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कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
करता हुआ लोक के अन्त में इसलिये ठहर जाता है कि लोक के बाहर गमन-निमित्तक धर्मद्रव्य का प्रभाव है।
प्रात्म-स्वरूप को यथार्थ जानकारी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवम सम्माचारित्र द्वारा बतलाई गई है।
सम्यग्दर्शन-प्रात्म विकास की दृष्टि से किया गया, जीव, अजीय, प्राधव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष स्वरूप तत्वों का यथार्थ दर्शन सम्यग्दर्शन है ।
इसकी दूसरी व्याख्या है-सच्चे देव, शास्त्र, गुरू का तीन मूढ़ताओं और पाठ मदों से रहित और आठ अंग सहित यथार्थ श्रदान करना सम्यग्दर्शन है।
इसकी तीसरी व्याख्या के अनुसार स्वानुभूतिमयी श्रदा को सम्यग्दर्शन कहा है।
सम्यग्दर्शन की उक्त तीनों व्याख्यानों में शाब्दिक अन्तर होते हुए भी अर्थतः कोई अन्तर नहीं है। श्रात्म-जागरण की वेला में साधक अपने प्रात्मा से सम्बद्ध अजीब तत्व की जानकारी करता है और इसके बाद उसके नन्ध के कारण तथा बच्चन मुक्ति के कारणों को हृदयंगम कर अन्त में विशुद्ध मात्मानुभूति को ही उपादेय मानकर अपनी रुचि प्रात्म-स्वभाव में ही केन्द्रित कर लेता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन की तत्वार्थ श्रद्धान रूप प्रथम व्याख्या स्वानुभूतिमयी श्रद्धा से बाह्य नहीं ठहरती ।
संपूर्ण जैन साहित्य अध्यात्म प्रधान साहित्य है । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, प्रान्तीय भाषाए और हिन्दी में जो कुछ भी जैन साहित्य भाज प्राप्त है उस सबका मूल स्वर अध्यात्म है। इस तथ्य को ध्यान में रख कर ही हम जैन साहित्यकारों की परंपरा का अध्ययन संपूर्ण रूपेण कर सकेंगे।
१. धर्मास्तिकाया भावात्' उमास्वामी : सत्वार्थसूत्रः १००% २. तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् उमास्वामी : तस्वार्थ सूत्र १-२ ३. श्रद्धानं परमार्थानामाप्तानमतपो मताम् ।
त्रिभुकापोढमष्टांग, सम्यग्दर्शनमस्मयम् ।। पाचार्य समन्तभद्र : रश्नकर श्रावकाचार, १-३, सरल जैन य भंडार, जबलपुर। ४. तस्माच्छ खावयः सर्वे, सम्यातवस्वानुभूति मत् ।
ततो स्ति यौगिकी दि :, श्रद्धासम्यक्त्व लक्षणम् ।।
अवष्य विरुद्धस्यात् प्रबतं स्वात्मानुभूति मत् ॥ पंडित राजमल्ल : पंचाध्यायी २,४१६-४२३ ।। ५. डॉ० राजकुमार : अध्यात्म पदावली, पृ० ५६, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन ।