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कृतियों का भाषा विषयक एवं साहित्यिक अध्ययन
संपूर्ण जन साहित्य विषय की दृष्टि से चार भागों में विभक्त है-प्रथमानुयोग, परमानुसोग, करगानुयोग यौनव्यानुयोग ।
प्रथमानुयोग में- महापुरुषों के जीवन चरित्र और उन्हीं की लोकोपकारी घटनाए।
चरणानुयोग में आधार और चरित्र सम्बन्धी चर्चाए । करणानुयोग में लोक और नरक प्रादि गतियों का वर्णन ।
द्रव्यानुयोग में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, भाकाश पौर काल इस षट् द्रव्यों का वर्णन ।
जैन कवियों या लेग्य कों वा दष्टिकोणा धार्मिक होते हुए भी काव्य कोमल प्रदर्शित करने में वे किगी से पीछे नहीं हैं। ऐसे अनेक स्थल है जहां हमें एक प्रत्यन्त उच्चकोटि के सरल और सरस काव्य के दर्शन होते हैं। इनके काम में लोक रुचि के अनुकूल पर्याप्त सामग्री प्राप्त होती है । सरलता और सरसता को एक साथ प्रस्तुत करने का प्रयत्न प्रशंसनीय है ।
कधिधर बुधजन ने श्रावक धर्म का विषाद वर्णन किया है। उन्होंने थापक धर्म के ग्रहण की पात्रता बतलाकर ५ अगुव्रत, ३ मुरगपत, ४ शिक्षा यत तथा सल्लेखना के प्राचरण को संपूर्ण सागार धर्म बतलाया है । उक्त १२ प्रकार के धर्म को पाक्षिक श्रावक अभ्यास रूप से, नेगिसक ग्रावरण रूप से और साधक प्रात्मलीन होकर पालता है । पाठ मूल गुणों का धारण, सप्त व्यसनों का त्याग, देव पूजा, गुरू उपासना, पात्रदान प्रादि क्रियाओं का आचरण करना पाक्षिक प्राधार है । धर्म का मूल अहिंसा और पाप का मूल हिंसा है। अहिंसा का पालन करने के लिये मद्य, मांस, मधु और अभक्ष्य का त्याग अपेक्षित है । रात्रि भोजन त्याग भी हिंसा के अन्तर्गत है । गृह-विरत श्रावक प्रारंभी हिसा का त्याग करता है और गृहरत धावक संकल्पी हिंसा का । सत्माणुनत प्रादि का धारण करना भी यावश्यक है। श्रावक मुगावत और शिवावतों का पालन करता हुप्रा अपनी दिनचर्या को भी परिमाजित करता है । व एकादश प्रतिमाओं का पालन करता हुआ अन्त में सहलेखना द्वारा प्राणों का विसर्जन कर सद्गति लाभ करता है । इस प्रकार कवि ने अपनी रचनाओं में श्रावक की चर्यायों का वर्णन किया है ।
कवि ने प्रात्मा के अस्तित्म प्रादि का कथन करते हुए प्रात्म देव दर्शन निनन्य गुरू सेवा, जिनवाणी का स्वाध्याय इन्द्रिय-दमन प्रादि क्रियानों को प्रारमस्वरूप की प्राप्ति का साधन बताया है। सम्यग्दृष्टि ही आस्तिक होता है और प्रास्तिक ही पूर्पज्ञानी और परमपद का स्वामी होता है । नास्तिक को संसार में ही भ्रमण करना पड़ता है। उन्होंने भगवान महावीर के उस उपदेश का प्रतिपादन