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छह बाला
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मे, मेरी ज्ञान-गक्ति को आच्छादित कर लिया है पर (नष्ट नहीं किया है) । शुद्ध निश्चय-नय से मैं (मात्र शासा-इष्टा ही है, समय सार हूँ) और व्यवहार नय की मपेक्षा में अनेक भेद बाला है। उन भेदों का कभी पम्त नहीं हो सकता ॥२३॥ पद्य–मानुष-सुर-नारक-पशु पर्याय, शिशु-युवा-वृद्ध-बहुरूप काय ।
धनवाम-दरिद्री-दास-राव, ये तो विडंबना मुझ न भाव ॥ ३-४-२४ अर्थ---मनुष्य, देव, नरक, तिर्यच पर्यायों कर प्राप्त, बाल्यकाल, युवाकाल और वृद्धकाल आदि शरीर सम्बन्धी भनेक पर्यायों की प्राप्ति तथा धनाढ्यता, दरिद्रता, सेवकपना, स्वामीपना ये समस्त पर्याय एक प्रकार की विडंबना है, पुदगल कर्म जनित हैं और इनमें मेरी रुचि क्रिषिद भी नहीं है ॥२४॥ पद्म- रस फरस गंध वरनादि नाम, मेरे नाहीं मैं जान-धाम ।
हू एक रूप नहिं होत और, मुझ में प्रतिबिम्बित सकलठौर ॥ ३-५-२५ अर्थ-रस, स्पर्श, गन्ध, वर्ण अादि पुद्गल के हैं, मेरे नहीं हैं। में तो मात्र ज्ञान-शरीरी हूं (ज्ञान का पुज) हूँ। मैं प्रखंड, एकरूप है, अन्य रूप में नहीं है। संसार के समस्त पदार्थ मेरे ज्ञान-स्वभाव में झसकते हैं ॥२५॥ पश्चन्तन पुलकित, उर हर्षित सदीव,ज्यों भई रक धर रिधि अतीव ।
जब प्रवल अप्रत्याख्यानथाय, तब चित परगति ऐसी उपाय ।। ३-६.२६ अर्थ-(उपर्युक्त चितवन के फलस्वरूप) शरीर पुलकित हो जाता है और हृदय निरंतर हर्षमय हो उठता है जैसे कि जन्मत: दरिद्र के घर में महाधि प्रगट हो गई हो । इस प्रकार सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाने पर भी जब अप्रत्याख्यानावग्णा कषाय का तीन उदय रहता है तब पित्त की परिणति नीचे लिखे अनुसार बनती है। ।२६॥ पद्य–सो सुनो भविक चित्तधारिकान, वरनत हूं ताको विधि-विधान |
सब कर काज घर माहि बास, ज्यों भिन्न कमल अल में निवास ॥३-७-२७
अर्थ-उस सम्यग्दष्टि जीव की मनोदशा के विधि विधान का वर्णन कर रहा हूं । हे भव्यजन ! (तुम उसे मन और कान लगाकर सुनो यपि) (मविरत सम्यग्दृष्टि जीव) गृहस्थी में रहता है, घर के सम्पूर्ण कार्य भी करता है तथापि उसकी परिणति जल से भिन्न कमल की भांति (अलिप्त) ही रहती है ।।२७॥ पद्म-ज्यों सती प्रग माहीं सिंगार, अति करत प्यार ज्यों नगर नारि ।
ज्यों धाय लड़ाबत मान बाल, त्यों भोग करत नाहीं स्तुशाल ॥३-८-२५ अर्थ-जिस प्रकार (पति की चिता पर आरूढ़ होने वाली) सती स्त्री अपने शरीर का 'गार करती है परन्तु उस शूगार में उसकी रूचि नहीं है, अथवा