करन अन्तराय कर्म के श्राश्रव का हेतु है । उपरोक्त प्राठों कर्मो की उत्कृष्ट एवं जघन्य स्थिति का वर्णन भी कवि ने किया है। कर्मों के सिद्धान्त के विश्लेषण में कवि ने जंनाचार्य उमास्वामी के तत्वार्थसूत्र को अपना आधार बनाया है। जीव कर्मों को कब और कैसे बांधता है मौर उनका बंटवारा कैसे होता है इत्यादि बातों पर भी कवि ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ "तत्यार्थबोध" में प्रकाश डाला है । बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण, सत्ता, उदय, उदीरशा, संक्रमण, उपशम, निधति और निकाचना कर्मों की इन मुख्य दल यवस्थाओं का वर्णन भी कवि ने किया है। इस प्रकार संक्षेप में कर्म सिद्धांत का निरूपण कविवर बुधजन ने अपने साहित्य में किया है । 1 जैन दर्शन के अन्यान्य विषय ज्ञान मीमांसा और स्याद्वाद के वन भी अपनी रचनाओं में कवि ने किये है | आमोत्थान की भूमिका के रूप में चतुर्दश गुणस्थानों का भी उल्लेख कवि ने अपने साहित्य में किया है। (३) गीतिकाव्य के विकास में युधजन का योग भारतीय गीतिकाव्य का प्रारंभ वैदिक युग से माना जाता है । गीतिकाव्य में संगीत की प्रधानता होती है | इसीलिये विद्वानों ने लयात्मक ध्वनि को गीत कहा है । संगीत हृदय में रहने वाले सत्य का व्यस्त रूप है । वह अखंड होता है । बाहर से देखने में वह श्रनेक प्रकार का दिखाई देता है, परन्तु मूल में वह एक ही है। वह अन्तर का श्रव्यक्त सत्य ही गीतिकाव्य का प्रेरणास्रोत है । समस्त गीतिकार संभवत: उसी से प्रेरणा प्राप्त करते हैं । गीतिकाव्यों में जो भित्रता मिलती है, वह स्थूल जगत् के प्रभाव का परिगाम है । अन्तर में व्याप्त उस तस्थ में श्रनेकता नहीं हो सकती। जैसे संस्कृति का १. उमास्वामी सत्यार्थसूत्र; प्रध्याय ६, सूत्र ह० २५-२६ दि० जैन पुस्तकालय, सूरत । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व बाह्य रूप देशकाल और वातावरण के प्रभाव से विभिन्न प्रकार का दिखाई देता है उसी प्रकार भाषा तथा शैली श्रादि के कारण गीतिकाव्य के बाहरी रूप में भिन्नता दिखाई देती है । परन्तु वस्तुत: उसमें भिन्नता नहीं है। इसलिये यह प्रावश्यक है कि हम विभिन्न देश और काल तथा विभिन्न दार्शनिक विचारों से प्रभावित गीतिकारों के मौलिक तत्वों तथा उनकी कलात्मक नि शेपतानों का तुलनात्मक विचार करें। गीतिकाव्य लोक काव्य है । उसे हम जनता का साहित्य भी कह सकते हैं । उसमें भावों की अभिव्यक्ति होती है तथा संगीत भी रहता है । संस्कृति साहित्य की भांति हिन्दी साहित्य में गीतिकाव्य का सर्वाधिक महत्यपूर्ण स्थान है। जैन कवियों ने संस्कृत, प्राकृत्त और प्रमभ्रश भाषाओं में भी अनेक सरसंगीत लिखे हैं। जिनमें प्रेम, विरह, विवाह, युद्ध और अमात्म-भावना की सुन्दर अभिव्यंजना हुई है। हममें संगीत है, रागात्मवाता है और लय है और इसी रष्टि से ये गीत रचे गये हैं। "कविवर बुधजन" ने हिन्दी साहित्य को लावनी भजन और पद मादि के रूप में विपुल सामग्री प्रदान की है। विषय की दृष्टि से "बुधजन" के गीतों एवं पदों को अध्यात्म, नीति, आवार, वैराग्य, भक्ति स्वकर्तव्य निरूपण, आत्म-तत्व की प्रेयता और शृंगार-भेदों में विभक्त किया जा सकता है। प्रायः सभी पदों में घात्मालोचन के साथ मन. शरीर और इन्द्रियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति का निरूपण कर मानव को सायधान किया है। गीतिकाव्य में निम्न चारों तत्वों का रहना प्रावश्यक है। मे सभी गुण बुधजन की रचनाओं में पाये जाते हैं। (१) संगीतात्मकता (२) किसी एक भावना या अनुभूति की अभिव्यक्ति (३) प्रात्मदर्शन और प्रास्मविद्या (४) वैयक्तिक अनुभूति की गहराई के साथ गेयता। कवि वे अपने अन्तमन से जो प्रेरणा प्राप्त की, उसी को अपने पदों में अभिव्यक्त किया है। प्रारम-बेतना की जागृति उनके पदों का प्रारण है । प्रात्मानुभूति को लयपूर्ण भाषा में व्यक्त करना ही उन का उद्देश्य है । कविवर बुधजन ने विलावल राग को धीमी ताल पर अत्यन्त सुन्दर ढंग से गाया है। उनके इस पद में केवल भाषा की तड़क-भड़क ही नहीं है, किन्तु छन्द और लय का सामंजस्य भी है । उन्होंने निम्नलिखित पद में गहरी यात्मानुभूति का परिचय दिया है। कधि का मन और प्राए शान्ति-प्राप्ति के लिये कितना छटपटा रहा है ? देखिये "हो मनाजी थारी वानि बुरी छ दुखदाई । निज कारज में नेक न लागत, परमों प्रीति लगाई ।।१।। या स्वभाव सों प्रतिदुख पायो, सो अब त्यागो भाई ॥२॥ "बुधजन" प्रौसर भाग न पाये, सेवो थी जिन राई ॥३॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक अध्ययन १५१ कवि ने अध्यात्मिक शान्ति प्राप्त करने के लिये कोमलकान्त पदावली मैं अपनी कमनीय अनुभूतियों को मामिक अभिव्यंजना की है । कविवर वनारसीदास ने 'चेतन तु तिहुँ काल अकेला' कहकर पदों में अनुभूति की जंसी अभिव्यंजना की है, वैसी ही "बुरजन" की गौतियों में उपलब्ध है । उनके पदों में प्रदर्शन की प्रवृत्ति की प्रधानता है । शब्द सौंदर्य और शब्द-संगीत भी सभी पदों में सुनाई पड़ता है । भजन और पद रखने में बुधजन का महत्वपूर्ण स्थान है । इनके पदों में अनुभूति की तीव्रता, लयात्मक संवेदन शीलता और समाहित भावना का पूरा प्रस्तित्व विद्यमान है । आत्म शोधन के प्रति जो जागरूकता उनमें है, वह कम कवियों में उपलब्ध होगी । कवि के विचारों की कल्पना और आत्मानुभूति की प्रेरणा पाठकों के समक्ष ऐसा चित्र उपस्थित करती है, जिससे पाठक अनुभूति में लीन हुए विना नहीं रह सकता । ता यह है कि उनकी अनुभूति में गहराई है, प्रबलवेग नहीं । अतः उनके पद पाठकों को डूबने का अवसर देते हैं, बहने का नहीं । संसार रूपी मरुभूमि की वासना रूपी बालुका से तप्त कवि, शान्ति चाहता है, वह अनुभव करता है कि मृत्यु का सम्बन्ध जीवन के साथ है। जीवन की प्रकृति मृत्यु है। मृत्यु हमारे सिर पर सदा विद्यमान है। अतः प्रतिक्षण प्रत्येक व्यक्ति को सतर्क रहना चाहिये। इस विषय में कवि गुनगुनाता हुआ कहता है काल अचानक ही ले जाएगा, गाफिल होकर सहना क्या रे ॥ १ ॥ छिनहू तो नाहि बचावे, तो सुमरन का रखना क्या रे ||२|| रंचक स्वाद करन के काजे, नरकन में दुःख भरना क्या रे || ३॥ कुल जन, पथिक जनन के काजे, नरकन में दुख भरना क्या रे ॥४॥ श्रात्म-दर्शन हो जाने पर कवि ने श्रात्मा का विश्लेषण एक भावुक के नाते बड़ा ही सरस और रमणीय किया है "मैं देखा श्रातमरामा " रूप-फरस रस गंध तें न्यारा, दरस ज्ञान-गुन घामा | नित्य निरंजन जाके नाहीं, क्रोध लोभ -मद-कामा ॥ १ ॥५ भूख-प्यास, सुख-दुःख नहिं जाके, नाहीं बनपुर ग्रामा । नहि साहब नहि चाकर भाई, नहीं तात नहि भामा ||२|| भूल अनादि थको जग भटकत, ले पुद्गल का जामा | बुधजनः हिन्दी पद संग्रह, पृ० १६४, संपा० ॐ० कस्तूरचन्द कासलीवाल, महावीर भवन, जयपुर, प्र० संस्करण, मई १९६५ । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व . 'बुधजन' संगति की गुरू की तं, मैं पाया मुझ ठामा ॥३॥ "बुधजन" के गीत्यात्मक पदों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता (१) भक्ति-परक या प्रार्थमा-परक । (२) तथ्य निरूपक या दार्शनिक । भगवद् भक्ति के बिना जीवन विषय भोगों में ही व्यतीत हो जाता है । विषयी प्राणी तप, ध्यान, भक्ति, पूजा आदि में अपना चित्त नहीं लगाते ! उन्हें परपरगति ही श्रेयस्कर प्रतीत होती है। यदि वह भगवद् भक्ति में नग जाप सो उसके सम्पूर्ण दुःख दूर हो सकते हैं तथा प्रात्मज्ञान प्राप्त हो सकता है | विषयासक्त प्रागी यह सोचता है कि भक्ति या धर्म नादि कार्य तो वृद्धावस्था में करेंगे, परन्तु उसे यह ध्यान रखना चाहिये कि जब तक शरीर में शक्ति है तभी तक भगवद् भक्ति की जा सकती है । अत: शरीर के स्वस्थ रहते हुए प्रमु-भजन अवश्य करना चाहिये । कवि इसी तथ्य को निम्न पद में अभिव्यक्त कर रहा है-- 'भजन बिन यों ही जनम गमायो । पानी पेल्यां पाल न बांधी, फिर पोछे पटनायो ॥१५॥ रामा मोहभये दिन खोबत, प्राशा-पाश बंधाम्रो । जप-तप-संजम, दान न दीना, मानुष जनम हरायो ।।२।। देह-सीस जब कांपन लागी, दसन चलाचल धायो । लागी अागि वुझावन कारन, चाहत कूप खुदायो ॥३॥ काल अनादि भ्रमायो, भ्रमतां कबहुं न थिर चित जायो । 'हरि' विषय सुख, भरम मुलानो, मृग तृष्णा वश धायो॥४।। कवि के पदों में संगीत और लय के साथ प्रयाह एवं भाव भी विद्यमान है। कदि के समस्त पदों में भक्ति की उत्कटता और प्रात्म-समर्पण की भावना होने से अभिव्यंजना शक्ति विद्यमान है जो उनके समस्त पदों को गीति-काव्य की परिधि में लाते हैं। कविवर बुधजन ने तध्य-निरूपक या दार्शनिक पद भी लिखे है, पर उनमें दार्शनिक दुरूहता नहीं प्राने पाई है। नीति विषमक और दार्शनिक पदों में कवि ने जैनागम के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है । वे दुख्ता से बचते रहे हैं। उनकी बुषजनः हिन्दी पर प्रहपृ० स० १६१, संपा० डॉ० कस्तूरवाद कासली वाल, महावीर भवन, जयपुर, प्र. संस्करण मई १९६५ । २. बुधजन: बुधजन विलास, पद्य संख्या २१, पृष्ठ स० ११, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, १६१/१ हरीसन रोग, कलकत्ता। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 तुलनात्मक अध्ययन १५३ भाषा में भाषानुकूल माधुयं है और सरलता व संक्षिप्तता प्रादि गुण भी पर्याप्त मात्रा में विद्यमान हैं । कवि ने अपने पदों में बनड़ी घासावरी, सारंग, भैरवी, रामकली, सोरठ, कोटी, विद्वाग, बिलावल, मानकोष, केदारी, मांढ़, ख्यालतमाचा, जंगल, भैरू, बरवा. टोड़ी, उमाज, जोगी रासा, काफी होरी, दीपचंदी, चोचालो, लावनी, होरी, दीपकदी, चर्चेरी, वसंत, कल्याण, मालकोष, ढाल होली, परज, बसंत । विद्यापति, सूर, जीरा, धनानन्द आदि प्राचीन कवियों के गीतों के अवलोकन से यह बात स्पष्ट होती है कि हिन्दी में गीतों की परंपरा बहुत पुरानी है । बुधजन के गीत उनको अान्तरिक जीवन की विभिन्न अवस्थानों का उद्घाटन करते है । इनमें से विद्यापति हिन्दी गीतिकाव्य की परंपरा के विकास में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं । इनके काव्य में गीतिकाव्य की सभी विशेषताएं समाविष्ट हुई हैं । मानव प्रम की विभिन्न वैयक्तिक अनुभूतियों की सुन्दर व्यंजन इनके काव्य में हुई है । श्रतः विद्यापति हिन्दी के प्रथम गीतकार ठहरते हैं । (४) विद्यापति और बुधजन शव, विद्यापति वस्तुतः संक्रमण के प्रतिनिधि कवि हैं । वे दरबारी कवि होते हुए भी जन- कवि हैं । शृंगारिक होते हुए भी भक्त हैं। शाक्त या वैष्णव होते हुए भी श्रेष्ठ कवि हैं। जीवन के धन्त में वे मुक्त हो गये थे । उन्होंने कृष्ण भक्ति सम्बन्धी रचनाएं की हैं। उन्होंने राधाकृष्ण के प्र ेम में सामान्य जनता के सुख-दुःख, मिलन-विरह को अंकित किया है । विद्यापति की दृष्टि में प्रमतत्व हो काम्य है। उनके लिये मनुष्य से बड़ा अन्य कोई पदार्थ नहीं है । उन्होंने मानव मन के उच्च धरातल को अभिव्यक्ति दी है। ऐसी रचनाओं में ही मानव धर्म अभिव्यक्ति पाता है । कवि इस स्थिति में धर्मो के संकुचित घेरे को तोड़कर देश-काल-निरपेक्ष साहित्य की सृष्टि करता है। ऐसे साहित्य में मानवीय जीवन के धभ्युदय एवं निःश्रेयस की बातें दिखाई पड़ती हैं । विद्यापति की कतिपय रचनाओं में मानव धर्म की व्याख्या मिलती है। उनकी रचनाओं में भक्ति का निखरा हुआ रूप दिखाई पड़ता है, जहां भक्त एक ओर तो अपने प्राराध्यदेव के महत्व की ओर दूसरी और अपने लघुत्व की पूर्ण अनुभूति करने लगता है | यही वह स्थिति है, जिसमें उसकी श्रात्म शुद्धि होती है । P जब वह अपने उपास्य में अनंत शक्ति का सामर्थ्य देखता है, तब उसे अपनी दीनता और असमर्थता का शान होता है। उसके हृदय से श्रहंभाव दूर हो जाता है । वह्न श्रात्म-समर्पण करता है—अपने दोषों को अपने उपास्य के सामने खोल खोल कर गिनाता है । उसे जितना प्रानन्द अपने उपास्य के महत्व वन में प्राता है, उतना ही अपने दोषों के वर्णन में भी। इस श्राशय के पद विद्यापति की पदावली में अनेक पाये जाते हैं । निम्न पद दृष्टव्य हैं :-- Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एव कृतित्व "हरि जनि बिसरव मोममिता । हम नर सषम परम पतिता ॥ तुग्र सन प्रथम उधार न दूसर । हम सन जग नहिं पतिता || जम के द्वार जवाब कौन देव । जखन बुझत, निजगुनकर बतिया' | - हे शंकर, मैं अत्यन्त नीच और परम पापी मनुष्य हूं । यतः मेरे प्रति अपनी ममता भुला न देना । मुझ पर प्रेमभाव बनाये रखना । प्रापके समान पतित उचारक अन्य नहीं है और जगत् में मेरे समान श्रन्य कोई पापी नहीं है, जब मेरा मरण होगा, तब यमराज के द्वार पर जाकर क्या उत्तर दूंगा ? उस समय आप ही मेरी रक्षा करने में समर्थ हैं। आप प्रमाण को वरण देने वाले हैं। में आपके चरणों में मस्तक झुकाता हूँ । कृपया झ पर दया कीजिये । उपरोक्त पद्य में विद्यापति ने अपने हृदय की उत्कृष्ट भक्ति प्रकट की है । इसे भक्ति की परमावस्था कहते हैं | अपनी हीनता और अपने उपास्य की महानता का वर्णन करना ही श्रेष्ठ भक्ति है। सूर और तुलसी ने भी इसी प्रकार के विनय के पद लिखे हैं । इसी प्रकार का भक्ति का पद कविवर "बुधजन" का देखिये :-- प्रभु पतित पावन में अभावन, चरण आयो शरण जी । यो विश्व श्राप निहार स्वामी, मेटि जामन-मरण जी ।। तुम ना पिछान्यो, अन्य भान्यो, देव विविध प्रकार जी || या बुद्धि सेती निज न जान्यो, भ्रम गिन्यो हितकार जी ।। श्रर्थे - हे जिनेन्द्र | श्राप पतितों को पवित्र करने वाले हैं, अतः मैं आपके चरणों की शरण में लाया हूं। प्रभु ! आप अपने बड़प्पन का ध्यान रखते हुए मेरे जन्म-मरण के दुःख दूर कीजिये। मैंने आज तक आपकी पहिचान करने में भूल की है, इस अज्ञानतावश ग्रन्यान्य देवों की उपासना करता रहा इस मिथ्याबुद्धि के कारण स्य की पहिचान नहीं की और भ्रमवश स्वहित में बाधक कारणों को अपना हित कारक माना । विद्यापति अपने माराध्य से यह याचना करते हैं कि "कृपया मुझ पर दया कीजिये" परन्तु बुधजन की निष्काम भक्ति में यह भी नहीं है । ये तो केवल इतना ही कहते हैं -- विद्यापति: पधावली संप डॉ० प्रानंदप्रसाद दीक्षित, वि० सं० १६७०, पृ.स ं. १३२-३४, साहित्य प्रकाशन मंदिर, ग्वालियर । १. : : Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %3 - तुलनात्मक अध्ययन "याचू नहीं सूरवास पुनि नर राज परिजन साथ जी। "बुध'' याचहू तुब, भक्ति भव-भव, दीजिये शिवनाथ जी ।।" अर्थ-हे प्रभु ! प्राय की भक्ति करने में यह नहीं चाहता कि प्राप मुझे स्वर्गादि के सुख प्रदान करें अथवा मैं नरेना बनू या परिजनों का साथ मुझे प्राप्त हो । मैं तो केवल यही चाहता हूं कि भव-भव में अर्थात् जन्म-जन्मान्तरों में प्रापकी भक्ति होती रहे। संसार की वास्तविकता के सम्बन्ध में विद्यापति का एक अन्य पद देखिये--- "तातल सेवत वारि बिन्दुसम, सुतमित रमनि समाज | मोहे विनि , प्रल मुभ इन कौन काज ।। माधव हम परिनाम निरासा तहु जग तारन दीन दयामय अर्थ हे माधव ! जिस प्रकार तप्त बालू पर पानी की बंद पड़ते ही पिलीन हो जाती है, वैसे ही इस ससार में पुत्र, मित्र, पत्नी आदि की स्थिति है । तुझे भुलावार मैंने अपना मन इन क्षणभंगुर-वस्तुनों को समर्पित कर दिया है, ऐसी स्थिति में अब मेरा कौन कार्य सिद्ध होगा? हे प्रमु ! मैं जीवन भर मापको भुलाकर माया-मोह में फंसा रहा हूँ । प्रतः अब इसके परिणाम से बहुत निराश हो गया हूँ। पाप ही इस संसार से पार उतारने वाले हो, दोनों पर दया करने वाले हो । अतएव तुम्हारा ही विश्वास है कि तुम मेरा उद्धार करोगे । साधा जीवन तो मैंने सोकर ही बिता दिया, वृद्धावस्था और बालपन के अनेक दिन बीत गये । युवावस्था युवतियों के साथ के लि-क्रीड़ानों में बिता दी । इस प्रेम क्रीड़ा में मस्त रहने के कारण में तेरा स्मरण करता तो किस समय करता? अति विलास वासना में फंसे होने के कारण तेरे मजन-पूजन का समय ही नहीं निकाल पाया। हे माधव ! पाप ग्रादि अनादि के नाथ कहलाते हैं, ऐसी स्थिति में इस भव सागर से पार उतारने का भार पाप पर इसी प्रकार का एक पद कविवर "बुधजन" का प्रस्तुत है :'उत्तम नरभव पाम मति भूले रे रामा ।। कीट पशु का तन जब पाया, तब तू रखा निकामा । प्रब नर देही पाय समाने, क्यों न भेजे प्रमु नामा ।। सुरपति याको चाह करत उर, कब पाक नर आमा । ऐसा रतन पाय के माई क्यों खोबत बिन कामा ॥ कवि बुषजमः देवदर्शन, स्तुति, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृ० स० ५३४-३५, भारतीय मानपीठ प्रकाशन । २. मानन्द प्रसाद दीक्षित (संपादक) विद्यापति पदावली दितीय संस्करण १९७०, साहित्य प्रकाशन मंदिर, ग्वालियर । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व धन जोबन तन सुन्दर पाया मगन भया लखि मामा । काल अचानक टकि खायगा, परे रहेंगे ठामा ॥ अपने स्वामी के पद पंकज, करो हिये विसरामा || मेटि कपट भ्रम अपना 'बुषजन' क्यों पावो शिवधामा ॥ तुझे सर्वधा नहीं भजन क्यों नहीं समझता है) इस अर्थ- इस श्र ेष्ठ नर-जन्म को प्राप्त करके अपनी आत्मा को विस्मृत मतकर 1 तू स्वयं आत्मा है, अतः अपने आपको मत भूल, अपने पूर्व जन्मों का या भवों का स्मरण कर जब तू छोटा मोटा कीड़ा था, या जब तू पशु था, उस समय तुझे कोई ज्ञान न या अत्यन्त अल्पज्ञानी था या अपने हिला-हित का विवेक था। अब पुण्योदय से तूने मनुष्य जन्म पाया है श्रतः तु प्रभु का करता ? (क्योंकि अब तू विवेकवान् प्राणी है अपने हिताहित को नरन्तन को प्राप्त करने की इच्छा देवता भी करते हैं क्योंकि इस अवस्था से प्रभुस्मरण व संयमाचरण किया जा सकता है। है भाई। यह मानव-जीवन एक प्रकार का रत्न है | अतः भूखों की भांति इसे कौड़ी के मोल में मत बेच या इसे विषयभोगों में मत गंवा । तुझे भाग्योदय से धन, यौवन, सुन्दर सुन्दर स्त्री का संयोग मिला है । परन्तु तू इनमें कर में पड़ा रहा तो काल तुझे शीघ्र नष्ट कर रह जायंगे, तेरा साथ नहीं देंगे। अपने हृदय में विराजमान करो। भ्रपने मन का भ्रम जाल मिटाकर मुक्ति-लाभ करो । मानव-देह प्राप्त हुई है, लीन मत हो । यदि तू इन्हीं के देगा । तब तेरे ये धनादि यहीं पड़े अपने स्वामी के चरण-कमलों को विद्यापति का भी एक स्तुति परक पद वृष्टव्य है :-- इसमें वे अपने श्रासष्य के सामने अपने हृदय के भाव व्यक्त करते हुए कहते हैं :--- "श्री कृष्ण के चरणों का आधार पाकर विद्यापति अपने प्राराध्य के सामने अपनी साधनहीनता और दीनता रख देते हैं और तब तो विद्यापति की भक्ति की पराकाष्ठा हो जाती है, जब वह कहता है कि अपने कर्मों के कारण भले ही मैं, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट पतंग बन्ने पर तुम्हारे कीर्तन में मति लगी रहें ।' t. वजन: शुषजम विलास, पद सं० ६६, पृ० संख्या ३४, प्रका० जिनवाणी प्रचारक कार्यालय १६१/१, हरीसन रोड कलकत्ता । २. हे हरिषच्चों तुझ पर नाथ । सुश्र पर परिहरि पाप पयोनिधि, पार तर फौन उपाय कि ये मानुस पसुपति भये जनमिए, घथवा कीट पतंग | करम-विपाक गतागत पुनपुन, मति र सुन पर संग ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तुलनात्मक अध्ययन १५७ - - तुलनात्मक-अध्ययन १ विद्यापति पहले कवि थे और बाद में भक्त । बुधजन भी पहले कधि थे और बाद में भक्त तथा दार्शनिक । २ विद्यापति ने लोकभाषा मैथिली को काव्य का माध्यम बनाया । बुधजन ने भी लोकभाषा वारी को काग्य का माध्यम बनाया । ३ विद्यापति की रचनाओं में उनका व्यक्तित्व स्पष्ट झलकता है। बुधजन की रचनामों में भी उनके व्यक्तित्व की स्पष्ट छाप है। ४ निधापति में भक्त कवियों की भांति आत्म-निवेदन की भावना थी। बुधजन में भी भक्त कवियों की भांति प्रात्म-निवेदन की भावना थी । ५. विद्यापति ने अनेक रचनाओं के अतिरिक्त अनेक पदों की रचना की। ये पद ही कवि की अक्षय-कीति के प्राधार है । बुधजन ने भी अनेक रचनागों के अतिरिक्त अनेक पदों की रचना की। ये पक्ष हो कवि को अक्षय-कीति के प्राधार हैं। ६ विद्यापति में प्रात्मानुभूति का प्रकाशन, स्व-संवेदन-गम्म, भाव-भूमि पर लक्षित होता है। बुधजन में भी प्रात्मानुभूति का प्रकाशन, स्व-संवेदन-गम्य, भाव-भूमि पर लक्षित होता है। ७ विद्यापति की भाषा में तरलता, सरलता भार माधुर्य पूर्ण रूप से लक्षित होता है। बुधजन की भाषा में भी तरलता, सरलता और माधुर्य पूर्ण रूप से लक्षित होता है। ५ सूरदास और बुधजन हिन्दी भाषा में कुछ रचनाएं संगीत प्रधान हैं । कबीर, मीरा, सूरदास, तुलसीदास प्रादि प्रमुख भक्त कवियों ने भक्ति-परक अनेक पद लिखे हैं । इन्हें वे स्वर्ग विभिन्न राग-रागिनियों में गा-गाकर सुनाया करते थे । इनके पदों का हिन्दी साहित्य में अत्यधिक प्रचार हुआ । इस प्रकार के पद जैन कवियों ने भी पर्याप्त मात्रा में रचे हैं। शास्त्रप्रवचन के बाद इन पदों को जैन मंदिरों में प्रतिदिन गाने की प्रथा है। जैन कवि धानतराय, भूधरदास, दौलतराम, महाचंद, भागचन्द, बुधजन प्रादि कवियों के पद Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व अनेक जैन व्यक्तियों को आज भी कंठस्थ हैं । कवि बुधजन के पद राजस्थान में सर्वाधिक लोकप्रिय रहे । पद रतगिता वाले जैन धर्मानुयायी होगा इतर धर्मानुयायी, दोनों की पद-रचना में मौलिक अन्तर नहीं है । जो थोड़ा बहुत अन्तर दिखाई देता है, वह बाह्य जगत् के प्रभाव का परिणाम है। हिन्दी साहित्य में गीत और पद रचयिताओं में निर्गुणसंत कबीर, रविदास, दादू, मलूकदास यादि के नाम उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकार सगुण संप्रधाम में सूर, तुलसी, मीरा प्रादि भक्त कवियों के नाम उल्लेखनीय हैं । इन संत और भक्तों ने अनेक गीत और पद रचकर हिन्दी साहित्य को परिपुष्ट किया। निए संतों के तात्विक सिद्धान्त तथा जैनों के शुद्धात्म बाद में पर्याप्त साम्य है । ने अवतार-वाद का खंडन नहीं हो सकता है । सन्त कबीर ने कहा है— सबके हृदय में परमात्मा का निवास है । उसे बाहर न ढूंढकर भीतर ही ढूंढना चाहिये। आत्मा ही परमात्मा है। दोनों में एकत्व भाव है । प्रत्येक जीव परमात्मा है | निर्गुण संतों किया । भौतिक शरीर को दृष्टि से कोई भी व्यक्ति ईश्वर आत्मा की दृष्टि से सभी श्रात्माएं ब्रह्म हैं । श्रतएव संतों के मत में जन्म मरण से रहित परब्रह्म ही परमात्मा है। उस पर ब्रह्म का नाम स्मरण, प्रेम और भक्ति करने से कल्याण होता है । प्रायः सभी सन्त कवियों ने इसी श्राध्यात्मिक दृष्टिकोण से पद रखना की । इनके पदों की जैन पदों के साथ तुलना की जा सकती है । सगुण भक्ति धारा के कवियों के पदों के साथ भी जैन कवियों के पदों की तुलना की जा सकती है । प्रस्तुत लेख में सगुण भक्ति धारा के प्रसिद्ध कवि सूरदास के पदों के साथ बुधजन के पदों की तुलना की जा रही है । उपासना के लिये उपास्य के विशिष्ट व्यक्तित्व की प्रावश्यकता समझ सगुण भक्ति का प्राविर्भाव हुआ । सगुण उपासकों में कृष्ण भक्ति शाखा धौर राम भक्ति शाखा में श्रेष्ठ कलाकार हुए, जिन्होंने पद और गीतों की रचनाकर हिन्दी के साहित्य भंडार की वृद्धि की। महाकवि सूरदास ने पद-साहित्य में नवीन उदभावनाएं – कोमल कल्पनाएं पौर विदग्धता पूर्ण व्यंजनाएं की। वस्तृतः सूर भाव जगत् के सम्राट् माने गये है । हृदय की जितनी याह सूरदास ने ली, उतनी शायद ही अन्य कवि ने ली हो। सूरदास के पदों में पर्याप्त मौलिकता है। सूरदास की कृतियों में भाव पक्ष और कला पक्ष दोनों ही पक्ष परिपुष्ट हुए हैं । जिस प्रकार सूरदास ने गौरी, सारंग, आसावरी, सोरठ, भैरवी, घनाभी, ध्रुव, विलावल मलार, जैतिश्री, विराग, भोरी, सोहनी, कानूरा, केदारा, मन आदि-राग-रागिनियों में पदों की रचना की है, उसी प्रकार बुधजन ने भी प्रभाती, वित्रायल, कनड़ी, रामवली श्रलहिया, आसावरी, जगिया, झांझ, टोड़ी, सारंग, पूरी गौड़ी, काफी कनड़ी, ईमन, भोरी, संभाव, हिंग, गारो, कान्हो, विला Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक अध्ययन १५६ पल, वरवा, सिंघड़ा, ध्रुपद आदि अनेक राग-रागिनियों में पदों की रचना की। संगीत का माधुर्य सूर के पदों के समान ही प्रालोच्य फदि में भी लक्षित होता है । अन्तर्जगत् के चित्रण की दृष्टि से सूर के अनेक पद जन पदों के समान भावपूर्ण हैं । वात्सल्य, भूमार नोर शान्त इन तीनों रसों का जैसा परिपाक सूर के पदों में है, वैसा ही कविवर यषजन के पदों में भी विद्यमान है । विनम के पदों के प्रारम्भ में अपने प्राराध्य कृष्ण की स्तुति करता हुआ कवि कहता है : प्रभु मोरे अवगुन चित न घरी समदरसी है नाम तिहारो, चाहो तो पार करो प्रबको वेर नाथ मोहि तारो नहि पन जात टरो ॥ यहाँ तुलना के लिये कविवर बुधजन का एक पद उद्धृत किया जाता है। दृष्टव्य है कि दोनों के पदों में कितनी समानता है। तम चरनन की सरम प्राय सूखपायो। प्रवलो चिर भव धन में ढोल्यो जनम जनम दुःख पायो ।।१॥ ऐसी सुख सुरपति के नाहीं सो सुख जात न गायो । अब सब संपति मो जर माई प्राज परमं पद लायो ।।२।। मन बच तन में एढ़ करि राखो, कबहुं न ज्या विसरायो। वारंवार बीनवे 'बुधजन, कीजे मन को भायो ।।३।। सूरदास ने विषयों की ओर जाते हुए मन को रोका है और उसे नाना प्रकार से फटकारते हए मात्मा की ओर उन्मुख किया है । नाना प्रकार की आकांक्षाए ही इस मन को आकृष्ट कर विषयों में संलग्न कर देती हैं जिससे भोला मोर असहाय मानव विषमेच्छात्रों की अग्नि में जलता रहता है । सूरदास मानव के मज्ञान भ्रम को दूर करते हुए कहते हैं : रे मन मूरख जन्म गमायो। कर अभिमान विषय संग राचमो, स्याम सरन नहिं प्रायो। यह संसार फूल सेमर को सुन्दर देखि भुलायो । वरनन लाग्यो रुई गई उहि, हाथ कछु नहिं प्रायो । कहा भयो प्रबके मन सोने, पहले नोहि कमायो । कहत सूर भगवन्त भजन विनु, सिर घुनि धुनि पछतायो । सथा जादिन मन पंछी उड़ि जै है। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० तथा— जैसे कि एवं तथा कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व तादिन सेरे तन तरुवर के, सर्वपात भरि जे हैं ॥१॥ घर के कहें वेगि ही काढ़ो, भूतभये कोई से है गर जा प्रीतम सौ प्रीति घनेरी, सोऊ देखि डरे है ||३|| रे मन जन्म अकारथ जात ॥ बिछुरे मिलन बहुरि कब है, ज्यों तरुवर के पात ॥१७ रसना दूरी बात ||२॥ त्रिपात कफ कंठ विरोधी P प्रान लिये जमजात मूढमति देखत जननी तात ॥ ३॥ उपरोक्त सूर के पदों के साथ 'बुषजन' के कतिपय पद तुलना योग्य है । P रेमन मूरख बावरे, मति दील न लाये ॥ जय रे श्री अरहंत कौं, यो मौसर जाये || नर भवपाना कठिन है, यो सुरपरि चाहे || को जाने मति काल की, यो अचानक आये ॥ छूट गये श्रम छूटते, जो झुटा चावे ॥ सब छूटे या जाल तें, यो आगम गावै ॥ भोग रोग को करत है, इनकों मत सार्व ॥ ममता तजि समता हो, 'बुधजन' सुख पार्द ॥ क्यों रे मन तिरपत नहि होय ॥ अनादि काल का विषयन राच्या, अपना सरबस खोय ।। नेषु चाखि के फिर न बाहुडे, अधिका लपटे जोय ।। ज्यों ज्यों भोग मिले त्यों तृष्णा, अधिको अधिको होय || मन रे तेने जन्म अकारथ खोयो || तू डोलत नित जगत बंध में ले विषयन रस लूट्यो । इस प्रकार कविवर बुधजन ने कविवर सूरदास के समान श्राशा तृष्णा की खूब निंदा की है। वस्तुत भाषा इतनी प्रचंड अग्नि है कि इसमें जीवन का सर्वस्व स्वाहा हो जाता है | आशा नाम की सांकल से बंधा हुआ जीव निरंतर भागता फिरता है और इस श्रृंखला से छूटा हुआ जीव शान्त होकर बैठ जाता है। इस आश्चर्य को "बुधजन" ने अपने पदों में व्यक्त किया है उन्होंने मन को विविध Error का भी सुरक्षा की भांति सूक्ष्म विवेचन किया है । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक अध्ययन १६१ "समधे हिन्दी साहित्य में सुरदास का बाल वर्णन प्रसिद्ध है । उन्होंने बालक कृष्ण की अनेक मनोदशात्रों का चित्रण किया है । सच यह है कि वे इस क्षेत्र में -=ोले नहीं थे । मध्यकालीन जैन हिन्दी कवियों ने तीर्थंकरों के गर्भ और जन्म से सम्बन्धित अनेक मनोरम चित्रों का मकन किया है । इन अवसरों पर होने वाले विविध उत्सवों की छटा को मूरदास डू भी न सके हैं । यह जन कवियों की अपनी शैली थी, जो उन्हें पूर्व परम्परा से ही उपलब्ध हुई थी। "मादीवरफागु" में मादीश्वर प्रभु का जन्मोत्सव सम्बन्धी एक ष्टान्त देखिये :-- "हे. रतन पारित गति मोटाउ मोटाउ लीघउ कुंभ । क्षीर समुद्र शंकू पूरीय पूरीय प्राणीय प्रभ ।। माहे द्रुमि मि तब लीय बज्जइ प्रमि प्रमि मछलनाद । टणण टणण टंकारब, झिणि झिरिण झल्लर साद 1।" "भादीश्वरफागु' का एक और सुन्दर एष्टान्त प्रस्तुत है। इसमें कवि ने बालक के निरन्तर बढ़ने का वर्णन किया है । "मादीश्वर दिन-दिन इस भांति बढ़ रहे हैं, जैसे दितीया का चन्द्र प्रतिदिन विकसित होता जाता है। उसमें शनैः शन: ऋद्धि, बुद्धि और पवित्रता प्रस्फुटित होती जा रही है, जैसे समाधिलता पर कुन्द के फूल खिल रहे हों।" __ 'सूर स हिन्दी भक्ति युग के सशक्त कवि हैं। उन्होंने भाव-विभोर होकर सगुण ब्रह्म के गीत गाये ।' 'सूरसागर' इसका प्रतीक है। उसमें सूर के निमित सहनों पदों का संकलन है । ये पद गेय हैं। राग रागिनियों से समन्वित हैं। उनका बाह्य सुन्दर है, तो अन्तः सहज और पावन 1 सब कुछ भक्तिमय है।" इसी युग में जैन कवियों ने भक्ति रस पूर्ण भधिकाधिक पदकाव्य का निर्माण किया । वह सब भक्तयात्मक है। उसमें भी प्रसाद और लालित्य है । विविध रागरागिनियों का नर्तन वहां भी है । दोनों में बहुत कुछ साम्य है । कहीं-कहीं तो तत् %3D' - -- - १ डा. प्रेमसागर जैनः हिन्दी जन भक्ति काव्य मोर कवि, पृ० संख्या ७५ भारतीय मानपीठ प्रकाशन । २. मट्टारक शानभूषणः मावीश्वरफागु पद ० २६२, पामेर शास्त्र भंगर की हस्तलिखित प्रति । माहं विन दिन बालक मापा, वीजतरण, जिन चन्द । ऋद्धि विबुद्धि विशुदि समाधिलता कुल २ ॥२॥ भट्टारक शामभूषणः मावीश्वरफागुः, मामेर शास्त्र भंडार की हस्तलिखित प्रति । ४, अनेकान्स मासिक पत्रिका, वर्ष १६६६, मकर, पृष्ठ ३५ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व है । बनारसीदास, चानत राय, भघरदास, बमज़न, ता भगमतीदार.मातरः प्रोट ब्रह्म मादि समर्थ जैन कवि थे, जिन्होंने सूर, तुलसी, मीरा प्रादि के समान आध्यास्मिक एवं भक्ति पूर्ण पदों की रचना की। इन कवियों की रचनाएं कला और भाव दोनों दृष्टियों से सूर की रचनाओं के समक्ष रखी जा सकती हैं । जैन कवियों की भक्ति रस पूर्ण रचनायों के अवलोकन से एक विशेष बात भी दृष्टव्य है जो सूर की रचनाओं में नहीं मिलती। ___ सूर ने बालक कृष्ण का जितना मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है, उतना राधा का नहीं । परन्तु जन कवियों को रचनामों में हम बालिवानों का भी मनोवैज्ञानिक चित्रण पाते हैं । सीता, अजना प्रौर राजुल के मनोभात्रों का बड़ा ही मनोरम वर्णन जन कवियों ने किया है जो अद्वितीय है। जन भक्त कवियों की एक और अद्वितीय विशेषता है। उन्होंने लौकिक श्रृंगार को कभी भी महत्व नहीं दिया। उन्होंने सुभति को ही राषा कहा और परमात्मा के विरह में उनकी बैचेती हिन्दी काव्य की नई देन है। सूर की भक्ति केवल ब्रह्म के सगुण रूप की भक्ति है। निर्गुण ब्रह्म पर उन्होंने कुछ भी नहीं लिखा, जबकि जन ववियों ने ब्रह्म के मा-निगण दोगें रूपों पर लिखा है । जन परम्परा के अनुसार अरहंत प्रवस्था को सगुण और सिद्ध अवस्था को निर्गुण माना गया है और यह भी प्रतिपादन किया गया है कि सगुण-निर्गुण हो सकता है । जो चार घालिया कर्मों के किनाशक हैं वे परहंत कहलाते हैं, जब बे ही प्ररहंत, योग निरोध पूर्वक शेष बचे चार प्रघातिया कर्मों का नाश कर देते हैं, तब केही सिद्ध या निर्गुण बन जाते हैं। कविवर "बुधजन" ने सूरदास की भांति भगवान से याचनाए' की हैं, पर वे याचनाए' सांसारिक सुख प्राप्ति के लिये नहीं हैं । ये तो यही याचना करते हैं कि हे भगन् ! मुझे भव-भव में प्रापके चरणों की शरण प्राप्त होती रहे। इसके सिवाय कवि न स्वर्ग चाहता है न राजा बनना चाहता है न वह बहुत बड़े कुटुम्ब की ही याचना करता है।" भक्त कवि होने के कारण दोनों ही कवियों के पदों में प्रलंकारों की खींचतान नहीं है। उनकी गति सहन है । एक पद्म और प्रस्तुत है, जिसे देखने से "प्रजन" के पदों को "सूरदास' के पदों से भाव-भाषा, एवं विषय वस्तु की दृष्टि से समानता का बोध हो जाता है। १. याचं नहीं सुरवास पुनि नरराज परिजन साथ जी। सुध याचहूं सुव भक्ति भव-भव दौजिये शिवनाथ जी ।। बुधजनः देवदर्शन स्तुलि, ज्ञानपीठ पूजामलि, पृ० सं० ५३४, ५३५ भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक अध्ययन मेरे अवगुन जिन गिनो, मैं औगुन को धाम । पतित उद्धारक प्राप हो, को पतित को काम || (बुधजन) प्रमु मेरे अवगुन चित न गिनो।। समदशी है नाम तिहारो, चाहो तो पार करो ।। (सूरदास) अत: यह स्पष्ट है कि बिवर बुधजन सूरदास की ही भांति सहृदय थ, भक थे और उनके पद गेय थे। उन्होंने भी भाव-विभोर होकर सगुण निगुग के गीत गाये हैं । यद्यपि सूरदास व बुधजन दोनो ही कवियों ने दास्य-भाव की भक्ति की है तथापि दोनों के दास्य भाव में अन्तर है । सूरदास के प्राराध्य देव ग्रानी कृपा से भक्त को अपने समान बनाने वाले हैं। वे जब चाहेंगे तभी भक्त वा उद्धार हो सकेगा। दूसरे शब्दों में मूर के प्रभु ही कर्ता हैं । वे ही भक्त को पार-गाने वाले हैं, परन्तु कविवर बुधजन के प्रभु कर्ता-धर्ता नहीं हैं । उन्होंने भगवान की भक्ति करने को प्रेरणा तो केवल इसलिये दी है कि बीतराग के गुणों की स्वीकृति के साथ वीतराग बनने का लक्ष्य प्रभास्त हो । क्योंकि भक्त स्वयं सोऽहं की अनुभूति करना चाहता है। अतएव व्यवहार से भक्ति के माध्यम से वह साध्य की प्राप्ति का लक्ष्य निर्धारित करता है । इस लक्ष्य निर्धारण में अपने अवगुण-दोषों का चिलन करना और वीतरागता स्वरूप त्रीलगग प्रमु का महात्म्य प्रकट करना स्वाभाविक है । अतएर लौकिक व्यवहार से यह कहा जाता है कि हे प्रभो ! पाप पतितों के उद्धारक हैं। श्राप ही संसार रूपी समुद्र से मेरी जीवन-नौका को पार लगाने वाले हैं । यथार्थ में प्राणी ही अपने पु:षार्थ से अपने ही भीतर विराजमान परमात्म शक्ति को व्यक्त कर परमात्मा बनता है, किन्तु भक्ति के प्रावेश में अपने प्राराष्य के महत्व को बढ़ाचढ़ा कर कहता हुअा, उसे ही सर्वश्रेष्ठ बताता द्वमा उपचार से इस प्रकार का वर्णन करता है। ६. संत काश्य परम्परा में बुधजन __"संत शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में अनेक विद्वानों ने किया है। कुछ लोग "संत" का अर्थ करते हैं-बुद्धिमान, पवित्रारमा, सज्जन, परोपकारी, सदाचारी व्यक्ति । कुछ लोग संत शब्द को शान्त का रूपान्तर मानते हैं और उनकी निरुक्ति निम्न प्रकार करते हैं : ___"शं-सुखं, ब्रह्मानन्दात्मकं विद्यते यस्य" अर्थात् जिसे ब्रह्मानन्द्र की प्राप्ति हो गई है वह संत है। यह शब्द मूलतः सन् शब्द का बहुवचन है। जन् पाद प्रस् (मुवि) अस् (होना) घातु से बने हुए "सत्" का पुल्लिग रूप है जो शत प्रत्यय लगाकर प्रस्तुत किया गया है अतः इसका अर्थ हुआ होने वाला या रहने वाला । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व भाष यह है संत शब्द प्रपने मौलिक अर्थ में शुद्ध अस्तित्व मात्र का बोधक है। शास्त्रों में इसका अर्थ उस परम-तत्व के लिये प्रयुक्त हुमा है जिसका कभी भी नाश नहीं होता । जो सदा एक रस तथा अधिकारी है । उसी को सत्य के नाम से भी अभिहित किया गया है। वैदिक साहित्य में भी इस शब्द का प्रयोग हुया है। वहीं इस शब्द का प्रयोग ब्रह्म मानी परमारमा के अर्थ में हुअा है। कुछ महात्मानों ने संत एवं परमात्मा को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया है। उपरोक्त व्याख्या के माघार पर अन्य संतों की भांति में "कविवर बुधजन" को प्राध्यात्मिक परम्परा का संत मानता हूं पोंकि ये मुख्यतः अध्यात्म रस के रसिक थे । प्रारमा की घरमोन्नति के उद्घोषक ५ हिन्दी साहित्य में निपुण धारा एवं सगुण धारा के संतों ने जिस प्रकार ब्रह्म के निर्गुण-सगुण रूप की भक्ति की है उसी प्रकार "बुधजन" ने निगुणा (सिव) सगुण (प्रहन्त) इन दोनों रूपों की भक्ति की है । उनका भगवत् प्रेम सरसता का संचार करता है। इस विषय में डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री लिखते हैं : जन संतों का भगवत् प्रेम शुष्क सिद्धान्त नहीं "अपितु स्थायी प्रवृत्ति है । यह प्रात्मा की अशुभ प्रवृत्ति का निरोध कर शुभ प्रवृत्ति का उदय करता है, जिससे दया, क्षमा, शान्ति प्रावि श्रेयस्कर परिणाम उत्पन्न होते हैं। जन संतों का वयंविषय भक्ति और प्रार्थना के अतिरिक्त मन, शरीर, इन्द्रिय प्रादि की प्रवृत्तियों का अत्यन्त सूक्ष्मता और मार्मिकता के साथ बिबेचन करना एवं प्राध्यात्मिक भूमियों को स्पर्श करते हुए सहज समाधि को प्राप्त करना है।" व्यक्ति से समाज बनता है और समाज की भूमिका पर व्यक्ति का विकास होता है 1 हजारों वर्षों से संत और शानी तथा विचारक विचार करते पाये हैं कि समाज की व्यवस्था ठीक रहने, लोगों में योग्य गुणों का विकास होने और सुख पर्वक जीवन बिताने के लिये किन-किन नियमों या गुणों की प्रावश्यकता है। संत और ज्ञानी प्रायः सार्वकालिक और सार्वजनिक होता है । वह जो कुछ सोचता है सबके लिये सोचता है और हम उनके उपदेशों को सुनकर हित के मार्ग पर चलते हैं । मतः सन्त हमारे महान उपकारी हैं। कविवर "बुधजन" ने अपने साहित्य में प्रतिपादित किया-सुख प्राप्ति की पहली शर्त यह है कि प्रादमी अपने लिये कम से कम लेकर दूसरों को अधिक से अधिक सेवा दे। ऐसा भादमी जहां जाता है, प्रादर पाता है और सुख की वृद्धि होती है। उससे किसी को कष्ट नहीं होता । कूदम्ब में रहकर वह अपने से बड़ों की सेवा करता है । छोटों पर प्रेम और वात्सल्य रखता है। समाज में भी वह १. जो० नेमिचन्न पास्त्री : हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन, भाग १, पृ. २० १०६-१०७. भारतीय ज्ञान पीठ प्रकाशन प्रथम संस्करण १९५६ । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक अध्ययन १६५ श्रप्रमत्त भाव से अपने कर्त्तव्य का पालन करता है । कुटुम्ब और समाज के लिये की गई उसकी सेवा देश के लिये पूरक ही होती है क्योंकि ऐसा आदमी अपनी मर्यादा को जानता है और किस क्षेत्र में कितनी सेवा करनी चाहिये यह विवेक उसे होता है । उसका ध्येय सब की भलाई होने से किसी एक की भलाई के लिये वह दूसरों को कष्ट नहीं देता । एक की सेवा के लिये दूसरों की कुसेवा नहीं करता इत्यादि । कवि बुधजन के अनुसार संत में निम्न गुणों का होना आवश्यक है(१) अहिंसा ( २ ) सत्य (३) संयम ( ४ ) समन्वयदृष्टि ( ५ ) विवेक (६) पुरुषार्थ और अनासक्तभाव । कवि ने अपना साधना मय जीवन इसी विचारधारा को मूर्त रूप देने में लगाया । परमार्थं चितन और लोक कल्याण में जो अपना समूचा जीवन far वही सन्त है । वे सबका समान रूप से उदय चाहते थे । शास्त्रों की पुरानी लकीर पीटने में उनका विश्वास नहीं था वे शास्त्रों के आधार पर अपने जीवन में प्रयोग करते रहे । शास्त्रों में से उन्होंने ऐसे तत्वों को चुना जो व्यक्ति और समाज के लिये लाभदायक थे । साधारणतया ऐसा समझा जाता है कि जो घर छोड़ दें वह सन्त है, परन्तु संत को बनवासी या होना ही हिने नहीं है। रहस्थी में रहकर भी वह अनासक्त भाव से रह सकता है। अपनी बुद्धि से निपत कर्म में फल की आकांक्षा न रखते हुए लगे रहने वाला व्यक्ति ही संत है फिर चाहे वह गृहस्थ हो या वनवासी। गृहस्थ के मनासक्त भाव का वर्णन कविवर बनारसीदास ने इस प्रकार किया है । "कमल रातदिन पंक में ही रहता है और पंकज कहलाता है परन्तु वह पंक से सदा ही अलग रहता है। मंत्रवादी सर्प को अपना शरीर पकड़ाता है परन्तु मंत्र की शक्ति से विष के रहते हुए भी सर्प का डंक निर्विष रहता है । जीभ चिकनाई को ग्रहण करती है, परन्तु वह सदा ही रूखी रहती है। पानी में पड़ा हुमा सोना काई से अलग रहता है। इसी प्रकार ज्ञानी जन ( संतजन ) संसार में अनेक क्रियाओं को करते हुए भी अपने को सभी क्रियाओं से भिन्न मानता है । उन क्रियाओं में मन्न नहीं होता। इसलिये सदैव ही निष्कलंक रहता है ।" जैसे निशिवासर कमल रहे पंक ही में, पंकज कहा वे पैन वा जैसे मंत्रवादी, विषधर सो महावेगात, मंत्र की मक्ति अंक है। ढिंग पंक है । वाके बिना विष जैसे जीभ गहे चिकनाई रहे कले अंग, पानी में कनक से कार्ड से मटक है । से ज्ञानवान नाना भांति करतूत ठाने, किरिया से भिन्न माने यातें मिष्कलंक है । : कश्विर बनारसीदास प्राचीन हिन्दी जन कवि, पृ० ६० भारत वर्षीय जैन साहित्य सम्मेलन, दमोह | Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व "संसार की जड़ मोह है। इसमें प्रभाव में प्रसायाम संपार नला जाता है। अात्मा की विकार परणति का नाम ही तो संमार है । यद्यपि उस विकार परएति के उपादान कारण हम ही तो हैं । झेय पदार्थ विकारी नहीं । वह तो विभिन्न मात्र है । प्रात्मा का शान जो है वह ज्ञेय के निमित्त से कोई विकार को नहीं प्राप्त होता है।" ___ संत तुलसी ने संतसंग को राम भक्ति का अनिवार्य अग माना है और यह भी लिखा है कि संतों का संग हरिकृपा से ही मिलता है उन्होंने संस (साधु) संगति का ही दुसरा पक्ष प्रसंत (असाधु) से असहयोग करना बताया है। इसीलिये संत तुलसीदास अपने एक प्रसिद्ध पद में कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति से सर्वथा असह्योग ही करना होगा जिसे सीताराम जैसे संत प्रिय नहीं है। तुलसी रवयं स्वीकार करते हैं कि मुझे राम कथा संत संसर्ग से ही प्राप्त हुई है । इससे स्पष्ट है कि राम भक्ति का सबसे अावश्यक प्रग संजसंग ही है। "रामचरित मानस का प्रारंभ करते हुए गोस्वामी जी ने मंगलाचरण और गुरू बंदना के अनंतर सबसे प्रथम संत वंदना की है । संत और भक्त का सबसे बड़ा लक्षण है परोपकार | दे मित्र हों या शत्रु । सभी का निष्प्रयोजन निरंतर कल्याण करने में निरत रहते हैं।" संत तुलमी की भांति जैन कवि दौलतरम कहते हैं : "अरि मिन महल मसान कंचन, कांच निंदन थुतिकरन । प्रवितारन यसिप्रहारन में सदा समता घरन ।।" "शत्रु' और मित्र, महल और मसान, कंचन और कांच, निंदा और स्तुति पूजा और प्रसिपहार इन सभी प्रवस्थानों में संत जन सवा समता भाव धारण करते संतकबीर के रहस्यवाद सम्बन्धी अनेक पद जन कवियों के पदों से साम्य रखते हैं । कबीर ने माया को महाटगनी कहा है । जैन कवि भूबरदास भी "सुनिठगिनीमाया लें सब जग ठगवायां " द्वारा माया को ठगिनी कह रहे हैं । अन्मान्म संत कवियों की भाति बुधजन ने भी अनेक सरस पदों की रचना की है। उन्होंने चित्त बी शखि व सम्यग्ज्ञान नो तप और दान से अधिक महत्व दिया है। वे दूसरों की शुद्धि करने में विश्वास नहीं करते स्वयं शुद्ध होने में विश्वास करते हैं। १. गणेशवरी: अनेकान्त वर्ष ११, किरण ६, पृ० सं० २४१ । २. आके प्रिय न राम बेहो, सो छोड़िये कोटि बैरीसम, जबपि परमसनेही। ३. डॉ. माता प्रसाद गुप्तः तुलसी, पृ० सं० १२०-१२१, सन् १९५२, हिन्दी परिषद्, प्रयाग विश्वविद्यालय । बौलतराम : छहहाला, अठोटाल, प, सं० ६, सरल जैन प्रष भंडार, जबलपुर। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक अध्ययन सन्त-जन प्राध्यात्मिकता के सूर्य हैं । जिनसे ज्ञान की किरणें समस्त जगत के ऊपर पड़ती हैं । जिन्होंने प्रश्नद्धा का श्रासपत्र नहीं धारण किया है। वे उनसे संजीवनी शक्ति खींच सकते हैं। "सामान्य लोगों को चाहिये कि वे सत्संग किये आय । रस्सी की रगड़ से पत्थर भी घिस जाता है अतः बहु कालीन संगति का असर हमारे ऊपर अवश्य पाता है 1 सत्संग के सम्बन्ध में दो बातें ध्यान देने योग्य है (१) मन लगाकर किया जाय (२) बहुत काल तक किया जाय । यदि मन लगाकर बहुत काल तक सत्संग किया जाय तो उसका असर होना और हमें लाभ पहुंचना अवश्यंभावी है।" रामचरित मानस में तुलसीदास जी ने इस बात की समीक्षा की है कि कवि लोग संत के हृदय को नवनीत क समान बताते हैं परन्तु सात हृदय के लिये नवनीस की उपमा योग्य नहीं है क्योंकि मश्वन तो स्वतः के ताप से पिघलता है अबकि संत का हृदय पर पीड़ा के कारण ही द्रवित हो जाता है। "संतों और समभक्तों में जो लक्षण गोस्वामी जी ने बताये हैं उनसे राम भक्ति का स्वरूप प्रत्यात स्पष्ट हो जाता है । उनकी राम भक्ति कोई लोक बाह्य साधन नहीं है । यह परोपकार, लोककल्याए और सचराचर विश्व सेवा के रूप में प्रस्फुटित होती है । रामचरित मानस की भूमिका में जो सबसे बलशाली वंदना है वह राम नाम की है। कबीरदास आदि निगुनिये संतों की भांति 'बुधजन' ने गुरु की महत्ता समान रूप से स्वीकार की है। उन्होंने गुरु के प्रसाद को पाने की प्राकांक्षा की है। कबीर दास ने गुरु को ईश्वर से बड़ा बताया जबकि बुधजन ने ईश्वर को ही सबसे बड़ा गुरु मामा है । बुधजन ने पंच परमेष्ट्री को परम गुरु माना है। मई त परमेष्ठी से प्रार्थना करते हुए कहते हैं : ___ "हे प्रमु ! श्रेष्ठ पदार्थ समझकर मैं आपके चरणों की पूजा करता हूं। भक्ति पूर्वक पूजा करने वाला सेवक भी अापके समान बन जाता है अर्थात् वह भो परमात्मा बन जाता है।" "सत् संगति में रहने से जीघन सफल हो जाता है परन्तु जो खराब मार्ग से गुजरता है उसके जीवन में कलंक (दोष) अवश्य लगता है ।" यह कहकर "बुधजन" १. डा० मरेन्द्र भामावत:, जिनवाणी पत्रिका, वर्षे ३३, प्रक ४-७ २. डॉ. माताप्रसाद गुप्तः तुलसी, पृ० सं० १२०.१२२, सन् १९५२, हिन्दी परिषद प्रयाग विश्वविद्यालय । पूजू तेरे पायं फू, परम पदारथ जान । तुम पूजेते होत है सेयक प्राप समान ॥ बुधजनः बुधजन सतसई; पच सं० ८ पृ० सं० २, सनाधव ।। सससंगति में बैठता, जनमत सफल ह जाय। बुधजनः सतसई: पृ०६. पृ० सं० ४४५ । ३. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व सतसंग की महिमा बता रहे हैं। उनका लक्ष्य है कि संसार में मनुष्यों को जो श्रावर प्राप्त होता है वह सत् संगति के कारण ही प्राप्त होता है । शिल्पी के कर स्पर्श से बजता हुआ मुरज क्या कुछ अपेक्षा करता है ? अर्थात् नहीं । उसी प्रकार तीर्थंकर प्राणिमात्र के हित का उपदेश देते हैं । तीर्थंकर की दिव्यध्वनि का खिरता लोक मंगल हेतु है । उसी परम्परा को जंनाचार्यो एवम् जन कवियों ने निभाया | बुधजन ने भी उसी परम्परा का निर्वाह किया है। पूर्व परम्प नुसार अपने ग्रन्थों के प्रारम्भ में अरहन्तों और सिद्धों की भक्ति की है। प्राज भी वही परंपरा प्रचलित है । आज भी जैन पाठ शालाओं में 'क' नमः सिद्धेभ्यः' का पाठ प्रारम्भ से पढ़ाया जाता है । संगति ही है क्योंकि सत् का अर्थ होता है परमात्मा इसलिये सत्संग हुआ ब्रह्म साक्षात्कार । सत् का दूसरा अर्थ है सज्जन, इसलिये सत्संग का हुआ सज्जनों का संग उहोता है। इसलिये सत्संग का अर्थ हुआ ग्रन्थावलोकन, तीर्थ सेवा मादि सद्विषयों की भोर प्रवृत्ति । "मुषजन" का विचार है कि सज्जनों का प्रभाव हमारे हृदय में अवश्य ही वृद्धि करता है। इसके लिये दो बातों की बड़ी आवश्यकता है । एक तो (वंशग्य के प्रधान आधार) दूसरे पुण्य पुंज की (धर्माचरण की । । यह सत् का अर्थ 1 श्रद्धा की विवेक की तुलसीदास जी भी कहते हैं कि पुण्यपुंज के बिना तो संतों का मिलना ही संभव नहीं और विवेक के बिना उनकी परख होना कठिन है । इस प्रकार विभिन्न विद्वानों, संतों एवं दार्शनिकों ने सत् रूपी परमतत्व के अनुभव करने वाले ( सम्यग्दृष्टि) जीवों को संत माना है और इसी कारण गृहस्थ होते हुए भी मैं कविवर बुधजन को संतों की श्रेणी में गिनता हूँ । अपनी इस मान्यता की पुष्टि में मैं प्राचार्यं परशुराम चतुर्वेदी का कथन प्रस्तुत करता हूँ : १. "अतएव " संत शब्द इस विचार से उस व्यक्ति की ओर संकेत करता है। जिसने सत् रूपी परमतत्व का अनुभव कर लिया हो और जो इस प्रकार अपने व्यक्तित्व से ऊपर उठकर उसके साथ तद्रूप हो गया हो । जो सत्य स्वरूप नित्य सिद्ध वस्तु का साक्षात्कार कर चुका है अथवा अपरोक्ष की उपलब्धि के फलस्वरूप प्रखंड सत्य में प्रतिष्ठित हो गया है, वही संत 1 | " ७ बुधजन का भक्तियोग "आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार हिन्दी का भक्तिकाल वि० सं० १४०० प्राचार्य परशुराम चतुर्वेदी : उत्तरी भारत की हात परंपरा, पृ० संख्या ५ द्वितीय संस्करण, संवत् २०२१, भारती भंडार, लीडर प्रेस, इलाहाबाद Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F तुलनात्मक अध्ययन १६६ से १७०० तक माना गया है ।" परन्तु यदि हम जंन हिन्दी साहित्य का भली भांति अवलोकन करें तो हम पायेंगे कि हिन्दी को जैन भक्तिपरक प्रवृत्तियां वि० सं० ६६० से १२०० तक चलती रही । हो! इतना अवश्य है कि इसका विकास १४ शताब्दी तो जैन भक्ति के पूर्ण यौवन का काल था । १५ वीं शताब्दी से १९ वीं शताब्दी तक के ४०० वर्षों के काल में जैन भक्त कवियों ने भक्ति सम्बन्धी रचनाएं की जो पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं।" माचार्य शुक्ल ने इन जैन भक्ति की रचनाओं का अवलोकन करने की कृपा नहीं की होगी इसीलिये उन्होंने १४०० से १७०० तक के काल को भक्ति काल स्वीकार किया । इस काल में भक्ति की धारा अत्यधिक पुष्ट हुई। जैन कवियों ने भक्ति विषयक रचनाएं कर हिन्दी साहित्य की धारा को समृद्ध बनाया है। जैन कवियों अनंत एवं सिद्ध दशा में स्थित मात्माओं को अपना आराध्य माना है। अरहंत दशा को हम सगुण एवं मुक्त या सिद्ध दशा को निर्गुण कह सकते हैं। अतः जैन साहित्य में सगुण व निर्गुण इन दोनों ही को भक्ति की गई है। इन्हीं को जैन कवियों ने अपना श्राराध्य माना है । इनकी श्राराधना करने से हमारी परिनि शुद्ध होती है । श्रतः इन्हीं को आलंबन मानकर जैन कवियों ने भक्तिपरक भनेक रचनाएं की क्योंकि उनका विश्वास था कि इन्हीं के गुणों से प्रेरणा पाकर यह जीव मिथ्यात्व भाव को दूर करने का प्रयत्न करता है । आत्मा की शुद्ध दधार का नाम ही परमात्मा है । प्रत्येक जीवात्मा कर्मबन्धन से बिलग होने पर परमात्मा बन जाता है । भतः अपने उत्थान और पतन का दायित्व स्वयं अपना है अपने विचारों एवं कार्यों से जीव बंधता है और अपने ही विचारों एवं कार्यों से बन्धनमुक्त होता है । ईश्वर की उपासना करने से साधक की परिणति स्वतः शुद्ध हो जाती है । जैन भक्त कवियों ने अपनी भक्ति-परक रचनाओं में अपने प्राराध्य को वीतराग माना है। उन्होंने अपने आराध्य से सांसारिक पदार्थो की याचना कभी नहीं की । उनकी स्पष्ट मान्यता रही है कि निर्विकार होने से ईश्वर किसी को कुछ देता-लेता नहीं है। अपने किये कर्मों का फल प्रत्येक जीव को स्वयं भोगना पड़ता है क्योंकि कर्मों का कर्त्ता या भोक्ता जीव स्वयं है । इस प्रकार की भक्ति भावना से रचना की है। अवतारवाद जैन प्रेरित होकर ही जैन कवियों ने भावात्मक पदों की भक्त कवियों को स्वीकार नहीं । १. २. रामचन्द्र शुक्ल : हिन्दी साहित्य का इतिहास पृ० काशी नागरी प्रचारिणी सभा, संवत् २००३ वि० प्रेमसागर जैन हिन्दी जैन भक्तिकाल और कवि भूमि का पू० १३ भारतीय ज्ञान पीठ प्रकाशन | Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व कविवर बुधजन ने अपने प्राराध्य को अनंत गुणों हा भंडार मामा है। जिससे कोई भी साधक अपनी गुप्त प्रात्मिक शक्तियों को प्रगट करने की प्रेरणा प्राप्त करता है । वस्तुतः पाराध्य के गुणों की प्रशंसा करना ही मक्ति है । भक्ति करने से चित्त निर्मल होता है । चित्त की निर्मलता से पुण्य का बघ होता है, वही पुण्य उदय काल में सुख की सामग्री जुटाता है । तथ्य यह है कि जैन भक्त कवियों ने जैन दर्शन के मिद्धान्तों के अनुरूप निष्काम भक्ति की प्रेरणा दी है । इस विषय मे आघायं काका कालेलकर के निम्न उद्गार दृष्टव्य हैं "सचमुच भक्ति ही जीवन है । नदी का सागर की तरफ बहना, जीव का शिव की मोर प्रखण्ड चलने वाला भाकर्षण 'सीमा" का परिपुष्ट होकर "भूमा" में समाजाना, यही तो भक्ति है और भक्ति तो प्रखण्ड बड़ने वाली रममय प्रवृत्ति है। बहने वाली नदियां जिस समुद्र में जाकर मिलती हैं. उस समुद्र को न बना है. न घटना है, तो भी उसमें ज्वार भाटा की लोला चलती है और किसी भी नदी के प्रवाह की अपेक्षा स्वयं समुद्र के अन्तःप्रवाह अधिक वेगवान और समर्थ होते हैं। भक्ति का क्षेत्र अत्यन्त विशाल है उसमे जाति-पाति वा भेद नहीं होता। मुनि वादिराज का शरीर कोढ़ युक्त या प्रमु स्मरण से वह स्वर्ण जैसा चमक उठा। सोप और मेंढक जैसे जीवों को स्वर्ग की प्राप्ति हुई । धनंजय का पुत्र प्रभु की भक्तिः से जीवित हो गया । मक्ति के प्रताप से संसार के मुख मिलते हैं पर जन भक्त संसार के सुखों की कामना से कमी मी मक्ति नहीं करता । वह तो प्राध्यःस्मिक सुख को ही अपना लक्ष्य बनाता है । प्रभु ग्माण में मानतुग के बन्धन टूट गये पर मानतुग ने बन्धन मुक्त होने की कामना से प्रभु-स्मरण नहीं किया। कविवर "बुधजन" की जिनेन्द्र मक्ति प्रसिद्ध है। 4 जयपुर राज्य का दीवान अमरचन्द के यहां प्रधान मुनीम थे । दीयान ने उन्हें एक जिन मदिर बनवाने की आज्ञा दी परन्तु कवि ने दो जिन मंदिर बनवाये । इसके पीछे उनकी भावना यही थी कि ये मंदिर आराधना के घर हैं । यहां प्राकर अधिक से अधिक लोग भक्ति करें। आपके भक्ति पूर्ण पव इस बात को द्योतित करते हैं कि प्रापकी भक्ति निष्काम थी। वे कभी-कभी भक्ति रस की सरस धारा में निमग्न हो इस बात का विचार किया करते थे कि हे बुधजन ! तुने जिनेन्द्र के भजन प्रथवा प्रात्मक्षेत्र के प्राराधना बिना ही अपने मानव जीवन को यों ही गंवा दिया और जी कुछ रहा है वह भी बीता जा रहा है। तूने पानी पाने से पहले पाल न बांधी फिर पीछे पछताने से क्या १. काका कालेसकर: हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि का प्रारकथान पृ० सं० ३, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक अध्ययन लाभ ? जप-तप-संयम का कभी तूने भाचरण नहीं किया। न किसी को दान ही दिया किन्तु धन और रामा की सार सभान करते हुए उन्हीं के प्राशा जाल में बंधवार त ने इस मानव जीवन को हराया है। अब त वृद्ध हो गया । शारीर और सिर कांपने लगे । दान भी चलाचल हो रहे हैं । वे एक एक करके विदा लेते जा रहे है । चल ना फिरमा भी अब कि.मी लाठी के प्रवल बन बिना नहीं हो सकता। प्राशा रूपी गड्ढा इतना विस्तृत हो गया कि अब उसका भरना असंभव सा हो गया है । शारीरिक और मानसिक अनन्त वेदनाए तुझे चैन नहीं लेने देती फिर भी त प्रगो को सुखी समझाने का मन करता है। यही तेरी अज्ञानता है। दूसरों की उपदेश देता फिरता है-हित की बातें सुझाता है, पर स्वयं प्रहित के मार्ग में चल रहा है। इस तरह तेरा कल्याण कैसे हो सकता है ? इसका स्वयं विचार कर और अपने हित के मार्ग में लग | इसी में तेरी भलाई है । जिनेन्द्र ही तारण-तरण हैं । इसी से मैंने अब उन्हीं की शरण ग्रहण की है । इस तरह मन में कुछ गुन गुनाते हुए कविबर एक दिन बोल उठे सरनगही मैं तेरी, जग जीवनि जिनराज जगतपति तारन-तरन, करन पावन जग हरन करन भव फेरी ।। हूँ'वृत फिरयो भरयो नाना दुःख, कहूं न मिनी सुम्न सेवी याते तजी पान की सेवा, सेवा राबरी हेरी ॥ परमें मगन बिसार्या मातम, धरो भरम जग करी। ए मति तजू भजू परमातम, सो बुधि कीजे मेरी ॥ एक दूसरे दिन जिनेन्द्र श्रद्धा को और भी निर्मल बनाने हेतु अपनी प्रात्म कहानी कहते हुए तथा मोह रूपी फांसी को काटकर अविचल सुख प्राप्त करने तथा केवल ज्ञानी बनने की अपनी भावना को व्यक्त करते हुए कविवर कहते हैं मेरी प्ररज कहानी सुनिये केवलज्ञानी। चेतन के संग जड़ पुद्गल मिल, मेरी बुधि वीरानी 11१।। भवदन माहीं फेरत मोकू, लखि चौरासी थानी । को तू वरनू तुम सम जानो, जन्म-मरण दुख खानी ॥२॥ भाग भलें तें मिले "अधजन" क, तुम जिनवर सुखदानी । मोह फांसि को काट प्रभू जी, कीजे केवलज्ञानी ।।३।। हूँ तो "बुधजन" ज्ञाता इष्टा, ज्ञाता तन जड़ सरधानी । वे ही अविचल सुखी रहेंगे, होय मुक्तिघर प्रानी ।।४।। यद्यपि मैं ज्ञाता हटा फिर भी मोह की यह बासना अन्त संसार का Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व कारण है । उस अनन्त संसार का छेदन करना ही प्रात्म-कर्तव्य है । इस प्रकार कवि मारम-रस में विभोर हो शरीर को पुद्गल का जामा समझकर सुगुरु की संगति मथवा कृपा से अपनी निषि पा गये । 'घुषजन' जहां एक और कवि हैं वहीं दूसरी मोर भक्त भी हैं । भक्ति का प्रतिपादन यदि बुधजन का साध्य है तो काव्य साधन है। बुधजन की भक्ति पद्धति की निम्नलिखित विशेषताएं हैं:(१) अनन्य भावना (२) मात्म-निवेदन परक भक्ति बुधजन की अनन्य भावना बुधजन में अनन्य भावना पूर्ण रूप में उपलब्ध होती है। वे अपने पाराध्य के गुणों से पूर्णतया परिचित हैं पोर इमीनिये ये उन गुणों का प्राश्रय लेकर अपने उद्धार की बात करते हैं । वे अपने पाराध्य के उदारक रूप का गुणगान करते हुए "बुधजन सतसई" में कहते हैं: वारक बानर वाध महि, प्रजन भील चंडार । जाविधि प्रभु मुखिया किया, सोही मेरी बार ॥३६।। तुम तो दीनानाथ हो, मैं हूँ दीन मनाथ । अब तो ढील न कीजिये, भलो मिल गयो साथ |४२।। और नाहि जाचं प्रभू. ये वर दीजे मोहि । जौलों शिष पहुंच नहीं, तौलों सेऊ तोहि ।।४।। यहां 'बुधजन" अपने दुगुणों का संकेत करके अपने उद्धार की बात करते हैं। उन्होंने वानर, व्याघ्र, सपं, अंजन घोर, भील और चांडाल जैसे पातकियों का उद्धार कर दिया । इतना ही नहीं कविवर की श्रद्धा व स्नेह अपने पाराध्य देव के प्रति इतना अविच्छिन्न बन जाता है कि उसके बिना दे एक अण भी नहीं रह सकते । अपितु यह कहना चाहिए कि वे इसे एक क्षण के लिये भी खोड़ नहीं सकते। उन्हें प्रभु के चरणों की शरण इतनी प्रिय है कि वे जब तक मुक्ति लाम न हो तब सक चरणों की शरण के सिवाय अन्य कुछ वाहते ही नहीं । वे कहते हैं : या नहीं सुरवास पुनिनर राज परिजन साथ जी । "बुध" याबहू तुम भक्ति भव-भय, दीजिये शिवनाथ जी ॥२॥ यही कारण है कि वे जिनेन्द्र देव को छोड़कर अन्य देव की उपासना करना हास्यास्पद मानते हैं। इससे अधिक बढ़ अनन्य भाव की उद्घोषशा और क्या हो सकती है : "निन्दो भावी जसकरो, नाहीं कुछ परवाह । लगन लगी जास न तजी, कीजो तुम निरवाह ।। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक अध्ययन तु त्यागि और न भजू, सुनिये दीनदयाल | महाराज की सेवे तजि, सेवे कौन कंगाल ॥१॥ परमात्म पद की प्राप्ति के लिये वीतराग और सर्वज्ञ की प्रतिमा का दर्शन, पूजन और स्मरण प्रत्यन्त आवश्यक है। यह हमारी भावना को शुद्ध करने का साधन है, इससे प्रशुभ कर्म छूटकर शुभ कर्मों का बल बढ़ता है । भ्रात्मा के परिणाम निर्मल करने का यह सहज मार्ग है । वीतराग प्रतिमा के द्वारा हम वीतराग प्रभु की प्राराधना करते हैं। उनसे शान्ति एवम् संतोष भादि गुणों की अभिलाषा की जा सकती है । परधन मावि सांसारिक कामनाओं की इच्छा करना मूल है। किसान का लक्ष्य प्राप्ति के लिये खेती करना है। उसे गेहूं चावल आदि के साथ मूसा प्राप्त हो ही जाता है । उसी प्रकार भक्त को परमात्म-दशा की प्राप्ति के लक्ष्य रखते हुए धर्मानुराग से अभ्युद पद स्वयमेव मिल जाता है । मतः प्रतिमा पूजा का लक्ष्य मात्म गुणों के विकास का ही रहना चाहिये । १७३ गृहस्थ के देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन षट् मावश्यक कर्मों में भी पूजा और दान प्रमुख हैं । रयणसार में प्राचार्य कुन्दकुन्द ने गृहस्थ और मुनि धर्म के कर्त्तव्यों को बताते हुए लिखा है :– गृहस्थ धर्म में दान व पूजा ही मुख्य है। उसके बिना कोई श्रावक नहीं कहला सकता । मुनिमार्ग में ध्यान और अध्ययन ( स्वाध्याय) मुख्य है । उनके बिना कोई मुनि नहीं कहला सकता 12 १. पूजा - भक्ति, गुणानुराग को कहते । जिन प्रतिमा में आत्मा के निर्विकार शुद्ध स्वरूप को देखता हुआ सम्यग्दृष्टि अपने स्वरूप को वैसा ही बनाने की ओर प्रयत्नशील रहता है | उसके प्राचरण में प्रवृति और निवृत्ति दोनों मं दिrers पड़ते है, उसकी पूजा भक्ति विलक्षणता को लिये हुए होती है। जिसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों धाराएं प्रभ्युदय और निःश्र ेयस् दोनों के फल को प्राप्त कराने में कारण होती हैं | वास्तव में भगवान की भक्ति से भगवान बन जाता है । ग्राम निवेदन परक भक्ति : भारम निवेदन की प्रक्ति पद्धति में मक्त श्रपने अवगुणों का बखान करके अपने प्राराध्य से उन्हें निवारण करने के लिये प्रार्थना करता है : २. प्राक्कथन : पं. नाथूलाल जो शास्त्री इन्दौर मित्य पूजन पाठ संग्रह प्रकाशक भी गेंदालाल रतनलाल सेठी, लातेगांव (म० प्र० ) प्राचार्य कुकुन्द ररपसार पक्ष कमांक ११ वाणं पूजा मुक्लं सावयधम्मे, न सावया तेरण विना । झारणान्भवां मुक्ल, सहधम्मे ण तं विरणा सोखि || Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ कविवर बुधजन व्यक्तित्व एवं कृतित्व तुम तो दीनानाथ हो, मैं हूँ दीन अनाथ । श्रब तो ढील न कीजिये, भलो मिल गयो साथ ||४२|| श्ररज गरज की करत हो, तारन-तरन सु नाथ | भव-सागर में दुःख सहूं, तारो गह करि हाथ ||३७|| वीती जिली न कहि सकूं, सब भासत है तोय | फेरि न बीते मोय ||३८|| याही ते विनती करू · भक्त अपने प्राराध्य को दीनानाथ और अपने थापको दीन मानता है और प्रार्थना करता है कि श्राप जैसे दीनानाथ को गाकर निश्चय ही मेरा मला होगा | वह अपने दुःखों को दूर करने के लिये अत्यधिक उत्सुक है । भोर प्रार्थना करता है कि हे प्रभु ! श्राप तर तारण है और मैं संसार समुद्र में पड़ा पड़ा दुःख भोग रहा हूं' भतः कृपया मेरा हाथ पकड़कर मुझे उबार लीजिये मैंने श्राज तक जितने कष्ट सहन किये हैं उनका वर्णन नहीं कर सकता । श्राप सर्वज्ञ हैं। सब कुछ जानते है । श्रतः मेरी वही विनम्र प्रार्थना है कि मेरा उद्धार कर दीजिये ताकि प्रब मुझे संसार में भटकना न पड़े । १. बुधजन बुधजन सतसई - एक प्रध्ययमः पं० सं० ४२-३७-३८, समय : 1 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - - छह ढाला पहली ढाल मंगलाचरण (सोरठा छन्द) पद्य–सर्व द्रव्य में सार, प्रातम को हितकार है । नमहु ताहि चितघार; नित्य निरंजन जानके ।। अर्थ--(कालिक) शुद्धात्मा समस्त द्रव्यों में सार रूप और ग्रात्मा के लिये परम हितकारी है, ऐसा जानकर मैं उसे मनोयोग पूर्वक नमस्कार करता हूं ।।१।। अनिश्य-भावना (चौपाई छन्द) पद्मप्रायु घरत तेरी दिनरात, होय निबीत रह यो क्यों भ्रात । जीवन धन-तम-किंकर-नारि, हैं सब जल बुदबुद उनहारि॥ १-१-२ अर्थ-हे भाई ! तेरी प्रायु प्रतिक्षण घट रही है। तेरा यह यौवन, धन, सुन्दर शरीर, सेवक, स्त्री प्रादि सभी पदार्थ पानी के बभूले की भांति क्षणिक हैं, ऐसी वशा में तेरा निश्चिन्त रहना (प्रमाद भाव), आश्चर्यजनक है ।।२।। मशरण भावना पध-पूरन नायु वधं रिवन नाहि. दये कोटि धन तीरथ माहि । इन्द्र चक्रपति हू कहा करें, प्रायु अन्त ते वे हू मरे ॥ १-१-३ अर्थ-करोड़ों की सम्पदा तीर्थ स्थानों पर, खर्च करने पर भी प्रायु की पूर्णता होने पर तू एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता इन्द्र, चक्रवर्ती प्रादि भी तेरी सहायता करने में सर्वथा असमर्थ हैं क्योंकि प्रायु के पूर्ण होने पर वे स्वयं भी मरण को प्राप्त करते हैं ।।३।। संसार-भावना पद्य-यो संसार असार महान, सार प्राप में "पापा" जान । ___ सुख त दुःख, दुःख ते सुख होय, समता चारों गति नहिं होय ॥ १-१-४ प्रथ-यह संसार सर्वथा प्रसार ही है । इसमें किचित् भी सार नहीं है, निजात्मा ही उपादेय है ऐसा दृढ़ निश्चय करो । सुख के बाद दुःख और दुःख के Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतिस्व बाद सुख का क्रम निरन्तर चलता रहता है। चारों गतियों में से किसी भी गति में शान्ति नहीं है ॥४॥ एकस्व-भावना पथ - धनंतकाल गति-पति दुःख लह, मो, बाकी काल श्रमंतो कह, यो । सदा मकेलो "चेतन" एक माह ब १-१-१९ अर्थ- इस जीव ने चारों गतियों में रहकर, धनन्तकाल तक दुःख भोगा । इसके अतिरिक्त निगोद राशि में अनंतकाल संसार परिभ्रमरण के लिये शेष है यही विचार करना चाहिये कि मैं सदा ही चैतन्य स्वरूप प्रात्मा हूं, धकेला हूँ और जिनेन्द्रदेव ने चारों गतियों के प्रतिरिक्त निगोद पर्याय के काल को भनंत ही बताया है परन्तु वास्तविकता यह है कि यह जीव अनंत गुणयुक्त सदा से अकेला ही है ||५|| अन्यस्व-भावना पद्म- "तू" न किसी का कोई नहीं तोय, तेरो सुख दुःख तो को होय | यातें "तोकों" तू करवार पर द्रव्यति तें मोह निवार ।। १-१-६ श्रयं तू किसी का नहीं और कोई तेरा नहीं। तू ही अपने शुभाशुभ कर्म के उदय से प्राप्त सुख दुःख का भोगता है । यतः यह निश्चय कर कि तेरा हितकारक तू ही है | अतः तू परन्द्रच्यों के प्रति ममत्व भाव का परित्याग कर ॥६॥ अशुचि-भावना पथ-छाड़ मांस तन लिपटीचाम, रुधिर मूत मल पूरित घाम P सो थिर न रहे खय होय, याकों तजें मिले शिवलोय || १-१-७ अर्थ - यह तेरी मानव वेह, हड्डी, मांस, रक्त, मूत्र, मल, मेदा, वीर्य जैसी घृणास्पद सप्तधालुओं का घर है। इसके ऊपर चमड़ी लिपटी हुई है। ऐसी प्रपवित्र बस्तुओं का घर यह मानवदेह स्थिर भी नहीं है, नष्ट हो जाती है । जो पुरुष अपने प्रारम पुरुषार्थ के द्वारा इसकी ममता को छोड़ देता है, वही मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है ।।७ ॥ ॥ प्रास्त्रय-भावना पद्य हित अनहित तन कुल- जनमाहि, खोटि शनि हो क्यों नाहि । रोग ॥ १-१-८ या पुद्गल करमन जोग, प्रन दायक सुख दुःख अर्थ- शरीर, कुटुम्बीजन, तेरा हिताहित कर सकते हैं। ऐसी खोटी मान्यता को तू छोड़ता क्यों नहीं है। इसी मिथ्याबुद्धि का निमित्त पाकर पौदगलिक कार्या‍ वर्गणाएं कर्म रूप परिणामित हो जाती हैं जो कि सुख-दुःख रूप (रोग) का कारण बन जाती है || ८ | Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह ढाला १७७ संदर भावना पद्य-पांचों इन्द्रिन के सज फल, चित्त निरोधि लागि शिव गैल । "तो' में तेरी तू कर सेस, कहा रहयो, है कोल्हू बल ॥ १-१-६ अर्थ-हे भाई ! तू पांचों इन्द्रियों के समस्त विषयों को त्याग कर, अपने मन को वश में करके, मोक्ष मार्ग में लग । तू अपने प्रात्म-स्वरूप में विहार कर । तू कोल्ह के बैल की तरह प्रशानो क्यों बन रहा है । मिरा भावना पद्य-तजि कषाय मन की चलचाल, च्याम्रो अपनो रूप रसाल । झरे करमचन्धन दुःख-दान, बहुरि प्रकाश केवल ज्ञान १-१-१० अर्थ है भाई ! त विषम कषावों और अपने मन की चंचलता भरी मादत को त्यागकर अपने प्रानन्दमयी निज स्वरूप का ध्यान कर, जिससे है। दुःख दायक कर्मबन्ध की निर्जरा हो जाय और केवल ज्ञान का प्रकाश हो ॥१०॥ लोक-भावना पछ-तेरो जनम हुषोनहि जहां, ऐसो खेतर नाहीं कहां । या ही जनम भूमिका रचो, चलो निकसि तो विधि से बचो ।। १-१-११ अर्थ संसार में ऐसा कोई स्थान नहीं, जहां तू ने जन्म न लिया हो । अर्थात् द्वध्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पंच परावर्तन रूप संसार में तू सदा से भटक रहा है अतः अब बुद्धिमानी इस बात में है कि इस मनुष्य जन्म में ऐसी भूमिका तैयार करो कि जिससे पुनः पुनः शरीर धारण न करना पड़े और फर्मों के चक्कर से बच सकी ॥११॥ बोषि दुर्वभ-भावना पद्य-सब व्योहार क्रिया का ज्ञान, भयो प्रनंती बार प्रधान | निपट कटिन अपनी पहिचान, ताको पावत होत कल्याण ॥ १-१-१२ अर्थ-हे भाई ! त ने व्यवहार चारित्र के ज्ञान को ही अनंतबार प्रधानता दी परन्तु अपने शुद्धात्म स्वरूप के ज्ञान एवं पहिचान को प्रधानता नहीं दी जबकि काल्याए इसी की प्रधानता से होगा ॥१२॥ धर्म-भावना पद्य-धर्म स्वभाव भाप सरधान, धर्म न भील, नन्हान न दान । __ "बुधजन" गुरु की सीख विचार, गहौ धाम प्रातम हितकार ॥ १-१-१३ अर्थ-प्रात्मा की यथार्थं श्रद्धा ही तेरा स्वाभाविक धर्म है। संयम, स्नान, ---- Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व दानादि सेरे स्वाभाविक धर्म नहीं हैं । "बुधजन" कवि कहते हैं कि पूर्वाचार्यों को इस शिक्षा को हृदयंगम करो और प्रारम हितकारी मोक्षमार्ग में लगो ।।१३।। दूसरी हाल (मोगीरासा या नरेत छन्द) पद्य-सुनरे जीव कहत हूँ तोकों, तेरे हित के काजे।। छहे निश्चल मन जब तू धारे, तब कछु इक तो लाज । जो दुःख से पावर तन पायो, वरन् सफू सौ नाहीं । कारे दार भुबो अरु जीयो, एक सांस के माहीं ।।। २-१-१४ मर्थ-हे प्राणी ! तू (मन लगाकर) सुन । मैं तेरी हो भलाई की बात कहता हूँ । जब तू एकाग्रचित्त हो इस बात को समझेगा तब तुझे अपने पूर्वकृन मिथ्यास्त्र रूप भावों के कारण स्वयं पर लज्जा पाने लगेगी। तू ने एक श्वास में १८ बार जन्म-मरण का जो दुःख उठाया है उसका वर्णन नहीं हो सकता । ऐसे दुःखों से निकलकर काललब्धि वश भूमि, जल, पावक, वायु और वनस्पति रूप स्थावर का प्रत्येक शरीर प्राप्त किया ॥१४॥ पण-काल अनंतानंत रह यो गों, पुनि विकलत्रय हूबो । बहुरि प्रसनी निपट अज्ञानी, छिन-छिन जीयो मूबो । ऐसे जनम गयो करमन-कश, तेरो वश नहिं चाल्यो। पुण्य-उदय सैनी पशु हूबो, तब हूँ मान न माल्यो । २-२०१५ अर्थ-हे प्राणी ! तू ने अनंतकाल तो स्थावर पर्याय का शरीर धारण कर बिता दिया। फिर मंद-कषाय-वश दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय (विकलत्रय) की पर्याय प्राप्त की। फिर असैनी पंचेन्द्रिय हुँमा परन्तु वहां मन के न होने से निपट अज्ञानी रहा और कर्मोदय के अधीन रहन से तेरा कुछ भी वश नहीं चल सका अर्थात् तु पुरुषार्थ न कर सका अत: तेरा जीवन व्यर्थ ही गया । यदि कमी पुण्योदय से सनी पंचेन्द्रिय पशु बन गया तो वहां भी तुझे (सम्यक) ज्ञान की प्राप्ति न हो सफी ॥१५॥ पद्य-जबर मिल्यो तिन तोहि सतायो, निबल मिल्यो खायो। मात-तिया समभोगी पापी, तातें नरक सिथायो । कोटिक बील काटत जैसे, ऐसी भूमि तहाँ है । रुधिर राध परवाह बहत है, दुर्गन्ध निपट जहाँ है ॥ २-३.१६ मर्थ-पशु पर्याय में अपने से अधिक बलवान के द्वारा सताया गया मोर कभी तू ने अपने से निवल प्राणी को सताया या मारकर खा गया । तू ने माता Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह हाला को स्त्री समान सेवन कर पाय सपार्जन किया (उस पाप के उदय से) त ने नरक पर्याय प्राप्त की। उन नरकों में भूमि को स्पर्श करने से इतना दुःख हुमा जितना फरीड़ा विमानों के काटने पर होता है। उन गरम में सून और पीच का प्रवाह बहता रहता है जहां दुर्गन्ध ही दुर्गन्ध है ।।१६।। पद्य--घाव करत मसि-पत्र मग में, शीत-उष्ण तन गाले । कोई काटे करवत कर गहि, कोई पात्रक जाले ।। जथाजोग सागर-थिति भुगत, दुःख को अन्त न मार्य । कम-विपाक असाही हवे तो, मानूष गति तब पावै ॥ २.४-१७ प्रर्थ-उन नरकों में (सेमर) के वृक्ष हैं जिनके पत्ते गिरफर तलवार की तरह शरीर पर घाव कर देते हैं । उन नरकों में कोई नारकी किसी दूसरे नारकी को अपने हाथ में करवत लेकर काट डालता है। कोई किसी को अग्नि में जला देता है परन्तु उनकी अकाल मृत्यु नहीं होती। अतः अपने कर्मोदय से प्राप्त सागरों की प्रायु पर्यन्त उन दुःखों को भोगता है । यदि कोई (पुण्य-संयोग) हुआ तो मनुष्य गति को प्राप्त करता है ।।१७।। पच---मात उदर में रहे गींद म्हे, निफसत ही बिललावे । उम्मा-दांत-गला-विस्फोटक, डाकिनि ते बच जावे ।। तो जोवन में भामिनि के संग, निशि-दिन भोग रखा । अन्धा व्है पंधे दिन खोये, बूढ़ा नार हलावं ।। २-५-१८ प्रर्थ - (मनुष्य पर्याय में प्राने पर) प्रथम तो माता के उदर में गिडोले की भांति (सिमटकर) रहता है। वहां से निकलते ही रोने लग जाता है। बचपन में डा, दांत, फोड़ा और डाकिनि से बच गया तो युवावस्था में पत्नी के साथ भोगों में रात-दिन लिप्त रहता है तथा अचे की भांति व्यापार मादि में अपने जीवन के दिन व्यतीत करता है फिर बृद्धावस्था के आ जाने पर गर्दन हिलने लग जाती है मर्थात् प्रत्येक प्रवस्था में सदुपदेश से इकार करता है ॥१८॥ पन-जम पकर तब जोर न चाले, सैना सन बतावे । मन्दकषाय होय तो भाई, भवनत्रिक पद पाव ।। पर की सम्पत्ति लम्लि अति झूरै, के रतिकाल गंमार्च । प्रायु पन्त माला मुरझावं, तब सखि-लखि पछतावे ।। २-६-१६ भर्थ-जब यमराज धर दबोचता है अर्थात् जब भायु के निषेक पूरे हो जाते हैं तब इस जीव का कोई वा नहीं चलता, वाणी के द्वारा कुछ कह नहीं पाता, संकेत द्वारा ही कुछ बताता है । यदि कभी मरण-काल में कषाय की मन्दता हुई Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन व्यय एवं कृतिक : १८० तो भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी क्षेत्रों में पैदा होता है, वहां पर भी दूसरे देवों की विभूति को देखकर भूरता रहता है या देवांगनाओं के साथ काम क्रीड़ामों में अपना समय व्यर्थ ही गंवा देता है फिर मरणकाल श्राने पर माला के मुरझाने से पश्चाताप की अग्नि में जलता रहता है ।।१२।। पद्म-चवें तहां से थावर होवें, रूलि है काश श्रनन्ता । या विधि पंच परा व्रत पूरत, दुःख को नाहीं मन्ता ॥ फाललब्धि जिन-गुरु-किरपा तें, आप "आप" को ज्ञानं । तब ही " बुधजन" भवदधि तरिके पहुंच जाय शिव यानं ।। २-७-२० अर्थ - इस मिथ्याभाव के कारण देव पर्याय से युत होकर स्थावर अर्थात् एकेन्द्रिय के शरीर को धारण करता है और अनन्तकाल तक रुलता रहता है । छ प्रकार यह जीव पंचपरावर्तन रूप संसार में भ्रमण करता हुआ अनन्त दुःख भोगता है। यदि किसी पुण्य-संयोग से काललमिष के पक जाने तथा जिनेन्द्र देव एवं निय गुरुत्रों की कृपा हुई तो श्रात्म-स्वरूप का भान होने से संसार समुद्र से पार होकर मोक्ष सुख को प्राप्त कर लेता है ||२०|| तीसरी ढाल (पद्धरिछम्ब ) पथ - या विधि भष-वन महि जीव, यस मोह मद्दल सूते सशीष । उपदेश तथा सहज प्रबोध, तब ही जागं ज्यों उठत जोष ।। ३-१-२१ अर्थ - (मिय्यादर्शन, ज्ञान और चारित्र के वशीभूत हो, स्व को भूल यह जीव सदैव संसार रूप वन में गाढ़ निद्रा में सोता रहता है। जब कभी पुण्योदय से इसे सद्गुरुओं (निर्ग्रन्थ गुरुग्रों) का उपदेश मिलता है तथा जब इसे अपनी आत्मा का सहज भान हो जाता है तभी यह जागृत होकर, सावधान हो जाता है । जैसे कोई योद्धा जागकर खड़ा हो जाता है ।। २१ ।। -- जब चितवत घपने मांहि श्राप हूं चिदानन्द नहि पुण्यवाप । मेरो नाहीं है रागभाव, ये तो विधिवश उपजे विभाव ॥ ३-२-२२ प्रथ- जब यह प्राणी अपने में, अपना ही अवलोकन करता है और जब यह निरय करता है कि मैं तो चिदानन्द स्वभाषी प्रात्मा हूं, पुण्य पाप रूप भाव मेरे नहीं हैं, राग-ईषादि भाव भी मेरे नहीं हैं क्योंकि ये तो कर्म-जनित भाविक-भाव हैं ||२२ ॥ पद्म- हूँ निरुप- निरंजन, सिद्धसमान ज्ञानावरणी आच्छाद ज्ञान । निश्चय शुद्ध इक, व्योहार मेव, गुन-गुनी, अंग-भंगी श्रदेव ।। २-३-२३ अर्थ- मैं नित्य निरंजन हूं और सिद्ध समान हूँ | ज्ञानावरणादि कर्मों 1 1 A Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह बाला १८१ मे, मेरी ज्ञान-गक्ति को आच्छादित कर लिया है पर (नष्ट नहीं किया है) । शुद्ध निश्चय-नय से मैं (मात्र शासा-इष्टा ही है, समय सार हूँ) और व्यवहार नय की मपेक्षा में अनेक भेद बाला है। उन भेदों का कभी पम्त नहीं हो सकता ॥२३॥ पद्य–मानुष-सुर-नारक-पशु पर्याय, शिशु-युवा-वृद्ध-बहुरूप काय । धनवाम-दरिद्री-दास-राव, ये तो विडंबना मुझ न भाव ॥ ३-४-२४ अर्थ---मनुष्य, देव, नरक, तिर्यच पर्यायों कर प्राप्त, बाल्यकाल, युवाकाल और वृद्धकाल आदि शरीर सम्बन्धी भनेक पर्यायों की प्राप्ति तथा धनाढ्यता, दरिद्रता, सेवकपना, स्वामीपना ये समस्त पर्याय एक प्रकार की विडंबना है, पुदगल कर्म जनित हैं और इनमें मेरी रुचि क्रिषिद भी नहीं है ॥२४॥ पद्म- रस फरस गंध वरनादि नाम, मेरे नाहीं मैं जान-धाम । हू एक रूप नहिं होत और, मुझ में प्रतिबिम्बित सकलठौर ॥ ३-५-२५ अर्थ-रस, स्पर्श, गन्ध, वर्ण अादि पुद्गल के हैं, मेरे नहीं हैं। में तो मात्र ज्ञान-शरीरी हूं (ज्ञान का पुज) हूँ। मैं प्रखंड, एकरूप है, अन्य रूप में नहीं है। संसार के समस्त पदार्थ मेरे ज्ञान-स्वभाव में झसकते हैं ॥२५॥ पश्चन्तन पुलकित, उर हर्षित सदीव,ज्यों भई रक धर रिधि अतीव । जब प्रवल अप्रत्याख्यानथाय, तब चित परगति ऐसी उपाय ।। ३-६.२६ अर्थ-(उपर्युक्त चितवन के फलस्वरूप) शरीर पुलकित हो जाता है और हृदय निरंतर हर्षमय हो उठता है जैसे कि जन्मत: दरिद्र के घर में महाधि प्रगट हो गई हो । इस प्रकार सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाने पर भी जब अप्रत्याख्यानावग्णा कषाय का तीन उदय रहता है तब पित्त की परिणति नीचे लिखे अनुसार बनती है। ।२६॥ पद्य–सो सुनो भविक चित्तधारिकान, वरनत हूं ताको विधि-विधान | सब कर काज घर माहि बास, ज्यों भिन्न कमल अल में निवास ॥३-७-२७ अर्थ-उस सम्यग्दष्टि जीव की मनोदशा के विधि विधान का वर्णन कर रहा हूं । हे भव्यजन ! (तुम उसे मन और कान लगाकर सुनो यपि) (मविरत सम्यग्दृष्टि जीव) गृहस्थी में रहता है, घर के सम्पूर्ण कार्य भी करता है तथापि उसकी परिणति जल से भिन्न कमल की भांति (अलिप्त) ही रहती है ।।२७॥ पद्म-ज्यों सती प्रग माहीं सिंगार, अति करत प्यार ज्यों नगर नारि । ज्यों धाय लड़ाबत मान बाल, त्यों भोग करत नाहीं स्तुशाल ॥३-८-२५ अर्थ-जिस प्रकार (पति की चिता पर आरूढ़ होने वाली) सती स्त्री अपने शरीर का 'गार करती है परन्तु उस शूगार में उसकी रूचि नहीं है, अथवा Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व जिस प्रकार वेश्या अत्यधिक प्यार तो जताती है परन्तु उसकी रुचि पुरुष विशेष में नहीं है अथवा जिस प्रकार घाय अन्य के बालक से लाड़-प्यार तो करती है परन्तु उसे पराया हो समझती है उसी प्रकार अविरत सम्यग्दृष्टि जीव कर्मोदय वशः व् भोग भोगते हुए भी उसमें श्रानन्दित नहीं होता ||२८|| पद्य – जहंउदम मोह चेष्टित प्रभाव, नहि होय रंच - तहूं करें मंद खोटी कवाय, घर में उदास है, त्यागभाव | अथिर ध्याय ।। ३-६-२ε अर्थ-जब तक चारित्र मोह के उदय का प्रभाव जीव पर बना रहता है तब तक उस जीव के स्याग किंचित् भी नहीं होता । वह केवल अनन्तानुबन्धी कषाय तथा मिथ्यात्व भाव को मन्द करता है, घर में भी उदास भाव से रहता है और संसार के ( प ) है गरम को पद्य - सब की रक्षा युत न्यायनीति, जिन शासन गुरु की टु प्रतीति । बहुरले श्रद्ध - पुद्गल प्रमाण, अन्तर्मुहुर्त ले परम-धाम ॥ ३-१०-२० , अर्थ – उस अञ्जिरत सम्यग्दृष्टि जीव की परिणति समस्त प्राणियों की रक्षा करने, न्याय-नीति पर चलने, सच्चे देव शास्त्र, गुरु की दृढ़ प्रतीति धारण करने रूप हो जाती है और तब उसे अधिक से अधिक अर्द्ध पुद्गल परावर्तकाल तक ही संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है । पुन: वह (अपने ज्ञान और वैराग्य के बरन से मुनिपद धारण करते ही ) धन्तर्मुहूर्त में मोक्ष स्थान को प्राप्त कर लेता है ||३०|| 1 पद्य - वे धन्य जीव, घनिभाग सोय, ताके ऐसी परतीति जोम नाकी महिमा है स्वर्गलोय "बुधजन" भाषे मोतें न होय ॥। ३-११-३१ प्रथ-वे जीव धन्य हैं, उनका भाग्य भी धन्य है जिनकी अपनी आत्मा की प्रखंड शक्ति पर ऐसी दृढ़ प्रतीति हो जाती है। ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव की इस दृढ़ श्रद्धा की प्रशंसा (इन्द्र) स्वर्गों में करता है । कविवर "बुधजन" कहते हैं कि उस अविरत सम्यग्दृष्टि की महिमा का वर्णन मुझसे नहीं हो सकता ||३१|| चौथी ढाल (सोरठा छंद) पद्य - लग्यो श्रीतम सूर, दूर भयो मिथ्यात-तम । अब प्रगटे गुनभूर, तिनमें कछु इक कढ़त हूँ | ४-१-३२ - अर्थ – (सम्यग्दृष्टि के श्रात्मा रूपी) सूर्य का उदय होने पर मिध्यात्व रूपी अन्धकार का नाश हो गया है और अनेक गुण प्रगट हो गये हैं । उन गुणों में से कुछ गुणों का वर्णन करता हूँ ||३२|| निः संकित व निःको किस अंग पद्य - - कामन में नाहि, तत्वारथ सरधान में । निरवया चिलमाहि, परमारथ में रत रहे || ४-२-३३ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छहढाला १८३ अर्थ-सम्रष्टि के मन में तत्वायं के श्रद्धान में किसी भी प्रकार की शंका नहीं रहती है । वह संसार के विषय भोगों में किसी भी प्रकार की बांधा नहीं रखता तथा उसका मन धर्म में लीन रहता है ॥३३॥ fafafeferer सूवष्टि ग नेक नफरत गिलान, बाह्य मलिन मुनि-तत्र लखे । नाही होत प्रजान, तत्व-कुतत्व विचार में | ४-३-३४ - सम्यष्टि के मन में बाहर से अपवित्र तथा रनत्रय से पवित्र मुनिजनों के शरीर को देखकर (किंचित् भी) घृणा का भाव पैदा नहीं होता। वह तत्व कुतस्व अथवा हेय उपादेय के निर्णय करने में किसी भी प्रकार की भूल नहीं करता ||३४|| उपगूहन एवं स्थितिकरण मंग पद्य - उर में दया विशेष, गुन प्रगटे, श्रीगुन ढके । शिथिल धर्म में देख, जैसे तेसे दढ़ करे ।। ४-४–३५ प्रश्रं - उसके हृदय में विशेष रूप से करुणा का भाव जागृत हो जाता है श्रतः उसमें दया का सागर लहराता है। वह दूसरों के गुणों को प्रगट करता गुणों को ढांकता है । यदि कोई साधर्मी बन्धु दरिद्रता आदि कारणों से धर्म से विश्वलित होता है तो जैसे बने जैसे (यथा संभव सहायता देकर ) और धर्म में दृढ़ करता है ।। ३५ ।। पच ४-५-३६ साधम पहिचान, घरं हेत गौ वत्स लों । महिमा होत महान धर्म काज ऐसे करें | अर्थ - जिस प्रकार गाय प्रपने बछड़े पर निष्काम प्रेम करती है, उसी प्रकार वह साधुओं के प्रति "यह हमारा सामी बन्धु है" इतना ज्ञान होते ही निःस्वार्थ प्रेम करता है। वह सम्यग्दृष्टि जीव रस्नत्रय के तेज से अपनी आत्मा की प्रभावना करता है और दान, तप, जिनेन्द्रअर्चा, ज्ञान की अधिकता श्रादि के द्वारा पवित्र जैन धर्म की प्रभावना करता है ॥ ३६ ॥ माठ मन जो सम्यग्तुष्टि जीव में नहीं होते पद्म- मदन जो नृप तात, मद नहि भूपति माम को मद नहि विभो लहात, मंद नही सुन्दर रूप को ॥ मद नहिं जो विद्वान, मद नहि सन में जो मदन । मद नहिं जो परधान, मद नहि संपति क्रोध को || ४–६-३७ प्रर्थसम्यग्दृष्टि जीव निम्नलिखित आठ प्रकार के मद नहीं करता-(1) यदि पिता राजा हो तो कुल का मद नहीं करता । (2) यदि मामा राजा हो तो जाति का मद नहीं करता । (3) यदि ऐश्वर्यवान हो तो अधिकार का मद नहीं करता । ( 4 ) यदि सुन्दर रूप वाला हो तो रूप का मद नहीं करता । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ कविवर बुधजन व्यक्तित्व एवं कृतित्व (५) यदि स्वयं विद्वान् हो तो ज्ञान का मद नहीं करता । (६) यदि शरीर में बल हो तो बल का मद नहीं करता । (७) यदि प्रभुता प्राप्त हुई हो तो प्रभुता का मद नहीं करता । (८) यदि अत्यधिक सम्पन्नता हो तो धन का मद नहीं करता । ३ पद्य - वो श्रातम-ज्ञान, तजि रागादि विभात्र पर ताके है क्यों मान जात्यादिक वसु अधिर को || ४-७-३८ अर्थ - (जिसे अपनी श्रात्मा के भानपूर्वक) सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हुई है और जिसने राग-द्वेषादि को विभाव भाव जानकर छोड़ दिया है ऐसे जीव को पाठ भद ( कुलजाति श्रदि) कैसे हो सकते हैं ? ||३८|| ३. मूढ़ता पद्य - - वन्दत है मरहंत, जिन-मुनि, जिन-सिद्धान्त को । न मैं न देख महंत, कुगुरुद्वकुदेव, कुग्रथ को || ४-५-३६ पर्थ- उस सम्यग्दृष्टि जीव को श्रद्धा इतनी दृढ़ होती है कि वह (अरहंत देव ) ( सच्चैदेव) निन्यमुनि ( सच्चे गुरू) जिनवाणी ( सच्चे शास्त्र) को ही नमस्कार करता है । वह इनके विपरीत कुगुरू, कुदेव, कुणास्त्रों को (भय से, प्राशा से, स्नेह से, लोभ से भी कभी नमस्कार नहीं करता बाहे वे कितने ही महिमा श्रतः वह ३ मूढ़ता से रहित होता है ||३६|| शास्त्रो क्यों न हों ? यह अनायत - कुत्सित भागम देव, कुत्सित गुरु पुनि सेवका । रशंसा षट्मेव, करे न समकित ज्ञान है | पद्य - ४६-४० प्रथं वह सम्यग्दृष्टि जीव खोटे शास्त्र, खोटे देव और खोटे गुरुषों को तथा उनके सेवकों (प्रशंसकों) की प्रशंसा कदापि नहीं करता अतः वह यह अनायतन का भी त्यागी होता है ॥ ४० ॥ पथ--प्रगटा इसा सुभाव, करा प्रभाव मिथ्यात का । वन्दे ताके पांव, "बुधजन" मन-वच काय ते । ४-१०-४१ अर्थ - " बुधजन " कवि कहते हैं कि मिथ्यात्व के प्रभाव होने से जिसका ऐसा स्वभाव प्रगट हुआ है। मैं ऐसे वीतराग स्वभावी सम्यग्दृष्टि जीव की मन, वचन, काय से वंदना करता हूँ ।। ४१ ।। पांचवीं ढाल (छन्द चाल) पद्य - तिरजंत मनुष्य दोऊ गति मे, व्रत धारक, सरघाचित में । सो श्रगलित नौर न पीवं, निशि भोजन तजत सदीयं ॥ ५-१-४२ अर्थ - तियं च श्रौर मनुष्य इन दोनों गतियों में श्रद्धावान व्रतधारक (जैन गृहस्थ) बिना छना जल नहीं पीता है और सदा के लिये रात्रि भोजन का त्यागी होता है ॥४२॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह ढाला १८५ पद्य–मुख अभय वस्तु नहि लावै, जिन भक्ति त्रिकाल रचावं । मन-वच-तन कपट निवार, कृत-कारित-मोद संधारं ॥ ५-२-४३ अर्थ-व्रती गृहस्थ कभी भी प्रजानफल मादि २२ प्रकार के अभक्ष पदायों का) मक्षण नहीं करता। प्रात: मध्यान्ह और सायंकाल (त्रिकाल) जिनेन्द्रदेव की भक्ति करता है । भपन मन, कपन कार्य स तथा तारित-अनुमोदना से (किसी के साथ किसी भी प्रकार का) कपट का व्यवहार नहीं करता ।।४३॥ पध-जैसी उपशमित कषाया, तसा सिन त्याग रनाया । को सात-व्यसन को त्याग, कोऊ अणुव्रत में मन पागं ॥१५-३-४४ अर्थ-(इसके प्रागे अंसा-अंसा कपाय का उपशम होता जाता है अर्थात् कषाय घटती जाती है, वैसी ही वैसी वह त्यागवृत्ति को धारण करता जाता है। कोई तो सप्त-व्यसनों का त्यागकरता है और कोई पांच अणुवतों के पालन में अपना मन लगाता है । इस प्रकार बह अणुवन का पालन करता है ॥४४॥ हिसाव सत्याग व्रत पद्य-त्रसजीव कम नहिं मार, विरया थावर न संहार । पर-हित-विन झूठ न बोल, मुख सांच बिना नहिं खोल । ५-४-४५ अर्थ-(वह सम्यग्दृष्टि गृहस्थ अहिंसा अणुनत के पालनार्थ) त्रस जीवों की हिंसा का सर्वथा त्यागी होता है और यद्यपि स्थावर जीवों की हिंसा का त्यागी नहीं है तथापि उनकी (निष्प्रयोजन) विराधना नहीं करता। यह उसका अहिंसा-अणुव्रत सत्याणुव्रत की रक्षार्थ दूसरों की प्रारण-रक्षा-हेतु ही भसत्य बोलता है अन्यथा नहीं। वह अपने प्राणों की रक्षार्थ कमी भी असत्य नहीं बोलता। वह अब बोलेगा तब सत्य ही बोसेगा ।४५॥ प्रचौर्य व ब्रह्मचर्य प्रण व्रत पद्य-जन मृतिका दिन, धन सबह, बिनदियो लेय नहिं कबह । __व्याही बनिता बिनधारी, लधु बहिन, बड़ी महतारी ॥ ५-५-४६ अर्थ-जल और मिट्टी के सिवाय अन्य किसी भी प्रकार की बस्तु बिना दिये कभी भी गृहरण नहीं करता प्रतः वह प्रचौम-मणुव्रत पालता है । विवाहिता पल्ली के सिवाय, अपने से छोटी उम्र की स्त्रियों को बहिन के समान और अपने से बड़ी स्त्रियों को माता के समान समझता है अतः वह ब्रह्मचर्य मणुवत पालता है ॥४६॥ परिग्रह परिमाण-पण प्रत पोर विम्बस का स्वरूप पद्य–सिसना का जोर संकोचे, ज्यादा परिग्रह को मोर्च। दिस की मरजादा लावं, बाहर नहिं पाप हिलावे । ५-६-४७ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व अर्थ - ( वह जैन गृहस्थ ) तृष्णा भाव को कम करके परिग्रह का परिमारा करता है । इस प्रकार पांच अणुव्रतों का पालन करता है । दसों दिशाओं में जानेभाने का जीवन पर्यन्त के लिये त्याग कर एक कदम भी उस सीमा से बाहर नहीं बढ़ाता प्रतः वह दिव्रत का पालन करता है ॥ ४७॥ देशव्रत और समर्थ बंडल का स्वरूप १८६ पथ - साहू में पुर, सर, सरिता, नित राखत, भ्रघ तैं डरता । सब अनरथ दंड न करिहै, छिन छिन निजधर्म सुमरि है ।। ५-७-४ अर्थ - दिव्रत में जीवन पर्यन्त के लिये की गई मर्यादा को संकुचित करने के लिये नगर तालाब, नदी मादि तक जाने-माने की मर्यादा करके वेशव्रत का पालन करता है और निस्य ही पापों से डरता है यह उसका देशव्रत है। वह पापदेश, हिंसादान, श्रपध्यान, दुःख ति और प्रमाद इन पांच प्रकार के अर्थदंडों क त्यागकर दंड का नाम प्रतक्ष कपने आत्म धर्म का । है स्मरण करता रहता है। इस प्रकार ३ गुणवतों का पालन करता है ॥४ सामयिक शिक्षात्रत पद्य - दवं, धान, काल सुध भाव, समता सामायिक ध्यावे । यों वह एकाकी ही है, निष्किंचन मुनियों सोहे ॥ ५-८-४६ अर्थ- - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा पूर्वक, मन में समताभाव घार कर सामायिक करता है। सामायिक के समय अपने आप को एकाकी अनुभव करता है तथा किचन-भाव, बारण कर उपचार से मुनिवत् शोभित होता है ॥ ४२ ॥ भोगोपभोग परिमाण और अतिथि संविभाग शिक्षाव्रत पद्य - परिषद् परिमाण विचार, नितनेम भोग का बारं । सुनि भावन विरिया जोबे, तब जोग प्रसन मुख लावं । ५-६-५० अर्थ - ( वह सम्यग्डष्टि गृहस्थ ) परिग्रह परिमाण व्रत का ध्यान रखते हुए प्रतिदिन भोगोपभोग की सामग्री का नियम करता है अतः वह भोगोपभोग परिमाण व्रत का पालन करता है । घर पर, मुनि, धार्मिका श्रादि उत्तम पात्रों के आने की प्रतीक्षा करता है । द्वारापेक्षण क्रिया के बाद ही योग्य भोजन लेता है अतः वह प्रतिथि संविभाग व्रत का पालन करता है ॥ ५० ॥ सहलेखना पथ-ये उत्तम किरिया करता, नित रहे पाप करता । जब निकट मृत्यु निज जाने, तब ही सब ममता भानं ।। ५- १०-५१ । अर्थ- इस प्रकार की उत्तम क्रिया (५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत, सामायिक, भोगोपभोग परिमाण और यतिथि संविभाग) को पालता हुआ (वह गृहस्थ ) सदैव पापों से भयभीत Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह ढाला १८७ रहता है और जब मरण-काल समीप प्राता जानता है तब सब प्रकार से ममत्व भाव को दूर करता है और सावधान चित हो समाधिमरण धारण करता है ।।५१|| पद्य-ऐसे पुरुषोत्तम केरा, "बुधजन' चरनन का चेरा । __वे निश्चय सुरपद पायें, धोरे दिन में शिव जावें ॥ ५-११-५२ प्रर्थ-कविवर "बुधजन" कहते हैं कि जो इस प्रकार के पुरुषार्थ को प्रगट करता है प्रदि गृहस्थोचितवतों का निरतिचार पालन करता है और अंत समय में संल्लेखना धारण करता है। उस सम्यग्रष्टि व्रती श्रावक के परसों का दास हूँ। ऐसा जीवनिनिय ही कल्पवासी देव होता है तथा वहां से चलकर मनुष्य भब धारण करके, मुनिपद धारण करके ( ३भव में ही) मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ॥५२।। सूचना-कवि ने १२ व्रतों के उल्लेख में "प्रोषधोपवास" नामक शिक्षाप्रत का उल्लेख न करते हुए "सस्लेखना" की परिगणना करके १२ सतों की संख्या गिनाई है । ऐसा उमास्वामी प्रादि माचाों एवं पं. दौलतरामजी प्रादि विद्वानों ने सल्लेखना को १२ प्रतों के अतिरिक्त लिया है और यह ठीक भी है क्योंकि सल्लेखना केवल मरणकाल में ही धारण की जाती है, जबकि १२ प्रतों का पालन संपूर्ण व्रत-काल में किया जाता है। छठी-डाल (रोलाछन्द) पद्य-अधिर ध्याय पराय, भोगतें होय उदासी। निस्म-निरंजन-ज्योति, प्रातमा घट में भासी ।। अर्थ-जो यह निर्णय कर लेता है कि (प्रत्येक द्रव्य की) समस्त पर्याय अस्थिर हैं, वह भोगों के प्रति उदासीन भाव धारण कर लेता है तथा नित्य-निरंजनज्योति स्वरूप प्रात्मा मेरे ही घट में हैं उसे ऐसा विश्वास उत्पन्न हो जाता है ॥५३॥ पद्य-सुत-दारादि दुलाय, सबनितें मोह निवारा। त्यागि शहर-घन-धाम, वास घन-बीच विधारा ६-२-५४ अर्थ-जिसे संसार की अस्थिरता का प्राभास हो गया है वह अपने पुष, स्त्री भादि को बुलाकर (उनसे क्षमा का भादान-प्रदान करके) मोह-रहित हो जाता है तथा शहर, धन-सम्पत्ति, गृहयास भादि के मोह को छोड़, वन में रहने का दृढ़ संकल्प कर लेता है॥५४।। पद्य-भूपण-वसन-उतारि, नगन म्है प्रात्म चीन्हा । गुरु हिंग दीक्षा पारि, सीस कचलोंच जुकीना ।। अर्थ-(जिसे अपनी मास्मा की पहिचान हो गई है वह) समस्त प्रकार के वस्त्राभूषणों का परित्याग कर, गुरु के समीप जा, दीक्षा धारण कर लेता है (निर्ग्रन्थ हो जाता है) तथा (अपने हाथ से) केश लुचन क्रिया सम्पन्न करता है ।१५५।। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व अहिंसा, सत्य, अधौर्य महायत पद्य-प्रस पावर का यात स्माग, मन-वय-सन लीना। झूठ बचन परिहार, गहेनहिं जल बिन दीना ॥ अर्थ-घह (भव्यजीव) मन-वचन-काय से छह काय के जीवों की हिंसा का परित्याग कर अहिंसा महाव्रत का पालन करता है। निदोष बचन बोलने से सत्य महानत का पालन करता है। जल, मिट्टी भादि भी बिना दिये नहीं लेने से मौर्यमहाव्रत का पालन करता है ॥५६॥ ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाबत पन-चेतनन्जा-तिय भोग, तज्या गति-गति दुःख कारा । अहि-कंचुकि ज्योंजान, वित्त तें परिग्रह डारा ।। ६-५-५७ प्रर्थ-वह (मुनि) चेतन और अचेतन समस्त प्रकार की स्त्रियों के सेवन को चारों गतियों के दुःख का कारण जान, छोड़ देता है अत: ब्रह्मचर्य महादत का पासन करता है। जिस प्रकार सांप केंचुली त्यागकर सुन्दरता को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार मुनि का मन अन्तरंग एवं बहिरंग परिग्रह का त्याग होने से अत्यन्त निर्मल हो जाता है। यह मुनि का परिग्रह (मूछी) त्याग महायत है ॥५७।। ५ समिति ३ गुप्ति एवं परीषहजय पर-गुप्ति पालने काज, कपट मन-वच-तन नाहीं । पांचों समिति संवारि, परीषह सहि हैं माहीं ।। ६-६-५७ प्रर्ष-अपने स्वरूप में गुप्त रहने हेतु यह जटिलता को रहने ही नहीं देते प्रतः ३ गुप्तियों (मनगुप्ति, वचनगुप्ति कारगुप्ति को पालते हैं। ईर्या, भाषा, एषणा, भावान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापन इन पांच समितियों का पालन (सावधानीपूर्वक) करते हैं। (प्रकस्मात, माये हुए परीषहों (कष्टों) को समता-भान पूर्वक सहन करते हैं। यह उनका परीषह-जय है ॥५८|| पत्र-छाडि सकल जंजाल, आपकरि पाप "प्राप" में । अपने हित को माप, करौ हे शुद्ध जार में ।। मर्थ- वह सांसारिक समस्त प्रकार के विकल्प जालों को जंजाल समझकर छोड़ देता है तथा मात्म-हित के लिये स्वयं प्रात्मा में लीन हो जाता है और ध्यानाग्नि में तपकर गुद्ध हो जाता है ॥५६॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्य - ऐसी निश्वल काय, मानों पाथर रची, यह ठाणा ध्यान में मुनि जन फेरी किषों चित्राम चकेरी ॥ ६-८-६० STEF --गान में स्थित मुनिजनों की निश्चल काया को देखकर ऐसा लगता है मानों यह पाषाण-प्रतिमा हो प्रथवा किसी (चित्रकार ) ने किसी पत्थर पर चित्र हो उकेर दिया हो || ६ || पश्च- चार घालिय नाशि, ज्ञान में लोक निहारा । देजिन-मत प्रादेश, भविक कों दुःखते द्वारा ॥ ६-६-६१ अर्थ- जिन्होंने शुद्धात्म ध्यान के बल से चारों घातिया कर्मों का नाश कर दिया है, जिनकी केवल ज्ञानज्योति में जगत के अनंत पदार्थ तथा उनकी अनंत पर्यायें प्रतिभासित हो रही हैं, जिन्होंने भव्य जीवों के लिये कल्याण-कारक जैन-मत का उपदेश दिया है तथा उनको संसार के दुःख से छुड़ाया है ।। ६१ ।। पद्म- बहुरि भघाती तोरि समय में शिवपद पाया । मलख अखंडित ज्योति, शुद्ध वेतन ठहराया ॥ ६-१०-६२ अर्थ – पुनः शेष चार मद्यातिया कर्मों का नाश कर एक समय में मोनपद प्राप्त कर लिया तथा अपनी शुद्धात्मा को प्रखंड ज्योति स्वरूप बना लिया है और शुद्ध चेतना स्वरूप हो गये हैं ।। ६२ ।। पथ - काल धनंतानंत जैसे के तसे रहि हैं । श्रविनाशी भविकार, मचल प्रनुपमसुख लहिं हैं ॥ अर्थ- वे मुकारमा अब भनंतानंत रहित, विकार रहित, चंचलता रहित, करेंगे ॥ ६३ ॥ १८६ काल पर्यन्त उपमा रहित पद्म – ऐसी भावन भाय ऐसे जे - ६-११-६३ यथावत् रहेंगे भीरं विनाश(मास्मिक) सुख को प्राप्त कारज करि हैं । ते ऐसे ही होय, दुष्ट करमन कों हरि है । ६-१२-६४ अर्थ -- जो नित्य प्रति ऐसी भावना करते रहेंगे तथा उसी के मनुसार मारा करेंगे वे वैसे ही बन जांगे अर्थात् सिद्धपद प्राप्त करेंगे ||६४॥ पद्म-जिनके डर विश्वास, बचन जिन शासन नाहीं । ६-१३.६५ बातों पर विश्वास नहीं है वे विषय भोगों से व्याकुल होकर नरकादि के दुखों को सहून करेंगे || ६५|| ते भोगातुर होय, सहैं दुःख नरकन मोहीं ॥ अर्थ- जिनके हृदय में जिनेन्द्र कथित पद्म- -सुख-दुःख पूर्व विषाक, भरे मत कल जीया । कठिन कठिन तें मीत, जन्म मानुष से लीया ॥ ६, १४-६६ अर्थ – छे जीव ! इस संसार के सुखदुःख तो पूर्वी पाजिस कर्मों का फल हैं Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हानिकर दुध न . सत्य एवं कृतित्व अतः तू इनके चितवन में अपना अनमोल समय मत चिता क्योंकि हे मित्र । तूने कड़ी ही कठिनाई से यह मनुष्य-जम्म पाया है ॥६६॥ पद्य-सौ विरथा मन सोय, जोय प्रापा पर भाई। गई न लामै फेरि, उषि में टूबी राई ।। ६.१५-१७ अर्थ- हे भाई ! इस दुर्लभ नर-तन को विषयासक्त होकर व्यर्थ मत गंवा मोर स्व-पर भेद-विज्ञान को प्रगट कर | जिस प्रकार राई का दाना समुद्र में डूब जाय तो उसका प्राप्त करना भी अत्यन्त कठिन है ।।७।। पद्म--भसा नरक का बास, सहित समकित से पाता। बुरे बने जे देव, नृपति विध्यामत माता ॥ अर्थ- सम्यक्त्व सहित, नरकवास कहीं अधिक अन्छा है अपेक्षाकृत मिथ्यात्व सहित देव या राजा की पर्याय को धारण करने से ।।६८॥ बुधजन सतसई देवानुरागशतक सनमतिपद सनमप्तिकरन, बन्दो मंगलकार । बरन बुधजन सतसई, निजपर हिनकरतार ॥१॥ परमघरमकरतार है, भविजन सुखकरतार । नित वंदन करता रहूं, मेरा गहि करतार ।।२।। परू पगतरे आपके, पाप पगतरै दैन । हरी कर्मकों सवतर, करौ सय तरं चैन ।।३।। सबलायक, ज्ञायक प्रभू, शयक कर्मकरलेस । लायक जानिर नमत हैं, पायक भये सुरेस ॥४॥ नम् तोहि कर जोरिके, सिव बनरी कर जोरी । वरजोरी विधिको हरी, तीन लोक के तात ।।५।। तीन कालकी स्वबरि तुम, तीन लोक के तात । विविधसुद्ध वंदन करू, विविध ताप मिटि जात ॥६।। तीन लोक के पति प्रभु, परमातम परमेस । मन-बच-तन ते नमत हूँ, मेटो कठिन कलेस ॥७॥ पूजू तेरे पायकू, परम पदारथ जान । तुम पूजेते होत हैं सेवक आप समान ।1८|| तुम समान कोउ पान नहीं, तमू जाय कर नाय ।। सुरपति, नरपति, नागपति, प्राय परे तुम पांय III Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई सुन अनंतगुन मुखयकी कैसे गाये जात । ईद मुनिद फनिवहू, गान करत थकि जात ||१०|| तुम अनंत महिमा अतुल, क्यों मुख करिह गान । सागर जल पीत न बने, पीजं तृषा समान ॥ १११ ॥ बिना कैसे रहूं, मौसर मिल्यो अबार । ऐसी विरियां टरि गया, कैसे बनल सुधार ||१२|| जो हैं कहांऊ भोरतें, तो न मिटे उरकार । मेरी तो तौसे बनों तातें करूं पुकार ।। १३३२ आनंदघन सुय निरखिकं हरषत है मन मोर । दूर भयो प्रताप सब सुनिकं मुख की घोर ॥१४॥ t पान यान अब नारु, मन राज्यों तुम नाथ । रतन चिंतामनि पायके, गहै कांच को हाथ ||१५|| P चंचल रहत सदैव चित्त थक्यो न काहू ठौर । अचल भयौ इकटक प्रवे, लग्यो रावरी मोर ॥१६॥ हजार ||१७|| मन मोह्यो मेरो प्रभु, सुन्दर रूप अपार इन्द्र सारिखे थकी रहे, करि करि नेन जैसे भानुप्रतापसे, तम नासे सब बोर । जैसे तुम निरखत नस्यो, संशय विभ्रम भोर ॥१८॥ अन्य नैन तुम दरस लखि, धनि मस्तक लखि पांय | श्रवन धन्य बानी सुने, रसना धनि गुन गाय ॥१६॥ अन्य दिवस धनिया धरि, धन्य भाग मुझ भाज । जनम सफल भय ही भयो, बंदत श्री महाराज ॥२०॥ लखि तुम छवि चितचोर को, चकित पक्ति चितचोर । मानन्द पूरन भरि गयो, नाहि चाहि रहि और ॥२१॥ चित चातक प्रत्र लखे, श्रानंदघन तुम और । वचनामृत पी लुप्त हैं, तृषा रही नहीं और ॥२२॥ जैसो धीरज श्रापमें सो न कहूं और । एक ठोर राजत अचल, व्याप रहे सब ठौर ||२३|| यो श्रद्भुत ज्ञातापनो, लख्यो श्रापकी जाग । भली बुरी निरखत रहो, करो नाहि कहूं राग ॥२४॥ घरि विसुद्धता भाव निज, दई प्रसाता खोय | क्षुधा तृषा तुम परिहरी, जैसें करिये मोय ।। २५॥ १९१ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व त्यागि बुद्धि परजायकू लसर्व सम भाय राग दोष सतखिन टरपो, राचे सहज सुभाय ।।२६॥ मो ममता बमना मया, समता प्रातमराम । ममर प्रजन्मा होय सिव, जाय लहो विसराम ॥२७॥ हेत प्रीति सबसौं तज्या, मगन निजातप माहि । रोग सोग अब क्यों बने, खाना पीना नाहि ॥२८॥ जागि रहे निज ध्यान में, धरि धीरज बलवान । मार्व किमि निद्रा जरा, निरसेदक भगवान ॥२६|| जातीवत प्रषिक बल, सुधिर सूखी निज माहि । वस्तु चराचर लखि लई, भय विसमे यों नादि !|३०|| तत्वारथसरधान करि, दीना मोह विनास । मान हान कीना प्रगट, केवलज्ञान प्रकास ॥३१॥ अतुल सक्ति परगट भई, राजत है स्वयमेव । स्वेद खेद बिन थिर भये, सब देवन के देव ॥३२॥ परिपूरम हो सब तरह, करना रह्मा न फाज । भारत चिन्ता ते रहित, राजत हो महाराज ॥३३॥ वीर्य पनंता परि रहे, सुख मनंत परमान । दरस अनंत प्रमान जुत, मया अनंताशान ॥३४॥ प्रजर अमर प्रक्षय अनंत, अपरस भवरन वान । बाह्त थके सुरगुर गुनी, मोमन में किम जायं ॥३५॥ कहत थके सुरगुर गुनी, मोमन में किम मांय । ये उर में जितने भरे, तितने कहै न जाय ॥३६॥ प्ररज गरज की करत हूं, तारन तरन सुनाथ । भव सागर में दुख सन्तू, तारो गह करि हाथ ॥३५॥ बीती जिती न कहि सकू, सब भासत है तोय । याही ते विनती करू, फेरि बीते मोय ॥३८॥ बारण बानर बाघ महि, अंजन भील बंडार । जाविधि प्रभु मुखिया किया, सो ही मेरी बार !॥३६।। हूँ अजान जाने बिना, फिर्यो चतुर गति पान । अब घरना सरना लिया, करो कृपा भगवान ॥४०॥ जग जन की विनती सुनो, महो जगतगुरुदेव । जालों हूँ जग में रहू, तोलों पाऊं सेव ।।४।। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई १९३ जग तो दीनानाथ हो, मैं हूँ दीन मनाथ । प्रय तो दीन न कीजिये, भली मिन गयो साथ ॥४२।। बार बार विनती कर, मन वध तन ते सोहि । परयो रहू तुम चरन तट, सो बुधि दीजे मोहि ॥४३॥ और नाहि जाचू प्रभु ये घर दीजे मोहि । जोलौं सिब पहचू नहीं, तोलों सेऊ' सोहि ।।।४।। या संसार प्रसार में, तुम ही देखे सार । और सकल राखें पकरि, प्राप निकासन हार !॥४५॥ या भववन प्रति सधन में, मारग दीखे नाहि । तुम किरपा ऐसी करी, भास गयो मन महि ।।४६।। जे तुम मारग में लगे, सुखी भये से जीव । जिन मारग लीया नहीं, तीन दुख सीन सदीव ।।४७।। मौर सकल स्वारथ-सगे, बिना स्वारथ ही पाप । पाप मिटावत पाप हो, प्रौर बढ़ावत पाप ।।४॥ या प्रभुत समता प्रगट, माप माहिं भगवान । निंदक सहर्ष दुस लहै, बंदक लहै कल्यान ॥४॥ तुम वानी जानी जिका, प्रानी मानी होय । सुर प्ररचं संच सुभग, कलमष कांटे धोय ॥५०॥ तुम घ्यानी प्रानी भये, सबमें मानी होय । फुलि ज्ञानी ऐसा बने, निरख लेत सब लोय ॥५१॥ तुम दरसक देखे सकल, पूजक पूजें लोग। सेवं तिहि सेवे अमर, मिले सुरग के भोग ॥५२॥ ज्यों पारसतें मिलत ही, करि ले भाप समान । स्यों तुम प्रपने भक्त कों, करि हो पाप प्रमान ॥५३॥ जैसा भाव करे तिसा, तुम से फल मिलि जाय । तैसा पनि निरखं जिसा, सीसा में दरसाय ।।५४|| जम प्रग्यान जाने नहीं, तर दुख लखो अतीय । अब जाने माने हिये, सुखी भयो लखि जीव ।।५।। ऐसे तो कहत्त न बने, मो उर निवसो पाय । ताते मोकू चरन तट, लीचे माप बसाय ।।६।। . ....... . . Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व तो सो और न ना मिल्यो, चाय थक्यो पहु मोर । ये मेरे गाढ़ी गढ़ी, तुम ही हो पितचोर ।।५७।। बहुत बकस हरवत रहूं, थोरी कही सुने न । तरफत दुखिया दीन लखि, ढीले रहें बनै न ॥५८|| रटू रावरो सुजस सुनि, तारन तरन जिहाज । भव बौरत राखे रहे, तोरी मोरी लाज ॥५६॥ डूबत जलषि जिहाज गिरि, तार्यो नुप श्रीपाल । वाही किरपा कीजिये, वाही मेरो हाल ॥६॥ बिन मतलब बहुते मधम, तारि दये स्वयमेष । स्यों मेरो कारज सुगम, कर देवन के देव ।।६१।। मानस पते पान जारि र स्वयमेव । रयों मेरो कारज सुगम कर वेवन के देव ।।२।। निदो भावी अस करौ नांहीं कछु परवाह । लगन लगी जात न तजी, की जो तुम निरवाह ।। ६३॥ तुमें त्याग भोर न भज, सुनिये दीनदयाल । महाराज की सेव तजि, सेवे कौन कंगाल ॥६४) जाछिन तुम मन मा बसे, प्रानन्दधन भगवान ।। दुख दावानल मिट गयो, कीनों प्रमृतपान ॥६५॥ तो लखि उर हरषत रह, नाहि पान की चाह ।। दीखत सर्व समान से, नीच पुरुष नर नाह ।। ६६॥ तुम में मुझ में भेद यो, और भेद कछु नाहिं । तुम तन तजि परब्रह्म भये, हम दुखिया तन माहि ॥६७।। जो तुम लखि निज को लसे, लच्छन एक समान । सुधिर बने त्याचे कुबुषि, सो व्है है भगवान ॥६८।। जो तुमतें नाहीं मिले, चल सुद्धंद मदवान । सो जग में मविचल भ्रमें, लहे दुखांकी खान ।।६।। पारउतारे भविक बह, देय धर्म उपदेस । लोकालोक निहारिके, कीनों सिव परवेस ॥७॥ जो जांचे सोई लहै, दाता अतुल प्रशव । व नरिंद फनिंद मिलि, करें तिहारी सेव ।।७१।। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई मोह महाजोधा प्रबल, अंचा राखत मोय । यां को हरि सुधा करो, सीस नमाऊ तोय ॥७२।। मोह जोर को हरत है, तुम दरसत तुम बैन । जैसे सर सोषन करे, उदय होय के ऐन १७३।। भ्रमत भवार्णव में मिले, भाप प्रपूरब मीत । संसा नास्या दुख मया, सहजे भया नचीत ।।७४।। तुम माता तुम ही पिता, तुम सज्जन सुखदान । तुम समान व लोक में, भौर नाहिं भगवान ||७| जोग प्रजोग लसी मती, मो ध्याकुल के बन । करना करि के कोजियो, जैसे तैसे पैन ।७६|| मेरी परजी तनिक सी, बहत गिनोगे नाय । अपनी विरद विचारिक बहस गायिौ हाथ | मेरे प्रौगुन जिन गिनी, में प्रोमुन को घाम । पतित उधारक प्राप हो, करो पसित को काम |८|| सनी नहीं पोज मह, यिपति रही है घर । औरनिके कारज सरे, ढील कहा मी र ७६।। सार्थवाही दिन ज्यों पथिक, किमि पहुंचे परदेस । त्यों तुमसे करि हैं भविक, सिवपुरि में परवेस ॥२० केवल निर्मलज्ञानमें, प्रतिबिंबित जग प्रान । जनम मरन संकट हरन, भये प्राप रतध्यान ।।१।। प्रापतमतलबी ताहिते, कैसे मतलब होय। तुम बिनमतलब हो प्रभु, कर हो मतलछ मोय ।।२।। कुमति अनादि संग लगि, मोसो भोग रचाय । याको कोलो दुःख सहू, दीजे सुमति जगाय ॥५३॥ भववनमाहिं भरमियो, मोह नोंदमें सोय । कर्म ठिगोरे ठिगत है, क्यों न बगावो मोय ।।४।। दुःख दावानल में जलत, घने कालको जीव । निरखत हो समता मिली भली सूखांसी सीव ||५|| मो ममता दुखदा तिनै, मानत हूं हिसवान | मो मनमाहि उसटि या, सुलदादी, भगवान ।।६॥ लाभ सर्व साम्राज्य का, वेदयता तुम भक्त । हित प्रनहित समझ नहीं, तातै भये प्रसक्त ।।७।। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व विनयवान सर्वस लहे, दहे गई जो गई । माप प्रापमें ही तदपि, व्याप रहे हो सवं ॥५॥ मैं मोही तुम मोह विन, मैं दोषी तुम सुद्ध । घन्य पाप मो घट बसे, निरख्यो नाहि विरुद्ध ।।६।। में तो कृतकृत प्रब भया, चरण सरन तुम पाय । सर्व कामना सिद्ध भई, हर्ष हिये न समाय ||६|| मोहि सतावत मोह बुर, विसय प्रतादि प्रसाधि । वेद भतार हकीम तुम, दूर करो या व्याधि | परिपूरन प्रभु विसर तुम, नमू' न प्रान कुठोर । ज्यों स्यों करि मो तारिये, विनती करु' निहोर ॥२॥ दीन प्रघम निरबल रट, सुनिये प्रथम उद्वार । मेरे भौगुन जिन लखौ, तारौ विरद चितार' ।।६३॥ कानाकर परगट विरद, भूले बनि है नाहि । सुषि लीजे सुध कीजिये, रष्टि घार मौ माहिं ।।१४॥ एहि वर मोहि दीजिये, जावू नहिं कछु प्रौर । अनिमिप दुग निरखत रहू सान्त छवी चितचोर ||६|| याहि हियामें नाम सुख, करो निरन्तर वास । जौलों बसवी अगतमें, भरवौ तनमें सांस ||१६|| मैं प्रशान तुम गुन अनंत, नाहि मावै भन्त । बंदत मंग ममाम वसु, जावसीय परजत ||७|| हारि गये हो नाथ तुम, अषम प्रनेक उपारि । धीरे धीरे सहजमें, लीजे मोहि अबारि ||६|| माप पिछान विसुद्ध है, पापा को प्रकास । प्राप मापमें थिर भये, बंदत "बुधजन" दास || मन मुरति मंगल बसी, मुख मंगल तुम नाम । एही मंगल कीजिये, परपो रहू तुम षाम ।।१०।। सुभाषितनीति अलपथकी फल दे धना, उत्तम पुरुष सुभाय । दूध झर तनको घर, ज्यो गोकुल की गाय ॥१०१।। जंता का तंता कर, मध्यम नर सनमान । घटै बई नहि रचहू, धरयो कोठरै धान ॥१०२।। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 बुधजन सतसई दीजे जेता ना मिले, जघन पुरुष की वान । जैसे फूटे घट धरयो मिले प्रलप पर यान || १०३ || भला किये करि है बुरा, दुर्जन सहज सुभाय । पमान । प पायें विष देत है, फणी महा सह निरादर दुरबचन, देह मार चौर चुगल परदाररत लोभी लबार प्रजान ॥ १०५ ॥ श्रमर हारि सेवा करें मानसकी कहा बरत । जो जन सील सन्तोषजुल, करं न परकी छात ॥ १०६ ॥ अर्गानि चोर भुपति दिपति, डरत रहे धनवान | निर्धन नींद निसंक ले माने काफी हान ॥ १०७॥ एक परत हूं मित पढे, तो कार्ट प्रज्ञान 1 पनिहारों को लंजर्स, सहज कर्ट पाषान १२१०८ पतिव्रता सतपुरुष की गाड़ा बीर सुभाव । भूख सहे वारिव सहै, करें न हीन उपाव ॥ १०६ ॥ और करौ वा हित करो, होत सबलतें हारि । मीत म गौरव घटे, शत्रु भयं दे मारि ॥११०॥ जाकी प्रकृति करूर प्रति, मुलकता होय लखे न । भजे सदा प्राचीन परि, सजे जुद्ध में सेन ।। १११६। सिथिल बॅग ढाढस बिना ताकी पैठ गर्ने न क्यों प्रसिद्ध रितु सरदकी, अम्बर नेकु भरं न ॥ ११२ ॥ जतन थ की नरकों मिले, बिना जतन ले धान । वासन भरि नर पीत है, पशु पीवें सब थान ।।११३ ।। झूठी मीठी तनकसी, अथिकी मानें कौन अवसरतें बोलों इसी ज्यों घाटमै नौन ।। ११४।। दुखदाय ॥ १०४ ॥ ज्वारी विभिचारीनिते, हरं निकसते मालनि ढोके टोकरा, छूटे सखिके श्रौसर लखिकं बोलिये, जथा सावन भादौं बरसतें, सब ही पार्व चैन ॥ ११६ ॥ बौलि उठे भौसर बिना, ताका रहे न मान जोगता न । जैसे कार्तिक बरसते निंदै सकल जहान ।। ११७।। संग्राम | लाज काज स्वरचे दरब लाज काज लाज गयं सरबस गयो, लाज पुरुष की मेल । खेल ॥। ११५ ।। माम ॥११८॥ KTS Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व हानिबाई श्रारंम्पो दूर करे, धीर सलज सुन्दर र येते गुन नरमाह ।। ११६ ।। पराक्रमी मतिमान | सो निरमै बलवान ॥ १२० ॥ तो रह जाय ।। १२५ ।। प्रति बोलें ज्या मान । J प्रतिमति करी सयान ।। १२६ ।। उद्यम साहस धीरता, एते गुन जा पुरुष मैं, रोगी भोगी पालसी, बहमी हठी ये गुन दारिदवानके, सदा रहत असी घास विचारकं, छतो दय छिटकाय । श्रछती मिली हाथ नाहि, तब कोरे रह जाय ।। १२२ ।। विनय भक्ति कर सबलकी, निवल गोर सम भाग | हिदू हाय जीना भला, बंर सदा दुखवाय ।। १२३ ।। नदीतीर को रूखरा, करि बिनु अंकुश नार । राजामन्त्री रहित बिगरत लगे न बार ।। १२४ ॥ महाराज महावृक्षकी, सुखदा शीतल खाय । सेवत फल लाभ न तो, छाया श्रति स्वानंत रोग ह्व, प्रति सोयें धनहानि ह्व झूठ कपट कायर अधिक साहस चंचल भ ेग | गान सलज प्रारंभनिपुन, तिथ न तुपति रतिरंग ॥ १२७॥ दुगु क्षुषा लज चौगुनी, भ्रष्ट गुर्ती विवसाय | काम व गुनो नारिकै, वरन्यौ सहज सुभाय ॥ १२८ ॥ पतिचितहित अनुगामिनी, सलज सील कुलपाल । या लक्षमी जा वर बसें सो है सदा निहाल ।। १२६ ।। क्रूर कुरूपा कलहिनी, करकस बैन कठोर | ऐसी भूतनि भौगिवाँ बसियो नरकनि घर ।। १३०।। वरज्ये कुलकी बालिका, रूप कुरूप न जीय | रूपी प्रकुली पराती, हीन कहै सब कोय ॥ १३१ ॥ विपति वीर रन विक्रमी, सम्पति क्षमा दयाल | कलाकुशल कोविद कबी, न्याय नीति भूपाल ।। १३२ ।। सांच झूठ भाषं सुहित हिंसा दयाभिलाख । प्रति आमद प्रति व्यय करें ये राजनिकी साख ।। १३३ ।। सुजन सुखी दुरजम डरें करें, न्याय प्रजा पलें पख ना करें, श्रेष्ठ नृपति अज्ञान । भयवान ।। १२१।। घन संघ । गुन पंच ॥ १३४॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई काना ठूंठा पांगुला, वृद्ध कुबरा भन्ध बेवारिस पालन करें, भूपति रचि परबंध ||१३५|| कुपन ऐसा स्वामी सेवते कदे न होय हंकारी, व्यसनी, हठी, प्रारसवान भृत्य न ऐसा राखिये, करें नृप चाले साही चलन, प्रजा व जा पथ जा गजराज त, जात सूर सुधीर पराक्रमी, सब वाहन असवार । जुद्धचतुर साहसि मधुर, सेनाधीस उदार ।। १३६ ।। निरलोभी सांची सुवर, निरानसी मति धीर । हुकमी उदमी चौकसी, भंडारी गंभीर ॥ १४० ॥ निरलोभी सांची निहर, सुध हिसाबकरतार स्वामिकामतिर प्रालसी, नौसदी हितकार ।। १४१ ।। दरस परस पूछें करें, निरन रोग रूपाय | पथ्यापथमैं निपुन चिर, वेद चतुर सुखदाय ॥। १४२ ।। ज़ुक्त सौच पाचक मधुर, देश काल वय जोग । सूपकार भोजनश्वतुर, बोलै सत्य मनोग ।। १४३ ।। मूढ़ दरिद्री आयु लघु, व्यसनी लुब्ध कर नापित नहि दीजिये, जाका मन मगरूर ॥ १४४ ॥ सीख सरलको दीजिये, विकट मिले दुःख होय | चये सीख कपिको दई दियों घोंसलो खोय ॥ १४५ ॥ अपनी पख नहीं तोरये, रवि रहिये करि पाहि । कर्ग तंदुल सुस सहित, तूस बिन ऊगें नाहि ।। १४६ ।। प्रति लोलुप प्राक्तके विपदा नाहीं दूर मीन मरे कंटक फंसे, दौरि मांस लखि कूर १४७॥ भावत उठी भाबर करं, बोलें मीठं मन । जातें हिलमिल बैठना, जिस पायें प्रति चैन ।। १४८ ।। निहाल ।। १३६ ।। अज्ञान | मनोरथहान ॥ १३७॥ दा चाल | जूथ गजवाल ।। १३६ ।। भला बुरा लखिये नहीं, भाये अपने द्वार | मधुर बोल जस लीजिये, नातर अजस तयार ॥१४६॥ सेय जती के भूपति व िव के पुरवीज । या बिन और परकार जीवतं वर मीच ।। १५०॥ १६६ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व नौ सुलभारंभ रचि, विगँ नाहि चित धीर । सिंह उठना मुरै, करें पराक्रम वीर ।। १५१ ।। इन्द्री कोलके, टे काल वरि कवत हित उद्यम करें, जे हैं चतुर विसेखि ।। १५२३ । प्रातः उठि रिपुर्तलरे वांटे बंधुविभाग | रमनि रमन में प्रीति प्रति, कुरकट ज्यों अनुराग । १५३ ।। गुड़ मईथुन च चपल संग्रह सजे निधान । 7 विसासी परमादस्त वायस ज्यौं मतियान ।। १५४ ।। बहुभ्यासी संतोषजुत, निद्रा स्थलप सचेत । रन प्रवीन मन स्वान ज्यौं, चितवत स्वामी हेत ।। १५५ ।। यह भार यो भादर्थी, सीत उष्ण क्षत देह । सदा सन्तोषी चतुर नर, ये रासब गुन लेह ॥ १५६ ॥ टोटा लाभ सन्तात मन, घरमै हीन चरित्र भयो कदा अपमान निज भाषे नाहिं विचित्र ।। १५७ ॥ कोविंद रहे सन्तोष विह, भोजन धन निज दार । नाही तुपति लगार ।। १५८६ ।। करत हार ब्यौहार । त्याग लाज सुधार ॥ १५६ ॥ सुन्दर जुग भरतार | दोय विप्रमहि होम पुनि मंत्रि नृप मसलत करत जाते होत बिगार ।। १६० ।। पटनदान तप करनमें, विद्या संग्रह धान घन अपन प्रयोजन साधते वारि अनि तिय मूढ़ जन, सर्प नपूति रुज देव | अंत प्रान नायें तुरन्त मजतन करते संव || १६१ ॥ + गज प्रकुण हय चाबुका, दुष्ट खड़ग गहि पान | लकरीतं श्रङ्गीन बसि राखें बुद्धिवान ।। १६२ ।। बसि करि लोभी देय धन, मानीको करि जोरि । मूरख जन विकथा वचन, पंडित सांच निहोरि ।। १६३ ।। भूपति वसि हे अनुग वन, जोवल तन धन नार । ब्राह्मण वसि बंदतें मिष्ठवचन संसार ।। १६४ ।। अधिक सरलता सुखद नहीं, देखो विपिन निहार । सीधे विरवा कटि गये, बाकं खरे हजार ।।१६।। जो सपूत धनवान जो धनजुत हो विद्वान | सब बांधव धनवान के, सरव मीस धनवान || १६६ ।। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सनसई नहीं मान कुलपुरुपको, जगत मान थनवान । लखि चडालके विपुल धन, लोक करें सनमान ||१६७।। सम्पति के सन्न ही हितू. विपतामें सब दूर । सूखी सर रखी नमें, से जाते . ।।१६ - ।। तो नारि भूत बंधू जना, दारिद प्रायें साथि । फिरि प्रामद लखि मायके, मिलि हैं चायावांथि ।।१६६।। संपति साथ घटे बड़े, सूरन बुधिबल धीर । ग्रीषम सर सोभा हरे सोहेवरसस नीर ॥१७॥ पटभूषन मोहे सभा, धन दे मोहे नारि । खेती होय दरिद्रतें, सज्जन मो मनुहार ।।१७।। धर्महानि संश्लेश प्रति, सत्र बिनयकारि होय । ऐसा धन नहीं लीजिये, भूखे रहिये सोम ।।१७२।। घौर सिभिल उदमी चपल, मूरन सहित गुमान । दोष धनबके गुन कहै, निलज सरल चितवान ।।१७३।। काम छोरि सो जीमजे, न्हाजे छोरि हजार। लाख छोरिके दान करि, जपिजे बारबार ॥१७४।। गुरु राजा नट भट बनिक, कुटनी गनिका थान । इनले माया मत करो, पं मायाकी खान ।।१७।। खोटी संगति मति करो, पकरो गुरु का हाथ । करो निरन्तर दान पुनि, लखो प्रथिर सब साथ ॥१७६।। नप सेचातें नष्ट दुज, नारि नष्ट बिन सील । गनिका नष्ट सन्तोसते, भूप नष्ट चित्त डील ||१७७।। नाहीं तपसि मुद मन, नही सूर कृतघाव | नहीं सती तिम मद्यपा, फुनिजी गान सुभाव ॥१७॥ सुत को जन्म विवाहफल, अतिथिदान फल गेह । जन्म सुफल गुरु से पठन, तजियो राग सनेह ।।१७६।। जहां तहां तिय माहिये, जहां तहां सुत होय । एकमातसुत भ्रात बहु, मिले न दुरलभ सोय ||१०|| निज भाई निरगुन भली, परगुनजुत किहि काम | मांगन तरु निरफल जदपि, छाया राख पाम ।।१८१॥ निसि में दीपक चन्द्रमा, दिन में दीपक सूर । सर्व लोक दीपक घरम, कुल दीपक सुत सूर ।।१२।। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ after बुषजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व मी दई सर नहीं, करे रेन दिन सोर | पूत नहीं वह भूत है, महा पाप फल घोर ।। १२३ ।। सुमक एक त सघनवन, जुरत देत जराय | स्यों ही पुत्र पवित्र कुल, कुबुद्धि कलंक लगाय ।। १८४ तिसना तुहि प्रनपति करू, गौरव देत निबार । जाचक वलि के द्वार ||१५|| खुसी होत है लोक | रीत पंडित थोक ॥ १८६॥ | प्रभु प्राय वाचन भये, मिष्ट वचन धन दानतै सम्यग्ज्ञान प्रमान सुनि अगति काठ सरिता उदधि, जीवनतै जमराज | मृग नेननि कामी पुरुष तृपति न होत मिजाज़ ।।१८७।। दारिवजुत हु महत जन, करने लायक काज ॥ सभग हस्ती जदपि, फोरि करत गिरिराज ॥१८८॥ दई होत प्रतिकुल जब उद्यम होत प्रकाज | मूस पिटारो काटियो, गयो सरप करि खाज ॥१८६॥ बाह्य कठिन भीतर नरम, सहजन जन की बान | का बात ||१२|| बाह्य नरम भीतर कठिन, बहुत जगतजन जान ।। १६० ।। चाहे ऋछु हो जा करू, हारे विबुध विचारि । होत बतें हो जाय है, बुद्धि करम अनुसारि ।। ११ ।। जाके सुख में सुख लहैं, विप्र मित्र कुल भ्रांत | ताहीको जीवो सुफल, पिट भर की हुए होगे, सुभट सब, करि करि के उपाय । तिसना खानि प्रगाषि है, क्यों भोजन गुरु प्रवसेस जो ज्ञान हित परोख कारण किर्म, घरमी काल जिवावं जीव कीं, काल करे संहार | भरि न जाय ॥ १६३ ॥ काल सुदाय जगाय है, काल चाल विकराल ।। १६५ ।। काल करा दे मित्रता, काल करादे रार । काल खेप पंडित करें, उलभं निपट गंवार ।।१६६ ।। वैद कौन सांप दर्श दे दिप गया, मेरी कर छुटि गया, बलधन में सिंह न लसें, पंडित ल न मूढमैं है बिन रहित कलाप ॥१६४॥ के लखि पीर । घरि सकै धीर ॥१६७॥ ना कागन में हंस । यखर में न प्रसंस ||१६|| Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई हयगय लोहा काटि पुनि नारी पुरुष पखान बसन रतन भोतनी मैं प्रभ्वर अधिक विमान ॥१३६॥ सत्य दीप बाती क्षमा, सील तेल संजोय । निपट जतनकरि धारिये प्रतिबिंबित सब होय ॥ २०० ॥ परधन परतिय का चिते, संतोषामृत राचि तं सुखिया संसार में, तिनको भय न कदाचि ॥ २०१ || रंक भूपपदवी लहै, भूरत सुत विद्वान | श्रधा पात्रं विपुल धन, गिने तृना ज्यों मान ॥ २०२ ॥ विद्या विपम कुशिष्यको विष कुपथीकों व्याधि | तरुनि विष सम बुद्धको दारि प्रीति प्रसाधि || २०३ || सुचि असुचि नाहि गर्न, गिनं न न्याय अन्याय । पाप पुन्य को ना गिर्न, भूसा मिलै सु खाय ।।२०४।। ; एक भात के सुत भये एक मते नहि कोय । जैसे कांटे और के, बांके, सीधे होय ।। २०५|| देखि उठे आदर करें, पूछे हिल तं बात । जाना जाना ताहिका, नित नवहित सरसाल || २०६ || श्रादि श्रनप मवि धनी, पद पद बघती जाय । सरिता ज्यों सतपुरुष हित, क्यों हूं नाहि श्रथाय ॥२०७॥ गुडि कहना गुडि पूछना देना लेना रीति । खाना आपखवावना षटविधिवधि है प्रीति ॥ २०८ ॥ विद्या मित्र विदेश में धर्म मीत है अन्त । नारि मित्र घर के विषं व्याधि औषधि मित ||२०|| नृपहित जो विरजा हित, पिरजा हित नृपरोष | दोड, सम साधन करें, सो श्रमात्य निरदोष ।। २१० ॥ पाय चपल अधिकार फौं, शत्रु मित्र सौम तोष पोष बिना, ताक है निकट रहे सेवा करे, लपटत होय खुस्याल | I दीन हीन लखते नहीं, प्रमदा लता मुनाल ॥ २१२ ॥ परिवार । धिक्कार ।।२११।। ऐसा भूपति संवत होत आपकी हान | リ परक्रमी कोबिद जिलपि, सेवाविद विद्वान ||२९३॥ २०३ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व पराक्रमी कोविद मिलपि, सेवाविद विद्वान । ऐसे सोहें भुष घर, नहि प्रतिपास पान ।।२१४।। भूप तुष्ट से करत है, इच्छा पूरन मान । ताकै काज कूलीन हू, करत प्रान कुरवान ।।२१५।। बुद्धि पराक्रम वपु बलि, उद्यम साहस पीर । सका माने देव हू, ऐसा लखिके वीर ॥२६६।। रसना राखि मरजादि तू, भोजन बचन प्रमान । प्रति भोगति प्रति बोलतें, मिहदै होहे हान ॥२१७।। वन वसि फल भस्त्रियो भलो, मीनत भली अजान । भलो नहीं बसिबो तहां, जहां मानझी हान ॥२१८।। जहां कछुवापति नहीं, है आदर वा धाम । धोरे दिन रहिये तहां सुखी रहे परिनाम ।।२१६।। उद्यम करिवी तज दियौ, इन्द्री रोकि नाहि । पंथ चलै भूग्ला रहे, ते दुख पाई हिं 11? समय देखिकं बोलना, नातरि माछी मौन । मैना सुक पकर जगत, बुगला पकर कौन ।। १११।। जाका दुरजन क्या करें, छमा हाथ तरबार । विना तिनाकी भूमिपर, पागि बुझं लाग बार 1॥२२२।। पर उपदेस करन निपुन, ते को लखे अनेक । करै समिक बोलें समिक, जे हजार में एक ।।२२३!। मोधत शास्त्र सुबुधि सहित, कुबुधि बोष लहै न । दीप प्रकास कहा करे, जाके अन्धे नैन ।२२४॥ बिगड़े करे प्रमादतें, बिगड़े निपट अज्ञान । बिगड़े पास फुवास में, सुधरै संग सुजान ।।२२५।। वृद्ध भये नारी मरे, पुत्र हाथ धन होत । वधू हाथ भोजन मिलें, जीन लें पर मौत ।।२२६।। दार धात पखान में, नाहिं विराज देव । देवभाव भायें भला, फलं लभ स्वयमेव ।।२२७३। तिसना दुखको खानि है, नंदनवन संतोष । हिसा बंधकी दायिनी, क्रोध कू जमराज ।।२२।। लोभ पापको बाप है, क्रोध कूर अमराज । माया विषकी बैलरी, मान विषम गिरिराज ॥२२६।। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई २०५ विवसाईते दूर क्या, को विदेश विद्वान । कहा भार समरथ को, मिष्ट कई को प्रान ।।२३।। बुलकी सोभा सीत, तन सोहै गुनगान । पढ़िवी सोहै सिधि भय, धन सोहै दै दान ।।२३१।। असंतोषि दुम भ्रष्ट है, संतोषी नुप हान । निरला कुलतिय अधम, मनिका सलज न जान ।।२३२॥ कहा कर मूरख चतुर, जो प्रभुह प्रतिकूल । हरि हल हारे जतनकरि, जरे जवू निरमूल ।।२३३।। खती लखिये प्राप्त उठि, मध्यानै लखि येह । अपरान्ह धन निरखिये, नित सुत ललि करि नेह ।।२३४।। विद्या दियं कुशिष्यकों, कर सुगुरु अपकार । लाख लड़ावो भान जा, खोसि लय अधिकार ।।२३।। ना जाने कुलशीलकाके, न कीज बिएमा । तात मात जात दुःखी, ताहि न रखिये पास ।।२३६।। गनिका जोगी भूमिपति, वानर माहि मंजार । इनत राखं मित्रता, परं प्रान उरमार ॥२३७।। पर पनही भ्रष्टु खीर गो पौषधि बीज प्रहार । ज्यों लाभ त्यो लीजिये, कीजे दुख परिहार ||२३८।। नपति निपुन अन्याय मैं, लोमनिपुन परिधान । चाकर चोरी में निपुन, क्यों न प्रजा की हान ।।२३६।। धन कमाय अन्याय का, वृष दफा थिरता पाय । र है कदा षोडस घरस, तो समूल नस जाय ।।२४०।। गाड़ी तरु गो उदधि वन, कंद कूप गिरिराज । दुरविषमैं नौ जीवका, जीवो करें इलाज ।।२४१।। जात कुल शोमा लई, सो सपूत वर एक । भार भर रोड़ी चरे, गर्दभ भये अनेक ।।२४२।। दुधरहित घंटासहित, गाय मोल क्या पाय । त्यौं मूरख आटोपकार, नाहि सुघर आँ जाय ॥२४॥ कोकिल प्यारी वनत, पति अनुगामि नार । नर बरविद्याजुत सुधर, तप उर क्षमा विचार ।।२४४!! दूरि बसत नर दूत गुन, भूपति देत मिलाय । दांकि दूरि रखि केतकी, बास प्रगट ह जाय ।।२४५।। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व सुसक सासका असन वर, निरजनवन वर दास । दीन बचन कहिवो न वर, जो लौं तनमैं सांस ।। २४६।। एकाक्षरदातार गुरु, जो न गिनं विनज्ञान । सो चंडाल भषको लहै, तथा होमगा स्वान ।।९४७।। सुख दुःस्त्र करता मान है, यो कुबुद्धिवद्धान । करता तेरे कृतकरम, मैट क्यों न अज्ञान ||२४८।। सुख दुःख विद्या प्रायु धन, कुल बल वित्त अधिकार । साय गर्भमें अवतर, देह घरी जिहि बार ॥२४॥ बन रिपु जल प्रगनि गिरि, रुज निद्रा मद मान । इनमै पुन रक्षा कर, नाहीं रक्षक प्रान ॥२५॥ दुराचारि तिय कलहिनी, किंकर कुर कठोर । सरस साय बसिबो सदन, मृत समान दःख घोर ॥२५१।। संपति नरभव ना रहै, रहै दोषगुनचात । रहै जु बनमै बासना, फूल फूल झरि जात ॥२५२।। एक त्यागि कुल राखिये, माम राखि कुल तोरि ।। ग्राम त्यागिवे राजहित, धर्म राख सब छोरि १२५३॥ नहि विद्या नहि मित्रता, नाहीं धन सनमान ।। नहीं न्याय नहिं लाज भय, तजो वास ता थान ॥२५४।। किंकर जी कारज कर, बांधव जो दुःख साथ । नारी जो दारिद सहै, प्रतिपालं सौ नाथ ।।२५५।। नदी नखी गीनिमें, स्पानि नर नारि । बालक पर राजान विंग, बसिये जतन विचार ॥२५६|| कामीको कामिनि मिलन, विभवमाहि रुचिदान । भोजशक्ति भोजन विविध, तप अत्यन्त फल जान ।।२५७।। किकर हुकमी सुत विबुध, तिय अनुगामिनि जास । विभव सदन नहि रोग तन ये ही सुरगनिवास ।।२५८।। पुत्र बहे पितुभक्त जो, पिता यह प्रतिपाल । नारि वहै जो पतिव्रता, मित्र वहे दिल माल ॥२५६।। जो हंसता पानी पिये, चलता खावं खान ।। हूँ बतरावत जात जो, सो सठ ढीट प्रजान ॥२६०।। तेता प्रारंभ ठानिये, जेता तन मै जोर । तेना पांच पमारिय. जेती लांबी सोर ।।२६१।। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई वहते परप्रानन हरे, सहते द:खी पुकार । बहते परधन तिय हर, बिरले चल विचार ||२६२।। कर्म धर्म बिरले निपुन, बिरले धन दातार ! बिरले सत बोले खरे, घिरले परदुख टार ॥२६॥ गिरि गिरि प्रति मानिक नहीं, वन वन चंदन नाहि । उदधि सारिसे साजन, ठोर ठौर ना पाहिं ।।२६४।। परघरवास यिदेसपथ, मुरख मीत मिलाप । जीवनमाहिं दरिद्रता, क्यों न होय संताप ॥२६॥ धाम पराया वस्त्र पर, परसम्या परनारि । गरपरि बसियो अधम ये त्या विबुध बिचारि ॥२६६।। हुन्नर हाथ अनालसी, पढिनो करिवी मीत । सील, पंच निधि ये अखय, सखे रही नजीत ।।२६७।। कष्ट समय रनके समय, दुरभिख पर भय धोर।। दुरजनकृत उतसर्ग में, बच्चे विबुध कर जोर ।।२६८॥ धरम लहै नहिं दुष्ट चित्त लोभी जस किम पाय ।। भागहीन को लाम नहिं नहिं प्रौषधि गत पाय ।।२६६।। दुष्ट मिलत ही साधु जन, नहीं दुष्ट है जाय । चन्दन तरु को सपं लगि, विष नहीं देत बनाया ।।२७०। सोक हरत है बुद्धि को, सोक हरत है धीर ।। सोक हरत है धर्म को सोक न कीजे वीर ॥२७१।। मस्व सुपत गज मस्त ढिग, नर भीतर रनवास । प्रथम व्यायली गाय दीग, गये प्रान का नास ।।२७२।। भूपति विसती पाहुना, जाचक बड़ जमराज । में पर दुख जोव नहीं, कीयो चाहे काय ॥२७३।। मिनल जनम लेना किया, धर्म न अर्थ न काम ।। सो कुच ग्रजके फठ में, उपजे गये निकाम ।।२७४।। सरता नहि करता रहौ, अर्थ धर्म पर काम । तिन तड़का हूँ वटि रह्या, चितको प्रातम राम २७५।। को स्वामी मम मित्र को, कहा देश में रीत । खरच क्रिता प्रामद किती, सदा चितवी मीत ।।२७६।। वमन करत कफ मिटें, मरदन मेटै बात । स्नान किये से पित मिटे, संघन से जुर जात ।।२७७।। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व कोढ़ मांस वृत जुरविष, सूल हिदल यो धार । द्रग रोगी मथुन तजी, नवी धान प्रतिसार ।। ६७८ | अनदाता साता विपत, हितदाता गुरुजान । श्राप पिता फुनि धायपति, पच पिता पहिचान ।।२७६।। गुररानी नृपकी तिया, बहुरि मित्रकी जोय । पतिनी-मा निजमातजुत, मात पांच विधि होय ।२८०।। धसन छेद ताड़न तपन, सुबरनकी पहिचान । दयासील श्रू त तप गुननि, जान्या जात सुजान ।।२१॥ जम्प होम पूजन क्रिया, वेदत्तत्ववद्धान । करन रनमें नि, दुज पुरीत गणवान ।।२८२।। भली बुरी चितमें बसस, निरखत ले उर धार । सोमवदन वक्ता चतुर दुत स्वामिहितकार ॥२३॥ याहीत सुकुलीनता, भूप करें अधिकार । प्रावि मध्य अवसानमें, करते नाहिं विकार ॥२४॥ दुष्ट तियाका पोषणा, भरसकों समझाय । वरीत कारज पर, कौन नाहि दुःख पाय ।।२८५।। दारिदमै दुरविसनम, दुरभित फूनि रिपुघात । राजद्वार समसानमैं, साथ रहै सौ नात ॥२६॥ दारिदमै दुरविसनमें, दुरभिख फुनि रिपुवात । राजद्वार समसानमै, साथ रहै सो भ्रात ।।२७।। सपं दुष्ट जन दो बुरं, तामै दुष्ट बिसेख । दुष्ट जतनका लेख नहिं, सर्प जतनका लेख ।।२८८।। नाहीं घन भूषन वसन, पंडित जदपि कुरुप । सुधर सभामै यों लसैं, जैसे राजत भूप ।।२८६।। स्नान दान तीरथ किये, केवल पुन्य उपाय । एक पिताकी को भक्तित, तीन वर्ग मिलि जाय ।।२६०।। जो कुदेव को पुजिकै, चाहे शुभ का मेल । सौ बालूकों पैलिक, कादमा पाहै तेल ।।२९१ ।। धिक विधवा भूषन सजै वृद्ध रसिक धिक होय । धिक् जोगी भोगी रहै, सुत धिक पड़े न काय ।। २६२।। नारी धनि जो सीलजुत, पति धनि रति निजनार । नीति निपुन नुपति पनि, संपत्ति धनि दातार ।।२६३।। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई २०६ रसना रम्नि मरजाद तू' भोगते बोलत बोल । बहु भोजन बड़ बोलत परिटै, सिरपं धोल ॥२६४।। जो चाहो अपना भला, तो न सतावो कोय । नृपर्कै दुरसीसते, रोग सौग भय होय ।।२६५।। हिसक जै टुपि बन बम, हरि अहि जीव भयान । {फिर) बैल हय गरघवा, गऊ मंस सुखदान ।।२६६।। वर प्रोति प्रबकी करि, परभषमै मिलि जाय । निबल सबल हैं एकसं, दई करत है न्याय ॥२६७।। संस्कार जिनका भला, ऊचे कुल के पूत । तं सुनिक सुलट जलद, जसे कन्या मूत ॥२६८11 पहले चौकस ना करी, बढ़त विसनमंझार । रंग मजीठ छूट नहीं, कीये जतन हजार ॥२९६।। जो दुरवलको पोषि हैं, दुखते देत बचाय । ताते नप घर जनम ले, सीधी संपत्ति पाय ।।३००॥ इति सुभाषितनीति अधिकार xxx x x x x x x पन्तिम भाग विराग भावना गुरु बिन ज्ञान मिल नहीं, फरी अतन किन कोय । विना सिखाये मिनख तो, नाहिं तिर सके तोय ।।६४४।। जो पुस्तक पढ़ि सौख है, गुरुकौं पूछ नाहि । सो सोभा नाहिं सहै, ज्यौं नफ हंसामाहि ॥६४५।। गुरनुकूल बाल महि, चाल सुते सूभाय । सो नहिं पार्य थानों, भववनमै भरमाय ।।६४६।। फ्लेश मिटै पानंद बढ़, लामै सुगम उपाय ! गुरुकौं पूछिर चालता, सहब धान मिल जाय ॥६४७।। तन मन धन सुख संपदा, गुरुपं दारु बार । भव समुद्रतै डूबा, गुरु ही काढनहार ॥६४।। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० परिसर बुधजन : परिव एवं प्रतिस्प स्वारण के सब जन हितू, धिन स्वारथ सज देत । नीच ऊंच निरस न गुरु, जीवजासते हैत ।।६४६।। ब्यात परै हित करत हैं, तात मात मुत भ्रात । सदा सर्वदा हित कर गुरके मुखकी बात ।।६५०॥ गुरु समान संसारमैं, मात पिता सुत नाहि । गुरु तो तार सर्वथा, ए बोरें भवमाहिं ।। ६५१॥ गुरु उपदेश लहै बिना, प्राप कुशल ह्र जात । तै प्रजान क्यों टारि है, करी चतुर की बात ५६५२।। जहां तहां मिलि जात है, संपत्ति तिर, सुत भ्रात । बड़े भागते अति कठिन, सुगुरु कहीं मिल जात ॥६५३॥ पुस्तक मांत्री इकगुनी, गुरुमुख गुनि हजार । तात बड़े तलाशत, सुनिजे पचन उचार ॥६५४॥ गुरु वानी अमृत झरत, पी लीनी छिनमाहि । प्रमर भया ततखिन सुती, फिर बुख पावै नाहिं ।।६५५।। भली भई नरगति, मिली सुन सुगुरुकै बैन । दाह मिट्या उरका पर्व, पाय लई चित चैन ।।६५६।। कोघ वपन गुरुका जदपि, तदपि सुर्खाकरि धाम ।। जैसे भानु दोपहर का, सोतलता परिनाम ।। ६५ ।। परमारथका गुरु हितू, स्वारथका संसार । सब मिलि मोह बढ़ात है, सुत लिय फिकर यार ।।६५८।। तीरथ तीरथ क्यों फिर, तीरथ तो घटमाहिं । जै यिरहए सो तिर गये, प्रथिर तीरथ है नाहिं ।। ६५६।। फोन देत है मनुष भव, कौन देत है राज । या पहचाने बिना, अशा करता इलाज ॥६६॥ प्रात धर्म फुनि अर्परुचि, काम करै निसि सेव । वयं निरंतर मोक्ष मन, सौ पुरुष मानुष नहिं देव !!६६९।। संतोषामृत पान करि, जे हैं समतावान | तिनके सुख सम धुकों, अनंत भाग, नहिं जान ॥६६॥ लोभ मूल है पापका, भोग मलि है माधि । हेत जु मूल कलेशको, तिहूं त्यागि सुख साधि ।।६६३॥ हिंसातै वं पातकी, पातकते नरकाम । नरक निकसिकै पातकी संतति कठिन मिटाम ।।६६४।। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई हिसकको बैरी जगत, कोई न करें सहाय । बदन चिलति हर कोई अपने भाव बिगाड़ निहवें लागत पाप बचाय ।। ६६५ ।। , पर अकाज तो हो न हो, होत जितो पाप चितचासों, जीव भारंभ उद्यमको करत, ताल धोरी जोय ।। ६६७।। कलंकी आप ॥ ६६६ ॥ सत्ताए होम ये हिंसा के भेद है, चोर चुगल विभिचार क्रोध कपट मद लोभ फुनि, प्रारंभ प्रसत उचार ॥६६६ ॥ चोर डरै निद्रा तर्ज कर है खोट उपाय । नरक जाये ।। ६६६ ॥ नृप मारे मारे बनी, परभी छान पर - चुगली करें, उज्जल से तो बुगला सारिखे, पर अकाज लाज धर्म भय ना करें, कामी मैन भानजी नीचकुल, इनके नाहि विवेक ॥१६७१ ।। न श्राप बिगार । कुकर एक । नीति नीति लखे नहि, लख पर जाएँ मापना जरी, क्रोष प्रगतिको भार ।।६७२ ॥ गरबीले मनमाहि | मारयमें नाहि ।। ६७३ || कुल व्योहारकों तज दिया, श्रवसि परेंगे कृप से मेष बनाय । करि खांय || ६७० ॥ जे मन में राख फेर । तन सूधे सूधे वचन प्रगति ढकी तो क्या हुवा, जारत करत न बेर ।। ६७४ ।। बाहिर चुगि शुक्र उड़ गये, ते ती फिर खुस्पाल | अति लालच भीतर घसे, ते शुरू उल जाल ।। ६७५ || प्रारंभ बिन जीवन नहीं, आरंभमाहि पाप तात प्रति तजि अलपसों को बिना विलाप ।। ६७६ ॥ प्रसत वैन नहि बोलिये, तातें होत बिगार वे असत्य नह सत्य है, जाते हॅ उपकार ||६७७ || क्रोधि लोभी कामी मदी, चार सूझते प्रंध । इनकी संगति छोड़िये, नहि कीजै सनबंध || ६७८ || झऊ जुलम जालिम जबर, जलद जंगमैं जान । जक न परं जगमें प्रजस, जूम्रा जहर समान ।। ६७२ ।। जार्को छोबत चतुर नर, डरें करें है न्हान | इसा मासका ग्रासतें, क्यों नहि करो गिलान ।। ६८० ।। २११ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व मदिरात मदमत्त हूं, मदत होत प्रज्ञान । ज्ञान विना सुत मातकौं, कहै भामिनी भान ॥६८१।। गान तान ले मानके, हरे ज्ञान धन प्रान । सुरापान प्लखानों, गनिका रचत कुध्यान ॥६८२।। तिन ला बाहै न धन, नागे कांगे जान । नाहक क्यों मार इन्हें सब जिय ग्राम समान ॥६८३।। नप हर मह जनम, खंडे धर्म ज्ञान । कुल लाज भाजै हितू, विसन दुखांकी खान ।।६८४।। बड़े सीख' वकबौं करें, विसनी ले न विवेक । जंस वासन चीकना, बूद न लाग एक ॥६५॥ मार लोभ पुचकारत, विसनी तर्ज न फैल । से टट्ट अटकला, चले न सीधी गैस ।।६८६।। उपरले मनत करें, दिसनी अन कुलकाज । बब्बा सुरत भूल नज्यौं, काज करत रिखि राज 11६८७।। विसन हलाहलत अधिक, क्योंकर सेल प्रज्ञान । यिसन बिगाडै दोय भव, जहर हरै अब प्रान ||८|| नरभव कारन मुक्त झा, चाहत इन्द्र फनिद । ताको खोवत विसनमै, सो निदन में निंद ।।६।। कोनै पाप पहारसे, कोटि जनममें भूर । अपना अनुभव बनसम, कर डारै धकधूर ॥६९०।। हितकरनी धरनी सुजस, मयहरनी सुखकार । सरनी भवदधिको दया, बरनी षटमत सार ।। ६६१।। दया करत सौतास सम, गुरु नुप भात समान । दयारहित ज हिंसकी, हरि महि अगनि प्रमान ।। ६६२।। पंथ सनातन चालजे, कहनं हितमित बैन । अपना इष्ट न छोड़ने, सह्तं चैन प्रचन ।।६६३।। जैसो गाढ़ी विसन में तसो ब्रह्म सौं होय । जनम जनम के अप किये पल मैं नाखं घोय ॥६६॥ इति विराग भावना Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन सतसई कवि प्रशस्ति मधि नायक सिरपंच ज्यों जंपुर मधिद्वार | नृप जयसिंह सुरिंद्र तहृां पिरजाको हितकार ।। ६६५॥ कोनें बुधजन सास, सुगन सुभाषित हैर । सुनत पढ़त समझैं सरव, हरे कुबुद्धिका फेर ६६६।। संवत ठारास प्रसी, एक वरस घाट | जंठ कृष्ण रवि घष्टमी, हुब सतसई पाठ ।।६६७।। पुन्य हरन रिपु-कष्टक, पुन्य हरत रुज व्याधि । पुन्य करत संसार सुख, पुन्य निरंतर साषि ।।६६८ ।। भूख सही दारिद सही सही लोक अपकार | निद काम तुम मति करो, महुँ ग्रंथको सार ।।६६६॥ ग्राम नगर गढ़ देशमै राज प्रजा के गैह्र । पुन्य घरम होवौ करें, मंगल रहो श्रमुँह ॥ ७०० ॥ ना काहूकी प्रेरना, ना काहू को भास । अपनी मति सीखी करन, वरन्यो चरनविलास ||७०१ । इति बुधजन सतसई समाप्त २१३ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका संधर्भ ग्रन्थ १. अपभ्रंश भाषा र साहित्य की २७ पुरातत्व निबंधावली । २५. बनारसीदास | शोध प्रवृत्तियां | २. प्रनेकान्त । २६. बारह भावना | ३. आदीश्वर फागु । ३०. बुधजन -बिलास । ४. आधुनिक हिन्दी कविता की ३१. बुधजन सतसई । भूमिका | ५. इष्ट छतीसी । ६. उत्तरी भारत की संत परंपरा । ७. कृष्ण जगावन चरित्र । ८. गुरु गोपालदास बरेया स्मृति ग्रंथ । ९. छहढाला। १०. जिनवाणी | ११. जिनोपकार स्मरण स्तोत्र ! १२. जैन साहित्य का इतिहास | १३. टोडरमल व्यक्तित्व एवं कृतित्व १४. तत्वार्थ बोध | १५. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भाग-४ १६. तुलसी । १७. दोघबावनी । १८. नित्य पूजन पाठ संग्रह। १६. नंदीश्वर जयमाला | २०. पदावली । २१. पद संग्रह । २२. परमात्म प्रकाश २३. प्रवचन निर्देशिका | २४. पंचास्तिकाय । २५. प्राचीन हिन्दी जैन कवि । २६. प्राचीन हिन्दी नीतिकाव्य | ३२. भारतवर्ष का इतिहास | ३३. भारतीय इतिहास: एक दृष्टि । ३४. भाषाशास्त्र तथा हिन्दी की रूपरेखा । ३५. मध्यकालीन कवि और उनका काव्य । ३६. मध्यपहाड़ी का भाषा शास्त्रीय अध्ययन । ३७. मोक्षमार्ग प्रकाशक । ३८. योगसार भाषा । ३६. रामचरित मानस । ४०. वर्णी वाणी । ४१. ४२. विद्यापति । मानपुरा । सुचनिका ॥ ४३. विमल जिनेश्वर की स्तुति । ४४. वंदना जखड़ी 1 ४५. संतसुधा सार । ४६. संस्कृत साहित्य के विकास में जैन कवियों का योगदान | ४७. हिन्दी पद संग्रह । ४८. हिन्दी उद्भव विकास और रूप । ४६. हिन्दी भाषा । ५०. हिन्दी जैन भक्ति कबि 1 काष्य और Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ अनुक्रमणिका ५१. हिन्दी जन साहित्य का संक्षिप्त ५६. हितैषी (पत्रिका) इतिहास । ५७. हिन्दी में नीति काग्य का विकास । ५२. हिन्दी भाषा की रूपरेखा। ५८. हिन्दी साहित्य का इतिहास तृ. ५३. हिन्दी जन साहित्य परिशीला मा संस्करण। ५६. हिन्दी साहित्य का पहद् इतिहाप्त । ५४. हिन्दी चनिया और उनका उच्चा-६०, हिन्दी साहित्य प्रथम खंड । रण। ६१. हिन्दी साहित्य । ५५. हिन्दी नीतिकाव्य । ६२. हिन्दी साहित्य का प्रभाव । पत्र-पत्रिकाएँ १. अहिंसावाणी २. अनेकान्त ३. जिनवाणी ४, जन संदेश शोषांक ५. विद्या भास्कर ६, वीर पाणी ७ सन्मति संदेश ८. हितैषी ६. हिन्दुस्तानी मासिक बीर सेवा मंदिर, दरियागंज दिल्ली दिल्ली जयपुर दिल्ली इलाहाबाद जयपुर दिल्ली जयपुर इलाहाबाद Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व अनुक्रमणिका प्रन्थ एवं कवि (हिन्दी) प्रा १. श्रा, ने. उपाध्ये २०. नगेन्द्र २. मानन्द प्रसाद दीक्षित संपादक २१. नरेन्द्र भानावत ३. आर्यिका ज्ञानमती २२. नाथूलाल शास्त्री ४. उदयनारायण तिवारी (अनुवादक) २३. नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य २४. नाथूरामजी प्रेमी ५. कस्तूरचंद कासलीवाल ६. काका कालेलकर २५. परमानन्द शास्त्री ७. कामता प्रसाद जैन २६. परशुरामः चतुर्वेदी ८. फैशनी प्रसाद चौरसिया २७. पांडेय शम्भुनाथ ६. कलाशचंद सिखांत शास्त्री २६. प्रेमसागर जैन १०. गणेश वणीं ११. गोविन्द चातक २६. फूलचन्द सिखांत शास्त्री १२. चटर्जी ६०. बनारसीदास ३१. बुधजन ३२. ब्रह्मगुलाल १३. जगदीश प्रसाद १४. ज्योति प्रसाद ३३, भट्टारक ज्ञानभूषण ३४. भोलानाथ तिवारी भूधरदास-२ १५. टोडरमलजी १६ तुलसीदास ३५. माता प्रसाद गुप्त ३६. मंगतराय १७. देवेन्द्रकुमार शास्त्री १८. दौलतराम १६. घाततराम ३७. राजकुमार जैन सास्त्री ३८. राजनारायण शर्मा Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ४६. विश्वेश्वर प्रसाद ३६, राजकुमारी मिश्र ४०. रामचन्द्र शुक्ल ४१, रामस्वरुप रसिकेश ४२. रवीन्द्र कुमार जैन ४३. राहुल सांस्कृत्यायन ४६. श्याम सुन्दर दास ५०. सुखदेव मिश्न ४४. डा. लालबहादुर शास्त्री ४५. विद्यापति ४६. बियोगीहरि ४७. वासुदेव शारण अग्रवाल ५१. हजारी प्रसाद द्विवेदी ५२. हनुमान प्रसाद शर्मा ५३, हीरालाल मिजास शास्त्री ५४. हुकमचन्द भारिल्ल संस्कृत संसात १. माशापर २. उमास्वामी ३. जिनसेन ४. पारिणनि ५. पूज्यपाद ६. राजमल ७. वादीमसिंह ५. वीरनन्दि ६. ममन्त भद्र अनगार धर्मासृत तत्वार्थसूत्र महापुराण सिद्धांत कौमुदी, मष्टाध्यायी सर्वार्थसिद्धि पंचाध्यायी क्षेत्र-चूड़ामणि चंद्र प्रभू चरित्र रनकरण्ड थावकाचार प्राकृत प्राकृत १. मुन्दकुन्द २. नेमिचंद्र प्रपत्र १. पेवसेन मुनि २. रामसिंह मुनि रयणसार द्रव्य संग्रह अपना सावय पम्म पोहा दोहा पाह Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व अंग्रेजी अंग्रेजी 1. जार्ज ए ग्रियर्सन लिग्विस्टिक सर्व प्राफ इण्डिया -. 2. जे. सी. पाब्ज दी मीनिंग प्रॉफ कल्चर 3. कर्नल टॉड राजस्थान का इतिहास 4. रोबर्ट ए. हॉल इन्ट्रोडक्टरी लिग्विस्टिक्स 5. प्र-केम्ब्रिज युनिवर्सिटी ए हिस्ट्री ऑफ इण्डियन डॉ० दास एण्ड गुप्त फिलासफी बुधजन का उल्लेख-विद्वानों की दृष्टि में 1. दुषजन सतसई-पं. नाथूराम प्रेमी, हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर, बम्बई / 2. हिन्दी में नीतिकाव्य का विकास पृ. 550 डॉ. रामस्वरूप, दिल्ली पुस्तक सदन दिल्ली। 3. भारतीय इतिहास एक दृष्टि पु. 562-63 डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन / 4. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, प्रथम संस्करण पृ. 167, डॉ. कामता प्रसाद जैन, भारतीय ज्ञानपीठ काशी प्रकाशन / 5. प्रध्यात्म पदावली पृ. 111 डॉ. राजकुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन तृतीय संस्करण 1665 / 6. तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परंपरा भाग-४ पृ. 288 डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री अ. भा. दि. जैन विद्वत परिषद, सागर /