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कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
जिस प्रकार वेश्या अत्यधिक प्यार तो जताती है परन्तु उसकी रुचि पुरुष विशेष में नहीं है अथवा जिस प्रकार घाय अन्य के बालक से लाड़-प्यार तो करती है परन्तु उसे पराया हो समझती है उसी प्रकार अविरत सम्यग्दृष्टि जीव कर्मोदय वशः व् भोग भोगते हुए भी उसमें श्रानन्दित नहीं होता ||२८||
पद्य – जहंउदम मोह चेष्टित प्रभाव, नहि होय रंच
-
तहूं करें मंद खोटी कवाय, घर में उदास है,
त्यागभाव |
अथिर ध्याय ।। ३-६-२ε अर्थ-जब तक चारित्र मोह के उदय का प्रभाव जीव पर बना रहता है तब तक उस जीव के स्याग किंचित् भी नहीं होता । वह केवल अनन्तानुबन्धी कषाय तथा मिथ्यात्व भाव को मन्द करता है, घर में भी उदास भाव से रहता है और संसार के ( प ) है गरम
को
पद्य - सब की रक्षा युत न्यायनीति, जिन शासन गुरु की टु प्रतीति । बहुरले श्रद्ध - पुद्गल प्रमाण, अन्तर्मुहुर्त ले परम-धाम ॥
३-१०-२०
,
अर्थ – उस अञ्जिरत सम्यग्दृष्टि जीव की परिणति समस्त प्राणियों की रक्षा करने, न्याय-नीति पर चलने, सच्चे देव शास्त्र, गुरु की दृढ़ प्रतीति धारण करने रूप हो जाती है और तब उसे अधिक से अधिक अर्द्ध पुद्गल परावर्तकाल तक ही संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है । पुन: वह (अपने ज्ञान और वैराग्य के बरन से मुनिपद धारण करते ही ) धन्तर्मुहूर्त में मोक्ष स्थान को प्राप्त कर लेता है ||३०||
1
पद्य - वे धन्य जीव, घनिभाग सोय, ताके ऐसी परतीति जोम
नाकी महिमा है स्वर्गलोय "बुधजन" भाषे मोतें न होय ॥। ३-११-३१ प्रथ-वे जीव धन्य हैं, उनका भाग्य भी धन्य है जिनकी अपनी आत्मा की प्रखंड शक्ति पर ऐसी दृढ़ प्रतीति हो जाती है। ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव की इस दृढ़ श्रद्धा की प्रशंसा (इन्द्र) स्वर्गों में करता है । कविवर "बुधजन" कहते हैं कि उस अविरत सम्यग्दृष्टि की महिमा का वर्णन मुझसे नहीं हो सकता ||३१||
चौथी ढाल (सोरठा छंद)
पद्य - लग्यो श्रीतम सूर, दूर भयो मिथ्यात-तम ।
अब प्रगटे गुनभूर, तिनमें कछु इक कढ़त हूँ |
४-१-३२
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अर्थ – (सम्यग्दृष्टि के श्रात्मा रूपी) सूर्य का उदय होने पर मिध्यात्व रूपी अन्धकार का नाश हो गया है और अनेक गुण प्रगट हो गये हैं । उन गुणों में से कुछ गुणों का वर्णन करता हूँ ||३२||
निः संकित व निःको किस अंग पद्य - - कामन में नाहि, तत्वारथ सरधान में । निरवया चिलमाहि, परमारथ में रत रहे ||
४-२-३३